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गद
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परिभाषा मोपनामिक नकल चारित्र की अपेक्षा कहा है । क्षायिक सकल चारित्र तथा
गया नकल नारिष उपशम या क्षपक श्रेणी मे होता है । क्षायोपशमिक नाति प्रमत्त व अप्रमत्तमयत उन दो गुण स्थानो मे ही होता है। देवी-गोपनामना की परिभाषा मे इसकी भी परिभापा पाई है। पाका पूर्व में उपलम्भ (प्राप्ति या सद्भाव) होने पर, पश्चात् अन्य पदार्थ क नदभार में उनके प्रभाव का ज्ञान होने पर दोनो मे जो विरोध देखा जाता है
जो सहानयन्यारूप विरोध समझना चाहिये । जैसे शीतोष्ण । प्र०क० मा० परि० ८० ६ पृ० ४६८ [निर्णय सागर मु० बबई से मुद्रित]
उस परिभाषा का स्पष्टीकरण राजवार्तिक के निम्न विस्तृत कथन से हो जायगा-अनुपनम्भ नर्यात प्रभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है-वध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक । १ वघ्यघातक भाव बिरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जल मे होता है। यह दो विद्यमान पदार्थो मे नयोग होने पर होता है । सयोग के पश्चात् जो बलवान होता है वह निवल को बाधित करता है। अग्नि से असयुक्त जल अग्नि को नही बुझा सकता है । दूसरा सहानवस्थान विरोध ( जो कि प्रकृत है ) एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायो मे होता है । नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है । जैसे, ग्राम का हरा रूप नष्ट होता है और पीतरूप उत्पन्न होता है प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव विरोध-जैसे ग्राम का फल जब तक डाली मे लगा है, तब तक फल और इठल का सयोगरूप प्रतिबन्धक के रहने से गुरुत्व (श्राम मे) मौजूद रहने पर भी आम को नीचे नहीं गिराता है। जब सयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है । सयोग के अभाव मे गुरुत्व पतन का कारण है, यह सिद्धान्त है । [प्रथवा जैसे दाह के प्रतिवन्धक चन्द्रकान्तमणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नही उत्पन्न होती, इसलिये मरिण तथा दाह के प्रतिवन्धक-प्रतिबन्ध्य भाव युक्त है ।] रा० वा० पृ० ४२६ [हिन्दी सार] (अ० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) एव षड्दर्शन समुच्चय का० ५७ पृ० ३५६ अर्थात् ३ लाख सागरोपम से ६ लाख सागरोपम के मध्य ।
सागरोपमशत सहस्र पृथक्त्व १४० । स्तिवुक सक्रमण २१८,
२११)
को स्थिवुक्कसकमो णाम ? उदयसख्वेण समट्ठिदीए जो सकमो सो त्थिवुक्कसकमो ति भण्णदे । अर्थ-उदयरूप से समान स्थिति मे जो सक्रम होता है उसे स्तिबक