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क्षपणासार
[गाथा ३४६-५० मत उनके कषायपाहुड़ के चूणिसूत्रमें प्रतिपादित है, किन्तु षट्खण्डागमके कर्ता श्री पुष्पदन्त-भूतबलीका यह मत नही है।'
अब द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसे सासादन प्राप्त जीवके मरणका कथन करते हुए उस सासादनगुणस्थानवी जीवका अन्य गतित्रयमें मरण नहीं होनेके कारणका निर्देश करते हैं
जदि मरदि सासणो सो णिश्यतिरिक्खं णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥३४६।। णरतिरियक्खणराउ गसत्तो सक्कोण मोहमुवसमिदु । तम्हा तिसुवि गदीसु ण तस्स उप्पज्जणं हादि ॥३५०।।
अर्थः--उपशमोरिणसे उतरा हुआ जो सासादन जीव है वह आयु नाशसे मरण करे तो नरक, तिर्यच व मनुष्यगतिको प्राप्त नही होता नियमसे देवगतिको ही प्राप्त होता है। इसप्रकार उपशमश्रणोसे उतरनेवाले जीवके सासादनगुणस्थानकी प्राप्ति और उसके मरण होनेका विशेष कथन कषायप्राभृतग्रन्थके चूर्णिसूत्रोमे यतिवृषभाचार्यने प्रतिपादित किया है उसीके अनुसार यहा कथन किया गया है।
बध्यमान नरकायु, तिथंचायु और मनुष्यायुके सत्त्ववाले मनुष्यके मोहनीयकर्म का उपशम होना शक्य नहीं है इसलिए इन तीन गतियोमे उसका उत्पाद नही होता।
विशेषार्थः-उपशमणिसे गिरनेवाला जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो कर मरता है तो नरकगति, तिर्यचगति अथवा मनुष्यगतिको नही प्राप्त कर सकता, क्योकि ऐसा नियम है कि नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इन तीनो आयुमेसे किसी भी एक आयुको बांधनेवाला मनुष्य अणुव्रत-महाव्रत ग्रहण तथा कषायोका उपशम करनेमे समर्थ नहीं हो सकता। इसकारण उपशमश्रोणिसे उतरकर सासादनगुण१ "उवसमसेढोदो प्रोदिण्णाण सासणगमणाभावादो । त वि कुदो रणव्वदे ? एदम्हादो चेव भूदबली
वयणादो। (घ० पु० ५ पृ० ११ ) २ भासाण पुणगदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसदि । रिणयमा देवगदि
गच्छदि । ( क पा सुत्त पृ ७२७ सूत्र ५४५ ) ३ "अण्णुव्वदमहव्वदाइ ण लहइ देवाउगं मोत्त " ( गो क गा ३३४ ), गो जी. गा ६५३;
घ पु६ पृ ३२६, प्रा प स प्र. ६ गा. २०६, देवायके बन्ध बिना अन्य तीन आयुके बन्धवाला अणुनत-महाव्रत धारण नही कर सकता।