________________
शब्द
पृष्ठ
निकाचनाकरण
१८३
निक्षेप
परिभाषा प्रबद्ध का दो प्रावलियो द्वारा उपशम हो जाता है) ज० घ० १३/२८७ चरम पेरा विशेष हेतु ल० सा० पृष्ठ २०७ देखना चाहिये । जो कर्म उदयादि चारो के अयोग्य होकर,(उदय, अपकर्पण, उत्कर्षण व संक्रमण) अवस्थान की प्रतिज्ञा मे प्रतिवद्ध हैं, उनकी उस अवस्थान लक्षण पर्यायविशेष को निकाचना कहते हैं । ज० घ० १३/२३१, ५०,६/२९९, घ०९/२३६ आदि उत्कर्षण अथवा अपकर्षण होकर कर्म परमाणुनो का जिन स्थितिविकल्पो मे पतन होता है उनकी निक्षेप सज्ञा है । उत्कर्पण मे—अव्याघात दशा मे जघन्य निक्षेप का प्रमाण एक समय (क० पा० सु० पृ० २१५) ज० घ० ८/२६२ और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण उत्कृष्ट प्रावाघा और एक समयाधिक पावली, इन दोनो के योग से हीन ७० कोटा-कोटी सागर है। व्याघात दशा मे जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण आवली के असख्यातवें भाग प्रमाण है । (ल० सा० गा० ६१, ६२ एव ज० ध० ८/२५३, ज० ५० ७/२५० तथा ज० घ०८/२६२) अपकर्षण मे-अव्याघातदशा मे जघन्य निक्षेप एक समय कम आवली का त्रिभाग
और एक समय प्रमाण निषेक रूप होता है । ( ल० सा० ५६ ) तथा उत्कृष्ट निक्षेप "एक समय अधिक दो प्रावली" से हीन उत्कृष्ट स्थिति (७० कोडा कोडी सागर) प्रमाण होता है । ल० सा० ५८ व्याघात दशा मे उत्कृष्ट निक्षेप अन्त: कोटा कोटीसागर प्रमाण होता है।
निघत्तीकरण
१८३
जो कर्म प्रदेशाग्र उदय मे देने के लिये अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिये शक्य नहीं वह निघत्त है । (घवल पु० ६ पृ० २३५) अन्यत्र भी कहा है जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्पण के अविरुद्ध पर्याय के योग्य होकर पुन उदय और पर प्रकृतिसक्रमरूप न हो सकने की प्रतिज्ञारूप से स्वीकृत है उसकी उस अवस्था को निधत्तीकरण कहते हैं। [(जय धवल १३/२३१) तथा धवल पु० १६ पृष्ठ ५१६ ]
निर्वगंगाकाण्डक
३४
प्रध.प्रवृत्तकरण के प्रथम समय सम्बन्धी परिणामस्थान के अन्तर्मुहूर्त अर्थात् अघ.प्रवृत्तकरसा काल के सख्यातवें भाग प्रमाण काल के जितने समय हैं, उतने खण्ड करने चाहिये, वही निर्वर्गणाकाण्डक है। विवक्षित समय के परिणामो का जिसस्थान से मागे अनुकृष्टिविच्छेद होता है वह निर्वर्गणाकाण्डक कहा जाता है । (ज० ५० १२/२३६)