Book Title: Labdhisara Kshapanasara
Author(s): Ratanchand Mukhtar
Publisher: Dashampratimadhari Ladmal Jain
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री शिवसागर दिगम्बर जैन प्रन्थमाला पुष्प नं० २८ श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित लब्धिसार-क्षपणासार ( सिद्धान्तबोधिनी-फर्मक्षपरणबोधिनी हिन्दी टीका समन्वित ) सम्पादक। स्व. न. पं. रतनचन्द मुख्तार सहारनपुर (उ.प्र.) प्रकाशक: दशमप्रतिमाधारी ब्र. लाडमल जैन प्राचार्य श्री शिवसागर ग्रन्थमाला शान्तिवीरनगर-श्रीमहावीरजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य श्री शिवसागर दि. जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं. २८ लब्धिसार-क्षपणासार (श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) वाचना प्रमुखप. पू. पा क. १०८ श्री श्र तसागरजी महाराज सम्पादन एवं टोकास्व व पं रतनचन्द मुख्तार सर्वाधिकार सुरक्षित : श्री शिवसागर दि जैन ग्रन्थमाला द्रव्यप्रदाता-श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी-जयपुर मूल्य-स्वाध्याय प्रथमावृत्ति : १००० प्रति भाद्रपद शुक्ला पूणिमा वो नि सम्बत् २५०६ प्राप्तिस्थान१. श्री शान्तिवीर नगर, श्रीमहावीरजी (राजस्थान) २. श्री रामचन्द्रजी कोठारी कोठारी भवन-चौड़ा रास्ता सिनेमा के सामने-जयपुर-३ मुद्रकनेमीचन्द वाकलीवाल बाफलीवाल प्रिण्टर्स मदनगंज-किशनगढ़ (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रकाशकीय निवेदन " दिगम्बर जैन साहित्य में सर्वप्रथम ग्रन्थरूप से सूत्र निबद्ध लिपिबद्ध सैद्धान्तिक कृति पढ़खण्डागम सूत्र है । जिन्हे घरसेनाचार्यं तक ( परम्परा से ह्रासोन्मुख रूपेण ) श्रागत अल्पतम एक देश अंगज्ञान को स्वयं घरसेनाचार्य से प्राप्त कर पुष्पदन्त भूतबली प्राचार्यद्वय ने ग्रन्थरूप मे सुरक्षित किया था । लगभग इन्ही के समकालीन गुणधराचार्य ने कषायपाहुड़ नामक ग्रन्थ गाथासूत्र मे निबन्ध किया था । इन्ही दो ग्रन्थों पर धवल- जयधवल एवं महाघवल ( महाबन्ध) टीकाएं विस्तारपूर्वक वीरसेन स्वामी ने लिखी हैं । इन्ही के आधार से श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्यदेव ने चामुण्डराय के निमित्त गोम्मटसार ( जीवकाण्ड - कर्मकाण्ड ) तथा लब्धिसार - क्षपणासार ग्रन्थत्रयी की रचना की है। जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था कलकत्ता से लगभग ४० वर्ष पूर्व सस्कृत टीकाओ एव पं. टोडरमलजी को हिन्दी टीका सहित शास्त्राकार रूप से ये ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके थे । वर्तमान मे ये ग्रन्थ अनुपलब्ध भी थे तथा इनकी हिन्दी टीका ढुंढारी भाषा मे थी । श्रत. श्राधुनिक हिन्दी से परिचित अध्येताओं को इन ग्रन्थों के स्वाध्याय का यथोचित लाभ नही मिल पा रहा था । इसी को दृष्टिपथ में रखते हुए प पू आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज की स्मृति में स्थापित ग्रन्थमाला से चारो अनुयोग सम्बन्धी ग्रन्थ प्रकाशन योजना के अन्तर्गत कररणानुयोग से सम्बन्धित इन ग्रन्थो का प्रकाशन भी पिछले वर्षो से निरन्तर चल रहा है । नेमिचन्द्राचार्य द्वारा विरचित त्रिलोक सार ग्रन्थ की माधवचन्द्र त्रैविद्यदेव द्वारा रचित संस्कृत टीका सहित प्रा. विशुद्धमती माताजी द्वारा विरचित हिन्दी टीका के प्रकाशन से ग्रन्थमाला ने नेमिचन्द्र भारती का प्रकाशन प्रारम्भ किया था और उन भारती के ही ग्रन्थ गोम्मटसार कर्मकाण्ड का प्रकाशन आर्यिका श्रादिमती माताजी की हिन्दी टीका सहित अभी दो वर्ष पूर्व ही हुआ है । आर्यिकाद्वय आचार्य श्री शिवसागरजी की ही दीक्षित विदुपी शिष्याए है । अब नेमिचन्द्र भारती का ततीय चरण लब्धिसार-क्षपणासार के रूप में प्रकाशित हो रहा है | प्रस्तुत ग्रन्थ की टीका करणानुयोग मर्मज्ञ स्व. ब्र. पं. रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर निवासी ने की है । पंडितजी ने ग्रन्थमाला से प्रकाशित होने वाले अन्य कई ग्रन्थो का भी सम्पादन किया है। त्रिलोकसार और गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीकाओ का वाचन भी झापके सान्निध्य में ही हुया है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड की वाचना के भवसर पर प पू . आ. क. श्री श्रुतसागरजी महाराज के Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] लब्धिसार [ गाथ २८४ आगे संज्वलनलोभ सम्बन्धी कृष्टियोंको निक्षेपणविधि बताते हैंप्रोक्कड्डिदइ गिभागं पल्लासंखेज्जखंड दिगिभागं । देदि सुहुमासु किट्टि फड्डयगे सेस बहुभागं ॥२८४॥ अर्थ-(सज्वलनलोभके द्रव्यको अपकर्षण भागहार द्वारा भाजितकर उसमें से) एक भाग अपकर्षित द्रव्य है । इसको पल्यके असख्यातवेभागसे खण्डितकर उसमे से एक भागको सूक्ष्मकृष्टियोमे देता है, शेष बहुभागको स्पर्धकोमे देता है । ____ विशेषार्थ-सज्वलनलोभके सर्व सत्त्वरूप द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एक भागप्रमाण द्रव्यको पुन पल्यके असख्यातवेभागका भाग दिया । उसमेसे बहुभागप्रमाण द्रव्यको पृथक् रखकर एक भागप्रमाण द्रव्यको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाता है । “अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे"१ इत्यादि करणसूत्र विधान द्वारा उस एक भागप्रमाण द्रव्यमे कृष्टियोके प्रमाणरूप कृष्ट्यायामका भाग देने से मध्यधनका प्रमाण आता है । इस मध्यधनको एक कम कृष्टिआयामके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देने पर चयका प्रमाण प्राप्त होता है । उस चयप्रमाणको दोगुणहानिसे गुणा करने पर आदिवर्गणाके द्रव्यका प्रमाण आता है । इतने द्रव्यको तो प्रथमकृष्टिमे निक्षिप्त करता है जिससे प्रथमकृष्टि उत्पन्न होती है । यह प्रथमकृष्टि प्रथमसमयमें की गईं कृष्टियोमे जघन्यकृष्टि है। तथा इससे द्वितीयादि कृष्टियोमे एक-एक चयप्रमाण हीन द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार एककम कृष्टिायामप्रमाण चयोसे हीन प्रथमकृष्टिप्रमाण द्रव्यको अन्तिम कृष्टिमे निक्षिप्त करता है । अब इन कृष्टियोमे शक्तिका प्रमाण कहते है __ पूर्व स्पर्धकोके जघन्यवर्ग में अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोके प्रमाण को कृष्टियायामका जो प्रमाण है उतनीबार अनन्तका भाग देने पर प्राप्त लब्धके बराबर प्रथमकृप्टिमे अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद हैं तथा द्वितीयादि कृष्टि मे क्रमसे अनन्तगुणे १. "ग्रद्धाणेण सव्वधणे खडिदे मज्झिमधणमागच्छदि" यह पूरा करणसूत्र है इसका अभिप्राय यह है कि सर्ववनको अध्वानसे खण्डित करने पर मध्यमधन पाता है। अत. विवक्षित गुणहानिका सर्वद्रव्य - गुणहानि प्रआयाम = मध्यमधन (गो क गा १५६ की टीका) । या (अध्वान) या (अध्वान) २ "त रुऊणद्धाण गूणेरण रिणसेयभागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचय" (ल सा गा ७१-७२) -अर्थात् मध्यधनमे एक कम गच्छका प्राधा दो गुणहानि (निषेक भागहार) मे से घटाने पर जो प्रावे उमका भाग देने पर चय पाता है। अर्थात् चय=मध्यधन- [दो गुणहानि-(गच्छ-१)।२] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८५ ] लब्धिसार [ २२३ अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद है । इसलिये एककम कृष्टिआयाममात्र बार अनंतसे गुणा करने पर अन्तिमकृष्टिमे पाये जाने वाले वे अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी जघन्यवर्ग के अनन्तवेभागप्रमाण है । इसप्रकार प्रथम समयमें की गई सूक्ष्मकृष्टि होती है। ___ अपकर्षित किये गये द्रव्यमे बहुभागरूप जो द्रव्य पृथक् स्थापित किया था उनके द्रव्यको पूर्वमे सत्तारूप पाये जाने वाले पूर्वस्पर्धक सम्बन्धी नानागुणहानिमे निक्षिप्त करता है । "दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा" इत्यादि करणसूत्र विधानसे उस बहुभागप्रमाण द्रव्यको अनुभाग सम्बन्धी साधिक डेढगुणहानिका भाग देने पर जो लव्धरूप द्रव्य प्राप्त हो उसको प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणामे निक्षिप्त करता है। तथा द्वितीयादि वर्गणाप्रोमे एक चयहीन क्रम सहित द्रव्य निक्षिप्त करता है । द्वितीयादि गुणहानियोकी वर्गणाओके क्रमसे पूर्वगुणहानिसे आधा-आधा द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार सूक्ष्मकृष्टिकरण काल के प्रथमसमयमे अपकर्षितद्रव्यको निक्षिप्त करता है। यहा अन्तिमकृष्टिमें निक्षिप्त द्रव्यसे पूर्वस्पर्धककी जघन्य वर्गणामे निक्षिप्तद्रव्य अनन्तगुणा हीन जानना। _ 'कृश' तनुकरणे धातुके आश्रयसे 'कर्षण कृष्टि.' अर्थात् कर्मपरमाणुप्रोकी अनुभागशक्तिका कृश करना-घटाना कृष्टि है । अथवा 'कृश्यत इति कृष्टि.' के अनुसार प्रतिसमय पूर्व स्पर्धककी जघन्य वर्गणासे भी अनन्तगुणी हीन अनुभागरूप वर्गणाको कृष्टि कहते है। अब द्वितीयादि समयोंमें निक्षेपणका कथन करते हैंपडिसमयमसंखगुणा दव्वादु असंखगुणविहीणकमे । पुवगहेट्ठा हेट्ठा करेदि किट्टि स चरिमोत्ति ॥२८५॥ प्रर्थ-असख्यातगुणे-असख्यातगुणे अपकर्षित द्रव्यमे से प्रतिसमय की गई कृष्टिका प्रमाण पूर्व-पूर्व कृष्टियोके प्रमाणसे असख्यातगुणा घटता होता है । यह क्रम अन्तिम समय तक जाता है। विशेषार्थ-कृष्टिकरण कालके प्रथम समयमें जो कृष्टियां की गईं वे अभव्यो से अनन्तगुणी और सिद्धोके अनन्तवे भागप्रमाण होकर एक स्पर्धककी वर्गणाग्रोके अनन्तवे भागप्रमाण है तथा वे बहुत है। पुनः तदनन्तर समयमे प्रथम समयवर्ती Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ॥ लब्धिसार [ गाथा २८६ कृष्टियोके नीचे जो अपूर्वकृष्टियां उत्पन्न की जाती हैं वे उनसे असख्यातगुणी हीन जानना चाहिए। इसप्रकार कृष्टिकरण कालका अन्तिमसमय प्राप्त होने तक प्रतिसमय जो अपूर्वकृष्टिया रची जाती है वे अनन्तरपूर्ववर्ती कृष्टियोसे असख्यातगुणो हीन होती है, क्योकि अपकर्षित समस्त द्रव्यके असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको ही अपूर्वकृष्टियोमे आगमानुसार सिंचित कर शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको उपरिम पूर्वकी कप्टियोमे और स्पर्धकोमे अपने-अपने विभागानुसार विभाजितकर निषेकोकी रचना करता है । प्रथम समयमे कृष्टियोंमे सबके जोड़रूपसे निक्षिप्त हुआ द्रव्य अपकर्पित किये गए समस्त द्रव्यके असख्यातवेभागप्रमाण होकर सबसे अल्प हो जाता है। तदनन्तर दूसरे समयमे विशुद्धिके माहात्म्यवश असख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उसमेसे असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको ग्रहणकर पूर्वानुपूर्वीरूपसे स्थित कृष्टियोमे सिचित किया जाने वाला द्रव्य पूर्वके द्रव्यसे असख्यातगुणा होता है, क्योकि तत्काल अपकर्षित किये जाने वाले द्रव्यमे से कृष्टियोमे दिये जाने वाले द्रव्यकी उसीके प्रतिभाके अनुसार प्रवृत्ति देखी जाती है। इसीप्रकार अन्तिमसमयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयोमे भी प्ररूपणा करना चाहिए। अथानन्तर कृष्टिगत द्रव्यों के विभागका निर्देश करते हैंहेट्ठासीसे उभयगदव्वविलेसे य हे?किट्टिम्मि । मज्झिमखंडे दव्वं विभज्ज विदियादि समयेसु ॥२८६॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके द्वितीय समयमे अपकर्षित द्रव्यको १. अधस्तन शीर्ष विशेपोमे २ उभयद्रव्य विशेषोमे ३ अधस्तनकृष्टियोमे ४ मध्यम खण्डोमे । इसप्रकार चारप्रकारके विभागसे निक्षिप्त करता है। . विशेषार्थ-पूर्वसमयमे की गई कृष्टियोमे से प्रथमकृष्टिमे बहुत परमाणु हैं । द्वितीयादि कृप्टियोमे एक-एक चयसे हीन क्रम लिये परमाणु हैं। यहां पूर्वकृष्टियो मे सम्भावित चयका प्रमाण लाकर द्वितीयकृष्टिमे एक चय, तृतीयकृष्टिमे दो चय, चतुर्थकृप्टिमे तीन चय ऐसे क्रमसे एक-एक बढते हुए चयप्रमाण परमाणु उन द्वितीयादि कप्टियोमे मिलाने पर सर्वकृष्टिया प्रथमकृष्टिके समान हो जाती है इसप्रकार जितना १. ज. प. पु. १३ पृ २०८-२०६ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार २२५ द्रव्य ( पूर्वकृत कृष्टियोको समद्रव्यवाली बनानेके लिए ) दिया गया उसका नाम अधस्तनशीर्ष विशेष द्रव्य है' । जिस देय द्रव्य के देने से समस्त पूर्वकृष्टिया प्रथमकृष्टिके समान हो जाती है, उस देय द्रव्य को प्राप्त करनेका विधान बताते है - पूर्व समयमें जो कृष्टिमे द्रव्य दिया उनको पूर्वसमयमे कृतकृष्टिके प्रमाणमात्र गच्छका का, भाग देने पर मध्यमधन आता है । उसे एक कम गच्छके आधे से हीन दोगुणहानिसे भाजित करने पर एक चय (विशेष) का प्रमाण आता है । वहा एक १. विशेषार्थं गत उक्त कथनका स्पष्टीकरण अकगणितीय दृष्टिसे सदृष्टि बनाकर निम्न प्रकार किया जा सकता है— मानाकि प्रथमसमयकी पूर्वकृष्टिया ८ है । तथा असख्यात = २ मानने पर द्वितीय समय मे की गई कृष्टिया ८÷२ =४ हुई । मानाकि प्रथम समयमे की गई कृष्टियो के लिए अपकृष्टद्रव्य १६०० परमाणु हैं तथा द्वितीय समयमे कृष्टियो के लिए अपकृष्टद्रव्य ३९२० परमाणु हैं । ऐसी स्थिति मे प्रथमसमयकृत कृष्टिया इसप्रकार बनेगी चरम कृष्टि प्रथमसमयमे की गई कृष्टिया कृष्टिया यहां चय का प्रमाण = १६ १४४ १६० १७६ १६२ २०८ २२४ २४० २५६ पूर्वकृष्टि १४४ + १६० + १७६ + १९२+ २०८ + २२४ + २४० + २५६ + द्वितीय कृष्टि प्रथम कृष्टि अधस्तन शीर्ष परिणामतः सर्वत्र वि. द्रव्य समद्रव्य २५६ २५६ २५६ २५६ सातचय = छ. चय = पाच चय = चार चय = तीन चय = दो चय एक चय = - यहा चयका प्रमाण १६ है अतः यहा द्वितीयकृष्टिमे ३२ अर्थात् दो चय, तृतीयकृष्टिमे ४८ अर्थात् तीन चय इत्यादि । इसप्रकार मिलाने पर प्रथम समयकी श्राठो कृष्टियो मे द्रव्य क्रमशः २५६-२५६ अर्थात् प्रत्येक कृष्टिमे समान हो जाता है । इसी को निम्न सदृष्टिमें दिखाया है २५६ २५६ २५६ २५६ पूर्वकृष्टिद्रव्य + स्तन विशेषद्रव्य ( चयघन ) =१६००+ २८, चयघन अर्थात् ४४८ =२०४८[२५६४८= २०४८ सर्वत्र समद्रव्य ] Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ) लब्धिसार [ गाथा २८६ चयको आदिरूप स्थापित करना, क्योकि द्वितीयकृप्टिमे एक चय देना है। एक चय उत्तर ( आगे ) स्थापित करना, क्योकि, तृतीयादि कृष्टियोमे क्रमशः एक-एक चय अधिक देना है । तथा एककम पूर्वकृष्टि प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए, क्योकि प्रथमकृष्टि मे चय नही मिलाना है। ऐसे स्थापित करके "पदमेगेण विहीण" इत्यादि श्रेणिव्यवहाररूप गणितसूत्र से एक कम गच्छको दो का भाग देकर, उसको (लब्धको) उत्तरसे (जो कि एक चयरूप है, उससे) गुणा करके उसमे प्रभव अर्थात् आदिके एक चयको मिलानेपर तथा फिर गच्छसे गुणा करने पर चयधन प्राप्त होता है । अकसदृष्टि की अपेक्षा-जैसे एक कम कृष्टिप्रमाण गच्छ ७, इसमे से एक घटाने पर छ' आये। ६ मे २ का भाग देनेपर ३ आये । इसे चय (१६) से गुणा करनेपर ४८ आये । इसमे प्रभव (एक चय यानी १६) को मिलाने पर ६४; पुनः इसको गच्छ (७) से गुणा करने पर ४४८ चयधन होता है । इस विधानसे जो प्रमाण आवे उतना अधस्तन शीर्ष विशेषद्रव्य जानना' । अब जो पूर्वकृष्टिमे से प्रथमकृष्टिका प्रमाण था उसीके समान १. अब इसके (पूर्वकृष्टिके) नीचे अपूर्वकृष्टिको रचना करता है वे ४ हैं तथा वे प्रथमपूर्वकृष्टिके तुल्य-तुल्य ही है अर्थात् २५६-२५६ परमाणु प्रमाण हैं अतः द्वितीय समयमे अधस्तन कृष्टिद्रव्य २५६४४=१०२४ हुआ; तब सदृष्टि इसप्रकार होगी |-चरमपूर्वकृष्टि युक्त है। अधस्तनशीर्ष विशेप द्रव्यसे प्रथमसमयकृत पूर्व कृष्टिया जो २५६ २५६ २५६ - - - २५६ - २५६ २५६ - प्रथमपूर्वकृष्टि - चरम अपूर्वकृष्टि कृष्टिया समयकृत अपूर्व -द्वितीय - २५६ २५६ - | अपूर्वसमपट्टिका २५६ - प्रथम अपूर्वकष्टि । जय । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२७ प्रमाण लिये जो विवक्षित समयमें अपूर्वकृष्टिकी उनमें समान प्रमाण लिये समपट्टिकारूप द्रव्य देना चाहिए, इसका ही नाम अधस्तनकृष्टिद्रव्य है। इस द्रव्यको देनेपर अपूर्वकृष्टियां प्रथमपूर्वकृष्टिके समान हो जाती है। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पूर्वोक्त पूर्वकृष्टि सम्बन्धी चयको दो गुणहानि से गुणा करने पर पूर्वकृप्टियो में से प्रथमकृष्टिके द्रव्य का प्रमाण आता है सो एक कृष्टिका द्रव्य इतना है तो समस्त अपूर्वकृष्टियोंका कितना होगा ? ऐसे त्रैराशिकसे उस प्रथमपूर्वकृष्टिके द्रव्यको समस्त अपूर्वकृष्टिके प्रमाण से गुणा करनेपर अधस्तनकृष्टिका द्रव्यप्रमाण होता है। यहां, प्रथम समयमें की गई कृष्टियोके प्रमाणको असंख्यातगुणे अपकर्षणभागहारका भाग देने पर द्वितीय समयमें की गईं कृष्टियोका प्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार पूर्वोक्त अधस्तनशोर्षविशेषद्रव्य और अधस्तनकृष्टि द्रव्य देने पर समस्त पूर्वअपूर्वकृष्टि समान प्रमाण लिये हो गईं । वा अपर्वकष्टिकी प्रथमकष्टिसे लगाकर ऊपर-ऊपर अपूर्वकष्टि स्थापित करके फिर उनके ऊपर प्रथमादि पूर्वकृष्टि स्थापित करनी चाहिए । इसप्रकार स्थापित करके चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ करने के लिये' सर्वकृष्टि सम्बन्धी सम्भवचयका प्रमाण लाकर अन्तकी पूर्वकृष्टिमे एक चय, उसके नीचे उपान्त्यपर्वकष्टि में दो चय; ऐसे क्रमसे एक एक चय अधिकाधिक करते हुए प्रथम अपूर्वकृष्टि पर्यन्त देना । इसीका नाम उभयद्रव्यविशेषद्रव्य है । इसे देने पर समस्त पूर्व अपूर्वकप्टि के चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ होता है। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पर्व समयमे कृष्टिमे जो द्रव्य दिया था और इस विवक्षित समयमे जो कष्टिमें देने योग्य द्रव्य है, इन दोनोको मिलानेपर जो द्रव्यप्रमाण हुअा उसको पूर्वापूर्व (पूर्वअपर्व) कृष्टियोके योगरूप गच्छसे विभक्त करनेपर मध्यमधन प्राप्त होता है। इसको एककम गच्छके आधेसे हीन दोगुण हानिसे विभक्त करनेपर यहाके चयका (विशेपका) १. अब इनकी समान द्रव्यरूप स्थितिको मिटाकर चय घटता क्रमरूप गोपुच्छ को करने के लिए निम्नानुसार द्रव्य मिलाते है Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २८६ २२८ ] प्रमाण आता है । अब एकचय को स्थापितकर और एक चय उत्तर (आगे) स्थापित कर तथा पूर्व-अपूर्वकृष्टिप्रमाण गच्छ स्थापितकर “पदमेगेणविहीण" इत्यादि सूत्रके अनुसार एककम गच्छके आधेको चयसे गुणित करके उसमें चय मिलाकर उसको चयसे गुणित करने पर सर्व उभय द्रव्य विशेष द्रव्य होता है तथा जो विवक्षित समयमें कृष्टिरूप परिणमावने योग्य द्रव्य अपकृष्ट किया उसमें से अधस्तनशीर्ष विशेषद्रव्य, अधस्तनकष्टिद्रव्य और उभयद्रव्यविशेषद्रव्य घटाने पर; अवशिष्ट रहे द्रव्यको समस्त पूर्व-अपर्व कृष्टियोमे समान भाग करके देना? इसीका नाम मध्यमखण्डद्रव्य है। इसको देने पर उस अपकृष्टद्रव्यकी समाप्ति होती है तथा समस्त पूर्वापूर्वकृष्टियोमे चय घटते क्रमरूप । पूर्वद्रव्य+मिलाया जानेवाला द्रव्यगोपुच्छाकारता । उभयद्रव्यविशेषद्रव्य =१ चय+२ सर्वत्रसम। उभयद्रव्य- चय+३चय+४ चय+५चय+६ गोपूच्छाकारता द्रव्य TI विशेषद्रव्यगापुच्छाकारता। चय +9 चय+८ चय+ह +१०चय+११ चय+१२चयचरमपूर्वकृष्टि - २५६ + एक चय ७८चय=७८४१६-१२४८प्रतः २७२ उभयद्रव्यविशेषद्रव्य-१२४८ इसे द्विचरम पूर्वकृष्टि- २५६ + दो चय २८८ मिलाने पर सर्वत्र प्रथम अपूर्वकृष्टि से लगाकर चरम पूर्वकृष्टि पर्यन्त २५६ + तीन चय ३०४ गोपुच्छाकार द्रव्य हो जाता है वह चार चय ३२० नीचे लगी सदृष्टिके अनुसार है → १ + २५६ + + + पाच चय २७२ - चरमपूर्वकृष्टि + | छह चय ३५२ २८८ ३०४ ३२० + सात चय ३६८ प्रथमपूर्वकृष्टि - २५६ । आठ चय ३३६ ३५२ ३६८ - || + नौ चय ४०० - - - सर्वगोपुच्छाकारता -- -- -- - प्रथमपूर्वकृष्टि + दसचय ४१६ चरमअपूर्वकृष्टि + ४१६ ग्यारह चय प्रथम अपूर्वकृष्टि- २५६ + | बारह चय ४४८ -प्रथमअपूर्वकृष्टि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२६ ज्यो का त्यों द्रव्य रहता है । इसका प्रमाण बतलाते है'-विवक्षित समयमें अपकृष्टद्रव्यको पल्यके असख्यातवेभागका भाग देने पर एक भागमात्र द्रव्य कृष्टिमें देने योग्य है । इसमें से पूर्वोक्त तीन प्रकारका द्रव्य घटाने पर किचिदून हुआ। (यही किंचिदून द्रव्य मध्यमखंड द्रव्य है ।) इतना द्रव्य सकलकृष्टियोमे देना है तो एककृष्टिमें कितना देना होगा? ऐसी त्रैराशिकविधि करके उस द्रव्यमे पूर्व-अपूर्वकृष्टियोके प्रमाणका भाग देने पर एककृष्टिमें १ अब द्वितीय समयमे अपकृष्ट द्रव्य ३६२० मे से अधस्तनशीर्षविशेषद्रव्य ४४८, अधस्तनकृष्टिद्रव्य १०२४, उभयद्रव्यविशेषद्रव्य १२४८, इन तीनोको घटानेपर ३९२०-(४४८-१०२४+१२४८) =१२०० शेप रहे । ये शेष बचे १२०० परमाणुप्रमाण द्रव्य ही मध्यमखण्डद्रव्य है : इसे समस्त पूर्व-अपूर्व कृष्टियों में (८-1-४=१२ कृष्टियोमे) समान खण्ड करके देने पर सभी को अर्थात् प्रत्येककृष्टिको १००-१०० द्रव्य प्राप्त होता है । उसे मिलाने पर रचना ऐसी है नोट-यहा इतना स्मरण रखना चाहिये २७२+१०० = ३७२ - चरमपूर्वकृष्टि कि उभयद्रव्यविशेषद्रव्य निकालनेके लिए यहां २८८+१०० = ३८८ निम्नविधि है सकल अपकृष्टद्रव्य = १६०० + ३९२०३०४+१०० ५५२० । सकल अपकृष्टद्रव्य - सकलकृष्टियां ३२०+१०० ५५२०:१२=४६० मध्यमधन __यहा एक गुणहानि-१७१ ( गुणहानि ३३६+१०० = ४३६ वस्तुस्थित्या खण्डरूप नही होती पर सदृष्टि या दृष्टान्त तो सदृष्टि या दृष्टान्त ही ठहरा; ३५२+१०० = वह दान्तिसे सर्वदेश साम्य नही रखता, ऐसा ३६८+१०० = ४६८ जानना चाहिये)क्योकि ५४८ रूप प्रथमकृष्टि १७६ स्थानो को पार करनेके बाद उसके आगे ३८४+१०० = ४८४ - प्रथमपूर्वकृष्टि एकस्थान जाने पर प्राधी रह जाती है; अतः १७१ स्थान, गुणहानिका प्रमाण होगा। यथा ४००+१०० ___= ५००/-चरमअपूर्वकष्टि ५१२ कर्मपरमाणुरूप प्रथम निषेकसे ८ स्थान के बाद नवमस्थानमे जाकर २५६ रह जाते हैं ४१६+१०० = तो वहा गुणहानिका प्रमाण ८ होता है । वैसे ४३२+१०० = ५३२ ही यहा पर ५४८ रूप प्रथमकृष्टि चयहीन होती हुई ऐसे जाती है-५४८, ५३२, ५१६ ४४८+१०० = ५४८ -प्रथमअपूर्वकृष्टि ५००, ४८४, ४६८, ४५२, ४३६, ४२०, ४०४, ३८८, ३७२, ३५६, ३४०, ३२४, ३०८, २६२, २७६........................। ५१६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] लब्धिसार [ गाथा २८६ देने योग्य एकखण्डका प्रमाण प्राप्त होता है। इसको सर्वकृष्टिके प्रमालसे गुणित कर देनेपर सर्व मध्यमखण्ड द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इसप्रकार यहा विवक्षित द्वितीय समयमे कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमे बुद्धिकल्पनासे अधस्तनशीर्षविशेष आदि चार प्रकारके द्रव्य भिन्न-भिन्न स्थापित किये । ऐसे ही यहा पर तृतीयादि समयोमे कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमे विधान जानना । अथवा आगे क्षपकश्रेणिके वर्णनमे अपूर्वस्पर्धकका, बादरकृष्टिका या सूक्ष्मकृष्टिका वर्णन करते हुए ऐसे विधान कहेगे; वहा ऐसा ही अर्थ अब यहा द्रव्य चयहीन होकर जाता हुआ अठारहवें स्थानमे २७६ होता है। हमे ५४८ का आधा २७४ अभीष्ट है । चू कि एकस्थान आगे पीछे जाने पर (अर्थात् १८ वें से १७ वे या १७ वें से १८ वे को जाने पर) १६ (एक चय) की कमी या वृद्धि होती है, तो २ मात्र परमाणुकी हीनता के लिए कितना स्थान आगे जाना पडेगा ? उत्तर होगा १६४३== स्थान । अर्थात् २७६ से है स्थान प्रागे जाने पर वही कृष्टिका परमाणु परिमाण २७४ हो जाता है जो कि ५४८ से ठीक प्राधा है तो २७४ परमाणुवाला स्थान १८६ वा हुआ, इसलिये इससे एक स्थान पूर्व अर्थात् १७१ वें स्थान मे ही एक गुणहानि पूरी हो गई ऐसा जानना चाहिए, (क्योकि जहा द्रव्य प्राधा रह जाय उससे एक स्थान (पूरा-पूरा) पहले जाने पर जो निषेक स्थित हो वही प्रथम गुणहानिका चरमस्थान होता है) अतएव दो गुणहानि= १७६४ २=३४१ अब मध्यधन-एककम गच्छका प्राधासे न्यून दो गुणहानिचय अर्थात् ४६०-३४१-३१ =चय ॥ ४६० -३४१-५३=चय ॥ ४६०-२८१चय ॥ ४६° x =चय , ४६० x पर= १६ (चय) अव सूत्रानुसार एककम गच्छ ११ का आधा ५३ से चय १६ को गुणा करने पर ८८ आये। चय मिलाने पर ८८+१६-१०४ प्राये। १०४४ गच्छ (१२)=१२४८ पाये । यही उभय द्रव्यविशेषद्रव्य है । शेष सुगम है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७६ ] लब्धिसार [ २३१ जानना चाहिए । जहां विशेष हो वहा विशेष जानना चाहिए । यहा संदृष्टिकी अपेक्षा चयहीन क्रम लिये पूर्वकृष्टि आदि की रचना निम्न प्रकार होती है पूर्वकृष्टिरचना अन्तिमकृष्टि Ir अध पूर्वकृषि पूर्वकृष्टियोमे अधस्तनशीर्षद्रव्य ) मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि - की रचना इसप्रकार होती है । पवक्रार आदिकरि अधस्तनशीर्षद्रव्य मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि रचना के नीचे ही अधस्तनकृष्टि द्रव्यद्वारा अपूर्वकृष्टि की समपट्टिकारचना निम्नप्रकार होती है संदृष्टि न०३ मे उभयद्रव्यविशेषद्रव्य मिलाने पर सदृष्टिकी आकृति निम्न प्रकार होती है । इसे गुपुच्छाकृति कहते हैं - अथः अच शीर्ष प्राध पूर्व कृष्टि की द्रव्य उभय। द्रव्य विशेष अपूर्वकृष्टि समपट्टिका योष द्रव्य द्रव्य अपूर्वकृति समपट्टिका - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वत्सल प्राचार्य श्री यतिवृषभ ने उन गाथानो पर चूर्णिसूत्रो की रचना की । कषायपाहड ग्रन्थ की रचना का मूलत्रोत दृष्टिवाद अग के १४ पूर्व रूप भेदो मे पाचवे पूर्व के बारह वस्तु अधिकारो मे २० प्राभत हैं, उन २० प्राभूतो मे से तीसरा पेज्जदोस पाहुड है अर्थात् तृतीय प्राभूत को अवलम्बन कर ही कापायपाहु ग्रन्थ की रचना हुई है । __इस ग्रन्थ मे १५ अधिकार हैं और उन पन्द्रह अधिकारो मे मात्र मोहनीय कर्म सम्बन्धी पंथन किया गया है शेष सात कर्म सम्बन्धी कथन नही पाया जाता है । पन्द्रह अधिकारो मे से १० वे अधिकार मे दर्शन मोह की उपशामना, ग्यारहवे अधिकार में दर्शन मोह की क्षपणा, बारहवे अघिकार मे समयासयम लचि, तेरहवें अधिकार मे चारित्रलब्धि, चौदहवे अधिकार मे चारित्रमोह की उपशामना और पन्द्रहवे अधिकार मे चारित्रमोह की क्षपणा का विवेचन है। १० से १५ तक इन छह अधिकारी के णिसूत्र से श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की रचना की है। जोव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्रकाश और काल ये छह द्रव्य इस लोकाकाश मे सर्वत्र व्याप्त है। पुद्गल द्रव्य की २३ वर्गणाए हैं, जिनमे से आहारवर्गणा, तैजसबर्गरणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा इन पाच वर्गणामो को जीव अपनी योगशक्ति के द्वारा ग्रहण करता है। पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन-वचन-काय से युक्त जीव की कर्मों को ग्रहण करने मे कारणभूत शक्ति योग कहलाती है।' कर्म वर्गरणाए आठ प्रकार की हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमे से जो ज्ञानावरणीय के योग्य द्रव्य है वही मिथ्यात्वादि प्रत्ययो के कारण पाच ज्ञानावरणीय रूप से परिणमन करता है अन्य रूप से परिणमन नहीं करता, क्योकि वह अन्य के अयोग्य होता है। इसी प्रकार सभी कर्मों के सम्बन्ध मे कहना चाहिए । अन्तर का अभाव होने से कामणवर्गणा पाठ प्रकार की हैं ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता है। कर्म और आत्मा का परस्पर सश्लेष सम्बन्ध होकर दो पने के त्याग पूर्वक एकरूपता हो जाना मो बन्च है। ___निश्चयनय मे न वन्ध है न मोक्ष है, क्योकि बन्ध व मोक्ष पर्यायें हैं, और निश्चयनय पर्यायो को ग्रहण नहीं करता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव ने समयसार ग्रन्थ मे भी कहा है __ रवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणो दु जो भावो। एव भणति सुद्ध पानी जो सो उ सो चेव ॥६॥ -निश्चय नय से जीव न तो अप्रमत्त (मुक्त) और न ही प्रमत्त (संसारी) होता है। एक जायक भाव है, वह वही है। प्रत निश्चयनय मे न संसार अर्थात् कर्मबन्ध है और न ही मोक्ष मर्थात् कर्मक्षय है। १. पुगत विवाइ देहोदयेण मण वयण फाय जुत्तस्स । जीवस्स जा हु सत्ती कम्मागम कारणं जोगो॥ २१६ गो. जो का।। पाणावरणीपस्स जारिए पापोग्गाणि दवाणिवाणि चेव मिच्छत्तादि पच्चएहि पंच पायावरणीयसर पेण परिणमति र सरुवेण । कुदो ? अप्पानोगत्तादो। एष सन्वेसि फम्मारणं वत्तन्वं । घ. पु. १४ ३. संश्लेषनारो पन्चे सति । स सि.२३३ बंधोरणाम दुभाव परिहारेण एयत्तावत्ती। घ, पु १३ १.७॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) द्रव्य संग्रह में भी कहा है शुद्ध निश्चयनय से जीव के बन्ध ही नहीं है तथा बन्धपूर्वक होने से मोक्ष भी नही है ।' ____ जब निश्चयनय मे बन्ध व मोक्ष ही नही तो मोक्षमार्ग कैसे सम्भव है अर्थात् निश्चयनय से मोक्षमार्ग भी नहीं है । बन्धपूर्वक मोक्ष और मोक्षमार्ग के उपदेश के लिए ही षट्खण्डागम और कषायपाहुड ग्रन्यो की रचना हुई। यद्यपि ये दोनो ग्रन्थ करणानुयोग के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि इनमे करण अर्थात् आत्म-परिणामो की तरतमता का सूक्ष्म-दृष्टि से कथन पाया जाता है तथापि इन दोनो ग्रन्थो मे आत्म-विषयक कथन होने से वास्तव मे ये अध्यात्म ग्रन्थ हैं ।२ पूर्वबद्ध कर्मोदय से जीव के कषायभाव होते हैं और इन कषाय भावो से जीव के कर्मबन्ध होता है । वाहय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव अनुकूल मिलने पर द्रव्य कर्म उदय मे (स्वमुख से) आकर अपना फल देता है। यदि बाहय द्रव्य-क्षेत्र-काल-भव-भाव अनुकूल नही मिलता तो कर्म (स्वमुख से) उदय मे न पाकर अपना फल नहीं देता। जिन बाहय द्रव्यादि के मिलने पर कषायोदय हो जावे ऐसे द्रव्य आदि के सयोग से अपने को पृथक् रखे यही हमारा पुरुषार्थ हो सकता है। जैसेअणुव्रत ग्रहण द्वारा देश संयम हो जाने पर अप्रत्याख्यान क्रोध आदि कषाय तथा आनादेय, दुभंग, अयश कीर्ति आदि कर्मोदय रुक जाता है। चरणानुयोग की पद्धति के अनुसार हम स्वय को उन द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से बचा सकते है जिनके मिलने पर कषायादि उदय मे आते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ का नामकरण __ प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने से पूर्व पाच लब्धिया होती हैं तथा अनन्तानुबन्धी की विसयोजना, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायिक सम्यक्त्व, उपशम चारित्र व क्षायिक चारित्र से पूर्व तीनों करणलब्धि होती है। देश सयम और सकलसयम से पूर्व अधःकरण और अपूर्वकरण ये दो करणलब्धिया होती है। इन लब्धियो का कथन प्रस्तुत ग्रन्थ मे विस्तार पूर्वक होने से इस ग्रन्थ का लब्धिसार गौण्य पद नाम है तथा चारित्र मोह की क्षपणा का कथन होने से अथवा आठो कर्मों की क्षपणा का कथन होने से दूसरे ग्रन्थ का क्षपणासार सार्थक नाम है । इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार यह नामकरण विषय विवेचन की प्रधानता से किया गया है। ग्रन्थकर्ता ___ लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ के कर्ता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती है। आपने पुष्पदन्तभूतवलि प्राचार्य द्वारा विरचित षट्खडागम सूत्रो का गम्भीर मनन पूर्वक पारायण किया था। इसी कारण आपको सिद्धान्त चक्रवर्ती उपाधि प्राप्त थी। आपने स्वयं भी गो क. की गाथा ३९७ मे सूचित किया है कि-जिस प्रकार भरतक्षेत्र के छह खडो को चक्रवर्ती निर्विघ्नतया जीतता है उसी प्रकार प्रज्ञा रूपी चक्र के द्वारा मेरे द्वारा भी छह खड (प्रथम सिद्धान्त ग्रन्थ-षट्खण्डागम) निर्विघ्नतया साधित किये गये हैं अर्थात् जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और १. बन्धश्च शुद्धनिश्चयन येन नास्ति तथा बन्धपूर्वकमोक्षोऽपि । गा. ५७ को टोका। २. 'एदं खरगंथमज्झप्पविसय' 'पयदाए अझपविज्जाए' ध पु १३ पृ. १३६ । ३. कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभाव प्रत्ययफलानुभवनं । सर्वार्थसिद्धि ६/३६ । ४. जह चक्केण य चक्की छक्खडं साहिय प्राविग्रण। तह मइचक्फेरण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) :rm गम गन्य को मैने अपने बुद्धिवैभव से सिद्ध किया है। षटखण्डागम के अतिF: " : (चलिमय महित) तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थो के भी आप पारगामी विदृच्छि नायकान्दी सिद्धान्त ग्रन्थो के सारस्प मे प्रापने गोम्मटसार जीवकाण्ड-कर्मकाण्ड, मागार तथा निलोकसारादि ग्रन्यो का प्रणयन किया है। पाने ही निता जा चुका है कि लब्धिसार-क्षपणासार की रचना का मूलस्रोत ग्रन्थ ग रहा है। गुणवराचार्य कृत इस ग्रन्थ पर चूणिसूत्र यतिवृषभाचार्य ने रचे और मान्चित रूपायपाहड की ६०००० श्लोक प्रमाण वाली जय धवला टीका लिखी गई है। मातमाय नन्द के एक तिहाई भाग (१०वें १५वे तक ६ अधिकार) को ६५३ गाथाम्रो मे रिया जाना ही नेमिचन्द्राचार्य के बुद्धि वैभव का उद्घोप करता है । यह कोई साधारण प्रयासमपफाल गोमटमार अन्य को कर्णाटकीय प्रादि वृत्ति के कर्ता केशववर्णी आदि अपने प्रारम्भिक नमें गिने हैं कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अनेक उपाधि विभूषित चामुण्डराय के famमिद्धान्त ग्रन्य (पट्खण्डागम) के अाधार पर गोम्मटसार ग्रन्थ की रचना की। स्वय पागादेव ने ही गो क. की अन्तिम प्रशस्ति मे राजा गोम्मट अर्थात् चामुण्डराय जयकार किया नागय गगनरेश श्री राचमल्ल के प्रधानमन्त्री एव सेनापति थे। चामुण्डराय ने अपना ग" " पुराग शक म ६०० तदनुसार वि स १०३१ मे पूर्ण किया था। राचमल्ल का राज्यमाथि १०८? तक रहा है ऐसा ज्ञात होता है। वाहुबली चरित मे गोम्मटेश की प्रतिष्ठा का माम1०७-१८ बतलाया है। गोम्मटेश की प्रतिष्ठा मे स्वय नेमिचन्द्राचार्य उपस्थित थे। मनन्द्रानायं का काल विक्रम की ११वी शताब्दी सिद्ध होता है । सागर गुप मोगार को अन्तिम गाथा मे श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने आपको अभय यि पहा है। इसके अतिरिक्त प्राचार्य वीरनदि, इन्द्रनन्दि तथा कनकनन्दि का भी सा नाय उल्लेग किया है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड की निम्न गाथा के प्रकाश मे ग्रन्थदीपा गुरूमा प्रामाम मिलता है गाथा इस प्रकार है जम्म य पायपनाएरणगतमसारजलहि मुत्तिण्णो। नाग्दिरणदिवच्छो गमामि त अभयरणदि गुरु ॥४३६।। जनमोरन्दनन्दिका क्रम जिनके चरणप्रसाद से अनन्त ससाररूपी सागर से उत्तीर्ण -: ममता को में (नेमिचन्द्र) नमस्कार करता हु । अनन्त ससार रूपी सागर से .......TTमात्राय दीक्षा मे ही है । अतः ऐसा लगता है कि उनके दीक्षागुरु अभयनदि हैं । : ५५५. श्री मिनाचार्य ने इन्द्रनन्दि वीरनन्दि प्रादि प्राचार्यों का भी गुरु रूप मे स्मरण 1. RTI मुदेनामपरादियण । १t Animl एम एतापरिपा ।।१०१८।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) विषय परिचय लब्धिसार की प्रथम ८८ गाथाओं मे क्षयोपशम-विशुद्धि-देशना प्रायोग्य एवं करण रूप पाच लब्धियो का सविस्तर वर्णन करते हुए प्रथम तीन लब्धियो का स्वरूप मात्र एक-एक गाथा मे ही कर दिया है। प्रायोग्य लब्धि के अन्तर्गत ३४ बन्धापसरण और उन अपसरणो मे बन्ध से व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियो का कथन १५ गाथाओ मे किया गया है। इसके पश्चात् सात गाथाओ द्वारा प्रायोग्यलब्धि मे उदय व सत्त्व योग्य प्रकृतियो का कथन किया है। तदनन्तर ५६ गाथाओ मे करणलब्धि के विवेचन को प्रारम्भ करते हुए प्रध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण लब्धियो का कथन किया है। इसके पश्चात् गाथा १०६ तक उपशम सम्यक्त्व आदि के प्रकरण मे होने वाले अनुभाग काण्डकादि कालो का अल्पबहुत्व तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने आदि का सर्व कथन पाया जाता है। गाथा ११० से दर्शनमोहनीय कर्म की क्षपणा का कथन प्रारम्भ होता है उसके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसयोजना का कथन गाथा ११२-११६ तक किया गया है। तदनन्तर गाथा १६६ तक क्षायिक सम्यक्त्व का प्रकरण है। १६७वी गाथा से प्रारम्भ होकर गाथा १८८ तक देशसयमलब्धि का कथन सविस्तर किया गया है । देश सयमलब्धि अधिकार के पश्चात् गाथा १८६ से सकलसयमलब्धि का वर्णन प्रारम्भ हुआ है । तदनन्तर गाथा २०५ से चारित्र मोहोपशामनाधिकार प्रारम्भ हुआ है, उसके अन्तर्गत १४ गाथाओ द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का कथा का कथन है। गाथा २२० से ३६१ तक श्रेण्यारोहण और श्रेण्यावरोहण की अपेक्षा उपशम चारित्र का सविस्तर कथन प्राचार्यदेव ने किया है। इस प्रकार लब्धिसार ग्रन्थ मे सर्व ३६१ गाथाओ मे पंचल ब्धियो का पूर्ण विवेचन प्रस्तुत करने के पश्चात् ३६२ से ६५३ तक ३६१ गाथाम्रो द्वारा क्षपणासार मे चारित्रमोहनीय कर्म की क्षपणा के सविस्तर कथन पूर्वक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों के क्षय का विधान बताते हुए नाम-गोत्र-वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों के क्षय का विधान निरूपित किया गया है। इसके साथ ही केवली समुद्घात, योग निरोध, अर्हन्त व सिद्ध भगवान के सुख का भी विवेचन भी प्रसग प्राप्त होने से किया गया है। इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार मे प्रतिपादित विषय का परिचय अति सक्षिप्त में दिया गया है विस्तृत विवेचन ग्रन्थ अध्येता स्वयं अध्ययन कर ग्रन्थ से जानने में सक्षम होगे अत. प्रस्तावना मे विस्तारपूर्वक विषय परिचय 'पिष्ट पेषण' के भय से नही दिया गया है । लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की प्रस्तुत टीका एवं उसके प्राधार लब्धिसार की सिद्धान्त बोधिनी एवं क्षपणासार की कर्म क्षपणबोधिनी टीका, इस प्रकार लब्धिसार-क्षपणासार ग्रन्थ की नवीन टीका का यह नामकरण किया गया है। यद्यपि पंडित प्रवर टोडरमलजी की सुबोध हिन्दी टीका सहित लब्धिसार की सस्कृतवृत्ति युक्त लव्धिसार का प्रकाशन 'जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी सस्था' कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था जो इस समय उपलब्ध नहीं है। संस्कृत वृत्तिकार ने प्राय: जयधवल टीका का अनुसरण किया है। हिन्दी टीकाकार के समक्ष जयधवल टीका नही थी अत पडितजी ने सस्कृत वृत्ति का मात्र हिन्दी अनुवाद किया है। लब्धिसार का प्रकरण जयधवल पु १२ व १३ मे चरिणसूत्र समन्वित जयधवला टीका के हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुका है । हां! गाथा ३०८ से ३६१ तक का प्रकरण, जिसमे उपशम थरिण से गिरने तथा मानादि कषायो व स्त्रीवेदादि सहित उपशम श्रोणि प्रारोहण का कथन भी पाया जाता है Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) उसका जयघवला टीका मे जो वर्णन है वह सभी प्रकाशित नहीं है। कषायपाहुड भाग १४ जो कि अभी प्रकाश्य है उसमे प्रकाशित होगा । अतः लब्धिसार वी इस प्रस्तुत टीका मे पंडित टोडरमलज़ी की हिन्दी टीका तथा सस्कृतवृत्ति के साथ-साथ ज ध पु १२ व १३ अाधार रही है, किन्तु गाथा ३०८ से ३६१ तक की टीका जयधवल मूल (फलटन से प्रकाशित) के प्राधार से लिखी गई है। क्षपणासार की कोई सस्कृत टीका नही है। हा! माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित सस्कृत क्षपणासार की दो प्रतिया जयपुर भण्डार से प्राप्त हुई थी जो कि स्वतत्र रचना है अतः वह स्वतत्र कार्य की अपेक्षा रखता है । सम्भव है प टोडरमलजी के समक्ष यह क्षपणासार रहा हो जो उनकी क्षपणासार टीका का अवलम्बन रहा हो। गाथा ४७३ की टीका मे उन्होने अपनी लघता प्रगट करते हुए लिखा है कि-"इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष किछु किया नही और मेरे जानने मे भी स्पष्ट न आया तातै इहा न लिख्या। बुद्धिमान होइ सो याका यथार्थ अथ होड़ सो जानह ।" इन पक्तियो के प्रकाश मे मेरे अनुमान से एक तथ्य प्रगट होता है कि पडित प्रवर टोडरमलजी के समक्ष क्षपणासार की हिन्दी टीका सहित कोई प्रति होना चाहिए। अन्यथा वे ऐसा क्यो लिखते कि इस गाथा का अर्थ रूप व्याख्यान 'क्षपणासार विपै किछु किया नाही' । माधवचन्द्र विद्य देव द्वारा रचित क्षपणासार सस्कृत भाषा का स्वतत्र ग्रन्थ है वह अर्थ रूप व्याख्यान (टीका) तो है नही । खैर | जो भी हो यह है अनुसधान का विषय । मेरे द्वारा अनुमानित प टोडरमलजी के समक्ष विद्यमान क्षपणासार की भाषानुवादित उस टीका के कर्ता ने भी जयधवल मूल टीका का आश्रय लिया है यह स्पष्ट है।। क्षपणासार की कर्मक्षपणबोधिनी नामा इस नवीन टीका को भी मैने फलटन से प्रकाशित जयववल मूल (शास्त्राकार) के प्राधार से ही लिखा है, क्योकि क्षपणासार से सम्बन्धित इस विषय की जयधवला टीका हिन्दी अनुवाद सहित सभवत १५-१६ वे भाग के रूप मे मथुरा से अभी तक प्रकाशित नही हुई हैं प्रकाशनाधीन हैं। आत्म निवेदन उक्त नवीन टीका करने को प्रेरणा मुझे पा क. श्री श्र तसागरजी महाराज से प्राप्त हुई। सन् १९६३ से तो मैं निरन्तर उनके सान्निध्य मे जाता रहा है। इसी शृखला मे सन् १९७१-७२ मे त्रिलोकसार की नवीन टीका (प्रायिका विशुद्धमतीजी द्वारा लिखित) के वाचनावसर पर मुझे भी जाने का प्रसग प्राप्त हुआ था। ६ वर्ष पश्चात् सन् १९७८ मे पुन गोम्मटसार कर्मकाण्ड की 'सिद्धान्तज्ञानदीपिका' नामा नवीन हिन्दी टीका (आर्यिका आदिमतीजी विरचित) की वाचना के अवसर पर प्रा. क श्री के सान्निध्य का लाभ मिला और उस टीका के सम्पादनत्व का भार भी मुझ पर पाया । उक्त वाचना के अवसर पर ही जयपुर निवासी श्रीमान् रामचन्द्रजी कोठारी ने आ क श्री के समक्ष अपनी हार्दिक मनोभावना ब्र लाडमलजी के माध्यम से व्यक्त की थी कि "लब्धिसारक्षपणासार की भी शद्ध प्राधुनिक हिन्दी मे नवीन टीका लिखी जानी चाहिए उसके प्रकाशन का अर्थ भार मैं स्वय वहन करू गा।" कोठारीजी की इस भावना को देखते हुए मुझे प्रेरणा मिली और उसी समय मैंने ा क श्री को अपनी स्वीकृति प्रदान की थी। लगभग १ वर्ष के परिश्रम से मैं इस नवीन टीका को लिख पाया और इसकी वाचना के लिए चातुर्मास प्रवास मे मैं आ क श्री के सान्निध्य मे पहुचा। वाचना के अनन्तर ही फिर मुझे गोम्मटसार जीवकाण्ड की नवीन टीका लिखने Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) के लिए पू. महाराज श्री की प्रेरणा मिली जिसे मैंने शिरोधार्य किया। इन दिनो मै उसी (गोम्मटसार जीवकाण्ड को) टीका की लिख रहा हूं। सन् १९३५ तदनुसार वि. सं. १६६१ मे विद्वज्जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. मारिएकचन्द्रजी कौन्देय 'न्यायाचार्य' दस लक्षण पर्व पर सहारनपुर पधारे थे। तत्त्वार्थसूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होने उपशम सम्यग्दर्शन का स्वरूप बताया किन्तु ज्ञान के अल्पक्षयोपशमवश उनके द्वारा आगमानुमोदित वह व्याख्या मैं समझ नहीं पाया। हा! इतना अवश्य समझ सका कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से ही मेरा आत्म हित हो सकता है। शास्त्र प्रवचन के अनन्तर मैंने पडितजी से पूछा कि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय और उसका स्वरूप जैन दर्शन के किस ग्रन्थ मे विस्तार पूर्वक मिल सकता है ? मेरे इस प्रश्न का सहजिक उत्तर देते हुए पडितजी बोले प्राचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित 'लब्धिसार-क्षपरणासार' ग्रन्थ मे सम्यग्दर्शन की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। उस समय मुझे ऐसा लगा जैसे 'अधे को दो पाखे ही मिल गई हो' उक्ति के अनुसार मुझे निधि प्राप्ति ही हुई हो। सहारनपुर मे उन दिनो मुद्रित न थ उपलब्ध नही थे। अतः हस्तलिखित लब्धिसार-क्षपणासार से स्वाध्याय प्रारम्भ किया। कई दिनो तक विषय स्पष्ट नही हुमा फिर भी मन में निराशा नही हुई और बार-बार के प्रयत्न से सफलता मिली। कुछ दिनो के पश्चात् तो वकालात का कार्य छोड़कर जैन सिद्धान्त के विभिन्न ग्रंथो का (धवल-जयधवल-महाधवल, गोम्मटसार-समयसारप्रवचनसार-त्रिलोकसारादि) अपने लघुभ्राता नेमिचन्द्र वकील के साथ स्वाध्याय किया। मुझे अत्यन्त हर्ष है कि जिस ग्रन्थ के अध्ययन से मुझे सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी मिली उसी ग्रन्थ की टीका लिखने का जीवन के अन्तिम चरणो मे सुअवसर मिला। यह अत्यन्त सुखद संयोग है। पू. आ. क. श्री श्रु तसागरजी महाराज का अत्यन्त कृतज्ञ हू कि जिन्होने टीका की वाचना को उपयोग पूर्वक श्रवणकर यथायोग्य सुझाव दिये। उन्ही की प्ररणा एवं प्राशीवर्वाद से मैं इस कार्य को करने में सक्षम हो सका है। आगे भी इसी प्रकार जिनवाणी सेवा मे मेरा जीवन व्यतीत हो इसी मगल भावना से विराम लेता हूं। आशा है ब्र. लाडमलजी के सद्प्रयत्न से इस टीका का शीघ्र प्रकाशन होगा। ) दीपावली वि. स २०३६ निवाई रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर (उप्र.) विशेष : ग्रन्थ की यह प्रस्तावना स्व. मुख्तार साहव ग्रन्थ की नवीन टीका की वाचता के अवसर पर जव निवाई चातुर्मास मे पाये थे तभी वाचना के अनन्तर ही लिख गये थे। एक वर्ष के पश्चात उनक स्वर्गवास ही हो गया । अत्यन्त खेद रहा कि वे इस ग्रन्थ के प्रकाशन को नहीं देख सके। उनके द्वारा लिखित उसी प्रस्तावना को अब प्रन्थ प्रकाशन के साथ यहां प्रकाशित किया जा रहा है। (प्रकाशकीय टिप्पगो) Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित क्षिपणासार (कर्मक्षपण बोधिनी हिन्दी टीका समन्वित) सम्पादक: स्व.ज.प रतनचन्द्र मुरतार सहारनपुर (उप्र) Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार विषयानुक्रमणिका विषय सक्रमरणकरण का प्रतिपादन सक्रम द्वारा नपुंसक वेद की क्षपरणा १ नपुंसक वेद के सक्रमणकाल मे वन्ध, उदय व संक्रम १ के माध्यम से प्रदेश विषयक अल्पबहुत्व का कथन ह उदय और सक्रमण की निरन्तर गुण रिण स्त्रीवेद सक्रमण मे होने वाले कार्यों का निर्देश विषय मंगलाचरण चारित्रमोह क्षपणाधिकार पृष्ठ १ चारित्रमोह की क्षपणा मे प्रतिपाद्य अधिकार अधः प्रवृत्तकरण मे होने वाली क्रियाए अपूर्वं करण का वर्णन यहा होने वाली गुण रिणका कथन गुण संक्रम के विषय में निर्देश अपकर्षण व उत्कर्षण सम्बन्धी प्रतिस्थापनादि का कथन ११ पूर्वकरण मे जघन्य - उत्कृष्ट स्थिति खण्ड के प्रमाण का निर्देश उक्त करण में प्रथम व चरम समय में स्थितिखण्डादि के प्रमाण का निर्देश एक स्थिति काण्डक के पतन मे सहस्रो अनुभाग काण्डकघात होते हैं १० १० १८ २० २१ २२ अनुभाग काण्डक किनके होता है ? पूर्वकरण मे किस क्रम से किन-किन प्रकृतियो का बन्घव्युच्छेद होता है ? अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी कथन अनिवृत्तिकरण गुण स्थान मे स्थिति खण्ड प्रमाण निवृत्तिकरण के प्रथम समय मे स्थिति बन्ध स्थिति सत्त्व आदि का निर्देश स्थिति बन्धा पसरण का क्रम निर्देश स्थिति सत्त्वापरण का कथन सत्त्व के क्रमकरण के बाद यथास्थान असंख्यात समय प्रबद्ध की उदीरणा ३६ स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व सम्बन्धी क्रमकरण के कथन के पश्चात् ८ कषाय व १६ प्रकृतियोका क्षपणकरणाधिकार देशघातिकरण का कथन अन्तरकरण का कथन २२ प्रकृत अल्प बहुत्व २३ | अश्वकर्णं करण के प्रथम समय मे उक्त स्पर्वको मे से २४ उदय बन्ध को प्राप्त स्पर्धको का कथन प्रकृत मे दृश्यमान द्रव्य का कथन २६ प्रथम अनुभागकाण्डक होने पर होने वाला कार्य २६ अश्वकर्णकरण के प्रथमादि समयो में क्रमश: घटते ३३ ३६ ४२ ४३ पृष्ठ ૪૬ ४८ x of ov ov ४९ ५० सात तो कषाय के सक्रमण काल मे होने वाले कार्य ५१ अश्वकर्णकररण के स्वरूप निर्देश पूर्वक सज्वलन चतुष्क के अनुभाग का अश्वकर्णं क्रिया का विधान तथा उसमे होने वाले कार्यों का निर्देश अश्वकर्णकररण के प्रथम समय मे होने वाले अपूर्व - स्पर्धको का कथन अपूर्वस्पर्धक की रचना मे पाया जानेवाला द्रव्य का परिमाण लोभादिक के स्पर्धको की वर्गरणा सम्बन्धी विशेष विचार, प्रकृत मे गणित सूत्र, क्रोधादि के काण्डक व उनकी शलाका आदि का कथन ५१ ૬૪ ६८ 1७२ ७६ ८१ ८२ ८६ ८६ क्रम से अपूर्व स्पर्धक रचना प्रकृत मे स्पर्धक की वर्गरणा मे प्रविभागी प्रतिच्छेद की अपेक्षा अल्पबहुत्व अश्वकर्णकरण मे प्रथम अनुभागखण्ड पतित होने पर स्पर्धक आदि मे अल्पबहुत्व 55 अश्वकर्णकरण के चरम समय मे स्थितिवन्ध व सत्त्व ९१ आगे बादर कृष्टिकरण के कालका प्रमाण जानने के उपाय 65 ८७ w Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पष्ठ १२४ विषय विषय कृष्टिया कोनसे द्रव्य से करता है इसका निर्देश ९३ | परस्थान व स्वस्थान गोपुच्छ का नाश १२३ अपकपित द्रव्य का विभाजन . ९३ | आय और व्यय द्रव्य का कथन सग्रह एव अवयव कुष्टि की अपेक्षा कृष्टियो की सख्या ६४ स्वस्थान-परस्थान गोपुच्छ के सदभाव का विधान १२४ कृष्टि मे द्रव्य विभाजन सम्बन्धी निर्देश ४। मध्यम खण्डादि करने का कथन १२४ प्रथमादि बारह सग्रह कृष्टि का आयाम पत्यके विरच्यमाय अपूर्व कृष्टियो का विधान १२९ असल्यातवें भाग के क्रम से घटता है कृष्टियो के घात का कथन किस कपायोदय से श्रेणी चढने वाले के कितनी क्रोध की प्रथम सग्रह कृष्टि की प्रथम स्थिति में संग्रह कृष्टिया होती है EL | समयाधिक प्रावलीकाल शेप रहने की अवस्था १३३ अन्तर कृष्टियो को सख्या व उनका क्रम ९९ | संग्रह कृष्टियो के चरम समय मे फाली के देने का उक्त कथन विशेष स्पष्टीकरण १०० विधान १३६ लोभ की जघन्यकृष्टि के द्रव्य से क्रोध की उत्कृष्ट द्वितीय संग्रह वेदक के उदयादि का विधान प्रथम कृष्टि पर्यन्त देयद्रव्य सग्रहवत् है १३७ पावकृष्टि सम्बन्धी विधान १०६ क्रोध की द्वितीय संग्रह का स्वस्थान-परस्थान द्रव्य देने का क्रम, कृष्टि भेद तथा उष्ट्रकूट रचना सक्रमण की सीमा १३७ का कथन १०७ स्वस्थान-परस्थान सक्रमण मे नियम का विशेष अनुभाग की अपेक्षा कृष्टि व स्पर्धक का लक्षण १११ । स्पष्टीकरण १३९ कृष्टिकारक कृष्टिका भोग नहीं करता, इसका निर्देश प्रकृत में किस-किस कृष्टि का सक्रमण नही है १३९ एव कृष्टिकरण काल समाप्ति का निर्देश वेद्यमान व अवेद्यमान संग्रह कृष्टि के बन्ध प्रबन्ध कृष्टिवेदनाधिकार का निर्देश कृष्टिवेदन तथा इसके प्रथम समय में होने वाले सग्रह कृष्टियो मे अवयव कृष्टियो के द्रव्य का बन्ध-सत्त्व का निर्देश अल्पवहुत्व १४० ११२ प्रकृत मे उच्छिष्टावली, नवकप्रबद्ध के अनुभाग का वेद्यमान कृष्टि की प्रथम स्थिति मे समयाधिक निर्देश प्रावली शेष रहने पर होने वाली स्थिति एव कार्य १४१ ११२ कृप्टिकारक व वेदक के क्रम तथा प्रथम सग्रह कृष्टि द्वितीय संग्रह वेदक के चरम स्थिति वन्ध व सत्त्व १४२ का पहले वेदन होता है इसका निर्देश क्रोध की तृतीय सग्रह की प्रथम स्थिति स्थापना कृष्टि वेदक के प्राथमिक समय में होने वाले कार्य ११४ । तथा चरम समय कोष वेदक के बन्ध-सत्त्व १४३ प्रकृत मे उदीयमान कृष्टि, बन्ध कृष्टियों का निर्देश ११५ | मान का प्रया | मान की प्रथम स्थिति स्थापना तथा उसका प्रमाण १४३ प्रकृत मे अल्पबहुत्व ११६ | मान की प्रथम सग्रह कृष्टि का वेदन प्रकार क्रोधद्वितीयादि समयो मे उक्त विषय का विशेषस्पष्टी- बत् तथा चरम समय मे वन्ध सत्त्व का निर्देश १४४ करण मान की द्वितीय संग्रह कृष्टि का वेदन तथा इसके प्रति समय मे इन कृष्टियो का बन्ध-उदय कैसे होता चरम समय मे बन्ध-सत्त्वका निर्देश है इसका निर्देश १४५ सममण द्रव्य का विधान ११६ तृतीय सग्रह का वेदन तथा अन्त मे बन्ध-सत्त्व १४६ प्रति समय होने वाली अपवर्तन की प्रवृत्तिका कम १२३ | तथा वहा दो चरम समयमे होनेवाला बन्ध-सत्त्व १२० माया की प्रथम द्वितीयमादि कृष्टियोके वेदनका वर्णन १४७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ) पुज १७४ विषय विषय प्रति समय असख्यात गुणी हीन कृष्टि रचना तथा सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान के प्रथम समय मे मोह दीयमान द्रव्य मे असख्यात गुणी क्रमता की गुण श्रेणी अन्तरायाम आदि का अल्पबहुत्व १६६ सूक्ष्म कृष्टि करण के समय मे दीयमान द्रव्य का द्वितीयादि काण्डको के काल मे गुण श्रेणी के ऊपर विशेषहीन प्रादि रूप क्रम १५४ गोपुच्छता का निर्देश द्वितीयादि समयो मे क्रियमाण अधस्तन कृष्टि व अधस्तन अनुदीर्ण, उपरिम अनुदीर्ण, मध्यम अनुअन्तरकृष्टि निर्देश एव उनका प्रमाण प्ररूपण १ दीर्ण कृष्टियों का अल्पबहुत्व द्वितीयादि समयो मे दीयमान द्रव्य सम्बन्धी कथन १५५ / सूक्ष्म साम्पराय म क्षपक के अन्त में होने वाला गुण सूक्ष्म कृष्टियो को करने वाले के दश्यमान प्रदेश श्रेणी का निर्देश १७० प्रकृत मे दीयमान और दृश्यमान द्रव्य का निर्देश १७२ प्रकृत मे सक्रम्यमारण प्रदेशानका अल्पवहत्व १५६ | चरम काण्डक के पश्चात् काण्डक घात के अभाव के सूक्ष्म कृष्टि मे सक्रान्न द्रव्य के प्रमाण को प्राप्त प्रतिपादन पूर्वक मोह के स्थिति सत्त्व का निर्देश १७३ करने का साधक मत बादर कृष्टियो मे सक्रान्त सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान के चरम समय मे बन्ध प्रदेशाग्र का अल्पबहुत्व। १५७ का प्ररूपण लोभ की द्वितीय संग्रह कृष्टि से तृतीय सग्रह कृष्टि उक्त गुण स्थान के चरम समय मे ही स्थिति , मे सक्रमण करने की अवधि सत्त्व का निर्देश १७४ बादर लोभ की प्रथम स्थिति मे समयाधिक प्रावली क्षीणकषाय के स्थिति-अनुभाग बन्ध के प्रभाव शेष रहने पर तृतीय व किंचिदून तृतीय कृष्टिका का कथन सूक्ष्म रूप परिणमना १६० क्षीण कषाय गुण स्थान मे स्थिति-अनुभाग काण्डक नवम गुण स्थान के चरम समय मे स्थिति बन्ध धात का प्रमाण १७६ निर्देश | क्षीण कषाय के चरम काण्डक का ग्रहण तथा वहा नवम गुण स्थान के चरम समय मे स्थिति सत्त्व पर देयादि द्रव्य का विधान १७७ निर्देश १६१ क्षीण कषाय को कृतकृत्यक सज्ञा की प्राप्ति तथा सूक्ष्म साम्पराय का कथन इसके द्विचरम मे उदय-व्युच्छिन्न प्रकृति का निर्देश १७८ पर्वत्रय के कथनपूर्वक अवस्थित गुण रिण का मानादि कषायत्रय सहित श्रेण्यारोहक जीव के पायाम १६३ विषय मे प्रथम स्थिति आदि का विशेष निर्देश १७९ अपकृष्ट द्रव्य के देने का विधान १६३ | स्त्री वेदोदय सहित श्रेण्यारोहक जीव के स्त्री वेद द्वितीयादि समयो में दिया गया द्रव्य की प्रथम स्थिति के प्रमाणादि का निर्देश १८२ प्रथम समयवर्ती सूक्ष्म साम्पराय के दृश्यमान नपु सक वेदोदय सहित श्रेण्यारोहक जीव के प्रथम प्रदेशाग्र की श्रेणि प्ररूपणा स्थिति प्रमाणादि के विषय मे विशेष कथन १८३ चरम निषेक का द्रव्य प्रमाण तथा दीयमान द्रव्य क्षीण कषाय के चरम समय मे सत्व व्युच्छिन्न की प्ररूपणा १६६ प्रकृतियो का निर्देश १८४ प्रकृत मे दृश्यमान द्रव्य १६८ अनन्त चतुष्टय की उत्पत्ति का कारण व इसकी द्वितीय स्थिति काण्डक के प्रथमादि समयो मे गुण विशेषता १८५ श्रेणी शीर्ष का अल्पबहुत्व १६८ | किस कर्म के नाश से कौनसा गुण स्थान होता है ? १८५ १७४ १६६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) पृष्ठ १८७ विषय विषय अनन्त सुख की उत्पत्ति का कारण तथा उसकी सूक्ष्म कृष्टिकरण का प्रमाण, प्रथम समय मे कृष्टि विशेषताए १८६ | द्वितीयादि समयो मे असख्यात गुण प्रदेशो का क्षायिक सम्यक्त्व तथा उत्कृष्ट चारित्र की उत्पत्ति अपकर्षण मवीन कृष्टि निर्माण तथा कृष्टि प्रमाण का कारण का निर्देश २०८ असाता वेदनीय के उदय से केवली भगवान के योग के अपूर्व स्पर्षक तथा सूक्ष्मकृष्टि प्रादि के क्षुधादि-परीषह पाये जाते हैं तथा उनके पाहारादिक्रिया होती है ऐसी असत् मान्यता का परिहार १८७ सम्बन्ध मे कथन २१० इन्द्रिय सुख की परिभाषा १८७ कृष्टिकरण के अनन्तर समय मे सकल स्पर्वको का केवली साता असाता जन्य सुख-दुःख के प्रभाव कृष्टिरूप परिणमन, योग कृष्टियो का हीन क्रम का कारण १८८ से वेदन २१० केवली के साता वेदनीयका एक समय स्थिति वाला सयोगी जिनके तृतीय शुक्ल ध्यान का प्ररूपण तथा उदयरूप स्थिति वन्ध होता है इसका निर्देश १८८ | अन्त मे नाश को प्राप्त योग कृष्टि २१२ सयोग केवली के प्रति समय होने वाले नोकर्माहार। अघातिया कर्मों का चरम स्थिति काण्डक तथा तथा उसकी स्थिति का कथन चरम समय मे होने वाली समस्थिति का कथन २१३ समुद्घातगत केवली के तीन समयो तक नोकर्म अयोगी जिन व उनके ध्यान २१५ याहार का प्रभाव पाया जाता है पश्चिम स्कंघद्वार कथन के अन्तर्गत केवली समुद् प्रयोगी के शुक्ल ध्यान द्वारा नाशित प्रकृतिया घात के निर्देश पूर्वक केवली समूद्घात के अन्तर्गत अष्टम पृथ्वी का वर्णन २१७ श्रावजितकरण तथा इसके पूर्व एव वाद मे होने प्रथम एव द्वितीय शुक्ल ध्यान का अधिकार २१८ वाले क्रिया विशेषो का कथन १९६ | सिद्धो से रत्नत्रयकी शुद्धि व समाधि की याचना २२६ योग निरोध का प्ररूपण २.३ सूक्ष्म योग, अपूर्वस्पर्धक सूजन, प्रति समय असख्यात- । | क्षपणाधिकार चूलिकागुणा अपकर्पण, किन्तु अपूर्वस्पर्धक असख्यातगुणा दर्शनमोह और चारित्रमोह कर्म प्रकृतियो को हीन क्रम से सूजन तथा अपूर्वस्पर्धक के प्रमाण क्षपणाविधि पूर्व मे कही गई उसका उपसहार करते का कथन २०६ । हुए चूलिका रूप व्याख्यान २३१ २१६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ क्षपणासार कर्मक्षपण बोधिनी हिन्दी टीका समन्वित “मंगलाचरणम्” मुणियपरमत्थवित्थर मुणिवरवीरेहिं सिद्धविज्जेहि । जा संथुआ भयवदी परियउ सुर्यदेवया मज्भं ॥१॥ सुसुदेवयाए भत्ती सुदोवजोगोवभाविओ सम्मं । आवहइ णाणसिद्धि णाणफलं चाचि णिव्वाणं ॥ २ ॥ तो सुअदेवयमिणमो तिक्खुत्तो पणमिण भत्तीए । वोच्छामि जहासुतं चरित्तमोहस्त खवरणविहिं ॥३॥' तिकरणमुभयोसरणं कमकरणं खवणदेसमंतरयं । संकम अपुव्वफड्डय किट्टीकरण शुभवणखमणाए || १ || ३६२ || गुणसेढी गुणसंकमठिदिरसखंडारण रात्थि पढमम्हि | पडिसमयमणंतगुणं विसोहि वड्डीहिं वदि हु ||२ || ३६३ ॥ 3 "सत्थाणमसत्थाणं चविद्वाणं रसं च बंधदि हु । पडिसमयमांते य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ ३ ॥ ३६४ ॥ १. ज० घ० मूल पृष्ठ १९३९ से उद्धृत | २. ल० सा० गाथा ३७ भी इसी प्रकार है | ३. ल० सा० गाथा ३८ के समान | Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १-५ 'पल्लस्स संखभागं मुहत्तअंतेण ओप्तरदि बंधे । संखेजसहस्साणि य अधापवत्तम्हि ओसरणा ॥४॥३६५॥ 'आदिमकरणद्धाए पढमदिदिबंधदो दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीणो ठिदिबंधो होदि णियमेण ॥५॥३६६॥ अर्थः-अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप तीनकरण; बंधापसरण और सत्त्वापसरण ये दो अपसरण तथा क्रमकरण, आठ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण) कषाय और १६ प्रकृतियोको क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, सक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, कृष्टि अनुभवन इसप्रकार चारित्रमोहकी क्षपणामे अधिकार जानना ॥१॥ पहले अधःप्रवृत्तकरणमें गुणश्रेणि, गुणसंक्रम, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात सम्भव नही है अत. जीव समय-समयप्रति अनन्तगुणे क्रमसहित विशुद्धताकी वृद्धिद्वारा वर्धमान होता है ।।२।। जो जीव समय-समयप्रति प्रशस्तप्रकृतियोका अनन्तगुणेक्रम से चतु.स्थानिक अनुभागबन्ध करता है और अप्रशस्तप्रकृतियोका अनन्तवे भागरूप क्रमसे विस्थानिक बन्ध करता है ॥३॥ पूर्वस्थितिबन्धमेसे पल्यका असंख्यातवा भागमात्र स्थितिबन्ध घटाते हुए एक अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त प्रतिसमय समानंबन्ध होता है सो यह एक स्थितिबन्धापसरण हुआ ऐसे सख्यातहजार स्थितिबधापसरण अधःप्रवृत्तकरणमे होते हैं ।।४।। इसप्रकार स्थितिबंधापसरण होनेसे अधःप्रवृत्तकरणकालमें प्रथमसमयसम्बन्धी जो स्थितिबन्ध है उससे सख्यातगुणा हीन स्थितिबन्ध अन्तसमयमे नियमसे होता है । ऐसे इस अध.प्रवृत्तकरणमे आवश्यक होते हैं ।।५।। विशेषार्थः कषायोपशामना (चारित्रमोहोपशामना) अधिकारके पश्चात् चारित्रमोहक्षपणाधिकार प्रारम्भ होता है । दर्शनमोहक्षपणाकी अविनाभावी यह चारित्र १. ल० सार गाथा ३६ के समान । २. देखो ल० सार गाथा ४० । तथा घ० पु. ६ पृ० २२३ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १-५] क्षपणासार मोहलपणा है, क्योंकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना क्षपकश्रेणीका आरोहण असम्भव है । दर्शनमोहकी क्षपणा भी अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना पुरस्सरा है अर्थात् अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना हो चुकनेपर ही दर्शनमोहकी क्षपणा सम्भव है, अन्यथा दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ हो नहीं सकती। इसका कथन दर्शनमोहक्षपणाधिकार मे हो चुका है ग्रन्थविस्तारके भयसे उनका यहां पुन: कथन नहीं किया गया है। अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनासम्बन्धी और दर्शनमोहक्षपणासम्बन्धी क्रियाविशेष समाप्त हो जानेपर क्षपकश्रेणिपर आरोहणके लिए प्रमत्त-अप्रमत्तगुणस्थानमें साता व असाताबन्धके प्रावर्त (परिवर्तन) सहस्रोबार करके प्रमत्त अप्रमत्तगुणस्थानमे सहस्रोबार गमनागमन करके क्षपकश्रेणिकी प्रायोग्यविशुद्धिसे विशुद्ध होकर क्षपश्रेणि चढनेवालेके पूर्व में अध:करणादि तीन विशुद्धपरिणामकालोकी एक पक्ति होती है, क्योकि इनके बिना उपशमन व क्षपणक्रियाका होना असम्भव है। अध करणादि तीन विशुद्धपरिणामकालोमे प्रथम अधःप्रवृत्तकरणकाल, द्वितीय अपूर्वकरणकाल और तृतीय अनिवृत्तिकरणकाल है। 'इन तीनोमे से प्रत्येकका काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनोकाल परस्पर सबधित है और ऊर्ध्वरूप एक श्रेण्याकारसे विरचित हैं । दर्शनमोहकी उपशामनामे अधःप्रवृत्तकरण आदिका लक्षण तथा तत्सम्बन्धी क्रियाओंका कथन किया गया है वैसी ही प्ररूपणा यहा भी करना चाहिए, क्योकि दोनोमे कोई विशेषता नहीं है, किन्तु क्षपकश्रेणिसे पूर्व उपशामना आदिमें होनेवाले अध प्रवृत्तकरण आदिके कालसे क्षपकश्रेणि सम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरणआदिका काल असख्यातगुणा हीन है, क्योकि खड्गधाराके समान शुद्धतर परिणामोमें चिरकालतक ठहरना सम्भव नही है । उपशामनादिसम्बन्धी परिणामोसे क्षपकश्रेणिसम्बन्धी परिणाम अनन्त गुणे विशुद्ध पाए जाते है । सातिशय अप्रमत्त नामक सप्तमगुणस्थान में क्षपकश्रेणिसम्बन्धी अधःप्रवृत्तकरण होता है। १. एदासिं च पादेक्कमतोमुहत्तपमाणावच्छिण्णाण समयभावेणेगसेढीए विरइदाणं लक्खणविहाणं जहा दसणमोहोवसामणाए अधापवत्तादिकरणाणि णिरुभियूण परूविद तहा एत्थ वि परूवियव्व, विसेसाभावादो । णवरि हेट्ठिमासेसकिरियासु पडिबद्धअधापवत्तादिकरणद्धाहितो एत्थतणअधापवत्तकरणादिअद्धाओ असखेज्जगुणहीणाओ सुद्धयरपरिणामेसु खग्गधारासरिसेसु चिर कालमवट्ठाणासंभवादो। (जयधवल मूल पृ० १६३६) । २. किन्तु ध० पु० १२ पृ० ७८ पर गाथा न० ८ में यह काल सख्यातगुणा हीन कहा है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १-५ अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय से लेकर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होता हुआ स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात के बिना ही अपने काल में सख्यातहजार स्थितिबधापसरणों को करता है, अप्रशस्त प्रकृतियो के द्विस्थानिक अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणा - अनन्तगुणाहीन अनुभागबन्ध करता है और प्रशस्त प्रकृतियोका प्रतिसमय अनन्तगुणा अनन्तगुणा चतुर्स्थानिक अनुभागबन्ध करता है' । इसप्रकार बन्ध करता हुआ अध. प्रवृत्तकरण के कालको क्रमसे व्यतीतकर चरमसमयको प्राप्त होता है । अध प्रवृत्तकरणके अन्तिमसमय में 'आत्मविशुद्धि के द्वारा बढता है' इसे आदि करके प्रस्थापनासम्बन्धी निम्न चार गाथासूत्रोकी विभाषा की जाती है । ४ ] क्षपणासार कामणपटुवगस्स परिणामो केरिसो भवे । जोगे कसाय उवजोगो लेस्सा वेदो य को भवे ||१|| काणि वा बद्धाणि के वा अंसे णिबंधदि । कदि श्रावलियं पविसंति कदिव्हं वा पवेसगो ॥२॥ असे क्षीयदे पुव्वं बंघेण उदएण वा । अंतरं वा कहि किच्चा के के संकामगो कहि ||३|| कि द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा । ओवट्टे वण सेसाणि क ठाणं पडिवज्जदि ३ ||४|| अर्थः — सक्रमण प्रस्थापकके अर्थात् कषायकी क्षपणापर आरूढ चारित्रमोहादि कर्मकी प्रकृतियोको अन्य प्रकृतिरूप संक्रमित करता है । उसके परिणाम किसप्रकारके होते हैं ? (उसके परिणाम इसप्रकार के होते हैं, ऐसी प्ररूपणाको विभाषा कहते हैं ।) उसके परिणाम विशुद्ध होते हैं और कषायोका क्षपण प्रारम्भ करने के भी अन्तर्मुहूर्त पहले से अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्ध होते आ रहे हैं । शुभपरिणाम कहने से अशुभ परिणामका निषेध हो जाता है । शुभपरिणामकी प्रणालीविना इतने विशुद्धपरिणामोंका होना असम्भव है । योग कौनसा होता है ? कषायोकी क्षपणा करनेवाला चारो मनोयोगो मे से किसी एक मनोयोगवाला अथवा चारो वचनयोगों मे से एक वचनयोगवाला अथवा औदारिककाययोगी होता है, इन योगोंके अतिरिक्त अन्ययोग सम्भव नही है । १. विसोहीए सुहारणमणुभाग वुड्डि मोत्तूण पयारतरासभवादो । ( जयघवल मूल पृ० १९४१ ) । २. जयधवल मूल पृ० १६३६-४० । ३. कुछ पाठान्तर के साथ कषायपाहुड़ सुत्त पृ० ६१४-१५ गा० ३१ से १४ तक । ४. सका मरणपट्टवगो कसायक्खवणाए आढवगो त्ति वृत्त होदि ( जयधवल मूल पृष्ठ १९४१) । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १-५] क्षपणासार शंका:-क्षपकके मनोयोग तो सम्भव है, क्योंकि छद्मस्थके ध्यानावस्थामें मनकी एकाग्रता होती है, किन्तु चारों वचनयोग कैसे सम्भव है, क्योंकि ध्यानावस्था में समस्त बहिरङ्गव्यापार रुक जाता है, जिसका वचनप्रवृत्तिके साथ विरोध है । समाधानः-यह दोष नहीं है, क्योकि ध्यानयुक्तके भी अवक्तव्यरूपसे वचनयोगकी प्रवृत्तिके विप्रतिषेधका अभाव है। इसीप्रकार औदारिककाययोग भी सम्भव है, क्योंकि ध्यानावस्थामें उसके सम्बन्धसे जीवप्रदेशोंका परिस्पदन संभव है । कषाय कोनसी होती है ? क्रोध-मान-माया और लोभ इन चारकषायरूप परिणामोंमें से किसी एक कषायरूप प्रवृत्तिका विरोध नहीं है । शंका:-कषायरूप परिणाम वर्धमान होते हैं या हीयमान होते हैं ? समाधानः-कषायपरिणाम हीन होते हैं, वर्धमान नही, क्योकि विशुद्धपरिणामोंका वर्धमानकषायपरिणामोसे विरुद्ध स्वभाव है। उपयोग कौनसा होता है ? अर्थात् अर्थग्रहणरूप आत्मपरिणाम उपयोग है, वह साकार व अनाकारके भेदसे दो प्रकारका है । मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय और केवल इन पांचज्ञानरूप व कुमति-कुश्रुत-विभङ्ग इन तीन कुज्ञानरूप इसप्रकार आठभेदवाला साकारोपयोग और चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवलरूप चार प्रकारका अनाकार उपयोग होता है । क्षपक श्रेणि चढनेवाले के एक श्रुतज्ञानोपयोग होता है, क्योंकि पृथक्त्ववितर्कवीचार सज्ञक प्रथम शुक्लध्यानके अभिमुख चौदह या दस अथवा नौ पूर्वधारीके श्रुतज्ञानोपयोग अवश्यभावी है । द्वितीय उपदेशानुसार श्रुतज्ञान, मतिज्ञान, चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शन इन चारमे से कोई एक उपयोग होता है, क्योकि वह अन्तरीय (अन्य) नही है, मात्र कारणरूप है मतिज्ञानके होनेपर चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शनके होनेमे भी कोई विरोध नही आता, क्योंकि चक्षुदर्शन व अचक्षुदर्शनके बिना मतिज्ञान नही हो सकता । शंका:-मतिज्ञान-श्रुतज्ञान-चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शन इन चार उपयोगोके समान अवधिज्ञान- मनःपर्ययज्ञान और अवधिदर्शन भी क्यों नही होते ? । ___ समाधानः-ऐसी आशंका नही करनी चाहिए, क्योकि इस सूत्रके द्वारा उनका विरोध कर दिया गया है तथा एकाग्रचितानिरोध लक्षणरूप ध्यानसे अवधिज्ञानादिका विरुद्ध स्वभाव है। १. जयघवल मूल पृ० १६४१-१९४२ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा १-५ लेश्या कौनसी होती है ? नियमसे शुक्ल ही होती है, क्योंकि सुविशुद्धलेश्याकी कारणभूत मन्दतमकषायके उदयमें शुक्ललेश्याकी प्रवृत्ति पाई जाती है, अन्य लेश्याओकी नही। शुक्ललेश्या भी वर्धमान है हीयमान नहीं है, क्योकि प्रतिसमय कषायानुभागस्पर्धक अनन्तगुणे हीनरूपसे उदयमे आनेसे शुभलेश्यारूप परिणामोमे वृद्धि के अतिरिक्त हानि होना असम्भव है'। वेद कौनसा होता है ? स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपु सकवेद इन तीनो वेदोंमे से कोई एक वेद होता है, क्योकि तीनो वेदोके उदयके साथ श्रेणि चढने के प्रतिषेधका अभाव है अर्थात् तीनो वेदोमे से किसी भी वेदोदयके साथ क्षपकश्रेणि चढ सकता है । इतनी विशेषता है कि द्रव्यसे पुरुषवेदके साथ ही श्रेणि चढ़ सकता है, क्योकि अन्यद्रव्यवेदके साथ श्रोणि चढनेका विरोध है। यहापर गति आदिकी भी विभाषा करनी चाहिए, क्योकि यह देशामर्सक सूत्र है । इसप्रकार प्रथमगाथाकी विभाषा समाप्त हुई आगे द्वितीयगाथाकी विभाषा इसप्रकार है _दूसरी प्रस्थापन गाथाका प्रथमपद-कौन-कौनकर्म पूर्वबद्ध हैं ? यहांपर प्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्मका अनुमार्गण करना चाहिए । सर्वप्रथम प्रकृतिसत्कर्म अनुमार्गणके लिए यहापर दर्शनसोहनीय, अनन्तानुवन्धीचतुष्क और तीन आयुके अतिरिक्त शेष कर्मप्रकृतियोका सत्कर्म है । इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर व आहारकअङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्करप्रकृतिका सत्त्व भजितव्य है, क्योकि इनका सर्व जीवोमे नियमरूपसे होने का अभाव है। आयुकर्मके अतिरिक्त जिन प्रकृतियोका सत्कर्म है उनका स्थिति सत्कर्म अन्त'कोडाकोडीसागर प्रमाण है । अनुभागसत्कर्म भी अप्रशस्त प्रकृतियोका द्विस्थानिक और प्रशस्त प्रकृतियोका चतु स्थानिक है । सर्वप्रकृतियोका प्रदेशसत्कर्म अजघन्य-अनुत्कृष्ट है । किन-किन कर्माशोको बाधता है ? यहापर भी प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका अनुमार्गण करना चाहिए' । कितनी प्रकृतियां उदयावली मे प्रवेश करती हैं ? सभी मूल प्रकृतियां उदयावलीमें आती हैं (प्रवेश करती है), किन्तु जो उत्तरप्रकृतियां विद्यमान हैं वे उदय या अनुदय (परमुखउदय) स्वरूपसे उदयावलीमे प्रवेश करती है। कितनी प्रकृतियां उदीरणास्वरूपसे उदयावलीमे प्रवेश करती है ? आयु और वेदनीयकर्मको छोड़कर जितने भी वेदन १. जयधवल मूल पृ० १६४३ । २. जयधवल मूल पृ० १९४४ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १-५] क्षपणासार किये जानेवाले (स्वमुख उदयस्वरूप) कर्म हैं वे उदीरणारूपसे उदयावलिमें प्रवेश करते हैं । पांच ज्ञानावरण और चार दर्शनावरणका तो नियमसे उदय है । निद्रा और प्रचलाका कदाचित् अवक्तव्य उदय है । साता व असातावेदनीयमें से किसी एकका, चार संज्वलनकषायोमें से, तीन वेदो में से और दोयुगलो (हास्य-रति व अरतिशोक) में से किसी एकका नियमसे उदय है। भय व जुगुप्साका कदाचित् उदय है और कदाचित् उदय नहीं है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर, छह सस्थानोमें से किसी एक संस्थानका, औदारिकशरीरअगोपांग, वज्रर्षभनाराचसहनन, वर्ण-गन्धरस-स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार (अगुरुलघु-उपघात-परघात-उच्छवास) प्रशस्त व अप्रशस्तविहायोगतिमे से किसी एकका, त्रसचतुष्क (स-बादर-पर्याप्त-प्रत्येक), स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग और सुस्वर-दुःस्वरमें से किसी एकका, आदेय, यशस्कोति, उच्चगोत्र, पांच अन्तराय (दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्यान्तराय) का नियमसे वेदक होता है । यहांपर अन्य प्रकृतियोंका उदय सम्भव नही है। इनमेंसे साता-असातावेदनीय और मनुष्यायुको छोड़कर शेषका उदीरक होता है अर्थात् शेष कर्मों की उदीरणां होती है। शंका:-यहां आयु व वेदनीयकर्मको उदीरणा सम्भव क्यों नही है ? समाधानः-नही होती, क्योकि वेदनीय व आयुकर्मको उदीरणा प्रमत्तसयतगुणस्थानसे आगे सम्भव नहीं है । (तृतीयगाथा) कौन-कौन कर्माश बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा पहले व्युच्छिन्न हो जाते हैं ? यहांपर ज्ञानावरणकर्म की पांचों प्रकृतियोका बन्ध होता है अतः ज्ञानावरणकर्मकी एक भी प्रकृतिकी बन्धव्युच्छित्ति नही कही गई है। दर्शनावरणकर्मकी स्त्यानगृद्धित्रिककी पूर्व में हो बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके आगे इनका बन्ध असम्भव नही है । वेदनीयकर्ममें से असातावेदनीयकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है, क्योंकि प्रमत्तसंयतगुणस्थानसे ऊपर असातावेदनीयके बन्धका अभाव है । मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, बारहकषाय, अरति, शोक, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद ये १७ प्रकृतियां बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती है, क्योंकि पूर्व में ही इन प्रकृतियोकी यथा सम्भव अधस्तन गुणस्थानोमें बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है। आयुकर्मको सभी प्रकृतियां १. जयधवल मूल पृ० १९४५ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १-५ बन्धसे व्युच्छिन्न हैं, क्योकि उनके बन्धकारणोंको उल्लंघकर क्षपकश्रेणिके अध.प्रवृत्तकरणसम्बन्धी तत्प्रायोग्य विशुद्धिमे वर्तन कर रहा है । नामकर्मकी परिवर्तमान सभी अशुभप्रकृतियोकी पूर्वमे ही बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । तरकगति, तिर्यञ्चगति, एके न्द्रियादि चार जाति, पाच अशुभसस्थान, पांच अशुभसहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीति नामकर्मकी ये प्रकृतिया यथासम्भव नीचले गुणस्थानोमे बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं । नामकर्मकी केवल इतनी ही प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति नही होती, किन्तु मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक, वज्रवृषभनाराचसहनन इन शुभ प्रकृतियोकी असयतसम्यग्दृष्टियोके भी बधव्युच्छित्ति देखी जाती है । आतप और उद्योत इन दो शुभ प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति यथाक्रम मिथ्यादृष्टि व सासादनगुणस्थानमे हो जाती है । वहांपर (क्षपकश्रेणिमे) नामकर्मकी इतनी प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति पायी जाती है। गोत्रकर्ममे नीचगोत्र बन्धसे व्युच्छिन्न है, क्योकि सासादनगुणस्थानसे आगे इसका बन्ध नही होता है। अन्त रायकर्मकी एक भी प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नही है । उदयसे व्युच्छिन्न प्रकृतिया निम्नप्रकार हैं- स्त्यानगृद्धित्रिक पूर्व मे ही उदयसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं । यहापर निद्रा और प्रचला उदयसे व्युच्छिन्न नही होती, क्योंकि उनका उदय क्षीणकषाय गुणस्थानके द्वि चरमसमयतक सम्भव है । शेष मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, १२ कषाय, मनुष्यायुके अतिरिक्त तीन आयु, नरकगति, तिर्यञ्चगति, देवगति और इनके प्रायोग्य अर्थात् नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगत्यातुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, एकेद्रिय-विकलेद्रियजाति, वैक्रियकशरीर, वैक्रियक अंगोपाग, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म-साधारणशरीर, आहारकद्विक, वज्रवृषभनाराचसहनन को छोडकर शेष पाचसहनन मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अशुभत्रिक (दुर्भग, अनादेय, अयशस्कीति), अपर्याप्त, नीचगोत्र ये प्रकृतियां उदयसे पूर्व मे ही व्युच्छिन्न हो जाती हैं' । तीर्थङ्करप्रकृतिकी कदाचित उदयव्युच्छित्ति होती है कदाचित् नहीं। कहा पर अन्तरकरके किन-किन कर्मोंको कहां संक्रामण करता है ? यह अधःप्रवृत्तकरणसयत यहां अन्तर नहीं करता, किन्तु अपूर्वकरणकालको उलंघकर १. कर्मप्रकृतियोका क्षय १४वें गुणस्थान तक है अत:क्षपणाका यह प्रकरण १४वें गुणस्थानतक जानना । इसी अपेक्षा तीर्थङ्करप्रकृतिका स्यात् उदय और स्यात् अनुदय कहा है। २. जयधवल पृ० १६४६-४७ । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६ गाथा ६ ] क्षपणासार अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर अन्तर करता है और वही पर चारित्रमोहकी प्रकृतियोका यथावसर सक्रामक होगा । (चतुर्थगाथा) कषायोंकी क्षपणा करनेवाला किस-किस स्थिति और अनुभागविशिष्ट कौन-कौनसे कर्मोका अपवर्तन करके किस-किस स्थानको प्राप्त कराता है, शेषकर्म किस स्थिति तथा अनुभागको प्राप्त होते हैं ? इस चतुर्थगाथाके द्वारा यह प्रश्न किया गया है कि स्थितिविशेषमे वर्तन करनेवाले कर्मोका अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर अवशेष अनुभाग कितना रह जाता है ? यहां स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघातकी सूचना इस पृच्छा द्वारा की गई है। अध.प्रवृत्तकरणके चरमसमयतक स्थितके स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात सम्भव नहीं है, किन्तु अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयसे अनन्तरसमय में अपूर्वकरणके प्रवेश हो जाने पर दोनो काण्डकघातकी प्रवृत्ति होती है। शङ्काः--यदि ऐसा है तो अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशुद्धिकी प्राप्ति निरर्थक हुई, क्योकि स्थिति व अनुभागकाण्डकघातरूप कार्यविशेषकी अनुपलब्धि है । समाधान:--ऐसी शका नही करना चाहिए, क्योकि स्थिति व अनुभागघातके हेतुभूत अपूर्वकरण परिणामोकी उत्पत्तिमे ये (अध.प्रवृत्तिकरणके ) परिणाम निमित्तरूपसे देखे जाते है । इसप्रकार इन चार मूल गाथाओंकी विभाषामे अधःप्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है । अथानन्तर अपूर्वकरणका वर्णन करते हैं-- गुणसेढी गुणसंकम ठिदिखंडमसत्थगाण रसखंडं । विदियकरणादिसमए अण्णं ठिदिबंधमारवई ॥६॥३६७॥ अर्थः-द्वितीय अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणश्रेणि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनुभागखण्डन होता है तथा अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयमै जो स्थितिबन्ध होता था उससे पल्यके असंख्यातवेभाग मात्र घटते हुए अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता है, क्योकि यहा एक स्थितिबंधापसरण होने के कारण इतने प्रमाण स्थितिबन्धको घटाता है। १. जयधवल मूल प० १६४१ से १९४८ तक। २. ल० सा० गा० ५३ के समान । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] क्षपणासार [ गाथा ७-६ विशेषार्थ:-अधःप्रवृत्तकरण समाप्त होने के अन्तरसमय में अपूर्वकरणगुणस्थान में प्रवेश करता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अपूर्वकरणके प्रथमसमय मे स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात प्रारम्भ होता है, क्योकि अपूर्वकरणकी विशुद्धिका स्थिति व अनुभागकाण्डकघातके साथ अविनाभावी सम्बन्ध है'। 'गुणसेडीदीहत्तं अपुठवचउक्कादु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलि बाहिरदो दु शिक्खेत्रो ॥७॥३६८॥ अर्थः-यहा गुणश्रेणिआयामका प्रमाण अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्पराय और क्षीणकषाय इन चारों गुणस्थानोके कालसे साधिक है, सो अधिकका प्रमाण क्षीणकषायगुणस्थानके कालके सख्यातवेभागमात्र है अत. उदयावलिसे बाहर गलितावशेषरूप जो यह गुणश्रेणिआयाम है उसमे अपकर्षण किये हुए द्रव्यका निक्षेपण होता है । विशेषार्थ.-परिणामविशेषके कारण असख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यका अपकर्षण करके गुणश्रेणिआयाममे निक्षेपण करता है । पडिसमयं उक्कट्टदि असंखगुणिदक्कमेण संचदि य। इदि गुणलेडीकरणं पडिसमयमपुवपढमादो ॥८॥३६६॥ अर्थः-प्रथमसमयमे अपकर्षण किए हुए द्रव्यसे द्वितीयादि समयोमे असंख्यातगुणा क्रम लीए हुए प्रतिसमय द्रव्यका अपकर्षण करता है और सिंचित अर्थात् उदयावली, गुणश्रेणीआयाम और उपरितनस्थितिमे निक्षेपण करता है। इसप्रकार अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय गुणश्रेणि होती है। पडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥६॥४००॥ अर्थः-अपूर्वकरणगुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर प्रतिसमय असख्यातगुणेक्रमसे युक्त (यहा जिनका बन्ध नही होता) अप्रशस्तप्रकृतियोका जो द्रव्य है वह (यहां - १ जयधवल मूल पृष्ठ १९४८ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १९५१ । २ लब्धिसार गाथा ५३ के समान । ४. लब्धिसार गाथा ७४ के समान । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ गाथा १० क्षपरणासार जिन प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है ऐसी) स्वजातीय प्रकृतियो में संक्रमण करता है अर्थात् तद् प परिणमन कर जाता है। विशेषार्थः-यह गुणसक्रमण अबन्धरूप अप्रशस्तप्रकृतियोंका ही होता है, अन्य में गुणसक्रमणकी प्रवृत्ति असभव है' । जैसे-असातावेदनीयप्रकृतिका द्रव्य सातावेदनीयरूप परिणमन करता है, इसीप्रकार अन्य प्रकृतियोका भी जानना । 'प्रोब्बट्टणा जहण्णा पाउलियाऊशिया तिभागेण । एसा ढिदिसु जहण्णा तहाणुभागे सणंतेसु ॥१०॥४०१॥ अर्थः-जघन्य अपवर्तनाका प्रमाण विभागसे हीन आवलिप्रमाण है। यह जघन्यअपवर्तना स्थिति के विषयमे ग्रहण करना चाहिए, किन्तु अनुभागविषयक जघन्य अपवर्तना अनन्तस्पर्धकोंसे प्रतिबद्ध है। विशेषार्थः-यद्यपि इस गाथामे स्थितिसम्बन्धी अपकर्षणकी जघन्यअतिस्थापनाका कथन किया गया है, तथापि देशामर्षक होनेसे स्थिति अपकर्षण-उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन करना चाहिए । अनुभागके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि जबतक अनन्तस्पर्धक अतिस्थापनारूपसे निक्षिप्त नही हो जाते तब तक अनुभागविषयकअपवर्तनाकी प्रवृत्ति नहीं होती है । उदयसे लेकर एकसमय अधिक आबलिप्रमाण स्थितिवाले निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर समयकम आवलिका दो-त्रिभाग (3) तो अतिस्थापना है और शेष नीचेका समयाधिक आवलिका त्रिभाग निक्षेप है । स्थितिअपकर्षणसम्बन्धी यह जघन्यअतिस्थापना व निक्षेपका प्रमाण है। उससे अनन्तर उपरिमनिषेक (उदयावलिके बाहर द्वितीयनिषेक) का अपकर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्ववत् समयकम आवलिके विभागसे १. जयधवल मूल पृ० १६५१ । २ यह गाथा क० पा० की गाथा १५२ के समान है तथा यह धवल पु० ६ पृष्ठ ३४६ तथा क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७४ पर भी है । यद्यपि क्षपणासार मे 'उव्वट्टण।' यह पाठ था, किन्तु वह अशुद्ध प्रतीत होता है अतः उसके स्थान पर 'ओवट्टणा' यह शुद्ध उक्त आधारसे रखा गया है । ज० ध० मूल पृ० २००२ पर भी यह गाथा दी गई है। ३. जयधवल मूल पृ० २००२, क० पा० सु० पृष्ठ ७७४ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १२ ] [ गाथा १० समयाधिक है, किन्तु अतिस्थापना पूर्व से एकसमय बढ जाती है । उपरितन-उपरितनस्थितिवाले निषेकोके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर जघन्यनिक्षेपको अवस्थितकरके अतिस्थापना एक-एकसमयके क्रमसे तब तक बढानी चाहिए जबतक समयाधिकत्रिभाग निक्षेपके ऊपर एक आवलिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना नही हो जाती। उसके पश्चात् आवलिप्रमाण अतिस्थापनाको अवस्थितकरके एक-एकसमयके प्रमाणसे निक्षेपको तब तक बढाना चाहिए जबतक उत्कृष्टनिक्षेप हो जावे । उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण समयाधिक दो आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है जो इसप्रकार है- कषायकी उत्कृष्टस्थिति चालीसकोडाकोड़ोसागरप्रमाण बांधकर पुनः बधावलिकाल बितानेपर ४० कोडाकोड़ीसागरकी उत्कृष्टस्थिति एक आवलिप्रमाण कम होगई । बधावलिके व्यतीत हो जानेपर अग्रस्थितिके द्रव्यको अपकर्षणकर अग्रस्थितिके नीचे एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना छोड़कर नीचे उदयस्थितिपर्यन्त वह अपकर्षण किया हुआ द्रव्य दिया जाता है । इसप्रकार बन्धावलि, अनस्थिति, अतिस्थापनावलि अर्थात् समयाधिक दो आवलिप्रमाणको कर्मस्थितिमेसे कम करनेपर स्थितिअपकर्षणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण होता है । मानाकि उत्कृष्टस्थितिका प्रमाण १००० समय है, आवलिका प्रमाण १६ समय है । स्थितिअपकर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप व अतिस्थापना इसप्रकार है-उदयावलिके १६ समय, उदयावलिके अनन्तर ऊपर १७वे निषेकका अपकर्षणकरके उदयावलिमें देना है। एकसमयकम आवलि (१६-१=१५) का दो त्रिभाग (१५४३) १० समय अर्थात् ७वें निषेकसे १६ वें निषेकतक अतिस्थापना है और एकसमय अधिक विभाग (१५४ १+१=६) ६ समय निक्षेप है अर्थात् प्रथमनिषेकसे छठे निषेकतक निक्षप है । १८वें समयसम्बन्धी निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर पूर्ववत् प्रथम ६ निपेक तो निक्षेप हैं और ७वें निषेकसे १८वें निषेकतक ११ निषेक अतिस्थापनारूप हैं। इसीप्रकार १९वे निषेकका अपकर्षण होनेपर १२ निषेक और २०वे निषेकका अपकर्षण होनेपर १३ निषेक अतिस्थापनारूप होते है, किन्तु निक्षेप पूर्ववत् ६ समय ही है । इसप्रकार एक-एकसमय बढते २३वे निषेकसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षण होने पर अतिस्थापना १६ समयप्रमाण एकआवलि हो जाती है, किन्तु निक्षेप प्रथम ६ समय प्रमाण है । २४वे निणेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर अतिस्थापना तो पूर्ववत् १६ समयप्रमाण और निक्षेप एकसमय बढ जाता है अर्थात् प्रथमसात निषेकोमें द्रव्यसिंचित किया जाता है। इसके १. जयधवल मूल पृ० २००२-२००४ तक । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ११ ] [ १३ आगे अतिस्थापनाका प्रमाण तो अवस्थित उपरितनएक आवलिप्रमाण है और निक्षेप एकएकसमय बढ़ता जाता है | क्षपणासार उत्कृष्ट निक्षेप - उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रमाण १००० समय है । १६ समय बन्धावलिके व्यतीत होनेपर स्थिति १००० - १६ = ६८४ समयप्रमाण शेष रह जाती है । ९८४वे समयवाले निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर ६७८ से ६८३ तक १६ निषेक तो अतिस्थापनारूप हैं और प्रथमनिषेकसे ε७७ निषेकतक निक्षेप हैं । यह उत्कृष्ट निक्षेपकी असहष्टि है 1 शंका:- - क्षपकश्रेणिके कथनमे सांसारिक अवस्थाके उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण बतलाना असम्बद्ध है । फिर क्यों यह कथन किया गया ? समाधान:- - प्रसङ्गवश अपकर्षणसम्बन्धी यह कथन किया गया । इस प्ररूपणा में कोई दोष नही है । यहां अल्पबहुत्व इसप्रकार है- 'एकसमयकम आवलिके तृतीयभागसे एक समयाधिक ( ६ ) जघन्यनिक्षेपका प्रमाण है जो सबसे स्तोक है, इससे अधिक जघन्य अतिस्थापना है जिसका प्रमाण एकसमयकमआवलिके दो त्रिभाग (१०) है | इससे विशेष अधिक उत्कृष्ट अतिस्थापनावलि ( १६ ) प्रमाण है । उत्कृष्ट निक्षेप इससे असंख्यातगुणा है, क्योकि वह समयाधिक दोआवलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनुभागविषयक अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापनाका प्रमाण जानना चाहिए। स्थिति अनुभागविषयक उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन आगे किया जावेगा अतः यहां नहीं किया है । 'संकामेदुक्कडुदि जे असे ते अदा होंति । आवलियं से काले तेरा परं होंति भजिदव्वा ॥ ११ ॥ ४०२ ॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २००४ । २. यह गाथा क० पा० की १५३ वी गाथाके समान है, किन्तु 'दुक्कट्टदि' और 'भजियव्व' के स्थान पर क्रमशः दुक्कडुदि' और 'भजिदव्वा' पाठ है जो शुद्धप्रतीत होते हैं अतः यहा शुद्धपाठ क० पा० के अनुसार ही प्रयुक्त किये है | यह गाथा धवल पु० पृष्ठ ३४६ पर भी पाई जाती है । तथा जयधवल मूल पृष्ठ २००५, क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७७ पर भी है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १२ अर्थ.-जो कर्मप्रदेश सक्रमित व उत्कर्षित किये जाते है वे एक आवलिकालतक अवस्थित रहते हैं उसके पश्चात् अनन्तरसमय मे भजितव्य है । विशेषार्थः-पर प्रकृतिमे संक्रामित प्रदेशाग्न तथा स्थित व अनुभागकी अपेक्षा उत्कर्षित प्रदेशाग्न आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रमभावसे अवस्थित रहते है । आवलिमात्र कालतक अन्यक्रियारूप परिणामके बिना जहापर जिसरूपसे प्रदेशाग्न निक्षिप्त किये जाते हैं वहांपर उसीरूपसे निश्चलभावसे अवस्थित रहते हैं । आवलिकाल व्यतीत होने के अनन्तर समयमे या उससे ऊपरवर्ती समयोमे भजितव्य होते है । सक्रमावलिप्रमाणकाल के व्यतीत हो जानेपर उसके अनन्तरवर्ती वे कर्मप्रदेश सक्रमण, उत्कर्षण, वृद्धि हानि व अवस्थित क्रियाके लिए भजितव्य हैं, क्योंकि आवलिकालके पश्चात् तद्र प प्रवृत्तिके प्रतिषेधका अभाव है। ___जो प्रदेशाग्न परप्रकृतिरूपसे सक्रमण करते हैं वे आवलिकालपर्यन्त अपकर्षण, उत्कर्णण व सक्रमणके लिए शक्य नही है । जो प्रदेशाग्र स्थिति या अनुभागमे उत्कर्षण को प्राप्त होते हैं वे भी आवलिकालतक अपकर्षण, उत्कर्णण या सक्रमणके लिए शक्य नही है । आवलिकालपर्यन्त निरुपक्रमभावके पश्चात् अपकर्षण आदि क्रियाके लिए भजितव्यभावकी प्ररूपणा मन्दबुद्धिवालोको समझाने के लिए की गई है। श्रोक्कड्डदि जे अंसे से काले ते च होति भजिदव्वा । बड्डीए अवट्ठाणे हाणीए लंकमे उदए ॥१२॥४०३।। अर्थः--जो कर्मप्रदेशाग्न अपकर्षित किये जाते हैं वे अनन्तर अगले समयमें वृद्धि हानि, अवस्थान, सक्रमण व उदयके लिए भजितव्य हैं। विशेषार्थः--उत्कर्षित प्रदेशाग्न या परप्रकृतिरूप संक्रमितप्रदेशाग्न आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रम भावसे अवस्थित रहते है ऐसा नियम है, किन्तु ऐसा नियम अपकर्षित प्रदेशाग्न सम्बन्धमें नहीं है। अपकर्षितप्रदेशाग्न दूसरे समयमे ही सक्रमण व १. जयघवल मूल पृ० २००५ । २. यह गाथा कषायपाहुडकी १५४वी गाथा है (क० पा० सु० पृष्ठ ७७७ व धवल पु० ६ पृष्ठ ३४७). किन्तु वहा 'उक्कट्टदि' व 'अवठाण' के स्थानपर क्रमशः 'ओक्कड्डुदि' और 'अवट्ठाणे' ये पाठ दिये गए हैं जो कि शुद्ध प्रतीत होते हैं अत. उन शुद्ध पाठोको ही यहापर रखा गया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३ ] क्षपणासार उदीरणा होना सम्भव है अर्थात् जिन कर्मप्रदेशानोंका स्थिति व अनुभागमें अपकर्षण होता है वे अनन्तरसमय में ही वृद्धि हानि-अवस्थान व सक्रमणके लिए भजनीय है, अनन्तरसमयमें अपकर्षितप्रदेशाग्रमे से कुछ तो पुन: अपकर्षित हो जाते है अपकर्षण नहीं होता, कुछ प्रदेशाग्रोकी वृद्धि होती है और कुछकी वृद्धि नहीं होती। अपकर्षितप्रदेशाग्नोमेसे कुछ प्रदेशाग्न अपने स्थान पर स्थित रहते हैं और कुछ अन्य क्रियाको प्राप्त हो जाते है । इसीप्रकार सक्रमण व उदयके विषयमे भी योजना करनी चाहिए । अपकर्षितप्रदेशानकी दूसरे समय मे पुनः अपकर्षण आदिरूप प्रवृत्ति होनेमे कोई बाधा नहीं है । कर्म प्रदेशाग्रका स्थितिमुखसे या अनुभागमुखसे ही अपकर्षण होता है, अन्यप्रकारसे अपकर्षण नही होता, ऐसा जानना चाहिए । 'एक्कं च ठिदिविलेसं तु असंखेज्जेसु दिदि विसेसेसु । वड्ढेदि हरस्सेदि व तहाणुभागे सणंतेसु ॥१३॥४०४॥ अर्थः--एक स्थितिविशेषको असख्यात स्थितिविशेषोमे बढ़ाता भी है और घटाता भी है। इसीप्रकार अनुभागविशेषको अनन्त अनुभागस्पर्धकोमे बढाता और घटाता है। विशेषार्थः-एकस्थितिविशेषके उत्कर्षण होनेपर असंख्यात स्थितिविशेषोमें वृद्धि होती है, क्योकि उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप भी आवलिके असख्यातवेभाग है उससे कममे नही। एक स्थितिविशेषके अपकर्षण होनेपर असख्यातस्थितिविशेषोमे ह्रास होता है इससे कम मे नही। गाथा अनुसार अपकर्षणसम्बन्धी जघन्यनिक्षेप भी आवलीका तृतीयभाग है । अनुभागसम्बन्धी स्पर्धककी एकवर्गणामे उत्कर्णण या अप. कर्षण होनेपर नियमसे अनन्त अनुभागस्पर्धकोमे वृद्धि या ह्रास होता है। इससे अनुभागविषयक अपकर्षण-उत्कर्षणमें जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण बतलाया गया है । स्थितिसत्कर्मकी अग्नस्थितिसे एसकमय अधिक स्थितिबन्ध होनेपर, स्थितिसत्कर्मकी अनस्थितिका उत्कर्षण नही होता, क्योकि अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव १. जयषवल मूल पृ० २००६ । २. यह गाथा कसायपाहुडकी गाथा १५६वी के समान है (क० पा० सु० पृष्ठ ७७८ व धवल पु० ६ पृष्ठ ३४७), किन्तु क० पा० सु० मे 'ठिदि' और 'रहस्सेदि' के स्थानपर क्रमशः 'विदि' और 'हरस्से दि' पाठ है अतः क० पा० के आधारसे ही पाठ परिवर्तित किया गया है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १३ होनेसे उत्कर्षण होने का विरोध है । इसीकारणसे दोसमय आदि अधिक-अधिक स्थितिवन्ध होनेपर उत्कर्षण नही होता । आवलिप्रमाण अधिक स्थितिबन्ध होनेपर स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिका उत्कर्षण नहीं होता, क्योकि जघन्य अतिस्थापना होते हुए भी निक्षेपका अभाव होनेसे उत्कर्षणका प्रतिषेध है। यदि स्थितिसत्कर्मकी अग्रस्थितिसे एकावलि और एकआवलिके असख्यातवेभागअधिक स्थितिका बन्ध हो तो अनस्थितिका उत्कर्षण हो सकता है, क्योकि अग्रस्थितिका उत्कर्षण होनेपर आवलिप्रमाण जघन्य अतिस्थापना करके आवलिके असख्यातवेभागप्रमाण जघन्य निक्षेपमे निक्षिप्त होता है और यह निक्षेप आवलिके असख्यातवेभागको आदि करके एक-एकसमय वृद्धिसे निरन्तर उत्कृष्टनिक्षेप प्राप्त होनेतक बढता है। स्थितिसत्कर्मकी अनस्थितिकी अपेक्षा ओघउत्कृष्टनिक्षेप प्राप्त नहीं होता, किन्तु उदयावलिसे बाहर अनन्तरस्थितिके प्रदेशाग्रका उत्कर्षण होनेपर उत्कृष्टनिक्षेपका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि उसीमे ओघ उत्कृष्टनिक्षेप सभव है अर्थात् जघन्यनिक्षेपसे लेकर उत्कृष्ट निक्षेपतक सर्वस्थान निक्षेप स्वरूप हैं । __ सर्व कर्मोका अपना-अपना उत्कृष्टस्थितिबन्ध होनेपर आगमअविरोधसे उत्कृष्टनिक्षेप सम्भव है, किन्तु उदाहरणरूपसे कषायके उत्कृष्ट निक्षेपका कथन इसप्रकार है४० कोडाकोड़ीसागरप्रमाण कषायकी उत्कृष्टस्थितिबन्ध होनेपर एकसमय अधिक आवलि और चारहजारवर्षकम ४० कोड़ाकोड़ीप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप है । कषायका उत्कृष्टस्थितिबन्ध करके बन्धावलि व्यतीतकर अन्तिम निषेक मेसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर नीचे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार निक्षिप्यमान उदयावलिसे बाहर द्वितीयस्थितिमे निक्षिप्त प्रदेशाग्रको उत्कर्षण करने के लिए ग्रहण करता है। उस प्रदेशाग्रको तदनन्तर समय में वन्ध होनेवाली ४० कोडाकोडीसागरप्रमाण उत्कृष्टस्थितिके ऊपर उत्कर्षण करता हुआ ४००० वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आबाधाकालका उल्लंघनकरके इससे उपरिम निषेकस्थितियो मे ही निक्षिप्त करता है । इस प्रकार उत्कृष्ट आबाधाकालसे हीन ४० कोडकोड़ीसागरप्रमाण चारित्रमोहनीयकर्मकी उत्कृष्टस्थिति ही उत्कर्षणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण होता है, किन्तु एकसमयाधिक बन्धावलिकालसे उक्त कर्मस्थितिको कमकरना चाहिए, क्योकि निरुद्ध समयप्रबद्धकी सत्त्वस्थितिका समयाधिक बन्धावलिकाल प्रमितकाल नीचे ही गल चुका है । इसप्रकार समयाधिक आवलि और ४००० वर्षोंसे हीन ४० कोड़ाकोडीसागरोपम उत्कृष्ट निक्षेपका प्रमाण है शेष अतुत्कृष्ट निक्षेपस्थानोको उपायविधिसे जानना चाहिए। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३ ] क्षपणासार [ १७ आबाधाकालसे ऊपर जितनी भी स्थितियां हैं उनका उत्कर्षण होने पर जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अतिस्थापनावलि प्रमाण है, क्योकि अन्य प्रकार होना असम्भव है। आबाधाकालसे अधस्तनवर्ती सत्कर्म स्थितियोंका उत्कर्षण होने पर अतिस्थापना किसी स्थितिकी तो एकआवलि, किसी स्थितिकी एकसमय अधिक आवलि, किसी स्थितिकी दो समय अधिक आवलि और किसीकी तीनसमय अधिक आवलि है। इस प्रकार निरन्तर एकसमय अधिकतक बढना चाहिए जबतक उदयावलिसे बाहर अनन्त र स्थितिकी सर्वोत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त नहीं होती। शंकाः-उत्कृष्ट अतिस्थापनाका प्रमाण कितना है ? समाधान:-जिसकर्मकी जो उत्कृष्ट आबाधा है वह एक समय अधिक आवलि से हीन आबाधा उस कर्मकी उत्कृष्ट अतिस्थापना है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेपर उत्कृष्ट आबाधा होती है और उसीके एक समय अधिक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधा ही उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है । उदयावलिसे बाहर अनन्तर स्थितिका उत्कणि होने पर उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होती है। क्षपककी प्ररूपणाके अवसरमे संसारअवस्थासम्बन्धी उत्कर्षणकी अर्थपद प्ररूपणा की गई है, क्योकि क्षपक श्रेणिमे सत्कर्मसे अधिक स्थितिबन्ध न होने से उत्कर्षण प्ररूपणा सम्भव नही है । जिसप्रकार उत्कर्षण-विषयक जघन्य-उत्कृष्टनिक्षेप और अतिस्थापनाका प्रमाण बतलाया है, उसीप्रकार अपकर्षणसम्बन्धी निक्षेप और अतिस्थापनाका भी जान लेना चाहिए । अब उन्ही उत्कर्षण-अपकर्षणसम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते है। (१) उत्कर्षण की जानेवाली स्थितिका जघन्यनिक्षेप सबसे स्तोक है, क्योकि वह आवलिके असख्यातवेंभागप्रमाण है । (२) इससे अपकर्षणकी जानेवाली स्थितिका जघन्य निक्षेप असख्यातगुणा है, क्योंकि उसका प्रमाण एक समय अधिक आवलिका त्रिभाग प्रमाण है । (३) इससे अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य अतिस्थापना कुछकम दोगुणी है, क्योंकि इसका प्रमाण एकसमयकम आवलिका दो त्रिभाग है और जघन्यनिक्षेपका प्रमाण समयाधिक विभाग प्रमाण है इसलिए जघन्य अतिस्थापना दो समयकम दगुणी है अतः विशेष अधिक है। (४) अपकर्षणसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना और निा २. जयघवल मूल पृष्ठ २००८ । १ जयधवल मूल पृष्ठ २००७ से २०११ तक। ३. जयघवल मूल पृष्ठ २०११ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । गाथा १४ क्षपणासार १८ ] घातकी अपेक्षा उत्कर्षण सम्बन्धी जघन्यअतिस्थापना ये दोनो परस्परतुल्य होते हुए भी पूर्वसे विशेष अधिक हैं, क्योकि वे दोनो आवलिप्रमाण है और समय अधिक आवलिके विभाग प्रमाण पूर्वसे विशेष अधिक है। (५) उत्कर्णसम्बन्धी उत्कृष्ट अतिस्थापना संख्यातगुणी है, क्योकि इसका प्रमाण समयाधिक आवलिकम उत्कृष्ट आबाधा है । (६) व्याघातकी अपेक्षा अपकर्णणसम्बन्धी उत्कृष्टअतिस्थापना असख्यातगुणी है, क्योकि वह एकसमयकम उत्कृष्टस्थितिकाण्डकप्रमाण है। (७) उत्कर्षणसम्बन्धी उत्कृष्टनिक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर है, क्योकि इसका प्रमाण समय अधिक आवली और उत्कृष्ट आबाधासे हीन ४० कोडाकोड़ी सागरोपममात्र उत्कृष्टस्थिति है । (८) अपकर्षणविषयक उत्कृष्ट निक्षेप विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण सख्यांतावलि हैं, क्योकि यहापर एकआंवलिसे हीन उत्कृष्ट आबाघाका प्रवेश सम्मिलित हो जाता है । (8) उत्कृष्टस्थिति एकसमयअधिक दोआवलिप्रमाण विशेष अधिक है, क्योकि समयाधिक अतिस्थापनावलिके साथ बन्धावलि भी सम्मिलित हो जाती है। पल्लस्स संखभागं वरं पि अबरादु संखगुणिदं तु । पडमे अपुव्वखवगे ठिदिखंडपमाणयं होदि ॥१४॥४०५॥ अर्थः-क्षपक अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिखण्ड अर्थात् स्थितिकाण्डकायामका जंघन्य और उत्कृष्टप्रमाण यद्यपि पल्यके सख्यातवेंभागमात्र है तथापि जघन्यसे उत्कृष्टका प्रमाण सख्यातगुणा है। विशेषार्थ:-जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है उसके जघन्य स्थितिकाण्डकघात होता है और सख्यातगुणे स्थितिसत्कर्म वालेके उत्कृष्टस्थितिकाण्डकघात होता है । यद्यपि जघन्यस्थितिकाण्डकघातसे उत्कृष्टकाण्डकघात सख्यातगुणा है तथापि दोनोंका प्रमाण पल्योपमका सख्यातवाभाग है । जिसप्रकार दर्शनमोहकी उपशामनामें, दर्शनमोहकी क्षपणा तथा कषायोपशामनामें (उपशमश्रेणी) अपूर्वकरणका प्रथमस्थिति १. जयधवल मूल पृ० २०१२ । २. देखो ववल पु० ६ पृष्ठ ३४४, जयघवल मूल पृ० १६४६, ० पा० सु० पृष्ठ ७४१-४२ । ३. क. पा० सुत पृष्ठ ७४१ सूत्र ४६ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १४ ] [ १९ काण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवांभाग और उत्कृष्ट से सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण होता है। इसीप्रकार असयत, सयतासंयत व संयतके अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनासम्बन्धी अपूर्वकरणका प्रथमस्थितिकाण्डकघात जघन्यसे पल्योपमका संख्यातवांभाग और उत्कृष्ट सागरोपमपृथक्त्व होता है, किन्तु चारित्रमोह क्षपणाके अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथमस्थिति काण्डकघात जघन्य और उत्कृष्ट दोनो ही पल्योपमका सख्यातवांभागप्रमाण होकर भी जघन्यसे उत्कृष्ट का प्रमाण सख्यातगुणा है । क्षपकश्रेणि अपूर्वकरणमें दो व्यक्तियोने एक साथ प्रवेश किया। उनमें एकके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है और दूसरेका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है। जिसके स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हीन है उसके प्रथमस्थितिकाण्डकसे, सख्यातगुणे स्थितिसत्कर्मवालेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा है । एक तो दर्शनमोहका क्षपण करके उपशमश्रेणि चढकर पुनः क्षपकश्रेणिसम्बन्धी प्रथमसमयवति अपूर्वकरण हुआ और दूसरा उपशमश्रेणि चढा पुनः वहांसे उतरकर दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हो प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण हुआ, इनमेसे पहलेकी अपेक्षा दूसरे व्यक्तिका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन है । अथवा एक दर्शनमोहका क्षयकरके क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ और दूसरा दर्शनमोहका क्षयकर उपशमश्रेणीपर चढ़कर क्षपकश्रेणीपर आरूढ़ हुआ; प्रथमकी अपेक्षा द्वितीयका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणाहीन है और प्रथमका सख्यातगुणा है, क्योंकि इसके उपशमश्रेणिसम्बन्धी स्थितिघातका अभाव है। जिसके स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन है उसके प्रथमस्थिति काण्डकघातसे दूसरेका प्रथमस्थितिकाण्डकघात सख्यातगुणा है, क्योकि स्थितिसत्कर्म के अनुसार स्थितिकाण्डकघातकी प्रवृत्ति होनेमे कोई बाधा उपस्थित नही होती । इसीप्रकार, द्वितीय, तृतीयादि अपूर्वकरणके चरमस्थितिकाण्डकतक जघन्यसे उत्कृष्ट संख्यातगुणा जानना चाहिए। यदि स्थितिसत्कर्म एक दूसरेसे विशेषहीन व विशेष अधिक है तो अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात भी विशेष हीन व विशेष अधिक होता है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें पल्यके सख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिकाण्डकघात, अप्रशस्तप्रकृतियोंका अनन्तबहुभागवाला अनुभागकाण्डकघात और पल्यके संख्यातवेंभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धापसरण होता है । अधःप्रवृत्तकरणके चरमस्थितिबन्धसे अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे अन्य स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवेभाग हीन होता है। अपूर्व १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४१ सूत्र ४७ । जयधवल मूल पृ० १६४६ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १५ २० ] करणके प्रथमसमयमे परिणाम विशेषके कारण असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यका अपकपंगकर उदयावलिसे बाहर अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय और क्षोण पायके कालोसे विशेष अधिककालमें गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता है न बधनेवाले अअगस्त कर्मों का गुणसक्रमण होता है । अपूर्वकरणके द्वितीयादि समयोमें गुणश्रेणि अगन्यानगुणो है, क्योकि जितने द्रव्यका प्रथमसमय में अपकर्षण किया था; द्वितीयादि ममयों में असत्यात गुणेक्रमसे द्रव्य का अपकर्षणकर; शेष-शेष (गलितावशेष) गुणश्रेणि मायाममे निक्षेर करता है, विशुद्धि भी प्रति समय अनन्तगुणे क्रमसे बढती है, प्रथमसमयमें अन्य कोई विशेषता नही है । यह क्रम प्रथम अनुभागकाण्डकके समाप्त होने तक है । अनन्तर अगले समय में शेष अनुभागका अनन्त बहुभाग घातने के लिए अन्य अनुभागकापनकको प्रारम्भ करता है इसप्रकार प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर अन्य अन्य सत्यातहजार अनुभागकाण्डकघात होते हैं । 'आउगवज्जाणं ठिदिघादों पढमादु चरिमठिदिसंतो। ठिदिवंधो य अपुन्चे होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥१५॥४०६।। अर्थः-आयुकर्म विना शेप सातकर्मोका स्थितिकाण्डकायाम, स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्ध ये तीनो अपूर्वकरण के प्रथमसमयमे जो पाये जाते हैं उनसे अपूर्वकरणके चरमसमय मे सत्यात गुणे कम होते हैं । विशेषार्थः-प्रत्येक स्थितिकाण्डकघातमे स्थितिसत्कर्म हीन होता जाता है। स्थिति काण्डकायाम (एकस्थितिकाण्डकघातके द्वारा जितनी स्थितिका घात होता है वह स्थितिकाण्डकायाम है) स्थितिसत्त्वका अनुमरण करने वाला है। स्थिति काण्डकघात हाग स्थितिसत्कर्मकी हानि होनेपर स्थितिकाण्ड कायाम भी होन होता जाता है । प्रत्येक स्थितिवन्यापसरणके द्वारा स्थितिबन्ध घटता जाता है । अपूर्वकरणकालमे हजारो स्थितिकाण्डकघात व स्थितिबन्धापसरण होते हैं अतः अपूर्वकरणके चरमसमयमें इन हमारो स्थितिकाण्डकघात द्वारा स्थिति सत्कर्म का घात होकर सख्यातगुणा होन रह जाता है, स्थिति सत्कर्मका अनुसरण करनेवाला स्थिति काण्डकायाम भी संख्यातगुणा । पर विचार जययवल मूल पृ० १६८८-१९५२ के आधारसे लिखा गया है । २. वन दूर १३ १९५० । यह गाथा लब्धिसारको गाथा ७८ के समान है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपरणासार गाथा १६-१७ ] [ २१ हीन हो जाता है । हजारों स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध विशेष हीन होता हुआ अपूर्वकरणके चरमसमयमें स्थितिबन्ध भी सख्यातगुणा हीन होने लगता है'। 'अंतोकोड़ाकोड़ी अपुवपढमम्हि होदि ठिदिबंध बंधादो पुण सत्तं संखेज्जगुणं हवे तत्थ ॥१६॥४०७॥ अर्थः--अपूर्वकरणके प्रथमसमय में स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण अर्थात् पृथक्त्वलक्षकोटिसागर प्रमाण है तथा स्थितिसत्त्व भी यद्यपि अन्तःकोटाकोटी प्रमाण है तथापि स्थितिबन्धसे सख्यातगुणा है । विशेषार्थः--क्षायिकसम्यग्दृष्टिके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण हो जाता है, किन्तु बन्धसे सत्त्व संख्यातगुणा होता है वही प्रवृत्ति यहांपर भी पाई जाती है। 'एक्केक्कढिदिखंडयणिवडणठिदिनोसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य णिवडंति रसस्त खंडाणि ॥१७॥४०८॥ अर्थः-एक-एक स्थितिखण्डके पतन होने में अथवा एक स्थितिबन्धापसरणके काल में संख्यातहजार अनुभागकाण्डकका पतन होता है । विशेषार्थ:-एकस्थितिकाण्डकका काल और एक स्थितिबन्धापसरणकाल समान होते है । स्थितिकाण्डककी अन्तिमफालिका पतन होनेपर स्थितिकाण्डककाल समाप्त होता है और अन्तिमफालिके पतन होनेपर ही स्थितिघात होता है, द्विचरमफालि के पतन होने तक स्थितिघात नहीं होता इसीप्रकार एक स्थितिबन्धापसरणके प्रथमसमय जितना स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया था उतना हो स्थितिबन्ध चरमसमयपर्यन्त होता रहता है । स्थितिबन्धापसरण के चरमसमयके पतन होनेपर, अन्य स्थितिवन्ध स्थिति घटकर होने लगता है। एकस्थितिकाण्डक और एकस्थितिबन्धापसरण इन दोनोंका काल तुल्य है। १. ज० ५० मूल पृष्ठ १६५१ । २. धवल पु० ६ पृष्ठ ३४५; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४२ सूत्र ५५ । ज० ध० मूल पृष्ठ १९५१ । ३. यह गाथा ल० सार गाथा ७६ के समान है । धवल पु०६ पृष्ठ २२८; ज० घ० मूल पृष्ट १६५२ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १८ - १६ अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकका अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत हो जानेपर तदनन्तर समय में अन्य अनुभागकाण्डक प्रारम्भ हो जाता है जिसके द्वारा पूर्वघातित शेष अनुभाग के अनन्त बहुभागका घात होता है । प्रथमस्थितिकाण्डक कालके भीतर पुन. पुनः संख्यातहजार अनुभागकाण्डक के पतन के साथ अपूर्वकरणके प्रथमस्थितिकाण्डकका और प्रथम स्थितिबन्धापसरणका भी पतन होता है । इसप्रकार तीनोका पतन एक साथ होता है अर्थात् तीनोका पतन समकालीन है' । २२ ] क्षपणासार असुहाणं पयडीणं अतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा स्थित्ति रसस्स खंडाणि ॥ १८ ॥ ४०६॥ अर्थः--अशुभ प्रकृतियोके - अनुभाग काण्डका प्रमाण अनन्तबहुभागमात्र है तथा प्रशस्तप्रकृतियोका अनुभागखण्ड नियमसे नही होता है, क्योंकि विशुद्धपरिणामोके द्वारा शुभप्रकृतियोका अनुभागघात सम्भव नही है | विशेषार्थ :- पूर्वमे जो अनुभाग था उसको अनन्तका भाग देनेपर उसमे से बहुभागमात्र प्रथम अनुभागकाण्डकमे घटाता है अवशेष एकभागमात्र अनुभाग रहता है उसको अनन्तका भाग देनेपर उसमे से बहुभाग द्वितीय अनुभागकाण्डक में घटाता है, अवशेष एकभागप्रमाण अनुभाग रहता है, यह क्रम अन्तिम अनुभागकाण्डक पर्यन्त क्रम जानना । इसप्रकार अप्रशस्त प्रकृतियोका अनुभागखण्ड करणविशुद्धि के द्वारा यहा होता है | अनुभागकाण्डक सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है- एकप्रदेश गुण हा निस्थान में स्पर्घक स्तोक है, अतिस्थापना अनन्तगुणी है, निक्षेप अनन्तगुणे, अनुभाग काण्डकके द्वारा घाता जानेवाला अनुभाग अन्तगुणा है' | पढमे छठे चरिमे भागे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । बंधे अपुव्वरस य से काले बाद होदि ॥ १६ ॥ ४१० ॥ अर्थः- अपूर्वकरणके प्रथमभागमे दो प्रकृतियां, छठे भाग में ३० प्रकृतियां और अन्तिमभागमे ४ प्रकृतिया बन्धसे व्युच्छिन्न होती हैं । अपूर्वकरणसे अनन्तर समय में वादर साम्पराय होता है । १. जयधवल मूल पृ० १९५२ । २. जयघवल मूल पृ० १९४८ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २० ] क्षपणांसार [ २३ विशेषार्थः-हजारों स्थितिबन्धापसरणके व्यतीत हो जानेपर अपूर्वकरणके सातभागोमेसे प्रथमभाग समाप्त होता है उस समय निद्रा और पंचलाकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । यह कथन अनुत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा है, किन्तु उपपादातुच्छेदकी अपेक्षा प्रथमभागके अन्तसमय में निद्रा-प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । प्रथमभागके समाप्त होते ही निद्रा और प्रचलाका गुणसंक्रमण होने लगता है, क्योंकि क्षपक या उपशमश्रेणिमे जिन अप्रशस्तप्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उनकी गुणसंक्रमणके अतिरिक्त अन्य पर्याय सम्भव नही है । अपूर्वकरणकालके सातभागोंमेसे छह भाग व्यतीत हो जाने पर परभवसम्बन्धी प्रकृतियोकी बन्धसे व्युच्छित्ति हो जाती है । शंका:-परभवसम्बन्धी प्रकृतियां कौन-कौनसी हैं ? समाधानः-देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छवास) प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर ये तीस प्रकृतियां परभवसम्बन्धी हैं । शंकाः--इनकी परभविक संज्ञा क्यों है ? समाधान:--परभवसम्बन्धी देवगतिके साथ बन्धको प्राप्त होती हैं, अतः इनकी परभविक संज्ञा है। यशस्कोतिका बन्ध भी देवगतिके साथ होता है और उसकी भी परभविक सज्ञा है, किन्तु उसकी बन्धव्युच्छित्ति यहा नही होती, क्योकि यशस्कीतिके बन्धके साथ ऊपरितन विशुद्धिका विरोध नहीं है । यशस्कीतिका बंध सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तसमयपर्यन्त होता है उससे आगे इसके बन्धका अभाव है। उसके बाद हजारों स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अपूर्वकरणका चरमसमय प्राप्त होता है । अपूर्वकरणके चरमसमयमें स्थित हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है उसी समय छह नोकषायकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है । उसके अनन्तर समयमे बादरसाम्पराय अर्थात् अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हो जाता है । अब आगे अनिवृत्तिकरणका कथन करते हैं-- अणियदृस्स य पढमे अण्णं ठिदिखंडपहुदिमारवई । उवसामणा णिधत्ती णिकाचणा तेत्थ वोछिएणी ॥२०॥४११॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] क्षपणासार । गांथा २१-२२ अर्थः-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें अन्य ही स्थितिखण्डादिक प्रारम्भ करता है उनमे अपूर्वकरणके अन्तिम समयवर्ती स्थितिकाण्ड कायामसे भिन्न ही स्थितिकाण्डकायाम, इसके पश्चात् अवशिष्ट जो अनुभाग उसका अनन्तबहुभागमात्र अन्य ही अनुभागकाण्डक होता है और अपूर्वकरणके अन्तिमसमयके स्थितिबन्धसे पत्यके सख्यातवें. भागमात्र घटता हुआ अन्य ही स्थितिबन्ध यहां होता है तथा यही अप्रशस्तोपशम, निधत्ति व निकाचनारूप तीन कर णोकी व्युच्छित्ति भी हुई है । अतः अब सर्व कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण करने योग्य हुए हैं । निवृत्तिः व्यावृत्ति:-परिणामोकी विसदृशता; इसरूप निवृत्ति जिसमे न हो वह अनिवृत्ति कहलाता है । नानाजीवोके एकसमयसम्बन्धी परिणामोंमे व्यावृत्तिका अभाव होनेसे प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है वह अनिवृत्तिकरण है'। बादरपढसे पडमं ठिदिखंडं विसरिसं तु विदियादि । ठिदिखंडपं समाणं सव्वस्स समाणकालम्हि ॥२१॥४१२॥ पल्लस्ल संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिम ठिदिखंडो सेसा सव्वस्स सरिसा हु ॥२२॥४१३॥ अर्थः-अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें जो प्रथमस्थितिखण्ड है सो तो विस है, नानाजीवोके समान नही है तथा जो द्वितीयादि स्थितिखण्ड हैं वे समानकालमें स जीवोके समान हैं । प्रथम स्थितिखण्ड जघन्यसे तो पल्यका सख्यातवांभाग तथा उत्कृ इससे सख्यातवाभाग अधिक है और अवशेष द्वितीयादि स्थितिखण्ड सभी जीवं समाव हैं। विशेषार्थः---त्रिकालसम्बन्धी समानसमयवर्ती सर्व अनिवृत्तिकरणवालोंके पा णाम सहश होते हैं इसलिए प्रथमस्थितिकाण्डकघात सदृश ही होता है ऐसा निश्चय न करना चाहिए, किन्तु प्रथमस्थितिकाण्डकघातमे जघन्य व उत्कृष्टके भेदसे विसदृश सम्भव है । किन्हीके विसदृश होता है और किन्हीके सदृश होता है । जघन्य प्रथ स्थितिकाण्डकघातसे उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघात सख्यातवेभाग अधिक है। १. जयधवल मूल पृष्ठ १६५३ व १९५५ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया २१-२२] क्षपणासार [ २५ शंका:-सदृश परिणामवाले अनिवृत्तिकरणका प्रथम स्थितिकाण्डकघात विसदृश कैसे सम्भव है ? समाधानः--सदृश परिणाम होते हुए भी स्थिति सत्कर्म में विशेषता होनेसे प्रथम स्थिति काण्डकमें विभिन्नता सम्भव है। दो जीव एक साथ क्षपकश्रेणिपर आरूढ़ हुए उनमे से एकका स्थिति सत्कर्म संख्यातभाग अधिक है और दूसरेका संख्यातभागहीव है। जिसका स्थिति सत्कर्म सख्यातभाग अधिक है उसके अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकघातसे लेकर अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकपर्यन्त सर्वस्थितिकाण्डकघात दूसरे जीवके स्थितिकाण्डकघातोसे संख्यातभाग अधिक होता है। जिसका स्थिति सत्कर्म संख्यातभाग अधिक है उस जीवके अपूर्वकरणके घातसे शेष बचा हुआ स्थिति सत्कर्म जितना विशेष अधिक होता है उसको अनिवृत्तिकरणके प्रथमस्थितिकाण्डकघातद्वारा ग्रहण करता है इसलिए अनिवृत्तिकरणका उत्कृष्ट प्रथमस्थितिकाण्डकघात संख्यातवांभाग अधिक होता है। शंकाः-यदि किसीका स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा हो तो उसका प्रथम उत्कृष्टकाण्डकघात संख्यातगुणा होगा ? समाधानः-उत्कृष्ट प्रथम स्थितिकाण्डकघात संख्यातगुणा नहीं हो सकता, क्योंकि संख्यातगुणा स्थितिसत्कर्म असम्भव है । शंकाः-संख्यातगुणास्थितिसत्कर्म असम्भव क्यो है ? समाधान:- अपूर्वकरणके चरमसमयमें घात किया हुआ स्थितिसत्कर्म जो अवशेष रहता है वह उत्कृष्ट भी जघन्यसे सख्यातवेभाग अधिक होनेका नियम है । इसलिए अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी जघन्यस्थितिकाण्ड कसे उत्कृष्टस्थितिकाण्डक , संख्यातभाग अधिक है । इसीप्रकार प्रथम अनुभागकाण्डक भी विसदृश होता है । : प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर त्रिकालवति अनिवृत्तिकरणकाल में । वर्तन करनेवाले सर्व जीवोके घातसे शेष बचा हुआ स्थिति सत्कर्म समान ही होता है, क्योंकि समान परिणामके द्वारा घात होकर शेष बचा हुआ है। समाव स्थिति सत्कर्मसम्बन्धी द्वितीयादि स्थितिकाण्डक भी समान होते हैं, क्योंकि कारणकी समानता होनेपर कार्य समान होते हैं, समान कार्यको छोड़कर अन्यकार्य असम्भव है। इसीप्रकार Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] क्षपणासार [ गाथा २३-२४ द्वितीयादि अनुभागकाण्डक भी सदृश होते हैं, क्योंकि द्वितीयादि अनुभागकाण्डकमें नानापन असम्भव है। प्रथमस्थितिकाण्डकके नाश होनेपर अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश हुए तुल्यकाल हुआ है उन सबका स्थितिसत्कर्म तुल्य होता है और एकका द्वितीयस्थितिकाण्डक अन्य सब सामान्यकालवालोके द्वितीयस्थितिकाण्डकके समान होता है उसके आगे तृतीयादि स्थितिकाण्डक तृतीयादि स्थितिकाण्डकोके तुल्य होते हैं । उदधिसहस्सपुधत्तं लक्खपुधत्तं तु बंध संतो य । अणियट्टीसादीए गुण सेढीपुव्वपरिसेसा ॥२३॥४१४।। अर्थः-पूर्व में जो स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोडीसागरप्रमाण था वह अपूर्वकरण मैं होनेवाले संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरणोसे घटते हुए अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे स्थितिबन्ध पृथक्त्वहजारसागरप्रमाण हो जाता है तथा पूर्वमे जो अन्तकोड़ाकोडीसागरप्रमाण स्थितिसत्त्व था वह अपूर्वकरणमे होनेवाले सख्यातहजार स्थितिकाण्डकघातोके द्वारा घटते हुए पृथक्त्व लक्षसागर प्रमाण हो जाता है । जघन्य या उत्कृष्ट परिणामोके कारण जो जघन्य या उत्कृष्ट गुणश्रेणोनिक्षेप अपूर्वकरणमे प्रारम्भ किया था वह गुणश्रेणिआयाम अपूर्वकरणका काल व्यतीत होनेके पश्चात् जितना शेष रहा वही यहां जानना । समय-समयप्रति असख्यातगुणे क्रमसहित पूर्ववत् गुणश्रेणी और गुणसक्रमण वर्तता है । ये सब प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणके आवश्यक हैं । तदनन्तरकालमे ये उपर्युक्त ही आवश्यक होते हैं, विशेषता केवल यह है कि यहां गुणश्रेणि असंख्यातगुणो होती है, शेष-शेष (गलितावशेष) मे निक्षेप होता है, विशुद्धि अनन्तगुणी वृद्धिरूप है। आगे स्थितिबन्धापसरणका कम कहते हैं-- 'ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा। तत्थासणिणस्तढिदिसरिसं ठिदिबंधणं होदि ॥२४॥४१५॥ १. जयधवल मूल पृ० १९५४ । २. जयधवल मूल पृष्ठ १६५५ । क० पा० सु० पृष्ठ ७४३-४४ सूत्र ७५ से ७७ । ३. यह गाया ल० सा० गाथा २२८ के समान है । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८१। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५ ] [ २७ अर्थः--इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकाल के संख्या बहुभाग तो व्यतीत हो जाते है तथा एकभाग शेष रहने के अवसर में असज्ञी - ञ्चेन्द्रियकी स्थिति के समान स्थितिबन्ध होता है । क्षपणासार विशेषार्थ:- उपर्युक्त आवश्यकोका पालन करते हुए अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत हो जानेपर प्रथमअनुभागकाण्डक निर्लेपित होता है तथा शेष अनुभाग के अनन्तबहु भागको घा करनेवाला अन्य अनुभागकाण्डक होता है अवशिष्ट आवश्यकोमे कोई अन्तर नही होता । संख्यातहजारअनुभागकाण्डको के व्यतीत हो जानेपर प्रथम स्थितिकाण्डक व प्रथमस्थितिबन्घापसरण व अन्य अनुभागकाण्डक एकसाथ समाप्त होते है । इसप्रकार अनुक्रम लीये एक स्थितिबन्धा पसरण द्वारा स्थितिबन्ध घटने से एक स्थितिबन्ध होता है ऐसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनिवृत्तिकरण के कालका सख्यात बहुभाग व्यतीत होनेपर एक भाग अवशेष रहा वहां असज्ञीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है, वह इस - प्रकार है - एक हजारसागरके वां भागमात्र मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चारकर्मोका और 3 वां भाग नाम गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध होता है। चालीस, तीस व बीस कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिकी अपेक्षा चारित्रमोहको चालीसीय, ज्ञानावरणादि चारकर्मोको तीसीय एव नाम - गोत्रको वीसिय जानना चाहिए' । ठिदिबंध सहस्सगदे पत्तेयं चरतियविएइंदी | ठिदिबंधसमं होदि ह ठिदिबंध मरणुक्कमेणेव ॥ २५ ॥ ४१६॥ हु अर्थः- पूर्वोक्तक्रम लीये सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर अनुक्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके समान स्थितिबन्ध होता है । इनमें चतुरिन्द्रियके समान तो १०० सागर, त्रीन्द्रियके समान ५० सागर, द्वीन्द्रियके समान २५ सागर, एकेन्द्रियके समान एकसागरका वां भाग मोहनीयका, वां भाग ज्ञानावरणादि चार तीसीय कर्मोंका, भागमात्र नाम गोत्र बीसिय कर्मोका स्थितिबंध होता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञीके ७० कोड़ाकोड़ीसागर स्थितिवाले मिथ्यात्वकर्मका क्रमसे एक, पचीस, पचास, सी और एकहजार सागरका १. जयघवल मूल पृ० १६५६ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २२६ के समान है, किन्तु 'सहस्स' के स्थानपर 'पुधत्त' पाठ है । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४४ सूत्र ८२-८३ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] क्षपणासार [ गाथा २६-२८ स्थितिबन्ध होता है तो क्रमशः चालीस, तोस व बीस कोड़ाकोड़ी रूप उत्कृष्टस्थितिवाले मोहनीय, ज्ञानावरणादि चार और नाम व गोत्रकर्मका कितना बन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर पूर्वोक्त स्थितिबन्धका प्रमाण प्राप्त होता है । यही त्रैराशिकक्रम आगे भी जानना'। एइंदियविदीदो संखसहस्ते गदे ह ठिदिबंधे । पल्लेकदिवड्डदुगं ठिदिबंधो वीलियतियाणं ॥२६॥४१७॥ अर्थः-एकेन्द्रियके समान स्थितबन्धसे आगे संख्यातहजार स्थितिबन्ध जानेपर नाम-गोत्रका (वीसियका) एक पल्य, तीसीयाकर्मोका ११ पल्य और मोहनीयका दो पल्य स्थितिवन्ध होता है ।। तक्काले ठिदिसंतं लकालपुधत्तं तु होदि उवहीणं । बंधोलरणा बंधो ठिदिखंडं संतमोसरदि ॥२७॥४१८॥ अर्थः-उस कालमें कर्मोंका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वलक्षसागरप्रमाण होता है सो अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्धसे सख्यातगुणाकम जानना "स्थितिवधापसरणके द्वारा स्थितिबन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकोसे स्थितिसत्त्वकम होता है" ऐसा सर्वत्र जानना। विशेषार्थः-जिस समय नाम व गोत्रकर्मका पल्योपमको स्थितिवाला बन्ध होता है उस समय अल्पबहुत्व इसप्रकार है-नाम व गौत्र का स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पूर्वके स्थितिबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व विधानसे व्यतीत होते हैं। "पल्लस्स संखभागं संखगुणणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणे एल्लं पल्लासंखं असंखवस्तंति ॥२८॥४१॥ १. जयधवल मूल पृ० १६५६ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३० के समान है। क० पा० सु० ए० ७४४ सूत्र ८४-८५-८६ । ३. जयघवल मूल पृ० १६५६ । ४. जयधवल मूल पृष्ठ १६५६-५७ । क० पा० सुत पृ० ७४४ सूत्र ८७ से १३ । ५. यह गाथा ल० सा० गा० २३१ के समान है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाय गाथा २६ ] २६ अर्थः-अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर स्थितिबन्धसे जबतक पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है तबतक स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पत्यके संख्यातवेंभाग है उसके पश्चात् पल्यके असंख्यातवेंभागरूप स्थितिबन्धपर्यन्त पल्यके संख्यात बहुभागवाले स्थितिबन्धापसरण होते हैं अर्थात् प्रत्येक स्थितिबन्धापसरणमें स्थितिबन्ध पल्यका संख्यातबहुभाग घटता हुआ होता है। दूरापकृष्टिसे लेकर जबतक संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहां प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण द्वारा पल्यका असंख्यातबहुभाग घटता स्थितिबन्ध होता है। एवं पल्लं जादा वीलीया तीसीया य मोहो य । पल्लासंखं च कर्म बंधेण य वीसियतियानो ॥२६॥४२०॥ अर्थः-इसप्रकार (२० कोड़ाकोड़ीसागरकी स्थितिवाले) बीसीयकर्मोका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होनेता वीसीयकर्मोसे डेढगुना तोसीयका और दोगुणा मोहका स्थितिबन्ध है, ऐसा ही क्रम जानना । इसके अनन्तर एक स्थितिबन्धापसरण होनेसे वीसीयकर्मोंका स्थितिबन्ध तो संख्यातगुणाकम होता जाता है । पल्यको संख्यातका भाग देने पर उसमें से बहभाग घटानेसे एकभागमात्र स्थितिबन्ध रहता है तथा अन्य कर्मोंका जबतक पल्यमात्र स्थितिबन्ध नहीं हो जाता उससे पूर्वबन्धसे पल्यका संख्यातवेंभागमात्र विशेषसे हीन स्थितिबन्ध होता है । यहां वीसीयकर्मोंका स्थितिबन्ध स्तोक है उससे ज्ञानावरणादि चार तीसोयोंका स्थितिबन्ध तुल्य होकर संख्यातगुणा है क्योंकि वोसोयकर्मोंका स्थितिबन्ध तो पल्यके संख्यातवेंभाग और तीसीयकर्मोका साधिक पल्यमात्र है एवं तीसीयोंसे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है इसप्रकार अल्पबहुत्व जानना । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर ज्ञानावरणादि तीसीयकर्मोंका पल्यमात्र स्थितिबन्ध हो जाता है । तोसीयकर्मोंके स्थितिबन्धसे तीसराभाग अधिक मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है, क्योकि तीसीयका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है, तो चालीसीयका कितना स्थितिबन्ध होता है इसप्रकार राशिक करनेपर त्रिभाग अधिक पल्यमात्र मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। इसके अनन्तर तीसोयकर्मोका एक स्थितिबन्धापसरण द्वारा पूर्व स्थितिबन्धसे पल्यका संख्यताबहुभागमात्र घटता अर्थात् संख्यातगुणा घटता स्थितिबन्ध होता है । यहां नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक उससे तीसोयोंका संख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका संख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० । क्षपणासार [ गाथा २९ इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर मोहनीयकर्मका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है । यहा छह कर्मोंका स्थितिबन्ध पल्य के सख्यातवेंभागमात्र है ऐसे बीसीय, तीसीय और मोहनीयका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होनेका क्रम जानना तथा इसके अनन्तर जब मोहनीयकर्मका पल्यके संख्यातबहुभागवाला एक स्थितिबन्धापसरण होता है तब सातो ही कर्मोका स्थितिबन्ध पल्यके सख्यातवेंभागमात्र हो जाता है यहां नामगोत्रका स्तोक उससे तीसीयकर्मोंका सख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा जानना । इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका दूरापकृष्टि' नामक पल्यके संख्यातवेभागवाला अन्तिम स्थितिबन्ध होता है । इसके अनन्तर पल्यका असख्यात बहुभागमात्र एक स्थितिबधापसरण होनेसे जब वाम व गोत्रका पल्यके असंख्यातवेभागमात्र स्थितिबन्ध होता है वहां अन्यकर्मोका पल्यके सख्यातवेंभागमात्र ही स्थितिबन्ध है, क्योकि दूरापकृष्टिका उलघन होनेसे इनके स्थितिबन्ध पल्यके सख्यातवेंभागप्रमाण और स्थिति बन्धापसरण पल्यके सख्यातबहुभाग १. सखेज्जसहस्समेत्तेसु ठिदिखडएसु गदेसु तदो हेट्ठा दूरयरमोइण्णस्स दूरावकिट्टिसपिणद सव्व पच्छिम पलिदोवमस्स सखेज्जभागपमाण ठिदिसतकम्ममवसिठ्ठ होदि । किं कारणमेदस्स ठिदिविसेसस्स दूरावकिट्टिसण्णा जादा त्ति चे? पलिदोवमट्ठिदिसतकम्मादो सुठु दूरयरमोसारिय सव्वजहण्णपलिदोवमसखेज्जभागसरुवेणावट्ठाणादो । पल्योपमस्थितिकर्मणोऽधस्तादूरतरमपकृष्टत्वादतिकृशत्वाच्च दूरापकृष्टिरेषा स्थितिरित्युक्त भवति । अथवा दूरतरमपकृष्यतेऽस्याः स्थितिकरण्डकमिति दूरापकृष्टिः । इत. प्रभृत्यसख्येयान् भागान् गृहीत्वा स्थितिकाण्डकघातमाचरतीत्यतो दूरापकृष्टिरिति यावत् । अर्थात् सख्यातहजार स्थितिकाण्डकोके जानेपर उससे नीचे बहुत दूर गये हुए जीवके दूरापकृष्टि सज्ञावाला सबसे अन्तिम पल्योपमके संख्यातर्वेभागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । शंकाः-इस स्थितिकी दूरापकृष्टि सज्ञा किस कारणसे है ? समाधान:-क्योकि पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे अन्यन्त दूर उतरकर सवसे जघन्य पल्योपमके सख्यातभागरूपसे इसका अवस्थान है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे नीचे अत्यन्त दूरतक अपकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृश-अल्प होनेसे यह स्थिति दूरापकृष्टि है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अथवा इसका स्थितिकाण्डक अत्यन्त दूरतक अपकर्षित किया जाता है इसलिए इसका नाम दूरापकृष्टि है । यहासे लेकर असख्यातबहुभागोको ग्रहणकर स्थितिकाण्डकघात किया जाता है अत: यह दूरापकृष्टि कहलाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०-३१ ] क्षपणासार [ ३१ मात्र ही है । यहां नाम व गोत्रका सबसे स्तोक उससे ज्ञानावरणादि चार तीसियकर्मोका असंख्यातगुणा उससे मोहनोयकर्मका संख्यातगुणा स्थितिबन्ध जानना । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर ज्ञानावरणादि (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय) तीसीयकर्मोका स्थितिबन्ध दूरापकृष्टिका उलंघनकरके जब पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र हो जाता है । तब नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे तीसीयकर्मोका असंख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध है । इसक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर दूरापकृष्टि को उलघकर मोहनीयकर्मका भी पल्यके असंख्यातवेभाग स्थितिबन्ध हो जाता है। यहां सभी कर्मोंका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है । इसीप्रकार बीसीय, तीसीय और चालीसीयकर्मोका पल्यके असख्यातवेभागमात्र स्थितिबन्ध क्रमसे होता है । उदधिसहस्सपुधत्तं अब्भंतरदो दु सदसहस्सस्स । तक्काले ठिदिसंतो आउगवज्जाण कम्माणं ॥३०॥४२१॥ अर्थः--उस मोहनीयकर्मका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होने के काल में आयुबिना अन्यकर्मोका स्थितिसत्त्वपृथक्त्व हजारसागर प्रमाण होता है सो पृथक्त्वहजार शब्दसे यहां लक्षके भीतर यथासम्भव प्रमाण जानना । पहले पृथक्त्वलक्षसागरका स्थितिसत्त्व था सो संख्यातहजार स्थितिकाण्डकघातोंके द्वारा यहां इतना शेष रहा है। शंकाः-स्थितिबन्धमें जिसप्रकार असंख्यातगुणा कम हो गया था उसीप्रकार स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम क्यो नही हुआ ? समाधानः-स्थितिसत्त्वमें असंख्यातगुणा क्रम नही हुआ, क्योंकि स्थितिबन्ध से स्थितिसत्त्व असख्यातगुणा है अतः सदृश अपवर्तन सम्भव नही है । 'मोहगपल्लासंखढिदिबंधसहस्सगेसु तीदेसु । मोहो तीसिय हेट्ठा असंखगुणहीणयं होदि ॥३१॥४२२।। १. ज०१० मूल पृष्ठ १६५६ से १९५६ । क. पा० सुत्त पृष्ठ ७४५.४६-४७ सूत्र ६४ से १२४ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४७ सूत्र १२५;घ० पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३. जे० घ० मूल पृष्ठ १९६० । ४. यह गाथा ल० सार गाथा २३३ के समान है।' क० पा० सुत्त पृ० ७४७'सूत्र १३० ते १३३, धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ३२-३३ ३२ __ अर्थः--मोहनीयकर्मका पल्यके असंख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होने के काल में नाम व गोत्र का स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, उससे असंख्यातगुणा ज्ञानावरणादि चारतीसीयकर्मोका और उससे असख्यात गुणा मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध होता है। इसप्रकारके अल्पबहुत्वसहित सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका स्तोक उससे मोहनीयकर्मका असख्यातगुणा तथा उससे भी असख्यात गुणा ज्ञानावरणादि चार तीसीयकर्मोंका, ऐसे अन्यप्रकार स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके निमित्तसे तीसीयकर्मोके नीचे अतिप्रशस्त मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेषघातके वशसे असंख्यातगुणा कम हो जाता है। तेत्तियसेत्ते बंधे समतीदे वीलियाण हेट्टादु । एक्कसराहे मोहे असंखगुणहीणयं होदि ॥३२॥४२३॥ अर्थः--पूर्व गाथोक्त अल्पबहुत्वके क्रमसहित उतने ही संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर एक ही बार अन्यप्रकारसे स्थितिबन्ध होता है वहां मोह नीयकर्मका सबसे स्तोक, नाम व गोत्रकर्मका असंख्यात गुणा और उससे ज्ञानावरणादि चारों तीसीयकर्मोंका असंख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके बलसे अति अप्रशस्तमोहका स्थितिबन्ध वीसीयकर्मोके नीचे असख्यातगुणा कम हो जाता है । "तेत्तियमेत्त बंधे समतीदे वेदणीय हेद्वादु । तीसियघादि तियानो असंखगुणहीणया होति ॥३३॥ अर्थः-इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे उतने ही सख्यातहजारस्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य ही प्रकार स्थितिबन्ध होता है । तब मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, उससे नाम व गोत्रका असंख्यातगुणा और उससे तीन घातियाकर्मोका असंख्यातगुणा तथा १. जयधवल मूल पृ० १६६० । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३४ के समान है । क० पा० सु० पृ० ७४७ सूत्र १३४ से १३६; धवल पु० ६ पृष्ठ ३५२ । ३ जयधवल मूल पृष्ठ १६६० । ४. यह गाथा लब्धिसार गाथा २३५ के समान है। धवल पु० ६ पृष्ठ ३५३; क. पा० सुत्त पृ० ७४७-४८ सूत्र १३७ से १४० तक । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४-३६ ] क्षपणासार [ ३३ उससे असंख्यातगुणा वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धता होने से तीनीयकर्मोमें भी वेदनीयकर्मसे नीचे अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असंख्यात गुणा घटते हए स्थितिबन्ध हो जाता है। तेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेढा दु । तीसियघादितियानो असंखगुणहीणया होति ॥३४॥४२५॥ अर्थः--इसी उपयुक्तकमसे संख्यातहजार स्थितिवन्ध व्यतीत होनेपर पूर्वस्थितिबन्धसे अन्यप्रकार स्थितिबन्ध होता है तब मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक, उसने तीन घातियाकर्मोका असख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असत्यातगुणा और उससे साधिक वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध होता है । यहां विशुद्धताके बलसे वीसीय (नामगोत्र) कर्मोके नीचे अतिअप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असख्यात गुणा घटते हुए स्थितिबन्ध होता है। *तक्काले वेदणियं णामागोदादु साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेदणियाणं कमो बंधे ॥३५॥४२८|| अर्थः-उस (विशुद्धतावश अप्रशस्त तीन घातियाकर्मोका असंख्यात गुणा घरते हुए स्थितिबन्धके) कालमे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध नाम व गोनके स्थितिबन्यो साधिक है अर्थात् नाम व गोत्रके स्थितिवन्धसे आधाप्रमाण अधिक (१३ गुणा), क्योंकि वीसीयकर्मोके स्थितिबन्धसे तीसीयकर्मोका स्थितिवन्ध डेढगुणा राशिका विभोगे सिद्ध होता है । इसप्रकार मोहनीय, तीसीय, वीसीय और वेदनीयकर्मका मममें दम सोही क्रमकरण जानना । नाम और गोत्रकर्मसे वेदनीयका डेढगुणा स्थितिवन्धर पाने अल्पबहुत्व होना ही क्रमकरण कहलाता है । अथानन्तर स्थितिसत्त्वापसरणका कथन करते हैं: बंधे मोहादिकमे संजादे तेत्तियेहिं बंधेहिं । ठिदिसंतमसरिणसमं मोहादिकमंतहा संते ॥३६११२७॥ - - प १. जयघवल मूल पृष्ठ १६६०-६१।। २. यह गापा ल० सार गा० २३६ के समान है। पवन ०६ १८:५३; ७४८ सूत्र १४१ से १४८ तक। ३. पवन मून०१६ ४. यह गावा ल० सा० गाथा २६७ के समान है। पवन दु० ६ १३५३ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] क्षपणासार [ गाथा ३४-३६ अर्थ-मोहादिके क्रम लीये जो क्रमक रणरूप बन्ध हुआ उससे आगे इसीक्रमसे उतने ही सख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर असंजीपञ्चेन्द्रियके समान स्थितिसत्त्व होता है तथा उससे आगे जिसप्रकार मोहादिकसम्बन्धी स्थितिबन्धका व्याख्यान क्रमकरणपर्यन्त किया गया है वैसे ही स्थितिसत्त्वका व्याख्यान अनुक्रमसे जानना । विशेषार्थ ~यहा पल्यस्थितिपर्यन्त पल्य का सख्यातवाभागमात्र, उससे दुरापकृष्टिपर्यन्त पल्यका सख्यातबहुभागमात्र, उससे आगे सख्यातहजारवर्ष स्थितिपर्यन्त पल्यका असख्यातबहुभागमात्र आयाम लीये जो स्थितिबन्धापसरण हैं उनके द्वारा स्थितिबन्धघटनेका कथन किया था उसीप्रकार यहा उतने आयामसहित स्थितिकाण्डकोके द्वारा स्थितिसत्त्वका घटना होता है । जिसप्रकार क्रमकरणमे सख्यातहजार स्थितिबन्धका व्यतीत होना कहा था वैसे यहा भी कहते हैं और वही उतने स्थितिकाण्डकोका व्यतीत होना कहेगे, क्योकि स्थितिबन्धापसरणका और स्थितिकाण्डकोत्करणका काल समान है तथा क्रमकरणके प्रकरणमे स्थितिबन्ध कहा था उसके स्थानपर स्थितिसत्त्व कहना तथा अल्पबहुत्व, त्रैराशिकादि विशेषकथन बन्धापसरणवत् ही जानना चाहिए । स्थितिसत्त्वके क्रमका कथन निम्न प्रकार है 'प्रत्येक सख्यातहजारकाण्डक व्यतीत हो जानेपर क्रमसे असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान ही कर्मोका स्थितिसत्त्व भी एकहजार, सौ, पचीस व एकसागरप्रमाण होता है तथा सख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर वीसीय (नाम-गोत्र) कर्मोंका एकपल्य, तीसीय (ज्ञानावरणादि चार) कर्मोका डेढपल्य और मोहनीयकर्मका दो पल्य स्थितिसत्त्व होता है । इससे आगे पूर्वसत्त्वका सख्यात बहुभागमात्र एककाण्डक होनेसे वीसीयकर्मों का पल्यके सख्यातवेंभागमात्र स्थितिसत्त्व हो जाता है । उस कालमे बीसीयकर्मोंका सबसे स्तोक, वीसीयकर्मोके स्थितिसत्त्वसे तीसीयकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा और मोहनीयकमको विशेष अधिक है। इस क्रमसे पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर तोसोयकर्मोका पल्यमात्र और मोहनीयकर्मका त्रिभाग अधिक पल्यमात्र स्थितिसत्त्व जानना। इसके आगे एककाण्डकके होनेपर तीसीयकर्मोका स्थिति सत्त्व भी- पल्यके सख्यातवेंभागमात्र हो जाता . है तब बोसीयकमोका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक तीसोयकर्मों का उससे सख्यातगुणा और' १. ज० ५० मूल पृष्ठ १९६१ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४८.७४६ सूत्र १४६ से १६३ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४-३६ ] क्षपरणासार [ ३५ उससे भी संख्यातगुणा स्थितिसत्त्व मोहनीयकर्मका जानना । इसक्रमसे पृथक्त्व (बहुतसे) स्थितिकाण्डक बीत जानेपर मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व पल्योपममात्र हो जाता है । एककाण्डकके पूर्ण हो जाने पर मोहनीयकर्मका भी पल्यके संख्यातवेभागमात्र स्थितिसत्त्व हो जाता है । उसीकाल में सातो कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्यके सख्यातवेभागमात्र हो जाता है वहां वीसीयकर्मोका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक, तीसीयकर्मोका सख्यात गुणा और उससे भी संख्यातगुणा मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व होता है । इसके आगे इसक्रमसहित संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर वीसीयकर्मोंका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उलंघकर पल्यके असख्यातवेभागमात्र हो जाता है उससमय वीसीयकर्मोका सबसे स्तोक उससे तीसीयकर्मोका असख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका संख्यातगुणा स्थितिसत्त्व होता है। इससे आगे इसक्रम से पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बीत जानेपर तीसीयकर्मोका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उलंघकर पल्यके असंख्यातवेभागमात्र होता है तब नाम व गोत्रकर्मका स्थितिसत्त्व सबसे कम चार तीसीयकर्मोका स्थितिसत्त्व परस्पर तुल्य और असख्यातगुणा है तथा मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व सख्यातगुणा है । पुनः स्थितिकाण्डकपृथक्त्वके पश्चात् मोहनीयकर्मका भी स्थितिसत्त्व पल्योपमके असंख्यातवेंभागमात्र हो जाता है तब सभी कर्मोंका स्थितिसत्त्व पल्यके असख्यातवेंभागमात्र होता है उससमयमे बीसीयकर्मोका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक उससे तीसीय (ज्ञानावरणादि चार) कर्मोका असख्यातगुणा और उससे भी असंख्यातगुणास्थितिसत्त्व मोहनीयकर्मका है। इसक्रमसे सख्यातहजार स्थितिकाण्डक बीतजानेपर नाम व गोत्रकर्मका सबसे स्तोक उससे मोहनीयकर्मका असख्यातगुणा एवं उससे असख्यातगुणा स्थितिसत्त्व चार तीसीयकर्मोका होता है । इसक्रमके द्वारा पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बीत जानेपर मोहनीयकर्मका सबसे स्तोक उससे नाम-गोत्र कर्मका असख्यातगुणा, और उससे ज्ञानावरणादि चार तीसीयकर्मोका असख्यातगुणा स्थितिसत्त्व होता है। इसीक्रपसे पृथक्त्व स्थितिकाण्डक व्यतीत होने पर मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व सबसे स्तोक, उससे बीसीयकर्मोका असख्यातगुणा, उससे तीन घातियाकर्मोका असंख्यातगुणा, उससे भी असंख्यातगुणा १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४६ सूत्र १६४ । जयधवल मूल पृष्ठ १६६२ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७४६ सूत्र १७० । जय ध० मूल पृष्ठ १६६२ । - ३. क. पा० सुत्त पृ० ७४६-५० सूत्र १७१ से १७४ । ज० ध० मूल पृष्ठ १९६२ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५० सूत्र १७८-१८१ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६२ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ३६ ] [ गाथा ३७-३८ स्थितिसत्त्व वेदनीयकमका होता है । इसक्रमसे पृथक्त्व स्थितिकाण्डकोंके बीत जानेपर मोहनीयकर्म स्थितिसत्त्व सबसे कम है, उससे तीन घातियाकर्मोका असख्यातगुणा, उससे नाम व गोत्रकर्मका असंख्यातगुणा और विशेष अधिक स्थिति सत्त्व वेदनीयकर्मका होता है। इसप्रकार अन्त में नाम व गोत्रके स्थितिसत्त्वसे वेदनीयकर्मका स्थिति सत्त्व साधिक हो जाता है । तब मोहादिकर्मके क्रमसे स्थितिसत्त्वका क्रमकरण होता है'। तीदे बंधलहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधे । तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयबद्धाणं ॥३७॥४२८॥ अर्थ.--इस क्रमकरणसे आगे सख्यात हजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर पल्यके प्रसख्यातवेंभागमात्र स्थितिबन्ध होता है तब असंख्यात समय प्रबद्धोंको उदीरणा होती है । विशेषार्थ:-यहाँसे पूर्व में अपकर्षण किये हुए द्रव्यको उदयावलिमें देनेके लिए असंख्यातलोकप्रमाणभागहार सम्भव था वहा समयप्रबद्धके असख्यातवेंभागमात्र उदीरणाद्रव्य था उसका नाशकरके अब परिणामोकी विशुद्धताके कारण सर्ववेद्यमान कर्मोका उदीरणारूप द्रव्य असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण हो जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वसम्बन्धी कमकरणका कथन पूर्णकरके ८ कषाय व १६ प्रकृतियोंका क्षपणकरणाधिकार प्रारम्भ करते हैं-- *ठिदिबंधसहस्सगदे, अटकसायाण होदि संकमगो। ठिदिखंडपुत्रेण य, तट्ठिदिसंतं तु आवलियविद्धं ॥३८॥ १. क० पा० सु० पृ० ७५० सूत्र ८२ से १९२ जयघवल मूल पृष्ठ १९६२-६३ । २. यह गाथा ल० सा० गाथा २३८ के समान है। जयधवल मूल पृष्ठ १९६३ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १६३-१९४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५५ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १६३-६४ । ४ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५१ सूत्र १९५ से १६७ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५५-५६ । अट्ठकसायाणमपच्छिमट्ठिदिखंडए चरमफालिसरूवेण णिल्लेविदे तेसिमावलियपविठ्ठसंतकम्मस्सेव समयूणावलियमेत्तणिसेगपमाणस्स परिसेससत्तसिद्धीए णिव्वाहमुवलभादो। (जयधवल मूल पृ० १९६३) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६ ] क्षपणासार [ ३७ अर्थः-तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर आठ (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) कषायोंका पृथक्त्वस्थितिखण्डसम्बन्धी कालके द्वारा संक्रमण होता है तथा उच्छिष्टावलीमात्र स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है । विशेषार्थः-असंख्यातसमयप्रबद्धमात्र उदीरणा होने से लगाकर संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानक्रोध-मान-माया व लोभरूप आठ कषायोंका संक्रमण होता है । यहांपर प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ होना संक्रमण जानना। ये उपयुक्त आठकषाय अप्रशस्त थे अतः प्रथम हो इनकी क्षपणा सम्भव है। इन कषायोंके द्रव्यमें से कुछ द्रव्य तो क्षपणाके प्रारम्भके प्रथमसमयमें, कुछ द्रव्य द्वितीय समय में इसप्रकार समय-समयप्रति एक-एक फालिका सक्रमण होते हुए अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी फालियोंके द्वारा प्रथमकाण्डकका संक्रमण होता है । इसप्रकार ये कर्म परमुखसे नष्ट होते हैं, सो अन्यप्रकृतिरूप होकर जिसका नाश होता है वही परमुखनाश कहलाता है । मोहनीयकर्मरूप राजा की सेनाकी नायकरूप इन आठ कषायोंका अन्तिमकाण्डकसम्बन्धी अन्तिमफालिके नाश होनेसे अवशिष्ट स्थितिसत्त्व कालकी अपेक्षा आवलीमात्र रहता है और निषेकोंकी अपेक्षा एकसमयकम आवलिप्रमाण रहता है, क्योंकि अन्तिमकाण्डकघातके समय प्रथमनिषेकका संक्रमण स्वमुख उदयसहित किसी सज्वलनकषायमें होता है तथा उदयावली को प्राप्त निषेकका काण्डकघात नही होनेसे एकसमयकम आवलिमात्र निषेक अन्तिमफालिके साथ नष्ट नहीं होता है । प्रतिसमय स्तुविकसंक्रमणद्वारा प्रत्येकनिषेक संज्वलनरूप परिणमनकरके विनाशको प्राप्त होता है । 'ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो। ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु प्रावलिपविट्ठ॥३६॥४३०॥ अर्थः--तत्पश्चात् पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर सोलह (स्त्यानगृद्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चारजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, १. क० पा० सुत्त प०७५१ सूत्र १६७-६८ । जयघवल मूल पृ० १६६३-६४ । धवल पु०६ पृष्ठ ३५६ । एत्थ णिरयतिरिक्खगईपाओग्गणामाओ ति वृत्त णिरयगइरिणरयगइपाओग्गाणुपुवीतिरिक्खगइतिरिक्खगईपाओग्गाणुपुव्वीएइन्दियवीइदियतीइदियचउरिदियजादि आदावुज्जोवथावरसुहुमसाहारणणामाण तेरसह पयडीणं गहणं कायन्व (जयघवल मूल पृष्ठ १६६४) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ३९ ३८ ] सूक्ष्म, साधारण) प्रकृतियोका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वस्थितिखण्डोके काल द्वारा परप्रकृतिस्प सक्रमण होता है, उच्छिष्टावलीप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है । विशेषार्थः- इसके उपर पृथक्त्वस्थितिबन्ध बीत जानेपर निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ये तीन दर्शनावरणकर्मकी और नरक गति-नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति-तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चारजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण ये १३ नामकर्मकी इन १६ प्रकृतियोका सक्रमण द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं। समय-समयप्रति इनके द्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार एक-एक फालिका सक्रमण होनेपर प्रथमकाण्डकघात होकर पथक्त्व स्थितिकाण्डको द्वारा संक्रमण होता है वहा अन्तिमकाण्डकघात होते हए अवशेष स्थितिसत्त्व कालापेक्षा आवलिमात्र और निपेकापेक्षा समयकम आवलिमात्र रहता है । इसप्रकार इनका उदयवलोसे बाहर सर्वनिषेकोका द्रव्य स्वजातीय अन्यप्रकृतियोमे सक्रमण होकर क्षयको प्राप्त होती हैं । अपनी जातिकी अन्य प्रकृतियोकी स्वजाती कहते हैं । जैसे-स्त्यानगृद्धित्रिककी स्वजातीय दर्शनावरणकी अन्य प्रकृति हैं इसीप्रकार अन्य प्रकृतियोके सम्बन्धमे भी जानना । यहा पृथक्त्व शब्द विपुलतावाची है । इसप्रकार यहा मोहनीयकर्मकी तो आठ प्रकृतियोका नाश होने से नामकर्मकी १३ प्रकृतिया, दर्शनावरणकर्मकी तीन प्रकृतियोका नाश हो जानेपर छह प्रकृतिका और नामवर्मकी १३ प्रकृतिका नाश हो जानेसे ८० प्रकृतिका सत्त्व रह जाता है ज्ञानावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायकर्ममे किसी प्रकृतिका नाश नही होता है। - क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होकर जिससमय क्षपणविधि प्रारम्भ करता है उससमय अध प्रवृत्तकरणको करके क्रमसे अन्तमुहूर्तमे मपूर्वकरणगुणस्थानवाला होता है, वह एक भी कर्मका क्षय नही करता किन्तु प्रत्येक समयमे असख्यातगुणितरूपसे कर्मप्रदेशोकी निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर सख्यातहजार स्थितिकाण्डकोका घात करता है और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे सत्यातहजारगुणे अनुभागकाण्डकोका घात करता है; क्योकि, एक अनुभागकाण्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल सख्यातगुणा है ऐसा सूत्र वचन है । १. जवधवल प० १९६३-६४ । क० पा० सुत्त पृ० ७५१ सूत्र १६८-६६ । २. जयववल पु० १३ पृष्ठ ४२ व २२५ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६ j বগাভাষ [ ३९ इसप्रकार अपूर्व करणगुणस्थानसम्बन्धी क्रियाको करके अनिवृत्तिकरणगुणस्थान प्रविष्ट होकर, वहां भी अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातबहुभागको अपूर्वकरणके समान स्थितिकाण्डक घातादि विधिसे बिताकर अनिवृत्तिकरणके काल में सख्यातवांभाग शेष रहनेपर स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति आदि नामकर्मकी १३ ऐसे उपयुक्त १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। पश्चात् अन्तमुहूर्त व्यतीत करके प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ इन आठ प्रकृतियोका एक • साथ क्षय करता है। यह सत्कर्मप्राभृतका उपदेश है, किन्तु कषायप्राभृतका उपदेश तो इसप्रकार है कि पहले आठकषायोंके क्षय हो जानेपर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्मप्रकृतियां क्षयको प्राप्त होती है । ये दोनो ही उपदेश सत्य है ऐसा कितने हो आचार्योका मत है, किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योकि उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है तथा दोनों कथन प्रमाण हैं यह वचन भो घटित नही होता है, क्योंकि "एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिए" ऐसा न्याय है। शंका:-नानाजीवोके नानाप्रकारकी शक्तियां सम्भव है; इसमें कोई विरोध नहीं आता है। अतः कितने ही जीवोंके याठ कषायोके नष्ट हो जानेपर तदनन्तर सोलहकर्मोके क्षय करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। इसलिए उनका आठकषायोंका क्षय हो जाने के पश्चात् सोलहकर्मों का क्षय होता है, क्योंकि "जिस क्रमसे कारण मिलते है - उसी क्रमसे कार्य होता है" ऐसा न्याय है तथा कितने ही जीवोंके पहले सोलहकर्मोके : क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है तदनन्तर आठ कषायोके क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है । * इसलिए पहले १६ कर्मप्रकृतियां नष्ट होती हैं पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त के व्यतीत होनेपर ४ आठकषायें नष्ट होती हैं अतः पूर्वोक्त दोनों उपदेशोमे कोई विरोध नही आता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । . समाधानः-किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योंकि अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले जितने भी जीव है वे सब अतीत, वर्तमान और भविष्यकालसम्बन्धी पाकिसी एकसमयमे विद्यमान होते हए भी समान-परिणामवाले ही होते हैं इसीलिए उन जीवोकी गुणश्रेणी निर्जरा भी समानरूपसे ही पाई जाती है। यदि एकसमयस्थित अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालों को विसदृश परिणामवाला कहा जाता है तो जिसप्रकार एकसमयस्थित अपूर्वकरणगुणस्थानवालोके विसदृश परिणाम होते है अतएव उन्हे अनि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] क्षपणासार [ गाथा ३६ वृत्त यह सजा प्राप्त नहीं हो सकती है उसीप्रकार इन परिणामोको भी अनिवृत्तिकरण घर मजा प्राप्त नहीं हो सकेगी और असंख्यातगुणश्रेणीके द्वारा कर्मस्कन्धोके क्षपणके कारणभूत परिणामोको छोड़कर अन्य कोई भी परिणाम स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डवगतके कारणभूत नहीं हैं, क्योकि, उन परिणामोका निरूपण करने वाला सूत्र (बागम) नहीं पाया जाता है। शंकाः-अनेक प्रकारके कार्य होनेसे उनके साधनभूत अनेक प्रकारके कारणों का अनुमान किया जाता है ? अर्थात् हवें गुणस्थानमे प्रति समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा, स्थितिकाण्डकघातआदि अनेक कार्य देखे जाते हैं इसलिए उनके साधनभूत परिणाम भी अनेकप्रकारके होने चाहिए । समाधानः-यह कहना भी नही बनता, क्योंकि एक मुद्गरसे अनेक प्रकारके प पालरूप कार्यकी उपलब्धि होती है । शंका:-वहां भी मुद्गर एक भले ही रहा आवे, परन्तु उसकी शक्तियोंमें एकापना नहीं बन सकता । यदि मुद्गरकी शक्तियोमे भी एकपना मान लिया जावे तो उससे एक कपालल्प कार्यकी उत्पत्ति होगी। समाधानः-यदि ऐसा है तो यहां भी स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, रियतिबन्धापसरण, गुणसक्रमण गुणश्रेणी शुभप्रकृतियों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के कारणभूत परिणामोमे नानापना रहा आवे तो भी एकसमयमे स्थित नानाजीवोके परिणाम सहश ही होते हैं अन्यथा उन परिणामोके 'अनिवृत्ति' यह विशेषण नही बन सकता है। शंफा:-यदि ऐसा है तो एक समयमें स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरणगुणस्थान वालो के स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातकी समानता प्राप्त हो जावेगी । समाधानः--यह कोई दोष नही, क्योकि यह बात तो हमें इष्ट ही है । शंका:-प्रथमस्थितिकाण्डक और प्रथम अनुभागकाण्डकोको समानताका नियम तो नहीं पाया जाता है इसलिए उक्त कथन घटित नही होता है। समाधानः-यह दोष कोई दोष नही है; क्योकि, प्रथमसमयमें घातकरके पदये हुए स्थितिकाण्डकोका और अनुभागकाण्डकोका एकप्रमाण नियम देखा जाता है। दूसरी बात यह है कि जल्पस्थिति और अल्प-अनुभागका विरोधी परिणाम उससे Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ३६ ] क्षपणासार [ ४१ अधिक स्थिति और अधिक अनुभागोंके अविरोधीपने को प्राप्त नही हो सकता है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा देखने में नहीं आता, किन्तु इस कथनसे अनिवृत्तिकरणके एकसमय में स्थित सम्पूर्ण जीवोंके प्रदेशबन्ध सदृश होता है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिए, क्योंकि प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होता है, परन्तु अनिवृत्तिकरणके एकसमयवर्ती उन सर्व जीवोंके योगकी सदृशताका कोई नियम नही पाया जाता। जिसप्रकार लोकपूरण समुद्घातमें स्थित केवलियोंके योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है, उसप्रकार अनिवृत्तिकरणमे योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है। इसलिये समान (एक) समयमें स्थित अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले सम्पूर्ण जीवोके सदृशपरिणाम होने के कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात तथा उनका बन्धापसरण, गुणश्रेणीनिर्जरा और संक्रमण में भी समानता सिद्ध हो जाती है। शङ्काः-इसप्रकार समान समयमें स्थित सम्पूर्ण अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालोंके स्थितिखण्ड और अनुभागखण्डोके समानरूपसे पतित होनेपर घात करनेके पश्चात् शेष रहे हुए स्थिति और अनुभागोंके समानरूपसे विद्यमान रहनेपर और प्रकृतियोके अपना-अपना प्रशस्त और अप्रशस्तपनाके नही छोड़नेपर व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियोके विनाशमें विपर्यास कैसे हो सकता है ? अर्थात् किन्हीं जीवोके पहले आठकषायोंके नष्ट हो जानेपर सोलहप्रकृतियोंका नाश होता है यह बात कैसे सम्भव हो सकती है ? इसलिए दोनों प्रकारके वचनोंमेसे कोई एकवचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योंकि जिनेन्द्र अन्यथावादी नही होते अत: उनके वचनोमें विरोध नहीं होना चाहिए। समाधान:-यह कहना सत्य है कि उनके वचनोंमें विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु ये जिनेन्द्रदेवके वचन न होकर इस युगके आचार्योंके वचन हैं अतः उन वचनोंमें विरोध होना सम्भव है । , १५. शङ्का-तो फिर इस युगके आचार्यों द्वारा कहे गये सत्कर्मप्राभृत और कषाय प्राभृतको सूत्रपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? समाधानः-नहीं, क्योंकि जिनका अर्थरूपसे तीर्थङ्करोंने प्रतिपादन किया है और गणधरदेवने जिनकी ग्रन्थरचना की ऐसे बारहअङ्ग आचार्य परम्परासे निरन्तर चले आ रहे हैं, किन्तु कालप्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धिके क्षीण होनेपर और उन अगोंको धारण करनेवाले योग्यपात्रके अभावमें उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए आ रहे हैं। इसलिये Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ४२] [ गाथा ४०-४१ जिन आचार्योने आगे श्रेष्ठबुद्धिवाले पुरुषोंका अभाव देखा और जो अत्यन्त पापभीरु थे, जिन्होने गुरुपरम्परासे श्रुतार्थ ग्रहण किया था उन आचार्योंने तीर्थविच्छेदके भयसे उससमय अवशिष्ट रहे हुए अङ्गसम्बन्धी अर्थको पोथियोमे लिपिबद्ध किया अतएव उनमे असूत्रपना नहीं आ सकता । शङ्काः-यदि ऐसा है, इन दोनो वचनोको द्वादशाङ्गका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त हो जावेगा ? __ समाधानः-दोनोमेसे किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त होओ, किन्तु दोनोको सूत्रपना प्राप्त नही हो सकता है, क्योंकि उन दोनों वचनोमें परस्पर विरोध पाया जाता है। शङ्का:-उत्सूत्र लिखनेवाले आचार्य पापभीरु कैसे हो सकते हैं ? समाधानः-यह कोई दोष नही, क्योंकि दोनो प्रकारके वचनों में से किसी एक ही वचनके संग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात् उच्छ खलता आ जाती है, किन्तु दोनो प्रकारके वचनोंका सनेह करनेवाले 'आचार्योके पापभीरता नष्ट नही होती है अर्थात् बनी रहती है । शङ्काः--दोनो प्रकारके वचनोमेसे किस वचनको सत्य माना जावे ? समाधान.-इस बातको केवली या श्रुतकेवली जानते हैं, दूसरा कोई नहीं जानता, क्योकि इस समय उसका निर्णय नही हो सकता है, इसलिए -पापभीरु वर्तमानकालके आचार्यों को दोनोका संग्रह करना चाहिए, अन्यथा पापभीरुताका विनाश हो जावेगा। अर्थानन्तर देशघातिकरणका कथन करते हैं-- 'ठिदिवंधपुधत्तगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहि दुगं । लाभं च पुणोवि सुदं अचखंभोगं पुणो चक्रवू ॥४०॥४३१॥ पुणरवि म दिपरिभोगं पुणरवि विरयं कमेण अणुभागो। बंधेण देसघादी पल्लासंखे तु ठिदिबंधो ॥४१॥४३२॥ १. ये दोनो गाथाएँ ल० सा० गाथा २३९-४० के समान हैं । क. पा० सुत्त पृष्ठ ७५१-५२' सूत्र २०० से २०५। जयधवेल मूल पृ० १९६४-६५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६-३५७ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२] क्षपणासार [ ४३ अर्थः--(सोलह प्रकृतियोंके संक्रमणसे आगे) पृथक्त्व स्थितिकाण्डक बीत जानेपर मनःपर्ययज्ञानावरण और दानान्तराय कर्मोका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता है पुनः इतने ही स्थितिबन्ध बीत जानेपर अवधिज्ञानावरण, अवधिदर्शनावरणरूप अवधिद्विक और लाभान्त रायका अनुभागबन्ध देशघातिरूप हो जाता है । इसीप्रकार पथक्त्वस्थितिबन्धोंको पुनः पुनः व्यतीत कर क्रमशः श्रुतज्ञानावरण, अचक्षुदर्शनावरण और भोगान्तराय इन तीन कर्मोका पश्चात् चक्षुदर्शनावरणका फिर मतिज्ञानावरण एवं उपभोगान्तराय इन दोनोंकर्मोका पुनः वीर्यान्त रायकर्मका अनुभागबन्ध देशघाति हो हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण ही होता है । इसप्रकार प्रकृतिगत अनुभाग स्तोक होनेसे देशघातिबन्ध होनेका यह क्रम है। यहां स्थितिबन्ध यथासम्भव पल्यका असख्यातवांभागमात्र ही जानना । श्रागे अन्तरकरणका कथन करते हैं-- 'ठिदिखंडसहस्लगदे चदुसंजलणाण णो कसायाणं । एयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरं कुणदि ॥४२॥४३३॥ अर्थः-देशघातिकरणके आगे संख्यातहजार स्थिति काण्डक व्यतीत हो जानेपर एकस्थितिकाण्डकोत्कीरणकालके द्वारा चार संज्वलन और नव नोकषायका अन्तर करता है अन्यका अन्तर नही होता है । विशेषार्थः--अघस्तन और ऊपरितनवर्ती निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्तमात्र बीचके निषेकोंका परिणाम विशेषके द्वारा अभाव करना अन्तरकरण कहलाता है । [विरह-शून्य और अभाव ये एकार्थवाची हैं.] यहां अन्तरकरणकालके प्रथमसमयमें पहले की अपेक्षा अन्य प्रमाणसहित स्थितिकाण्डक, अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्धका प्रारम्भ एक साथ होता है तथा एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणका जितना काल है उतने कालके द्वारा अन्तरकरणका कार्य पूर्ण करता है । इसकालके प्रथमादि समयोमें उन निषेकोके द्रव्यको अन्य निषेकोंमें निक्षेपण करता है । १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सूत्र २०६ से २०८ । ध० पु० ६.पृ०.३५७ । २. जयधवल पु० १२ पृष्ठ २७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ १९६५ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ४३-४४ ४४ ] 'संनलणाणं एक्कं वेदाणेक्कं उदेदि तद्दोण्हं । सेसाणं पढमहिदि ठवेदि अंतोमुहुत्तमावलियं ॥४३॥४३४॥ अर्थः-सञ्ज्वलनचतुष्कमेसे कोई एक और तीनो वेदोंमेसे कोई एक इसप्रकार उदयरूप दो प्रकृतियोकी तो अन्तर्मुहर्तप्रमाण प्रथमस्थिति स्थापित करता है । इनके बिना जिनका उदय नही पाया जाता ऐसी ११ प्रकृतियोंकी प्रथमस्थिति आवलिप्रमाण स्वापित करता है। विशेषार्थः-जो पुरुषवेद और क्रोधके उदयसहित श्रेणी मांडता है वह इन दोनोको प्रथम स्थिति तो अन्तर्मुहूर्तमात्र तथा अन्य प्रकृतियोकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति करता है सो वर्तमानसमयसम्बन्धी निषेकसे लेकर प्रथमस्थितिप्रमाण निषेकोको नीचे छोडकर इनके ऊपर गुणश्रेणी शीर्षसे सहित प्रथमस्थितिसे सख्यातगुणे निषेकोका अन्तर करता है । स्त्रोवेद, नपुंसकवेद और छह नोकषायका जितना क्षपणाकाल है उतने प्रमाण पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति है, जो कि सबसे स्तोक है, उससे सज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति विशेष अधिक है, जो कि संज्वलनक्रोधके क्षपणाकालप्रमाणसे विशेष अधिक है । उदयस्वरूप और अनुदयस्वरूप सभी नोकषायोको अन्तिमस्थिति सदृश ही होती है, क्योकि द्वितोयस्थिति के प्रथमनिषेकका सर्वत्र सदृशरूपसे अवस्थान होता है, किन्तु अबस्तन प्रयमस्थिति विसदृश है, क्योकि उदयरूप प्रकृतियों की प्रथमस्थिति अन्तमुहूर्त है और अनुदयप्रकृतियोकी प्रथमस्थिति आवलिमात्र है । 'उक्कीरिदं तु दव्वं संत्ते पढमद्विदिम्हि संथुहदि । बंधेवि य आवाधमदिस्थिय उक्कदे णियमा ॥४४॥४३५॥ अर्थ:--अन्तररूप निषेकोके द्रव्यको सत्त्वमेसे अपकर्षणकरके प्रथमस्थितिम निरोपण करता है और जिन कर्मोका बन्ध होता है उनके अपकर्षितद्रव्यको आबाधा छोटकर बन्यल्प निपेकोमे भी निक्षेपण करता है। १० गाथा २४२ के समान है, किन्तु "तहोण्ह" के स्थानपर वहां "तं दोण्ह" ह पाठ है। फ० पा० सुत्त पृष्ठ ७५२ सत्र २०६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५७ । २. ज्यावल मूल प० १६६५ । ० पा० गुत पृ० ७५२-५३ सूत्र २१० से २१४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५८ । ३ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४३-४४] क्षपणासार [ ४५ विशेषार्थ:-जिससमय अन्तरकरणका आरम्भ होता है उसीसमय पूर्व के स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक समाप्त हो जाने के कारण अन्य स्थितिबन्धको असख्यातगुणहानिरूपसे आरम्भ होता है और अन्य स्थितिकाण्डक पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाणसे और अनुभागकाण्डक अनन्त बहुभागरूपसे होता है। हजारों अनुभागकाण्डकोके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकाण्डक, वही स्थितिकाण्डक, वही स्थितिबन्ध और अन्तरका उत्कीरणकाल एक साथ सम्पन्न होते हैं, क्योंकि तत्काल होनेवाले स्थितिबन्ध और स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालके समान अन्तरकरणोत्कीरणकाल होता है अर्थात् अन्तररूप निषेकोके द्रव्यको फालिरूपसे ग्रहणकर अन्य निषेकोंमें देता है। फालियां अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती हैं, फालियोंके द्वारा द्रव्य असंख्यातगुणित क्रमसे ग्रहण होता है । अतर करनेवाला जीव जिनकर्मोको बांधता है और वेदता है उन कर्मोकी अंतरस्थितियोमेसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जको अपनी प्रथमस्थितिमें निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोड़कर द्वितीयस्थिति में भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नही करता है, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे स्थितियां रिक्त होनेवाली हैं अत: उन में निक्षेप होने का विरोध है । (जब तक अन्तरसम्बन्धी द्विचरमफालि है तव तक स्वस्थानमें भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तरसम्बन्धी स्थितियोमें प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने हो आचार्य व्याख्यान करते हैं, किन्तु सूत्र में इसप्रकारको सम्भावना स्पष्टरूपसे निषिद्ध है। जो कर्म न बघते हैं और न वेदन किये जाते हैं ऐसी छह नोकषायों के उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपूजको अपनी स्थितियोमें नहीं देता, किन्तु बन्धनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थिति में बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सीचता है । बंधनेवाली और नही बधनेवाली जिन प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है उनमें भी यथासम्भव अपकर्षण और परप्रकृतिसमस्थितिसक्रम द्वारा सीचता है, किन्तु स्वस्थानमे निक्षिप्त नही करता है । जो कर्म बन्धते नहीं, किन्तु वेदे जाते हैं जैसे स्त्रीवेद और नपु सकवेद, उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियों के प्रदेशपूञ्जको ग्रहण कर अपनी-अपनी प्रथमस्थिति में अपकर्षण और परप्रकृतिसक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा बन्धकी द्वितीयस्थिति में उत्कर्षणकरके सिंचित करता है । जो कर्म केवल बन्धको प्राप्त होते हैं वेदे नहीं जाते जैसे परोदयकी विवक्षामै पुरुषवेद और अन्यत्र संज्वलनका उनको अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [ गाथा ४५-४६ प्रदेशपुञ्जका उत्कर्षेणवश अपनी द्वितीयस्थिति में संचार होता है, क्योंकि उदयसहित ववनेवाली प्रकृतियो की प्रथम व द्वितीयस्थितिमे तथा अनुदयरूप बघनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थितिमे सचार विरुद्ध नही है । इस क्रम से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण फालिरूपसे प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणीद्वारा उत्कीरण होनेवाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर पूरा उत्कीर्ण हो जाता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तरसम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर सब द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थिति मे सक्रमित होता है । यथा - प्रथमस्थिति से सख्यातगुणी स्थितियोको ग्रहणकरके आबाधाके भीतर अन्तरको करता है और गुणश्रेणिके अग्रभाग के अग्रभागमे से असंख्यातवे भागको खण्डित करता है तथा उससे ऊपर की सख्यातगुणी अन्यस्थितियो को भी अन्तर के लिए ग्रहण करता है' । क्षेपणासार संक्रमणकरण का कथन करते हैं- 'सत्त करणाणि चंतर कंद पढमे ताणि मोहणीयस्स । इगठबंधुंद तस्सेव य संखवस्सठिदिबंधो ॥४५॥४३६ ॥ तस्सारणुपुव्विसंकम लोहस्स संक्रमं च संस्स । प्रवेत्तकरणसंकम छावलितीदेसुदीरणदा ॥४६॥४३७॥ अर्थ. . - अन्तर करने की क्रिया समाप्त हो जानेके पश्चात् अनन्तर प्रथम सातकरण होते है -- (१-२) मोहनीय कर्मका एक स्थानीय अर्थात् लतारूप अनुभागका बन्ध व उदय (३) मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध ( ४ ) मोहनीय कर्म की प्रकृतियो का आनुपूर्वीक्रमण (५) सज्वलन लोभका असक्रमण (६) नपुंसक वेदका आयुक्त - करण सक्रमण ( ७ ) छह आवलियोके बीत जानेपर उदीरणा । विशेषार्थ :- अन्तरकरणक्रिया समाप्तिका जो काल है उसीसमय मे ये सातकरण युगपत् प्रारम्भ होते हैं - ( १ ) मोहनीय कर्म का एक स्थानीय ( लतारूप) अनुभाग १ जयघवल पु० १३ पृष्ठ २५३ से २६२ । २ वे दोनो गाथाए कुछ अन्तर के साथ ल० सार गा० २४८ व २४९ के समान हैं । क० पा० सु० पृष्ठ ७५३ सूत्र २१५ । पर तत्र " आवेत्तकरण" इत्यस्य स्थाने "आजुत्तकरण" इति पाठो | ० पु० ६ पृष्ठ ३५८; तत्रापि ' आउत्तकरण" इति पाठो स च उपयुक्तो प्रतिभाति । ४. जयचवल मूल पृष्ठ १६६६-६७ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४५-४६ ] क्षपणासार [ ४७ बन्ध प्रारम्भ हो जाता है, इससे पूर्व देशघाति द्विस्थानीयरूप (लता, दारु रूपसे) मोहनीय कर्मका अनुभागबन्ध होता था अब परिणामोंके माहत्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय (लतारूप) हो जाता है । (२) पहले मोहनीयकर्म के अनुभागका उदय द्विस्थानीय (लता, दारु) देशघातिरूपसे होता था अन्तरकरणके अनन्तर ही एक स्थानीयरूपसे (लतारूपसे) परिणत हो गया। (३) मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पहले असंख्यातवर्षप्रमाण होता था वह घटकर अब सख्यातहजारवर्षप्रमाणवाला हो गया। (४) मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रम यथा-स्त्रीवेद और नपुसकवेदके प्रदेशपुञ्जको पुरुषवेदमें ही नियमसे सक्रान्त करता है । पुरुषवेद और छह नोकषायके प्रदेशपुञ्जको सञ्ज्वलनक्रोधमें संक्रान्त करता है, अन्य किसी में संक्रान्त नही करता । सज्वलनक्रोधको संज्वलमानमें ही, संज्वलनमानको संज्वलनमायामें हो और संज्वलनमायाको सज्वलनलोभमें निक्षिप्त करता है। पहले चारित्रमोहनीयरूप प्रकृतियोंका आनुपूर्वीके बिना संक्रम होता था, किन्तु इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है । (५) पहले आनुपूर्वीके बिना लोभसज्वलनका भी शेष संज्वलन और पुरुषवेदमे प्रवृत्त होनेवाला सक्रम होता था, किन्तु यहां आनुपूर्वीसक्रमका प्रारम्भ होनेपर प्रतिलोभसक्रमका अभाव होनेसे रुक गया। यहांसे लेकर संज्वलन लोभका संक्रमण नही होता । यद्यपि आनुपूर्वीसक्रमसे ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तो भी मन्दबुद्धिजनोंके अनुग्रहके लिए पृथक् 'निर्देश किया गया । (६) नपुसकवेदता -क्षपक 'आयुक्तकरणके द्वारा नपुसकवेदकी क्षपणक्रिया में उद्यत होता है । जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही उदीरणाके लिए शक्य रहता आया है इसप्रकार यहां शक्य नहीं है, किन्तु अन्तर; किये जानेके-प्रथमसमयसे लेकर जो कर्म बधते हैं वे कर्म छह आवलियोके व्यतीत होने के बाद उदीरणाके लिए शक्य होते हैं बंधसमयसे लेकर जबतक पूरी छह-आवलियां व्यतीत नहीं होती तब तक उनकी-उदी रणा होना शक्य नहीं है। . १. , आयुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनों एकार्थक हैं। यहासे लेकर,नपुसकवेदकी क्षपणा प्रारम्भ हो जाती है। (जयधवल पु० १३ पृष्ठ २७२) "तत्य णवुसयवेदस्स आउत्तकरणसंकामगो त्ति भरिणदे णवुसयवेदस्स खवणाए अब्भुट्टिदो होदूण पयट्टो त्ति भणिदं होदि" (जयधवल मूल पृष्ठ १६६७) । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २६४ से २६७ तक । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] क्षपणासार [ गाथा ४७-४८ 'संकुहदि पुरिसवेदे इत्थीवेदं णउंसयं चेव । सत्त े व खोकसाए नियमा कोहम्हि संहदि ॥४७॥ ४३८|| 'कोहं च कुहदि माणे माणं मायाए नियमसा हदि । मायं च कुहदि लोहे पडिलोमो संकमो गत्थि ||४८ ||४३६ ॥ अर्थ -- स्त्रीवेद और नपुंसक वेदसम्बन्धी द्रव्य तो पुरुषवेदमें ही संक्रमण करता है अन्यत्र नही | पुरुषवेद और हास्यादि छह ये सात नोकषायोका द्रव्य संज्वलनक्रोधमें सक्रमण करता है । क्रोधकषायका द्रव्य मानमें ही संक्रमण करता है, मानकषायका द्रव्य मायामें, मायाका द्रव्य लोभमे सक्रमण करता है । इसप्रकार सक्रमणके द्वारा अन्य - रूप परिणमनकर स्वयं नाशको प्राप्त होता है, यही आनुपूर्वीसक्रमण जानना । प्रतिलोभ अर्थात् अन्यथा प्रकार सक्रमण अब नही होता है । 'ठिदिबंधसहरुसगदे संढो संकामिदो हवे पुरिसे । पडिसमयमसंखगुणं संकामगचरिमसमत्ति ॥४६॥४४०॥ -- अर्थः- हजारो स्थितिबंधापसरण व्यतीत हो जानेपर नपुंसक वेदका सक्रमण पुरुपवेदमे हो जाता है । चरमसमयतक प्रतिसमय असख्यातगुणे द्रव्यका सक्रमण होता है और चरमसमयमे सर्वसक्रमण द्वारा नपुंसकवेदका सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेदमे सक्रान्त हो जाता है । विशेषार्थ :- अन्तरकरण के अनन्तरसमयसे लगाकर संख्यातहजार स्थितिबंध व्यतीत हो जानेपर नपुंसक वेद पुरुषवेदमे सक्रमित होता है । नपुंसकवेदकी क्षपणा के प्रथमसमयसे समय-समयप्रति असख्यातगुणे क्रमसे सक्रमकालके अन्त समयमे नपुसकवेदके द्रव्यका पुरुषवेदमे सक्रमण होता है सो समय-समय मे जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह फालि है और अन्तर्मुहूर्त मात्र फालियोका समूहरूप काण्डक है । इस प्रकार गुणसक्रमणरूप अनुक्रमसे सख्यातहजारकाण्डक व्यतीत होनेपर अन्त समयमे जो अन्तिम १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गाथा १३८ के समान है । जयघवल मूल पृष्ठ १९८८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गाथा १३६ के समान । जयघवल मूल पृष्ठ १९८६ २. जयधवल मूल पृष्ठ १६६७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३५६ । 177 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५० ] क्षपणासार [ ४६ काण्डककी अन्तिम फालि है उसको सर्वसंक्रमणके द्वारा संक्रमाता है । इसप्रकार नपुंसकवेदको पुरुषवेदरूप परिणमाकर नाशको प्राप्त कराता है। ऐसा अर्थ स्त्रीवेदकी क्षपणा आदिमें भी लगाना चाहिए। 'बंधेण होदि उदो अहिओ उदएण संकमो अहिो । गुणसेडि असंखेज्जापदेसग्गेण बोधव्वा ॥५०॥४४१॥ अर्थः-बधसे उदय अधिक होता है और उदयसे संक्रम अधिक होता है । इसप्रकार प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गुणश्रेणि असख्यातगुणी जानना चाहिए। (गुणकाररूपसे पंक्तिकी अपेक्षा गुणश्रेणिका प्रयोग हुआ है ।) विशेषार्थः–'प्रदेश' शब्दसे परमाणुरूप द्रव्य जानना । यहां समयप्रबद्ध बधता है उसमें ७का भाग देतेपर मोहनीयकर्मको जो द्रव्य प्राप्त होता है उसमें कपाय व नोकषायरूप द्रव्यप्राप्तिके लिए पुनः दोका भाग देनेसे नोकषायरूप पुरुषवेदका जितना द्रव्य प्राप्त होता है उतने प्रमाण तो प्रदेशोंका बन्ध होता है तथा सर्वसत्तारूप पुरुषवेदसंबधी द्रव्य में गुणश्रेणी आदिके द्वारा दिये गये द्रव्यसहित इससमय उदय आने योग्य विषेकका द्रव्य असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण है सो उतने प्रदेशोंका उदय होता है। ये प्रदेश बंधप्रदेशोको अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। सर्वद्रव्यको गुणसंक्रमणका भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, उतने प्रदेशोंका सक्रमण होला है सो ये प्रदेश भी उदयप्रदेशोंकी अपेक्षा असख्यातगुणे हैं। इसप्रकार एक ही कालमे होनेवाले बन्ध, उदय व सक्रमणकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहने से गुण संक्रमणरूप द्रव्यका प्रमाण जाना जाता है। जिन प्रकृतियोंका अधःप्रवृत्तसक्रमण होता है उनका भी संक्रमण द्रव्य असख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण होनेसे उदयद्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातगुणा है । शङ्काः-उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणभागहार असंख्यातगुणा है अतः अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्रव्य उदयद्रव्यसे असंख्यातगुणा वहीं हो सकता। ___ समाधानः-अपकर्षित किया हुआ सभी द्रव्य गुणश्रेणिमे नही दिया जाता उसका असख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है अतः उदयद्रव्यसे संक्रमणद्रव्य असंख्यातगुणा है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गा. १४४ के समान । घ० पु०६ पृ०३५६ । ज० ध० मूल पृ० १९६४। २. जयधवल मूल पृष्ठ १६६५ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा ५१ ५० ] 'गुणसेढिअसंखेज्जा पदेलअग्गेण संकमो उदओ। ले काले से काले भज्जो बंधो पदेसग्गे ॥५१॥४४२॥ अर्थ:-प्रदेशाग्रकी अपेक्षा सक्रमण और उदय उत्तरोत्तर काल में असंख्यातगुणधेणिरूपसे होते हैं, किन्तु प्रदेशाग्रमे बन्ध भजनीय है । विशेषार्थः-अन्तरकरणकी समाप्तिके पश्चात् प्रथमसमय में प्रदेशोदय अल्प होता है, तदनन्तर्समयमे असख्यातगुणा होता है । इसी क्रमसे उत्तरोत्तर समयोमें असल्यातगुणितक्रमसे प्रदेशोका उदय होता रहता है । जैसी प्ररूपणा उद्यसम्बन्धी है वैसी ही गुणसक्रमणकी भी है । प्रथमसमयमें प्रदेशों का संक्रमण अल्प होता है तदनन्तरसमयमे असख्यातगुणे प्रदेशोंका सक्रमण होता है। उत्तरोत्तर समयों में असख्यातगुणितक्रमसे प्रदेशोका सक्रमण होता है। पूर्व समयमे जितने प्रदेशोका बन्द हुआ उससे अनंतर समयमे असख्यातगुणित प्रदेशवन्धका नियम नही है ! प्रदेशबन्ध कदाचित् चतुविधवृद्धिसे (असख्यातवेंभागवृद्धि, सख्यातवेभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणवृद्धि) बढ़ भी सकता है, कदाचित् चतुर्विध हानिरूपसे (असंख्यातवेंभागहानि, सख्यातवें भागृहाति, संत्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि) घट भी सकता है और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है अर्थात जितने प्रदेशोका पूर्वसमयमें बन्ध हुआ था उतने ही प्रदेशोका उत्तरसमयमें भी बत्व होता है । अव प्रवृत्तसक्रमणमें असंख्यातगुणाक्रम नही है मात्र विशेष. अधिक या विशेषहीन होती है । प्रदेशवन्ध योगके कारण होता है । क्षपकश्रेणीपर आरोहण करनेवालेके योगकी वृद्धि हानि और अवस्थान ये तीनो अवस्थायें सम्भव हैं, क्योकि वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमफे अनुसार योगमे हानि-वृद्धि और अवस्थान होता है। योगस्थान असख्यात है, पयोकि जोवप्रदेश असंख्यात हैं अत. योगमें अनन्तभागवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, अन्तवेभागहानि और अनन्तगुणहानि सम्भव नही है । इसीलिये षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिके स्थानपर चतुर्विध हानि-वृद्धि कहो गई है। १. . पा. गुत्त पृष्ट ७७२ गाथा १४६ के समान । घ० पु० ६ पृ० ३६० । ज० घ० मूल पृष्ठ १६६६ । २. उपास्त मूल पृष्ठ १६६६ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५२-५४ उत्तरार्ध तक ] "क्षपणासार 'इदि संडं संकामिय से काले इत्थिवेदसंकमंगो। अण्णं ठिदिरसखंड अण्णं ठिदिबंधमार बई ॥५२॥४४३॥ थी अंद्धा संखेज्जामागेपगदे तिघादिठिदिबंधों । वस्साणं संखेज्जं थी संकंतापगंद्धते ॥५३॥४४॥ ताहे संखसहस्सं वस्साणं मोहणीयठिदिसंतं ॥पूर्वी.गा:५४॥४४५॥ अर्थः- इसप्रकार नपुसकवेदको संक्रमाकर तदनन्तरकालमें स्त्रीवेदका संक्रामक प्रथमसमयवर्ती आयुक्तक्रियाके द्वारा होता हैं । उससमय में अन्यस्थितिकाण्डक, अन्य ही अनुभागकाण्डक और अन्य स्थितिबन्धका प्रारम्भं करता है । पश्चात् (स्थितिकांडकपृथक्त्वसे) स्त्रीवेदके क्षर्पणकालकी संख्यातवीं भाग व्यतीत होनेपर तीन घातिया (ज्ञानावरणं, दर्शनावरण व अन्तरॉय) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष प्रमाणवाला होता है, तत्पश्चात् (स्थितिकाण्डकं पृथक्त्वके द्वारा) स्त्रीवेदका जो शेष स्थितिसत्त्व है वह सब क्षपणाके लिये ग्रहण हो जाता है। (शेष कर्मोंके स्थितिसत्त्वका असंख्यातबहुभांग क्षपणाके लिए प्रहण हो जाता है । उस समय मोहनीयकर्मको स्थितिसत्त्वं संख्यातहजार वर्षप्रमाण हो जाता है । शेषकर्मोंका स्थितिसत्त्वं पल्यंके असंख्यातवेंभागप्रमाण है) अन्तिम स्थितिकाण्डकके पूर्ण होनेपर संक्रम्यमान स्त्रीवेद संक्रान्त हो जाता हैं । इसप्रकार पुरुषवेदमें संक्रान्त होकर स्त्रीवेदका श्रय हो जाता है। विशेषार्थः-अप्रशस्त होनेके कारण नपुसकवेदके पश्चात् स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। उस समय पूर्व में तीनघातियाकर्मोंका जो स्थितिबन्ध असख्यातवर्षका होता था वह घटकर संख्यांतवर्षका रह जाता है । से काले संकमगो सत्तण्हं गोकसायाणं ॥५४॥उत्तराध। १. के पा० सुत्त पृष्ठ ७५३-५४ सूत्र २१७ से २२३ । धवल पु० ६ पृष्ठं ३६०-६१ । जयधवल मूलं पृष्ठ १९६७-६८ ।' २. “ठिदिबंधमारवई" ईस्यस्यस्थाने 'ठिदिबंधमारंभदि' इति पाठो प्रतिभाति । ३. जयधवल मूल पृ० १९६७-६८ ।। ४. क०पा० सुत्त पृ० ७५४ सूत्र २२४ से २३२ । घ. पु.६ पृष्ठ ३६१ । ज.ध. मूल पृष्ठ १९६५-६६ । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] क्षपणासार [ गाथा ५५-५७ ता मोहो थोत्रो संजगुणं तिघादिठिदिबंधो । तत्तो असंखगुणियो गामडुगं साहियं तु वेयणियं ॥ ५५ ॥ तासंखगुणियं मोहाद तिघा दिपय डिठिदिसंतं । तत्तो असंखगुखियं णामदुगं साहियं तु वेयणियं ॥५.६ ॥ अर्थः- स्त्रीवेदकी क्षपणा के अनन्तर समय में ( प्रथमसमयवर्ती) सात नोकषाय ( पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा) का संक्रामक होता है । उस प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मो का स्थितिबन्ध सख्यातगुणा, नामद्विक (नाम - गोत्र ) कर्मों का स्थितिबन्ध असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक अर्थात् डेढगुणा है । उसी प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मो का स्थितिसत्त्व असख्यातगुणा, नामद्विक (नाम - गोत्र ) का स्थितिसत्त्व असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है । विशेपार्थः - मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म संख्यातवर्षका हो जानेपर भी तीन घातिया कर्मो का स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण नही होता इसीलिए स्थिति सत्कर्मका अल्पबहुत्व पूर्वके समान है' | सत्तरहं पढमट्ठिदिखंडे पुराणे दु मोहठिदिसंतं । संखेज्जगुणविहीणं सेसागमसंखगुणहीणं ॥५७॥ ४४८ || अर्थ:- सात ( पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा. ) प्रकृतियो का प्रथमस्थितिकाण्डकघात पूर्ण होनेपर मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा होन और शेपकर्मोका स्थितिसत्त्व असख्यातगुणाहीन हो जाता है । विशेषार्थ : - मोहनीय कर्मको भेदरूप नव नोकषायोमे से नपुंसक व स्त्रीवेदका संक्रमणद्वारा क्रमश. क्षय हो जानेपर शेष सात नोकषायोका घात करने के लिये स्थितिपाण्डघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरणादिका प्रारम्भ होता है । स्थिति १. जय मूल पृष्ट १६६६ । २. ० प० मुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३३-३४ | ० पु० ६ पृष्ठ ३६१ । जयचवल मूल पृष्ठ १६६६ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५८] क्षपणासारा । ५३ काण्डकघातके द्वारा स्थिति सत्कर्म के बहभागका घात होते-होते एकभाग शेष रह जाता है । मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण है। अतः प्रथमस्थितिकाण्डकघातकी अन्तिमफालिका पतन होनेपर मोहनीयकर्मसम्बन्धी स्थितिसत्त्वके सख्यातबहुभाग घात हो जाने पर शेष स्थिति सत्त्व सख्यातगुणाहीन अर्थात् संख्यातवेंभाग रह जाता है। शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम और गोत्र इनछह कर्मोके स्थितिसत्कर्मका असख्यात बहुभाग उसो (प्रथम) स्थितिकाण्डकघातके द्वारा घाता जानेसे शेष स्थितिसत्त्व असंख्यातवेभागहीन अर्थात् असंख्यातवेंभाग रह जाता है । इनछह कर्मोंका स्थितिसत्त्व, मोहनोयकर्मके स्थितिसत्त्वसे असख्यातगुणा होने के कारण (गाथा ५६) असंख्यातवर्षप्रमाण है । अतः स्थितिसत्त्वका बहुभाग अर्थात् असख्यातबहुभागका घात प्रथमस्थिति काण्डकको अन्तिमफालिके पतनके समय हो जाता है । 'सत्तरहं पढमढिदिखंडे पुण्णेति घादिठिदिबंधो। संखेजगुणविहीणं अघादितियाणं अवगुणहीणं ।।५८।४४६।। अर्थः-सातकर्मोका प्रथमस्थितिकाण्डक पूर्ण होनेपर घातियाकर्मो का स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन और तीन अघातियाकर्मोंका असंख्यातगुणाहोन हो जाता है । विशेषार्थः-सात (पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) नोकषायको क्षय करनेके लिए अन्यस्थितिकाण्डक, अन्य स्थितिबन्धापसरण और अन्य ही अनुभागकाण्डकका प्रारम्भ होता है। स्थितिकाण्डकके द्वारा स्थितिसत्त्वका घात होता है, स्थितिबन्धापसरणसे स्थितिबन्ध घटता है और अनुभागकाण्डकके द्वारा अप्रशस्त (अशुभ-पाप) प्रकृतियों के अनुभागका घात होता है। हजारों अनुभागकाण्डकोंके हो जानेपर एक स्थितिकाण्डक पूर्ण होता है और अन्तिम अनुभागकाण्डकघात व स्थितिकाण्डक युगपत् समाप्त होते है । एक स्थितिकाण्डकका काल और स्थितिबन्धापसरणका काल परस्पर तुल्य है । सात नोकषायोके स्थितिसत्त्वका घात करने के लिए जो प्रथमस्थितिकाण्डक प्रारम्भ हुआ था उसके पूर्ण होने पर अर्थात् प्रथमस्थितिकाण्डककाल समाप्त होनेपर प्रथमस्थितिबन्धापसरणद्वारा स्थितिबन्धका बहुभाग घट जाता है अर्थात् प्रथमस्थितिबन्धापसरण पूर्ण होने पर जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्वस्यितिबन्धका १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३५-३६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६१ । ज० ध० मूल पृष्ठ १९६६ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ५४ ] [ गाथा ५६-६० संख्यात भागमात्र होता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनघातियाकर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यातवर्षमात्र होता था अतः प्रथमस्थितिकाण्डककाल पूर्ण होनेपर प्रथमस्थितिवन्धापसरणके द्वारा घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यातबहुभाग घटकर संख्यातगुणा हीन अर्थात् सख्यातवेंभाग हो जाता है। इसीप्रकार प्रथमस्थितिकाण्डककाल पूर्ण होनेपर उसी प्रथमस्थितिबन्धापसरणके द्वारा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातबहुभाग घटकर असंख्यातगुणाहीन अर्थात असख्यातवेभाग हो जाता है। अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध असख्यातवर्षप्रमाण होता था इसलिए उनमें असख्यात बहुभागका स्थितिबन्धापसरण होता है । यहा 'प्रथमस्थितिकाण्डक पूर्ण होनेपर' ये शब्दमात्र प्रथमस्थिति काण्डककाल अन्तर्मुहर्त है इस बातके द्योतक हैं; कारणके द्योतक नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डकद्वारा स्थितिबन्ध नहीं घटता । यदि कहा जाय कि स्थिति काण्डकसे स्थितिसत्त्व और बन्ध दोनोका घात होता है तो स्थितिबन्धापसरणका कोई कार्य ही नहीं रहेगा । 'ठिदिवंधपुधत्तगदे संखेजदिमं गदं तदद्धाए । एत्थ अघादितियाणं ठिदिबंधो संखवस्सं तु॥५६॥४५०॥ अर्थः-पृथक्त्वं स्थितिबन्धापसरणोंके हो जानेपर सोत नौकषायके क्षणाकालका संख्यातवांभाग व्यतीत हो जाता है तब तीनप्रघातिया कर्मोकी स्थितिबन्ध संस्थातवर्षवाला हो जाता है। विशेषार्थ:-पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इनसात नोकषायोके क्षपणाकालका सख्यातवांभाग व्यतीत हो जाने पैर तंब नाम व गोत्र, वेदनीय इन तीनअघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध पृथक्त्वबन्धापसरणोके द्वारा असंख्यातवर्षसे घटकर संख्यातहजारवर्षप्रमाण हो जाता है। इन तीन अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध प्रत्येक स्थितिबन्धापसरणके द्वारा असंख्यातवर्ष घटता है । इसप्रकार सर्वकर्मोंका स्थितिवन्ध संख्यातवर्ष होने लगता है। ठिदिखंडपुधत्तगदे संखाभागा गदा तदखाए। घादितियाणं तत्थं य ठिदिसंतं संखवस्सं तु॥६०॥४५१॥ १. का० पा० सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३७ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६१ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६६ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३८ । घ पु. ६ पृष्ठ ३६१-६२ । ज. घ. मूल पृष्ठ १९६९-७० ।, Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६१] क्षपणासार [ ५५ अर्थः-पृथक्त्वस्थितिखण्डोंके हो जानेपर सात नोकषायोंके क्षपणाकालका संख्यातबहुभाग व्यतीत हो जाता है उससमय तीनघातिया कर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है। विशेषार्थः-अघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष हो जानेके पश्चात् जब 'पृथक्त्व अर्थात् बहुत स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जाते हैं और पुरुषवेद व हास्यादिछह नोकषायोंके क्षपणाकालका संख्यातबहुभाग व्यतीत हो जाता है तथा संख्यातवांभाग शेष रह जाता है उस समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन धातियाकर्मोका स्थिति सत्कर्म संख्यात वर्षप्रमाण रह जाता है । जो स्थितिसत्त्व पूर्व में असंख्यातवर्षवाला था वह स्थितिकाण्डकोंके द्वारा घातित होकर संख्यात वर्षमात्र रह जाता है, क्योकि सात नोकषायके क्षपणकाल में संख्यात हजारवर्ष आयामवाला भी स्थिति काण्डक होता है । यहांसे लेकर तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) घातिया कर्मों के प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण और स्थिति काण्ड के पूर्ण होनेपर स्थितिबन्ध एवं स्थिति सत्त्व संख्यातगुणे हीन होते जाते हैं । स्थिति काण्डकायाम व स्थिति बन्धापसरणाका विषय भी सख्यातगुणा है । स्थितिकाण्ड कके पूर्ण होनेपर नाम, गोत्र व वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व असख्यातगुणाहीन हो जाता है । इस क्रमसे तबतक जाते हैं जबतक कि सात नोकषायोंके संक्रामकका अन्तिमस्थितिबन्ध होता है। पडिसमयं असुहाणं रसबंधुया अणंतगुणहीणा । बंधोवि य उदयादो तदणंतरसमय उदयोथ ॥६१॥४५२।। अर्थ:--अशुभप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध व अनुभाग उदय प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है। अनुभागउदयसे अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है, किन्तु इस बन्धसे अनन्त रसमयमें होनेवाला उदय अनन्तगुणाहीन होता है। विशेषार्थ:-अशुभप्रकृतियोंके, अनुभागका उदय पूर्वसमयमें बहुत होता है। इससे अनन्तर उत्तरसमयमें अतुभागोदय अनन्त गुणाहीन होता है। इसप्रकार प्रागे-आगेके समयों में अनुभागका उदय अनन्तगुणा-अनन्तगुणाहीन होता है । अर्थात् १. यहां पृथक्त्व शब्द विपुलवाची है । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाय [ गाथा ६२ अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन श्रेणिरूपसे वेदन (उदय) होता है । विवक्षितसमयमे अप्रशस्तप्रकृतियोंका जो अतुभागबन्ध होता है वह स्तोक है, उसीसमयमे बन्धसे अनुभागोदय अनन्तगुणा होता है अर्थात् अतुभागोदयसे अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है, क्योकि अनुभागोदय चिरतनसत्त्वके अनुरूप है अर्थात् पूर्वबद्ध अनुभागका उदय विवक्षितकालसे होता है और पूर्वबद्ध अनुभागसत्कर्म विवक्षितसमय में वधनेवाले अनुभागसे अनन्तगुणा होता है । अन्तिमसमयमे बद्ध अनुभागसे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है, उससे द्विचरमसमयमे होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है, उससे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयपर्यंत क्रमसे नीचे उतरना चाहिए। विवक्षितसमयमे अनन्तर उत्तरसमयमे अशुभप्रकृतिका जो अनुभागोदय है वह विवक्षितसमयके अनुभागबन्धसे अनन्तगुणाहीन है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तितक ले जाना चाहिए । 'बंधेण होदि उदश्रो अहियो उदयेण संकमो अहियो । गुणसेडि अांतगुणा बोधव्वा होदि अणुभागे ॥६२॥४५३॥ १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७० गाथा १४६ का पूर्वार्ध एवं सूत्र ३५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ "अणुभागवन्धो अणुभागउदओ च समय पडि असुहाण कम्माणमणतगुणहीणो" | जयधवल मूल पृष्ठ १६६६ । २. "वट्टमाणसमयपबद्धादो वट्टमाणसमए उदओ अणंतगुणो ति दट्टव्वो। किं कारण ? चिराण सत सस्वत्तादो।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० न०३ व जयधवल मूल पृष्ठ १६६६) ३. जयघवल पु० ५ पृष्ठ १४६ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७० सूत्र ३४६ से ३५२ व गाथा १४५ का उत्तरार्ध । “से काले उदयादो एव भणिदे णिरुद्धसमयादो तदणतरोवरिमसमए जो उदओ अणुभागविसओ, तत्तो एसो सपहिसमयपबद्धो अणतगुणो त्ति दट्ठन्यो । कुदो एव च समए समए अणुभागोदयस्स विसोहिपाहम्मेणाणतगुणहाणीए ओवट्टिज्जमाणस्स तहाभावोववत्तीए । (जयधवल मूल पृष्ठ १९६६, धवल पु०६ पृष्ठ ३६२ टि० न० ३) ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गाथा १४३ । धवल पु०६५० ३६२। जयधवल मूल पृष्ठ १६६३ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६३ ] क्षपरणासार [ ५७ -- अर्थ:- -बन्धसे अधिक उदय और उदयसे अधिक संक्रमण होता है । इसप्रकार अनुभाग के विषय में अनंतगुणित गुणश्रेणि जानना चाहिए अर्थात् यहां अधिकका प्रमाण अनन्तगुणा है । विशेषार्थ :- अनुभागकी अपेक्षा तत्काल होनेवाला बन्ध अल्प है, बन्धसे उदय अनन्तगुणा है जो कि चिरंतनसत्त्व के अनुभागस्वरूप है, उदयसे संक्रमण अनन्तगुणा है, क्योंकि अनुभागसत्त्व अनन्तगुणाहीन होकर उदयमे आता है, किन्तु चिरतनसत्त्वका संक्रमण तदवस्थरूपसे ही परप्रकृति में सक्रमित होता है । यह अल्पबहुत्वका कथन घातिया कर्मसम्बन्धी है । 'गुणसेढि गुणा य वेदगो दु अणुभागों । गणादियंतसेढी पदेसग्गेण बोधव्वा || ६३ ।।४५४।। अर्थः- अप्रशस्त प्रकृतियोके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन गुणश्रेणिरूपसे वेदक होता है, किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा गणनातिक्रान्त अर्थात् असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे वैदक जानना चाहिए । विशेषार्थ :- विवक्षितसमय में अनुभागोदय बहुत होता है । इसके अन्तर• समय में अनुभागका उदय अनन्तगुणा- अनन्तगुणाहीन जानना चाहिए । प्रदेशोदय विवक्षित समय में अल्प होता है, इसके अनन्तरसमय में असंख्यातगुणा होता है । इसीप्रकार उत्तरोत्तर समयों में सर्वत्र असंख्यातगुणा प्रदेशोदय जानना चाहिए । १. गुणसेढि अणतगुणेणूगाए वेदगो दु अणुभागे । गणरणादियंतसेढी पदेस अग्गेण वोढव्वा ॥१४६॥ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ । जयधवल मूल पृष्ठ १९६६ । २. अस्सि समए अणुभागुदयो बहुगो से काले अनंतगुणहीणी । एव सव्वत्य । (क० पा० सुत्त सूत्र ३५६ पृष्ठ ७७०) तदो समए समए अनंतगुणहीणमणतगुणहीणमपसत्यकम्माणमणुभागमेसो वेदिति गाहा पुवद्धे समुदयत्थो । (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ टि० नं० १ ) । जयधवल मूल पृष्ठ १६६७ । ३. पदेस सुदयो अस्सि समए थोवो । से काले असंखेज्जगुणो । एवं सव्वत्थं । क० पा० सुत्त सूत्र ३५७ पृष्ठ ७७० । गणणादियंत सेढी एवं भणिदे असखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गमेसो समय पछि वेदेदिति भणिदं होई । (धवल पु० ६ पृ० ३६३ टि० नं० १) Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] क्षपणासार' [गाथा ६४-६५ 'बंधोदएहिं णियमा अणुभागो होदि णंतगुण हीणो । से काले से काले भज्जो पुण संकमो होदि ॥६४॥४५५।। अर्थ.-तदनन्तरकालमें बन्ध और उदयकी अपेक्षा अनुभाग नियमसे अनन्तगुणितहीन होता है, किन्तु संक्रमण भजनीय है । विशेषार्थः--विवक्षितसमयमे अनुभागबन्ध बहुत होता है और तदनन्तर उत्तरसमयमे विशुद्धिके कारण अनन्तगुणितहीन होता है। इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन होता जाता है । तथैव अतुभागउदयको भी प्ररूपणा करनी चाहिए अर्थात् विवक्षितसमयमें अनुभागोदय बहुत होता है और उससे अनन्तरसमयोमें प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता जाता है । यद्यपि पूर्वमे भी यह कथन किया जा चुका है तथापि सरलतापूर्वक बोध हो जावे इसलिए पुनः कथन किया गया अतः पुनरुक्तदोषको शका वही करना चाहिए । जबतक अनुभागकाण्डकका पतन नही होता अर्थात् जबतक एकअनुभागकाण्डकका उत्कोरण होता है, तबतक अवस्थित अनुभागसंक्रमण होता रहता है । अनुभागकाण्डकका पतन होने पर अन्य अनन्तगुणाहीन अनुभागसक्रमण होता है, क्योकि अनुभागकाण्डकके द्वारा अनन्तबहुभाग अनुभागका घात हुआ है । संक्रमणं तदवढे जाव दु अणुभागखंडयं पडिदि । अण्णाणुभागखंडे आढ़ते गतगुणहीणं ॥६५॥४५६॥ अर्थः-अनुभागकाण्डकघातके पतन होनेतक तदवस्थ अर्थात् अवस्थितसक्रमण होता है, अन्य अनुभागखडके प्रारम्भ होनेपर पूर्व से अनन्तगुणा घटता अनुभागसंक्रमण होता है। १. क. पा० सुत्तःपृ०-७७२ गाथा १४८ एवं सूत्रः ३६५ से ३६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ । जय "धवल मूल पृष्ठ १९६८-६६ ।। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७२ पर "संकमो जाव अणुभागखंडयमुक्कोरेदि ताव तत्तिगो तत्तिगो अणु भागसकमो । अण्णम्हि अणुभागखंडए आडत्ते अणतगुरणहीणो अणुभागसंकमो।" सूत्र ३६६ । "जाव अणुभागखडये पादेदि ताव अवढिदो चेव संकमो भवदि; अणुभागखडए पुर्ण पदिदे अणुभागसंकमो अणतगुणहीणों जायदि ति।" (धवल पु० ६ पृष्ठे ३६३ टि० नं० २), जयघवल मूल पृष्ठ १६१८ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६६] क्षपणासार [8 विशेषार्थः-अनुभागकाण्डकका काल अन्तर्मुहूर्त है, अनुभागकाण्डककालमें प्रतिसमय एक-एक फालिका पतन होता है। फालिपतनसे यद्यपि फालीप्रमाण कर्मप्रदेशोंका अनुभाग अनन्तगुणाहीन हो जाता है, किन्तु शेष कर्मप्रदेशोमे उतना ही रहता है। अनुभागकाण्डकके शेष सर्व कर्मप्रदेशोंका अन्तिम फालिद्वारा ग्रहण होता है अतः अन्तिमफालिके पतनके समय सर्वप्रदेशोंमेसे अनुभागघात होकर अनन्तगुणाहीन हो जाता है। जबतक अन्तिमफालीका पतन नही होता तबतक अनुभागकाण्डककालमे अनुभागसत्कर्म उतना ही रहता है इसलिए अनुभागसंक्रमण भी उतना ही अवस्थितरूपसे होता रहता है । अनुभागकाण्डककी अन्तिमफालीके पतन होनेपर अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणाहीन हो जानेसे अनुभागसंक्रमण भी अनन्तगुणाहीन होता है। यही क्रम अन्य अनुभागकाण्डकोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए। 'सत्तरहं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं । सोलस संजलणाणं संखसहस्साणि सेसाणं ॥६६॥४५७॥ अर्थः-सातकर्मोंके संक्रमणके अन्तिमसमयमै पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, संज्वलनकषायोंका १६ वर्षप्रमाण एवं शेष छहकर्मोंका संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थः-पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन सात नोकषायरूप कर्मोके संक्रामक अर्थात् क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे यथाक्रम घटकर पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, सज्वलन क्रोध-मान-माया व लोभका १६ वर्षप्रमाण और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र इन घातिया-अघातियारूप छहकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है । यहांपर पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने से पुरुषवेदका यह आठवर्षवाला जघन्यस्थिति बन्ध होता है तथा शेषकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय होता है। इन उपर्युक्त पुरुषवेदादि सातकर्मोका क्षय क्रोधसज्वलनमें संक्रमणके द्वारा होता है अंतः गाथामें 'क्षपक' के स्थानपर 'संक्रामक' शब्दका प्रयोग किया गया है। यहांपर संक्रामकका अभिप्राय क्षपकसे ही है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३-४४-४५। . पु. ६ पृष्ठ ३६३ । ज० घ० मू० पृष्ठ १९७० । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ६७-६८ 'ठिदिसंत घादीणं संखसहस्साणि होति वस्साणं । होति अधादितियाणं वस्साणमसंखमेत्ताणि ॥६७॥४५८।। अर्थः--उसोसमय घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है और अघातियाकर्मोका असख्यातवर्ष होता है । विशेषार्थः-सात नोकषायरूप कर्मों का संक्रमणवाले जीवके अन्तिमसमयम मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चारघातिया कर्मोका स्थितिसत्कर्म संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है, क्योंकि घातियाकर्म होनेसे अतिअप्रशस्त है अतः स्थितिखण्डके द्वारा इनकी अधिक स्थितिका घात होता है । नाम-गोत्र और वेदनीय इनतीनअघातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व असंख्यात वर्षप्रमाण है, क्योंकि अघातिया होनेके कारण घातियाकर्मोको अपेक्षा इनका स्थितिघात अल्प होता है। 'पुरिसस्ल य पढमदिदि, आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडि अागाला छिराणा, पडिप्रावलियादुदीरणदा ॥६८॥४५६॥ - अर्थः-पुरुषवेदको प्रथमस्थिति में दोआवलिमात्र शेष रह जानेपर आगाल व प्रत्यागालको व्युच्छित्ति हो जाती है और मात्र प्रत्यावलि शेष रह जानेपर उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। विशेषार्थः-प्रथम और द्वितीयस्थितिके प्रदेशपुञ्जोंके उत्कर्षण-अपकर्षणवश परस्पर विषयसंक्रमको आगाल व प्रत्यागाल कहते हैं। द्वितीयस्थितिके प्रदेशपुंजका प्रथमस्थितिमें आना आगाल तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपुञ्जका प्रतिलोमरूपसे द्वितीय स्थितिमे जाना प्रत्यागाल है । इसप्रकार पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक दोआवलियां शेष रहनेतक आगाल और प्रत्यागाल होते हैं। पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में आवलि और प्रत्यावलिमात्रके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल उपपादानुच्छेद के द्वारा व्युच्छिन्न हो जाते हैं अथवा परिपूर्ण आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६-४७ । १० पु० ६ पृ० ३६३ । ज० घ० मूल पृष्ठ १९७१ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४६, धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ । जयधवल मूल पृष्ठ १९७१ । यह गाथा ल० सार गाथा २६४ के समान है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६९-७० ] [ ६१ श्रागाल - प्रत्यागाल होकर पुनः तदनन्तरसमय में एकसमयकम दोआवलि शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल अनुपपादानुच्छेद के द्वारा व्युच्छिन्न हो जाते हैं, यह उक्त गाथाका अभिप्राय है, क्योंकि उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर सद्भाव के अन्तिम समय में ही उसके अभावका विधान गाथा में किया गया है । यहीं से पुरुषवेदको गुणश्रेणी भी नहीं होती । 'प्रत्यावलि में से ही असंख्यात समयप्रबद्धों की उदीरणा होती है । क्षपणासार पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक आवलि शेष रहनेपर जघन्यस्थिति - उदीरणा होती है' । अर्थात् पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति जब समाप्त हो जाती है और मात्र उदयावलि एवं उसके ऊपर तदनन्तर एक निषेक रह जाता है उससमय उदयावलिसे बाह्य एकनिषेककी स्थिति एकसमयअधिक उदयावलिमात्र है । तदनन्तरसमय में वह निषेक भी उदयावलि में प्रवेश कर जाता है तब पुरुषवेदकी उदीरणा भी व्युच्छिन्न हो जाती है और वह चरमसमयवर्ती सवेदी होता है । उदयावलिप्रमाण निषेकका प्रतिसमय परमुख उदय होता रहता है, स्वमुखउदय नहीं होत । ४ अंतरकदपडमादो कोहे छरणोकलाययं छुहदि । पुरिसस्त चरिमसमए पुरिसवि एणेण सव्वयं छुहदि ॥ ६६ ॥ ४६० ॥ समऊणदो रिण आवलिपमाणस मयप्पबद्धणवबंधो । बिदिये ठिदिये अस्थि हु पुरिसस्पुदयावली' च ॥७०॥४६१॥ १. उदयावलिसे बादकी ( ऊपरकी) आवलिको प्रत्यावलि कहते हैं । २. जयधवल पु० १३ पृष्ठ २८५-८६ । ३. "समया हियाए आवलियाए सेसाए जहण्णिया ठिदि उदीरणा" (क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५०; धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १६७१) ४. "अंतरादो दु समयकदादा पाए छण्णोकसाए कोघे सछुहृदि " ॥ २४८ ॥ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ । "अंतरादो पढमसमयकदादा पाए छण्णोक्साए कोहे संछुहृदि ।” (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ ) "तदो चरिमसमयपुरिसवेदओ जादो । ताधे छण्णोकसाया संछुद्धा । पुरिसवेदस्स जाओ दो लाओ समाओ एत्तिगा समयपबद्धा विदियट्ठिदीए अस्थि, उदयट्टिदी च अस्थि, सेसं पुरिसवेदस्स सतकम्म सव्वं संछुद्ध " ( क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५१ से २५३; धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४; जयधवल मूल पृष्ठ १९७१ - ७२) ५. 'उदयावली' इत्यस्यस्थाने 'उदयट्ठिदि' इति पाठो वर्तते घ० पु० ६ पृष्ठ ३६४ एवं क० पा० सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २५३, ( जयधवल मूल पृष्ठ १६७२ ) । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ 7 : क्षपणासार गाथा-६९-७० अर्थः--अन्तरकृत अर्थात् अन्तरकरण कर चुकनेके पश्चात् प्रथमसमयसे लेकर छह नोकषायोको संज्वलनक्रोधमें स्थापित करता है । पुरुषवेदके अन्तसमयमें छह नोकषायोंका सर्वद्रव्य संक्रमणको प्राप्त हो चुक्ता है और उसीसमय पुरुषवेदका भी पुरातन सर्वद्रव्य सज्वलनक्रोध, सक्रान्त हो जाता है, किन्तु एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध द्वितीय स्थितिमें है और उदयावलि भी है । विशेषार्थः-अन्तरकरण करने की क्रिया समाप्त हो जानेके पश्चात् प्रथमसमय में अथवा अन्तरकृत दूसरे समयमें (अन्तरकृत प्रथमसमयके पश्चात्का दूसरासमय) आनुपूर्वीक्रमसे सक्रमणके नियमानुसार छह नोकषायोको संज्वलनक्रोधमे संक्रमण करता है अन्यत्र सक्रमण नहीं करता है । सवेदभागके द्विचरमसमयमे पुरुषवेदके सत्तामें स्थित पुरानेकर्मीका और छह नोकषायोंकी अन्तिमफालिका सर्वसंक्रमद्वारा क्रोधसज्वलनमें सक्रमण करता है । तदनन्तरवेदका अनुभव करनेवाला सवेदभागके चरमसमयसे लेकर एकसमयकम दोआवलि कालतक पुरुषवेद और चारसज्वलन इन पांचप्रकृतियोकी सत्तावाला होता है', क्योकि पुरुषवेदका एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावली (उदयावली) का द्रव्य शेष है । दोसमयकम दोआवलियोमे जितने समयप्रबद्ध होते हैं उतने समयप्रबद्ध प्रथमसमयवर्ती अपगतवेदीके होते हैं। शंका-दोआवलियोमे किसकारणसे दोसमयकम किये गए हैं ? ___ समाधान:-अपगतवेदीके प्रथमसर्मयसे लेकर आगेकी एकआवलिप्रमाणकाल अपगतवेदकी प्रथमावलि है और इससे आगेकी दूसरी आवलिप्रमाणकाल उसकी दूसरी आवलि है, क्योंकि इनका सम्बन्ध अपगतवेदसे है । उस द्वितीयावलिके त्रिचरमसमयतक अन्तिमसमयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधा गया कर्म दिखाई देता है, क्योकि एकसमयकम दोआवलिके अतिरिक्त और अधिककालतक विवक्षित नंदेकसमयप्रबद्धका अवस्थान नही पाया जाता । अपगतवेदीके एकसमयकम एकावलिकालतक तवकसमयप्रबद्ध निर्लेप नही होता अर्थात तदवस्थ रहता है, क्योकि बन्धावलिकालमें उसका अन्य प्रकृति संक्रमण नहीं होता तथा संक्रमणका प्रारम्भ होनेपर भी एकसमयकम एकआवलिप्रमाण काल में ३. जयधवल पु० २ पृ० २३४-३५। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६९-७० ] क्षपणासार । ६३ भी वह निर्लेप नहीं होता, क्योंकि संक्रमणावलिके अन्तिमसमयमै उसका अभाव पाया जाता है इसलिए अपंगतवेदीकी द्वितीयआवलिके तृतीयसमयतक वह समयप्रबद्ध पाया जाता है तथा उस द्वितीयआवलिके द्विचरमसमय में अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि सवेदीके अन्तिमसमयसे गिनने पर वहां पूरी दोआवलियां पाई जाती हैं। उपान्तसमयवर्ती सवेदीने जो पुरुषवेदकर्म बाँधा है वह अपगतवेदोके द्वितीयआवलिके चतुःचरमसमयतक दिखाई देता है और त्रिचरमसमयमें अकर्मपको प्राप्त होता है, क्योकि अपगतवेदीको दोसमयकम प्रथमावलिसे बंधावलि बिताकर प्रथम आवलिके द्विचरमसमयमें इस नवकसमयप्रबद्धका संक्रमण प्रारम्भ होता है एवं अपगतवेदीको द्वितीयआवलिके त्रिचरमसमयमें वह नवकसमयप्रबद्ध अकर्मभावको प्राप्त होता है । बन्धसमयसे लेकर यहतिक गिनने पर पूरी दो आवलियां हो जाती है। जो कर्म संवेदीने त्रिचरमसमय में बाँधा है वह अपगतवेदीके द्वितीय आवलिके पंचमचरमसमयंतक दिखाई देता है। जो पुरुषवेदकर्म सवेदीने अपने चतुर्थ समय में बांधा है वह अपगतवेदीको द्वितीय आवलिके षष्ठम चरमसमयतक दिखाई देता है। इसीप्रकार अन्तिमआवलिके प्रथमसमयतक ले जाना चाहिए । सवेदभागकी अन्तिमआवलिके प्रथमसमयमें जो पुरुषवेदकर्म बधा है वह अपगतवेदोकी प्रथमआवलिके, अन्तिमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योकि कर्मबन्धके समयसे गिनती करनेपर अपगतवेदोकी प्रथमझावलिके अन्तिमसमयमें बन्धावलि और संक्रमावलि इसप्रकार वहांतक पूरी दोआवलियोंका प्रमाण पाया जाता है एवं नवकसमयप्रबद्ध एकसमयकम दोआवलिसे अधिककालतक नही रहता है, क्योंकि और अधिककालतक इसके रहनेता निषेध है । सवेदीने अपनी द्वि चरमावलिके प्रथमसमयमें जो कर्म बाधा है वह सवेदीके अन्तिमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर गिनती करनेपर वहां पूर्ण दोआवलियां पाई जाती हैं । जो कर्म सवेदीकी उसी द्विचरमावलिके द्वितीयसमयमें बधा है वह अपगतवेदीके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर अपगतवेदके प्रथमसमयमै पूर्ण दोआवलियां पाई जाती हैं । इसप्रकार सवेदभागकी- विचरमावलिके प्रथम, और द्वितीयसमयमें बत्वको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध-अपगतवेदके प्रथमसमयमें नहीं हैं, किन्तु सवेदभागकी दोसमयकम द्विचरमावलि और चरमावलिसम्बन्धी सर्व समयंप्रबद्ध पाए जाते है, क्योकि सवेद१. जयधवल पु० ६ पृष्ठ २६३ से २९७ तक । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार " [गाथा ७१ भागको द्विचरमावलिके दूसरे समयमें बंधा समयप्रबद्ध अवेदभागके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है अतः गाथा ७०में सवेदभागकी द्विचरमावलीके प्रथमसमयप्रबद्धको कमकरके ही “समऊण दोण्णि आवलिय" अर्थात् एकसमयकम दोआवलि कहा गया है। अथानन्तर अश्वकर्णकरणका स्वरूप कहते हैं'से काले अोवणिउठवण अस्सकरण आदोलं । करणं तियसरणगदं संजलणरसेसु वटिहिदि ॥७१॥४६२॥ अर्थः-(अन्तिमसमयवर्ती पुरुषवेदके) "से काले" अनन्तरसमयमें अपवर्तनउर्तन, अश्वकर्णकरण, आदोलकरण ऐसा तीन वामवाला करण सज्वलनकषायके अनुभागमे प्रवृत्त होता है। विशेषार्थः-अश्वकर्णकरण, भादोलकरण, अपवर्तनोद्वर्तनकरण ये तीनों एकार्थक नाम हैं । मश्वकर्ण अर्थात् घोड़ेके कानके समान जो क्रोधसंज्वलनसे लोभसंज्वलवतक अनुभागस्पर्धक क्रमसे हीयमान होते हुए चले जाते हैं उनको अश्वकर्णकरण कहते हैं । श्रादोल हिंडोलेको कहते हैं, जिसप्रकार हिंडोलेके स्तम्भ और रस्सीके अन्तराल में घोड़ेके फान सदृश त्रिकोणाकार दिखता है। इसीप्रकार यहां भी क्रोधादि संज्वलनकषायोके अनुभागका सन्निवेप भी क्रमसे घटता हुआ दिखता है अत: इसे आदोलकरण भी कहते हैं। क्रोधादिकपायोका अनुभाग क्रोधसे लोभकषायपर्यन्त हानिरूप और लोभसे क्रोध १. किन्तु धवल पु० ६ पृ. ३६४ पर टिप्पण नं० ५ मे "से काले ओवट्टणि उवट्टण अस्सकण्ण आदोल" इति । गाथाके पूर्वार्षका यह पाठ शुद्ध प्रतिभासित होता है । अतः लब्धिसार-क्षपणासार मृद्रितप्रतिमे छपे "से काले ओवट्टणिउट्टण अस्सकण्ण आदोल" के स्थानपर उपर्युक्त शुद्ध पाठ ही दिया है। 'अस्सकण्णकरणे त्ति वा आदोलकरणे त्ति ओवट्टण-उन्वट्टणकरणे त्ति वा तिप्णि पामाणि अस्सकण्णकरणस्स" क० पा० सुत्त प० ७८७ सूत्र ४७२ । जयधवल मूल १० २०२२ । । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाया ७२ ] [ ६५ तक वृद्धिरूप अर्थात् हानि-वृद्धिरूप दिखाई देनेके कारण इसे अपवर्तनोद्वर्तनकरण भी कहते है । छह नोकषायका द्रव्य और पुरुषवेदका प्राचीन सत्कर्म सर्वसंक्रमणद्वारा क्रोध संक्रांत हो जाने के अनन्तरसमयमें प्रथमसमयवर्ती अवेदी होता है उसी समय में प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक होता है अर्थात् क्रोधसे लोभतक चारों संज्वलनकषायोंका अनुभागक्रमसे हीयमान हो जाता है । क्रोधके अनुभागसे मानका अनुभाग हीयमान, मानसे मायाका अनुभाग हीयमान और मायासे लोभका अनुभाग हीयमान हो जाता है । 'ताहे संजलणाणं ठिदिसंतं संखवस्सयसहस्सं । अंतोमुहुत्तहीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो ॥७२।।४६३॥ अर्थः-'ताहे' वहां अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम सोलहवर्ष है । विशेषार्थः-यद्यपि सात नोकषायोके क्षपणकालमें सर्वत्र संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व सख्यातहजारवर्ष ही था, किन्तु अश्वकर्णकरण करने के प्रथमसमयमें वह संख्यातसहस्र स्थितिकाडकोसे संख्यातगुणितहानिके द्वारा पर्याप्तरूपसे घटकर उससे संख्यातगुणितहीन हो जाता है। सवेदके अतिमसमयमे चारोंसंज्वलनकषायोंका स्थितिबध पूर्ण १६वर्षप्रमाण था वह स्थितिबध वहीपर समाप्त हो जाता है । अश्वकर्णकरणके अर्थात अवेदके प्रथमसमयमें १, अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः, अश्वकर्णवत्करणमश्वकर्णकरणम् । यथाश्वकर्णः अनात्प्रभृत्यामलात् क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करण क्रोधसज्वलनात्प्रभत्यालोभसंज्वलनाद्यथाक्रममनन्तगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्थाकरणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । संपहि आदोलनकरणसण्णाए अत्थो वुच्चदे-आदोलं णाम हिंदोलमादोलमिवकरणमादोलकरणं। यथा हिदोलत्थभस्स वरत्ताए च अतराले तिकोणं होदूण कण्णायारेण दीसइ, एवमेत्थ वि कोहादिसंजला णाणमणुभागसणिवेसो कमेण हीयमाणो दीसइ त्ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोल: करणसण्णा जादा। एवमोवट्टण-उव्वट्टणकरणेत्ति एसो वि पज्जायसद्दो अणुगयट्ठो दटुव्वो, कोहादिसंजलणाणमणुभागविण्णासस्स हाणिवड्डिसरूवेणावट्ठाणं पेक्खियूण तत्थ ओवट्टणुव्वट्टणसण्णाए पुव्वाइरिएहिं पयट्टिवेदत्तादो। क. पा. सुत्त पृ० ७५५-५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ टिप्पण नं०५। २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४७४-७५ । ध. पु. ६ पृष्ठ ३६५ । ज.ध. मूल पृष्ठ २०२२-२३ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार-- गाथा७३ अन्यस्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है। प्रत्येक स्थितिबन्ध में अन्तर्मुहूर्त स्थितिका - अपसरण होता है अतः अवेदके प्रथमसमय में अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम १६ वर्षका होता है' । तीनघातियाकर्मोंका स्थिति बन्ध व सत्व.संख्यातहजारवर्ष है । , तीन अघातियाकर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजारवर्ष और सत्त्व असंख्यातवर्ष है । 1 Fरससंतं 'आगहिदं खंडेण समं तु माणगे'कोहे। ... मायाए लोभेवि' य अहियकमा होति बंधेवि ॥७३॥६६४॥ - अर्थ-अश्वकर्णकरणको प्रारम्भ करनेवालेने अनुभागखण्डके द्वारा अनुभागको घातकरनेके लिए जिस अनुभागसत्त्वको ग्रहण किया है वह अनुभागसत्त्व मान, क्रोध, माया और लोभमे विशेष अधिक क्रमसे हैं । अनुभागबन्धभी इसी क्रमसे होता है । -' ' विशेषार्थः-अश्वकर्णकरणको प्रारम्भ करनेवालेने जिस अनुभागसत्त्वमे से अनुभागखण्डनको ग्रहण किया है, उसकालमें (अवेदीके प्रथमसमयमे) उस अनुभागसत्त्वका यह अल्प बहुत्व है --अनुभागसत्त्व मानमे स्तोक, क्रोधमे विशेष अधिक, मायामें विशेषॲधिक और लोभमे विशेषअधिक है अर्थात् अनिवृत्तिकरण नामक वेंगुणस्थानके अवेदभागके प्रथमसमयमै जब अश्वकर्णकरणका प्रारम्भ होता है और अनुभागको घातकरने के लिए अनुभागकाण्डकको (आगहिंद) ग्रहण करता है उसके साथ रहनेवाला अनुभागसत्त्व इसप्रकार है---मानमें अनुभागसत्त्व स्तोक, 'उससे क्रोधका अनुभागसत्त्व विशेषअधिक, उससे मायाका अनुभागसत्त्व विशेष अधिक और उससे लोभका अनुभाग १. "चरिमसमयसवेदस्स ठिदि वधो सजलाण संपुण्णसोलसवस्समेत्तो तम्मि चेव पज्जवसिदो । तदो । ' द्विदिवधे समत्ते पढमसमय अवेदो 'अण्ण ट्टिदिबंधमाढवेश्माणो सजलाणाणं पुविल्लढिदिवधादो * अतोमुहूत्तूण द्विदिवधमाढवेइ एत्तो पाए सजलणाण द्विदिवघोऽपसरणस अतोमृहुत्तपमाणत्तादो।" का (जयधवल पु० १३ पृ. २८६-६०) २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४७६-४८० । ५० पु० ६ पृष्ठ ३६५ । जयघवल मूल पृष्ठ २०२३ । ३... "अणुभागसंतकम्म सह आगाइदेण. माणे थोवं ।।४७६।। क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८।" "अणुभागसत. कम्म आगइदेण सह माणे थोवं, कोहे विसेसाहियं, मायाए विसेसा हिय, लोभे विसेसाहिय" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६५) ४. पवल पु० ६ पृष्ठ ३६५ टि०-नं० २ । जयधवल मूल पृष्ठ,२०२३ , ... , Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७४ ॥] क्षणासा सत्त्व विशेषअधिक होता है।' यहां विशेषअधिकेका प्रमाण अनन्त अविभागप्रतिच्छेद है | अनुभागका यह अल्पबहुत्व अन्तदीपक है, इससे नीचे भी संज्वलन के अनुभागसत्कर्ममे अल्पबहुत्वका यही विधान है और अनुभागबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व' विधिक क्रमसे होता है .. 111. LI 117 T FANT 13 "रसखंडफड्ढयाओ कोहादीया हवंति अहियकमा । वसेसफड्ढया लोहादि अांतगुणिदकमा ॥७४॥४६५॥ ८ "" 2! I अर्थः- अनुभागखण्ड के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक क्रोधादि कषायोंमें विशेष - अधिक क्रमसे होते हैं, किन्तु घात होनेके पश्चात् शेष रहे स्पर्धक लोभादिकषायों में अनन्तगुणितक्रमसे होते है । F 7 F ה ") --- विशेषार्थ :- शङ्काः - अश्वकर्णकरणसे नीचे अशेष अनुभागकाण्डकोंमें मानके स्पर्धक स्तोक, उससे विशेषअधिक क्रोधके, इससे विशेष अधिक मायाके और इससे विशेषअधिक लोभके स्पर्धक प्रवृत्त होते है, क्योंकि अनुभागसत्त्व के अनुसार अनुभागकाण्डकघातोमें अल्पबहुत्व होता है, किन्तु अश्वकर्णकरणसम्बन्धी अनुभाग काण्डक क्रोधके स्पर्धक सबसे स्तोक और उससे मानसे लोभपर्यन्त स्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे क्यों ग्रहण किए गये ? - ' f 1 समाधान:- अश्वकर्णकरण में घात से बचे हुए शेष अनुभागका लोभसे अनन्तगुणा मायाका, मायासे अनन्तगुणा मानकी और मानसे अनन्तगुणा क्रोधका ऐसा स होता है जो गाथामें कथित अनुभागके द्वारा ही सम्भव है अन्यप्रकार घातके द्वारा संभव नहीं है | अथवा अपूर्वस्पर्धक विधान के पश्चात् क्षय होनेवाले कर्मो में जिनेका मन्द उदय होकर घात होता है उनके अनुभागसत्कर्मका बहुत घात होता है । लोभका सबसे अंत में घात होनेसे उसका मन्दतम उदय होकर घाव होता है अतः अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमे लोभके अधिकस्पर्धक घात के लिए ग्रहण होते हैं उससे पूर्व मायाका सन्दतर उदय होकर घात होता है और उससे भी पूर्व मानका मन्दउदय होकरे घात होता है । क्रोधका सर्वप्रथम घात होनेसे उसके अनुभागका मानके समान मन्दउदय होकर घात नहीं होता, किन्तु मानकी अपेक्षा विशेषअधिक अनुभाग के साथ घात होता है | इसलिए 5 १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४८१-८८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३६५ | ज० घ० मूल पृष्ठ २०२३-२४ ।. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] क्षपणासार [गाथा ७५ अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमै अनुभागखण्डके लिए ग्रहण किए गये स्पर्धक क्रोधके स्तोक, मानके विशेषाधिक, उससे मायाके विशेष अधिक और उससे लोभके विशेष अधिक इसक्रमसे होते हैं। क्रोधमे जितना अनुभाग छोड़कर शेषको घात करने के लिए ग्रहण किया जाता है मानमें उसका अनन्तवांभाग छोड़कर शेषको घात करने के लिये ग्रहण करते हैं । इसीप्रकार माया व लोभमे भी जानना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण निम्त अङ्कसंदृष्टिसे हो जाता है। घातसे पूर्व कोवादि चारसज्वलनकषायोके अनुभागका क्रम [६६/६५६७।६८] घातके लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक [६४१७६।८६६४] तोषादिके शेष स्पर्धक [३२।१६।८।४] घातसे पूर्व क्रोधादि कषायोके अनुभागका अल्पबहुत्व घातके लिए ग्रहण किये गए स्पर्षकोका अल्पबहुत्व तथा क्रोधादिके शेष अनुभागका अल्पबहुत्व ये तीनो अल्पहुत्व उपर्युक्त अङ्घसन्दृष्टि से स्पष्ट हो जाते हैं । अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें होनेवाले अपूर्वस्पर्धकोंका कथन करते हैं-- 'ताहे संजलणाणं देसावरफड्डयस्स हेट्ठादो। णंतगुणूणमपुव्वं फड्ढयमिह कुणदि हु अणंतं ॥७५॥४६६॥ अर्थः-वहा अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमे ही सज्वलनकषायोके देशघाति जघन्यस्पर्धकके नीचे अनन्तगुणितहानिके क्रमसे अनन्त अपूर्वअनुभागस्पर्धको को करता है। विशेषार्थः-अवकर्णकरण करनेके प्रथमसमयमें ही क्रोध-मान-माया और लोभत्प चार संज्वलनकपायोके अपूर्वस्पर्धक करता है । अपूर्वस्पर्षक-जो स्पर्धक पूर्वमे कभी प्राप्त नहीं हुए, किन्तु क्षपकश्रेणी में ही लश्वकर्णकरणके कालमे प्राप्त होते हैं और जो ससारावस्थामें प्राप्त होनेवालेपूर्वस्पर्धकों से मनन्तगुणितहानिके द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाववाले हैं वे अपूर्वस्पर्धक हैं। १. पा०पा० सुत्त पृ० ७८६ सूत्र ४६०-४६६ । घ.पु. ६ पृष्ठ ३६५-६६ । ज. ध मूल पृष्ठ २०२५ । २. पानि अपुन्धफद्दयाणि णाम? ससारावत्याए पुवमलद्धप्पसरूवाणि खवगसेढीए चैव अस्स फरपक्षाए सम्बनभमाणसरूवाणि पव्वफद्दएहितो अणतगुणहाणीए ओवट्टिज्जमाणसहावाणि जापि फयाणि ताणि अपुवफद्दयाणि ति भण्णते । (ज० घ० मूल पृष्ठ २०२५) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७५] क्षपणासार शङ्का:--पूर्वस्पर्धकोंके अनुभागको अपवर्तनके द्वारा अनन्तगुणोहीन करके यदि अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं तो उनको कृष्टिसंज्ञा क्यों नहीं दी गई ? समाधानः--जिनकी उत्तरोत्तर वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद क्रमसे विशेषअधिक या हीन होते हैं तो उनकी स्पर्धक संज्ञा है, किन्तु कृष्टियोंमें अनन्तगुणी वृद्धिहानिका क्रम होता है । अनन्तगुणी वृद्धि व हानिका उत्तरोत्तरक्रम अपूर्वस्पर्धकोंमें नहीं पाया जाता अतः उनकी कृष्टिसज्ञा सम्भव नहीं है'। अनुभागस्पर्धक दो प्रकारके हैं-पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक । पूर्वस्पर्धक वर्धमानक्रमसे हैं अर्थात् प्रथमपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयस्पर्धकमें अनुभाग बढ़ता हुआ है, द्वितीयसे तृतीयस्पर्धक में और तृतीयसे चतुर्थ में अनुभाग वृद्धिरूप है। अपूर्वस्पर्धकोंमें अनुभाग हीयमानक्रमसे हैं। प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयमें, द्वितोयसे तृतीयमें अनुभाग हीयमान है, यही क्रम सर्व अपूर्वस्पर्धकों में जानना चाहिए । ___ सर्व अक्षपक जीवोंके सभी कर्मोंके देशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तुल्य है । सर्वघातियोंमें भी केवल मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सर्वघातिकर्मोको आदिवर्गणा तुल्य है, इन्हीका नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन पूर्वस्पर्धकोंसे चारों सज्वलनकषायोके अपूर्वस्पर्धकोंको करता है उस समय क्षपकके जो डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और पूर्वस्पर्धकोंमें यथायोग्य विभागके अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा असंख्यातवेंभागका अपकर्षणकरके अपूर्वस्पर्धक बनानेके लिये ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अवन्तगुणितहानिके द्वारा हीनशक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धकोके प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंके नीचे उनके अनन्तवेंभागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उन अविभाग प्रतिच्छेदोके अनन्तवेंभागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धककी सबसे अन्तिम (आदि ?) वर्गणामे होते हैं । इन अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण अनन्त है जो अभव्योसे अनन्तगुणा और सिद्धोके अनन्तवेभागप्रमाण है। १. ज० ध० मूल पृष्ठ २०२५ । २. वर्धमानं मतं पूर्व हीयमानमपूर्वक । स्पर्धकं द्विविधं ज्ञेयं स्पर्धकक्रमकोविद. ।। (अमितगति पचसंग्रह ११४६) ३. जयघवल मूल पृ० २०२५-२६ । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ७६ ५] 'गणणादेयपदेसगगुणहारिणटाणफयाणं तु। होदि असंखेजदिमं अवेरादु वरं अांतगुण ।।७६॥४६७।। । अर्थः-गणनाकी अपेक्षा अपूर्वस्पर्धक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तरके स्पर्धकोके असख्यातवेभागप्रमाण हैं । जघन्यअपूर्वस्पर्धकके अविभागप्रतिच्छेदोसे उत्कृष्ट अपूर्वस्पर्धक मे अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ।।। विशेषार्थः- पूर्वस्पर्द्ध कोकी आदिवर्गणा एक-एकवर्गणा विशेषसे घटते-घटते आधी हो जाती है उतने आयामका नाम, एकगुणहानिस्थानान्तर है। इसमे अभव्योसे अनन्त गुणे और सिद्धोके अनन्तवेंभाग स्पर्धक होते हैं उनको उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारसे असंख्यात गुणे भागहारके द्वारा भाग देनेपर, जो प्रमाण आवे उतने अपूर्वस्पर्धक होते हैं अर्थात् एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोके असख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धकोकी संख्या (गणना) होती है, वह सख्या अभव्योसे अनन्तगुणी और सिद्धोके अनन्तवेभागप्रमाण अनन्त है। प्रथमसमयमे रचे गए अपूर्वस्पर्धकोमें से प्रथम अर्यात् जघन्यस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसमूह सर्वजीवोसे अनन्तगुणा होते हुए भी उपरिम पदोकी अपेक्षा स्तोक है । द्वितीयस्पर्धककी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेदसमूह अनन्तवहुभाग अधिक है । प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणाके सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंकी संख्यासे अविभागप्रतिच्छेदोको गुणा करनेपर अविभागप्रतिच्छेदसमूहरूप एकपुज होता है, उससे दूसरेस्पर्धककी आदिवर्गणाके सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओमे सर्व अविभागप्रतिच्छेदसमूह कुछकम दुगुना होता हुआ अनन्त बहुभाग अधिक है। प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाआयामसे (आदिवर्गणा प्रदेशजसे) दूसरेस्पर्धककी आदिवर्गणाप्रायाम विशेषहीन है । एकस्पर्धक शलाकाप्रमाण वर्गणाविशेषके बराबर विशेषहीनका प्रमाण है । प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाके एक परमाणुके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयस्पर्धककी आदिवर्गणाके एकपरमाणुमें अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे होते हैं। प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद प्रतिस्पर्धककी आदिवर्गणामें दुगुणे-तिगुणे१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७८६ सूत्र ४६७ । धवल पु० ६ १० ३६६ । २ क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५०१-२। घ० पु०६ पृ० ३६७ । ३ ज० ध० मूल पृ० २०२७ । ४. "मणता भागा अणतभागा, अणतभागेहिं उत्तरमणतभागुत्तर ।" (ज० ध० मूल पृष्ठ २०२७) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गार्थी ७६] क्षपणासार [६१ आदिक्रमसे बढते जाते हैं । यदि प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणाआयाम और द्वितीयस्पर्धक का आदिवर्गणाआयाम सदृश ( समान ) होते तो प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे द्वितीयस्पर्धकको आदिवर्गणांका अविभागप्रतिच्छेदसमूह दुगुणा होता है, किन्तु दोनों आदिवर्गणाआयाम सदृश नहीं है, क्योकि प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाआयांमसे द्वितीयस्पर्धकका आदिवर्गणाआयाम विशेषहीन है । जितना हीन है उसको दुगुणे अविभागप्रतिच्छेद (प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणाके एक परमाणुगतअविभागप्रतिच्छेदका दुगुणा.) से गुणा करनेपर जो अनन्तवें भागप्रमाण गुणनफल प्राप्त होता है उतना दुगुणा होने में कम है। जिनकी वृद्धि हुई हैं ऐसे शेष अविभागप्रतिच्छेद अनन्त बहुभागप्रमाण है, क्योंकि अनन्तवांभाग घटानेपर अनन्तबहुभाग शेष रहता है। इसप्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसमूहसे द्वितोयस्पर्धकको आदिवर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदपुंज अनन्तबहुभाग अधिक है । इसीप्रकार द्वितीयस्पर्धकको आदिवर्गणासे तृतोयस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद कुछकम आधेसे अधिक है। तृतीयस्पर्धकको आदिवर्गणासे चतुर्थस्पर्धकको आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद कुछकम तृतीयभागसे अधिक हैं तथैव पंचमादिस्पर्ध कोंमें कुछ कम चतुर्थादिभाग अधिक यथाक्रम जानना चाहिए । जघन्य परितासंख्यातस्पर्धककी 'आदिवर्गणामें नीचे के स्पर्धकको आदिवर्गणासे कुछकम उत्कृष्टसंख्यातवेंभाग (अविभागप्रतिच्छेद) अधिक हैं। संख्यातभागकी वृद्धि यहांपर समाप्त हो जाती है । इससे आगे यथाक्रम असंख्यातवे भागको वृद्धि होती है । जघन्यपरीतानंतस्पर्धकम अपनेसे नोचेके स्पर्धक से उत्कृष्टअसंख्यातवेभागवृद्धि होती है। यहां पर असंख्यातभागकीवृद्धि समाप्त हो जाती है। इससे ऊपर अपूर्वस्पर्शकके चरमस्पर्धकतक अनन्तवेंभागवृद्धि होती है । जितने स्पर्धक ऊपर चढ़ हैं उनमेसे एक कम करके उससे अधस्तनवर्ती स्पर्धाकको वर्गणाको भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उससे कुछ कम ऊपरितन स्पर्धकमें विशेषअधिकका प्रमाण होता है ऐसा सर्वत्र जानना चाहिए । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धकका चरमस्पर्धक द्विचरमस्पर्णकसे कुछकम अनन्तवेभाग विशेषअधिक है । इस सम्बन्धमें अल्पबहुत्व इसप्रकार है-प्रयमसमयमें रचित अपूर्वस्पर्धकके प्रथमस्पर्धकको आदिवर्गणा अल्प है, चरमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा अनन्तगुणी है, क्योकि प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे अनन्त (अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवेभाग) स्पर्धक चढ़कर चरमस्पर्धक प्राप्त होता है। पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा अनन्तगुणो है, क्योकि Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] क्षपणासार [ गाथा ७७ पूर्वस्पर्धकको सर्वजधन्यदेशघातिवर्गणा अनुभाग से अनन्तगुणेहीन अनुभागके द्वारा अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है । क्रोध - मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धको में से असंख्यातवे भागका अपकर्षण होकर क्रोध मान-माया व लोभके देशघाति प्रथमस्पर्धक के नीचे तत् तत् - सम्बन्धी अपूर्वस्पर्धकोकी रचना होती है । पुरुषवेदके नवकसमयप्रबद्ध की प्रपूर्वस्पर्धक - रचना नही होती है, क्योकि उसका अनुभाग काण्डकघात नही होता, उसका तो प्रतिसमय सञ्ज्वलनक्रोधमे सक्रमण होता रहता है । पुव्वाण फड्ढयाणं छेत्तूण संखभागदव्वं तु । कोहादी मपु फड्डयमिह कुदि अहियकमा || ७७|| ४६८ || अर्थः- सञ्ज्वलनक्रोध - मान-माया व लोभके पूर्वस्पर्धकद्रव्यको असंख्यात से भाग देकर मात्र एकभाग द्रव्यसे क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक करता है । वे स्पर्धक अधिक - क्रम से होते हैं । विशेषार्थ :- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानका क्षय हो जानेसे मात्र सञ्ज्वलनक्रोध, मान, माया व लोभकषायरूप द्रव्य है जिसकी पूर्वस्पर्धकसंज्ञा है | क्रोध- मान-माया व लोभमे से प्रत्येककषायके समयबद्धको डेढगुणहानिसे गुणा करनेपर प्रत्येककषाय के पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इस द्रव्यको उत्कर्षण-अपकर्षणभागहाररूप असख्यातसे भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यसे अपूर्वस्पर्धको की रचना होती है । चारों सञ्ज्वलनकषायो में से प्रत्येक कषायकी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरके असख्यातवे भागप्रमाण अपूर्वस्वर्णकोकी रचना होती है, तो भी सर्वसञ्ज्वलनकषायो में खण्डोका प्रमाण सम नही है, क्योकि सज्वलन क्रोध के अपूर्व - स्पर्धक स्तोक हैं, उससे सज्ज्वलनमान के अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं, मायासंज्वलन के पूर्वपक विशेषअधिक है और लोभसज्वलनके प्रपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं । सख्यातवें या असंख्यात वेंभाग विशेषअधिक नही हैं, किंतु अनतवेभागरूपसे विशेष अधिक हैं । १. जयघवल मूल पृष्ठ २०२७ - २०३० । २. घ० पु० ६ पृष्ठ ३६८ ( जयघवल मूल पृष्ठ २०२६ व २०३०) । ३ जयघवल मूल पृष्ठ २०२६-२७ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८-७९ क्षपणासार [७३ संज्वलनक्रोधके स्पर्धकोंको तत्प्रायोग्य अनन्तसे भागदेकर एकभागप्रमाणसे विशेषअधिक मानकषायके अपूर्वस्पर्धक हैं । इसीप्रकार मान और मायाकषायके अपूर्वस्पर्धकोंको यथाक्रम तत्प्रायोग्य अनन्तका भाग देकर माया और लोभकषायके विशेषअधिक अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण प्राप्त होता है। संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभकषायके अपूर्वस्पर्धकों को अङ्कसन्दृष्टि [१६।२०।२४।२८] इसप्रकार है'। समखंडं सविसेसं णिक्खिवियोकटिदादु सेसधणं । पक्खेवकरणसिद्धं इगिगोउंछेण उभयस्थ ॥७८॥४६६॥ प्रोक्कट्टिदं तु होदि अपुवदिवग्गणाउ हीणकमं । पुवादिवग्गणाए असंखगुणहीणयं तु हीणकमा ॥७९॥४७०॥ अर्थ-अपकर्षितद्रव्यमेसे अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणासे लेकर विशेषहीनक्रमसे द्रव्य दिया जाता है, किन्तु पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा में संख्यातगुणाहोन द्रव्य दिया जाता है उसके पश्चात् विशेषहीनक्रमसे द्रव्य दिया जाता है । अपूर्वस्पर्धककी वर्गणाओं में विशेषसहित समखण्डद्रव्य देकर शेषद्रव्यको इसप्रकार दिया जाता है जिससे पूर्व और अपूर्व दोनों स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार सिद्ध हो जावे । विशेषार्थ:-- अपूर्वस्पर्धकोंकी अन्तिमवर्गणामें दिये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणाहीन द्रव्य पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें क्यों दिया जाता है उसे बतलाते है-अपूर्वस्पर्धक को अन्तिमवर्गणामें जो द्रव्य निक्षिप्त किया गया है वह पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणासे एकवर्गणा चय (विशेष) अधिक है। पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें पूर्व अवस्थितद्रव्यका असंख्यातवांभाग द्रव्य निक्षिप्त किया जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्यके असख्यातवेंभागमात्र अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्यको कुछ अधिक डेढगुणहानिसे भागदेने पर पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाका द्रव्य आता है और उस आदिवर्गणाको उत्कर्ष-अपकर्षभागहारसे खण्डित करने पर अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है । अङ्कसन्दृष्टि में सम्पूर्णद्रव्य ६३०० है । एक गुणहानि ८ है, डेढ़गुणहानि (८४३) १२ है । सम्पूर्णद्रव्य ६३०० को कुछ अधिक डेढ़गुणहानि १२ से भाजित करनेपर ५१२ आदिवर्गणाका द्रव्य प्राप्त होता है । इस आदिवर्गणा (५१२) को उत्कर्षण-अपकर्षण भागाहारसे खण्डित करनेपर अपकर्षितद्रव्यका १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३० । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५०५ से ५०६ । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ७४ ] [गाथा ७६ प्रमाण प्राप्त होता है अतः अपकर्षितद्रव्य पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाके असंख्यातवेभाग होनेसे यह सिद्ध हो जाता है कि पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे पूर्व अवस्थित द्रव्य, निक्षिप्तद्रव्यसे असंख्यातगुणा है । इसीको क्षेत्र विन्यासके द्वारा स्पष्ट किया जाता है समस्तद्रव्यको पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा प्रमाणरूप करनेपर डेढ गुणहानिप्रमाण यादिवर्गणा होती हैं, उसका क्षेत्रविन्यास निम्न प्रकार है जिसका विषकम्भ आदिवर्गणा प्रमाण है और बायाम डेढगुणहानि प्रमाण है । --------डेढगणहानि -------------------- ---110AILE--- --------.- एकगुणहानि --------------अर्धगुणहानि--- इस क्षेत्रके विपकम्भको उत्कर्पण-अपकर्पणभागहार प्रमाण फालियां करनी चाहिए । उनमेसे एक फालिको ग्रहणकर पृथक् स्थापित करना चाहिए । इस सबंधमें चिमनं०२ देखना चाहिए। १. सपना मूल २२०२३ । जयधवल मूल पृष्ठ २०३४ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७६ ] [ ७५ चित्र नं० २ :- उत्कर्षण- अपकर्षणभागहारसे खण्डितकर एकफालि नीचे पृथक् ग्रहण की गई है | उत्कर्षण-अपकर्षणभागहार अङ्कसन्दृष्टि मे ( ५ ) है । - डेढगुणहानि - एक फालि बहुफालि प्रमाण पूर्वस्पर्धक का शेप द्रव्य क्षपणासार अपकर्षित द्रव्य अपूर्व - पृथक् ग्रहण किया एकफालिप्रमाण क्षेत्र समस्त अपकर्षित द्रव्य है । स्पर्धको के लिए इसद्रव्यका अपकर्षण किया गया है । एकगुणहानिका भागहार है । पृथक् ग्रहण की गई फालिका आयाम डेढगुणहानि है अतः असंख्यातगुणे अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारको भी डेढ़ गुणा करना चाहिए । इसलिए डेढगुणहानिआयामके इतने खण्ड करने चाहिए | देखो निम्न चित्र न० ३ | अङ्कसन्दृष्टिमें असंख्यातगुणा अपकर्षणउत्कर्षण भागहार = 51 चित्र नं० ३ • डेढ गुणहानि इनमें से एकखण्डका आयाम अपूर्वस्पर्धक के आयामके बराबर है । इन खण्डो में से एककम उत्कर्षण- अपकर्षणभागहारप्रमाण खण्डों को ग्रहणकर पूर्वखण्डोके क्षेत्र के नीचे स्थापित करनेपर अपूर्वस्पर्धक वर्गणा पूर्वस्पर्धकवर्गणाओके सदृण ( बरावर ) प्रमाण दिखाई देती है । देखो चित्र नं० ४ : Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा ७६ --एककम उत्कर्षण-अपकर्षण भागहार--- चित्र नं.४ - - - - - - - - पूर्वस्पर्धकोका शेपद्रव्य एककम उत्कर्षण-अपयर्पण भागहारप्रमारण चित्र न० २ का उपरिभाग उलटकर रखा गया है। -.-डेढगरणहानि.- - - - - -- पूर्वम्पर्धक पूर्वस्पर्धक पूर्वम्पर्धक पूर्वस्पर्धक १म स्पर्षक १ स्पर्षक १ स्पर्धक १अ स्पर्धक एकाकम उत्तपंण-अपार्पणभागहार (५-१) प्रमाण अपूर्वस्पर्धक जब तक इन अपूर्वस्पर्धको में अपूर्वस्पर्वकोको वर्गणाओं में वर्गणाविशेप (वर्गणा घय) न मिलाये जावें तबतक इन अपूर्वस्वकोका गोपुच्छाकार नहीं हो सकता । इस Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८-७९ ] क्षपणासार [ ७७ लिए अपूर्वस्पर्धकों की वर्गणाओंके अध्वानसम्बन्धी संकलनप्रमाण वर्गणाविशेष द्रव्य शेषखण्डोंमेंसे ग्रहणकर आगमअविरोधसे अपूर्वस्पर्धकोको वर्गणाओमें प्रक्षेप करना चाहिए। यह संकलनद्रव्य एकखण्डके असंख्यातवेभागप्रमाण है'। अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणासे द्विचरमवर्गणामें एक चतुःचरमवर्गणामें तीन वर्गणाविशेष (वर्गणाचय) अधिक है। इसप्रकार प्रतिवर्गणा एक-एक वर्गणाविशेष बढ़ाते हुए पूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणातक ले जाना चाहिए। इन सब वर्गणाविशेषोंको जोड़ने के लिए अपूर्वस्पर्धकको वर्गणाओंके अध्वानका संकलन कहा है। यदि अपूर्वस्पर्धककी वर्गणाओका अध्वान (वर्गणाओंकी सख्या) २० हो तो एक, दो, तीन आदि २०: तक जोड़नेको बीसका संकलन कहा जाता है । एकसे लेकर जिस सख्यातक संकलन करना हो तो उस अन्तिमसंख्याके आधेसे एक अधिक अन्तिमसख्याको गुणा करनेपर संकलनका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । जैसे एकसे बोसतककी संख्याओंको जोड़ना है तो ३०४ २१=२१० प्राप्त होते हैं; यह बीसका संकलन है। इसी प्रकार यदि 'क' सख्यातक संकलन करना है तो [ क.x (क x १) ] = क+क संकलन होगा। ('क' सख्या असंख्यात या अनन्तको द्योतक हो सकती है ।) एकफालिप्रमाण अपकर्षितद्रव्यके ड्योढ़े असंख्यातगुणित-अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण खण्ड किये गये थे (चित्र नं. ३)। इन खण्डोमे से एककम उत्कर्षणअपकर्षणभागहारप्रमाण खण्ड अपूर्वस्पर्धकोके लिए ग्रहण किये गए थे अत: ड्योढअसंख्यातगुणित-अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार प्रमाण समस्तखण्डो में से एककम अपकर्षणउत्कर्षणभागहारप्रमाण खण्डोंके घटानेपर समस्त शेषखण्डोको पूर्व व अपूर्वस्पर्धको में डाल देने चाहिए। वे खण्ड पूर्व-अपूर्वस्पर्धकोमें इसप्रकार निक्षिप्त किए जाते हैं- उन शेषखण्डोंमेंसे एकखण्डको ग्रहणकर पूर्व में कहे गये एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरका भागहार जो असंख्यात-अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, उसको डेढगुणा करके जो प्रमाण प्राप्त हो उतने अवान्तर अर्थात् विकलखण्ड, उस ग्रहण किये गये एक सम्पूर्ण (सकल) खण्डके करने चाहिए उनमेंसे प्रत्येक अवान्तर खण्ड (विकलखड) का आयाम अपूर्वस्पर्धकके आयाम बराबर है। देखो निम्न चित्र न० ५ : १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३४ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] क्षपणासार - [ गाथा ७६ चिन न० ५ इन विकल (अवान्तर) खण्डोंमे से एक विकल खण्डको ग्रहणकर अपूर्वखण्डोके पार्श्वमें देना चाहिए और शेष समस्त विकलखण्डोको पूर्वस्पर्धकोमें देना चाहिए। इसीप्रकार शेष समस्त सकलखण्डोके विकल (अवान्तर) खण्ड करके पूर्व-अपूर्व अङ्कसन्दृष्टिमे स्पर्धकोमे देना चाहिए। इसप्रकार पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें १२ खण्ड दिए गये सर्वविकलखण्डोका प्रमाण एक सकलखण्डके बराबर नही होता, किन्तु किंचित्ऊन सकलखण्डप्रमाण होता है । यदि अपकर्षण-उत्कर्षणभागाहारप्रमाण विकलखण्ड और होते तो एक सकलखण्ड हो जाता । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे जो द्रव्य दिया गया है वह किंचित्ऊन एक सकलखण्डप्रमाण है। अपूर्वस्पर्वकोमे एककम अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण द्रव्य दिया गया है। इससे सिद्ध हो जाता है कि अपूर्वस्पर्धककी अन्तिमवर्गणामे निक्षिप्त प्रदेशाग्रोसे पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे निक्षिप्त प्रदेशाग्न असंख्यातगुणहीन है । यहांपर गुणाकार साधिक अपकर्षणउत्कर्पणभागाहार है । इसलिए पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें जो प्रदेशाग्न पहलेसे विद्यमान हैं उनके असख्यातवेंभाग प्रदेशाग्रोका निक्षेपण होता है। पूर्वस्पर्षकोकी द्वितीयवर्गणामे विशेषहीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोमें दिये गये अवशेष द्रव्य द्वारा पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोकी एक गोपुच्छाकार बन जाती है। पुर्व स्पर्थक - Animal Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ८०-८३] ७९ 'कोहादीणमपुव्वं जेठं सरिसं तु अवरमलरित्थं । लोहादिनादिवग्गणअविभागा होति अहियकमा॥८०॥४७१॥ सगसगफडयएहिं लगजे? भाजिदे सगीआदि । मज्केवि अणंताओ वग्गणगायो ससाणाओ ।।८१॥४७२॥ जे हीणा अवहारे रूबा तेहिं गुणित्तु पुव्वफलं । हीणबहारेरणहिये अद्ध पुब्वं फलेण हियं ॥८२॥४७३॥ कोहदुसेसेणव हिदकोहे तक्कंडयं तु माणतिए । रूपहियं सगकडयहिदकोहादी समाणसला ॥८३॥१७४॥ अर्थ-क्रोधादि चार सज्वलनकषायोके अपूर्वस्पर्धकोंमें उत्कृष्ट (अन्तिम) स्पर्वककी आदिवर्गणा सदृश हैं और जघन्य (प्रथम) स्पर्धकको आदिवर्गणा विसदृश है। लोभादि कषायोके अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अधिकक्रम लिए हुए हैं ।।८०।। अपने-अपने उत्कृष्टस्पर्धककी आदिवर्गणाको अपने-अपने स्पर्धकोंकी सख्यासे भाग देनेपर अपनी-अपनी भादिवर्गणा प्राप्त होती है। अन्तिमस्पर्धकके समान मध्यमे भी चारोकघायोंकी अनन्तवर्गणा समान होती है ।।८१।। जिसका पूर्वफल अर्थात् आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद हीन है उसको अधिक अवहार काल (स्पर्धकसख्या) से गुणा करना चाहिए और पूर्वफल (आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद) अधिक है उसको हीन अवहारकालसे गुणा करना चाहिए ।।२।। क्रोधकी अपूर्वस्पर्धकसंख्याको मानकपायको अपूर्वस्पर्धकसंख्या में से घटानेपर जो शेष रहे उससे क्रोधकी अपूर्वस्पर्धक सख्या को भाग देनेपर क्रोधके काण्डकोंका प्रमाण प्राप्त होता है । उस काण्डकप्रमाणमें एक एक अधिक करनेसे मान-माया व लोभ इनतीन काण्डकोका प्रमाण प्राप्त होता है । अपने-अपने काण्डकोंसे अपनी-अपनी अपूर्वस्पर्धकसख्याको भाग देनेपर समानशलाका प्राप्त होती हैं ।।८।। १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५१० से ५१४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६८ । जय धवल मूल पृष्ठ २०३१ । २. गाथा ८२ का अर्थ स्वकीयबुद्धिसे किया है अतः यदि अशुद्ध हो तो बुद्धिमान उसे सुधार लेवें। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ८३ विशेषार्थः — क्रोधादि चार संज्वलनकषायोंसे प्रतिबद्ध प्रथमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा लोभादिकी परिपाटी मे यथाक्रम अनन्तभाग अधिक है अर्थात् लोभकषायसम्बन्धी प्रथमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद स्तोक, मायाकषाय में अनन्तभाग अधिक, मानकषायमे अनन्तवेभाग अधिक और क्रोधकषाय में अनन्तवेभाग अधिक है । इस परिपाटी क्रमसे स्थित आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोको अपनीअपनी अपूर्व स्पर्धक शलाकाओसे गुणा करनेपर अपने-अपने अन्तिमस्पर्धकफी आदिवर्गणा प्राप्त होती है जो एक दूसरेकी अपेक्षा परस्पर समानप्रमाणवाली हैं । प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणासे द्वितीय, तृतीयादि स्पर्धकोकी प्रथमवर्गेणाका गच्छमान दुगुणा, तिगुणा आदि क्रमसे होता है, इसप्रकार चरमस्पर्धक की आदिवर्गणा के गच्छमान में अपूर्वस्पर्धक - शलाकाप्रमाण गुणकार सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अपने प्रथम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाको स्पर्धकशलाकासे गुणा करनेपर चरमस्पर्धककी प्रादिवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है | शिष्यगणको इसका सरलतापूर्वक बोध हो जावे जयघवलाटीकाकार इस विषयको असन्दृष्टि द्वारा समझाते हैं ) ८० ] क्रोधादि चार सज्वलनकषायकी प्रथम अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा के अविभाग [ोष - मान-माया - लोभ ] अपूर्वस्पर्धकशलाका १०५ ८४ ७० ६० प्रतिच्छेदोका मान इसप्रकार है माया - लोभ २४ क्रोध - मान १६ २० - प्रथम स्पर्धक आदिवर्गणा स्पर्धकाला का चरम स्पर्धक आदिवर्गणा क्षपणासार २८ ] अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाका प्रमाण क्रोध मान माया लोभ १०५ ८४ ७० ६० x १६x२०x२४x२८ . १६८०-१६८०-१६८०-१६८०. -=७, क्रोधादि चारों सज्वलनकषायोकी चरम अ स्पर्धक की आदिवर्गरणाका प्रमाण सर्वत्र १६८० होने से सदृश है । क्रोधादिकी अन्तिमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा ही सदृश है यह अन्तदीपक न्यायसे कहा गया है, क्योकि नीचे भी अनन्त अपूर्वस्पर्ध कोकी आदिवर्गणा सदृश है । सन्दृष्टि मे क्रोध की स्पर्धकशलाका १६ है और मानकषायकी २० शलाका है इनको घटानेपर (२०-१६) शेषका प्रमाण ४ होता है । इसीप्रकार मान व मायाकषायकी और माया व लोभकषायकी स्पर्धकशलाकाओं को घटानेपर ( २४ - २०), (२८-२४) सर्वत्र शेष ४ रहता है । इस ४ से क्रोधादिकी स्पर्धकशलाकाओमे भाग देनेपर क्रमशः १६= ४, 8, 20 ==५, ४, ५, ६, ७ लब्ध प्राप्त होता है । क्रोधसज्वलन में २४ २८ = - ६, ४ 1 ૪ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गथा ८४] [८१ चौथे अपूर्वस्पर्शककी आदिवर्गणाका प्रमाण (१०५४४) ४२० है, मानसंज्वलन के पांचवें अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाका प्रमाण (८४४५) ४२० है, मायासज्वलनके छठे अपूर्वस्पर्धाक की प्रथमवर्गणाका प्रमाण (७०४६) ४२० है । लोभकषायके सप्तम अपूर्वस्पर्धक की आदिवर्गणाका प्रमाण (६०४७) ४२० है । चारों कषायोंमें आदिवर्गणाका प्रमाण ४२० होनेसे सदृश हैं। इसीप्रकार इतना अध्वान ऊपर-ऊपर चढनेसे क्रोधादि चारों संज्वलनकषायोमें क्रमशः आठवें, दसवें, बारहवे और चौदहवें अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणाका प्रमाण ८४० होनेसे और क्रमशः बारहवें, १५वे, अठारहवें और २१वें अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणाका प्रमाण १२६० होनेसे सदृश है । अपने-अपने खण्डप्रमाणका अपनीअपनी अपूर्वस्पर्धक शलाकामें भाग देने से समानलब्ध प्राप्त होता है । अङ्कसन्दृष्टि में जैसे १६, २०, २१, २८ = ४ प्राप्त होता है । प्रत्येक सज्वलनकषायके लब्धप्रमाण अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा परस्पर तुल्य होती हैं । जैसे अंकसन्दृष्टि मे संज्वलनक्रोधकषाय के चौथे, आठवें, बारहवें और सोलहवें इनचार अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा; सज्वलनमानकषायके पाचवे, दसवे, पंद्रहवे और २०वे इनचार अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा; संज्वलनमायाकषायके छठे, बारहवे, अठारहवे और २४वे इनचार अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तथा सज्वलनलोभकषायके सातवें, चौदहवे, इक्कीसवे और अठाईसवें इनचार अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणा, इसप्रकार चारों संज्वलन कषायसम्बन्धी चार आदिवगंणाए परस्परमे एक कषायकी आदिवर्गणा दूसरी कणयको आदिवर्गणाके तुल्य होती हैं । तुल्यता बताने के लिए अकसन्दृष्टिमे जैसे ४ सख्या प्राप्त होती है, अर्थसन्दृष्टिमें अनन्तकी संख्या प्राप्त होती है, क्योकि अपूर्वस्पर्धकशलाकाका प्रमाण अनन्त है । इसप्रकार मध्यके अनन्तअपूर्वस्पर्शकोकी आदिवर्गणा तुल्य होती है यह सिद्ध हो जाता है। 'ताहे दव्ववहारो पदेसगुणहाणि फड्ढयवहारो। पल्लस्स पढममूलं असंखगुणिदक्कमा होति ॥८४॥४७५।। अर्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें द्रव्यके अवहारसे प्रदेशगुणहानिस्पर्धकका अवहार असख्यातगुणा है, उससे पल्योपमका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है । १. जयघवल मूल पृष्ठ २०३१ । २. क पा. सुत्त पृष्ठ ७६२ सूत्र ५१५ से ५१७ । ध० पु० ६ पृ० ३६६ । जयघ• मूल पृ० २०३२। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेपणास [ गाथा' दे५ विशेषार्थः - श्रश्वकर्णकरण कार्यके प्रथम समय में अर्थात् अश्वकर्णकरण करनेंवाला प्रथम समय में जिस अवहारकालके द्वारा प्रदेशाप्रका अपकर्षण करता है उसकी उत्कर्षण- अपकर्षणभागहार संज्ञा है । वह उत्कर्षण - अपकर्षणभागहार उपरिमपदोकी 'अपेक्षा स्तोक है, इससे अपूर्वस्पर्धकों का प्रमाण लाने के लिए एकप्रदेशगुणहानि स्थाना• न्तरको एकबार भाग दिया जाता है और अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारसे पुन: पुन: भाग दिया जाता है । इसलिए अपकर्षण- उत्कर्षर्ण भागहारसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर क भागहार असंख्यातगुण है और यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । " इसका प्रमाण पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेभाग है" यह ज्ञान करानेके लिए "इससे पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यातगुणा है" ऐसा कहा गया है । इस भागहारसे एक प्रदेशगुणहानि स्थानान्तर के स्पर्धकों में भाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतने संज्वलन क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यह अल्पबहुत्व ऊपर कही जानेवाली निषेकप्ररूपणाका साधनभूत है । अपकर्षण- उत्कर्षणभागृहारसे अपूर्वस्वको के लिए एक प्रदेशगुणहा निस्थानान्तरका भागहार असंख्यात गुणा है, इसका कारण यह है कि प्रदेशपिण्ड इसप्रमाणसे दिये जाते हैं जिससे कि पूर्वस्पर्धककी वर्गणाओंके साथ अपूर्वस्पर्धक की वर्गणा गोपुच्छाकार हो जावे अर्थात् पूर्व और अपूर्व दोनों स्पर्धक मिलकर एक गोपुच्छाकार हो जायें। यदि अपकर्षण- उत्क र्षणभागहारसे एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तरका भागहार असंख्यातगुणाहीन हो जावे तो पूर्वस्पर्धककी वर्गणाओंके साथ अपूर्वस्पर्धक वर्गणाकी एकगोपुच्छाकार रचना नही हो सकती । अपकर्षित समस्तद्रव्य अपूर्वस्पर्धक अध्वानसे अपवर्तित होनेपर अपूर्वस्पर्धककी एकवर्गणाका द्रव्य पूर्वस्पर्धक की, प्रादिवर्गणा के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है' | ' ८२] ताहे पुत्रपुवस्सादीदतिसुवदेहि | बंधो हु लतातिमभागोत्ति प्रपुवफड्ढयदों ॥ ८५ ॥४७६ ॥ अर्थ — उस कालमें अपूर्व और पूर्वस्पर्धकोकी प्रादिसे लेकर अनन्तनेभाग -- स्पर्धकों का उदय होता है तथा लताके अनन्तवेंभाग अनुभागसहित अपूर्वस्पर्धक होकर 1 बन्धको प्राप्त होते हैं । : 1 1 1 . 1 १. जयघवल मूल पृ० २०३२ । २. क० पा० सुत्त पृ० ७९३-९४ सूत्र ५२४ से ५२६ । घ० पु० ६ पृ० ३०० । जपधवल मूल पृ० ( 1 २०३६-३७ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाय गाथा ८६] [८३ .: विशेषार्थ-तत्काल में अपूर्वस्पर्धकरूपसे परिणत अनुभागसत्कर्ममेसे असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्रका अपकर्षणकरके उदीरणा करनेवालेके उदयस्थिति में सर्व अपूर्वस्पर्धक, स्वरूपसे अनुभागसत्कर्म उपलब्ध होता है, किन्तु अपूर्वस्पर्धक रूपसे परिणतसत्कर्म निरवशेष (पूर्ण) उदयमे नही आता, क्योंकि अपूर्वस्पर्धकके समान धनवाले जो परमाणु स्पर्धकोमे समवस्थित हैं, उनमे से कितने परमाणु उदयको प्राप्त होते हैं और शेष वहीपर अवस्थित रहते है। इसलिए सर्व अपूर्वस्पर्धाकोका उदय होता भी है और नही भी होता है । इसीप्रकार आदिसे लेकर अनन्तवेभागतक पूर्वस्पर्धक भी उदय व अनुदय स्वरूप हैं । पूर्वस्पर्शकोमे भी सदृश धनवाले उदयके अभिमुख रहने वालोका उदय होता है और तत् जातिस्वरूप शेष अनुदयरूप रहते हैं, क्योकि विप्रतिषेधका अभाव है। लताके अनन्तवेंभागसे ऊपरके अनन्तबहुभाग पूर्वस्पर्धक नियमसे अनुदयस्वरूप हैं, वे सभी अपने-अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त नहीं होते । पूर्वमे संज्वलनकषायके अनुभागका पूर्वस्पर्धकस्वरूपसे बन्ध लताके अनन्तवेंभाग स्पर्धकस्वरूपसे प्रवृत्त होते थे, किन्तु अब उससे अनन्तगुणहीन घटकर प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे लेकर लताके अनन्तवेंभाग अनुभागवाले स्पर्धकतक जितने स्पर्धक, हैं उन स्पर्धक-स्वरूप प्रवृत्त होते हैं, किन्तु पूर्वकथित उदयस्वरूप स्पर्धाकोसे बन्धस्वरूप स्पर्धक अनन्तगुणेहीन अनुभागवाले होते हैं, क्योकि यहांपर बन्धसे उदय अनन्तगुणा होता है । यह सब अश्वकर्णके प्रथमसमयकी प्ररूपणा है' । . *विदियादिसुसमयेसु वि पढमं व अपूव्वफड्ढयाण विही । । 'णवरि अणंतगुणणं हीणो अनुभाग पडिसमयं ॥८६॥४७७॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-३७ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६४ सूत्र ५२७ व ५२८ । धवल पु ६ पृष्ठ ३७० । ज. घ. मूल पृष्ठ २०३७ । ३. गाथा ८६ के उत्तरार्ध में मुद्रितप्रति (शास्त्राकार) में पाठ टित था उसके स्थानपर "णवरि अणत गुणूण बधो अनुभाग पडिसमयं" यह पाठ रखा है जो कि क पा सुत्तके चूणिसूत्र ५२८ पृष्ठ ७४६ व जयघवल मूल पष्ठ २०३७ के विषयानुसार किया है सो सूत्र इसप्रकार है (अणुभांगबधो अणतगुणहीणो) इस आधारसे ४७७ गाथा के उत्तरार्धमे जो पाठ पूर्ति की है उसे विद्वद्जन विचारें यदि अशुद्ध प्रतीत हो तो शुद्ध कर लेवे । हमने उपर्युक्त आधारसे स्वकीय वृद्धिद्वारा पाठ पूर्ति की है। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] क्षपणासार [गाथा ८७ अर्थ-द्वितीयादि समयोमें भी अपूर्वस्पर्धाकविधि प्रथमसमयके समान है, किन्तु अनुभागवन्ध प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन होता है । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमे जिसप्रकार स्थितिकाण्डक अनुभागकाण्डक और स्थितिबन्ध होते हैं उसोप्रकार अश्वकर्णकरणके द्वितीयादिसमयोमें भी होते हैं, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिके बढने से अप्रशस्तप्रकृतियोका अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है । चारों संज्वलनकषायोंका जितना अनुभागबन्ध प्रथमसमयमे हुआ था उससे अनन्तगुणाहीन अनुभागबन्ध द्वितीयसमयमे होता है, तृतीयसमयमे उससे भी अनन्तगुणाहीन अनुभागवन्ध होता है। आगेके प्रत्येकसमयमे भी अनुभागबंध अनन्तगुणा घटते हुए होता है। इसीप्रकार अनुभागोदयके विषयमें जानना चाहिए । विशुद्धिके वढनेसे प्रतिसमय श्रेणिरूपसे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकरके गुणश्रेणीमे निक्षेपण करता है। 'णवफट्टयाण करणं पडिसमयं एवमेव णवरि तु। दव्वमसंखेज्जगणं फड्ढयमाणं असंखगुग्णहीणं ॥८७॥४७८॥ अर्थ-(अश्वकर्णकरणके) प्रथमसमयके समान ही प्रत्येकसमयमै नवीन स्पर्धकोको रचना होती है, किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां द्रव्य तो क्रमसे असख्यात गुणा बढता हुआ अपकर्षण करता है और नवीनस्पर्धाकोकी रचना असंख्यातगुणीअसख्यातगुणीहीन होती है । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें अपकर्षितद्रव्यसे अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना हुई थी, उसीप्रकार अश्वकर्णकरणके द्वितीयादिसमयोमें भी अपकर्षित द्रव्यसे नवीन अपूर्वसर्जकोकी रचना होती है और पुराने अर्थात् पहले समयोमे रचे गए अपूर्वस्पर्णकोंमे भी अपकर्षित द्रव्य दिया जाता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय जो प्रदेशाग्र अपकर्षित किये जाते हैं उनका प्रमाण असख्यातगुणा-असख्यातगुणा होता जाता है और नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं उनकी संख्या प्रतिसमय असख्यातगुणीअसंख्यातगुणोहीन होती जाती है। अर्थात् प्रथमसमय में जितने प्रदेशाग्रोका अपकर्षण हुआ था उससे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्रोका अपकर्षण द्वितीयसमयमें होता है उससे १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६४ सूत्र ५२६-३० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७० । ज. ध मूल पृष्ठ २०३७-३८ । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८८ ] क्षपणासार [८५ असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र तृतीयसमयमै अपकर्षित होते हैं। प्रदेशाग्रके अपकर्षण होनेका यही क्रम चतुर्थादि समयोंमें भी है, इसप्रकार गुणश्रेणि असंख्यातगुणी है । प्रथमसमयमै जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हैं द्वितीयसमय में वे भी रचे जाते हैं और उनसे असंख्यातगुणे हीन अन्य भी नवीन अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है। प्रथम और द्वितीयसमयोंमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हुए हैं तृतीयसमयमें वे भी रचे जाते हैं (उनमें भी सहशअनुभागवाला अपकर्षितद्रव्य दिया जाता है) और द्वितीयसमयमै रचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंसे असंख्यातगुणहीन नवीनअपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यहीक्रम चतुर्थ आदि समयोंमें विरचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंके विषयमें भी जानना। 'पढमादिसु दिज्जकर्म तक्कालजफड्डयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले असंखगुणहीणयं तु हीणकमं ॥८८॥४७६॥ अर्थ-उसी समय (काल) में रचे गए नवीनअपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणासे अन्तिमवर्गणातक प्रदेशान हीनक्रमसे दिये जाते हैं तदनन्तर पूर्वसमयोंमें रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें असख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है और द्वितीयादि वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे दिया जाता है । विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें रचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुतप्रदेशाग्न दिये जाते हैं, द्वितीयवर्गणामें विशेष (चय) हीन प्रदेशाग्न दिये जाते है । इस. प्रकार अनन्तरवर्तीवर्गणाओमें विशेषहीन क्रमसे तबतक दिये जाते हैं जबतक नवीनअपूर्वस्पर्धकोकी अन्तिमवर्गणा प्राप्त होती है। पश्चात् उनको अन्तिमवगंणासे प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथमवर्गणामे असख्यातगुणे हीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं तथा उन्ही अपूर्वस्पर्धकोको द्वितीयवर्गणामे उससे होन प्रदेशाग्र दिये जाते है। यहासे लेकर अनन्तरवर्ती सभी वर्गणाओमे विशेष (चय) होन क्रमसे प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । पूर्वस्पर्धकोंकी आदि (प्रथम) वर्गणामे विशेषहीन ही प्रदेशाग्र दिये जाते हैं शेष वर्गणाओ में भी विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशान दिये जाते हैं। तृतीयसमयमें विरचित असंख्यातवेभागमात्र नवीन अपूर्वस्पर्धकोको आदिवर्गणामें बहुतप्रदेशाग्र दिया जाता है, द्वितोयवर्गणामे विशेष (चय) हीन प्रदेशाग्न दिये १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३३ से ५३५ एवं ५३७ से ५३६ तक । धवल पु०६ पृष्ठ ३७०-७१-७२। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] क्षपणासाय [ गाथा ८६-६० जाते हैं । इसप्रकार प्रनन्तरवर्ती वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे उन्हीं नवीन- अपूर्व - स्पर्धकोको अन्तिमवर्गणातक प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, उससे द्वितीयसमय में निर्वर्तित अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथमवर्गणामें बसख्यातगुणहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । वहांसे लेकर द्वितीयादि वर्गणाओमे सर्वत्र ( पूर्व - अपूर्वस्पर्धको की वर्गणाओ में ) विशेपहीन क्रमसे प्रदेशान दिये जाते हैं' ।, 7 "पढमादिसु दिस्सकमं तक्कालजफड्याण चरिमोत्ति । ही कम से काले हीणं हीणं कमं तत्तो ॥ ८६॥४०॥ + अर्थ - उस विवक्षितसमय में रचे गए नवीन अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथमवर्गणा से लेकर अन्तिमवर्गणातक ही क्रम से और उस विवक्षितसमय से पूर्व समय के अपूर्व - पूर्वस्पर्धकोकी वर्गणानोमे भी अनन्तर क्रमशः हीन-हीन प्रदेशान दिखाई देते हैं । - विशेषार्थ – अश्वकर्णकरण के द्वितीयसमय मे अपूर्वस्पर्धाकोकी अथवा पूर्वस्पर्धकोंकी एक-एक वर्गणामे जो प्रदेशाग्र दिखाई देता है वह नवीन अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथमवर्गणा में बहुत और शेष सभी वर्गणाओ में अनन्तरक्रमसे विशेषहीन है । तृतीयसमय में भी यही क्रम है अर्थात् जो प्रदेशान दिखता है वह नवीन अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणा में बहुत तथा ऊपर अनन्तरक्रमसे सभीवर्गणाओ में विशेषहीन है । जो क्रम तृतीयसमय में है वही क्रम प्रथम अनुभागकाण्डकके उत्कीर्ण होनेके अन्तिमसमयतक उपरिमसमयों में भी है । 1 इसप्रकार प्रथमअनुभागकाण्डकघात होनेपर क्या होता है सो कहते हैं-'पढमाणुभागखंडे पडिदे अणुभागसंतकम्मं तु । लोभादतगुणिदं उचरिं वितगुणिदकमं ॥६०॥४८१ ॥ अर्थ-प्रथमअनुभागखण्डके, पतन होनेपर लोभकषायसे ऊपर अनन्तगुणा अनुभाग होता है । इसप्रकार अनुभाग सत्कर्म में अनन्तगुणा क्रम हो जाता है । १ जयधवल मूल पृष्ठ २०३८ - ३६ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३६ एव ५४०-४१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७१-७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-४० ॥ ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ सूत्र ५४२ से ५४८ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७२ । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७ गाया ६१-६२ ] क्षपणासार - विशेषार्थ-प्रथमअनुभागकाण्डक उत्कीर्ण होने के अन्तिमसमयसे अनन्तर अगले समय में अनुभागसत्त्व में विशेषता हो जाती है जो इसप्रकार है-संज्वलनलोभमें अनुभागसत्त्व स्तोक है, उससे संज्वलनमायामें अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है, उससे संज्वलनमानका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है और उससे भी संज्वलनक्रोधका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्णकरणकालमें यही क्रम है'। 'आदोलस्ल य पढमे णिव्वत्तिदअपुवफड्डयाणि बहू । ' पडिसमयं पलिदोवममूलासंखेज्जभागभजियकमा।।६१॥४८२॥ अर्थ-आंदोल अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं उसके आगे प्रति समय पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवेभागसे भाजित क्रमसे हैं। - विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें जो अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या बहुत है, द्वितीयसमयमें जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या असंख्यातगुणीहीन है । प्रथमसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्शकोंकी संख्याको पल्यके प्रथमवर्गमूल के असंख्यातवेंभागसे भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने दूसरे समयमै रचित नवीन अपूर्वस्पर्धक हैं । द्वितीयसमयके अपूर्वस्पर्धकोंको पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो प्राप्त हो तत्प्रमाण तृतीयसमय में नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । इसप्रकार अश्वकर्णकरणकालमे प्रतिसमय जो नवीनअपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं वे क्रमसे असंख्यातगुणेहीन होते जाते हैं । असख्यातगुणाहीन प्राप्त करनेके लिए पूर्वके अपूर्वस्पर्धकोको पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असख्यातगेभागसे भाजित किया जाता है । "आदोलस्स य चरिमे अपुवादिमवग्गणाविभागादो । दो चढिमादीणादी चढिदव्वा मेत्तणतगुणा ॥६२॥४८३॥ अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् आश्वकर्णकरणकाल के अन्तिमसमयमे प्रथमस्पर्धक की आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयादि स्पर्धाकोकी आदिवर्गणाके अविभाग १. जयघवल मूल पृष्ठ २०४० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५४६ से ५५३ । धवल पु०,६ पृष्ठ ३७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४१ । ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५५४ से ५५७ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७२-७३ । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ८८] [गाथा ६३-६५ प्रतिच्छेद दुगुणे आदि हैं । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं । विशेषार्थः- अश्वकर्णकरणके अन्तिमसमयमे लोभकषायकी प्रथमअपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी आदिवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेद स्तोक हैं । द्वितीय अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे और तृतीयस्पर्धकको प्रथमवर्गणाम अविभागप्रतिच्छेद तिगुणे हैं। इसप्रकार प्रथमस्पर्धककी प्रथमवर्गणासम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे जितनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदानका संकल्प हो उतनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणामें प्रथमस्पर्धकसम्बन्धी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे उतनागुणा अविभागप्रतिच्छेदाग्र होता है । इसप्रकार अनन्तस्पर्धक चढनेपर अनन्तवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदानका गुणाकार अनन्त है । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं, यह कथन एकपरमाणुसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदकी अपेक्षा किया गया है सर्वपरमाणुकी अपेक्षा किंचित्ऊन दुगुणा तिगुणा आदि क्रम लिये है, क्योंकि प्रतिवर्गणामें परमाणुकी सख्याहीन होती जाती है । इसीप्रकार माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धकोंमे अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए'। . 'आदोलस्स य पढमे रसखंडे पाडिदे अपुव्वादो। कोहादी अहियकमा पदेसगुणहाणिफड्ढया तत्तो ॥३॥४८४॥ होदि असंखेनगुणं इगिफड्ढयवग्गणा अणंतगुणा । तत्तो अणंतगुणिदा कोहस्स अपुव्वफड्ढयाणं च ॥६४॥४८५॥ माणादीणहियकमा लोभगपुव्वं च वग्गणा तेसि । कोहोति य अठ्ठपदा अणंतगुणिदक्कमा होति ॥६५॥४८६॥ अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम अनुभागखण्डके पतित होनेपर क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे हैं। प्रदेशगुणहानिके स्पर्धक उससे १. जयश्वल मूल पृ० २०४१ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६-६७ सूत्र-५५८ से ५७७ । धवल पु० ६ पृ० ३७३ । जयधवल मूल पृष्ठ २०४२-२०४३। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६५ ] क्षपणासार [८९ असंख्यातगुणे है, एक स्पर्धकसम्बन्धीवर्गणा अनन्तगुणी हैं, उससे अनन्तगुणी क्रोधकी अपूर्वस्पर्धकवर्गणाएं हैं इससे मानादि कषायोंमें विशेषाधिक क्रमसे हैं, लोभके पूर्वस्पर्धक और उनकी वर्गणाओंसे क्रोधपर्यन्त आठपद अनन्तगुणित क्रमसे हैं । विशेषार्थः-अश्वकर्णकरण के प्रथम अनुभागकाण्डकके नष्ट होनेपर संज्वलनकषायोके शेष अनुभागसम्बन्ध अल्पबहुत्व इसप्रकार है-क्रोधकषायके अपूर्वस्पर्धक सबसे स्तोक हैं उससे मानकषायके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक हैं, उससे मायाकषायके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक और इससे लोभकषायसम्बन्धी अपूर्वस्पर्धक विशेष अधिक हैं । इनसे भी एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धक असंख्यातगुणे हैं, क्योकि अपूर्वस्पर्धक एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकोके असख्यातवेंभागप्रमाण हैं । एकस्पर्धककी वर्गणाए अनन्तगुणी है, क्योंकि पूर्व या अपूर्वस्पर्धकोमें एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाए अभव्योंसे अनन्तगुणी और सिद्धोंके अनन्तवेभाग हैं, सर्वस्पर्धकों में वर्गणाओंका प्रमाण सदृश है । सज्वलनक्रोधकी अपूर्वस्पर्धकवर्गणाएं अनन्तगुणी हैं, क्योकि संज्वलनक्रोधके अपूर्वस्पर्धक अनन्त हैं तथा तत्सम्बन्धी वर्गणाएं एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके स्पर्धकों से असंख्यातवेंभागगुणी हैं । एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंको एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धकोके असख्यातवेभागप्रमाण स्पर्धकोसे गुणा करनेपर संज्वलनक्रोधके सर्व अपूर्वस्पर्धाकोंकी संख्या प्राप्त हो जाती है जो एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओंसे अनन्तगुणी हैं, उससे संज्वलनमानके अपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाएं विशेषअधिक है, उससे सज्वलनमायाके अपूर्वस्पर्धकोकी वर्गणाए विशेषअधिक हैं तथा इससे संज्वलनलोभकषायके अपूर्वस्पर्धाकों की वर्गणाए विशेष अधिक हैं, क्योंकि अपूर्वस्पर्धाक विशेषअधिक क्रमसे है। लोभकषायके पूर्वस्पर्धक अनंतगुणे हैं, क्योकि पूर्वस्पर्धकोंके अनन्तवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, अपूर्वस्पर्धक एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवेंभाग हैं । अपूर्वस्पर्धाकोंको एकस्पर्धकवर्गणासे गुणां करनेपर अपूर्वस्पर्धककी वर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है । पूर्वस्पर्धकोंके अनन्तवेंभागप्रमाण पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी नानागुणहानिशलाकासे एकस्पर्धकको वर्गणा अनन्तगुणीहीन है इसलिए अपूर्वस्पर्धकवर्गणाओंसे पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे हैं यह सिद्ध हो जाता है। सज्वलनलोभके पूर्वस्पर्धकोंकी वर्गणा अनन्तगुणी हैं, यहां गुणकार एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाशलाका है । मायाकषायके पूर्वस्पर्धक लोभकषायके पूर्वस्पर्धकोंसे मनन्तगुणे हैं, क्योकि अनुभागखण्डके नष्ट हो जानेपर लोभादि संज्वलनकषायोके पूर्वस्पर्धक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] क्षपणासार [गाया ९६ अनन्तगुणितवृद्धि क्रमसे अवस्थित हो जाते हैं । इसप्रकार लोभसंज्वलनके पूर्वस्पर्धकोंसे मायासज्वलनके पूर्वस्पर्धकोंका अनन्त गुणापना विसवादसे रहित है । शङ्का-लोभसंज्वलनके पूर्वस्पर्धकोंसे अनन्तगुणी वर्गणाओंसे मायास्पर्धक अनन्तगुणे कैसे हो सकते हैं ? समाधान-यह कोई दोष नही, क्योंकि वर्गणाशलाकागुणकारसे स्पर्धकशलाकागुणकार अनन्तगुणा है। संज्वलनलोभके पूर्वस्पर्ध कोंको वर्गणाका प्रमाण प्राप्त करनेके लिए जिस अनन्तरूप संख्यासे गुणा किया जाता है उस अनन्तसंख्यासे अनन्तगुणी वह संख्या है जिससे संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्धक प्राप्त करने के लिए लोभसंज्वलन के पूर्वस्पर्धकोको गुणा किया जाता है । संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्धकोंसे संज्वलनमायाके पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाए अनन्तगुणी हैं उससे मानकषायके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे और उन्हीकी वर्गणाए उनसे अनन्तगुणी, उससे क्रोधकषायके पूर्वस्पर्धक अनन्तगुणे तथा उससे उन्हीकी वर्गणाएं अनन्तगुणी हैं। रस ठिदिखंडाणेवं संखेजसहस्सगाणि गंतूणं । तत्थ य अपुवफड्डयकरणविही णिट्टिदा होदी॥६६॥४८७॥ अर्थ-इसप्रकार संख्यातहजार अनुभागकाण्डघात व स्थितिकाण्डकघात व्यतीत हो जानेपर वहां अपूर्वस्पर्षककरणकी विधि पूर्ण होती है । विशेषार्थ-हजारों अनुभागकाण्डक हो जानेपर एकस्थितिकाण्डक होता है। संख्यातहजार स्थितिकाण्डक और उनसे हजारोंगुणे अनुभागकाण्डकोंके अन्तर्मुहूर्तकाल के द्वारा प्रतिसमय अपूर्वस्पर्धकोको रचना क्रिया होती है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक अश्वकर्णकरण प्रवर्तमान रहता है, क्योकि एक अन्तर्मुहूर्त कालमें ही सख्यातहजारस्थितिकाण्डकों और उनसे हजारोंगुणे अनुभागकाण्डकों के द्वारा अपूर्वस्पर्धकोंको रचना पूर्ण हो जाती है। . - १. जयधवल मूल पृष्ठ २०४२-४३ । २. "एवमंतोमुत्तमस्सकग्णकरण" (क. पा० सुत्त पृ० ७६७ सूत्र ५७८; १० पु० ६ पृष्ठ ३७३) जयधवल मूल पृष्ठ २०४३ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६७-६६] क्षपणासौर [६ 'हयकएणकरणचरिमे संजलणाणटुवस्सठिदिबंधो। वस्साणं संखेज्जसहस्सांणि हवंति सेसाणं ॥१७॥४८॥ अर्थ-अश्वकर्णकरणके अन्तिमसमयमें संज्वलनकषायोंका आठवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है और शेषकर्मोका सख्यातहजारवर्षवाला स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणकालके प्रथमसमय में संज्वलनकषायका बंध अंतर्मुहूर्तकम १६ वर्ष और ज्ञानावरणादि शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष होता था। जब अपूर्वस्पर्धक निर्वर्तनाका चरमसंमय होता है उससमय संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभका स्थितिबन्ध घटकर जो बन्ध होता है उस बन्धकी स्थिति आठवर्षमात्र होती है, किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातियाकर्म तथा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अंघातियाकर्मोका अर्थात् इन छहोंकर्मोंका स्थितिबन्ध हजारों स्थितिबधापसरणके द्वारा सख्यांत गुणा घटकर संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है, क्योंकि ये छहकर्म मोहनीयकर्मकै समान अतिअप्रशस्त नहीं है। ठिदिसत्तमघादीणं असंखवरसाण होति घादीणं । वस्साणं संखेज्जसहस्लाणि हवंति णियमेण ॥८॥४८६॥ अर्थ-अधातियाकर्मोका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण और धातियाकर्मोंको स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षका नियमसे होता है । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके चरमसमयमें नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मीका स्थितिसत्कर्म असंख्यातवर्ष और ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोडनीय एवं अन्तराय इन चार घातियोकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है । इसप्रकार अश्वकर्णकरणका काल समाप्त होता है। आगे बादरकृष्टिकरणकेकालका प्रमाण जानने के लिए गाथासूत्र कहते हैं--- छक्कम्मे संछुद्ध कोहे कोहस्त वेदगद्धा जा। तस्स य पढमतिभागो होदि हु हयकरणकरणद्धा ॥६६॥४६०॥ - १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७९७ सूत्र ५७९-८० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७४ । जयधवल मूल पृष्ठ २०४४। २ क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७ सूत्र ५८१-८२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३७४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४४ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ गाथा १०० विदियतिभागो किट्टीकरणद्धा किद्विवेदगखा हु | सदियतिभागो किट्टीकरणो हयकरणकरणं च ॥ १०० ॥ ४६१ ॥ क्षपणासार अर्थ -- (छह नोकषायों को संज्वलन क्रोध में संक्रमणकरके नाश करनेके अनन्तरवर्ती समय से लेकर अन्तर्मुहूर्तमात्र जो क्रोधवेदककाल है उसमें सख्यातका भाग देकर बहुभागके समानरूपसे तोन भाग करते हैं तथा अवशेष एकभागको सख्यातका भाग देकर उनमें से बहुभागको प्रथम त्रिभागमे एवं अवशिष्ट एकभाग में संख्यातका भाग देकर बहुभाग दूसरे त्रिभागमे तथा अवशेष एक भागको तृतीय त्रिभागमें जोड़ते हैं ।) इस - प्रकार करते हुए प्रथमत्रिभाग कुछ अधिक हुआ और वह अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरणका काल है सो पहले हो ही गया । द्वितीयत्रिभाग किचित् ऊन है सो चार संज्वलनकषायोका कृष्टि करनेका काल है जो अब प्रवृत्तमान है एव तृतीयत्रिभाग किचित् ऊन है जो कि क्रोधकृष्टिका वेदककाल है जो आगे प्रवृत्तमान होगा । इस कृष्टिकरणकालमे भी अश्वकर्णकरण पाया जाता है, क्योंकि यहां भी अश्वकर्ण के आकाररूप सज्वलनकषायोका अनुभागसत्त्व या अनुभाग काण्डक होता है अतः यहां कृष्टिसहित अश्वकर्णकरण पाया जाता है । । विशेषार्थ - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह नोकषायरूप कर्मप्रकृतियों का सज्वलनक्रोधमें संक्रमण होकर नष्ट हो जानेपर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण क्रोध वेदकाल होता है । उसके तीच भाग होते हैं; उन तीन भागों मेसे प्रथमभाग सबसे बड़ा होता है, द्वितीयभाग उस प्रथमभागसे विशेषहीन होता है और तृतीयभाग इस दूसरे भागसे भी हीन कालवाला होता है वह इसप्रकार है - क्रोध वैदककालको संख्यातसे भाजितकर उसमे से बहुभागके तीन समखण्ड होते हैं । क्रोधवेदककाल जो संख्यातवां एकभाग शेष रहा उसको पुनः संख्यातसे भागदेकर बहुभाग प्रथम त्रिभाग में मिलानेपर प्रथमभागसम्बन्धी कालका प्रमाण होता है, शेष एक भागको पुनः सख्यात से भागदेकर बहुभाग द्वितीय भाग में मिलाने से द्वितीयभाग के कालका प्रमाण होता है । शेष एकभागको तृतीय भाग में मिलानेपर तीसरेभाग के कालका प्रमाण होता है । इस होन क्रमसें क्रोधवेदककालके तीनखण्ड हैं । यद्यपि स्थूलरूपसे प्रत्येकभागको त्रिभाग कहा गया है. तथापि वे क्रोधवेदककाल के त्रिभागसे कुछ हीन या अधिक हैं । उन तीन भागों मैं से प्रथमभाग अश्वकर्णकाल है, द्वितीयभाग कृष्टिकरणकाल है और तृतीयभाग कृष्टिवेदककाल हैं । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०१-१०२ ] - क्षपणासार अश्वकर्णकरणके समाप्त होनेपर अर्थात् प्रथमभागका काल समाप्त होनेपर तदनन्तरकालमें अन्यस्थितिबन्ध होता है । जो चारों संज्वलनकषायोंका अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्ष है और कर्मों का स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणाहीन है अन्य अनुभागकाण्डक होता है । अन्य स्थितिकाण्डक होता है जो कि मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन चार घातियाकर्मोंका संख्यातसहस्रवर्ष है और नामगोत्र, वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मोंका असंख्यातबहुमाग हैं'। कृष्टिकरणकालमें अश्वकरण भी होता है, क्योंकि अनुभागको अपेक्षा कृष्टियों की रचना अश्वकर्णकरण भी होता है जिसके द्वारा संज्वलनकषायरूप कर्म कृश किया जाता है, उसकी कृष्टि यह सार्थक संज्ञा है । यह कृष्टिका लक्षण है । कोहादीणं सगसगपुवापुवगदफड्ढयेहितो।। उक्कड्डिदूण दव्वं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥१०१॥४६२।। अर्थ-क्रोधादिके अपने-अपने पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोंसे अपकर्षित द्रव्यके द्वारा क्रमसे कृष्टियां करता है । विशेषार्थ-कृष्टिकारक प्रथमसमय में क्रोधके पूर्ग और अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्नका अपकर्षणकर क्रोध कृष्टियोंको करता है । मानके पूर्व-अपूर्वस्पर्शकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मानकृष्टियोंको करता है। मायाके पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मायाकृष्टियोको करता है । लोभके पूर्व अपूर्वस्पर्णकोंसे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकर लोभकृष्टियोंको करता है । उक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिद्विणिबद्धो फड्ढयगे सेसइगिभागो ॥१०२॥४६३।। अर्थ-अपकर्षितद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजितकर उसमें से बहुभागद्रव्य बादरकृष्टियों में दिया जाता है और एकभाग पूर्व-अपूर्वस्पर्धको में दिया जाता है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७-७६८ सूत्र ५८५-५८८ । २. "किसं कम्मं कद जम्हा, तम्हा किट्टी ।।७३३।। एवं लक्खणं ॥७३४॥ (क. पा. सुत्त पृ. ८०८) ३. धवल पु० ६ पृष्ठ ३७४-३७५ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेपणासा [गाथा १०३-१०४ विशेषार्थ - डेढ़ गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण सत्ता द्रव्य है, इसको अपकर्षणभागहारसे भाग देने पर जो लब्धं आवे वह अपकर्षितद्रव्य है । उस अपकर्षित द्रव्यकों पल्योपमके असंख्यातर्वैभागसे भाजित करनेपर जो द्रव्यं प्राप्त हो वह तो पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों मै निक्षिप्त किया जाता है । शेष बहुभागद्रव्य से बादरकृष्टिया निर्वर्तित होती हैं इसेप्रकार अपकपितद्रव्यका विभाजन होता है | ४] किट्टी इगिफट वग्गण संखाणांत भागो दु । . एक्के वर्क म्हि कसाए तियंति हवा अांता वा ॥ १०३ ॥ ४६४ ॥ अर्थ - कृष्टियोकी संख्या एक स्पर्धककी वर्गणाओंके अनन्त भाग है' । एकएक कषायकी तीन-तीन कृष्टियां अथवा अनन्तकृष्टियां है । विशेषार्थ - चारों कषायोंकी कृष्टियां गणनासे एकस्पर्धककी वर्गणाओंकी संख्याको अनन्तकाभाग देनेसे जो लब्ध प्राप्त हो उतनी हैं अर्थात् अनन्त हैं, किन्तु संग्रह - की अपेक्षा सग्रहकृष्टि १२ हैं, क्योकि क्रोध - मान-माया-लोभ इन चारों कषायोमे से प्रत्येकको तीन-तीन संग्रहकृष्टिया है । एक - एक संग्रहकृष्टिकी अनन्त अवयव कृष्टियो होती है इसकारण से "अथवा अनन्त होती है" ऐसा कहा गया है । अकसायकसायाणं दव्वस्स विभंजणं जहा होदी । किहिस्स तब हवे कोहो कसायपडिबद्धं ॥ १०४ ॥ ४६५ ॥ अर्थ- - अकषाय अर्थात् नोकषाय और कषायमें द्रव्य ( समयबद्ध) का जिस प्रकार विभाजन होता है उसीप्रकार कृष्टियों में भी द्रव्यका विभाजन होता है, किन्तु पायका द्रव्य क्रोधकृष्टि मैं सम्मिलित होता है । १. धवल पु० ६ पृष्ठ ३७५ २. घबल पु० ६ प ३७६ । "ताश्च किट्टयः परमार्थतोऽनन्तापि स्युरजाति भेदापेक्षया द्वादश वरुप्यन्ते, एकैकस्य कपायस्य तिस्रस्तिस्र: । " ( जयधवल पु० ६ पृष्ठ ३८१ टि० न० ५ ) "एक्केकम्म फसाए तिष्णि तिणि किट्टीओ त्ति एवं तिग तिग" क. पा सुत्त पृष्ठ ८०६ सूत्र ७१४ | ३ "एक्के पिकस्से मर्गह किट्टीए भणताओ किट्टीओ त्ति देण अधवा अणताओ जादा । (क० पा० मुक्त पृष्ठ ५०६ सूत्र ७१५ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०४ ] क्षपणासार विशेषार्थ-विभाजनद्वारा समयप्रबद्धका जितना द्रव्य चारित्रमोहको मिलता है उसमेसे आधा नोकषायसम्बन्धी है और आवा क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार कषाय सम्बन्धी है । इसप्रकार प्रत्येक कषायको चारित्रमोहसम्बन्धी अर्धद्रव्यका चतुर्थ भाग मिलता है अर्थात् क्रोधकषायका चारित्रमोहनीय द्रव्यका आठवांभाग तथा मानका, मायाका और लोभका भी चारित्रमोहनीयद्रव्यका आठवां-आठवां भाग है। नोकषायस्वरूप चारित्रमोहनीयका आधाद्रव्य है । क्षपक अनिवृत्तिकरणकालके सख्यात बहुभाग व्यतीत हो जानेपर १३ प्रकृतियों का अन्तरकरण करके फिर नपु सकवेदकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है। पुनः उसका प्रारम्भ करते हुए गुणसंक्रमणके द्वारा नपुसकवेदको पुरुषवेदमें संक्रान्त करता है, क्योकि नवम गुणस्थानमे अन्तरकरण करनेके बाद जो संक्रमण होता है वह आनुपूर्वी क्रमसे होता है अतः शेषकषायोंमें नपुंसकवेद्र और स्त्रोवेदका संक्रमण न करके नपुसकवेदका क्षपण करता हुआ नपुसकवेदको द्विचरमफालीके प्राप्त होने तक जाता है, उसके बाद अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर नपुसकवेर नष्ट हो जाता है फिर स्त्रीवेदका क्षपण प्रारम्भ करके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उसके क्षपणाकालसम्बन्धी चरमसमय में स्त्रीवेदको अन्तिमफालीका पुरुषवेदमें संक्रमण होनेपर स्त्रीवेद्रका भी सम्पूर्णद्रव्य पुरुषवेदमें संक्रान्त हो जाता है । पुनः इस पुरुषवेद (जिसमें नपुंसकवेद और स्त्रीवेद, इन दोनों वेदोका द्रव्य संक्रान्त हो चुका है) के साथ शेष छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा) का द्रव्य क्रोधसज्वलन में संक्रान्त हो जानेपर क्रोधसज्वलनका उत्कृष्ट संचय होता है, क्योकि इस समय क्रोधसंज्वलन का द्रव्य चारित्रमोहनीयके द्रव्यके (+) आठ भागो में से पाचभागप्रमाण हो जाता है। इसप्रकार ६ नोकषायोका द्रव्य जो चारित्रमोहनीयके अर्धद्रव्यप्रमाण है वह क्रोप्रकृष्टि में सम्मिलित होता है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे प्रथमसंग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र तेरहगुणा कैसे संभव है, इसका स्पष्टीकरण यह है कि मोहनीयकर्मका सर्वप्रदेशरूप द्रव्य अङ्कसन्दृष्टिको अपेक्षा ४६ कल्पित कीजिए। इसके दो भागोंमेंसे असख्यातवेंभागसे अधिक एकभाग (२५) तो कषायरूप द्रव्य है और असख्यातवेभागसे हीन शेष दूसराभाग (२४) नो१. जयधवल पु. ६ पृष्ठ १११-११२ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) ε६ ] [ गाथा १०५ कषायरूप द्रव्य है । अब यहां पर कंषायरूप द्रव्यको क्रोधादि चारकषायोंकी १२ संग्रहकृष्टियोमें विभाग करनेपर क्रोध प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य (२) अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनीयकर्मके सकल (४९) द्रव्यकी अपेक्षा कुछ अधिक २४वां भागप्रमाण है । प्रकृत कृष्टिकरणकालमे चोकषायोंका सर्वद्रव्य भी सज्वलनक्रोधमे सक्रमित हो जाता है। जो कि सर्व ही द्रव्यकृष्टि करनेवालेके क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे ही परिणत होकर अवस्थित रहता है | इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथमसग्रहकृष्टिरूप से ही उसके परिणमनका नियम है । इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि के प्रदेशाप्रका स्वभाग (२) इस वोकषायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर ( २ + २४ = २६ ) क्रोधको द्वितीयसग्रहकृष्टि के दो अप्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा तेरहगुणा ( २x१३ = २६ ) सिद्ध हो जाता है | अतएव चूर्णिकारने उसे तेरहगुणा बतलाया है । क्षपणासाय इसप्रकार उपर्युक्त सूत्र से सूचित स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार जानना चाहिए । क्रोध की द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं। मानका स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है - मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रदेशान सबसे कम है, द्वितीय संग्रहकृष्टि मे विशेष अधिक हैं, तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेषअधिक हैं । इसीप्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान -प्रत्पबहुत्व जानना चाहिए' । पढमादिसंगदाओ पल्ला संखेज्ज भागहीणाओ । कोहस्स तदीयाए अकसायाणं तु किट्टीओ ॥ १०५ ॥ ४६६॥ अर्थ — संग्रहकृष्टिकरण की प्रथम ( जघन्य ) संग्रहकृष्टिसे लेकर आगे-आगे क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टितक द्रव्य हीन होता गया है । प्रथमसंग्रहकृष्टि के द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेभागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतना द्रव्य द्वितीयसग्रहकृष्टि कम है । कृष्टिकरणकी अपेक्षा क्रोधकी तृतीयकृष्टि ( उदयापेक्षा क्रोधकी प्रथमकृष्टि ) में नोकषायका द्रव्य मिल जाता है । १. क० पा० सुत्त ८१२ | गाथा ६६ से १०४ तक ६ गाथाओकी टीका मात्र क० पा० सुत्त और धवल पु० ६ के आधार से लिखी गई है क्योकि जयधवल मूल (फलटनसे प्रकाशित ) के पृष्ठ २०४५ से २०४८ के पृष्ठ नही मिल सके। इन गाथाओं सम्बन्धी विषय उन पृष्ठोमे होगा ऐसा प्रतीत होता है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०५) क्षपणासार ७ विशेषार्थ-गाथा १०५ का विशेषार्थ कषायपाहुड़ गाथा १७० और जय धवलमूलटीका के आधारसे लिखा जा रहा है। क. पा. गाथा १७० में उदयकी अपेक्षा 'प्रथमादि' क्रम रखा गया है अतः यहां भी उदयकी अपेक्षा हो प्रथमादि क्रम लिखा जावेगा । जैसे ऊपर गाथामें तो "क्रोधको तृतीयकृष्टिमें नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, किन्तु उदयापेक्षा वह तृतीयकृष्टि ही प्रथमकृष्टि है इसीलिए क. पा. गाथा १७० में "प्रथमकृष्टि में नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, क्योंकि कृष्टिरचना तो नोचेसे ऊपरकी ओर होती है अर्थात् जघन्यअनुभागसे उत्तरोत्तर अनुभाग बढते हुए कृष्टिरचना होती है, किन्तु प्रथमउदय अधिक अनुभागवाला होता है तथा आगे उत्तरोत्तर हीनअनुभागका उदय होता जाता है अर्थात् उदय ऊपरसे नीचेकी मोर होता है। क्रोधोदयको अपेक्षा द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र अल्प हैं, उससे उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणे अर्थात् तेरहगुणे प्रदेशाग्न हैं, क्योकि इस कृष्टि में नोकषाय का द्रव्य मिल गया है । उसी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक द्रव्य है, क्योकि यह बादमे उदय आवेगी । इस प्रकार क्रोधकषायको तीनसंग्रहकृष्टिसम्बन्धो अल्पबहुत्व जानना। शंका-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टि से उदयागत प्रथमसंग्रहकष्टि तेरहगुणी किस प्रकार है ? समाधान-अङ्कसन्दष्टिमें मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य (४६) है। इसके दो भाग करनेपर असंख्यातवेंभागअधिक एकभाग कषायका द्रव्य है जिसकी अङ्कसन्दृष्टि (२५) है और असंख्यातवेंभागसे हीन शेष दूसरा नोकषायसम्बन्धी द्रव्य है, जिसकी अंकसंदृष्टि (२४) है । कषायभागको बारह संग्रहकृष्टियों में विभाजित करनेपर क्रोधकषाय की प्रथमसंग्रहकृष्टि में कषायसम्बन्धी द्रव्यका १२वां भाग है उसकी सन्दृष्टि (२) है । वोकषायका सर्वद्रव्य भी क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि में मिलता है, क्योकि यह उदयागतकृष्टि है । कषायसम्बन्धी प्रत्येकसंग्रहकृष्टिके द्रव्यसे नोकषायका द्रव्य १२ गुणा है, क्योंकि कषाय द्रव्यका १२ सग्रहकृष्टियोमे विभाजन होनेसे प्रत्येक सग्रहकृष्टिको १२ वे भाग द्रव्य मिला है । क्रोधकषायको द्वितीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य कषायसम्बन्धी सकलद्रव्यका १२ वां भाग है जिसकी सन्दष्टि दो है अतः द्वितीयसग्रहकष्टिके द्रव्य (२) से उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य (२६) तेरहगुणा सिद्ध हो जाता है । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार (गीर्थो १०५ .६८ शंका---क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यसे तृतीयसंग्रहंकष्टिका द्रव्य कितना अधिक है? समाधान--क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यंको पल्यके असंत्यातवेंभागसे खण्डित करके एकखण्डप्रमाण तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है।' उदयं (वेदक) की अपेक्षा मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि अथवा कारककी अपेक्षा मानकपायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्तोक है; उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषयधिक है, क्योंकि तीव्रअनुभागवाले प्रदेशपिण्डसे मेन्दअनुभागवाला प्रदेशपिण्ड अधिक होता है । द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्यं विशेषअधिक है । विशेष के लिए प्रतिभाग पल्यको असंख्यातवांभाग है, यह प्रतिभाग स्वस्थानके लिए है अर्थात मानकषायकी तीनसंग्रहकृष्टियों में परस्पर विशेषका प्रमाण स्वस्थानविशेष है। इसी प्रकार माया व लोभकषायमे भी स्वस्थानविशेष जानना चाहिए। मानकषायकी तृतीयसग्रहकृष्टि से क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है। यहांपर विशेषके लिए प्रतिभाग आवलिका असख्याताभांग है, क्योकि यहां परस्थानविशेष है कारण कि मान और क्रोध दोनों भिन्न-भिन्न कषाय हैं । क्रोध कपायको तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है। यहाँविशेषको प्रतिभाग पल्यंका असंत्यातवांभाग है । मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिका द्रव्य क्रोधकषायंकी तृतीयसंग्रहकृष्टि से विशेषअधिक है, यहां विशेष अधिकके लिए प्रतिभाग आवलिका असख्यातवांभाग है, क्योंकि परस्थान है । मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टिके द्रव्यसे माया कषायकी द्वितीयसंग्रहकृप्टिका द्रव्य विशेषअधिक है । यहा विशेष अधिकके लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवांभाग है, क्योकि स्वस्थान है। इससे मायाकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है यहां भी स्वस्थान होनेसे विशेषअधिकके लिए प्रतिभांग पल्यका असख्यातवांभाग है । मायाकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे लोभकायकी प्रथम सग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है, यहापर परस्थान होनेसे विशेषअधिकके लिए प्रतिभांग आवलिका असंख्यातवांभाग है, क्योकि माया व लोभकषाय भिन्न-भिन्न कषाएं हैं। लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभकी ही द्वितीयसग्रहकृष्टिको द्रव्य विशेषअधिक है और इससे तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है । यहा द्वितीय और तृतीय दोनों ही कृष्टियोमै विशेपअधिकके लिए प्रतिभाग पल्यका असख्यातवाभाग है, क्योकि स्वस्थान है । इस १. "विसेसो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागो" (क. पा. सुत्त पृ० ८१२ सूत्र ७६२) Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - १०६-१०७ ] [ée प्रकार क्रोधकषायको उदद्यागत प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य संख्यातगुणा अर्थात् तेरहगुणा है, क्योकि इसमें नोकषायका द्रव्य मिल गया है । " क्षपणासार किस कषायोदयसे श्रेणी चढ़नेवालेके कितनी संग्रहकृष्टियां होती हैं कोहस् य माणस्य मायालोभोदएण चडिदस्त । बारस पत्र छ तिरिणु य संग्रह किट्टी कमे होंति ॥ १०६ ॥ ४६७॥ - अर्थ - क्रोध-मान- माया अथवा लोभके उदयसे क्षपकश्रेणि चढ़नेवाले के क्रम से १२-६-६ व ३ संग्रहकृष्टियां होती हैं । विशेषार्थ :- सज्वलनको के उदयसहित जो जीव श्रेणी चढ़ता है उसके तो चारों कषायोंकी बारह संग्रहकृष्टि होती हैं, क्योकि प्रत्येक कृषायकी तीन-तीन संग्रहकृष्टि होती हैं | मानकषायके उदयसहित श्रेणी चढता है, उसके कृष्टिकरणकाल से पहले हीक्रोधकाः सक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए सज्वलनक्रोधको संग्रहकृष्टि नही होती अवशेष तीन कषायोंकी & सग्रहकृष्टि होती हैं, मायाकषायके उदयसहित जो श्रेणि चढ़ता है उसके क्रोत्र व मानकषायका कृष्टिकरणकाल से पहले ही सक्रमण करके स्पर्धकरूपसे क्षय होता है इसलिए दो कषायों की छहसग्रहकृष्टि होती है तथा लोभकषाय के उदयसहित जो श्रेणी चढता है उसके क्रोध मान व मायाकषायका कृष्टिकरणकाल से पहले हो स्पर्धक रूप से संक्रमणकरके क्षय होता है इसलिए एक लोभकषायकी ही तीच संग्रहकृष्टि होती हैं। यहां जितनी संग्रहकृष्टि होती हैं उन्ही में कृष्टिप्रमाणका विभाग पथासम्भव जानना चाहिए । अन्तरकृष्टियों की संख्या व उनका क्रम -- संगहगे एक्के अंतर किट्टी हवदिह अता । लोभादिगुण कोहादि अांतगुणहीणा ॥ १०७॥ ४६८ ॥ अर्थ - एक-एक संग्रहकृष्टि में अन्तरकृष्टियां अनन्त हैं तथा उन संग्रहकृष्टियोमें लोभकषाय से लेकर क्रमसे, अनन्तगुणा बढते हुए और क्रोधकषायसे लेकर क्रमसे घटता हुआ अनुभाग जानना । १. जयधवल मूल पृष्ठ २००२ से २०६६ तक । 1 २. जयधवल मूल पृष्ठ २०७१ से २०७३ | Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० क्षपणासार [ गाथा १०८ विशेषार्थ-क्रोध-मान-माया व लोभ इन चारोंकषायों में प्रत्येककषायकी तीन-तीन सग्रहकृष्टि होकर सर्व (४४३) १२ संग्रहकृष्टियां होती हैं तथा इनमें से एकएक संग्रहकृप्टियोमें अवान्तरकृष्टियां अभव्योसे अनन्तगुणी और सिद्धोके अनन्तवेंभागप्रमाण अनन्त होती हैं और इनके अन्तर भी अनन्त हैं। एक-एक कृष्टिसम्बन्धी अवान्तरकृष्टियोके अन्तरकी सज्ञा "कृष्टिअन्तर" है एवं सग्रहकष्टिके ग्यारह अन्तरालोमें रची गई कृप्टियोंकी "संग्रहकृष्टिअन्तर" संज्ञा है। इनमेसे कृष्टिअन्तरके गुणकारको 'स्वस्थानगुणकार' और सग्रहकृष्टिअन्तरके गुणकारकी "परस्थानगुणकार" मंज्ञा है'। लोभकपायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि, अतुभाग स्तोक है, उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि में अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तगुणा क्रम लीये क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टितक जाना चाहिए, यह कथन अनुलोभकी अपेक्षा है। विलोमकी अपेक्षा क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमे अनुभाग सबसे अधिक है, उससे क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमै बनन्तगुणाहीन है । इसप्रकार क्रोधको तृतीयसंग्रहकृष्टि से लेकर लोभकषायकी प्रथमसग्रहप्टिपर्यन्त अनन्तगुणहीन क्रमसे अनुभाग होता है । इसका विशेषकथन आगे गाथा१०८ मे किया जावेगा। उपर्युक्त गाथाके कथनका स्पष्टीकरण करनेके लिए गाथा सूत्र कहते हैं - लोमादी कोहोत्ति य सट्टाणंतरमणंतगुणिदकमं ।। तत्तो वादरसंगहकिट्टी अंतरमणंतगुणिदकमं ॥१०८॥४६॥" अर्थ-लोभकषायसे क्रोधकषायपर्यन्त स्वस्थान अन्तर अनन्तगुणा क्रम लीये है तथा उम स्वस्थानअन्तरसे वादरसंग्रहकृप्टिअन्तर अनन्तगुणा क्रमसहित है । १. "एक्काकिस्से सगहक्ट्टिीए अणताओ किट्टीओ। तासि अंतराणि वि अणतारिण। तेसिमंतराणं समा किट्टी-बनराइ णाम ।" सगहकिट्टाए च सगहकिट्टीए च अतराणि एक्कारस, तेसि सण्णा सगहपिट्टो-अतराइणाम । (क पा सत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ६११) ध० पु०६ पृ० ३७६ । जयवल मूल प० २०५१। ५० पा० मुत्त पृष्ठ ७६६ से ८०१ सूत्र ६१४ से ६४२ तक । धवल पु० ६ पृ० ३७८ । "तत्य मत्याणगुण गारस विट्टीअंतरमिदि सण्णा, परत्याणगुणगाराणं सगहकिट्टीणं अंतरःणि ति गप्ला ।' नति एकस ग्रहकृष्ट की अन्तरकृष्टियोका जो परस्पर गुणकार है वह स्वस्थानगुरार है। एकमनहप्टिकी अन्तरकृष्टिका जो गुणकार है वह परस्थान गुणकार है। (747 मूल पृष्ट २०५१) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8570 गाथा १०८ ] क्षपणासार [१०१. विशेषार्थ-बादर संग्रहकृष्टिसम्बन्धी एक-एकसंग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टि सिद्धराशिके अनन्तवेंभागमात्र है तथा उनकेअन्तराल एककम कृष्टिप्रमाण हैं, क्योंकि दोकृष्टियों के बीच में एक अन्तराल, तीन कृष्टियोके बीच में दो अन्तराल होते हैं । इसप्रकार विवक्षितकृष्टिप्रमाणमें अन्तराल एककम उस कृष्टिप्रमाण होता है। यहां कारणमें कार्यका उपचार होनेसे अन्तरकी उत्पत्तिमें कारणभूत गुणकारोंको अन्तर कहते हैं। और इन्हीं का नाम कृष्टय तर है । अधस्तनसंग्रहकृष्टि और उपरितनसंग्रहकृष्टिके बीच में ११ अन्तराल होते हैं, क्योंकि क्रोधादि चारकषायसम्बन्धी संग्रहकृष्टियां १२ हैं अतः एककम (१२-१) अन्तरोंका प्रमाण होगा, इन्हींको संग्रहकृष्टय तर कहते हैं । यहां उक्त कथन का यह अभिप्राय जानना कि जितने अन्तराल होते हैं उतनीबार अन्तर कृष्टियोंकी रचना होती है और उनमें स्वस्थान परस्थान गुणकार होता है । वहां स्वस्थानगुणकारका वाम कृष्ट्यंतर है तथा परस्थान गुणकारों का नाम संग्रहकृष्ट्य तर है। एकही संग्रहकृष्टिमें अधस्तन अन्तरकृष्टिसे उपरितन संगहकृष्टि में जो गुणकार होता है वह तो स्वस्थानगुणकार तथा अधस्तन संग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टि से अन्य संग्रहकृष्टि सम्बन्धी प्रथमअन्तरकृष्टि में जो गुणकार होता है उसे परस्थान गुणकार कहते हैं । इसप्रकार संज्ञाएं बताकर कृष्टय तर और संग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्वको स्पष्टरूपसे बताने के लिए अङ्कसन्दृष्टिद्वारा कथन करते हैं यहां अनन्तकी सन्दष्टि दो और एकसंग्रहकृष्टिमें अन्तरकृष्टिके प्रमाणकी सन्दृष्टि (४) है । सर्वप्रथम लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टिको स्थापित करके उसमें अनन्तरूप गुणकारसे गुणा करने पर उसकी द्वितीयकृष्टिका . प्रमाण होता है। यहां उस गुणकारको जघन्यकृष्टयन्तर कहते हैं और उसकी सहनानी (२) है तथा द्वितीयकृष्टिको जिस गुणकारके द्वारा गुणा करनेसे तृतीयकृष्टि होती है उस गुणकारको द्वितीयकृष्टयन्तर कहते हैं, यह जघन्यकृष्टयन्तरसे अनन्तगुणा है और इसकी सहनानी (४) है । इसीप्रकार क्रमसे तृतीयादि कृष्टयन्तर अनन्तगुणे-अवन्तगुणे होते हैं। जिस गुणकारसे द्विचरमकृष्टिको गुणा करनेसे अन्तिमकृष्टि होती है वह अन्तिमगुणकार द्विचरमगुणकारसे अनन्त गुणा है और उसकी सहनानी (4) है। प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तिमकृष्टिको जिसगुणकारसे गुणा किया जानेसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टि होती है वह गुणकार परस्थानगुणकार है और यह स्वस्थानगुणकारोंसे अनन्तगुणा है । अतः इसको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी प्रथमकृष्टिको जिस गुणकारसे Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १०८ T" १०२] गुण करनेपर उसकी (द्वितीय संग्रहकृष्टिकी) द्वितीय कुष्टि होती है वह प्रथमगुणकार उपयुक्त अन्तिमस्वस्थानगुणकार से अनन्तगुणा है इसको असहष्टि (१६) है । इस प्रकार बीच-बीच में परस्थानगुगकारको छोड़कर एक एककूष्टिके प्रति गुणकारका प्रमाण अनन्तगुणा जानना । यहां कृष्टियों के प्रमाणमे से एककम प्रमाण अन्तराल हैंउनमें ११ परस्थानगुणकार और एक जघन्यगुणकार पाया जाता है । अन्तिम प्राप्त संख्याका गुणकाएँ नही होता ( सन्दृष्टिमें ४२ = ३२७६८) इसप्रकार इन १३को कृष्टियो के प्रमाणमें से घटानेपर अवशेष जितना प्रमाण रहा उतनीबार जघन्य गुणकारको अनन्त से गुणा करनेपर जो लन्त्र आया उससे क्रोधकषायको तृतीय संग्रहकृष्टि की द्विचरमकृष्टिको गुणा करें तो क्रोधकषायंकी तृतीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी चरमकृष्टि होती है । यहां अवसन्दृष्टि में ४८ कृष्टियों में से १३ घटानेसे (४८ - १३) ३५ शेष रहे अतः ३५ वार अनन्तके प्रमाण (२) को परस्पर में गुणा करनेपर १६ गुणा बादाल ( १६ Xबादाल) लव्ध माया । यहांसे स्वस्थान गुणकारको छोड़कर पुन: लौटकर लोभकी प्रथम संग्रह - कृष्टिको अन्तिमवर्गणाको (कृष्टिको ) जिस गुणकारसे गुणा करने से द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी - प्रथमवर्गणा (कृष्टि) होती है वह परस्थानगुणकार पूर्वोक्त अन्तिमस्वस्थानगुणकार से अनन्तगुणा है और इसकी सन्दृष्टि ३२ गुणा बादाल ( ३२ X बादाल ) है तथा लोभकषाय की द्वितीय संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणाकरनेपर लोभकषाय-. की तृतीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी प्रथमकृष्टि होती है वह द्वितीय परस्थान गुणकार उपर्युक्त प्रथमपरस्थानगुणकार से अनन्तगुणा है एवं लोभकषायकी तृतीयसंग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तिमकुष्टिको जिस गुणकार से गुणा करनेपर मायाकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टि सम्बन्धी प्रथम अन्तरकष्टि होती है वह तृतीयपरस्थान गुणकार पूर्वोक्त द्वितीयपरस्थानगुणकार से अन॑न्त॒गुणा है । इसीप्रकार ११ परस्थात गुणकारों को क्रमसे अनन्त के द्वारा गुणाकरनेपर क्रोधकषायकी द्वितीय संग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तिम कृष्टिको जिस गुणकारसे गुणा करने से क्रोघकषायको तृतीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी प्रथम कृष्टि होती है- उस गुणकार प्रमाण लब्धराशि प्राप्त होती है । - १. के० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ से प्रारम्भ । ジ कृष्टिअन्तरों एवं संग्रहकृष्टि अन्तरोका अल्पबहुत्व- इसप्रकार है 'लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में जघन्यकृष्टि अन्तर अर्थात् जिस गुणकारसे गुणित जघन्यकृष्टि अपनी द्वितीयकृष्टिको प्रमाण प्राप्त करती है वह गुणकार सबसे Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १०८] [१०३ कम है, इससे द्वितीयकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे जाकर अन्तिमकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है । लोभकषायकी, ही द्वितीयसग्रहकृष्टिमैं प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तर-अनन्तररूपसे अन्तिमष्टि अन्तरतक अनन्तगुणा अन्तर जानना चाहिए। पुनः लोभकषायकीही तृतीयसगृहकृष्टिमें प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । ऐसे अनन्तर-अनन्तररूपसे जाकर अन्तिमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है। यहांसे आगे मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार अनन्तर अनन्तररूपसे मायाकषायकी भी तीनों सग्रहकृष्टियोके कृष्टि-अन्तर यथाक्रमसे अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहाँसे आगे.मानकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे प्रथम कृष्टि अन्तर अनन्तगुणा है । इसप्रकार मानकषायकी भी तीनों संग्रहकृष्टियोके कृष्टिअन्तर यथांक्रमसे अनन्तगुणितं श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए । यहांसे आगे क्रोधकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि में प्रथमकृष्टि-अन्तरं अनन्तगुणों है । इसप्रकार क्रोधकषायकी भी तीनों सग्रहकृष्टियोंके अन्तर यथाक्रमसे अन्तिम-अन्तरपर्यन्त अनन्तगुणित श्रेणीके द्वारा ले जाना चाहिए। उससे अर्थात् स्वस्थानगुणकारोंके. अन्तिमर्गुणकारसे लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका अन्तर अनन्तगुणा है । इससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि-अतर अनन्तगुणा हैं और इससे तृतीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । लोभ व मायाकांयसम्बन्धी अन्तर अनन्तगुणी है । मायाकषायका प्रथमसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणां है, इससे द्वितीयसंग्रहकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है, इससे तृतीयसग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है । मायाकोयसे मानकषांयका अन्तर अनन्तगुणा है ।मानकषायका प्रथमसग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है, इससे द्वितीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है, इससे तृतीयसंग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा हैं । मानकषाय और क्रोधकषायका अन्तर अनन्तगुणा है । क्रोधकषायका प्रथमसंग्रहकृष्टिअन्तर अनन्तगुणा है, इससे द्वितोयसग्रहकृष्टि-अन्तर अनन्तगुणा है और इससे तृतीयसंग्रहकष्टि-अन्तर अनन्तगुणां है । क्रोधकषायकी अन्तिमकृष्टिसे लोभकषायके अपूर्वस्पधकोकी आदिवर्गणाका अन्तर अनन्तगुणा है।' १, क. पा. सुत्त पृ. ८०१ तक । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा १०८ १०४] गुणकारसम्बन्धी सन्दृष्टि इसप्रकार है लोभ नाम माया क्रोध तृतोयसग्रहकृष्टि में स्वस्थान गुणकार ५१२ ६५ = २०४८ ४२ = १६ २५६ ६५ = १०२४ ४२ = ८ | ६५ = १ | ६५ = ५१२। ४२ = ४ ४२=६४ ४२=५१२ | ४२ = ४०६६ ४२=३२७६८ परस्थानगुणकार द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे स्वस्थानगुणकार | १६ __३२७६८ । ६५ = २५६ | ४२ = १६३८४ ६५ = १२८.४२ = ८१६२ | ६५ = ६४/६५ =३२७६८ परस्थानगुणकार | ४२=३२ | ४२=२५६ ४२=२०४८ | ४२=१६३८४ प्रथमसग्रहकृष्टिमे स्वस्थानगुणकार ४०६६ ६५ = ३२ । ६५=१६३८४ अपूर्वस्पर्धक २०४८ ६५%= ८१९२ १०२४. । ६५ ८ ६५= ४०९६ | पणा | ४२= १०२४ ४२=८१६२ | ४२=६५ - | परस्थान | परस्थानगुणकार (४२) | ४२-१२८ नोट-उपर्युक्त सन्दृष्टिमैं पण्णटीकी सहनानी ६५= और बादालको सहपानी-४२= है तथा इनके आगे जो अक हैं उतनेका इनमें गुणकार जानना । ___ अंकसन्दृष्टिके द्वारा ११ परस्थान गुणकारोंको १० बार दुगुणा करनेपर ३२७६८ गुणा बादाल प्रमाण होता है और इससे उस गुणकारका प्रमाण अनन्तगुणा जानना जिस गुणकारके द्वारा क्रोधकषायको तृतीयसग्रहकृष्टि की अन्तिमसंग्रहकृष्टि को गुणा करनेसे लोभकषायके अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अनुभागसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण होता है। उस गुणकारको सन्दृष्टि ६५= ४२ (पण्णट्ठी x बादाल) है। इसप्रकार गुणकारोका प्रमाण कहा, उसका स्पष्टीकरण करते हैं-अंकसदष्टि में जैसे लोभकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टि में जो अनुभाग पाया जाता है, उससे दुगुणा द्वितीयकृष्टि में तथा उससे चारगुणा तृतीयकृष्टिमें, उससे आठगुणा अन्तिमकृष्टि में पाया जाता है । इससे ३२ गुणित बादाल गुणा (३२ x बादाल) लोभकषायकी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०६-११०] क्षपणासार [ १०५ द्वितीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी प्रथमकृष्टि मे अनुभाग है। यहांसे पहले अन्य प्रकार गुणकार था अतः वहां पर्यन्त प्रथमसंग्ग्रहकृष्टिकी ही कृष्टियां हैं । यहा अन्य प्रकार गुणकार हुआ इसलिए यहांसे आगे द्वितीयसंग्रहकृष्टि कही इसीप्रकार अन्तपर्यन्त विधान जानना । इसीप्रकार (अंकसंदष्टि कथनके समान) यथार्थ कथन (अर्थसंदृष्टि रूप कथन) भी जानना, किन्तु (२) के स्थानपर अनन्त और संग्रहकृष्टियों में जो चार अन्तरकृष्टियां कही उसके स्थानपर अनन्त अनन्त र कृष्टि यां जानना । इसप्रकार अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा कृष्टियोंका कथन किया। 'लोहस्स अवरकिहिगदव्यादो कोधजेकि हिस्स । दव्वोत्ति य हीणकम देदि अणंतेण भागेण ॥१०॥५००॥ लोहस्स अवरकिट्टिगदव्वादो कोधजेट्ठकिटिस्स । दव्वं तु होदि हीणं असंखभागेण जोगेण ॥११०॥जुम्म।।५०१॥ अर्थ-लोभकषायकी जघन्यकृष्टिसे लेकर क्रोधकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त द्रव्य अनन्तवेंभागहीन क्रमसे दिया जाता है तथा लोभकषायकी जघन्यकृष्टिके द्रव्यसे क्रोधकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिका द्रव्य अनन्तवैभागहीन है। . . विशेषार्थ-प्रथमसमयवर्ती कृष्टिकारक पूर्व-अपूर्वस्पर्शकोंसे असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नका अपकर्षणकरके पुनः समस्त अपकर्षितद्रव्यके असंख्यातवेभाग द्रव्यको कृष्टियों-. में विक्षिप्त करता है । इसप्रकार निक्षिप्तमान लोभकषायकी जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्न-. को देता है । द्वितीयकृष्टि में एकवर्गणा विशेष (चय) से हीन द्रव्य देता है तथा इससे आगे-आगेकी उपरितन कृष्टि योमे यथाक्रमसे अनन्तवांभागविशेष (चय) से हीन द्रव्य क्रोधकषायकी उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त देता है । इस विधानसे अन्तरोपनिधाकी अपेक्षा एकएकवर्गणा विशेषसे हीन द्रव्य उपरिम सर्व कृष्टियोमे सर्वोत्कृष्ट अर्थात् क्रोधकषायकी चरमकृष्टिपर्यन्त देता है, किन्तु संग्रहकृष्टियोकी अन्तरालवर्ती कृष्टियोंको उल्लंघ जाता है, क्योंकि इस अध्वानमे एक अन्तरसे दूसरे अन्तरमें 'अनन्तवेंभागसे हीन' अन्य कोई १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८०१ सूत्र ६४३ से ६४७ तक । २. "हीणं असखभागेण" इत्यस्य स्थाने "हीरामणंतभागेण" इति पाठो (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०१ सूत्र ६४८) । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाया १११-११२ १०६] पर्याय असम्भव है । परम्परोपनियाकी अपेक्षा लोभकषायकी जघन्यकृष्टिसे क्रोधकषायकी उत्कृष्टसम्बन्धी प्रदेशाग्न अनन्तवेंभागसे विशेषहीन हैं, क्योकि कृष्टिअध्वान एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तरके अनन्तवेंभागप्रमाण है और एकक्रम कृष्टि अध्वानप्रमाण वर्गणा. विशेषसे हीन समस्त. द्रव्य है। . पडिसमयमसंखगुणं कमेण उक्कहिदूण दव्वं खु । संगहहेटपासे अपुवकिट्टी करेदी हु ॥१११॥५०२।। हेट्टा असंखभागं फासे विस्थारदो असंखगुणं । मझिमखंडं उभयं दवविलेसे हवे फासे ॥११२॥जुम्म।।५ ०३।। अर्थ--प्रथमसमयसे द्वितीयादि समयोमें असख्यातगुणे क्रमयुक्त द्रव्यको अपकर्षणके द्वारा संग्रहकृष्टिके नीचे अथवा पार्श्व में अपूर्वकृष्टिको करता है । सग्रहकृष्टिके नीचे की हुई कृष्टियोंका प्रमाण. तो सर्वकृष्टियोके प्रमाणके असख्यातवेभागमात्र है तथा पार्श्वमें की हुई कृष्टियोका प्रमाण नीचे की हुई कृष्टियोंके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है । यहां पार्श्वमें की हुई कृष्टियोमें मध्यमखण्ड और उभयद्रव्य विशेष पाये जाते हैं । विशेषार्थ- कृष्टिकरणकालमें प्रतिसमयः अनन्तगुणी विशुद्धि बढते रहनेसे असंख्यातगुणे-असंख्यातगुणे द्रव्य का.अपकर्षणकरके संग्रहकृष्टियोके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है और पूर्वकृष्टियोथे द्रव्य देता है अर्थात् पार्श्वभागमें कृष्टियोंको, करता है। पूर्व-अपूर्वस्पर्शकोंसे. जितना द्रव्य प्रथम समय में अपकर्षण किया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्यको द्वितीयसमयमें अपकर्षणकरके प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके असख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षणकरके प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोके नीचे अन्य अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है जो प्रथमसमयमें निर्वतितकृष्टियोके असंख्यातवेंभागमात्र है। प्रथमसमय में निर्वतित कृष्टियोमें तत्प्रायोग्य पल्यके असख्यातवेभागका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतनो अपूर्वकृष्टियां द्वितोयसमयमे होतो हैं । द्वितीयसमयमें जितना-द्रव्य अपकर्षित किया गया है उसके असंख्यातवेंभाग द्रव्यको आगमके अविरोधरूपसे पूर्वकृष्टियों में तथा पूर्व अपूर्वस्पर्धको देता है। इस प्रकार एक-एक संग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है । संज्वलनक्रोध के पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोसे प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके क्रोधकी १. जयघवल मूल पृष्ठ २०५७ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११३ - ११४] क्षपणासार [ १०७ तीन संग्रहकृष्टियोंके नीचे पूर्व कृष्टियोके असंख्यातवें भाग मात्र अपूर्वकृष्टियां द्वितीयसमयमें रची जाती हैं । इसीप्रकार संज्वलनमान - माया वे लोभकषायके अपने-अपने स्पर्धकोंसे प्रदेशाग्र अपकर्षित करके अपनी-अपनी संग्रहकृष्टियोके नीचे प्रथमसमय में रची गई कृष्टियों के असख्यातर्वेभागप्रमाण अपूर्वकृष्टियोंको द्वितीयसमय में रचता है । इसप्रकार १२ कृष्टियोके नीचे द्वितीयसमय में अपूर्वकृष्टियोंकी रचना की जाती है । पार्श्व में की हुई कृष्टियोंका प्रमाण पूर्वकृष्टियोंसे असख्यातगुणा है । यहां पार्श्वकृष्टियों में मध्यमखण्ड और उभयद्रव्यं विशेष है । मध्यमखण्ड और उभयद्रव्यके सम्बन्धमे लब्धिसारगाथा २८६-८७ देखना चाहिए । 'पुव्वादिहि अपुव्वा पुव्वादि पुव्वपढमगे सेसे । दिज्जदि प्रसंखभागेणं हियं अतभागूणं ॥ ११३ ॥ ५०४ ॥ वारेक्कारमतं पुवादि श्रपुवमादि सेसं तु । तेवीस ऊंटकूडा दिज्जे दिस्से अतभागूणं ॥ ११४॥ ५०५ ॥ अर्थ - पूर्वकृष्टि की अन्तिमकृष्टिसे पहले जो पुरातनकृष्टि है उसकी प्रथम - कृष्टिमें तो असंख्यातवें भाग घटता द्रव्य देता है तथा पूर्वकृष्टिकी अन्तिमकृष्टिसे द्वितीय सग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्व कृष्टिकी प्रथम कृष्टिमें असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्य देता है। एव अवशिष्ट सर्वकृष्टियों में पूर्वकृष्टिसे उत्तर कृष्टिमें अनन्तवां भागमात्र घटते हुए द्रव्य देता है । यहां पुरातन ( प्रथम ) कृष्टियाँ १२ और अपूर्व प्रथमकृष्टि ११ तथा अवशेष कृष्टियां अनन्त जानती । दृश्यमानमें लोभकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी नवीन (अपूर्व ) जघन्यकृष्टि से लेकर क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी पुरातन ( पूर्व ) अन्तिम - कृष्टिपर्यन्त अनन्तवें भागमात्र घटते हुए क्रमसे द्रव्य जानना चाहिए । विशेषार्थः - लोभकषायकी प्रथम संग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीयसमय में निर्वर्तमान लोभकी अपूर्वकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टिमें अन्य उपरिमकृष्टियों की अपेक्षा बहुत प्रदेशाप्र दिया जाता है अन्यथा कृष्टिगत प्रदेशो में पूर्वानुपूर्वी एक गोपुच्छ विशेषकी अवस्थित अनुवृत्ति सम्भव नही है । द्वितीयकुष्टि में विशेषहीन अर्थात् अनन्तवेभागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । यहां अनन्त में भागका प्रमाण एकवर्गणा-विशेष के प्रमाणके बराबर है अतः १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०१ से ८०३ तक सूत्र ६५३ से ६७२ तक । घ० पु० ६ पृष्ठ ३८० ॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] [ गाथा ११४ प्रथमकृष्टिमें दिये जाने वाले प्रदेशाग्रोंसे द्वितीयकृष्टि में निसिच्यमाण प्रदेशाग्र एकवर्गणाविशेष होन होते हैं । इसप्रकार तदनन्तर प्रतिकृषि अनन्तवें भागहीन अर्थात् एकवर्गणाविशेषहोन द्रव्य तबतक दिया जाता है जबतक प्रथम संग्रहकृष्टि के नीचे द्वितीयसमय में निर्तमान पूर्वकृष्टियोंको अन्तिमकृष्टि प्राप्त होती है । उससे असख्यातवें भागरूप विशेषहीन द्रव्य प्रथमसमय में निर्तित लोभकषायको प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तर कृष्टियों मैसे जघन्यष्टि में दिया जाता है । प्रथमसमय में कृष्टियों में दिये गये प्रदेशपिण्डको अपेक्षा द्वितीयममय मे समस्त कृष्टियों में निसिच्यमाण सकलप्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है, क्योकि अनन्तगुणो विशुद्धि के द्वारा इसका अपकर्षण हुआ है । इसलिए प्रथमसमयको जवन्यकृष्टि में पूर्व अवस्थित प्रदेशपुञ्जकी अपेक्षा द्वितीयसमय में निर्वर्तमान अपूर्व चरम कृष्टिमें निःसिक्त प्रदेशाग्र असंख्यातगुणे अधिक होते हैं । अतः असंख्यातवेभागहीन द्रव्य देने से अपूर्वचरम कृष्टि के प्रदेशपुञ्जकी अपेक्षा पूर्व जघन्यकृष्टिमें दृश्यमान ( पूर्व और निःसिंचित ) द्रव्य एकगोपुच्छविशेषसे होन हो जाता है । अन्य सधिविशेषों में जहा जहां असंख्यातवें भागहीन द्रव्य देनेका कथन हो वहां भी इसीप्रकार जानना चाहिए । प्रथम संग्रहकृष्टिमे अनन्तभागसे हीन प्रदेशान दिया जाता है उसके आगे प्रथमसमयमे निर्वर्तित लोभकपाय की प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियों में अनन्तर - अनन्तररूपसे प्रथमसग्रहकृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । प्रयमसमयमे ही निर्वर्तित लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीयसमय में रची गई अपूर्वकृप्टियोको पंक्ति है । उन द्वितीयसमय में निर्वर्तित अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में दोयमान प्रदेशाग्र (प्रथम संग्रहकृष्टिकी चरम कृष्टिमे निःसिक्त प्रदेशाग्रको अपेक्षा ) लसंख्यातवेंभागते विशेष अधिक हैं । इसप्रकार द्रश्य देने से पूर्व प्रथमसग्रहकृष्टिकी चरमकुष्टिको अपेक्षा इस अपूर्व द्वितीय संग्रहकृष्टिकी जघन्यकृष्टिमें प्रदेशपुञ्ज एकवर्गणा ( गोपुच्छ) विशेषसे हीन होते हैं । मागे जहां-जहां भो पूर्वचरम कृष्टिसे अपूर्वजघन्यकृष्टिमे नसल्यातर्वे भागअधिक द्रव्य देवेका कथन हो वहां इसीप्रकार जानना चाहिए | उसके आगे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नीचे निर्वर्तमान अपूर्वकृष्टियोंकी अन्तिमकूष्टिपर्यन्त अनन्तनागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे प्रथमसमय में निर्वर्तित पूर्वद्वितीय संग्रहकृष्टियोको जघन्यकृष्टिमे असंख्यातर्वेभागप्रमाण विशेषहीन प्रदेशान दिया जाना है । इससे धागे द्वितीयपूर्वकृष्टिको अन्तिमकृष्टितक अनन्तवेंभाग से विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। तत्पश्चात् द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे जैसी विधि बतलाई गई है वैसी ही विवि क्षपणासार Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११४ ] क्षपणासार [१०६ तृतीयसंग्रहकृष्टि में भी जाननी चाहिए। जिसप्रकार द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी आदिमे अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में एकबार असंख्यातवेंभागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका विन्यास होकर पश्चात् अपूर्वकृष्टिके अन्तपर्यन्त अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं । अपूर्वकृष्टियोंको उलंघकर पूर्वकृष्टियोंकी आदिकृष्टि में असंख्यातवेंभागहीन द्रव्य दिया जाकर अनन्तरकृष्टियों में अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं ऐसा प्ररुपण किया गया है उसीप्रकार लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नोचे अन्तरकृष्टियों में भी होनाधिक प्रदेशान देनेका कथन करना चाहिए। तदनन्तर लोभकषायकी अन्तिमकृष्टिसे मायाकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके नीचे द्वितीयसमयमें निवर्तमान अपूर्वकृष्टियोमें जो जघन्यकृष्टि है उसमें असंख्यातवेभागसे विशेषअधिक प्रदेशाग्न दिया जाता है । इसप्रकार उपर्युक्त क्रमसे जहां-जहां पूर्वकृष्टियों की अन्तिमकृष्टिसे अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवेभागसे विशेषअधिक प्रदेशान दिया जाता है और जहां-जहां अपर्वकृष्टियोंको अन्तिमकृष्टि से पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि कही गई है वहां-वहां असंख्यातवेंभागसे हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इसक्रमसे द्वितीयसमयमें निक्षिप्यमाण प्रदेशाग्रका बारहकृष्टि स्थानोमें असंख्यातāभागसे हीन दीयमान प्रदेशाप्रका अवस्थान है, क्योंकि बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्वकृष्टियोंकी रचना हुई है इसलिए बारह अपूर्वकृष्टियोकी चरमकृष्टि से बारह पूर्वसंग्रहकृष्टियोकी जघन्यकृष्टियों में असंख्यातवेभागसे हीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, किन्तु असंख्यातवेभागसे अधिक प्रदेशाग्र ग्यारहकृष्टिस्थानो में दिया जाता है, क्योंकि लोभकी प्रथमपूर्वसंग्रहकृष्टिके नीचे जो अपूर्वकृष्टियोंकी रचना हुई है उन अपूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिस्थानमें पूर्वसग्रहकृष्टिकी अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी संधिका अभाव होनेसे अपूर्वकृष्टियोंकी जवन्यकृष्टि और पूर्वसंग्रहकृष्टियोंकी अन्तिमकृष्टिसम्बन्धी सन्धि ११ स्थानोमें होती है। शेषकृष्टिस्थानोंमे दीयमान प्रदेशाग्रका अनन्तवेभागसे हीन अवस्थान है । इसप्रकार द्वितीयसमय में दीयमान प्रदेशाग्रकी यह उष्ट्रकूटश्रेणि है अर्थात् ( जिसप्रकार ऊंटको पोठ पिछलेभागमें पहले ऊंची होती है पुनः मध्यमें नीची होती है और फिर आगे नीची-ऊंची होती है, उसीप्रकार यहा प्रदेशाग्र भी आदिमें बहुत होकर फिर स्तोक रह जाता है पुनः सन्धिविशेषों में अधिक और हीन होता जाता है इसीकारण यहापर होनेवाली प्रदेशश्रेणीकी रचनाको उष्ट्रकूटश्रेणी कहा है )। द्वितीयसमयमें जो प्रदेशाग्न दिखता है Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] क्षपणासार [गार्थी ११५.११७ वह जघन्यकृष्टिमें बहुत है और शेष सर्वकृष्टियोंमें अनन्तरोपनिधासे अनन्तभागहीन है। जिसप्रकार द्वितीयसमयमें कृष्टियोमें दीयमान प्रदेशाग्रकी प्ररुपणा की है उसीप्रकार सम्पूर्णकृष्टिकरणकालमे दीयमान प्रदेशाग्रके २३ उष्ट्रकूटोंकी प्ररुपणा करना चाहिए, किन्तु दृश्यमान प्रदेशाग्न सर्वकालमें अनन्तभागहीन जानना चाहिए । जो प्रदेशाग्न सामस्त्यरूपसे प्रथमसमयमे कृष्टियोमें दिया जाता है वह सबसे अल्प है, उससे द्वितीयसमयमें कृष्टियों में दिया जानेवाला प्रदेशाग्न असख्यातगुणा है, इससे तृतीयसमयमे कृष्टियोमें दिया जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है । विशुद्धि में प्रतिसमय अनन्तगुणीवृद्धि होनेके कारण सर्वकृष्टिकरणकाल में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा-असख्यातगुणा प्रदेशाग्र अपकर्षणकरके कृष्टियोंमें निक्षिप्त किया जाता है'। किट्टीकरणद्धाए चरिमे अंतोमुहुत्तसुज्जुत्तो । चत्तारि होति मासा संजलणाणं तु ठिदिबंधो ॥११५॥५०६।। सेसाणं वस्साणं संखेज्जसहस्सगाणि ठिदिबंधो। मोहस्स य ठिदिसंतं अडवस्संतोमुहुत्तहियं ॥११६॥५०७॥ घादितियाणं संखं वस्ससहस्साणि होदि ठिदिसंतं । वस्साणमसंखेजसहस्साणि अघादितिगणं तु॥११७॥ कु.॥५०८॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें अन्तर्मुहूर्तअधिक चारमासप्रमाण संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध है। यह स्थितिबन्ध अपूर्वस्पर्षककरणकालके चरमसमयमें आठवर्षप्रमाण था सो एक-एक स्थितिबन्धापसरणमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण घटकर इतना अवशेष रहता है । शेष कर्मोका-स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षमात्र है, पूर्व में भी संख्यातहजारवर्षमात्र ही था सो सख्यात गुणेहीन क्रमरूप संख्यातहजार स्थितिवन्धापसरण हो जानेपर भी आलापसे इतना ही कहा है तथा मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व पहले सख्यातहजारवर्षप्रमाण था सो घटकरके यहां अन्तमुहर्तअधिक आठ १. जयघवल मूल पृष्ठ २०५६ से २०६४ तक । २. इन गाथामोसे सम्बन्धित विषय क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०३-४ सूत्र ६७३ से ६७७ तक आया है। धवल पु०६ पृ० ३८० । जयघवल मूल पष्ठ २०६४ । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११८-११६ ] क्षपणासार [१११ वर्षमात्र रह गया। तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय) कर्मोका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है, क्योंकि जिसप्रकार मोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्वका विशेष घात होता है वैसा विशेषघात शेष तीन घातियाकर्मोका नहीं पाया जाता है। तीनअघातियाकर्मोंका सत्त्व यद्यपि असंख्यातगुणहानियों द्वारा अपवर्तनघात होता हैं तथापि उनका स्थितिसत्त्व यहां असंख्यातहजारवर्षप्रमाण ही है। पडिपदमणंतगुणिदा किट्टीयो फड्डया विसेसंहिया । किट्टीण फड्ढयाणं लक्षणमणुभागमासेज ॥११८५०६॥ अर्थ-यहां सर्वकृष्टियां तो प्रतिपद अनन्तगुणा अनुभाग लीये हैं अर्थात् प्रथमकृष्टि के अनुभागसे द्वितीयकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तृतीयकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है । इसप्रकार चरमकृष्टि' पर्यन्त क्रमसे अनन्तगुणा अनुभाग पाया जाता है तथा जो स्पर्धक हैं वे प्रतिपद विशेषअधिक अनुभाग लोए हैं। अर्थात् स्पर्धकोंकी प्रथमवर्गणासे द्वितीयवर्गणामें और द्वितीयवर्गणासे तृतीयवर्गणोंमें, इसप्रकार अनन्तवर्गणा पर्यन्त क्रमसे विशेषअधिक अनुभाग पाया जाता है । इसप्रकार अनुभागका आश्रयकरके कृष्टि और स्पर्धकोंका लक्षण कहा । द्रव्यको अपेक्षा तो चये घटेंता क्रम कृष्टि और स्पर्धक इन दोनों में ही है। किन्तु अनुभाग क्रमको अपेक्षा कृष्टि और स्पर्धकका लक्षण पृथक्-पृथक् है। 'पुवापुवप्फड्डयमणुहदि हुकिट्टिकारो णियमा । तस्सद्धा णिट्ठायदि पढमढिदि आवलीसेसे ॥११६॥५१०॥ अर्थ-कृष्टि करनेवाला कृष्टिकरणकालमें पूर्व-अपूर्वस्पर्धकोके उदयको नियमसे अनुभवता है । जैसे अपूर्वस्पर्धकोको करते हुए पूर्वस्पर्धकके साथ अपूर्वस्पर्धकका अनुभव करता है वैसे 'कृष्टि करते हुए कृष्टिको नही भोगता है। इसप्रकार सज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थिति में उच्छिष्टावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर कृष्टिकरणकालकी निष्ठापना (समाप्ति) करता है । यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे है। ॥इति कृष्टिकरणाधिकारः ॥ १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३८२। जयधवल मूल पृष्ठ २०६५। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रथ- कृष्टिवेदनाधिकार" . 'से काले किट्टीओ अणुहवदि हु चारिमासमडवस्सं । बंधो, संतं मोहे पुवालावं तु सेसाणं ॥१२०॥५.११॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके अनन्तरसमयमें अपने कृष्टिवेदककालमें कृष्टियों के उदयका अनुभव करता है। द्वितीयस्थितिके निषेको में रहती हुई कृष्टियोंको अपकर्षणकरके प्रथम स्थितिमे उदयावलिके निषेकोमें प्राप्त करके भोगता है और उस भोगनेका नाम ही वेदना है । उससमय प्रथमस्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है, किन्तु आवलिका प्रथमनिषेक स्तुविकसंक्रमण द्वारा कृष्टिरूपसे उदयमं आता है। उसकाल (उदयकाल) के प्रथमसमयमै चारसज्वलनरूप मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहुर्तअधिक चारमासको घटकर चारसास हो जाता है और स्थितिसत्त्व आठवर्षमान है। यह स्थितिसत्त्व पहले अन्तर्मुहूर्तअधिक आठवर्ष था सो अन्तर्मुहूर्त कमकरके इतना रह गया । अवशेष कर्मोंका भी स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व यद्यपि कम हुआ है तथापि आलापद्वारा पूर्वोक्तप्रकार तीनघातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष एव वेदनीय, नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध संख्यात हजारवर्ष और स्थितिसत्त्व असख्यातहजारवर्ष जिसप्रकार कृष्टिकरणकालके अन्तिमसमयमें कहा था वैसे ही यहां भी जानता ।। 'ताहे कोहुच्छि8 सव्वं घादी हु देसघादी हु । दोसमऊणदुअआवलिणवकं ते फड्ढयगदाओ ॥१२१॥५१२॥ अर्थ-संज्वलनक्रोधका जो अनुभागसत्त्व उदयावलिके भीतर उच्छिष्टावलिरूपसे अवशिष्ट अवस्थित है वह सत्त्व सर्वघाति है और संज्वलनचतुष्कके जो दोसमय१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७६ से ६८५ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३८३ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६-६८७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८३ । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२२ ] क्षपणासार [११३ कम दोआवलि प्रमाण नवक्समयप्रबद्ध हैं वे देशघाति हैं तथा उनका वह अनुभागसत्त्व स्पर्धकस्वरूप है। विशेषार्थ-त्रोधक षायवी उच्छिष्टावलिका अनुभागसत्त्व तो सर्वघाती है, क्योकि एक समयकम आवलिप्रमाण क्रोधके निषेक उदयावलिको प्राप्त हुए हैं। इनमें पूर्वअनुभागसत्त्व लता व दारुके समान शक्तिवाला है सो इसी शक्तिकी अपेक्षा यहां सर्वघाती कहा है । शैलादि की समानताको अपेक्षा सर्वघाती नहीं कहा गया है सो ये निषेक उदयकाल मे कृष्टिरूप परिणमन करके वर्तमानसमयमे उदय पाने योग्य निषेकोंमें उदय रूपहोकर निर्जराको प्राप्त होते हैं। यहा आवलिमे एकसमयकम कहा है वह इसलिए कहा है कि उच्छिष्टावलिका प्रथम निषेक वर्तमानसमयमे कृष्टिरूप परिणमन करने से परमुखरूप होकर उदयमे आता है । सज्वलनचतुष्कके दोसमयकम दो प्रावलिमात्र अवशिष्ट नवकसमयप्रबद्धमे देशघाति शक्ति से युक्त अनुभाग है, क्योंकि कष्टिकरणकालमें स्पर्धकरूप शक्तिसे युक्त जो अनुभाग बधता है वह दोसमयकम दोआवलिकालमे कृष्टिरूप परिणमनकरके सत्तासे नाशको प्राप्त होगा। यहां अवशिष्ट रहे नवकबन्ध और क्रोधकषायकी उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेकोका स्वरूप तो इसप्रकार जानता कि कृष्टिकरणकालके चरमसमयमे ही ये सर्वनिषेक कृष्टिरूप परिणमन करते हैं। लोहादो कोहादो कारउ वेदउ हवे किट्टी । आदिमसंगहकिट्टी वेदयदि ण विदीय तिदियं च ॥१२२॥५१३॥ अर्थ-कृष्टिकारक तो लोभसे लेकर क्रमवाले हैं और कृष्टिवेदन क्रोधसे लेकर क्रमवाले हैं । यहा पहले क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका ही अनुभव करता है द्वितीयतृतीयसग्रहकृष्टि का अनुभव नहीं करता है । विशेषार्थ- कृष्टिकरणमे तो सर्वप्रथम लोभकी फिर मायाकी पश्चात् मानकी और बादमें क्रोधकी, इसक्रमसे कृष्टियां कही थीं, किन्तु यहां कृष्टिवेदनकालमें पहले क्रोधकी फिर मानकी पश्चात् मायाकी और बादमें लोभकी कृष्टियोंका अनुभव होता है । कृष्टिकरणमें जिसको तृतीयसग्रहकृष्टि कही है उसको कृष्टिवेदन के समय प्रथमकृष्टि और जिसको कृष्टिकरण में प्रथमकृष्टि कही है उसको कृष्टि वेदनमें तृतीयकष्टि १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६६ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासारा १,१४] (गाथा १२३ जानना । यदि इसप्रकार नहीं होगा तो पहले स्तोक शक्तिवाली कृष्टियोंका अनुभव होकर पश्चात् अधिक शक्तिवाली कृष्टियोका अनुभव होगा सो होता नही, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते हुए अनुभागका अनुभव होता है । इसलिए संग्रहकृष्टियोंमे कृष्टिकारकसे कृष्टिवेदकका उलटा क्रम जानना, किन्तु अन्तरकृष्टियोमे पूर्वोक्त कम ही है । 'किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य पढमसंगहादो दु । कोहस्स य पढमठिदी पत्तो उव्वटगो मोहे ॥१२३॥५१४॥ अर्थ--कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिसे क्रोधकी प्रथमस्थिति प्राप्त करता है तथा मोहनीयकर्मका अपवर्तनघात करता है । ki. विशेषार्थ-कृष्टिकरणकालके चरमसमयपर्यन्त तो जहां कृष्टियोके दृश्यमान प्रदेशोंका समूह चयरूप घटते हुए क्रमसहित गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थानमें रहता है और स्पर्धकोंके प्रदेशोंका समूह एक गोपुच्छाकाररूपसे अपने स्थानमे रहता है वहीं कृष्टियोके द्रव्यसे स्पर्धकोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है अत: कृष्टि और स्पर्धकोंका एक गोपुच्छाकार नहीं है, किन्तु कृष्टिकरणकालकी समाप्तिके अनन्तर सभी द्रव्य कृष्टिरूप परिणमनकर एक. गोपुच्छाकाररूप रहता है, तब सज्वलनके सर्वद्रव्यको आठका भाग देकर उसमें से एक-एक भागप्रमाण द्रव्य लोभ, माया और मानका तथा पांच भागप्रमाण द्रव्य क्रोधका जानवा । यदि १२ संग्रहकृष्टियोमें विभाग किया जावे तो सज्वलनके सर्वद्रव्यको २४का भाग देनेसे वहां अन्य संग्रहकृष्टियोका एक-एक भागप्रमाण और क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका १३ भागप्रमाण द्रव्य है । यहा साधिकपना न्यूनपना है सो यथासम्भव पूर्वोक्तप्रकार (गाथा १०५के अनुसार) जानना । पहले कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयमै जैसा विधान कहा वैसा ही यहां भी जानना। प्रथमसमयमें की गई कृष्टियोंके प्रमाणमैं उसके असख्यातवेंभागप्रमाण द्वितीयादि समयोंमें की गई कृष्टियोका प्रमाण जोड़नेपर सर्व पूर्व अपूर्वकृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भागदेकर लब्ध से एकभाग ग्रहणकर. उसको पल्यके असंख्यातवेभागका भाग देकर उसमेसे एकभागको १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६८६ । घ०,पु० ६ पृष्ठ ३८३ । जयघवल मूल पृष्ठ २०६७ । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १२४ ] [ ११५ प्रहणकरके प्रथमस्थितिको करता है। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदककालसे उच्छिष्टावलिमात्र अधिक उस प्रथमस्थितिके निषेकोका प्रमाण है और वही गुणश्रेणोआयाम भी कहा जाता है, उसके वर्तमानमें उदयरूप प्रथमनिषेकमें तो सबसे स्तोकद्रव्य देता है, उससे द्वितीयादि से चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकार उस एकभागप्रमाण द्रव्यका गुणश्रेणीरूपसे देना कहा । यहां प्रथमस्थिति के अन्तिमनिषेकको ही गुणश्रेणीशीर्ष कहते हैं। जो अवशेष बहुभागमात्र द्रव्य था उसको स्थितिकी अपेक्षा क्रोधकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकुष्टिसे भो अपकर्षित द्रव्यमें मिलानेपर जितना द्रव्य हुआ उसमें, यहां आठवर्षमात्र स्थिति है, उसकी संख्यातावलियां हुई और वही हुआ गच्छ, उस गच्छका भाग देनेसे मध्यधन प्राप्त होता है। उस मध्यधनमें एककम गच्छके माधेप्रमाण चय मिलानेपर द्वितीयस्थिति के प्रथमनिषेकमें दिये हुए द्रव्य का प्रमाण होता है, यह द्रव्य गुणश्रेणिशीर्षमै दिये गए द्रव्यसे असंख्यातगुणा है सो इसके असंख्यातवेंभागमात्र विशेषका (चयका) प्रमाण है अतः इस विशेषरूप घटते क्रमसे द्वितीयादि निषेकोंमें अतिस्थापनावलिके नीचे-नीचे द्रव्य दिया जाता है। इस क्रमसे प्रतिसमय उदयादि गलितावशेष गुणश्रेणि करता है। यहांपर मोहनीयकर्म का अपवर्तनघात होता है । इससे पूर्व अश्वकर्णकरणरूप अनुभागका अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होनेवाला काण्डकघात होता था, किन्तु अब संज्वलनकी बारहकृष्टियोंका प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ अतुभाग होनेसे अपवर्तनघात-प्रवर्तता है। 'पडमस्स संगहस्स य असंखभागा उदेदि कोहस्स । बंधेवि तहा चेव य माणतियाणं तहा बंधे ।।१२४॥५१५॥ अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंके प्रमाणको असंख्यातका भाग देवेपर उसमेंसे बहुभागमात्रकृष्टि उदयमें आती है । यहां जो बहुभागमात्र कहा गया है वह एकभागप्रमाण उपरितन व अघस्तन कृष्टिको छोड़कर मध्यवर्ती कृष्टियोंका प्रमाण है । प्रथम, द्वितीयादि कृष्टियोंको तो अघस्तव और चरम व उपांतआदि कृष्टियोंको उपरितवकृष्टि कहते हैं। उदयल्प नहीं होती ऐसी अधस्तन कृष्टि तो अनन्तगुणेरूपसे बढ़ते हुए अनुभागरूप होकर तथा उपरितन १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ व २०६८ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६६०-६१ । घ० पु०६ पृष्ठ ३८३। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा १२५-१२६ कृष्टि अनन्तंगुणेरूप घटते हुए अनुभागरूप होकर मध्यवर्तीकृष्टिरूप परिणमनकरके उदयमें आती हैं । बंधमे भो असख्यातभागप्रमाण अधस्तन व उपरितनकृष्टि छोडकर बीचको असंख्यातबहुभागप्रमाण कृष्टि जानता। उदयरूप कृष्टियोंमें जो उपरितन अनुदयकृष्टियोंका प्रमाण है उससे साधिक दुगुणे प्रमाणसहित अधस्तन व उपरितन कृष्टियोंका प्रमाण घटानेपर बन्धरूप कृष्टियों का प्रमाण होता है, इनका यहां वन्ध होता है। यहां मानादिको अपनी-अपनो प्रथमसग्रहकृष्टिकी अधस्तन व उपरितनकृष्टिप्रमाणका असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोको नीचे और ऊपर छोड़कर मध्यकी बहभागमात्र कृष्टि बघतो है, किन्तु मानादिको तीनो हो संग्रहकृष्टियोंका उदय नही है तथा क्रोधको द्वितीय व तृतीयसग्रहकृष्टिका बन्ध व उदय दोनो ही नहीं है। इसीप्रकार मान-माया व लोभका कथन भी जानना । 'कोहस्स पढमसंगहकि हिस्स य हेट्ठिमणुभयट्ठाणा । तत्तो उदयट्ठाणा उवरिं पुण अणुभयट्ठाणा ॥१२५॥५१६॥ उवरि उदयट्ठाणा चत्तारि पदाणि होति अहियकमा। मझे उभयट्ठाणा होति असंखेजसंगुणिया ॥१२६॥५१७॥ अर्थ-क्रोधको प्रथमसग्रहकृष्टिको, अन्तरकृष्टियोंमें अधस्तन अर्थात् प्रथम, द्वितीयादि अधस्तन अनुभयस्थानरूप (जिनका उदय और बन्ध दोनो ही नहीं हैं) अध स्तनकृष्टियोंका प्रमाण स्तोक है उसी (पूर्वोक्त अधस्तन अनुभयस्थानरूप कृष्टियोके प्रमाणको पल्यके असख्यातवेंभागका भाग देकर उसमेसे एकभागप्रमाण विशेषरूप अधिक मनुभयकृष्टियोके ऊपरितनवर्ती जो अधस्तन उदयस्थानरूप (जिनका उदय तो पाया जाता है बन्ध नही पाया जाता) कृष्टिका प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके असख्यातवेभागका भाग देने पर उसमे से एकभागप्रमाण विशेषसे अधिक उपरितन अर्थात् अन्त व उपान्तादि उपरितन अनुभयस्थानरूप (बन्ध व उदयरहित) कृष्टिका प्रमाण है पश्चात् उसीको पल्यके प्रसख्यातवेंभागका भागदेकर उसमे एकभागप्रमाण विशेषसे अधिक उन कृष्टियोंके नीचे पाये जानेवाले उपरितन उदयस्थानरूप (उदयसहित व बंधरहित) १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०५ सूत्र ६६३ से ६९७ । धवल पु० ६ पृ० ३८४ । जयधवल मूल पृष्ठ २०६८-२०६६। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १२७ ] [११७ कृष्टियोंका प्रमाण है इसप्रकार चारपद तो अधिकक्रमसहित हैं तथा उससे असंख्यातगुणे मध्यके उभयस्थानरूप (जिनका बन्ध व उदय दोनों पाये जाते हैं) कृष्टियोंका प्रमाण है'। क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में पायी जानेवाली कृष्टियोंके प्रमाणको पल्यके असख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें बहुभागमात्र तो मध्यकी उभयकृष्टियोका प्रमाण है तथा अवशेष जो एकभाग रहा उसको ["प्रक्षेपयोगोधृतमिश्रपिंडः" इत्यादि सूत्रविधानसे अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा २-३-४ व ७ शलाकाओंको जोड़नेपर (२+३+४+७) १६ लब्ध आया] इससे भाग देकर जो एकभागका प्रमाण आया उसको अपनी-अपनी दो आदि शलाकाओंसे गुणा करनेपर अधस्तन व उपरितन अनुभयमादि कृष्टियोंका प्रमाण प्राप्त होता है । इसप्रकार बारहसंग्रहकृष्टियों के वेदककालके प्रथमसमयमें अल्पबहुत्व जानना । विदियादिसु चउठाणा पुठिवल्लेहिं असंखगुणहीणा । तत्तो असंखगुणिदा उवरिमणुभया तदो उभया ।।१२७।५१८।। अर्थ-द्वितीयादि समयों में चारोंस्थान पूर्व से असंख्यातगुणे हीन हैं, उससे असंख्यातगुणे ऊपरितन अनुभयस्थान तथा उससे असख्यातगुणे उभयस्थान हैं । विशेषार्थः-पूर्वसंमयमें बन्धरहित जो अघस्तन केवल उदयकृष्टि थी वे तो उत्तरवर्ती समयमे उभयकृष्टिरूप होती हैं और पूर्वसमयमें जो अनुभयकृष्टि थीं उनमें अन्तकी कुछ कृष्टि उभयरूप एवं उनसे नोचेको कुछ कृष्टियां उत्तरसमयमें केवल उदयरूप होती हैं तथा पूर्वसमय में जो उपरितन केवल उदयकृष्टि थी वे सभी उत्तरसमयमें अनुभयरूप होती हैं। पूर्वसमयमें जो उभयकृष्टि थी उनमें अन्तिम कुछ कृष्टियां अनुभयरूप हैं उनसे नीचे की कुछ कृष्टियां उत्तरसमयमें केवल उदयरूप होती हैं। इसप्रकार प्रतिसमय बन्ध और उदयमे अनुभागका घटना होता है, क्योंकि अधस्तन कृष्टियों में स्तोक अनुभाग पाया जाता है और उपरितन कृष्टियोमें बहुत अनुभाग पाया जाता है। अब अल्पबहुत्वका कथन करते हैं ___ अधस्तन अनुभयकृष्टि स्तोक हैं, उससे उनके ऊपर जो अबस्तनरूप केवल उदयष्टि हैं वे विशेषअधिक हैं। इससे आगे ऊपर उत्कृष्ट अनुभागसहित पूर्वममयवर्ती १. जयधवल मूल पृष्ठ २०६८-२०६६ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ११] [गाथा १२८-१२६ बन्धरूप जो अन्तिमकृष्टि थी उससे लेकर नीचे उत्तरसमयमें जो अनुभयकृष्टि हुई हैं वे विशेषअधिक हैं। इनके नीचे विवक्षितसमय में होनेवाली केवल उदयरूपकृष्टि इससे विशेषअधिक हैं । इसप्रकार ये चारस्थान तो पूर्वसमयमे अधस्तन अनुभयआदिकृष्टिका जो प्रमाण था उससे असख्यातगुणे कम है। उदयकृष्टियोसे पूर्वसमयमे जो ऊपरको उदयकृष्टि थीं उनमें स्तोक अनुभागवाली जो आदिकी जघन्यकृष्टि थी उसीके समान कृष्टिसे लेकर उत्तरसमय में जो सर्व अनुभयकृष्टियां हुईवे असख्यातगुणी हैं, क्योंकि पूर्वसमयमें ऊपरकी अनुभयष्टियोका जो प्रमाण था उसके असंख्यातवेभागमात्र कृष्टि पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरकी जघन्य उदयकृष्टिसे नीचे उत्तरोत्तर समयमें ऊपरकी जघन्य अतुभयकृष्टि होती हैं । इससे पूर्वसमयसम्बन्धी ऊपरको उदयकृष्टियोके प्रमाणके असख्यात वेभागमात्र कष्टि नीचे उतरनेपर इस विवक्षितसमयमें ऊपरकी जघन्य उदयकृष्टि होती है । अनुभयकृष्टियोंके प्रमाणसे बंध व उदययुक्त मध्यवर्ती उभयकृष्टियो असख्यातगुणी हैं । इसप्रकार द्वितीयादि समयोमें कृष्टियोका अल्पबहुत्व जानवा । - पुश्विल्लबंधजेट्ठा हेट्ठासंखेनभागमोदरिय । संपडिगो चरिमोदयवरमवरं अणुभयाणं च ॥१२८॥५१६॥ अर्थ-पूर्वसमयसम्बन्धी बन्धकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टि से लेकर पूर्वसमयसम्बन्धी उभयकृष्टियोके असख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां नीचे उतरकर वर्तमानमें उत्तरसमयसम्बन्धी केवल उदयरूप अन्तिमकृष्टि उत्कृष्टकृष्टि होती है और इसके अनन्तर ऊपर अनुभवकृष्टिकी जघन्यकृष्टि पाई जाती है । उत्कृष्ट उदयकृष्टि से नीचे पूर्वसमयसम्बन्धी उदयकृष्टिके असख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर वर्तमानमें उदयकी जघन्यकृष्टि होती है, उसके अनन्तर नीचे उभयकृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्टकृष्टि होती है । ऐसा ही विधाव उपरिम कृष्टियोंमे भी जानना । हेट्ठिमणुभयवरादो असंखबहुभागमेचमोदरिय । संपडिबंधजहएणं उदयुक्कस्सं च होदित्ति ।।१२६॥५२०॥. अर्थ-पूर्वससयसंबंधी अनुभयकृष्टिकी उत्कृष्ट (चरम) कृष्टिसे पूर्वसमयसंबंधी अनुभयकृष्टियोके असंख्यातबहुभागप्रमाण कृष्टि नीचे उतरकर सप्रति बन्धकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है उसके अनन्तर नीचेकी केवल उदयरूप उदयकृष्टियोंकी उत्कृष्टकृष्टि है, उससे लेकर पूर्वसमयसम्बन्धी उदयकृष्टियोंके असंख्यातवेभागमात्र कृष्टि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३० ] क्षपणासार [११] नीचे उतरकर संप्रति उदयकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है । उसके नीचे पूर्व समय सम्बन्धी अनुभयकृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टिं नीचे उतरकर वर्तमान में जघन्यप्रनुभयकृष्टि होती है, वही सर्वकृष्टियों में जघन्यकृष्टि है । इसप्रकार अधस्तन कृष्टियों में विधान जानना | ऐसे प्रतिसमय पूर्व समयसम्बन्धी अघस्तन अनुभयरूप उदयकृष्टि और उपरितन उदय व अनुदयरूप कृष्टियोंके प्रमाणसे उत्तरसमयसम्बन्धी कृष्टियों का प्रमाण प्रसंख्यातगुणा कम है और मध्यवर्ती उभयकृष्टियोंका प्रमाण विशेषअधिक होता है ऐसा जानना । 'पडिसमयं अहिंगदिया उदये बंधे च होदि उक्कस्सं । बंधुदये च जहां अंतगुणहीणया किट्टी ॥ १३० ॥ ५२१ ॥ अर्थ - प्रतिसमय सर्पको गतिवत् उदय व बन्धमें तो उत्कृष्टकृष्टि तथा बन्ध व उदय में जघन्यकृष्टि अनुभाग अपेक्षा अनन्तगुणे घटते हुए क्रमसहित जाननी । विशेषार्थ - सर्व कृष्टियोके अनन्त मध्यवर्ती कृष्टिय उदयरूप हैं और उदयरूप कृष्टियोके मध्यवर्ति कृष्टियां बन्धरूप है । उनमे सबसे स्तोक अनुभागवाली प्रथमकृष्टि हो जघन्यकृष्टि है और सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिमकृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है । कृष्टिवेदककालके प्रथम समय में उदयसम्बन्धी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि बहुत अनुभागसहित है, उसी समय में बन्धकी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि उससे अनन्तगुणेकम अनुभागयुक्त है, क्योंकि उदयागत कृष्टि से अनन्तकृष्टि नीचे जाकर बन्धकृष्टिका अवस्थान है | उससे द्वितीयसमयमें उदयकी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभाग वाली है, क्योंकि प्रथमसमयसे द्वितीयसमय में विशुद्धि अनन्तगुणी है । उससे द्वितीय समय में हो बन्धकी उपरितन उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागसहित है, उससे तृतीयसमयवर्ती उदय सम्बन्धी उत्कृष्टकृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागयुक्त है, उससे उसी समयवाली वधकी उत्कृष्टकृष्टि अचन्तगुणेहीन अनुभागसहित है । इसप्रकार सर्पगतिवत् (जैसे सर्प इधर से उधर और उधर से इधर गमन करता है) विवक्षित समय में उदयकी कृष्टि से बन्धको कृष्टि और पूर्व समयसम्बन्धी बन्धकृष्टिसे उत्तरसमयवाली उदयकृष्टिमें प्रनन्तगुणाहीन अनुभाग क्रमसे जानना । कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमे व्यवस्तन बन्धमम्वन्धी जघन्यकृष्ट बहुत अनुभागयुक्त है, क्योकि जघन्य उदयकृष्टि से अनन्तकृष्टि ऊपर जाकर १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५० सूत्र १०७२-१०८२ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३८४ । जवववल मूल पृष्ठ २१६६ व २१६७ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ गाथा १३१ इसका अवस्थान है । उससे प्रथमसमयवर्ती ही अघस्तन जघन्य उदय कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागवाली है । इसप्रकार सर्पगतिवत् एकसमयमे बन्धकृष्टिसे उदयकृष्टि और पूर्व - समयसम्वन्धी उदयकृष्टिसे उत्तरसमयवर्ती बन्धकी जघन्यकृष्टिमे अनन्तगुणा- अनन्तगुणाहीन अनुभाग जानता । इसप्रकार क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककालके चरमसमयपर्यंत ऐसी ही प्ररूपणा है । क्रोधकी ही द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदकके भी ऐसा क्रम लगा लेना चाहिए | द 4. अधस्तन क्षपणासार वन्धरूप कृष्टियां • उदयरूप कृष्टियां -- कृष्टि अध्वान उपरितन अव संक्रमणद्रव्यका विधान कहते हैं संकमदि संगहाणं दव्वं सगहेट्ठिमस्स पढमोति । तददये संखगुणं इदरेसु हवे जहाजोग्गं ॥ १३१ ॥ ५२२ अर्थ-विवक्षित स्वकीयकषायके अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथम सग्रह कृष्टिपर्यंत संग्रहकृष्टियों का द्रव्य संक्रमण करता है । यहा जिस संग्रहकृष्टिको भोगता है उस संग्रहकृष्टि के अपकर्षित द्रव्य से संख्यातगुणा द्रव्य उस कृष्टिके अनन्तर भोगने योग्य जो संग्रहकृष्टि है उसमे संक्रमित होता है तथा अन्यकृष्टियो में यथायोग्य सक्रमण करता है । विशेषार्थ - यदि स्वस्थानमें विवक्षित कषायकी संग्रहकृष्टिका द्रव्य अन्यसंग्रहकृष्टिमें सक्रमण करता है तो उस विवक्षित कषायकी शेष अधस्तन कृष्टियों में सक्रमण करता है, यदि परस्थान संक्रमण होता है तो निकटतम कषायकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमण करेगा और जो द्रव्य जिस कषाय में संक्रमण करता है वह उसी कषायरूप परिणमन कर जाता है । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३१] क्षपणासार [१२१ जिसप्रकार लोकव्यवहार में जमा-खरच कहा जाता है उसी प्रकार यहीं भी आयद्रव्य और व्यय द्रव्य रूप कथन करते हैं । अन्य संग्रहकृष्टियोंका द्रव्य संक्रमण करके विवक्षित संग्रहकष्टि में आया (प्राप्त हुआ) उसे आयद्रव्य और विवक्षित संग्रहकृष्टिका द्रव्य संक्रमण करके अन्यसंग्रहकृष्टियोमें गया उसे व्ययद्रव्य कहते हैं। यहां क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिबिना अन्य ११ संग्रहकृष्टियोके स्वकीय-स्वकीय द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देनेपर लब्धमें से एकभागप्रमाण द्रव्य संक्रमण करता है अत: उसे 'एकद्रव्य' कहते हैं तथा क्रोधकी प्रथमस ग्रह कृष्टि के द्रव्यको अपकर्षणभागहारका भाग देते. पर लब्धमे से जो एकभागप्रमाण द्रव्य सक्रमण करता है वह 'तेरह द्रव्य' है, क्योंकि अन्यसग्रहकष्टिके द्रव्य से क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिका द्रव्य नोकषायका द्रव्य मिल जानेसे से १३ गुणा है। लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में लोभकी प्रथमसग्रहकष्टि और द्वितीयसंग्रहकष्टि का अपकर्षित द्रव्य सक्रमण करता है इसलिए लोभकी तृतीयसग्रहकृष्टि में आयद्रव्य दो हुआ। लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टि में लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका अपकर्षितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिए द्वितीयसग्रहकृष्टि में आयद्रव्य एक है तथा लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में मायाकी प्रथम-द्वितीय व तृतीयसग्रहकृष्टि का अपकर्षित द्रव्य संक्रमण करता है अतः लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में आयद्रव्य तीन है । मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमें मायाको द्वितीय व प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकर्षितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिये मायाकी तृतीयसंग्रहकष्टिमे आय द्रव्य दो है। मायाकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमें मायाकी प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकर्षित द्रव्य संक्रमण करता है इसलिए मायाको द्वितीयसंग्रहकृष्टिमें आयद्रव्य एक है तथा मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें मानकी प्रथम, द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टिका अपकर्षितद्रव्य सक्रमित होता है अतः मायाकी प्रथमसंग्रहकष्टिमें आयद्रव्य तीन हैं । मानकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में मानकी द्वितीय व प्रथमसंग्रहकष्टिका अपकषितद्रव्य संक्रमित होता है इसलिए मानकी तृतीयसंग्रहकृप्टिमें आयद्रव्य दो है, मानकी द्वितीयसग्रहकष्टि में मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका ही अपकषितद्रव्य संक्रमण करता है इसलिए मानकी द्वितीयसग्रहकष्टिमें आयद्रव्य एक है तथा मानकी प्रथमसंग्रह कृष्टिमें क्रोधकी प्रथम-द्वितीय व तृतीयसग्रहकृष्टिके अपकर्षित द्रव्यका सक्रमण होता है इसलिए मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे आय द्रव्य १५ है । क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि मे क्रोधकी प्रथम व द्वितीयसंग्रहकष्टिका अपकर्षितद्रव्य सक्रमण करता है अतः क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृप्टि. में आय द्रव्य १४ है, क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि ये क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिका अपकपित Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२.२- ) [गाथा १३१ द्रव्य १३ है इसलिए १४ गुणा संक्रमण होता है अतः कोषको द्वितीय संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य १८२ है । यहां १४ गुणा करनेका प्रयोजन कहते है क्षपणासार अनन्तर भोगने योग्य संग्रहकृष्टि में संख्यातगुणे द्रव्यका संक्रमण होता है वह यहां संख्यात के प्रमाण अपने गुणकारसे एक अधिक जानना । यही क्रोध की प्रथम संग्रहafrat और उसके पश्चात् क्रोधको द्वितोयसंग्रहकृष्टिको भोगता है इसलिये क्रोध की प्रथमसग्रहकृष्टि के अपकर्षितद्रव्यसे संख्यातगुणा द्रव्य द्वितीयसग्रहकृष्टिमें संक्रमित होता है । प्रथम संग्रहकृष्टिद्रव्यमे गुणकार १३ है अतः उससे एक अधिक ( १३+१) करनेपर यहां संख्यातका प्रमाण १४ होगा (१३४१४ - १८२ ) । अन्यसंग्रहकृष्टि के वेदककाल में संख्यातका प्रमाण अन्य होगा, उसे आगे कहेंगे । क्रोधको प्रथम संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य वही है, क्योंकि वहां अनुपूर्वी संक्रमण पाया जाता है । इसप्रकार आयद्रव्यका कथन करके, अब व्ययद्रव्यको कहते हैं tant प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य कोषको द्वितीय, तृतीय व मानकी प्रथम - संग्रहकृष्टिमें संक्रमण कर गया अतः (१८२+१३+१३) क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका व्ययद्रव्य २०८ - हुमा, कोषको द्वितीय संग्रहकृषिका द्रव्य 'क्रोधकी तृतीय व मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमणकर गया इसलिए क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका व्ययद्रव्य दो है तथा कोष की तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य-मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे ही संक्रमणकर गया अतः कोध की तृतीयसंग्रहकृष्टि में व्ययद्रव्य एक ही है । मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य मनको द्वितीय, तृतीय व मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमणकर गया इसलिए मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका' व्ययद्रव्य तीन है, मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी तृतीय व मायाको प्रथम संग्रहकृष्टिमे संक्रमणकर गया अतः मानको द्वितीय - द्वितीय संग्रहकृष्टि में व्ययद्रव्य दो है। मानकी तृतीय संग्रह कृष्टिका द्रव्य मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें ही संक्रमणकर गया अतः मानकी तृतीय संग्रहकुष्टि में व्ययद्रव्य एक है । मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य द्वितीय, तृतीय व लोभको प्रथम संग्रहकृष्टिमें संक्रमणकर गया इसलिए मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे व्ययद्रव्य तोन है, मायाको द्वितीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाकी तृतीय और लोभको प्रथम सग्रहकृष्टिमें सक्रमित हुआ अतः मायाकी द्वितीय संग्रहकुष्टिमे व्ययद्रव्य दो है । मायाको तृतीय संग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभको प्रथम संग्रहकृष्टि में ही संक्रमित हुआ इसलिए यहां व्ययद्रव्य एक हो है । लोभकी प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीय संग्रहकृष्टि मैं गया इसलिए लोभको प्रथम संग्रहकृष्टिका व्ययद्रव्य दो है, 1 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३२-१३३] -"क्षेपणासार १३३ लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य लोभकी तृतीयसंग्रह कृष्टि में संत्रमित हो गया इसलिए 'लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि में व्यय द्रव्य एक है तथा लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य अन्यत्र नहीं जाता है क्योंकि विपरीतरूप संक्रमणको अभाव है 'अतः लोभ की तृतीय- सग्रहकृष्टि में व्ययद्रव्य नहीं है।। आगे प्रतिसमय होनेवाली अपवर्तनकी प्रवृत्तिका क्रम कहते हैं 'पडिसमयमसंखेजदिभागं णासे दि कंडयेण विणा । ... बारससंगह किट्टीणग्गादो कि हिवेदगो णियमा ॥१३२।५२३॥ अर्थ-कृष्टि वेदकजीव काण्डकबिना ही बारहसनहकृष्टियोके अग्रभागसे सर्वकृष्टियोके असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियोको नियमसे नष्ट करता है ।... . विशेषार्थ-अनन्तगुणीविशुद्धिसे वर्धमान प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकजीव बारहसंग्रहकृष्टियोकी प्रत्येक सग्रहकृष्टि के अग्रभागसे उत्कृष्ट कृष्टिको आदि करके अनंतकृष्टियोके असख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंका अपवर्तनाघात करके उन कृष्टियोंकी अनुभागशक्तिका अपवर्तनकर स्तोकअनुभागयुक्त नीचली कृष्टिरूप करता है। इसीप्रकार "द्वितीयादि समयो में भी अपवर्तनाघात करता है, किन्तु प्रथमसमयमे जितनी कृष्टियोंका घात किया था द्वितीयादि समयोंमें घात की जानेवाली कृष्टियों का प्रमाण उत्तरोत्तर असंख्यातगुणाहीन होता है। णासेदि परट्टाणिय, गोउच्छं अग्गकिट्टीघादादो । सट्टाणियगोउच्छं, संकमदव्वादु घादेदि ॥१३३।।५२४॥ अर्थ-अनकृष्टिघातके द्वारा तो परस्थानगोपुच्छको नष्ट करता है और संक्र मद्रव्यरूप (अन्यसग्रहरूप) पूर्वोक्त व्ययद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छको नष्ट करता है । विशेषार्थ--विवक्षित एक्संग्रहकृष्टिमे अन्तरकृष्टियोका जो विशेषहीन क्रम पाया जाता है वह यहां स्वस्थानगोपुच्छ कहलाता है तथा अधस्तनवर्ती विवक्षित संग्रह१. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८८ । जय ध० मूल पृष्ठ २१६८ । मुद्रित शास्त्राकार बडी टीका में गाथामे "पडिसमयं सखेज्जदिभार्ग" ऐसा पाठ मुद्रित है, किन्तु क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८८ व गाथा ५३६ के अनुसार एवं गाथामे कथित अर्थानुसार "पडिसमयमसखेज्जदिभाग" ऐसा पाठ रखा है। 11 11T Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ 1 क्षपणासार [गाथा १३४-१३६ कृष्टिको चरमकृष्टिसे उपरिम अन्यसंग्रहकृष्टिको आदिकृष्टि में जो विशेषहीन क्रम पाया जाता है वह परस्यानगोपुच्छ कहलाता है । कृष्टियोके हीनाधिक द्रव्यका संक्रमण होनेसे चय (विशेष) हीनरूप क्रम नष्ट हो जानेसे पूर्व में जो स्वस्थानगोपुच्छ था वह संक्रमणद्रव्यके द्वारा नष्ट हो गया तथा नीचलीसंग्रहकृष्टिकी चरमकृष्टि व उपरिमसंग्रहकृष्टिको आदिकृष्टि में कृष्टियों का घात होनेसे एकविशेषहीनरूप क्रमका अभाव हो गया अतः पूर्व में जो परस्थानगोपुच्छ था, उसका अग्रकृष्टिघातद्वारा नाश हुआ। यहां कोई कहता है कि व्ययद्रव्य तो गया और आयद्रव्य आया अत. व्ययद्रव्यसे स्वस्यानगोपुच्छ का नाश कहा तथा प्रायद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छका होना कहा उसोको कहते हैं- आय और व्यय द्रव्य का कथन आयादो वयमहियं, हीणं सरिसं कर्हिपि अण्णं च । तम्हा आयव्वा, ण होदि सट्ठाणगोउच्छं ।।१३४॥५२५॥ अर्थ-किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्यसे व्ययद्रव्य अधिक है तो किसीमें हीन है और किसी संग्रहकृष्टिमें आय-व्ययद्रव्य समान भी है। किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य तो है, किन्तु व्ययद्रव्य नही है और किसी व्ययद्रव्य तो है आयद्रव्य नही है इसलिए आयद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छका होना मानना ठीक नही है । अब स्वस्थान-परस्थानगोपुच्छके सद्भावका विधान कहते हैं घादयदव्वादो पुण वय प्रायदखेत्तद्व्वगं देदि । सेसासंखाभागे अणंतभागूणयं देदि ॥१३५।।५२६॥ अर्थ-घातक द्रव्यसे व्यय और आयतक्षेत्रद्रव्यको देनेसे एक गोपुच्छ होता है तथा शेष असंख्यात भागमें अनन्तभाग ऊण द्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ-घात की हुई कृष्टियोके व्ययद्रव्यको पूर्वोक्त व्ययद्रव्य में से घटावेपर अवशिष्ट द्रव्यप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे ग्रहणकरके जिन कृष्टियोका जितना-जितना द्रव्य व्यय हुआ था उनमें उतना-उतवा द्रव्य देकर उनको पूर्ण करनेसे स्वस्थानगोपुच्छ होता है। उदयगदसंगहस्स य मझिमखंडादिकरणमेदेन । दव्वेण होदि णियमा एवं सम्वेसु समयेसु ॥१३६॥५२७॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३७ क्षपणासार [ १२५ अर्थ-उदयको प्राप्त संग्रहकृष्टिका इस घातद्रव्यद्वारा मध्यमखंडादि किये जाते हैं यह विधान सभी समयोंमें होता है। विशेषार्थः-जिस संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है उसमें आयद्रव्यका अभाव है अत. संक्रमणद्रव्यसे मध्यमखंडादि नही होते हैं। इसलिए मध्यमखण्ड, उभयद्रव्य, विशेष इत्यादि वक्ष्यमाण विधान करने के लिये उस वेदनेरूप सग्रहकृष्टिका असंख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे पृयक रखकर अवशिष्ट घातद्रव्यको ही पूर्वोक्तप्रकार विशेषहीन क्रमसे एकगोपुच्छाकार द्वारा दिया जाता है। एक भागके आगे मध्यमखण्डादि विधानसे द्रव्यदेने का कथन करेगे। यह विधान सर्वसमयों (कृष्टिगत उदयके समयो) में जानना । इसप्रकार घातद्रव्यसे एकगोपुच्छ हुआ, अब जो अन्यसंग्रहका द्रव्य विवक्षित संग्रहमें द्रव्य आया उसको पूर्व में आयद्रव्य कहा था उसका नाम यहां संक्रमण द्रव्य कहा जाता है तथा जो द्रव्य नवीनसमयप्रबद्धमें बन्धकरके कृष्टिरूप होता है वह बन्धद्रव्य कहा जाता है। उसका विधान कहते हैं कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यसे कुछ चवीन अपूर्वकृष्टियोंको करता है । इनमें संक्रमणद्रव्यके द्वारा तो उन संग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिके नीचे कुछ अपूर्वकृष्टियोको करता है, इनको अधस्तनकृष्टि कहते हैं तथा उन सग्रहकृष्टियोंको पूर्वअवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में नवीन अपूर्वकृष्टियोको करता है, इनका नाम अन्तरकृष्टि है । बन्धद्रव्यके द्वारा अवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में ही क्वीनअपूर्वकृष्टियोंको करता है, इनको भी अन्तरकृष्टि कहते हैं। कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यको पूर्वकृष्टियोमें ही निक्षेपण करता है । इसीका विधान अगली गाथामें कहते हैं-- हेढाकिट्टिप्पहुदिसु संकमिदासंखभागमेतं तु। सेसा संखाभागा अंतरकिटिस्स दव्वं तु ॥१३७।।५२८॥ अर्थ-संक्रमणद्रव्यको असख्यातका भाग देनेपर उसमें से एकभागमात्र द्रव्य तो अघस्तन कृष्टिआदिमे देता है अर्थात् इस एकभागप्रमाण द्रव्यसे क्रोधकी प्रथमकृष्टिके अतिरिक्त शेष ११ सग्रहकृष्टियोके अधस्तन अपूर्वकृष्टि करता है तथा अवशेष असख्यातबहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है, इससे अन्तरकृष्टियोंके अन्तरमें अपूर्वकृष्टियों को करता है । इस गाथाका विशेष अर्थ जानने के लिये गाथा १४३का विशेषार्थ देखना चाहिए। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 'क्षपणांसार [गाथा १३८२४० : बंधद्दव्वाणंतिमभागं पुण पुवकिपिडिबद्धं । सेसाणंता भागा अंतरकिटिस्से दव्वं तु ॥१३८॥५२६॥ अर्थ-बन्धको प्राप्त द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर एकभागप्रमाण तो पूर्वकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है अतः इस एकभागप्रमाण द्रव्यका पूर्वोक्त कुप्टियोमे निक्षेपण करता, है तथा अवशिष्ट अनन्त बहुभागप्रमाण द्रव्य अन्तरकृप्टिसम्बन्धी है, इससे. नवीन, अन्तरकृष्टियोको करता है। इस गाथाके सम्बन्धमे विशेषकथन गाथा १४२के विशेषार्थसे जानना चाहिए। कोहस्स पढमकिट्टी मोत्तूणणेकारसंगहाणं तु। वंधणसंकमदव्वादपुवकिहि करेदी हु ॥१३६॥५३०॥ । अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके बिना अवशेष ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके यथासम्भव बन्ध व सक्रमणरूप द्रव्यसे अपूर्वकृष्टियोंको करता है । क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि मे संक्रमणद्रव्यका अभाव होने से मात्र बन्धद्रव्यसे ही अपूर्वकृष्टि करता है। . विशेषार्थ-वेद्यमान क्रोधकी प्रथम सग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृप्टिसम्बन्धी सम्यमान और यथासम्भव बध्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टिकी रचना की जाती, किन्तु क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि सम्बन्धी अपूर्वकृष्टियां मात्र बध्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उसमे संक्रम्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । अतः "क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिको छोड़कर" ऐसा कहा गया है । मान, माया व लोभकी. प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अपूर्वकृष्टिया वध्यमान और संक्रम्यमान दोनों प्रकारके प्रदेशाग्रसे रची जाती है, शेष सग्रहकृष्टिसम्बन्धी अपूर्वकृष्टिया मात्र सक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उनमें बध्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । यहाँपर अपकर्षित द्रव्यको सक्रम्यमान सज्ञा है । सर्वत्र यहां ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए'। . . . बंधणदव्वादो पुण चदुसटाणेसु पढम किट्टीसु। बंधुप्पवकिट्टीदो संकमकिट्टी असंखगुणा ॥१४०॥५३१॥ १ उपधवल मूल पृष्ट २१६६ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८६ से १०६१ तक । घ० पु०६ पष्ट ३८५। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्षपणासाय गाथा १४१-१४२] [१२७ संखातीदगुणाणि य पल्लस्सादिमपदाणि गंतूण। । एक्केकबंधकिट्टी किट्टीणं अंतरे होदि ॥१४ १॥५३२॥ अर्थ-क्रोधादि चारकषायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टिरूप चारस्थानों में बन्धद्रव्यसे. अपूर्वकृष्टिको करता है । संक्रमणद्रव्यसे पहले ग्यारहस्थानों में कृष्टि रचना कही गई है। बन्धद्रव्यसे होनेवालो अपूर्वकृष्टियोंसे संक्रमणद्रव्यके द्वारा उत्पन्न कृष्टियां पल्यके असंख्यातवें भागगुणो है। असंख्यातपल्यके प्रथमवर्गमूल जाकर एक-एक अपूर्वकृष्टि बन्धती है यही कृष्टिगत अन्तर है। विशेषार्थ-यहां बन्धद्रव्य समयप्रबद्धप्रमाण है, उससे संक्रमणद्रव्य असंख्यात - गुणा है । "कृष्टिद्रव्य के अनुसार कृष्टिया उत्पन्न होतो हैं" इस न्यायके अनुसार बध्यमान प्रदेशाग्रसे थोड़ो (स्तोक) अपूर्वकृष्टियां रची जातो है, क्योंकि डेढ़गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण सत्त्वद्रव्यके असंख्यातवेंभाग संक्रम्यमाण द्रव्य है । यह संक्रम्यमाण प्रदेशान बध्यमान प्रदेशाग्रसे पत्यके असंख्यातवें भागगुणा है । बध्यमानप्रदेशाग्रसे जो अपूर्वकृष्टियो रची जाती हैं वे चारों हो प्रयमसंग्रहकृष्टि में से प्रत्येक संग्रहकष्टिकी अवयवकृष्टियोके अन्तरालोंमें निर्वतित की जाती हैं, किन्तु प्रथमआदि असख्यात पल्योपमके प्रथमवर्गमूलप्रमाणकृष्टि अन्तरालोंको लांघकर आगे कृष्टिअन्तरालमें प्रथमअपूर्वकृष्टि रची जाती है । पुनः असंख्यातकृष्टि अन्तरालों उलंघकर द्वितीयअपूर्वकृष्टि रचो जाती है । इसप्रकार असंख्यातपल्योपमके प्रयमवर्गमूलप्रमाण असख्यातकृष्टि अन्तरालोको छोड़-छोड़. कर तृतीय, चतुर्थादि अपूर्वकृष्टिको रचना होतो है । यह क्रम तबतक चला जाता है जबतक अन्तिमअपूर्वकृष्टि निष्पन्न नही होती है । दिज्ज दि अणंतभागेणणकमं बंधगे य गंतगुणं । . . . . तगणंतरे पंतगुणणं तत्तोणतभागूणं ॥१४२॥५३३॥ . अर्थ-बध्यमानद्रव्य पहले अनन्तवेंभागहीन क्रमसे दिया जाता है पुनः अनन्त. गुणा द्रव्य दिया जाता है उसके अनन्तर अनन्तगुगाहोन दिया जाता है तदनन्तर अनतभागहीन द्रव्य क्रमसे दिया जाता है। १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०६२-६३ व १०६५, १०६६, ११०१ से ११०४ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८५-३८६ । जयवल मूल पृष्ठ २१६६ से २१७२ तक । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] क्षपणासार गाथा १४३ विशेषार्थ-बध्यमानप्रदेशाग्रकी श्रेरिपप्ररुपणा कही जाती है--चारों प्रथमसंग्रहकृष्टियोके नीचे व ऊपर असख्यातवेंभाग कृष्टियोंको छोड़कर शेषसमस्त मध्यमस्वरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धका अनुभाग पूर्वकृष्टिस्वरूप भी होता है और अपूर्वकृष्टिस्वरूप भी। नवकसमय प्रबद्धका अनन्तर्वाभाग प्रदेशाग्र पूर्वकृष्टियोंमें दिया जाता है और शेष अनन्त बहुभाग नवीन अपूर्वकृष्टिस्वरूपसे दिया जाता है। नवकसमयप्रबद्धके उपर्युक्त अनन्तवेंभागमे से जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशान दिया जाता है । द्वितीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । तृतीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है, चतुर्थकृष्टिमै अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इसप्रकार विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्न नवीन अपूर्वकृष्टि के प्राप्त होनेतक दिया जाता है । पुनः अनन्तगुणेप्रदेशाग्र द्वारा अपूर्वकृष्टि निर्वतित होती है । इस अपूर्वकृष्टि से अनन्तरकृष्टि में अनन्तगुणाहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। तदनन्तर अनन्तभागहीन-अनन्तभागहीन प्रदेशाग्न तब तक दिया जाता है जबतक कि अन्य अपूर्वकृष्टि प्राप्त हो । पुनः अनन्तगुणे प्रदेशानद्वारा अन्य अपूर्वकृष्टि निर्वतित होती है, उससे अवन्तरकृष्टि में अनन्तगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है और उससे आगे अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है । इसीप्रकार शेष सर्वकृष्टियों में जानना चाहिए । पूर्व और अपूर्वकृष्टियोमें गोपुच्छसम्पादन के लिए प्रदेशाग्रका यह क्रम होता है । इसप्रकार बध्यमानप्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टियोकी रचना कही गई। संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरं होदि। संगह अंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ॥१४३॥५३४॥ अर्थ--संक्रमणरूप द्रव्यसे उत्पन्न हुई अपूर्वकृष्टियोमें से कुछ कृष्टियां तो संग्रहकृष्टियोके नीचे उत्पन्न होती हैं और कुछ कृष्टियां पूर्वमे जो अवयवकृष्टि थी उनके अन्तरालोमें होती हैं। यहां संग्रहकृष्टियोके अन्तरालमें नीचे उत्पन्न हुई कृष्टियोंसे अवयवकृष्टियोके अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्टि असंख्यातगुणी हैं । विशेषार्थ-संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं वे दो अवकाशो (स्थलों) अर्थात् कृष्टिअन्तरालमें भी और सग्रहकृष्टिअन्तराल में भी रची १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५३ सूत्र ११०५ से १११४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३८६ । जयधवल मूल पृष्ठ २०७२ से २०७४ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १४४ ] [ १२६ जाती हैं। क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृष्टियोके नीचे अपूर्वकृष्टियां सक्रम्यमाण प्रदेशाग्न अर्थात् अपकर्षित समस्तद्रव्यके असंख्यातवेंभागसे रची जाती हैं अतः वे अल्प हैं । संक्रम्यमाणप्रदेशाग्र अर्थात् अपकर्षित समस्तद्रव्यके असंख्यातबहुभाग द्वारा कृष्टिअंतरालोंमें जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं उससे संग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्वकृष्टियोकी रचनामें दिये जानेवाले द्रव्यसे असख्यातगुणे द्रव्यद्वारा कृष्टिअन्तरालोंमे रची जानेवाली अपूर्वकृष्टिया असख्यातगुणी हैं, क्योंकि इनकी रचनामें असंख्यात गुणा द्रव्य लगा है'। संगहअंतरजाणं अपुवकिहि व बंधकिहि वा। इदराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ॥१४४॥५३५॥ अर्थ-सग्रहकृष्टि अन्तरालोमें जो अपूर्वकृष्टियोंकी रचना की जाती है उनका विधान कष्टिकरणमे निर्वय॑मानकृष्टियोंके विधान जैसा जानना चाहिए । 'इदराणाम' अर्थात् कृष्टि अन्तरालोमें रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंका विधान बध्यमानप्रदेशाग्रसे निर्वय॑मान अपूर्वष्टियोके विधान (गाथा १४१-४२) जैसा यहां भी जानना चाहिए, किन्तु यहां अपूर्वकृष्टिगत अन्तर पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभाग है। विशेषार्थः- कृष्टिकरणकाल में पूर्व में निर्वय॑मान अपूर्वकृष्टियोंकी जो विधि वही विधि निरवशेषरूपसे अपकर्षितद्रव्यके द्वारा संग्रहकृष्टियोके अन्तराल में रची जानवाली अपूर्वसंग्रहकृष्टियों के सम्बन्धमें भी जानना चाहिए, क्योकि उष्ट्रकूटश्रेणिके आकार से दिये जानेवाले प्रदेशानकी निषेकप्ररुपणाके प्रति भेदकी अनुपलब्धि पायी जाती है । इसप्रकार उष्ट्रकूटश्रेणिसामान्यकी अपेक्षासे दोनों विधानों में कोई विशेषता नही है ऐसा कहा गया है, किन्तु अर्थतः (वास्तवमें) देखनेपर इन दोनों में सादृश्य नहीं दिखाई देता, क्योंकि दोनों में कुछ विशेषता संभव है । वह विशेषता इसप्रकार है कि कृष्टिकरणकालके प्रथमसमयमें कृष्टिरूपसे परिणत प्रदेशपिण्डसे द्वितीयसमयवर्ती कृष्टियोमें निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है, उससे तृतीयसमयमे निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असख्यातगुणा है, उससे चतुर्थसमयमें नि:सिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा है। इस १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५४ सूत्र १११५ से १११६ । धवल पु० ६ पृ० ३८७ । जयधवल मूल पृष्ठ २०७४-७५ ।। २. क. पा. सुत्त पष्ठ ८५४ सूत्र ११२० से ११२३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८७ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] क्षपणासार [गाथा १४४ प्रकार कृष्टिकरणकालके चरमसमयपर्यन्त प्रतिसमय कृष्टियों में नि:सिंच्यमान प्रदेशपिण्ड विशुद्धिके माहात्म्यसे असंख्यातगुगा-असख्यात गुणा होता जाता है। वर्तमानसमयमें निर्वतित अपूर्वकृष्टिको चरमकृष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे पूर्वसमयमें की गई पूर्वकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टि में नि सिंच्यमान प्रदेशाग्न असख्यात भागहोन होता है. क्योकि उसमें पूर्व अवस्थितद्रव्य इतना ही हीन दिखाई देता है। तदनन्तर अनन्त भागहानिरूपसे ययाक्रम जाकर पुनः पूर्वसमयमे की गई संग्रहकृष्टिसम्बन्धी चरिमकृष्टि में निसिक्त प्रदेशाग्रसे वर्तमानसमयमें द्वितोयसंग्रहकृष्टिके नोचे को गई अपूर्व जघन्यकृष्टिमें दिया जानेवाला प्रदेशपिण्ड असंख्यातभाग अधिक होता है । शेष अपूर्वकृष्टियों में अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, इसोप्रकार आगे भी जानना चाहिए । पुनः दृश्यमानप्रदेशाग्र सर्वत्र अनन्तभागहीनरूपसे रहता है। इसप्रकार यहक्रम कृष्टिकरणकालके द्वितीयसमयसे चरिमसमयपर्यन्त जानना चाहिए, किन्तु कृष्टिवेदककालमे ऐसो विधि नहीं होतो, क्योकि कृष्टिवेदककालको अपूर्वकृष्टियोमें नि.सिंच्यमान प्रदेशाग्र पूर्वकृष्टिप्रदेशपिंडसे असख्यातवेंभागप्रमाण होता है, उससे, कृष्टिवेदककालके प्रथमसमय में निर्वर्त्य मान अपूर्वकृष्टियोकी चरमकृष्टि में निर्वतित प्रदेशाग्रसे पूर्वकृष्टिको जघन्यकृष्टिके प्रथमसमयमें प्रदेशान असंख्यातगुणाहोन होता है, अन्यथा पूर्व अपूर्वकृष्टियों को सधिमे एकगोपुच्छको उत्पत्ति वहीं होगी। अतः कृष्टिकरणविधि और कृष्टिवेदकविधिमें इसप्रकारको विशेषता दिखाने के लिए श्रेणीप्ररुपणा करते हैं कृष्टिवेदककालके प्रथमसमय में पूर्वानुपूर्वी की अपेक्षा लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टि के नीचे अपकर्षित प्रदेशाग्रके द्वारा जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं, उनमें से जघन्यकृष्टिमें बहत प्रदेशाग्न दिया जाता है तथा उसके आने चरमकृप्टिपर्यन्त अनन्तर्वभागहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है । उसके आगे अपूर्वकृप्टिको चरमकृष्टिमें पतित प्रदेशाग्रसे लोभको प्रथमसंकृष्टिको पूर्वकृष्टिसम्बन्धी जघन्यकृष्टि में असंख्यातगुणाहोन प्रदेशान दिया जाता है, द्वितीयपूर्वकृष्टि में उससे अनन्तभागहोन द्रव्य दिया जाता है और यह अनन्तभागहोनरूप द्रव्यका क्रम प्रथमसंग्रहकृष्टिकी चरमकृष्टिपर्यन्त जावना । पुनः उस प्रयमसग्रष्टिकी चरमकृष्टि में पतित प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नीचे रची जानेवालो अपूर्वकृष्टियोंको जघन्यकृष्टिमें असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न दिया जाता हैं । उससे आगे अपूर्वचरमकृष्टिपर्यन्त अनन्तभागहीनरूप क्रमसे द्रव्यका सिंचन होता है । पुन. अपूर्ववरमष्टिमे विसिंचित प्रदेशाग्रसे, पूर्वनिर्वतित द्वितोयसंग्रहकृष्टिको अन्तर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३१ गाथा १४४] क्षपणांसार कृष्टि सम्बन्धी जघन्यकृष्टि में असख्यातगुणाहीन प्रदेशान दिया जाता है, उससे आगे अणंतभागहीनरूप क्रमसे होकर द्रव्य नि:सिंचित होता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वकृष्टियोके अन्तरमे रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंकी और पूर्वष्टि योकी संधिमै प्रदेशविन्यासका भेद है । इसप्रकार कही गई विधी ऊपर (आगे) भी जानना चाहिए । कृष्टि वेदक के द्वितीयादि समयोमे भी निषेकप्ररुपणा इसीप्रकार जानना चाहिए। इस उपर्युक्त विधिकी अपेक्षा दोनोमे (कृष्टिकरण व कृष्टि वेदक कालमे) विशेषता सम्भव है इसकी विवक्षा गाथासूत्रमे नही है । ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके नीचे एक-एक पूर्वकृष्टि में से असंख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको अपकर्षित करके पूर्वकृष्टि योंके असख्यातवेभागमात्र अपूर्वकृष्टियोको करनेवाला उष्ट्रकूटश्रेणी रूपसे प्रदेशविन्यास करता है इसको देखते हुए गाथासूत्रमें (कृष्टिकरण व अपूर्वकृष्टि रचनो विधानकी) समानता कही गई है। जिसप्रकार असख्यातकृष्टियोका अन्तर देकर बध्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वष्टियाँ रची जाती हैं, उसीप्रकार पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियोके अन्तरसे सक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अवान्त र कृष्टि योमें अपूर्वकृष्टियां रची जाती है । दियमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररुपणा जैसी वहां (बध्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टि रचनामें) की गई है वैसी ही प्ररुपणा यहां भी जानना, किन्तु यहां उससे थोड़े (अल्प) अर्थात् प्रथमवर्गमूलके असंख्यातगुणे हीन अन्तरालसे संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टि रची जाती है। संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे कृष्टि अन्तरोमें निर्वर्तित अपूर्वकृष्टि में जो प्रदेशाग्र दिये जाते है उनकी श्रेणिप्ररुपणाका विधान बन्धद्रव्यसे निर्वतित अपूर्वकृष्टिमे जैसा कहा गया है वैसा जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि संग्रहकृष्टियोंके नीचे निर्वतित अपूर्वकृष्टि में पूर्वोक्त क्रमसे प्रदेश निसिक्त करने के पश्चात् अपूर्वचरमकृष्टिकी अपेक्षा पूर्वजघन्यकृष्टि में असख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्र नि:सिंचित किये जाते हैं, उसके आगे उत्कर्षण-अपकर्षणभागहारप्रमाण पूर्वकृष्टियोंमें अनन्तभागहीनरूप क्रमसे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं उसके बाद कृष्टिअन्तराल में निर्वर्तित की जानेवाली अपूर्वकृष्टिमें असख्यातगुणे प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, तत्पश्चात् अवन्तर पूर्वकृष्टिमें असंख्यातगुणहीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं तथा उसके अनन्तभागहीन प्रदेशाग्र देता है । संधियोंको जानकर यह क्रम निरुद्धसंग्रहकृष्टि के अन्त: पर्यन्त जानना चाहिए, इससे ऊपरकी संग्रहकष्टियों में भी इसी विधानसे श्रेणिप्ररुपणा १. जयधवल मूल पृष्ठ २१७५-७६ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १३२] [गाथा १४५-१४६ करना चाहिए । कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयकी यह प्ररुपणा जिसप्रकार को गई है, वह सर्वप्ररुपणा उसीप्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी कहना चाहिए' । कृष्टियोंके घातका कथनकोहादिकिहिवेदगपढमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमयं तस्सासंखेज्जभागकमं ॥१४५॥५३६॥ कोहस्त य जे पढमे संगहकिट्टिम्हि णकिट्टीओ। वंधुझियकिट्टीणं तस्स असंखेज्जभागो हु ।।१४६॥५३७॥ अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदकजीव प्रथमसमयमें सर्वकृष्टियोंका असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंको वष्ट करता है तथा द्वितीयसमयमें उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियोंका घात करता है। इसी क्रमसे प्रतिसमय असंख्यातवेंभागप्रमाणरूप क्रमसे कृष्टियोका घात करता है । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके सर्ववेदककालमें जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं वे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं। विशेषार्थ-विशुद्धिके माहात्म्यसे कोषकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी कृष्टियोमें से अग्रकृष्टिको आदि करके कृष्टियोका असंख्यातवेभाग प्रतिसमय अपवर्तनाघातद्वारा विनाश किया जाता है । जो कृष्टियो प्रथमसमयमें विनष्ट होती हैं वे बहुत हैं, क्योकि समस्तकृष्टियोके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं और जो कृष्टियां द्वितीयसमयमें नष्ट की जाती हैं वे प्रथमसमयमे विनष्टकृष्टियोंसे असंख्यातगुणीहीन हैं । यद्यपि द्वितीयसमयमै विशुद्धि अनन्तगुणी बढ़ जाती है तथापि प्रथमसमयमें विनष्ट कृष्टियोसे रहित शेष बची हुई कृष्टियोके असंख्यातवेंभागका घात करता है इसलिये द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणोहीन कृष्टियोंका नाश करता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयों में भी प्रतिसमय अपवर्तनाघातका क्रम जानना चाहिए। यह असंख्यातगुणाहीनक्रम अपने विनाशकालके द्विचरमसमयतक चला जाता है। प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकके क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें १. जयववल मूल पृष्ठ २१७७-७८ । २. इन दोनो गाथासम्बन्धी विषय क० पा० सुत्त पाठ ८५४-५५ सूत्र ११२४ से ११२८ तक एवं धवल पु० ६ पृष्ठ ३८७.८८ पर भी है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १४७-१४६ ] (१३३ ऊपर और नीचेकी असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां अबध्यमान कहलाती हैं । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयसे लेकर निरुद्ध प्रथमसंग्रहकृष्टिके विनाशकालके द्विचरमसमयतक उपरिम अबध्यमानकष्टियोके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंका विनाश होता है । उपरिम व अधस्तन इन दोनो भागोंमेसे उपरिमभागमें विनष्ट कृष्टियों का प्रमाण आवलिके असंख्यातवेभागमात्र विशेष है। जैसा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिके विनाशका क्रम कहा गया है वैसा ही क्रम शेष संग्रहकृष्टियोंके विनाशका भी जानना चाहिए, क्योंकि इसमें विरोधका अभाव है। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथमस्थितिमें समयाधिक आवलोकाल शेष रहनेको अवस्थाका कथन 'कोहादिकिहियादि द्विदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहएणुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्स ॥१४७॥५३८॥ ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो । सत्तोवि य सददिवसा अडमासब्भहियछवरिसा ॥१४८॥५३६॥ घादितियाणं बंधो दसवासंतोमुहुत्तपरिहीणा । सत्तं संखं वस्सा सेसाणं संखऽसंखवस्साणि ॥१४६॥५४०॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथमस्थितिमें समयअधिक आवली अवशेष रहनेपर जघन्यस्थितिकी उदीरणा करनेवाला होता है। आवलीके ऊपर जो एकसमय है उस समयसम्बन्धी निषेकको अपकर्षित करके उदयावलिमें निक्षेपण करता है तथा वही क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिवेदकका चरमसमय होता है। वहा (पूर्वोक्त समयाधिक आवलिकाल शेष रह जानेपर) संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम १०० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहर्तकम आठमाह अधिक ६ वर्ष है । तीवघातिया कर्मोका स्थिति १. जयधवल मूल पृष्ठ २१७८-७६ ।। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५५ सूत्र ११२६ से ११३१ । ३० पु० ६ १४ ३८८ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] क्षपणासार [ गाथा १४१ बन्ध अन्तर्मुहूर्तकम १० वर्ष है और स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है। शेष (तीन अघातिया) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असख्यातवर्ष है'। विशेषार्थ--प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदक संज्वलनक्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में से अवयवकृष्टियोका अपकर्षणकरके उसके द्वारा क्रोधवेदककालके साधिक विभागकालसे एक प्रावलि अधिकप्रमाण स्थितिको करता है । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिको वेदन करनेवाले की जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिका वेदन करते हुए जिससमय एकसमयअधिक आवलिमात्र काल उस प्रथमस्थितिमे शेष रह जाता है वही क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिके वेदनका अन्तिमसमय होता है । प्रथमस्थितिमे समय अधिक आवलिमात्र शेष रह जानेपर अन्तिम स्थितिका अपकर्षणकरके उदयावलिमें क्षेपण करनेवालेके संज्वलनक्रोधकी जघन्यस्थितिउदीरणा होती है वहांपर द्वितीयस्थितिसे उदीरणा सम्भव नहीं है, क्योंकि उसप्रथमस्थिति में आवलि-प्रत्यावलिकाल शेष रह जानेपर पहले ही आगालप्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयसे संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्वप्रवृत्त अनुसमय अपवर्तना है वह उसीप्रकारसे होती रहती है। पूर्व अर्थात् कृष्टिवेदनके प्रथम समय में संज्वलनचतुष्कका स्थितिवन्ध पूर्ण चारमाह होता था वह संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरणोके द्वारा यथाक्रम घटकर प्रथमकृष्टिकी प्रथमस्थिति के एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रह जानेपर चालीसदिनअधिक दो माह अर्थात् (४०+६०) १०० दिन रह जाता है। तीनो संग्रहकृष्टियोके वेदककालमे स्थितिबन्ध दो माह अर्थात् ६० दिन घटता है तो एक (प्रथम) संग्रहकृष्टि के वेदककालमे स्थितिबन्ध कितना कम होगा? इसप्रकार त्रैराशिकविधि करनेपर (१) २० दिन प्राप्त होते हैं, जो कि प्रथमसग्रहकृष्टिवेदककालके विभागसे कुछ अधिक है । अतः प्रथमसग्रहकृष्टिवेदककालमे चारसंज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक २० दिन, घटकर अन्तमुहूर्त कम १०० दिन रह जाता है । १. "जा पुत्व पवत्ता सजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव" अर्थात् सज्वलन चतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्व प्रवृत्त अनुसमयवर्ती अपवर्तना है वह उसीप्रकार होती रहती है । (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५५ सूत्र ११३३) यह पाठ जयधवल मूल पृष्ठ २१८० तथा धवल पु० ६ पृष्ठ ३८८ मे भी, किन्तु नेमिचन्द्राचार्यने उसे यहा ग्रहण नहीं किया है। २. जयघवल मूल पृष्ठ २१७९-८० । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासास गाथा १५०-१५१] [१३१ कृष्टि वेदककालके प्रथम समयमै संचलनचतुष्कका स्थिति सत्त्वं आठवर्षमात्र था । संख्यातहजार स्थितिकाण्ड कोंके द्वारा वह स्थितिसत्त्व क्रमसे घटकर इससमय अर्थात् क्रोधको प्रथमसंग्रहकष्टिको प्रथमस्थितिमें एकसमयधिक आवलिमात्रस्थिति शेष रह जानेपर अन्तमुहूर्त कम आठमाह अधिक छहवर्ष रह जाता है । तोनों कृष्टियोके वेदककालमें संज्वलनचतुष्कका स्थितिसत्त्व यदि चारवर्ष कम हो जाता है तो प्रथमसग्रहवेदककालमें कितना कम होगा? इसप्रकार राशि कविधिके द्वारा साधिक प्रथमसंग्रहकृष्टिके त्रिभागप्रमाण अर्थात् अन्तमुहूर्त अधिक चारमाहसहित एकवर्षकम हो जाता है । इसको पाठवर्षमें से कम करने पर (८ वर्ष - १ वर्ष ४ माह व अन्तर्मुहूर्त) अन्तर्मुहूर्तकम आठमास ६ वर्ष शेष स्थितिसत्त्व रह जाता है। पूर्वसंधि अर्थात् क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके वेदककालके प्रथमसमयमें तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष था जो यथाक्रम घटकर इससमय (क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें) समयाधिक आवलिकाल शेष रह जानेपर अन्तर्मुहूर्तकम १० वर्ष रह जाता है और स्थितिसत्त्व पूर्वसंधि संख्यातहजारवर्ष था, वह सख्यातहजार स्थितिकाण्ड कोके द्वारा घटकर सख्यातहजारगुणाहीन होनेसे तत्प्रायोग्य संख्यातवर्षप्रमाण रह जाता है । शेष (वेदनीय, नाम व. गोत्र) तोन अघातियाकर्मोका स्थितिबन्ध पूर्वसधिमें सख्यातहजारवर्षप्रमाण था वह सहस्रों स्थितिबन्धापसरणोंके द्वारा घटकर यथाक्रम घटते हुए सख्यातगुणाहीन होकर भी संख्यातहजारवर्षप्रमाण है और स्थितिसत्कर्म भी हजारो स्थितिकाण्डकघातोके द्वारा असंख्यातगुणाहीन होकर तत्प्रायोग्य असंख्यातवर्ष रह जाता है । से काले कोहस्स य विदियादो संगहादु पढमठिदी । कोहस्स विदियसंगहकि हिस्स य वेदगो होदि ॥१५०।।५४१॥ कोहस्स पढमसंगहकिहिस्सावलिपमाण पढमठिदी । दोसमऊणदुप्रावलिणवकं च वि चेउदे ताहे ॥१५१॥५४२॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८०.८१ ।। २. जय ध० मूल पृष्ठ २१८१ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५५-५६ सूत्र ११३६-४० व ४१ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३८६ । जयपवन मूल पृष्ठ २१०१। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार (गाथा १५२ अर्थ-उसके (क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदनके चरमसमयके ) अनन्तरसमयमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि से प्रथमस्थिति करके क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है। उससमय क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिका द्रव्य और दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध शेष रह जाता है और उसीकालमें क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है । विशेषार्थ-जब प्रथमसग्रहकृष्टिको पूर्वोक्त प्रथमस्थितिम उच्छिष्टावलिकाल शेष रह जाता है उससमय द्वितीयस्थितिमे स्थित क्रोधको द्वितीयकृष्टिके प्रदेशाग्रोको अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणीके द्वारा द्वितीयसग्रहकृष्टिके वेदककालसे आवलिअधिककाल द्वारा प्रथमस्थितिको करता है । क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे से अपकर्षणकरके प्रथमस्थितिको करनेवालेके उससमय दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्धरूप प्रदेशाग्न और उच्छिष्टावलिप्रमाण प्रदेशाग्रको छोड़कर क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिके शेष समस्त प्रदेशाग्र क्रोधकी द्वितीय कृष्टिरूप संक्रमण कर जाते हैं। क्रोधकी द्वितीयकृष्टिसे प्रथमकृष्टि तेरहगुणी थी, क्योकि प्रथमसंग्रहकृष्टिमे नोकषायका भी द्रव्य था। प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य द्वितीयसंग्रहकृष्टिके नीचे अनन्त गुणेहीन परिणमन करके अपूर्वकृष्टिरूप होकर प्रवृत्त करता है, उससमय शेष पृथक् पृथक् संग्रहकृष्टिके द्रव्यसे इसका द्रव्य १४ गुणा हो जाता है, क्योकि प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य इस द्वितीयकृष्टि रूप संक्रमित होगया है । नवकबन्ध और उच्छिष्टावलिके प्रदेशाग्न यथाक्रम प्रतिसमय दूसरीकृष्टिमे संक्रमण करते हैं, उसीसमय क्रोधकी द्वितीयकृष्टि का वेदक होता है। पढमादिसंगहाणं चरिमे फालिं तु विदियपहुदीणं । हेट्ठा सव्वं देदि हु मज्झे पुव्वं व इगिभागं ॥१५२।। ५४३।। अर्थ-प्रथमादि सग्रहकृष्टियोंके अन्तिमसमयमै जो संक्रमणद्रव्यरूप फालि है उसका (बहभाग) द्रव्य तो द्वितीयादि संग्रहकृष्टियोके नोचे सर्वत्र देता है और एकभागरूप द्रव्य पूर्ववन् मध्यमे देता है । विशेषार्थ-जिस संग्रहकष्टिको भोगता है उसका ववकसमय प्रबद्धबिना सर्वद्रव्य सर्वसंक्रमणरूप है और वही अन्तिमफालि है, इसको अनंतर समयमे भोगी जानेवाली १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८१-८२ । २. इस गाथाका विषय जयघवल मूलमे नही है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५३-५४] क्षपणासार [ १३७ संग्रहकृष्टिके नीचे और मध्यमें अपूर्वकृष्टिरूप परिणमाता है, वहां उस संग्रहकृष्टिको अवयवकृष्टियोके मध्य में जो अपूर्वकृष्टियां करता है, उनको पूर्ववत् चरमसमयवर्ती स्व. कीय द्रव्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्यसे रचता है तथा अवशिष्टद्रव्यसे उस सग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है, क्योंकि यहां क्रोधको प्रथमसग्रहकृष्टिके अनतर द्वितीयसग्रहकृष्टि को भोगता है अत. ऐसा विधान जानना । 'कोहस्स विदियकिट्टी वेदयमाणस्स पढमकिटिं वा । उदो बंधो णासो अपुवकिट्टीण करणं च ॥१५३॥५४४॥ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालेके उदय, बन्ध, घात तथा संक्रमण व बन्ध द्रव्यसे अपूर्वकृष्टियोंका करना आदि विधान प्रथमसंग्रहकृष्टिवत् ही जानना । विशेषार्थ:-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदककालमै जो विधि कही गई है वही विधि द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदककालमें भी जानना चाहिए। वह इसप्रकार है-उदीर्ण कष्टियोकी, बध्यमानकृष्टियोंकी, विनाश की जानेवाली कृष्टियोंकी, बध्यमाव प्रदेशाग्नसे निर्वर्त्यमान कृष्टियोकी तथा संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वय॑मान अपूर्वकृष्टियोकी विधि प्रथमसग्रहकृष्टिकी प्ररुपणाके समान है। कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्त संकमणं । सट्टाणे तदियोत्ति य तदणंतरहेट्ठिमस्स पढमं च ॥१५४॥५४५॥ अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदकके स्वस्थान अर्थात् विवक्षित कषायमै ही संक्रमण तो तृतीयसंग्रहकृष्टि में होता है और परस्थान अर्थात् अन्यकषायमें जो संक्रमण होता है वह उसके नीचे जो (मान) कषाय है उसको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें होता है । विशेषार्थ-क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टिका वेदक क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानको क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में और मावकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमित करता है १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४२ से ११४४ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८६ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २१८२ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३८६ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] क्षपणासार | गाथा १५५ अन्यकृष्टियों में नही, क्योकि संक्रमण आनुपूर्वीरूपसे होता है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्वस्थानस्वरूप क्रोधकी तृतीयकृष्टि में अपकर्षणभागहारसे संक्रमण करता है और परस्थानस्वरूप मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में अध प्रवृत्तसंक्रमण द्वारा सक्रमण करता है । क्रोधकी तृतीयसग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रको मानकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे सक्रमित करता है, क्योकि अन्यत्र संक्रमण असम्भव है । यहा भो अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है । पढमो विदिये तदिये हेटिम पढमे च विदियगो तदिये । हेट्ठिमपढमे तदियो हेट्ठिमपढमे च संकमदि ॥१५५॥५४६॥ अर्थ-विवक्षित कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य तो अपनी द्वितीय, तृतीय और अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे संक्रमण करता है, द्वितीयसग्रहकृष्टिका (विवक्षितकषायकी) द्रव्य अपनी तृतीय व अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है तथा (विवक्षितकषायकी) तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि में ही सक्रमण करता है। [नोट--इस गाथाका सम्बन्ध गाथा १३१ से है] विशेषार्थ-यहां जिस कषायका वेदन कर रहा है उस विवक्षित कषायके अनन्तर जिस कषायका वेदन करेगा उसे अधस्तनवर्ती कषाय कहा गया है। क्रोधकी द्वितीयसग्रहकष्टिके प्रदेशसमूहका क्रोधकी तृतीय व मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है, क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही सक्रमित करता है । मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी द्वितीय-तृतीय व मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे संक्रमित करता है, मानकषायको द्वितीयसग्रहकृष्टिके द्रव्यका मानको तृतीय व मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और मानकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे ही संक्रमित करता है। मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि के द्रव्यका संक्रमण मायाकी द्वितीय-तृतीय व लोभकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे होता है, माया कषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाकी तृतीय व लोभ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ से ११५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८६-६० । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५६-५७] क्षपणासार [१३६ की प्रथमसग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है तथा मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको लोभकी प्रथमसंग्रह कृष्टि में ही संक्रमित करता है। लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित करता है और लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टिके द्रव्यका संक्रमण लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिमें करता है, (देखो गाथा १३१ की टोका) क्रोधकी प्रथमसंग्रहकुष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में भी दिया जाता है। यहां विवक्षित कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्य स्वस्थानमें (अपनी ही अन्य संग्रहकृष्टिमें) संक्रमित करता है और परस्थानमें (अन्यकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें) विवक्षितकषायके द्रव्यको अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्यका सक्रमण करता है' । कोहस्स पढमकिट्टी सुण्णोत्तिण तस्स अत्थि संकमणं । लोभंतिमकिहिस्स य णस्थि पडित्थावणणादो ॥१५६॥५४७॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि तो शून्य हो गई (नास्तिरूप हो गई) अतः उसका संक्रमण नही होता तथा लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नही है, क्योंकि अतिस्थापनाका अभाव है। विशेषार्थ-इसप्रकार क्रोधकी प्रथम व लोभकी तृतीयसंग्रहकष्टि बिना शेष दशसंग्रहकृष्टि योके द्रव्यका संक्रमण करता है। वेदन करनेयोग्य द्वितीयसंग्रहकष्टि में आयद्रव्यका अभाव है अतः वहाँ घात (व्यय) द्रव्यको पूर्वकृष्टियोमें पूर्वोक्तप्रकार दिया जाता है तथा लोभको तृतीयसग्रहकृष्टिमें व्ययद्रव्य नहीं, किन्तु आयद्रव्य ही है अतः दशसंग्रहकृष्टियोमें संक्रमणद्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार पूर्व-अपूर्वकृष्टियोमे दिया जाता है । 'जस्स कसायस्स जं किहि वेदयदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किर्टि तु बंधदि हु ॥१५७।५४८॥ अर्थ--जिसकषायकी जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उसी संग्रहकृष्टि का बन्ध करता है तथा अन्यकषायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका बन्ध करता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३-८४ । २. क० पा० सूत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६० । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १४०] [गाया १५८ विशेषार्थ- शड्डा-जैसे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करनेवाला चारों कषायोको प्रयमकृप्टियोंका बन्ध करता है उसी प्रकार क्रोधको द्वितीयकृष्टिका वेदन करनेवाला क्या चारों ही कपायोंकी द्वितीयकृष्टियोंका बन्ध करता है ? ___समाधान--जिसकषायकी जिसकृष्टिका वेदन करता है अर्थात् प्रथम द्वितीय या तृतीयकृप्टिका वेदन करता है तो उस कषायकी उसी कृष्टिको वांधता है । वेद्यमान कपायके अतिरिक्त अन्य अबस्तनवर्ती कपायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका-बन्ध करता है, क्योंकि अन्यप्रकार असम्भव है। क्रोवकी द्वितीयकृष्टिका वेदन करनेवाला क्रोधकी द्वितीयकृष्टिका वन्य करता है, किन्तु मान-माया व लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टिका बन्ध करता है। इसीप्रकार उपरितनकृष्टियोंका वेदनकरने वालोंके भी लगा लेना चाहिए। 'माणतिय कोहतदिये मायालोहस्स तिय तिये सहिया । संस्त्रगुणं वेदिज्जे अंतरकिट्टी पदेसो य ॥१५८॥५४६।। अर्थ-यहां संग्रहकृष्टियों में अवयवकृप्टियोंके द्रव्यका अल्पवहुत्व कहते हैंमानकी तीन, कोवकी एक तृतीयकृष्टि तथा माया व लोभकी तीन-तीन, इन संग्रहकृप्टियोमें तो विशेष अधिक और वेचमान क्रोधकी द्वितीयकृष्टिमें कृष्टियोंका और प्रदेशोंका संख्यातगुणाप्रमाण क्रमसे है । विशेषार्थ-क्रोवकी हितीयसंग्रहकृष्टिके वेदन करनेवाले जीवके ग्यारहसंग्रहकृष्टियोंका अल्पबहुत्व इसप्रकार है-कृष्टिवेदकके मानकी प्रथमसंग्रहकृप्टिकी अवयवकप्टियां व प्रदेशाग्न अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्त-भाग होते हुए भी सबसे अल्प है, क्योकि स्तोकद्रव्यसे विर्वर्तित हुई है । मानकपायकी द्वितीयसंग्रहकृप्टिमें अंतरकृप्टिया विशेषअधिक हैं । पत्यके असंख्यातवेंभागका भाग देने पर नो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योकि स्वस्थानमें यह प्रतिभाग है । तृतीयसंग्रहकृष्टि भी उतनी ही अधिक है। मानको तृतीयसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अवयवकृष्टियां विशेष अधिक है । आवलिके असंख्यातवेंभागका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतनी अधिक है, क्योकि पर १. २० पा० नुत्त पृष्ट ८५७ सूत्र ११५७ । जयघवत मूल पृष्ठ २१८४ । २. उप ३० मूल पृष्ठ २१८४ । ३. २० पा० मुत्त पृट ८५७ मूत्र १९६३ से ११७४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३६०-६१ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १५६] [१४१ स्थानमें आवलिका असंख्याताभाग प्रतिभागस्वरूप है । इसीप्रकार ऊपर भी स्वस्थानविशेष और परस्थानविशेष कहना चाहिए। उससे मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिको अंतरकृष्टियां विशेष अधिक हैं । मायाकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी अंतरकृष्टियां विशेष अधिक हैं, मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरष्टियां विशेष अधिक हैं। इससे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं, लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, उससे लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक है उससे कोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां सख्यात अर्थात् चौदहगुणी हैं, क्योंकि चारित्रमोहनीयकर्मके सम्पूर्ण द्रव्यंसे २४ कृष्टियां बनी थीं। क्रोधकी द्वितीयकृष्टिमें अपना मूल द्रव्य तो है, किन्तु इसमें क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १३ प्रविष्ट होनेसे इसका द्रव्य (+१) ३४ हो गया । अतः अन्तरकृष्टियां व प्रदेशाग्र भी चौदहगुणा हो गया' । वेदिज्जादिट्टिदिए समयाहियावलीयपरिसेसे । ताहे जहण्णुदीरणचरिमो पुण वेदगो तस्स ॥१५६॥५५०॥ अर्थ-वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थितिमें समयाधिक आवलिकाल शेष रहतेपर जघन्य उदीरणा होती है और विवक्षित कृष्टिके वेदककालका चरमसमय होता है । विशेषार्थ-वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थितिमै आवलि-प्रत्यावलि शेष रहनेपर आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। यद्यपि कृष्टिकरणकालके प्रारम्भसे ही मोहनीयकर्मके उत्कर्षणका अभाव हो जानेसे प्रथमस्थितिके प्रदेशाग्रका द्वितीयस्थिति में संचार नही होता तथापि द्वितीयस्थितिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण होकर प्रथमस्थितिमें आगमन होता है अतः आगाल- प्रत्यागाल कहा जाता है। इसके पश्चात् एकसमयकम आवलिकाल व्यतीत हो जाने पर जब प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक एकआवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है अर्थात् उदयावलिसे बाह्य स्थित निषेकके द्रव्यका अपकर्षणद्वारा उदयावलिमें विक्षेप होता है वही विवक्षितकृष्टिके वेदनका चरमसमय होता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८५-८६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५८ सूत्र ११७५-७६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६१ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [ गाया १६०-१६२ 'ताहे संजलणाणं बंधो तो मुहुत्तपरिहीणो । सत्तोविय दिसीदी चउमासम्भहिय परणवस्ता ।। १६० ।। ५५१ ।। वादितिया बंधो बासपुधत्तं तु सेसपयडीणं । वस्ताणं संखेज्जसहस्ताणि हवंति णियमेण ।। १६१ ।। ५५२ ।। घादितियाणं तत्तं संखलहस्सा णि होंति वस्ताणं । तिरहं वि अादी वस्ाणि असंखमेत्ताणि ।। १६२ ।। ५५३ ।। क्षपणासार अर्थ - वहां (कोकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदक के चरमसमय में ) संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कस ८० दिन मात्र है और उनका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम चारमासअधिक पांचवर्षप्रमाण है । तीनघातियाकर्सीका स्थितिबन्ध पृथक्त्ववर्षप्रमाण तथा शेष रहे अघातियाकसका स्थितिबन्ध वियमसे संख्यातहजारवर्षप्रमाण है । तीन घातियाकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है तथा (आयुबिना) तीन अघातियाकर्मोका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षमात्र है । विशेषार्थ - क्रोध की प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदकके चरमसमयमें संज्वलनचतुष्कका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहूर्तकम १०० दिन होता था, वह यथाक्रम घटकर क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृप्टिवेदक के चरमसमय में अन्तर्मुहूर्तक्रम ८० दिन रह गया और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम आठमाहश्रविक छहवर्षसे यथाक्रम घटकर बन्तर्मुहूर्तकम चारमास अधिक पांचवर्ष रह गया । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृप्टिवेदकके चरमसमय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका स्थितित्वध अन्तर्मुहूर्तक्रम १० वर्ष होता था जो यथाक्रम घटकर क्रोध की द्वितीयकृप्टिवेदकके चरमसमय में अन्तर्मुहूर्तकम वर्षपृथक्त्व रह जाता है । तीनसे अधिक और से कम यथायोग्य संख्याको पृथक्त्व कहते हैं । शेष अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यात -- हजारवर्षप्रमाण होता था वह अब भी संख्यातहजारवर्षमात्र ही है, किन्तु पहले से ही है । इसीप्रकार तीनघातिया कर्मो के विषय में स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण जानना । १. इन तीनो गाथासम्बन्धी विषय क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५८ सूत्र ११७७ से ११८२ और धवल ५० ६ पृष्ठ ३६१-९२ पर भी है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६३-१६४ ] क्षपणासाय [ १४३ तीन अघातियाकर्मोका स्थितिसत्त्व यद्यपि असंख्यातहजारवर्ष है तथापि पहिलेसे हीन है। यह स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व पूर्वोक्त त्रैराशिकविघिसे प्राप्त करना चाहिए'। से काले कोहस्स य तदियादो सग्गहादु पढमठिदि । अंते संजलणाणं बंधं सत्तं दुमास चउवस्सा ॥१६३।५५४॥ अर्थ-पूर्वोक्त क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टि वेदनके चरमसमयसे अनन्तर समयमै क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रसे प्रथमस्थिति होती है उसके अन्तिमसमयमै संज्वलनचतुष्कका बन्ध दोमाह और स्थितिसत्त्व ४ वर्ष होता है। विशेषार्थ--क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका जो द्रव्य द्वितीयस्थिति में था उसमें से अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करनेवाला क्रोधकी तृतीयकृष्टि का प्रथमसमयवर्तीवेदक होता है उससमय द्वितीयकृष्टिके दो समयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टावलिप्रमाण द्रव्यको छोड़कर शेषसर्वद्रव्य तृतीयकृष्टिरूप परिणमव कर जाता है । इसप्रकार क्रोधकी तृतीयकृष्टिका द्रव्य चारित्रमोहनीयकर्मके द्रव्यका (+) ३१ भाग हो जाता है। उसीसमय क्रोधकी तृतीयकृष्टिको अन्तरकृष्टियोंके असंख्यातवेभागकी उदीरणा होती है और असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियोंका बन्ध होता है, किन्तु उदीरणासे बन्धकृष्टियोको सख्या अल्प है । क्रोधकी द्वितीयकृष्टिके वेदनका जो विधान कहा गया है वही तृतीयसंग्रहकृष्टिका जानना । प्रथम स्थितिमे जब आवलि-प्रत्यावलिकाल शेष रह जाता है उससमय आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है और एकसमयअधिक आवलिकाल रहनेपर जघन्यस्थितिउदीरणा होती है, उसीसमय कोषका चरमसमयवर्ती वेदक होता है और तभी संज्वलनचतुष्कका स्थितिबन्ध पूर्ण दोमास एव स्थितिसत्व चारवर्षप्रमाण होता है । इसीप्रकार पूर्वोक्त त्रैराशिकविधिसे शेषकोंका भी स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व जान लेना चाहिए । *से काले माणस्स य पढमादो संगहादु पढमठिदी। माणोदयअद्धाए तिभागमेत्ता हु पढमठिदी ॥१६४॥५५५॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८७। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५८-५९ सूत्र ११८३ से ११६० । धवल पु० ६ पठ ३९२। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१८७-८८ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६१-६२ । ५० पु० ६ पृष्ठ ३६२-६३ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्षपणासार १४४] [गाथा १६५ अर्थ-क्रोधवेदककालके अनन्तरसमयमै मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमस्थितिको करता है जिसका काल मानोदयकालके तृतीयभागमात्र है। विशेषार्थ-क्रोधकी तृतीयसग्रहकष्टिके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें मानकी प्रथमकृष्टिके द्रव्यको द्वितीयस्थितिसे अपकर्षित करके प्रथमस्थितिको करता है। क्रोधवेदककालसे विशेषहीन मानवेदकका सर्वकाल होता है । इस मानवेदकके सर्वकालके तृतीयभागप्रमाण मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। मानकी प्रथमकृष्टिवेदकके कालसे आवलिप्रमाण अधिक प्रथमस्थिति होती है । मानकी प्रथमकृष्टिको वेदन करनेवाला प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंके असंख्यातबहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टियोका वेदन करता है और उसोसमय उन कृष्टियोसे विशेषहीनकृष्टियोको बांधता है, क्योकि वेद्यमानकष्टियोमें ऊपर और नीचेकी असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियोको छोड़कर मध्यवर्ती बहुभागप्रमाण कृष्टिरूपसे बन्ध होता है ऐसा पहले कहा जा चुका। क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टालिके द्रव्यको छोड़कर शेष सर्वद्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन कर जाता है, क्योंकि मानुपूर्वीसंक्रमणके वशसे माव में संक्रमण होना अविरुद्ध है। क्रोधके प्रदेशाग्न मानरूप सक्रमित हो जानेपर जबतक सक्रमावलि व्यतीत नही हो जाती तबतक उनका उदय नहीं होता। क्रोधकी तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके उपरिमभागमै अपूर्वकृष्टिरूप होकर परिणमन नहीं करता, किन्तु मानकी सदृशमनुभागवाली कृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिरूपसे क्रोधका प्रदेशाग्र परिणमन करता है। उसमें भी थोड़ाद्रव्य तो पूर्वकृष्टिरूपसे तथा बहुतद्रव्य अपूर्वकृष्टिरूपसे परिणमन करता है । क्रोधकी तृतीयकृष्टि का द्रव्य मानकी प्रथमसग्रहकष्टि में परिणमन करनेसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १६ गुणा हो जाता है, शेष दो कषायों (माया व लोभ) की प्रथमसग्रहकृष्टियोका बन्ध होता है। कोहपढमं व माणो चरिमे अंतोमुहत्तपरिहीणो। दिणमासपण्णचत्तं बंधं सत्तं तिसंजलणगाणं ॥१६५॥५५६॥ - १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ से २१६० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६६-६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १६६ ] [ १४५ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको जिस विधीसे वेदता है उसी विघिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करता है। मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदकके चरमसमयमें संज्वलनत्रयका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्तकम ५० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम ४० माह होता है। विशेषार्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे अग्रकृष्टिआदि असंख्यातवेंभाग उपरिमकृष्टियोंका प्रतिसमय अपवर्तवाघात करता है उसीप्रकार मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाला कृष्टियोंका अपवर्तनाघात करता है । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे बध्यमान प्रदेशाग्नसे और संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टिके अन्तरालोंमें और संग्रहकृष्टिके अन्तरालोंमें यथासम्भव अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है तथा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका वेदक जिसप्रकार कृष्टियोके बन्ध व उदयसम्बन्धी प्रतिसमय अनन्तगुणे हीवरूपसे अपसरणोंको करता है उसीप्रकार मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक अपसरणों को करता है । इन करणो में तथा अन्यकरणोंमें कोई अन्तर नहीं है। मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदकके इसप्रकार प्रथम स्थिति क्षीण होते हुए जब एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है और मानकी प्रथमसंग्रहकष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर स्थितिबन्ध तो अन्तर्मुहूर्तकम ५० दिन अर्थात् एकमाह २० दिन एवं स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम ४० माह अर्थात् ३ वर्ष चारमाह रह जाता है । यह पूर्वोक्त त्रैराशिक विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए। 'विदियस्स माणचरिमे चत्तं बत्तीसदिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो तिसंजलणगाणं ॥१६६॥५५७॥ अर्थ-इसके अनन्तर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है और उसके चरमसमयमें तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ४० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त कम बत्तीसमासप्रमाण है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६०-६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०० से १२०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] क्षपणासार [गाथा १६७ विशेषार्थ--मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिमे से मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानको अपकर्षित करके उदयादि गुणश्रेणिरूपसे प्रथमस्थितिमें क्षेपण करता है और द्वितीयसंग्रहकृष्टिको उसी विधिसे वेदन करता हुआ जबतक प्रथमस्थिति में एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रहता है तबतक पूर्वोक्त विधिसे सब कार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थिति शेष रह जानेपर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है, उससमय तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्तकम ४० दिन अर्थात् १ मास १० दिन और स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहर्तकम ३२ माह अर्थात् २ वर्ष ८ साह रह जाता है । इसप्रकार स्थितिबन्ध तो १० दिन और स्थितिसत्त्व आठमाह घट जाता है । यह सब त्रैराशिक विधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए'। तदियस्स माणचरिमे तीसं चउवीस दिवसमासाणि । तिरहं संजलणाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥१६७॥५५८।। अर्थ-उसके पश्चात् मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, उसके चरमसमयमै तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ३० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम २४ माहप्रमाण होता है। ' विशेषार्थ-मानकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदककालके चरमसमयके अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे माचकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के प्रदेशाग्रका अपकर्षणकरके पूर्वोक्तप्रकार प्रथमस्थिति करता है और उसी विधिसे मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवालेकी जो प्रथमस्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिप्रमाणकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है और जब एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मानका चरमसमयवर्ती वेदक होता है तब तीनों सज्वलनकषायों (मान, माया व लोभ) का स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर ३० दिन अर्थात् एकमास और स्थितिसत्त्व भी यथाक्रम घटकर २४ मास अर्थात् परिपूर्ण २ वर्ष रह जाता है। यहां भी घटनेका काल त्रैराशिकविधिसे सिद्ध कर लेना चाहिए । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६१-६२ । २. फ० पा० सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०४ से १२०८ । धवल पु० ६ पृ० ३६४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६८-१६६ ] क्षपणासार [१४७ 'पडमगमायाचरिमे पणवीसं वीसदिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलणगाणं ॥१६८॥५५६।। अर्थ-उसके अनन्तर मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिका वेदक होता है, इसका वेदककाल मायाके सम्पूर्ण वेदककालका त्रिभागमात्र है। इसके चरमसमयमें सज्वलनभाया व लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम २५ दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम २० माहप्रमाण होता है। विशेषार्थ-मानकषायके वेदनके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे मायाकी प्रथमकृष्टिके प्रदेशानका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है और उसी विधिसे मायाकी प्रथमकृष्टि को वेदन करनेवालेकी जो प्रथम स्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर माया और लोभ इन दोनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तकम २५ दिवस और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम २० माह होता है । यहां भी घटनेका प्रमाण त्रैराशिक विधीसे ही प्राप्त करना चाहिए। 'विदियगमायाचरिमे वीसं सोलं च दिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलणगाणं ॥१६६॥५६०॥ - अर्थ-उसके पश्चात् मायाकी द्वितीयसंग्रहकष्टिका वेदक होता है उसके चरमसमयमें दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम २० दिन और स्थितिसत्त्व अंतमुहूर्तकम १६ माहप्रमाण होता है । विशेषार्थ-मायाकषायकी प्रथमकृष्टिके चरमसमयसे अनन्तरवर्तीसमयमै द्वितीयस्थितिसे मायाकी द्वितीयकृष्टि से प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके मायाकी द्वितीयकृष्टिसम्बन्धी प्रथम स्थितिको करता है, वह मायाकी द्वितीयकृष्टिका वेदक भी पूर्वोक्त विधिसे द्वितीयकृष्टिको तबतक वेदन करता है और सर्वकार्य तबतक करता है जबतक प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक एकआवलिकालशेष रहता है। उससमय दो (माया व लोभ १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०६ से १२१२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३९४ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२ । ३. क. पा. सत्त पृष्ठ २६०-६१ सूत्र १२१३ से १२१६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ६६५ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपरणासार १४८ ] [ गाथा १७०-७१ संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम २० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त कस १६ मास है' । "तदियगमाया चरिमे परणवासय दिवसमासाणि । दोराहं संजलाणं ठिदिबंधो तह य सत्तो य ॥ १७० ॥ ५६१ ॥ मासपुधत्तं वाला संखसहस्वाणि बंध सत्तो य । घादितिया दिराणं संखमसंखेज्जवस्त्राणि ॥ १७१ ॥ जुम्मं ।। ५६२ ।। अर्थ-उसके अनन्तर मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है, इसके अन्तिमसमयमे दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध १५ दिन और स्थितिसत्त्व १२ मास प्रमाण होता है और वही तीच घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध पृथक्त्वमासप्रमाण है एवं स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षमात्र है । तथैव तीत अघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षप्रमाण व स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण है । विशेषार्थ -- मायाकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके वेदनके चरमसमयसे अनन्तरवर्तीसमय मे द्वितीयस्थति से मायाकी तृतीय कृष्टिसे प्रदेशाग्र अपकर्षणकरके मायाकी तृतीय कृष्टिसम्बन्धी प्रथमस्थिति की जाती है और उसी विधीसे मायाकी तृतीय कृष्टिको वेदन करनेवालेकी प्रथमस्थिति एकसमयाधिक आवलि शेष रहनेतक सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है । प्रथमस्थिति में एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर मायाकी जघन्यस्थितिउदीरणा होती है और चरमसमयका वेदक होता है, उससमय में माया व लोभ इन दोनो सज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध पूर्ण १५ दिन और स्थितिसत्त्व पूर्ण १२ मास (१ वर्ष ) प्रमाण होता है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीच घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध पृथक्त्वमास व स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है । नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मो का स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्ष है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२-२१९३ । २. इन दोनो गाथाओका विषय क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६१ सूत्र १२१७ से १२२४ तक तथा धवल पु० ६ ४ ३६५ पर भी है । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१६३ । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १७२-१७३ ] [१४६ 'लोहस्स पढमचरिमे, लोहस्संतोमुहुत्त बंधदुगे । दिवस पुधत्तं वासा, संखसहस्साणि घादितिये ॥१७२।।५६३॥ सेसाणं पयडीणं, वासपुधत्तं तु होदि ठिदिबंधो । ठिदिसत्तमसंखेज्जा, वस्साणि हवंति णियमेण ॥ १७३॥जुम्म।।५६४॥ अर्थ-लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके चरमसमयमें लोभका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और तीन घातियाकर्मीका स्थितिबन्ध पृथक्त्वदिवस तथा स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाणं है। शेष तीन अंघातियाकाँका स्थितिबन्ध वर्षपृथक्त्व और स्थितिसत्त्वं असंख्यातवर्ष होता है ऐसा नियमसे जानना। विशेषार्थ-संज्वलनमायाकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका वेदककाल यथाक्रम परिसमाप्त होने पर अनन्तरवर्तीसमयमें द्वितीयस्थितिमें स्थित लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे से प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके उदयादि गुणश्रेणिरूपसे क्षेपणकर अपवे वेदककालसे मावलिअधिक कालप्रमाण प्रथम स्थितिको करता है । लोभवेदकके सर्वकालके त्रिभागसे कुछअधिक अथवा बादरलोभवेदककालके आधेसे कुछअधिक प्रथमस्थितिका काल होता है । उसी पूर्वोक्त विधानसे लोभकी प्रथमसंग्रहंकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोके असख्यातबहुभागकी उदीरणा होती है और उससे विशेषहीन कृष्टि योंका बन्ध होता है, प्रतिसमय कृष्टियोके बन्ध व उदयसम्बन्धी निर्वर्गणाकरण अर्थात् अनन्तगुणीहानिरूपसे अपसरण होता है, अनुभागसत्त्वका प्रतिसमय अपवर्तनाघात होता है, बध्यमान व संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टियोके नीचे तथा सग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियोंकी रचना होती है। इस विधिसे लोभकी प्रथमकृष्टिको वेदता हुआ जब प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रह जाता है उससमय जघन्य उदीरणाका तथा चरमसमयवर्ती वेदक होता है और संज्वलन लोभका पूर्वबद्ध स्थितिबन्ध यथाक्रम घटकर मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, तथैव स्थितिसत्त्व भी घटकर अन्तमुहूर्तप्रमाण ही शेष रहता है, किन्तु यह अन्तर्मुहूर्त स्थितिबन्धके अन्तर्मुहर्त से सख्यातगुणा है। ज्ञानावरणं, दर्शनावरण व अन्तराय, इन तोन घातियाकर्मों का स्थितिबन्ध मासपृथक्त्वसे घटकर दिवसपृथक्त्व और स्थितिसत्त्व सख्यातहारवर्ष रहता है । नाम, गोत्र व वेदनीय, इन तोन अघातियाकर्मोंका स्थिति वन्ध १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६१-६२ सूत्र १२२५ से १२३२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १५० [गाथा १७४-१७५ यथायोग्य सख्यातवर्षोंसे घटकर वर्षपृथक्त्व तथा स्थितिसत्त्व हीन होते हुए असंख्यातवर्ष रह जाता है। से काले लोहस्स य विदियादो संगहादु पढमठिदी। ताहे सुहमं किर्टि करेदि तविदियतदियादी ॥१७४।५६५॥ अर्थ--अनन्तरवर्तीकालमें लोभकी द्वितीयकृष्टिमें से प्रथमस्थितिको करता है और उसी कालमै द्वितीय व तृतीय कृष्टिसे सूक्ष्मकृष्टि करता है। विशेषार्थ--लोभवेदकके प्रथमसंग्रहकष्टिको अनन्तर प्ररुपित क्रमसे वेदकरके पश्चात् अनन्तरसमयमै लोभवेदककालके द्वितीयविभागके प्रथमसमयमें द्वितीयस्थिति में स्थित लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे से प्रदेशाग्न अपकर्षित करके उदयादिगुणश्रेणीरूपसे द्वितीयकृष्टिवेदककालसे आवलिअधिकप्रमाणवाली 'प्रथमस्थितिको उत्पन्न करता है । इसप्रकार प्रथमस्थितिको करके द्वितीय विभागके प्रथमसमयमै लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक द्वितीय व तृतीयसग्रहकष्टिमें से असंख्यातवेभागप्रमाण प्रदेशानको अपकर्षित करके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको करता है । यदि द्वितीयत्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोको नहीं करे तो तृतीयभागमें सूक्ष्मकृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन नहीं हो सकता । यदि कहा जावे कि तृतीयविभागसे सूक्ष्मष्टिवेदककाल में सूक्ष्मसाम्परायिककष्टियोंको करलेगा तो ऐसी शंका भी ठीक नही, क्योंकि सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणसत किये बिना अपने स्वरूपसे उदयमै आनेसे सूक्ष्मसाम्परायिक परिणामोंकी अनुपलब्धि होती है । सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका लक्षण इसप्रकार है--संज्वलनलोभकषायके अनुभागको बादरसाम्परायिककृष्टियोंसे भी अनन्तगुणित हानिरूपसे परिणमित करके अत्यन्तसूक्ष्म या मन्द अनुभागरूपसे अवस्थित करनेको सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि कहते है । सर्वजघन्यबादरकृष्टिसे सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिका भी अनुभाग अनंतगुणाहीच होता है । *लोहस्स तदियसंगहकिट्टीए हेट्ठदो अवट्ठाणं । सुहमाणं किट्टीणं कोहस्स य पढमकिट्टिणिभा॥१७५॥५६६॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २१६३-६४। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६२ सूत्र १२३३-३४। धवल पु० ६ पृष्ठ ६६६ ।। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१६४-६५ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६२ सूत्र १२३६-३७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६-६७ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १७६-७७] (१५१ अर्थ-उन सूक्ष्मकृष्टियोंका अवस्थान लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके नीचे है तथा वे सूक्ष्मकृष्टियां क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान होती हैं । विशेषार्थ- सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंका अवस्थान लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि चीचे है, क्योंकि अनन्तगुणितहीन अनुभागसे परिणमित की गई हैं। ये सूक्ष्मकृष्टियां संज्वलनक्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके समान ही हैं। जैसे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि शेष संग्रहकृष्टियोंके आयामको देखते हुए अपने आयामसे द्रव्यमाहात्म्यकी अपेक्षा असख्यातगुणी थी वैसे ही ये सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियां भी क्रोधकी प्रथमसग्रहकष्टि के बिना शेषसंग्रहकृष्टियोंके कृष्टिकरणकालमे समुपलब्ध आयामसे संख्यातगुणे आयामवाली जानना चाहिए, क्योकि मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य इसके आधाररूपसे ही परिणमन करनेवाला है अथवा जैसे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि अपूर्वस्पर्धकोंके अधस्तनभागमे अनन्तगुणीहीन की गई थी वैसे ही यह सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि भी लोभकी तृतीयबादरकष्टिके अधस्तनभागमें अनन्तगुणीहीन की जाती है अथवा जिसप्रकार क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि जघन्यकृष्टिसे लगाकर उत्कृष्टकृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती गई थी, उसीप्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि भी अपनी जघन्यकृष्टि से लेकर उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त अनन्तगुणी होती जाती है । इसीलिए किसी भी कृष्टिके साथ सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकी समानता त बताकर क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके साथ बतलाई गई है'। 'कोहस्स पढमकिट्टी कोहे छुद्धे दु माणपढमं च । माणे छुद्ध मायापडमं मायाए संछुद्ध ॥१७६॥५६७॥ लोहस्स पढमकिट्टी आदिमसमयकदसुहुमकिट्टीय। अहियकमा पंचपदा सगसंखेज्जदिमभागेण ॥१७७॥जुम्म।।५६८॥ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां सबसे कम हैं (क्योंकि उनके आयामका प्रमाण १३.है ।) क्रोधके संक्रमित होनेपर अर्थात् क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिको मानकी प्रथमसग्रहंकृष्टि में प्रक्षिप्त करनेपर मावकी प्रथमसग्रहकृष्टिकी अन्तर १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६३ सूत्र १२४८ से १२५३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६७-६८। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [ गाथा १७७ कृष्टियां विशेषअधिक हैं ( क्योकि उनका प्रमाण है | ) मानके संक्रमित होनेपर मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं ( क्योकि उनका प्रमाण है 1 ) मायाके सक्रमित होनेपर लोभकी प्रथम सग्रह कृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियां विशेष - अधिक हैं (क्योकि उनका प्रमाण ३३ है | ) प्रथम समय में की गई सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियां विशेषअधिक हैं ( क्योकि उनका प्रमाण ३४ है ।) इसप्रकार चारकषाय और पांचवी सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि अपने से अनन्तरपूर्व से सख्यातवें भागअधिक क्रमवाले हैं । क्षपणासार विशेषार्थ - इस उपर्युक्त अल्पबहुत्वमें क्रोध आदि कषायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टि • | सम्वन्धी अन्तरकृष्टियोंकी हीनाधिकता बतलावेके लिए जो अङ्कसन्दृष्टि दी गई है, उसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रदेशबन्धकी अपेक्षा आये हुए समयप्रबद्धके द्रव्यका जो पृथक्-पृथक् कर्मोंमे विभाग होता है उसके अनुसार मोहनीय कर्मके हिस्से मे जो द्रव्य आता है उसका दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय में विभाग होता है । चारित्रमोहनीयका द्रव्य अवान्तरप्रकृतियोमे विभाग होता है । प्रथमगुणस्थानके पश्चात् मोहनीय कर्मका सर्वद्रव्य चारित्रमोहनीयको मिलता है उसका आधाभाग ( ३ ) चोकषायको और आधाभाग (१) चारकषायोंको मिलता है । इसप्रकार संयमीकेमात्र संज्वलनका बन्ध होनेसे संज्वलनक्रोधको आधेका चौथाई भाग (३ x ३) अर्थात् मोहनीयकर्म का आठवां भाग मिलता है । पुनः यह आठवां भाग भी क्रोध की तीनों संग्रहकृष्टियों में विभक्त होता है, अतएव क्रोधकी प्रथससग्रहकृष्टिका द्रव्य मोहनीय कर्मके सकलद्रव्यकी अपेक्षा ( 12 X 3 ) चौवीसवांभाग है । नोकषायका सत्त्वरूपसे अवस्थित सर्वद्रव्य ( ३ ) भी क्रोधकी प्रथम - संग्रहकृष्टिमे पाया जाता है, उसके साथ इसका द्रव्य मिलनेपर (३+) भाग हो जाता है अतः क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण भी उतना ही ( 2 ) है । जो उपरिमपदकी अपेक्षा सबसे कम | भाग प्रमाणवाली क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि जिससमय क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टिमे सक्रमित होती है उससमय द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोका प्रमाण हो जाता है । पुनः क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका तृतीयसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण हो जानेपर उसका प्रमाण (+) ू हो जाता है, पुनश्च क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि जब मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमें उसका प्रमाण (२+१%) हो जाता है । इसप्रकार प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अपेक्षा मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका प्रमाण ३ विशेषअधिक है, क्योकि इसमें और अधिक मिल गया है। मानकी तीनों संग्रहकृष्टियोका द्रव्य पूर्वोक्त सक्रान्त होती है तब भाग प्रमाणवाली क्रोधकी Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७८] क्षपणासार [१५३ प्रकारसे मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रान्त होनेपर उसकी विशेषकृष्टि योंका प्रमाण (+) ३६ हो जाता है, जो विशेषअधिक है । मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अपेक्षा मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टि में मानकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोके च भाग तथा मायाको प्रथमसग्रहकृष्टिका १ भाग, इसप्रकार ३. और मिल जाने से मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोका प्रमाण विशेष अधिक सिद्ध हो जाता है । मायाका लोभमे संक्रमण होनेपर लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् ३२ भाग हो जाता है, क्योकि उसमे मायाको द्वितीय तृतीयसग्रह कृष्टियोका हा भाग तथा स्वयंका - भाग, ऐसे ३ भाग और अधिक बढ़ जाने से (३१+११) ३१ भाग अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है । जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां प्रथमसमयमे की जाती हैं उनका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् ३४ भाग प्रमाण हो जाता है, क्योंकि उसमें लोभकी द्वितीय-तृयीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी (२.) भाग मिल जानेसे (२३+३.) ३४ हो जाता है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अधिक होनेवाले इस विशेषका प्रमाण अपने पूर्ववर्ती प्रमाणके संख्यातवेभागप्रमाण सिद्ध हो जाता है। सुहमानो किट्टीओ पडिसमयमसंखगुणविहीणाश्रो । दव्वमसंखेज्जगुणं विदियस्स य लोहचरिमोत्ति ॥१७८॥५६६॥ * " अर्थ--सूक्ष्मकृष्टियां प्रतिसमय असंख्यातगुणे हीनक्रमसे की जाती हैं तथा द्वितीयसमयसे लोभकषायके चरमसमयतक द्रव्य असख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है। विशेषार्थ-प्रथमसमयमे जो सूक्ष्मकृष्टियां की जाती हैं वे बहुत हैं, द्वितीयसमय में जो कष्टियां की जाती है वे असंख्यातगुणीहीन होती हैं । इसप्रकार अन्तरोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्पूर्ण सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकरणके काल में अपूर्वसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असख्यातगुणीहीन श्रेणीके क्रमसे की जाती हैं। प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोके भीतर जो प्रदेशाग्न दिया जाता है वह स्तोक है, द्वितीयसमयमें दिये जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्त १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६-६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६४-६५ सूत्र १२४४ से १२४६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३९८ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १५४] [ गाथा १७६ ८० गुणी विशुद्धि बढ़ने से सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिकाल के चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है' | दव्यं पढमे समये देदि हु सुहुमेलणंतभागूणं । थूलपढमे असंखगुणणं तत्तो अतभागूणं ।। १७६ ।। ५७० ।। अर्थ – सूक्ष्मकृष्टिकरणकाल के प्रथमसमय में सूक्ष्मकृष्टिकी जघन्य कृष्टि से उत्कृष्ट सूक्ष्मकृष्टिपर्यन्त अनन्तभाग अनन्तभाग घटते हुए क्रमसहित द्रव्य दिया जाता है तदनन्तर जघन्यबाद र कृष्टिमें असंख्यातगुणा घटता द्रव्य दिया जाता है उसके पश्चात् अनन्तगुणे घटते क्रम से द्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ – उस समय में अपकर्षित समस्तद्रव्य के असंख्यात बहुभागका ग्रहण होकर जघन्य सूक्ष्मकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, द्वितीयकृष्टिमें अनन्तवेभागसे विशेषहीनद्रव्य दिया जाता है, तृतीय कृष्टिमें अनन्त वेंभाग से विशेषहीन प्रदेशान दिया जाता है । इसप्रकार अन्तरोपनिधारूप श्रेणिके क्रमसे अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिपर्यन्त विशेषहीन - विशेष हीव प्रदेशाग्र दिया जाता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें सूक्ष्मसाम्पराय अध्वानसे खण्डित बहूभागद्रव्यमे से एकभागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है । शेष असंख्यातवेंभाग द्रव्यको बादरकृष्टिमध्वान से खण्डितकर एकखण्डद्रव्य जघन्यबादरसाम्परायिक कृष्टिमें दिया जाता है जो चरमसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमे दिये गए प्रदेश से असंख्यातगुणाहीन है अर्थात् चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिसे जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणाहीन है । इसके आगे अन्तिमबादरसाम्परायिक कृष्टिपर्यन्त अनन्तर्वे भाग से विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । विदयादिसु समये अव्वा पुव्वकिट्टि हेट्ठाओ । पुत्राणमंतरे सुवि अंतरजगिदा असंखगुणा ॥ १८० ॥ ५७१ ॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६७-६८ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६ सूत्र १२५० से १२५४ | धवल पु० पृष्ठ ३६८ । ३. जय घ० मूल पृष्ठ २१६८-६६ । ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६५ सूत्र १२५५ से १२६० । ६० पु० ६ पृष्ठ ३६६ | Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८१] क्षपणासार [ १५५ ___अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें नवीन अपूर्वसूक्ष्मकृष्टिको पूर्वसमेयमें की गई सूक्ष्मकृष्टिके नीचे और उनके बीच-बीच में करता है। इनमें अघस्तनकृष्टियोका प्रमाण स्तोक है और उनसे असंख्यातगुणा अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण है । विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकार के द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणीहीन अपूर्वसूक्ष्म कृष्टियोको दोस्थानोमे अर्थात् प्रथमसमयमे की गई कृष्टियोंके नीचे और अन्तरालमे करता है । जो कृष्टियां नीचे करता है वे अधस्तन और जिन कृष्टियोंको बीचबीचमें करता है वे अन्तर कृष्टियां कहलाती हैं। कृष्टियोके नीचे की जानेवाली (अघस्तन) कृष्टियां अल्प है तथा अन्तराल में की जानेवाली (अन्तर) कृष्टियां उनसे असंख्यातगुणी होती है। 'दव्वगपढमे सेसे देदि अपुव्वेसणंतभागणं । पुवापुव्वपवेसे असंखभागुणमाहियं च ॥१८१॥५७२॥ अर्थ-द्वितीयादि समयोंमें प्रथमसमयेवत् द्रव्य देता है, किन्तु इतनी विशेषता है सूक्ष्म कृष्टिसम्बन्धी द्रव्यको अधस्तन अपूर्वकृष्टियोमें अनन्तवेंभागरूप हीनकमसे तथा पूर्व अपूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें क्रमशः असख्यातवेंभागहीच व असंख्यातवेंभागप्रमाण अधिक अर्थात् पूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें असंख्यातवेभागहीनरूपसे द्रव्य दिया जाता तथा अपूर्वकृष्टियोंके प्रवेशमें असंख्यातवेंभागप्रमाण अधिकद्रव्य दिया जाता है। विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें जो धन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है, उसमें बहुत प्रदेशाग्न दिया जाता है, द्वितीयकृष्टिमे अनन्तवेंभागसे हीन दिया जाता है । इस क्रमसे जाकर प्रथमसमयमे जो जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि है उसमें असंख्यातवेंभागसे होन प्रदेशाग्र दिया जाता है और इसके आगे निर्वयंमान अपूर्वकृष्टि जबतक प्राप्त नहीं होती तबतक अनन्तवेभागसे हीन प्रदेशान दिया जाता है तथा अपूर्वनिवर्त्यमावकृष्टिमें असंख्यातवेभागअधिक प्रदेशाग्न दिया जाता है। इससे आगे उत्तरोत्तर प्रतिपद्यमान प्रदेशानका अनन्तवांभागरूप हीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। हितोयसमयमें दिये जाने १ जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ । २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६५-६६ सूत्र १२६१ से १२६६ । धवल पु०६ पृष्ठ ३९९ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा १८२-१८३ १५६] वाले प्रदेशाग्रको जो विधि पहले कही गई है वही विधि शेष समयोंमे जानना चाहिए और यह क्रम बादरसाम्परायि ककृष्टिके चरमसमयतक ले जाना चाहिए' । पडमादिसु दिस्तकम सुहुमेसु अणंतभागहीणकमं । बादरकिट्टिपदेसो असंखगुणिदं तदो हीणं ॥१८२॥५७३॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमयमे दृश्यमानक्रम सूक्ष्मकृष्टियोंमें अनन्तवेभागहीनरूपसे घटता हुआ द्रव्य है, उसके अनन्तर बादरकृष्टि में असख्यातगुणा तथा उसके पश्चात् अनन्तवेंभागहीन द्रव्य है । विशेषार्थ-बादरकृष्टियोके द्रव्यका असख्यातवांभाग अपकर्षण करके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारक कृष्टियोमें दृश्यमान प्रदेशाग्र प्रथमसमय में इसप्रकार है-जघन्यसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिमे दृश्यमान प्रदेशाग्न बहुत है, इससे आगे चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टितक प्रत्येककृष्टिमे दृश्यमानद्रव्य पूर्वकृष्टिसे अनन्तवेंभागहीन है अर्थात् एक-एक चय घटता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिके अनन्तर ऊपर तृतोयबादरसंग्रहकृष्टिकी जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में प्रदेशाग्र असख्यातगुणे हैं, क्योकि बादरकृष्टियोके असंख्यातवेभाग प्रदेशाग्नोका अपकर्षण होकर सूक्ष्मकृष्टियोकी रचना हुई है अतः सूक्ष्मकृष्टिप्रदेशाग्रकी अपेक्षा बादरकृष्टि मे दृश्यमानप्रदेशाग्न असख्यातगुणे हैं। उसके पश्चात् प्रत्येक बादरकृष्टिमे अनन्तवैभाग-अनन्तर्वभागहीन होता गया है अर्थात् अन्तरोपनिधामें एक-एक चय घटता गया है। यह श्रेणिप्ररुपणा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकारकके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिककृष्टिपर्यन्त करना चाहिए। प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियोमे भी दृश्यमान प्रदेशाग्रकी यही श्रेणिप्ररुपणा है । पूर्वद्रव्य और निक्षिप्तद्रव्यके मिलने पर दृश्यमानप्रदेशाग्न होता है । *लोहस्सतदियादो सुरुमगदं विदियदो दु तदियगदं । विदियादो सुहुमगदं दळवं संखेज्जगुणिदकमं ॥१८३।।५७४।। १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६ से २२०१ तक । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२७० से १२७५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०० । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२०१-२२०२ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६७ सूत्र १२७७ से १२७६ । घ० पु०६ पष्ठ ४०० । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८४-८६ क्षपणासार । १५० अर्थ-सूक्ष्म साम्पसयिककृष्टिकारक लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोंमें से असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नका अपकर्षणकरके सक्रमणके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिरूप संक्रमित करता है । इसप्रकार संक्रमण करनेवाला तृतीयबादरसाम्परायिककृष्टिसे अपकर्षणकरके जो प्रदेशाग्न सूक्ष्म साम्परायिककृष्टिरूप संक्रमण करता है वे प्रदेशाग्न थोड़े हैं, उससे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है, क्योकि लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं । लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे जो प्रदेशाग्र तृतीयसग्रहकृष्टिरूप संक्रमित किये जाते हैं उनसे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र द्वितीयसंग्रहकृष्टि से सूक्ष्मसाम्परायिकरूप संक्रामित होते हैं, क्योकि लोभके तृतीयसंग्रहकृष्टि आयामसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिका आयाम संख्यातगुणा है और आयामके अनुसार ही प्रदेशागोंकी संख्याका प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिग्राह्यके अल्पबहुत्वके अनुसार 'पडिगेज्झमाण' अर्थात् प्रतिग्राह्य संक्रमणद्रव्यका अल्पबहुत्व कहना चाहिए' । किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य विदियदो दु तदियादो। माणस्स य पढमगदो माणतियादो दु मायपडमगदो॥१८४॥५७५।। मायतियादो लोभस्लादिगदो लोभपढमदो विदियं । तदियं च गदा दव्वा दसपदमद्धियकमा होति ॥१८५॥५७६।। 'कोहस्स य पडमादो माणादी कोहतदियविदियगदं । तत्तो संखेज्जगुणं अहियं संखेज्जसंगुणियं ॥१८६॥तियल।।५७७।। अर्थ-कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमे क्रोधकी द्वितीयकृष्टिसे जो प्रदेशाग्न मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से सक्रमण होता है वह स्तोक है। क्रोधका तृतीयसग्रहकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथमसग्नहकृष्टि में सक्रमित होता है वह विशेष अधिक है, मानकी प्रथमसंग्रह कृष्टि से मायाकी प्रथमसग्रहकष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशानका सक्रमण होता है, १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ । २ क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६७-६८ सूत्र १२८० से १२८६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६८ सूत्र १२६० से १२६२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१.४०२ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६) क्षपणासार [ गाथा १८६ सानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टि से मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में विशेष अधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है तथा मानकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र सक्रमित होते हैं। मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक प्रदेशाग्र संक्रमित होते हैं, मायाकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथमसग्रहकृष्टिमें विशेषअधिक प्रदेशाग्न सक्रमित होते हैं, मायाको तृतीयसंग्रहकृष्टिसे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशाग्र सक्रमित होते हैं। लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका सक्रमण होता है, लोभकी प्रथमसंग्रहकष्टिसे लोभकी तृतीयसग्रहकृष्टि मे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है। अधिक क्रमसे द्रव्यका संक्रमण करनेवालेके ये दशस्थान हैं । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टि से मानकी प्रथमसग्रहकृष्टि में (पूर्वोक्त सक्रमणसे) संख्यातगुणित प्रदेशाग्रका सक्रमण होता है । क्रोधको ही प्रथमसंग्रहकष्टिसे क्रोधको ही तृतीयसंग्रहकृष्टिमे विशेषअधिक प्रदेशाग्रका संक्रमण होता है । क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि से क्रोधको द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे सख्यातगुणे प्रदेशाग्रका सक्रमण होता है। विशेषार्थ-कृष्टिकरणकालके समाप्त होने पर अनन्तरसमयमें क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके उसका वेदन करनेवालेके क्रोधको द्वितीयसंग्रहकष्टिसे मानको प्रथमकृष्टिमैं अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्वारा संक्रान्त किये जाते हैं वे कहे जानेवाले अन्यसक्रमणद्रव्यकी अपेक्षा स्तोक है । जिस सग्रहकृष्टिका अनुभाग अल्प होगा उसके प्रदेशाग्र बहुत होते हैं। बहुत प्रदेशोमे सक्रमण होनेवाले प्रदेश भी बहुत होते हैं, अतः पूर्वकथित सक्रमणद्रव्यसे यह सक्रमणद्रव्य विशेष अधिक है । पूर्व द्रव्यको पल्यके असंख्यात. भागसे खण्डितकर एकखण्डप्रमाण विशेष अधिक हैं । मानकी प्रथमसग्रहकृष्टि से मायावी प्रथमसग्रहकृष्टिमे सक्रमण होनेवाला द्रव्य विशेष अधिक है, क्योकि क्रोधको तृतीयकृष्टिकी प्रति ग्रहस्थानरूप मानको प्रथमकृष्टिकी अपेक्षा मानकी प्रथमकृष्टि की प्रतिग्रहस्थानरूप मायाको प्रथमसग्रहकृष्टि विशेष अधिक है। आधार विशेषअधिक होने के कारण अधिकप्रदेशोका सक्रमण होता है । यहांपर विशेषअधिक प्रमाणका प्रतिभाग आवलिका असख्यातवाभाग है इससे आगेके स्थानोमे सत्त्वकर्मके अनुसार ही विशेषअधिक संक्रमण होता है और सर्वत्र अध.प्रवृत्तसक्रमणभागहार है । शङ्का-क्रोध मान व मायाकी संग्रहकृष्टियोका द्रव्य अन्यकषायको सग्रहकृष्टियोमें होता है अतः वहांपर अध.प्रवृत्तसक्रमणभागहार होता है अतः यहाँपर अपकर्षणभागहार होना चाहिए जो अधःप्रवृत्तसक्रमणभागहार असख्यातगुणाहीन है ? Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८६ ] क्षपणासार [ १२६ ___ समाधान--ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि परिणामोंके माहात्म्यसे लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिके संक्रमण में भी भागहारमें हानि नहीं हुई है। लोभको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें से लोभको द्वित्तीयसंग्रहकृष्टि में सक्रमित होनेवाले प्रदेशानका प्रतिग्रहस्थान लोभको द्वितीयसंग्न हकृष्टि है जो अल्प है और लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टि में संक्रमित होनेवाले प्रदेशाग्रको प्रतिग्रहस्थान लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टि है जो विशेषअधिक है । प्रतिग्रहस्थानमें अधिकता होनेसे उनका विषयभूत संक्रमणद्रव्य भी विशेषअधिक हो जाता है। लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे जितने प्रदेशाग्न लोभको तृतीयकृष्टिमें संक्रमण किये जाते हैं उससे सख्यातगुणे प्रदेशाग्र क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें सक्रमित किये जाते हैं, क्योंकि लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अपेक्षा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में प्रदेशाग्रसत्त्व १३ गुणा है। इसलिये प्रदेशसंक्रमण संख्यातगुणा है। उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में प्रदेशसंक्रपण विशेषाधिक है, क्योंकि पूर्व प्रतिग्रह स्थानसे क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिरूप-प्रतिग्रहस्थान विशेष अधिक है। अतः प्रदेशसंक्रमण भी विशेष अधिक है । उससे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमें सक्रमण होनेवाले प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं । यद्यपि प्रतिग्रहस्थानस्वरूप क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टि क्रोधको तृतीयसग्रहकृष्टि से अल्प है तथापि वेद्यमान क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे अनन्तर वेद्यमान क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टि में सक्रमित होनेयोग्य प्रदेशाग्न संख्यातगुणा है । यह बादरकृष्टिसम्बन्धी प्रदेशाग्र यद्यपि अतिक्रान्त हो चुका है तथापि की जानेवाली सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों में आश्रयभूत मानकर यहां कहा गया है। लोभकी द्वितीयकृष्टि से जो प्रदेशाग्र लोभको तृतीयसग्रह कृष्टि में संक्रान्त हुए है उनसे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र सूक्ष्मकृष्टि रूप होते है ऐसा जो गुणकारका अनुक्रम कहा गया है वह नवीन नहीं है, किन्तु बादरकृष्टियों में भी संख्यात गुणकार का अनुक्रम है यह बतलाने के लिए बादरष्टियोंके प्रदेशसंक्रमणके संक्रमणमे अल्पबहुत्वका कथन किया गया है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ से २२० । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२०५-२२०६। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार विशषा १६० [गाथा १८७-१८८ लोहस्स विदिय किहि वेदयमाणस्स जाव पढमठिदी। श्रावलितियमबसेसं आगच्छदि विदियदो तदियं ॥१८७॥५७८॥ अर्थ-इसप्रकार लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिको वेदते हुए जीवके द्वितीयसंग्रहकृप्टिकी प्रथमस्थिति मे तीन आवलीप्रमाणकाल शेष रहने तक द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसग्रहकृप्टिमे द्रव्य संक्रमणरूप होकर प्राप्त होता है । विशेषार्थ-लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टिकी प्रथमस्थितिमें विश्रमणावलि, संक्रमणावलि व उच्छिष्टावलि ये तीनो अवशिष्ट रहनेतक लोभकी द्वितोयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिमे दिया जाता है, क्योंकि तृतीयसग्रहकृष्टि में सक्रमित हुआ द्रव्य विश्रमणावलि पर्यन्त वही विश्राम करता है पश्चात् संक्रमणावलिमें सूक्ष्मकृष्टिरूप होकर संक्रमण करता है तब उच्छिष्टावलिमात्र प्रथमस्थिति अवशेष रह जावे उससे तीन आवलि अवशेष रहनेतक द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य तृतीयसग्रहकृष्टि में संक्रमित होता है तथा उसके ऊपर द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यमें अपकषणभागहारका भाग देकर एकभागप्रमाण द्रव्यका संक्रमणद्वारा सूक्ष्मकृष्टिमे ही सक्रमण करता है। यह क्रम जबतक दो आवलिप्रमाण काल अवशेष रहे तबतक जानना, वही आगाल व प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति होती है । आनुपूर्वीसंक्रमणके कारण तृतीयसंग्रहकष्टिका द्रव्य द्वितीयकृष्टि मे न आवेसे आगाल नही होता मात्र प्रत्यागाल ही होता है तथा समयकम आवलिप्रमाण निषेकोंको अघोगलनरूप क्रमसे भोगकर समयाधिक आवलि अवशेष रखता है। तत्तो सुहमं गच्छदि समयाहियावलीयसेसाए । सव्वं तदियं सुहुमे णव उच्छिटुं विहाय विदियं च ॥१८॥५७६॥ अर्थ-वादरलोभकी प्रथमस्थितिमे एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर लोभकी तृतीयसग्रहकृष्टिका सर्वद्रव्य सूक्ष्मकृष्टिरूप सक्रमण कर जाता है । नवकसमयप्रबद्ध व उच्छिष्टालिके द्रव्यको छोड़कर लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका शेषद्रव्य भी सूक्ष्मकृष्टिरूप सक्रमण कर जाता है । विशेषार्थ-इसक्रमसे लोभकी द्वितीयकृष्टिको वेदन करनेवालेके जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिमे जब एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रह जाता है उस Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १८६-१९०] समयमें वह चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है, उसी समयमै अर्थात् अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयमें लोभकी संक्रम्यमाण (जिसका पूर्वसे यथाक्रम सक्रमण हो रहा था) चरम (तृतीय) बादरकृष्टि सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंमें सक्रांत हो जाती है। यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा है, क्योकि उससमय वह बादरसाम्परायिक है, अन्यथा सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमें बादरसाम्परायिककृष्टिद्रव्यका सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मकृष्टि में संक्रमण देखा जाता है। उससमय मात्र लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यका हो संक्रमण नहीं होता, किन्तु लोभको द्वितीयसग्रहकृष्टि के भी एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्धको तथा उदयावलि में प्रविष्टद्रव्यको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिको सक्रम्यमाण शेष अन्तरकृष्टियां सक्रमणको प्राप्त हो जाती है । 'लोहस्त तिघादीणं, ताहे अघादीतियाण ठिदिबंधो । अंतो दु मुहत्तस्त य दिवसस्स य होदि वरिसस्त ॥१८६॥५८०॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें संज्वलनलोभका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तमुहूर्तप्रमाण, तीनघातियाकर्मोका कुछकम एकदिन तथा तीन अघातियाकर्मीका कुछकम १ वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें लोभसंज्वलनका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होता है और उसीसमय मोहनीयकर्मकी बधव्युच्छित्ति होती है, क्योंकि उसके ऊपर मोहनीयकर्मके बन्धमें कारणभूत परिणामोंका अभाव है। तीव घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध पहले दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता था जो घटकर कुछकस एकदिन-रात प्रमाण रह गया । नाम, गोत्र व वेदनीय, इन तीन अघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे घटकर अन्तःवर्ष अर्थात् कुछकम एकवर्ष प्रमाण रह जाता है । 'ताणं पुण ठिदिसंतं कमेण अतोमुहुत्तयं होदि । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि असंखवस्साणि ॥१६०॥५८१॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२०७। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२९८-१३००। घवल पु० ६ पृष्ठ ४०२-४०३ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२०७-२२०८ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६८ सूत्र १३०१-१३०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०३ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १६१ अर्थ-अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमय में स्थितिसत्त्व क्रमसे- लोभका अन्तर्मुहूर्त, तीन घातिया कर्मोका यथायोग्य संख्यातहजारवर्ष और तीन अघातिया कर्मोका यथायोग्य असख्यातवर्षप्रमाण है' । १६२ ] क्षपणासार सूक्ष्मसाम्परायका कथन - से काले सुमगुणं पडिवज्जदि सुहुम किट्टि ठिदिखंडं । आणायदि तदव्वं उक्कट्टिय कुणदि गुणसेदि ॥ १६१ ॥ ५८२ ॥ - अर्थ - - बादर कृष्टिवे द्यमानकाल समाप्त होनेके अनन्तर समय में सूक्ष्मसाम्पराय-गुणस्थानको प्राप्त होता है वहां पर सूक्ष्मकृष्टियोंका स्थितिकाण्डकघात करता है और लोभके सूक्ष्मकृष्टिद्रव्यका अपकर्षणकरके गुणश्रेणिरूप से निक्षेप करता है । विशेषार्थ -- बादरकृष्टिवेदनने अन्तिम समय से अनंतरवर्ती समय मे सूक्ष्मकृष्टियोंका अपकर्षण करके वेदन करनेवाला उसी समय सूक्ष्मसाम्परायिक भावो से परिणत होकर प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानवाला हो जाता है । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के - उसी प्रथम समय मे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाणस्थितिकाण्डकायाम होता है | मोहनीय कर्म के सूक्ष्म कृष्टिअनुगत अनुभागका पूर्ववत् अपवर्तनाघात करता है । ज्ञानावरणादि कर्मोका भी पूर्ववत् स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात करता है तथा अपकर्षित प्रदेशाग्रके असंख्यातवेभागकी गुणश्रेणी करता हुआ प्रथमसमयमे थोड़ा- द्रव्य देता है जिसका प्रमाण असख्यात समयबद्ध है, उससे ऊपर गुणश्रेणीशीर्ष पर्यन्त असंख्यात - गुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । सूक्ष्मसाम्पराय कृष्टियोमे से असंख्यातवेभागप्रमाण प्रदेशाग्रको अपकर्षणकरकेपुनः अपकवितद्रव्यके असख्यातबहुभागको पृथक् रखकर असंख्यातवेभागको गुणश्रेणीरूपसे देनेवाला उदयस्थिति में स्तोकद्रव्य देता है जो असंख्यात समय प्रबद्धप्रमाण है । उदयस्थितिके अनन्तर उपरितनस्थिति में उससे असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है । उससे अनन्तरस्थित्तिमे असख्यातगुणे प्रदेशाग्र को देता है । इसप्रकार अन्तर उत्तरोत्तर स्थितियो मे मसख्यातगुणा-असख्यातगुणा प्रदेशाग्र मन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति में तबतक १. जयववल मूल पृष्ठ २२०८ ॥ २. ० पा० सुत्त पृष्ठ ६६६ सूत्र १३०४-१३०७ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४०३ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा १६२-१६४] । १६३ देता है जबतक गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त नहीं होता । यह गुण श्रेणी आयाम सकल अन्तरायाम. के सख्यातवेंभागप्रमाण है, तथापि सूक्ष्मसाम्परायकाल से विशेषअधिक है । विशेष अधिकका प्रमाण सूक्ष्मसाम्परायके संख्यातवेंभाग है । ज्ञानावरणादिका गलितावशेष गुणश्रेणीआयाम भी इतना है । अपकर्षित प्रदेशाग्रका असख्यातबहुभाग जो पृथक रखा था वह गुणश्रेणीसे उपरि मस्थितियोमे दिया जाता है। 'गुणसेढि अंतरहिदि विदियट्ठिदि इदि हवंति पवतिया। सुहुमगुणादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसेढी ॥१६२॥५८३॥ अर्थ- गुणश्रेणि, अन्तरस्थिति और द्वितीयस्थिति ये तीन पर्व होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके कालसे उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिका आयाम अधिक है। विशेषार्थ- गुणश्रेणि, अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति इन तीनों प॰में अपकर्षितद्रव्यका विभाजन किया जाता है । जबतक अपकर्षितद्रव्य असंख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है वह गुणश्रेणी कहलाती है, उसके ऊपरवर्ती जिन निषेकोंका पहले अभाव किया था उनके प्रमाणरूप अन्तर स्थिति है तथा उससे ऊपरवर्ती अवशिष्ट सर्वस्थितिको द्वितीय स्थिति कहते हैं । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त मात्र है, उससे विशेषअधिक अर्थात् सख्यातवेभागअधिक गुणश्रेणी आयाम हैं। ज्ञानावरणादि कर्मोंकी भी गलितावशेषगुणश्रेणि निक्षेपका आयाम सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके कालसे अन्तमुहर्तअधिक, क्योकि इसमें क्षीणकषायगुणस्थानका काल भी गभित है। 'श्रोक्कदिइगिभागं गुणसेढीए असंखबहुभागं । अंतरहिद विदिय ठिदी संखसलागा हि अवरहिया ॥१६३॥५८४॥ गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयल द्विदिम्हि णिक्खिवदि । सेसबहुमागमावलिहीणे वितियट्ठिदीएहू ॥१६४॥५८५॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२०८-२२०६ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १३०८ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२० । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६९-७० सूत्र १३०६-१३१२ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १६५ अर्थ-अपकर्षितद्रव्यका असख्यातवां एकभाग गुणश्रेणि आयाम में दिया जाता है और शेष असंख्यात बहुभाग अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति में दिया जाता है । अन्तरस्थिति से द्वितीयस्थितिको भाग देनेसे जो संख्यातशलाकारूप लब्ध प्राप्त हो उसका भाग असंख्यातबहुभाग द्रव्यमे देनेसे जो प्राप्त हो उसका चतुरादि खण्ड में गुणा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह द्रव्य समस्त अन्तरस्थितियो मे निक्षिप्त किया जाता है और शेष बहुभाग प्रतिस्थापनावलिहीन द्वितीय स्थितियो मे दिया जाता है। (नोट- यहां जो 'चतुरादि' संख्या दी गई है वह असन्दृष्टिकी अपेक्षासे है 1 ) १६४ ] क्षपणासार विशेषार्थ - - सूक्ष्म कृष्टियोके द्वारा यद्यपि अन्तर भर दिया जाता है अर्थात् पूर्ण कर दिया जाता है और एकरूप हो जाती है, तथापि अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयकी अपेक्षा प्रथम और द्वितीयस्थितिका भेद करके अन्तरका कथन किया गया है । अन्तरस्थितियो में अपकर्षितद्रव्यके असंख्यात बहुभागका संख्यातवां एकभाग दिया जाता है या संख्या बहुभाग दिया जाता है इससम्बन्धमे दो मत हैं । इन गाथाओं के अनुसार असंख्यातवाभाग दिया गया है, किन्तु जयधवल मूल पृष्ठ २२०६ के अनुसार अन्तरस्थितियो मे सख्यातबहुभाग दिया जाता है । जयघवल मूल पृष्ठ २२१० पर इन दोनोमतोंका उल्लेख कर दिया गया है । क्षपणासार बड़ोटीका ( शास्त्राकार ) पृ० ६६७ पर जो असन्दृष्टिआदि दी गई है उसका समर्थन जयधवल मूल (चारित्रक्षपणाधिकार) आग्रन्थ से नही होता अतः यहां नही दी गई । द्वितीयस्थिति मे एक गोपुच्छहीच क्रमसे प्रदेशान तबतक दिये जाते हैं जबतक एकसमयअधिक अतिस्थापनावली शेष रह जाती है । अतिस्थापनावली में द्रव्य नही दिया जाता' । अंतर पडस ठिदित्तिय असंखगुणिदक्कमेण दिज्जदि हु । दीपक मं संखेज्जगुणं हीणक्कमं तचो ॥१६५॥ ५८६ ॥ अर्थ — अन्तरायामको प्रथमस्थिति पर्यन्त तो असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है और उसके ऊपर हीनक्रमसे (गोपुच्छ विशेषहीन) द्रव्य दिया जाता है । उसके पश्चात् सख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । १. जयघवल मूल पष्ठ २२०६ - २२१० २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७० सूत्र १३१३-१३१४ । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासाय पापा १९५] [ १६५ विशेषार्थ--यह कथन द्वितीयादि समयों की अपेक्षा है, क्योंकि प्रथमसमयका कथन गाथा १९२ में किया जा चुका है। उदयस्थितिसे लेकर मुणश्रेणियायाममें असंख्यातगुणित क्रमसे प्रदेशाग्न दिया जाता है और गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र अन्तरायामकी प्रथमस्थितिमें दिया जाता है । इस कथनको स्मरण करानेके लिए गाथामें कहा गया है कि अन्तरायामको प्रथमस्थितितक असंख्यातगुरिणतक्रमसे द्रव्य दिया जाता है, उससे अनन्तरवर्ती स्थितिसे लेकर अन्तरायामकी अन्तिमस्थितितक एक गोपुच्छविशेषसे होन द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकारसे अन्तरायामस्थितियों में प्रदेश विन्यास होता है। अन्तरायामको चरमस्थितिके अनन्तरवर्तीस्थितिमें (जो कि पूर्व में की गई द्वितीयस्थिति में आदिस्थिति है) संख्यातगुणाहीन प्रदेशान दिया जाता है अर्थात् जहांपर अन्तरायामकी अन्तिमस्थितिकी और द्वितीयस्थितिसम्बन्धी आदिस्थितिको सधि होती है वहां संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है । अन्तरायामको स्थितियोंमें अपकर्षितद्रव्यके असंख्यातबहुभागका संख्यातवांभाग या संख्यातबहुभाग दिया जावे, किन्तु द्वितीयस्थितिसम्बन्धी स्थितियों में से आदिस्थितिम संख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि अन्तरायामस्थितियोंकी अपेक्षा द्वितीयस्थितिकी स्थितियां असंख्यातगुणी हैं । उसके अनन्तरवर्तीस्थितियोमें गोपुच्छविशेषहीन द्रव्य अपनी अतिस्थापनावलीतक दिया जाता है। जितना द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमै अपकर्षित किया गया था उससे असंख्यातगुणे द्रव्यका द्वितीयसमयमे अपकर्षण होता है उसमें से उदयस्थितिमे स्तोक द्रव्य तथा द्वितीयस्थितिमें उससे (उदयस्थितिसे) असंख्यात. गुणा द्रव्य दिया जाता है । प्रथमसमयके गुणश्रेणिशीर्षसे ऊपर अनन्तरस्थितितक इसी असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, क्योंकि यहांपर मोहनीयकर्मका अवस्थितगुणश्रेणिआयाम है । द्वितीयसमयके गुणश्रेणीशीर्षसे अनन्तर उपरिम एकस्थितिमे भी असंख्यातगुणा द्रव्य दिया जाता है, उसके पश्चात् अन्तरायामकी चरमस्थितितक विशेषहीन-विशेषहीन द्रव्य दिया जाता है । इसके अनन्तर द्वितीयस्थितिकी स्थितियोंमे से प्रथमस्थितिमें संख्यातगुणाहीन प्रदेशपिण्ड दिया जाता है, उसके आगे अनन्तरवर्तीस्थितिसे लेकर जिसस्थितिमेंसे प्रदेशाग्र अपकर्षण किया गया था उससे एक आवलि नीचे तक असंख्यातगुणेहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयोंमें प्रदेशाग्रका अपकर्षण व नि:सिंचन होता है। द्वितीयस्थितिके समस्तद्रव्यका संख्यातवांभाग प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके लिए अपकर्षित होता है जो पूर्वोक्त विधिके अनुसार Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा १६६-१६५ दिया जाता है। चरमफालिके पतन होनेपर गुणश्रेणिके बिना सूक्ष्मसाम्परायिक स्थितियों का द्रव्य एकगोपुच्छाकार रूप हो जाता है। प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके पतन होनेके अनन्तरसमय में द्वितीयस्थितिकाण्डकका प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु इसका आयाम प्रथम स्थितिकाण्डकायामसे स्तोक है। द्वितीयस्थितिकाण्डकसे अपड़ र्षण करके जो प्रदेशाग्न उदयस्थिति में दिया जाता है वह अल्प है इससे आगे असंख्यातगुणीश्रेणिके क्रमसे गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तर उपरिम एकस्थितितक द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे गोपुच्छविशेषसे हीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। यही क्रम सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके मोहनीयकर्मके स्थितिघात होनेतक रहता है। 'अंतरूपढमठिदित्ति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणकमेण असंखेज्जेण गुणं तो विहीणकमं ॥१६६॥५८७॥ अर्थ-अन्तरकी प्रथमस्थितिपर्यन्त प्रदेशाग्न असख्यात गुणे क्रमसे दिखाई देते हैं, इससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्न दिखाई देते हैं, तदनन्तर असख्यातगुणे और तत्पश्चात् विशेषहीन क्रमसे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं। विशेषार्थ-इस गाथामें प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायके दृश्यमान प्रदेशाग्रकी श्रेणिप्ररुपणा बतलाई गई है। प्रथमसमयमें सूक्ष्मसाम्परायकी उदयस्थिति में अल्प प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, द्वितीयस्थितिमे असख्यात्तगुणे प्रदेशाग्न दिखाई देते हैं। इसप्रकार यह असंख्यातगुणाक्रम गुणश्रेणीशीर्षतक जानना तथा उससे आगे चरमअन्तरस्थितितक विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देता है। तदनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् विशेषहीन प्रदेशान दिखाई देते हैं। यह क्रम तबतक रहेगा जबतक कि कि प्रथमस्थितिकाण्डकके समाप्त होने का चरमसमय प्राप्त नही होता । कंडरगुणचरिमठिदी सविलेला चरिमफालिया तस्स । संखेजभागमंतरठिदिम्हि सब्जे तु वहुभागं ॥१६७॥५८८॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२०६ से २२१३ तक । २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७०-७१ सूत्र १३१६ से १३२५ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०४ । ३. अयघवल मूल पृष्ठ २२१३-२२१४ । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १६८ } [ १६७ अर्थ- चरमस्थितिको काण्डकायामसे गुणाकरके उसमें विशेष ( चय) द्रव्य मिलानेसे चरमफालिका द्रव्य होता है उसको संख्यातवां भाग अन्तरस्थितियों में देता है और बहुभाग सर्व स्थितियों में देता है । क्षपणासार विशेषार्थ - द्वितीयस्थितिकें प्रथमनिषेक में एककम द्वितीयस्थितिआयाम प्रमाण विशेष घटानेपर उसके चरमनिषेकका द्रव्य होता है, उससे लेकर नीचे के कांण्डकायामात्र निषेकका द्रव्य अन्तिमफालिमें ग्रहण करता है उससे उस अन्तिमनिषेकके द्रव्यको काण्डकाया से गुणा करनेपर वहां अधस्तन निषेकमें जो विशेषअधिक पाया जाता है उनको मिलानेपर अन्तिमफालिके सर्वद्रव्यका प्रमाण होता है इसमें अधस्तन निषेकों का अपकर्षण किये हुए द्रव्यको जोड़नेपर जो द्रव्य होता है उसको पत्यके असख्यातवें भागका भागदेकर एकभागको गुणश्रेणी प्रयास में देनेके पश्चात् अवशिष्ट द्रव्यके संख्यातवेंभागको अन्तरायामको स्थितियों में और शेष बहुभागको द्वितीयस्थितिकी स्थितियो में गोपुच्छाकाररूपसे एक-एक चयरूप हीन द्रव्य देता है | अंतरपदमठिदित्तिय संखगुणिक्कमेण दिज्जदि हु । दीगं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुषादोत्ति ॥ १६८ ॥ ५८६ ॥ अर्थ- सूक्ष्म साम्परायगुणस्थान में मोहनीय कर्म सम्बन्धी द्वितीयस्थितिकाण्डकघात से लेकर द्विचरमकाण्डकघात पर्यन्त अन्तरायामकी प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है तथा उसके ऊपर एक-एक चर्यरूप हीनद्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ - - मोहकर्म के द्वितीयस्थितिकाण्डकघात से लेकर द्विचरमकाण्डकघात - पर्यन्त काण्डर्कसे गृहोत स्थिति से नीचे और उदयावलिसे ऊपर जो निषेक हैं उनके द्रव्यको अपकर्षणभागहारेका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्य ग्रहणकरके पुनः उसको पल्यका असंख्यातवें भाग का भागदेकर एकभागको पूर्वोक्तप्रकार गुणश्रेणियायाम में प्रथम उदयनिषेकमे तो स्तोकद्रव्य तथा द्वितीयादि निषेकोसे गुणश्रेणिशीर्ष पर्यन्त असंख्यात - गुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है । अवशिष्ट बहुभागमात्रद्रव्यको गुणश्रेणिसे ऊपरकी स्थितियों में दिया जाता है । गुणश्रेणिके ऊपरवर्ती निषेकोमे जो द्रव्य देता है वह गुणश्रेणी शीर्ष में दिये गए द्रव्य से असंख्यातगुणा है । इसप्रकार अन्तर के प्रथम निषेक पर्यन्त तो असंख्यातगुणे क्रमसे तथा उसके ऊपर एक- एक विशेष ( चय) रूप घटते क्रम से द्रव्य दिया जाता है । यह क्रम प्रतिस्थापनावलि प्राप्त होनेतक पाया जाता है । सर्वस्थिति Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १६८) [गाथा १९९-२०० काण्डकोंमे जबतक चरमफालि प्राप्त नहीं होती तबतक जो अपकृष्टद्रव्य है वह सम्पूर्णद्रव्यका यसंख्यातवेंभागमात्र तथा अन्तिमफालिका द्रव्य सर्वद्रव्यके संख्यातवेंभागप्रमाण है। 'अंतरपदमठिदिति य असंखगुणिदक्कमेण दिस्सदि हु। हीणं तु मोह विदियट्ठिदिखंडयदो दुघादोत्ति ॥१६६॥५६॥ अर्थ-मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिकाण्डक निर्लेपित होनेपर द्वितीयस्थितिकाण्डकघातसे द्विचरमकाण्डकघातपर्यन्त दृश्यमान द्रव्य गुणश्रेणिके प्रथमनिषेक में स्तोक है, उससे गुणश्रेणिशीर्षके ऊपरवर्ती अन्तरायामकी प्रथमस्थितिपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसहित है और उसके ऊपर चरमसमयपर्यन्त विशेष घटते हुए क्रमसे दृश्यमान द्रव्य है, क्योकि प्रथमकाण्डककी चरसफालिका पतनसमयमे गुणश्रेणीसे ऊपर सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है । पढमगुणसेडिसीलं पुश्विल्लादो असंखसंगुणियं । उपरिमलमये दिस्सं विसेसअहियं हवे सीसे ॥२००॥५६१॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानसम्बन्धी प्रथमस्थितिकाण्डकके निर्लेपित होने के पश्चात् अर्थात् द्वितीयस्थितिकाण्डकके प्रथमसमयमें गुणजिशीर्ष पूर्वसमयके गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणा दिखाई देता है, किन्तु आगे द्वितीयादि समयो में गुणश्रेणिशीर्ष पूर्व समयवर्ती गुणश्रेणिशीर्षसे अधिक दिखाई देता है । विशेषार्थ-द्वितीयस्थितिकाण्डकमें अपकर्षितकरके ग्रहण किया गया समस्तद्रव्य भी मिलकर एकस्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवेंभागसे भाजितकरके जो १. जयघवल मूल पृष्ठ २२१३ प. ८-१०॥ २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२६-१७; धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२१४ । ४. "गुणसे डि दिस्समाण दव्वमेत्तो पाए असखेज्जगुणं ण होदि विसेसाहिय चेव होदि । तत्य कारण परूवरणा जहा दसरणमोहक्खवणाए सम्मत्तस्स अट्ठ वस्सट्टि सत्तकम्मादो उवरि मरिगदा तहा चेव मगिदूण गेण्हियष्वा ।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२१५) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०१-२०२ ] [ १६६ एकभाग लब्ध आवे उतना है और वह मोहनीयकर्मके स्थितिसत्कर्मप्रमाण निषेकों में अपकर्षणभागहारका भाग देनेपर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है । पुनः उसके भी असंख्यातवें - भागप्रमाण द्रव्यको ही नीचे गुणश्रेणिमें सिंचित करता है । शेष असंख्यात बहुभागको इससमयके गुणश्रेणीशीर्षसे उपरिम गोपुच्छाप्रो में आगममें प्ररूपित विधिके अनुसार सिंचित करता है । इसकारण से पहले के गुणश्रेणिशीर्ष से इससमयका गुणश्रेणिशीर्ष असंख्यातगुणा नही हुआ, किन्तु दृश्यमानद्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिए | यहां पर अवस्थित गुणश्रेणिआयाम होने से प्रतिसमय ऊपर-ऊपरका विषेक गुणश्रेणिशीर्ण होता जाता है' । क्षपणासार सुमद्धादो श्रहिया गुणसेढी अंतरं तु तत्तो दु । पढमे खंड पढमे संतो मोहस्स संखगुणिदकमा ॥ २०१ ।। ५६२ ।। अर्थ-- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल से उसीके असंख्यातवें - भागसे अधिक सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका गुणश्रेणीश्रायाम है, उससे अन्तरायाम संख्यातगुणा, उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके मोहनीय कर्मका प्रथम स्थितिकाण्डकायाम सख्यातगुणा तथा उससे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुरणा है । सर्वत्र गुरणकार तत्प्रायोग्य संख्यातगुणा है । "एदेणप्पा बहुग विधा विदीयखंडयादी | गुणसे डिमुज्झियेया गोपुच्छा होदि सुहुमहि || २०२ ||५६३ ॥ अर्थ - इस अल्पबहुत्व विधानके द्वारा साम्पराय गुणस्थान में द्वितीय स्थितिकाण्डकोंके काल में गुरणश्रेणिको छोड़कर उसके ऊपरवर्ती सर्वस्थितिका एक गोपुच्छ होता है । विशेषार्थ - यहां अंतरायामसे प्रथम स्थितिकाण्डकायास संख्यातगुणा कहा है, उससे प्रथमस्थितिकाण्डककी चरमफालिके द्रव्यमें अन्तरायाममें देनेयोग्य गोपुच्छरूप १. जयघवल पु० १३ पृष्ठ ६८ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३३० से १३३५ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४०५ । २. जय घ० मूल पृष्ठ २२१४-२२१५ ॥ ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७१ सूत्र १३२८ । ६० पु० ६ पृष्ठ ४०५ | Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १७०] [ गाथा २०३-२०४ द्रव्यको अंतरायाममें देकर द्वितीयस्थितिके और इस अन्तरायामके एकगोपुच्छ किया जो प्रथमस्थितिकाण्डकायाममे अन्तरायाम बहुत होता तो वहां अन्तरायाम पूर्ण नही होता तव अन्तरस्थितिके और द्वितीयस्थिति के एक गोपुच्छ नहीं होता । अतः यहां अन्तरायाम से प्रथमस्थितिकाण्डकायाम बहुत कहा है, उससे अन्तरायाम और द्वितीयस्थितिके एकगोपुच्छ प्रयमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके पतनसमयमे ही होता है। जहां विशेष (चय) रूप घटता क्रम होता है वहा गोपुच्छ मज्ञा है । सुहुमाणं किट्टी हेटा अणुदिण्णगा हु थोवाओ। उवरिं तु विसेसहिया मज्झे उदया असत्रगुणा ॥२०३।।५६४॥ अर्थ- सूक्ष्म साम्परायिककृष्टियोके अधस्तनभागमें अनुदीर्णकष्टियां स्तोक है, उपरिमभागमें अनुदीर्ण सूक्ष्मकृष्टिया विशेषअधिक हैं। मध्यमे उदोर्ण सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणी हैं। विशेषार्थ-प्रथमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकक्षपकके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियों के असंख्यातबहुभाग उदोर्ण होते हैं । ये उदीर्णमान सूक्ष्मकृष्टियां ऊपर और नीचेके संख्यातवेंभागको छोड़कर मध्यके बहुभागमें पायी जाती है। अघस्तन अनुदीर्णसूक्ष्मकृष्टिया स्तोक हैं, उपरिम अतुदीर्णसूक्ष्मकृष्टियां विशेषअधिक है, मध्यमें उदीर्णमान सूक्ष्मकृष्टियां असंख्यातगुणो है। जिसप्रकार सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके प्रथमसमयमें उदीर्ण और अनुदोर्णकृष्टियोका कथन किया है वैसा ही द्वितीयादि समयोंमें जानना, उसमे कोई विशेषता वही है, किन्तु द्वितीयसमयमे पूर्व उदीर्णमान कृष्टियोके असंख्यातवेभागको छोड़ देता है और अधस्तन अतुदोर्णकृष्टियां असंख्यातवेभाग बढ़ जाती है । सुहुमे संखसहस्से खंडे तीदे वसाणखंडेण । अागायदि गुणसेढी आगादो संखभागे च ॥२०४॥५६५॥ १. जयवल मूल पृष्ठ २२१४ । २ क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३३६ से १३४३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२१७ । ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३४४ । ध० पु०६ पृष्ठ ४०६ । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २०४ ] [ १७१ अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराय में संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर अन्तिमस्थिति काण्डव से पूर्वगुणश्रेरिण आयामके संख्यातवेंभागमात्र आयाममें गुणश्रेणि करता है। विशेषार्थ:-- सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संख्यातहजार स्थिति काण्डकोको ग्रहण करनेवाला, सूक्ष्मसाम्प रायके प्रथमसमयमे जो गुणश्रेरिणनिक्षेप सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानके कालले विशेष अधिक था उसके सख्यातवेभाग अनस्थितियोको घातके लिए ग्रहण करता है अर्थात् सूक्ष्मसाम्प राय कालप्रमाण स्थितियोको छोड़कर शेष जितने भी अधिक निक्षेप थे उन सबो काण्डव रूपसे ग्रहण करता है। मात्र इतनी ही स्थितियोको नही ग्रहण करता, किन्तु गुणश्रेणिशीषं (गुणश्रेरिणनिक्षेप) से ऊपर सख्यातगुणी स्थितियोंको चरमस्थितियाण्डररूपसे ग्रहण करता है, क्योकि उनके ग्रहणबिना गुणश्रेणिशीर्षका काण्डकरूपसे गहण होना असम्भव था । अत' गुणश्रेणिशीर्षके साथ उपरिम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण संख्यातगुणी स्थितियोका चरमस्थितिकाण्डक मे ग्रहण होता है। चरमस्थितिकाण्ड के प्रथम समयमे प्रथमफालिके लिए द्रव्यका अपकर्षणकरके उदयस्थितिमें थोड़े प्रदेशाग्रको देता है, उससे अनन्तरस्थितिमे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्न देता है। सूक्ष्मसाम्परायगुणस्यानके अन्तिमसमय तक इस असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे निक्षेप होता है वही अब गुरगणोशीप है, उससे ऊपर अनातर स्थितिमे असंख्यातगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है, उसके पश्चात् पुरातन गुणश्रेणिशीर्षतक हीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । उससे अनन्तर उपरिम एकस्थिति में असख्णतगुणाहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है, उससे आगे चरमस्थितिसे आवलिकाल पूर्वतक विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। इसीप्रकार द्वितोयादि फालियोमें भी प्रदेशाग्र देता है । प्रदेशाग्रनिक्षेप यह क्रम चरमस्थितिकाण्डकको हिचरमफालिपर्यन्त रहता है । चरमस्थितिकाण्डकको चरमफालिके द्रव्यको ग्रहणकर उदय स्थितिमे स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशाग्नको देता है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानको चरम स्थितितक असख्यातगुणी श्रेरिणरूपसे प्रदेशाग्रका निक्षेप करता है । द्विचरमस्थितिमें जितने प्रदेशाग्रका निक्षेप करता है उससे पल्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूलगुणे (पल्यका प्रथमवर्गमूल असंख्यात) प्रदेशाग्र को चरमस्थिति में निक्षिप्त करता है। पूर्वगुणाकार पल्योपमके तत्प्रायोग्य असंख्यातवेंभागप्रमाण है अर्थात् प्रथमस्थितिसे पल्योपमके असंख्यातवेभागगुणा प्रदेशाग्र द्वितीयस्थितिमें देता है उससे भी पल्योपमके असंख्यातवेंभागगुणा प्रदेशाग्र तृतीयस्थितिमें देता है । इसप्रकार यह क्रम द्विचरमस्थितितक यह क्रम रहता है अतः द्विचरमस्थितितक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] क्षपणासार [ गाथा २०५ अन्तिमफालिका असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्य और चरमस्थितिमै शेष बहुभाग प्रदेशाग्र देता है इसीलिये गुणाकार पत्योपमके असंख्यात प्रथमवर्गमूल प्रमाण हो जाता है। इस. प्रकार चरमस्थिनिकाण्डकके निर्लेपित होनेपर मोहनीयकर्मको स्थितिघातादि क्रिया नही होती, मात्र अघ.स्थितिगलनाके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियां निर्जराको प्राप्त होती हैं। एत्तो सुहमंतोत्ति य, दिज्जस्त य दिस्तमाणगस्त कमो । सम्म तचरिमखंडे, तक्कदिकज्जेवि उत्तं च ॥२०५॥५६६॥ अर्थ-इसप्रकार यहांसे लेकर सूक्ष्म साम्परायिकगुणस्थानके चरमसमयपर्यन्त देयद्रव्य और दृश्यमानद्रव्यका क्रम जानना । जैसे क्षायिकसम्यक्त्वविधान में सम्यक्त्वमोहनीयके चरमस्थितिकाण्डकमे अथवा उसको कृत्य कृत्यावस्था में (कृतकृत्यवेदक सम्यपावकी अवस्थामे) कहा था वैसे ही जानना । विशेषार्य-यहां मोहनीयकर्मको सर्वस्थितिमें सूक्ष्म साम्परायका जितना काल अवशिष्ट रहा उतनेप्रमाण स्थितिबिना अवशेष सर्वस्थितिका घात चरमकाण्डकद्वारा किया जाता है वहां इस काण्डककी स्थितिसम्बन्धी निषेकों के द्रव्य में जो द्रव्य अन्तिमकाण्डकोत्कीरणकालके प्रथमसमय में ग्रहण किया उसको प्रथमकाल कहते हैं। इसीको स्पष्ट करते हैं प्रथमकालिके द्रव्यको अपकर्षणकरके उसको पल्यके असंख्यातवेंभागका भाग देकर उसमे वहुभागमात्र द्रव्यको यहां (प्रथमफालिके पतन समय) सम्बन्धो सूक्ष्मसाम्पराय कालके चरमस पयपर्यन्त तो गुणश्रेणिआयामरूप प्रथमपर्वमें देता है। वहां उसके (गुणणि पायामके) उदयरूप प्रथमनिषेकमे स्तोक उससे द्वितीयादि निषेकोंमे असख्यात. गुने कापसे द्रव्य दिया जाता है (यहां सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमयको गुणश्रेणीजोपं कहते हैं) तया अवशेप एक भागप्रमाण द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागका भागकार बहभागप्रमाण द्रव्य गुणरेणोशोर्षसे ऊपर जो गुणश्रेणिआयाम था उसके शीर्षपांन्त दिनोवपर्व में दिया जाता है, यह द्रव्य गुणश्रेणोशोर्ष मे दिये गए द्रव्यसे असंख्यातगुना काम है। उसके ऊपर द्वितीयादि निषेकोमे चयरूपसे होन क्रमयुक्त द्रव्य दिया १ उपधानमून पृष्ठ २२१७-१८ । जयधवल पु० १३ पृष्ठ ७६ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाथा २०६ क्षपणासाय जाता है तथा अवशेष रहे एकभागप्रमाण द्रव्यको द्वितीयपर्वके ऊपर जो सर्वस्थिति है, उसके अन्त में अतिस्थापनावलिबिना सर्वनिषेकरूर तृतीयपर्व में देता है। पुरातन गुणश्रोणिशीर्ष में दिये गये द्रव्यसे असंख्यातगुणाकम द्रव्य अनन्तरस्थितिमै देता है तथा उसके ऊपर चयरूप हीनक्रमसे द्रव्य देता है। इस प्रकार चरमकाण्डककी प्रथमफालिके पतनसमय में द्रव्य देनेका विधान कहा है। ऐसा ही विधान चरमकाण्डकको द्विचरमकालिके पतनपर्यन्त जानना चाहिए । अब चरमकाण्डकको अन्तिमफालिमें द्रव्य देने का विधान कहते हैं किंचित्ऊन द्वयर्धगुणहानि (डेढ़गुरसहानि) गुणित समयप्रबद्धप्रमाण चरमफालिका द्रव्य है उसको असंख्यातगुणे पल्यके वर्गमूलप्रमाण पत्यके असख्यातवेंभागका भाग देकर उसमें से एकभागप्रमाण द्रव्यको वर्तमानमें उदयरूप समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके द्विचरमसमयपर्यन्त निषेकरूप प्रथमपर्वमै देता है। वहां प्रथमनिषेकमें स्तोक, द्वितीयादिनिषेकोंमें असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य देता है तथा अवशेष बहुभागप्रमाण द्रव्य सूक्ष्म साम्परायके चरमसमयसम्बन्धो निषेकरूप द्वितीयपर्व में दिया जाता है । यह द्रव्य द्विचरमसमयमै दिये गये द्रव्यसे असंख्यातपल्यवर्गमूलसे गुणित जानना' । इसप्रकार देय द्रव्यका विधान कहा है, ऐसे हो दृश्यमानद्रव्यका विधान भी यथासम्भव जान लेना चाहिए। 'उकिकरणे अवसाणे खंडे मोहस्स णत्थि ठिदिघादो। ठिदिसत्तं मोहस्त य सुहुमद्धासेसपरिमाणं ॥२०६॥५६७॥ अर्थ-इसप्रकार मोहराजाके मस्तकसदृश लोभके चरमकाण्डकका घात करते हुए अब मोहनीयकर्मका स्थितिघात नहीं होता है । सूक्ष्मसाम्परायका जितनाकाल अब शेष रहा है उतना ही मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व शेष रहा जो कि प्रति समय अपवर्तमान सूक्ष्मकृष्टिरूप अनुभागको प्राप्त होता है उसके एक-एक निषेक को एक-एक समयमे भोगते हुए सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयको प्राप्त होता है। १. जयघवल पु० १३ पृष्ठ ७२ से २० । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८७२ सूत्र १३४५-४६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०६-४०७ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२१८ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १७४ ] [गाथा २०७-२०६ 'णामदुगे वेदणीये अडवारमुहत्तयं तिघादीणं । अंतोमुहत्तमेत्तं ठिदिवंधो चरिम सुहम म्हि ॥२०७॥५६८॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमय में, नाम व गोत्रकर्मका आठ मुहूर्तप्रमाण, वेदनीयकर्मका बारह मुहूर्तप्रमाण तथा तीन घातियाकर्मोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। तिरह घादीणं ठिदिसंतो अंतोमुहुत्तमेत्तं तु । तिहमघादीणं ठिदिसंतमसंखेज्जवसाणि ॥२०८1५६६।। अर्थ--सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें तीनघातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय) कर्मोंका स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण तथा तीन अघातिया (वेदनीय, नाय व गोत्र) कर्मोंका स्थितिसत्त्व असख्यातवर्षप्रमाण है। विशेषार्थ-घातियाकर्मोंके स्थितिसत्त्वका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कहा गया है वह क्षीणकषायगुणस्थानके कालसे संख्यातगुणा है । मोहनीयकर्मका स्थितिसत्त्व क्षयके सम्मुख है अर्थात् पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे यद्यपि इस समय विद्यमान है, तथापि उपपादानुच्छेदकी अपेक्षा नष्ट ही हो गया है । इसप्रकार क्षयके सम्मुख लोभकी सग्रहकृष्टिका अनुभव करता है, सो सूक्ष्मसाम्परायचारित्रसे युक्त सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानवर्ती जीव है ऐसा जानना । इसप्रकार कृष्टिवेदनाधिकार पूर्ण हुआ। से काले सो खीणकसानो ठिदिरसगबंधपरिहीणो । सम्मत्तडवस्सं वा गुणसेडी दिज्ज दिस्सं च ॥२०६॥६००॥ अर्थ-जो अनन्तर अगले समयमें क्षीणकषाय हो जाता है उसके स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध नहीं होता है । दर्शनमोहकी क्षपणामे जब सम्यक्त्वप्रकृतिकी आठवर्ष १. क पा. सुत्त पृष्ठ ८६४ सूत्र १५५७-१५५८ । घवल पु० ६ पृष्ठ ४१०-११ । जयधवल मूल पृष्ठ २२६३ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६४ सूत्र १५५६-६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०७ । ज. प. मूल पृष्ठ २२६३ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६४ सूत्र १५६२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४११ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाथा २०६] ধত্বষাৰ [ १७५ प्रमाण स्थिति रह जाती है तब जिसप्रकार गुणश्रेणीनिर्जरा, देयद्रव्य व दृश्यमानद्रव्य कथन है उसीप्रकार यहां भी जानना । विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्म का क्षय होनेके अनन्तरवर्ती समयमें द्रव्य व भावकषायसमूहसे उपरम (रहित) हो जानेसे क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त होता है और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयमी हो जाता है । प्रथमसमयमें निम्रन्थ वीतरागगुणस्थानको प्राप्त कर लेता है । क्षीणकषायगुणस्थानका लक्षण इसप्रकार कहा है हिस्सेसखीणमोहो फलिहामलभायणुदय समचित्तो। खीणकसाओ भण्णदि णिग्गंथो वीयराएहिं ।।' मोहकर्मके निःशेष क्षीण हो जानेसे जिसका चित्त स्फटिकके निर्मलभाजनमें रखे हुए सलीलके समान स्वच्छ हो गया है ऐसे निर्ग्रन्थसाधुको वीतरागियोंने क्षोणकषायसंयत कहा है। उस क्षीणकषायावस्थामें सर्वकर्मोके स्थिति, अनुभाग व प्रदेशका अबन्धक हो जाता है । स्थिति व अनुभागबन्धका कारण कषाय है, क्योंकि कषायका स्थितिआदि बन्धके साथ अन्वय-व्यतिरेक है। संश्लेषरूप कषायपरिणामोंके अपगत (व्यतीत) हो जानेसे क्षोणकषायी जीवके स्थितिआदि बन्ध सम्भव नहीं है। प्रकृतिबन्धका कारण योग है जो क्षीणकषायी जीवके भी सम्भव है इसलिए प्रकृतिबन्धका निषेध नही किया गया । सातावेदनीयके अतिरिक्त अन्य प्रकृतियोंका बन्ध क्षीणकषायगुणस्थान में नहीं होता, क्योंकि सूखे भाजनपर धूलके समान बन्धके अनन्तरसमयमें गल जाती हैं अर्थात् अकर्मभावको प्राप्त हो जाती है। स्थिति और अनुभागबन्धको कारणभूत कषायकी सगतिका अभाव होनेसे दूसरे समयमें ढुक (निर्जीर्ण) हो जाता है, ईर्यापथ बन्धकी निर्जराका इसप्रकार उपदेश है। जहाँपर ईर्यापथ कर्मवर्गणाओंके लक्षणका विस्तार. पूर्वक कथन है वहांसे विस्तार जानना चाहिए । क्षोणकषायसे अधस्तनवर्ती गुणस्थानों १. गोम्प्रटसार जीवकाण्ड गाथा ६२ । २. जयधवलाकारने क्षीणकषायवर्ती को प्रदेशका भी अबन्धक कहा है और योगसे मात्र प्रकृतिवन्ध कहा है, किन्तु गो० क० गाथा २५७ मे योगको प्रकृति व प्रदेश दोनोके बन्धका कारण कहा है। ३. धवल पु० १३ पृष्ठ ४७ से ५४ तक । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २१० ×૭૬ जो गुणश्रेणिनिर्जरा होती थी, क्षीणकषायगुणस्थान में वह गुणश्रेणी निर्जरा पूर्वसे असंख्यातगुणी हो जाती है । सकषायपरिणामसे होनेवाली गुणश्रेणिनिर्जराकी अपेक्षा अकषायपरिणामों से होनेवाली गुणश्र णिनिर्जरा असख्यातगुणी है । सम्यक्त्व प्रकृतिके चरमस्थितिकाण्डकघात तथा देयमान व दृश्यमानद्रव्य एव गुणश्रेणिनिर्जराका जैसा कथन ( गाया २०५ मे ) है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए' । क्षपणासार घादी मुहुतं अघादियाखं असंखगा भागा । ठिदिखंडं रसखंडो प्रांतभागा असत्थाणं ॥ २१० ॥ ६०१ ॥ अर्थ - क्षीणकषायगुणस्थान मे तीनघातिया कर्मोंका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण श्रीर तीनप्रघातिया कर्मोका पूर्वसत्त्व असंख्यात बहुभागमात्र स्थितिकाण्डकायाम है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोके पूर्व अनुभागको अनन्तका भाग देनेपर उसमें से बहुभागप्रमाण अनुभाग काण्डकायाम है | विशेषार्थ - क्षीणकषायगुणस्थान के प्रथम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकमका अन्तर्मुहूर्त आयामवाला स्थितिकाण्डकघात होता है, उन्ही कर्मोंके घातसे शेष रहे हुए अनुभाग के बहुभागका अनुभाग काण्डकघात होता है । नाम-गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोकी शेष स्थितिसत्त्वके असंख्यात बहुभागवाला स्थितिकाण्डकघात होता है और इन तीनो अघातिया कर्मोकी अप्रशस्त प्रकृतियो के अनुभागसत्त्वके अनन्तबहुभागका अनुभागकाण्डकघात करता है । छहो कर्मों के प्रदेशपिण्डको अपकर्षण करके गुण णिरूपसे विन्यास करनेवाला उदयस्थिति में स्तोक प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिमे असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र निक्षिप्त करता है । क्षीणकषायकालसे असंख्यातर्वेभाग आगे जाकर गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त होनेतक इसप्रकार असख्यातगुणश्रेणिरूपसे प्रदेशाग्र देता जाता है, पुन. गुरण रिगशीर्ष से अनन्तर उपरिम स्थितिमे भी असख्यातगुणा द्रव्य देता है, क्योंकि गुरण णिमे अपकषितद्रव्यका असख्यातवां भाग दिया जाता है और असख्यातबहुभाग गुरणश्र णिशीर्षसे ऊपरकी स्थितियोंमे दिया जाता है । इसको उपरिममध्वान से खण्डित करनेपर अर्थात् उपरिम अध्वानमें विभाजन करनेपर एकखण्डप्रमाण प्रदेशाग्र से गुणश्रेणीशीर्षकी अनन्तर उपरिमस्थिति रची जाती है । १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६४-६५ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २११ ] [ १७७ अतः उपरिम अनन्तर स्थितिमें गुणश्रेणीशीर्षसे असंख्यातगुणे प्रदेशाग्न हैं, उसके ऊपर चरमस्थितिसे आवलिपूर्वतक विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। इसप्रकार द्वितीयादि समयोंमे भी अवस्थितगुणश्रेणी प्ररुपणा जानकर करना चाहिए । बहुठिदिखंडे तीदे संखा भागा गदा तदद्धाए । चरिमं खंडं गिराह दि लोभं वा तत्थ दिज्जादि ।।२११॥६०२॥ अर्थ-पूर्वोक्तकमसे बहुत (सख्यातहजार) स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर क्षीणकषायकालके संख्यात बहुभाग चले जानेके पश्चात् जब एक भाग अवशेष रहा तब तीन घातियाकर्मोके चरमकाण्डकको ग्रहण करता है। वहां देयआदि द्रव्यका विधान सूक्ष्मलोभके समान जानना । विशेषार्थ-यहां क्षीणकषायगुणस्थानके अवशिष्टकालके बिना तीनघातिया कर्मोकी शेष बची सर्वस्थितिको चरमकाण्डकके द्वारा घातता है । क्षीणकषायगुणस्थानके ऊपर और क्षीणकषायसम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्षके नीचे गुणश्रेणिके अधस्तनवर्ती क्षीणकषायकालके संख्यातवेंभागप्रमाण निषेक और गुणश्रेणिशीर्षके ऊपर संख्यातगुणे उपरितन निषेकको ग्रहणकरके अन्तिमकाण्डकद्वारा लांछित (खंडित) करता है ऐसा जानना । उसके (अन्तिमकाण्डक) द्रव्य देनेका विधान जैसे लोभके अन्तिमकाण्डकमें कहा था उसीप्रकार जानना । इस प्रकार अन्तिमकाण्डककी प्रथमादि फालियोंका घातकरके पश्चात् किंचित्ऊन द्वयर्धगुणहानि (डेढगुणहानि) गुणित समयप्रबद्धप्रमाण चरमफालिके द्रव्यको उदयनिषेकसे लेकर क्षीणकषायके द्विचरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे और द्विचरमसमयमे दिये गए द्रव्यसे असंख्यातपल्यवर्गमूलगुणा द्रव्य क्षीणकषायके चरमसमयसम्बन्धी निषेकमे देता है। . ' जबतक एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रहता है तबतक तीनघातिया कर्मोंकी उदीरणा होती है उसके पश्चात उदयावलि शेष रह जानेपर उदीरणा नहीं होती। प्रतिसमय एक-एक निषेकका उदय होकर निर्जरा होती है । क्षोणकषायकाल में प्रथमशुक्लध्यान और पश्चात् द्वितीय शुक्लध्यान होता है, क्योंकि सुविशुद्ध शुक्लध्यानपरिणामके बिना कर्म निमूल नहीं होते हैं । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६५ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २२६५ । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] [ गाथा २१२ चरि खंडे पडदे कदकर णिज्जोति भरदे एसो । ate दुरिमे गिद्दा पयला सत्तुदद्यवोच्छिणा ॥ २१२॥६०३॥ क्षपणासार अर्थ--अन्तिमकाण्डकके पतित होनेपर कृतकृत्य छद्मस्थ कहलाता है । क्षीणकषायके द्विचरमसमय में निद्रा और प्रचला सत्त्व- उदयसे व्युच्छिन्न हो जाते है । विशेषार्थ -- चरम स्थितिकाण्डक निवृत्त होनेके पश्चात् तीनघातिया कर्मोंकी गुणश्रेणिक्रिया नहीं होती, किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित प्रदेशाग्रसे असंख्यातगुणी | श्रेणिरूप से उदीरणा होती है अतः वह कृतकृत्य है' । क्षीणकषायके चरमसमय से अनंतर अधस्तनसमय द्विचरमसमय है, उस द्विचरमसमय में दर्शनावरणकर्मकी निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतियां एकसाथ उदय और सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं, क्योकि घातिया कर्मरूप ई धनको जलानेवाली द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा क्षीणकषायी के निद्रा व प्रचला प्रकृति की उदयव्युच्छित्ति सम्भव है । शङ्का - क्षीणकषायी जीवके ध्यानपरिणामसे विरुद्धस्वभाववाली निद्रा और प्रचलाका उदय कैसे सम्भव है ? समाधान - ऐसी शंका नही करना चाहिये, क्योंकि ध्यानयुक्त अवस्था में भी निद्रा और प्रचलाके अवक्तव्य (अवक्तव्य - अप्रगट) उदयके विरोधका अभाव है । क्षीणकषायकालके आदिंसे लेकर कुछ कालतक तो पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक - प्रथमशुक्लध्यानका पालन करते हुए जब अपने कालका संख्यातवां भाग शेष रह जाता है तब एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानको अर्थ व्यञ्जन व योगसक्राति से रहित ध्यानेवाला अवस्थित यथाख्यात विहारशुद्धिसयम परिणामवाला, अवस्थित गुणश्र ेणि निक्षेपके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुरगी निर्जरा करनेवाला क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती जीव अपने द्विचरमसमय में निद्रा और प्रचला प्रकृतिके सत्त्व और उदयकी व्युच्छित्ति करता है । कहा भी है १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६५ । २. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१३-२१४ ] [ १७९ 'उपशान्तकषायी अथवा क्षीणकषायी पूर्वोके ज्ञाता तीनों योगवालेके, शुक्ललेश्यायुक्त एवं उत्तमसंहननवाले के प्रथम शुक्लध्यान होता है । प्रथमशुक्लध्यानके समान ही द्वितीयशुक्लध्यान भी जानता, किन्तु इतनी विशेषता है कि द्वितीयशुक्लध्यान एकयोगवाले के होता है । क्षीणकषायीके यह द्वितीयशुक्लध्यान ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायकर्मका विरोध करनेके लिये होता है । क्षपरणासार कोहस्स य पढमठिदीजुत्ता कोहा दिएक्कदोतीहिं । खवद्धाहिं कमसो माणतियाणं तु पढमठिदी ॥ २१३ ॥ ६०४ ॥ मातियादयमहो कोहादि गिदुतियं खवियपणिधम्हि । हयक कि द्विकरणं किच्चा लोहं विणासेदि ॥ २९४ ॥ ६०५ ॥ अर्थ — क्रोधकी प्रथमस्थितिसहित क्रोधादि एक-दो-तीन कषायों का क्षपणाकाल क्रमसे मानादि तीनकषायोंकी प्रथम स्थिति होती है । मानादि तीनकषायों सहित श्र ेणी चढनेवाला जीव क्रमसे क्रोधादि एक-दो-तीन कषायोंके क्षपणाकालके निकट अश्वकर्णसहित कृष्टिकरणको करके लोभको नष्ट करता है । विशेषार्थ—अन्तरकरणसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त अबतक जो प्ररूपणा की गई है वह पुरुषवेदके उदयसहित संज्वलनक्रोधके उदयवाले क्षपककी प्ररूपणा है, किन्तु १.. "शान्त क्षीणकषायस्य, पूर्वज्ञस्य त्रियोगिनः । शुक्लाद्यं शुक्ललेश्यस्य, मुख्यं संहननस्य तत् ॥१॥ द्वितीयस्याद्यवत्सर्वं विशेषस्त्वेकयोगिनः । विघ्नावरणरोधाय क्षीणमोहस्य तत्स्मृतम् ||२|| (जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ ) २. " एयत्तवियक्क - अवीयार- ज्भारणस्स अप्प डिवाइविसेसणं किण्ण कदं ? रग, उवसंतकसायम्मि भवद्धा खएहि कसा सु रिणवदिदम्मि पडिवादुवलभादो ।" [ धवल पु० १३ पृष्ठ ८१] एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यानके लिये 'अप्रतिपाती' विशेषण क्यो नही दिया ? समाधान नही, क्योकि उपशातकषाय जीवके भव तप और काल क्षयके निमित्त पुनः कषायोको प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क - अविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है । घवल पु० १३ के इस प्रमाणसे सिद्ध होता है कि उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवेंगुणस्थान मे भी एकत्ववितर्क- अवो चार नामक दूसरा शुक्लध्यान होता है | ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६० से ८२ सूत्र १५०२ से १५३४; धवल पु० ६ ४ ४०७; जयधवल मूल पृष्ठ २२५५-५६ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] क्षपणासार [गाथा २१४ इन गाघागेमे पुरुषवेदसहित मानके उदयके साथ क्षरकश्रेणि चढ़नेवाले की प्रत्पणा है । . के अन्तर नहीं किया गया यानि अन्तर करनेसे पूर्वतक क्रोध या मानसहित क्षपक____ ..पर आरोहण करनेवाले जीवको क्रियाओंमें कोई अन्तर नहीं है, अन्तर करने के पश्चात् विभिन्नता है और वह विभिन्नता यह है कि अन्तरके पश्चात् क्रोधकी प्रथमस्थिति नहीं होती। जिसप्रकार पुरुषवेदसहित क्रोधोदयके साथ क्षपकके अन्तर्मुहर्तप्रमाण कोषको प्रथमस्थिति होतो थी उसी प्रकार पुरुषवेदोक्यसहित मानोदयवाले क्षपकके मानकी प्रथमस्थिति होती है । क्रोयोदयसे श्रोणि चढ़नेवाले क्षपकके कृष्टिकरणकालपर्यन्त क्रोधकी प्रथमस्थिति और क्रोधको तीनों संग्रहकृष्टिका क्षपणाकाल, इन दोनोंको मिलानेसे कालका जो प्रमाण होता है उतनाकाल मानोदयसे श्रोणिपर आरोहण करनेवालेके मानको प्रथमस्थितिका है । क्रोधोदयसे चढ़े हुए क्षपकके जिस काल मे अश्वकर्णकरण व पूर्वस्पर्वक करता है उसकाल में मानोदयसे श्रेणी चढ़ा हुआ क्षपक क्रोधका स्पर्धकल्पसे क्षय करता है, क्योकि मानोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपकके क्रोधोदयका अभाव होनेसे स्पर्वकरूपसे विनाश होने में कोई विरोध नहीं है । अनिवृत्तिकरणपरिणामोका अभिन्नस्वभाव होते हुए भी भिन्न कषायोदयल्प सहकारिकारणके सन्निधानके वशसे प्रकृतमें नानापना सिद्ध है अर्थात् एककाल में कार्योकी विभिन्नता हो जाती है। क्रोधोदयसे युक्त क्षपक जिसकाल में चार संज्वलनकषायोंकी कृष्टियां करता है उसकालमें मानोदयसहित क्षपक उससमय तोन संज्वलनकषायोका अश्वकर्णकरण करता है। क्रोधोदयी क्षक जिसकालमे कोषको तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकाल में मानोदयी क्षयक संज्वलनमान-माया-लोभकी (३४३) ६ सग्रहकृष्टियां करता है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकाल में मानकी तीनसनकृष्टियोका क्षय करता है उसोकाल मे मानोदयीक्षपक भी मानको तोनसंग्रहकृष्टियोका क्षय करता है इसमे कोई अन्तर नहीं है। इस स्थलसे लेकर मागे जिसप्रकार क्रोधके उदयसे श्रेणि चढनेवालेकी क्षरणाविधी कही गई है वैसी ही विधि मानोदयने श्रेणी चढ़नेवाले जीवको जानना चाहिए । आगे पुरुषवेदसहित मायोदयसे श्रेणि चढ़नेवाले क्षपकको विभिन्नता बतलाते हैं-- अन्तर करके मायाकी प्रथमस्थिति करता है, क्योकि क्रोध व मानकषायके उदयका अभाव है। क्रोधको प्रथमस्थिति, अश्वकर्णकरणकाल, कृप्टिकरणकाल, क्रोधकी तोनतग्रकृप्टियोंका क्षपणाकाल, मानकी तीनों संग्रहकृष्टियोका क्षपणाकाल, इनसर्व कालोको मिन्नाने से कालका जो प्रमाण हो उतनाकाल मायोदयीक्षपककी प्रथम स्थितिका Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा २१४ ] क्षपणासार [१८१ काल है, क्योंकि इतने कालके बिना प्रथमस्थिति में किये जाने वाले कार्य पूर्ण नहीं हो सकते । क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें अश्वकर्णकरण करता है उसोकाल में मायोदयीक्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षपक जिसकालमें कृष्टियां करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक मानका स्पर्धकरूपसे क्षय करता है। क्रोधोदयीक्षपक जिसकालमें क्रोधकी तीनसंग्रहकष्टियोका क्षय करता है उसकालमें मायोदयवाला क्षपक सज्वलनमाया व लोभका अश्वकर्णकरण और अपूर्वस्पर्धक करता है । सहकारीकारण कषायोदयमें भेद होनेपर नानाजीवोंके अनिवृत्तिकरणपरिणाम भिन्न भिन्न स्वरूपसे हो जाते है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिसकालमें मानकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसकाल में मायोदयवाला क्षपक सज्वलनमाया और लोभकी छह कष्टियोंकी रचना करता है । क्रोधोदयोक्षपक जिसकालमें मायाको तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है उसी कालमें मायोदयवाला क्षपक मायाकी तीनसंग्रहकृष्टियोंका क्षय करता है इसमें कोई अन्तर नहीं है तथैव लोभके क्षपण में भी कोई अन्तर नहीं है । पुरुषवेदसहित लोभोदयसे क्षपकश्रेरिण चढ़नेवालेकी विभिन्नताका कथन करते हैं जबतक अन्तर नहीं करता तबतक कोई भेद नहीं है । अन्तर करनेके पश्चात् लोभको प्रथमस्थिति होती है जिसका प्रमाण क्रोधकी प्रथमस्थितिमें क्रोध, मान व माया क्षपणाकाल, अश्वकर्णकाल और कृष्टिकरणकाल मिलानेसे उत्पन्न होता है। क्रोधोदयीक्षपक जिसकाल मे अश्वकर्णकरण करता है उसकालमें लोभोदयवाला क्षपक क्रोधका क्षय करता है । क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमयमें कृष्टियां करता है उससमय में लोभोदयोक्षपक मानका क्षय करता है । क्रोधोदयीक्षपक जिससमय क्रोधका क्षय करता है उसीकालमें लोभोदयीक्षपक मायाका क्षय करता है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मानका क्षय करता है लोभोदयीक्षपक उससमय अश्वकर्णकरण करता है । यहांपर एकसंज्वलन लोभकषाय है। यद्यपि संज्वलनलोभकषायके अनुभागका अश्वकर्ण आकारसे विन्यास होना सम्भव नही है तथापि अनुभागका विशेषघात होकर अपूर्वस्पर्धक विधानकी अपेक्षा अश्वकर्णकरण कहने में कोई विरोध नहीं है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिससमय मायाका क्षय करता है उससमय लोभोदयी क्षपक लोभकषायके पूर्व व अपूर्वस्पर्धकोंकी अपवर्तना करके लोभकी तीनसग्रह कृष्टियोंको करता है, क्योंकि शेष कषायोंका क्षय हो चुका है। क्रोधोदयवाला क्षपक जिस समय लोभका क्षय करता है उसी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] क्षपणासार [ गाथा २१५ समयमें लोभोदयोक्षपक भी लोभका क्षय करता है यह सब सन्निकर्ष प्ररूपणा पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी की गई है' । पुरिसोद चडिदस्सित्थी खवणउत्ति पदंमठिदी । इत्थिस्स सत्तकम्मं अवगद वेदो समं विणा सेदि ॥ २१५ ॥ ६०६ ।। प्रर्थ- पुरुषवेदोदयसे श्रेणीपर चढ़ा हुआ जिस कालतक स्त्रीवेदका क्षय करता है वहांतक स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणीपर चढ़ े हुए जीवके स्त्रीवेदकी प्रथमस्थिति है । अपगतवेदी होनेपर सातकर्मों (सात नोकषाय) का एकसाथ क्षय करता है | विशेषार्थ - जबतक अन्तर नही करता तबतक स्त्रीवेदोदय से श्रेणि चढ़ े हुए ओर पुरुषवेदोदयसे चढ़ े हुए जीवमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि अन्तरकरणसे पूर्व दोनो क्षपकों की क्रियाविशेषमें कोई भिन्नता नही है । अन्तर करनेपर स्त्रीवेदोदयवालेके स्त्रीवेदकी प्रथमस्थिति होती है । पुरुषवेदोदयी क्षपकके नपुंसकवेद व स्त्रीवेदके क्षयकालको मिलाने पर जितना काल होता है उतनाकाल स्त्रीवेदोदयवाले क्षपककी प्रथमस्थितिका है । नपुंसकवेदके क्षयसम्बन्धी प्ररूपणा में कोई अन्तर नही है । नपुंसक वेदका क्षय करनेके पश्चात् स्त्रीवेदका क्षय करता है । पुरुषवेदोदयसे उपस्थित क्षपक के जितना बड़ा काल स्त्रीवेदकी क्षपणाका है उतना ही बड़ा काल स्त्रीवेदसे उपस्थित क्षपकके स्त्रीवेदक्षपरणाका है । स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति क्षीण हो जानेपर अपगतवेदी हो जाता है तब श्रपगतवेदभाग में पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषायका क्षय करता है, किन्तु पुरुषवेदोदयसे श्रेणीपर चढा हुआ क्षपक सवेदभागमे हास्यादि छह नोकषाय और पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्मका क्षय करता है । स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़े हुए क्षपकके पुरुषवेदके पुरातनसत्कर्मका क्षय हो जानेपर भी एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध शेष रह जाता है, किन्तु स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़ क्षपकके वह नवकसमयप्रबंद्ध नहीं रहता, क्योकि अवेदभावसे वर्तमानके पुरुषवेदका बन्ध नही होता । इस उपर्युक्त विभिन्नता के अतिरिक्त अन्य कोई अन्तर पुरुषवेदोदयीक्षपक व स्त्रीवेदोदयी - क्षपकमे नही है । 1 १. जयघवल मूल पृष्ठ २२५५ से २२६० तक | २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८९३ सूत्र १५३५ से १५४३ । घ० पु० ६ पृष्ठ ४०१ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२६० से २२६२ तक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २१६-१७] [१३ 'थीपढमहिदिमेत्ता संढस्सवि अंतरादु सेढेक्क । तस्सद्धाति तदुवरि संढा इत्थिं च खबदि थीचरिमे॥२१६॥६०७॥ अवगदवेदो संतो सत्त कसाये खवेदि कोहुदये । पुरिसुदये चडणविही सेसुदयाणं तु हेढुवरि ॥२१७॥६०८॥ अर्थ-नपुसकवेदोदयसे चढे क्षपकके प्रथमस्थितिका काल उतना ही है जितना स्त्रीवेदोदयसे श्रेणि चढ़े क्षपकके प्रथमस्थितका काल है। अंतरके पश्चात् नपुंसकवेदके क्षपणाकाल है उसके ऊपर स्त्रीवेदका क्षपणाकाल उसके कालमें नपुंसक और स्त्रीवेदकी क्षपणा करता हुआ प्रथमस्थितिके चरमसमयमें नपुंसकवेदसहित स्त्रीवेदका क्षय करता है तथा अपगतवेदी होकर सात नोकषायका क्षय करता है, इससे नीचे और ऊपरकी विधि पुरुषवेद व क्रोधोदयसे श्रेणी चढ़ क्षपकके समान है। विशेषार्थ--स्त्रीवेदोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपकको प्रथमस्थितिके समान नपुंसकवेदोदयसे श्रेणी चढ़े क्षपककी प्रथमस्थिति है अर्थात इन दोनों प्रथमस्थितियोंका काल समान है । पुनः अन्तर करनेके द्वितीयसमयमें नपुंसकवेदका क्षय करना प्रारम्भ करता। पुरुषवेदोदयीक्षपकके जितना नपुसकवेदका क्षपणाकाल है, नपुसकवेदोदयीक्षपकके उतना काल व्यतीत हो जानेपर नपुसकवेद क्षीण नही होता, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थिति अब भी शेष है । पश्चात् अनन्तरसमयमें स्त्रीवेदकी क्षपणा प्रारम्भ करके स्त्रीवेदका क्षय करता हुआ नपुसकवेदका भी क्षय करता है । पुरुषवेदोदयवाला क्षपक जिस कालमें स्त्रीवेदका क्षय करता है उसी समय नपुंसकवेदोदयीक्षपक स्त्री व नपुंसकवेदका युगपत् क्षय करता है। यह स्थूल कथन है, किन्तु सूक्ष्मदृष्टिसे सवेदकालके द्विचरमसमयमें नपुसकवेदकी प्रथमस्थितिके दो समयमात्र शेष रहने पर स्त्रीवेद और नपुसकवेदके सत्तामें स्थित समस्त निषेकोंको पुरुषवेदमें संक्रमित हो जानेपर नपुंसकवेद की उदयस्थितिकी अन्तिम स्थितिका विनाश नही हुआ उसका विनाश अगले समय म होगा। (जयधवल पु० २ पृष्ठ २४६) अपगतवेदी होकर पुरुषवेद और हास्यादि छह नोकषाय इन सात कर्मप्रकृतियोका एकसाथ क्षय करता है, इन सातोंका ही क्षपणाकाल समान है। शेष पदोंमें जैसी विधि पुरुषवेदसे उपस्थित क्षपककी कही गई है वैसी - 1. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६३-८६४ सूत्र १५४६ से १५५२ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ४१० । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा २१८ १८४ ही होनाधिकतासे विधि यहां भी कहना चाहिए। तीनों काल में नानाजीवोके अनिवृत्तिकरण परिणामोमें विलक्षणता सम्भव नही है तथापि वेद और कषायके उदयमे भेट होनेसे अनिवृत्तिकरण परिणामोमें नानाविशिष्ट कार्य होने में कोई विरोध नही है। 'चरिले पढमं विग्धं चउदंलण उदय सत्तवोच्छिण्णा । से काले जोगिजिणो सव्वण्हू सव्वदरसी य ॥२१८॥६०६।। अर्थ-क्षीणकषायगुणस्थानके अन्तसमय में प्रथम अर्थात् ज्ञानावरण, अन्तराय और चारदर्शनावरण, ये कर्मप्रकृतियां सत्त्वसे व्युच्छिन्न होती हैं और अनन्तरकालमें सयोगिजिन सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं । विशेषार्थ--क्षीणकषायनामक १२वें गुणस्थानके चरमसमयमें एकत्ववितर्कअवीचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानके द्वारा (मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यय-केवल) पांच ज्ञानावरण, पांच (दान, लाभ, भोग, उपभोग व वीर्य) अन्तराय, (चक्ष-अचक्ष-अवधिकेवलरूप) चारदर्शनावरण इसप्रकार तीनघातिया कर्मोकी १४ प्रकृतियोंकी उदय व सत्त्वव्युच्छित्ति हो जाती है अर्थात् इन प्रकृतियोका क्षय हो जाता है, क्योकि इनकी बन्धव्युच्छित्ति सूक्ष्मसाम्परायनामक १०वें गुणस्थानमे ही हो जाती है । शंका--क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमे घातियाकर्मोके साथ अघातिया. कर्मोका क्षय क्यो नहीं हो जाता, क्योकि कर्मत्वकी अपेक्षा घातिया व अघातियाकर्मोमें कोई अन्तर नहीं है ?. समाधान-ऐसी शका नही करनी चाहिए, क्योकि विशेषघातभावकी अपेक्षा घातिया और अघातिया कर्मोमें अन्तर पाया जाता है। इसीलिए क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमें अघातियाकर्मोका स्थितिसत्कर्म रहता है, क्योकि इनकी स्थितिके विशेषघातका अभाव है । अघातियाकर्मों की स्थिति के विशेषघातका अभाव असिद्ध भी नही है, क्योकि अघातियाकर्म घातियाकर्मों के समान अप्रशस्त नहीं हैं। घातियाकर्मोंमे मोहनीयकर्म अधिक अप्रशस्त है इसलिए विशेषघातभावके कारण पूर्वमे अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमय में क्षय हो जाता है । यद्यपि कर्मत्वकी अपेक्षा घातिया व १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ । २. क. पा सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १५७१ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४१२ । गो. जीवकाण्ड गाथा ६४ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१९-२२० ] क्षपणासार [ १८५ अघातिया कर्मों में विशेषता नहीं है तथापि घातकी अपेक्षा विशेषता होनेसे द्वितीय शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा क्षीणकषायके चरमसमय में घातिया कर्मोका निर्मूल क्षय हो जाता है | क्षीणकषायगुणस्थानके चरमसमयमे घातियाकर्मोके नाशका यह कथन उपपादानुच्छेद नयकी अपेक्षासे है अन्यथा उस चरमसमय में अन्तिमनिषेकका सत्त्व और उदय पाया जाता है । बन्धकी अपेक्षा इन घातिया कर्मोंका और जीवप्रदेशोका एकत्वरूप परिणमन हो रहा था । बन्धके कारणोके प्रतिपक्षी मोक्षके कारणभूत परिणामरूपयन्त्र के द्वारा पेलनेपर जीवप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोका निर्मूल हो जाना क्षय है । जीवसे पृथक् हो जानेपर भी अकर्मभावसे परिणत कर्मपुदुगलोंका पुद्गलस्वरूपसे क्षय नहीं होता, जैसे मलसे व्यावृत्ति होनेपर कपड़ा निर्गल हो जाता है, किन्तु मलकी सत्ताका अत्यन्त विनाश नहीं होता वैसे ही प्रात्मा कर्मोंसे निर्वृत्त होनेपर परिशुद्ध हो जाता है' । पश्चात् अनन्तरसमय में अनन्त केवलज्ञान- केवलदर्शन और अनन्तवीर्यसे युक्त जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होकर सयोगिजिन हो जाते हैं । खीये घादिचउक्के गंतचउक्कस्स होदि उप्पत्ती । सादी अपज्जवसिदा उक्कस्सागांत परिसंखा ॥२१६॥६१०॥ अर्थ - घातिया कर्म चतुष्टयका नाश होनेपर अनन्त चतुष्टयकी उत्पत्ति होती है, यह अनन्तचतुष्टय सादि व अपर्यवसित ( अविनाशी ) है तथा उत्कृष्ट अनन्त संख्यावाला है । विशेषार्थ - सादि अर्थात् उत्पत्तिकाल में आदिसहित है तथापि अपर्यवसिता यानि अवसान - अन्तसे रहित होनेसे अनन्त है अथवा अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा इनकी उत्कृष्टमनन्तानन्तप्रमाण संख्या है अतः अनन्त कहते हैं । किस कर्मके नाशसे कौनसा गुण होता है, सो आगे कहते हैंआवरणदुगाण खये केवलगाणं च दंसणं होदि । विरियंतरायियस् य खए विरियं हवे तं ॥ २२०॥६११॥ अर्थ- दोनों आवरणोंके क्षयसे केवलज्ञान व केवलदर्शन तथा वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे अनन्तवोर्य होता है । १. जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] क्षपणासार गाथा २२१ विशेषार्थ-ज्ञानावरण व दर्शनावरण इन दोनोंके नाशसे केवलज्ञान और केवलदर्शन होता है । इनमें केवलज्ञान तो इन्द्रिय, मन व प्रकाशादिकी सहायतारहित है इसलिए केवल है। परमाणु आदि सूक्ष्म हैं अतीत-अनागतकालसम्बन्धी अन्तरित अर्थात् द्रव्य अनादि-अनन्त है, अतीतमें भी था और अनागतमें भी रहेगा अतः द्रव्यको जाननेसे अतीत व अनागतका जानना हो जाता है तथा दूरवर्ती क्षेत्रमें स्थित 'दूर' कहलाता है । इन सूक्ष्म, अन्तरित व दूरवर्ती सर्वपदार्थोंको केवलज्ञान युगपत् जानता है एवं केवलदर्शन देखता है । जैसे चन्द्रमें शोतस्पर्श व श्वेतवर्णता युगपत् है वैसे जिनेन्द्रभगवान् में केवलज्ञान व केवलदर्शन युगपत् प्रवर्तता है छद्मस्थजीवके समान क्रमवर्ती नही है । वीर्यान्तरायकर्मके क्षयसे अप्रतिहत सामर्थ्यवाला अनन्तवीर्य होता है जिसके संभावमें समस्तज्ञेयोंको सदाकाल जानते हुए भी खेद उत्पन्न नहीं होता। अनन्तवीर्य के बलाधान विना निरन्तर अवस्थित उपयोगकी वृत्ति नही हो सकती। अनन्तवीर्य की सामर्थ्य विना अनवस्थित उपयोगका प्रसंग आ जावेंगा'। णवणोकसायविग्घचउक्काणं च य खयादणंतसुई । अणुवममवावाहं अप्पसमुत्थं णिरावेक्खं ॥२२१॥६१२॥ अर्थ-नवनोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे अनन्तसुख होता है और वह सुख अनुपम, अव्याबाध, अन्यको अपेक्षासे रहित आत्मासे उत्पन्न है । विशेषार्थ-नव नोकषाय और दानादि अन्तरायचतुष्कके क्षयसे होनेवाला अनन्तसुख अनुपम है, क्योंकि अन्यत्र ऐसा सुख नहीं पाया जाता है, किसीके द्वारा बाधित नहीं है अतः अव्याबाध है, आत्मासे उत्पन्न होनेसे आत्मसमुत्थ है तथा इन्द्रियविषय, प्रकाशादिकी अपेक्षासे रहित है इसलिए निरापेक्ष है । इसप्रकार ज्ञान-वैराग्यकी उत्कृष्टताको प्राप्त हुआ अनाकुललक्षण अनन्तसुख केवलीके पाया जाता है । १. "तव वीर्यविघ्नविलपेन समभवदनन्तवीर्यता । तत्र सकलभुवनाधिगमप्रभृति स्वशक्तिभिरव स्थितो भवानिति ॥१४२।।" [जयघवलं मूल पृष्ठ २२६६] २ "वीतरागहेतुप्रभवं न चेत्सुखं न नाम किंचितदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव नास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयियेन केवलम् ॥१४४॥ [जयधवल मूल पृष्ठ २२७०] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ १८७ गाथा २२२-२२४ ] सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । वरचरणं उवसमदो खयदो दु चरित्तमोहस्स ॥२२२।।६:१३॥ अर्थ-सातप्रकृतियोके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व तथा चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे या उपशमसे उत्कृष्ट-यथाख्यातचारित्र होता है। विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी चारकषाय व तीन दर्शनमोह (मिथ्यात्व, सम्यगमिथ्यात्व और सम्यक्त्व) इन ७ प्रकृतियोके क्षयसे तत्त्वोंका यथार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व होता है सो क्षायिक सम्यक्त्व है । चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोंके उपशम या क्षयसे उत्कृष्टचारित्र (यथाख्यातचारित्र) होता है जो निष्कषाय आत्माचरणरूप है। यद्यपि यहां क्षायिक यथाख्यातचारित्रका प्रकरण है तथापि उपशान्तकषायगुणस्थानमें भी यथाख्यातचारित्रका प्रसंग होनेसे उपशमयथाख्यातचारित्रको भी कह दिया है। केवली भगवान्के असातावेदनीयकर्मके उदयसे क्षुधादि परीषह पाये जाते हैं अतः उनके भी पाहारादिकिया होती हैं इसप्रकारकी शंका होनेपर उसके परिहार स्वरूप गाथा कहते हैं। जं णोकसायविग्घचउक्काण बलेण दुक्खपहुदीणं । असुहपय डिणुदयभवं इदियखेदं हवे दुक्खं ॥२२३॥६१४॥ अर्थ--नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे दुःखरूप असातावेदनीयादि अशुभप्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके खेदरूप आकुलताका नाम दुःख है' और वह दु ख केवलीभगवानके नहीं पाया जाता है। जं णोकसाय विग्धं च उक्काण बलेण साद पहुदीणं । सुहपयडीणुदयभवं इंदियतोसं हवे सोक्खं ॥२२४॥६१५॥ अर्थ-नोकषाय और अन्तरायचतुष्कके उदयके बलसे सातावेदनीयादि शुभप्रकृतियोके उदयसे उत्पन्न इन्द्रियोंके सतुष्टिरूप कुछ निराकुलसुख भी' के वलीभगवानके नही पाया जाता है । क्योंकि-- १. "सपरं बाहासहिय विच्छिण्ण बंधकारणं विसमं । जं इंदियलद्धं तं सोक्खं दुःखमेव सदा ॥७॥" (प्रवचनसार) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] क्षपरणासार हाय रायदोसा इंदियाणं च केवलिम्हि जदो । ते दुसादासादजसुहदुक्खं गत्थि इंदियजं ||२२५॥६१६॥ अर्थ- केवली भगवानके राग-द्व ेष नष्ट हो गए हैं तथा इन्द्रियजनित ज्ञान भी नष्ट हुआ है इसलिए साता - असातावेदनीयके उदयसे उत्पन्न सुख-दुःख नहीं है' । समयट्टिदिगो बंधो सादस्सुदयपिगो जदो तस्स | तेण प्रसादस्सुद सादसरुवेण परिणमदि ॥ २२६॥६१७॥ [ गाथा २२५-२६ अर्थ - एक समय प्रमाण स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बघता है जो कि उदयरूप ही है इसलिए उनके ( केवली भगवान् के) असाताका उदय भी सातारूप होकर परिमन करता है । विशेषार्थ – असातावेदनीयका वेदन करनेवाले जिनदेव आमय और तृष्णा से रहित कैसे हो सकते हैं, यह कहना भी ठीक नही है; क्योंकि असातावेदनीय वेदित होकर भी वेदित नही है, कारण कि अपने सहकारीका रणरूप घातियाकमौका अभाव हो जाने से उसमें दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने में विरोध आता है । शङ्का - निर्बीज हुए प्रत्येकशरीर के समान निर्बीज हुए असातावेदनीयका उदय क्यों नही होता ? समाधान- नही, क्योकि भिन्नजातीय कर्मोकी समान शक्ति होनेका कोई नियम नही है | शङ्का - यदि असातावेदनीयकर्म निष्फल ही है तो वहां उसका उदय है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? 1 समाधान- नहीं, क्योकि भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे वैसा कहा जाता है । दूसरी बात यह है कि सहकारीकारणरूप घातिया कर्मोंका अभाव होनेसे ही शेषकर्मोंके समान असातावेदनीयकर्म न केवल निर्बीजभावको प्राप्त हुआ है, किन्तु उदयस्वरूप सातावेदनीय का बन्ध होनेसे और उदयागत उत्कृष्ट अनुभागयुक्त सातावेदनीयरूप सहकारीकारण होने से उसका उदय भी प्रतिहत हो जाता है । यदि कहा जाय कि बन्धके उदयस्वरूप ३. जयघवल मूल पृष्ठ २७० ॥ " Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २२६ ] १८६ रहते हुए सातावेदनोयकर्मको गोपुच्छ स्तुविकसंक्रमणद्वारा असातावेदनीयको प्राप्त होती होगी, सो बात भी नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है। शङ्का-यदि यहां स्तुविकसंक्रमणका अभाव मानते हैं तो साता और असातावेदनीयकी सत्त्वव्युच्छित्ति अयोगी गुणस्थानके अन्तिमसमयमें होनेका प्रसंग आता है । समाधान नहीं, क्योंकि सातावेदनीयकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर अयोगोगुणस्थानमें सातावेदनीयके उदयका कोई नियम नही है। शङ्का-इसप्रकार तो सातावेदनीयका उदयकाल अन्तमुहूर्त विनष्ट होकर कुछकम पूर्वकोटिप्रमाण प्राप्त होता है । समाधान-नहीं, क्योंकि सयोगकेवलि गुणस्थानको छोड़कर अन्यत्र उदयकालका अन्तर्मुहर्तप्रमाण नियम ही स्वीकार किया गया है। गाथा २१६ से २२६ सम्बन्धी विशेषकथन : घातियाकर्मोंके क्षय होजाने के अनन्तरसमयमै भ्रष्टबीजके समान चारों अघातियाकर्म शक्तिरहित हो जानेसे युगपत् उत्पन्न होवेवाले अवन्तकेवलज्ञान-दर्शन व वीर्यसे युक्त, स्वयंभूपनेको आत्मसात् करके जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाते हैं उन्ही भगवान अर्हन्तपरमेष्ठीको सयोगोजिन भी कहते हैं, क्योंकि उस अवस्थामें ईपिथबन्धका हेतुभूत तथा वचन और कायके परिस्पन्दलक्षणस्वरूप योगविशेषका सदुभाव होता है । केवलज्ञानादिका स्वरूप कहते हैं-केवलका अर्थ असहाय है, जिसमें इन्द्रिय, प्रकाश और मनकी अपेक्षा नही हो वह असहाय है । जो ज्ञान केवल (असहाय) हो वह केवलज्ञान है । केवलज्ञान अतीन्द्रिय, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्टपदार्थोंको जानता है, करण (इन्द्रिय) क्रम और व्यवधानसे रहित है, ज्ञानावरणकर्मका पूर्णरूपसे क्षय हो जानेपर उत्पन्न हुआ है, उस प्रकाशसे बढ़कर अन्य कोई प्रकाश नही है और उससे अधिक कोई अतिशय नहीं, ऐसा वह केवलज्ञान है । उस केवलज्ञानका जो आनन्त्यविशेषण दिया गया है वह केवलज्ञान अविनश्वरताको बतलाता है। क्षायिकभाव केवलज्ञानके सादि-अपर्यवसित अवस्थानको प्रगट करता है। जैसे घटका प्रध्वंसाभाव सादि-अपर्यवसित है उसीप्रकार केवलज्ञान भी क्षायिक होनेसे सादि-अपर्यवसित है । १. धवल पु० १३ पृष्ठ ५३-५४ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] क्षपणासार [ गाथा २२६ सर्वद्रव्य और उनकी पर्यायोंको विषय करनेवाला केवलज्ञान है, इससे यह बतलाया गया है कि केवलज्ञान परमोत्कृष्टअनन्तपरिणामवाला है । प्रमेय आनन्त्य (अविनश्वर) हैं अतः उनके जाननेवाली ज्ञानशक्तिके भी आनन्त्यपना सिद्ध हो जाता है। प्रतिषेधका अभाव होनेसे केवलज्ञान उपचारमात्रसे आनन्त्य नहीं है, किन्तु परमार्थसे आनन्त्य है । समस्त ज्ञेयराशिसे केवलज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं, यह आगमसे भलेप्रकार जाना जाता है । कहा भी है कि "जो नाशवान नहीं है वह द्रव्य है अत. इसके आनन्त्य अनुपचरित है" ऐसा निश्चय करना चाहिए । कहा है-- केवलज्ञान क्षायिक है, एक है, अनन्त है, भूत-भविष्यत और वर्तमान, इन तीनों कालोंमें सर्व अर्थ (ज्ञेयो) को युगपत् जानता है, अतिशयातीत है, अन्त्यातीत है, अच्युत है, व्यवधानसे रहित है'। ___ इसीप्रकार केवलदर्शनका व्याख्यान करना चाहिए । दर्शनावरणका अत्यन्तरूपसे पूर्ण क्षय होनेपर प्रगट होनेवाला दर्शनोपयोग अशेष (समस्त) पदार्थोंका अवलोकन जिसका स्वभाव है, उसको भी आनन्त्य विशेषण प्राप्त है और वह केवलदर्शन कहा जाता है । प्रतिबन्धकी अनुपलब्धि मात्रसे ही उसके आनन्त्य नही मानना चाहिए, किन्तु अविनाशी होनेसे आनन्त्य है। शङ्का--सकल कैवल्य अवस्थामे ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगमें कोई भेद नहीं है, क्योकि अशेष पदार्थों को साक्षात् करना दोनोका स्वभाव होनेके कारण दोनो. का विषय एक होनेसे दोनोके विषयमे कोई भेद नही है इसलिए एकसे ही समस्त पदार्थोका जानना हो जावेगा दूसरा व्यर्थ है फिर दोनों उपयोगोंका कथन क्यों किया गया ? समाधान-असंकीर्णस्वरूपसे केवलज्ञान और केवलदर्शन इन दोनोंका विषय विभाग अर्थात् विषयभेद असकृत देखा जाता है अतः कैवल्यअवस्थामें - सकल विमल केवलज्ञानके समान अकलक केवलदर्शनका भी अस्तित्व है यह सिद्ध हो जाता है, अन्यथा आगविरोधरूप दोषका परिहार नही हो सकेगा। १. क्षायिकमेकमनन्त त्रिकालसर्वार्थ युगपदवभासि । निरतिशयमन्त्यमच्युतमव्यवधानं च केवल ज्ञानम् ।।" (जयधवल मूल पृष्ठ २२६६) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२६ ] क्षपणासार [ १६१ केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों प्रकाश एक हैं ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्यपदार्थको विषय करनेवाला साकारोपयोग अर्थात् ज्ञानोपयोग है और अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाला अनाकारोपयोग अर्थात् दर्शनोपयोग है' । "अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे ? अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो ।" अर्थात् अन्तरङ्गपदार्थको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार किया है । यदि दर्शनोपयोगका विषय अन्तरङ्ग पदार्थ न माना जाय तो वह अनाकार नहीं बन सकता । इसप्रकार विषयभेद होनेसे दोनों उपयोगोंका कार्य भिन्न-भिन्न है अतः कोई भी उपयोग व्यर्थ नहीं है । यदि दर्शनका सदभाव न माना जावे तो दर्शनावरणकर्मके बिना सात ही कर्म होगे, क्योंकि आवरण करनेयोग्य दर्शनका अभाव माननेपर उसके आवरकका सदुभाव मानने में विरोध आता है । दर्शन है, क्योंकि सूत्रमें आठकर्मोका निर्देष किया गया है। यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि मुख्य वस्तुके अभावमें उपचारकी उत्पत्ति नहीं बनती। वीर्यान्तरायकर्मका निर्मूल क्षय हो जानेसे अनन्तवीर्य की उत्पत्ति होती है जो परिश्रमसे उत्पन्न होनेवाली थकावटका विरोधी है तथा अप्रतिहतसामर्थ्यवाला है, अन्तरायरहित है वह अनन्तवीर्य कहा जाता है। भगवान् अशेष (समस्त) पदार्थोको विपय करनेवाले ध्र वउपयोगरूप परिणामवाले हैं अर्थात् भगवान् निरन्तर ध्र वरूपसे समस्त पदार्थों को जानते हैं तथापि उनको खेद नही होता यह अनन्तवीर्यका उपग्रह (उपकार) है और यही उसकी उपयोगिता है। उस अनन्तवीर्यके बलाघानबिना सान्ततिक उपयोगकी प्रवृत्ति नही हो सकती, अन्यथा हम जैसे छद्मस्थोंके उपयोगके समान उस उपयोग (केवलीके उपयोग) की सामर्थ्यका विरह (अभाव) होने से अनवस्थाका प्रसंग आ जावेगा । कहा भी है १. जयधवल पु० १:पृष्ठ ३५८ । २. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३३७ । ३. जयधवल पु० १ पृष्ठ ३५८-५९ । ४. धवल पु०७ पृष्ठ ६८ । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १९२] [गाथा २२६ "तव वीर्यविघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता । तत्र सकल भुवनाधिगमप्रभृति स्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति' ॥" है भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्मका विलय हो जानेसे अनन्त वीर्य हो गया है । अपने वीर्यके द्वारा समस्तभुवनको जानने आदिरूप प्रवृत्तिमें अवस्थित हैं अर्थात् आपका उपयोग किंचित् भी चलायमान नही होता । इसके द्वारा केवलीके आत्यन्तिक सुखका व्याख्यान हो जाता है, क्योकि अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य उपवहित सामर्थ्यवाले, वीतमोहस्वरूप, ज्ञान और वैराग्यकी अतिशय पराकाष्ठापर आरूढ, परमनिर्वाण, लक्षणवाले, सूखकी आत्यन्तिक (अविनाशी) रूपसे उपलब्धि होती है। अतिशय ज्ञान व वैराग्यसे उत्पन्न वीतरागसुखसे अन्य किंचित् सुख नहीं । सरागसुख तो एकान्ततः दुःख ही है । कहा भी है "सपरं बाहासहियं विच्छिण्ण बधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धतं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ विरागहेतु प्रभवं न चेत्सुख न नाम किंचित्तदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव वास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयि येन केवलम् ॥" जो सुख पांचों इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है वह परद्रव्योंकी अपेक्षासे होता है इस कारण पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि अनेक रोगोंके कारण बाधासहित है, असाता. वेदनीयकर्मोदयके कारण नाशवान तथा अन्तरसहित है, देखे-सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी इच्छादि अनेक दुष्परिणामोंसे नरकगति आदि अशुभकर्म बन्धते हैं जिनका उदय होनेपर नरकादि गतियो में जाकर नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़ते है, हानिद्धि होनेसे एकसा नहीं रहता अतः विषम है इन पांच कारणोंसे यह सांसारिकसुख दुःखरूप ही है। ___ "विरागहेतुसे उत्पन्न हुआ सुख यदि सुख नहीं है तो निश्चयसे कोई सुख है ही नहीं, ऐसा हमें निश्चय हो गया है, विराग हेतु निमित्त है यह स्पष्ट है । आपसे अर्थात् केवलीसे अन्यमें वह हेतु नही है, क्योकि वह हेतु केवल आपमें ही है।" इसलिए १. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६ । २. प्रवचनसार गाथा ७६ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २२६] [ १९३ जिस सुखमें अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र प्रधान हैं जो अनुपरतवृत्ति अर्थात् विच्छिन्न वहीं होता, निरतिशय अर्थात् उस सुखसे बढ़कर कोई अतिशय नही है, आत्मासे उत्पन्न होता है, ऐसा अनन्तसुख अतीन्द्रिय और निष्प्रतिद्वन्द्व (विरोधरहित) है । किसी वादीको यह दृढ़निश्चय है कि सयोगके वलीके असातावेदनीयका उदय होनेसे अनन्तसुखका अभाव और यह बात उल्लघन भी नही की जा सकती, क्योंकि सयोगकेवलीके कवलाहारवृत्ति पाई जाती है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते है कि सयोगकेवलीके असातावेदनीयके उदयमें सहकारीकारणका अभाव होनेसे वह (उदय) अकिंचित्कर (व्यर्थ) है । जैसे सहकारीकारणके अभाव में परघातका उदय अकिंचित्कर है । अतः अनन्तज्ञान दर्शन-वीर्य-चारित्र व सुख परिणामी होनेसे सयोगकेवली कवलाहार (भोजन) नहीं करते, जैसे सिद्ध परमेष्ठी अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र व सुखपरिणामि होनेसे कवलाहार नहीं करते, क्योकि सयोगकेवली और सिद्धपरमेष्ठी इन दोनोंके समस्त अन्तरायकर्मका पूर्णरूपसे क्षय हो जाने के कारण अनन्तवीर्य के द्वारा उपलक्षित अनन्तदान-लाभ-भोग व उपभोगलब्धिमें कोई विशेषता नही है । सयोगकेवलीके स्वरूपका निरूपण करनेवाली निम्नलिखित दो गाथाएं हैं "केवलणाणदिवायरकिरणकलापप्पणासियण्णाणो । णवकेवललधुग्गमसुजणिय परमप्पववएसो ॥ असहायणाणदसण सहिओ इदि केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोगो इदि अगाइ-णिहणारिसे उत्तो' ॥" केवलज्ञानरूपी सूर्यको किरणोंके समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिसने नवकेवललब्धियोके प्रगट होनेसे 'परमात्मा' इस संज्ञाको प्राप्त कर लिया है, वह इन्द्रियादिकी अपेक्षा न रखनेवाले असहायज्ञान व दर्शनसे युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगोंसे युक्त होनेके कारण सयोगी और घातियाकर्मोको जीत लेने अर्थात् क्षय कर देनेसे जिन कहे जाते हैं ऐसा अनादिविधन आर्षमे कहा गया है। १. धवल पु० १ पृष्ठ १६१-६२। २. जयघवल मूल पृष्ठ २२७० । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १६४] [ गाथा २२६ भगवत् अर्हत्परमेष्ठी स्वयं पदार्थज्ञान में स्थित है, तथापि परार्थप्रवृत्ति स्वभावसे' निकटभव्योके हितके लिए धर्मामृतकी वृष्टि करते हुए अबुद्धिपूर्वक सर्वप्राणियोके उद्धारकी भावनाके अतिशयसे प्रेरित होकर भव्यजनोके पुण्यके कारण तथा शेष कर्मफलके सम्बन्धसे बिहार करते हैं। प्रतिसमय कर्मप्रदेशोंकी असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा करते हुए धर्मतीर्थ प्रवर्तन के लिए यथोचित धर्मक्षेत्र में अतिशयीविभूतिके साथ प्रशस्तविहायोगति नामकर्मके कारण तथा स्वभावसे बिहार करते हैं । ___ शङ्का-अर्हत्भगवान्का व्यापार अर्थात् अतिशयबिहार अभिसन्धिपूर्वक (इरादेसे) होता है, अन्यथा यत्किचनकरित्व (यद्वा-तदुवा कुछ भी किये जानेपर) । के दोष (अनुषजनात्) का प्रसंग आ जावेगा। यदि अभिसंधि पूर्वक माना जाता है तो इच्छा होनेसे असर्वज्ञ हो जावेगे जो इष्ट नहीं है। ___समाधान--ऐसा नहीं है, क्योकि कल्पतरुके समान इच्छाके बिना भी केवली. के परार्थकी सामर्थ्य उत्पन्न होती है अथवा दोपकके-समान । जैसे दीपक कृपालु होकर स्व और परके अन्धकारको दूर नहीं करता, किन्तु स्वभावसे ही स्वपरसम्बन्धी अन्धकारको दूर करता है इसमें कुछ भी बाधा नही आती है । कहा भी है "जगते त्वया हितमवादि न च विवदिषा जगद्गुरो। कल्पतरुरनभिसन्धिरपि प्रणयिभ्य ईप्सितफलानि यच्छति ।। कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमोक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम् ।। विवक्षासन्निधानेऽपि वाग्वृत्तिर्जातु नेक्ष्यते । वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणा मन्दबुद्धयः ।।" "हे जगद्गुरो ! आपके द्वारा जगत्का कल्याण विवादका विषय नही है, क्योकि इच्छा रखने वाले प्राणियोके लिए कल्पवृक्ष बिना इच्छाके ही वाछितफलोको - १. "पराधप्रवृत्तिस्वभाव्यात्” (जयधवल मूल पृष्ठ २२७१) २. "मबुद्धिपूर्वमेव सर्वसत्त्वाभ्युद्धार भावनातिशय प्रेरित.' (ज. घ. मूल पृष्ठ २२७१) ३. प्रवचनसारगाथा ४४-४५ । ४. स्वयभूस्तोय श्लोक ७४ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२६ ] क्षपणासार [१६५ देता है । हे मुनीश ! आपकी मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियां इच्छापूर्वक नहीं होती, हे धीर ! असमीक्षापूर्वक (बिनाविचारे) आपकी प्रवृत्तियां नही होतो इसलिए आपकी प्रवृत्ति अचिन्त्य है । कहनेकी इच्छा होनेपर भी वचन प्रवृत्ति कदाचित् नही देखी जाती, जैसे मन्दबुद्धिलोग शास्त्रोंके वक्ता होनेकी इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि के कारण कुछ कह नहीं सकता।" इसलिए परमोपेक्षासंयमविशुद्धिमे स्थित केवली के विशेष अतिशय व्याहार (दिव्यध्वनि) आदि व्यापार स्वाभाविक हैं, पुण्यबन्धके कारण नही है । आर्षमें कहा भी है "तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो व तस्स पुण्णफलो। वयण च दाणपूजारभयरं तण्ण लेवेइ' ॥" भगवानका बिहाररूप अतिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए आकाश में भक्तिसे प्रेरित देवोके द्वारा रचित स्वर्णमयी कमलोंपर प्रयत्न विशेषके बिना ही अपने माहात्म्यातिशयसे होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योकि उनको योगशक्ति अचिन्त्य है । कहा भी है-- "नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपंत्राम्बुजगंर्भचारैः । पादाम्बुज पातितमारदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ।। हे जिनेन्द्र ! कामदेवके गर्वको नष्ट करनेवाले आपने सहस्रदल कमलोके मध्यमें चलनेवाले अपने चरणकमलोके द्वारा आकाशतलको पल्लवोंसे युक्त जैसा करते हुए पृथ्वीपर स्थित प्रजाजनोकी विभूतिके लिए बिहार किया था। सयोगिजिनके प्रथमसमयसे लेकर केवलीसमुदुघातके अभिमुख केवलीके प्रथमसमयतक अवस्थित एकरूपसे गुणश्रेणि निक्षेपका क्रम जानना चाहिए, क्योंकि प्रतिसमय पंरिणाम अवस्थित हैं और परिणामोके निमित्तसे होनेवाला कर्मप्रदेशोका अपकर्षण व गुणश्रेणिनिक्षेपका पायाम सदृश अर्थात् अवस्थितरूपको छोड़कर विसदृशरूप परिणमन नही करता यानि अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी सख्यामें या गुणश्रेणिायाममे हीनाधिकता नहीं होती, किन्तु क्षीणकषायगुणस्थानमें गुणश्रेणिके निमित्तसे जो द्रव्य अपकर्षित किया ३. जयधवल मूलं पृष्ठ २२७१ । २. स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ३० । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] क्षपणासार [ गाथा २२७-२२६ जाता था उससे असंख्यातगुणा द्रव्य सयोगकेवली अपकर्षित करते हैं । गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणा हीन है, क्योंकि छद्मस्थके परिणामोसे केवलोके परिणाम विशुद्धतर हैं, ऐसा ११वी गुणश्रेणिप्ररुपणामें कहा गया है। इसप्रकार आयुकर्मको छोड़कर शेष तीनअघातिया कर्मोंके प्रदेशोंकी असख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा करनेवाले तथा धर्मतीर्थको फैलानेवाले उत्कृष्टरूपसे कुछकम पूर्वकोटि कालतक बिहार करते हैं । तीर्थङ्करके वलीके और अन्य केवलियोके जघन्यकालका उत्कृष्टकालप्रमाण आगमसे जान लेना चाहिए। तीर्थङ्करकेवली समवशरणविभूतिके साथ बिहार करते हैं। पडिसमयं दिव्वतमं जोगी णोकम्मदेहपडिबद्धं । समयपबद्धं बंधादि गलिदवसेलाउमेत ठिदी ॥२२७॥६१८॥ अर्थ-सयोगिजिन प्रतिसमय औदारिकशरीररूप नोकर्मसम्बन्धी आहारवर्गणारूप समय प्रबद्धको बांधते हैं जिसकी स्थिति सयोगिजिनसे पूर्व अवस्थामें व्यतीत हुई आयुके बिना शेष बची आयुप्रमाण जानना । विशेषार्थ-नोकर्मवर्गणा ग्रहणकरना ही आहारमार्गणा है और इसका सद्भाव केवलीभगवान्के है, क्योकि ओज, लेप, मानसिक, कवल, कर्म और वोकर्मके भेदसे छहप्रकारका आहार है । इन छहप्रकारके आहारमे से कर्म व नोकर्मरूप दोप्रकारका आहार पाया जाता है। सातावेदनीयके समयप्रबद्धको ग्रहण करता है वह कर्मआहार है तथा औदारिकशरीररूप समयप्रबद्धको ग्रहण करता है वह नोकर्म आहार है । णवरि समुग्घादगदे पदरे तह लोगपूरणे पदरे। . णत्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ॥२२८॥६१६॥ अर्थ-इतनी विशेषता है कि केवलीसमुद्घातको प्राप्त केवलीभगवान में प्रतरके दो, लोकपूरणके एक इन तीनसमयों में नोकर्मका आहार नही है अन्यसर्वकाल में नोकर्मका आहार पाया जाता है। अथानन्तर पश्चिमस्कंधद्वारका कथन करते हैंअंतोमुहुत्तमाऊ परिसेसे केवली समुग्घादं । दंड कवाट पदरं लोगस्स य पूरणं कुणदी॥२२६।।६२०॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७२ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा २३०-२३६ ] क्षपणासार [ १६७ हेट्ठा दंडस्संतोमुहुत्तमावजिदं हवे करणं । तं च समुग्धादस्स य अहिमुहभावो जिणिंदस्स ॥२३०॥६२१॥ सट्टाणे आवजिदकरणेवि य णत्थि ठिदिरसाण हदी। उदयादि अवट्ठिदया गुणसेढी तस्स दव्वं च ॥२३१॥६२२।। जोगिस्स सेसकाले गयजोगी तस्स संखभागो य । जावदियं तावदिया आवजिद करणगुणसेढी ॥२३२॥६२३॥ ठिदिखंडमसंखेज्जे भागे रसखंडमप्पसत्थाणं । हणदि अणंता भागा दंडादी चउसु समएसु ॥२३३॥६२४॥ चउसमएसु रसस्स य अणुसमोवणा असत्थाणं । ठिदिखंडस्लिगिसमयिगघादो अंतोमुहुत्तुवरिं॥२३४॥६२५॥ जगपूरणम्हि एक्का जोगस्स य वग्गणा ठिदी तत्थ। अंतोमुत्तमेत्ता संखगुणा आउा होदि ॥२३५।।६२६॥ एत्तो पदर कवाडं दंडं पच्चा चउत्थसमयम्हि । पाविसिय देहं तु जिणो जोगणिरोधं करेदीदि ॥२३६॥कुलयं॥६२७॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेष रहनेपर केवलीभगवान् समुदुधातक्रिया दंड, कपाट, प्रतर व लोकपूरणरूपसे करते हैं । दंड समुद्घात करनेके समय में अन्तर्मुहूर्त कालतक अधः (पहले) आवजितकरण होता है। जिनेन्द्रभगवानका समुद्घात करने के सम्मुख होना ही आवजितकरण कहलाता है। आवजितकरणकरनेके पहले जो स्वस्थान है उसमें और आवजितकरणमें सयोगकेवलीके स्थिति व अनुभागघात नही है तथा उदयादि अवस्थितरूप गुणश्रेरिण आयाम है एवं उस गुणश्रेणिमआयामका द्रव्य भी अवस्थित है । आवजितकरण करने के पहले समयमें जो सयोगकेवलीका अवशिष्ट काल और अयोगकेवलीके सर्वकालका संख्यातवांभाग इन दोनोंको मिलानेपर जितना प्रमारण आवे उतने प्रमाण आवजितकरणकालका अवस्थितगुणश्रेणिआयाम जानना । दंडादिसमुदुघातके चारसमयों में स्थिति तो असंख्यातबहुभागप्रमाण और अप्रशस्तकर्मों का अनुभागका अनंत Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार १९८ ] [ गाथा २३६ बहभागप्रमाण घात होता है। इसप्रकार चारसमयोंमें अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अपवर्तन तथा स्थितिखंडका एकसमयवाला घात हुआ। एक-एकसमयमें जो एक-एकस्थितिकाण्डकघात किया सो यह समुद्घात क्रियाका माहात्म्य है । लोकपूरणके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिकाण्डक या अनुभागकाण्डकका आयाम (उत्कीरणकाल) होता है। लोकपूरण समुद्घातमें योगकी समानता हो जानेपर योगकी एकवर्गणा हो जाती है । यहां आयुसे संख्यातगुणी अन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितिको स्थापित करता है । लोकपूरणके अनन्तर प्रथमसमयमें लोकपूरणको समेटकर आत्मप्रदेशोंको कपाटरूप करता है तथा तृतीयसमयमें कपाटको समेटकर दण्डरूप आत्मप्रदेशोंको करता है, इसके अनन्तर चतुर्थसमय में दण्डको समेटकर सर्वआत्मप्रदेश मूल शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहांसे 'अन्तर्मुहूर्त जाकर जिन (अर्हन्तभगवान) योगका निरोध करते हैं। विशेषार्थ- केवलज्ञानको उत्पन्नकरके स्वस्थान सयोगकेवलो होकर उत्कृष्टसे कछकम पूर्वकोटिप्रमाण विहार करते हैं । अन्तर्मुहर्तप्रमाण आयु शेष रहनेपर अघातियाकर्मोकी स्थितिको समान करने के लिए सर्वप्रथम आवजितनामक क्रियान्तरको करता है। शङ्का--आवजितकरण किसे कहते हैं ? समाधान-केवलीसमुद्घातके अभिमुखभावको आवजितकरण कहते हैं । केवली आवजितकरणका पालन करते हैं, क्योकि अन्तमुहर्तप्रमाणवाले आवजितकरणके बिना केवलीसमुदुधातक्रियाके अभिमुखभावकी उत्पत्ति नहीं होती। उससमय नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मके प्रदेशपिण्डका अपकर्षणकरके उदयस्थिति में स्तोकप्रदेशाग्न देता है उसके अनन्तर असंख्यातगुणे प्रदेशानको देता है । इसप्रकार शेष सयोगकेवली व अयोगकेवलीकालसे विशेषअधिककालतक असख्यात गुणी श्रेणिरूपसे देता जाता है जबतक अपना गुणश्रेणिशीर्ष प्राप्त नहीं होता। इससे पूर्वसमयमें स्वस्थानसयोगकेवलीके गुणश्रेणिआयामसे वर्तमानगुणश्रेणियायाम संख्यातगुणाहीन है अतः पूर्वके गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तरस्थितिमे भी असख्यातगुणे प्रदेशाग्न देता है उससे ऊपर सर्वत्र विशेष (चय) हीन देता है । इसप्रकार आवजितकरणकालमें सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना । यहासे लेकर सयोगकेवलीके द्विचरम स्थितिकाण्डककी चरमफालिपर्यन्त गुणश्रेणिनिक्षेपायामका अवस्थितआयामरूपसे प्रवृत्तिका नियम देखा जाता है; यह प्रसिद्ध भी नही क्योकि सूत्रअविरुद्ध परमगुरुसम्पदाके बलसे सुपरिनिश्चित है । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २३६ ] [ १६६ शङ्का-स्वस्थानकेवलीके और क्रियाभिमुखकेवलीके अवस्थित एकस्वरूप परिणाम होते हुए भो गुणश्रेणिनिक्षेप में विसदृशपना किसकारणसे हैं ? समाधान-वीर्यपरिणामों में भेदका अभाव होने पर भी अन्तर्मुहर्त शेष रह जाने की अपेक्षा अन्तरंगपरिणामोंकी विशेषतावाले और क्रियाभेदके साधनमें प्रवर्तनेवालेके प्रतिबन्धका अभाव है' । अर्थात् स्वस्थानके वलीसे आवर्जितकरण केवलोके गुणश्रेणियाम व गुणश्रेणिप्रदेशनिक्षेप समान होना चाहिए- ऐसा कोई नियम नही है । इसप्रकार अन्तर्मुहर्तकालतक आवजितकरणसम्बन्धी व्यापारविशेषका पालनकरके स्थितकेवली अनन्तर समयमें केवलीसमुद्घातको करता हैं । शंका-केवलीसमुदुघात किसे कहते हैं ? ___ समाधान--"उद्गमनमुद्घातः, जीवप्रदेशानां विसर्पणमित्यर्थः। समीचीन उद्घातः समुद्घातः, केवलिनां समुद्घातः केवलीसमुद्रातः"२ उद्गमको उद्घात कहते हैं अर्थात् जीवप्रदेशोंका फैलना उद्घात है, समीचोन उद्घात समुद्घात है। केवलियोंका समुद्घात केवलीसमुद्घात है । अघातियाकर्मोकी स्थितिका समीकरण करने के लिए केवलोजिनके आत्मप्रदेशोंका आगमअविरुद्धसे ऊपर, नीचे व तिर्यकपसे फैलनेको के वलीसमुद्घात कहते हैं। अन्य समस्त समुद्घातोंका निषेध करनेके लिये यहांपर केवली विशेषण दिया गया है, क्योंकि यहां अन्यसमुंघातोंका अधिकार नहीं है । दण्ड, कपाट, प्रतर व लोकपूरणके भेदसे वह केवलीस मुद्घात चारप्रकारका है। उनमें सर्वप्रथम दंडसमुद्घातका स्वरूप कहते हैं, केवलीजिन सर्वप्रथम दंडसमुद्घातको हो करते हैं। शंका--दण्डसमुद्घातका क्या लक्षण है ? समाधान--अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेष रह जानेपर केवलोसमुदुघातको करनेवाले केवलीजिन पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग या पल्यकासनमें स्थित १. णेदमेत्थासकरिणज्ज, सत्थाणकेवलिणो किरियाहिमुहकेवलिणो च अवट्ठिदेगसरूवपरिणामत्ते सते कुदो एवमेत्थुई से गुणसे ढिणिक्खेवस्स विसरिसभावो जादोत्ति । किं कारण ? वीयरायपरिणामभेदाभावे वि अतोमहत्तसेसाउसवपेक्खाणमतरंगपरिणामविसेसाण किरियाभेदसाहणभावेण पयट्टमारणाण पडिबधाभावादो। (जयधवल मूल पृष्ठ २२७८) २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७८ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० क्षपणासार [ गाथा २३६ होते हैं । कायोत्सर्गसे दण्डसमुद्घात करनेवालेके विस्तार में मूलशरीरकी परिधिप्रमाणवाले जीवप्रदेश विकलकर दण्डाकार कुछकम १४ राजू आयामवाले हो जाते हैं। 'देसोण' से अभिप्राय लोकके ऊपर और नीचे वातवलयोसे अविरुद्धक्षेत्रका है, क्योकि स्वभावसे ही उस अवस्थामें केवलीजिनके प्रदेशोंका वातवलयमें प्रवेशका अभाव है। इसीप्रकार पल्यंकासनवाले केवलियोंके दण्डसमुदुघातका कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि मूलशरीरको परिघिसे दण्डसमुदुघातकी परिधि तिगुणी होती है । इसप्रकारको अवस्था विशेषको दण्डसमुदुधात कहते हैं । इसमें जीवप्रदेश दण्डाकार से फैलते हैं अतः यह दण्डसमुद्घात कहलाता है। दण्डसमुद्घातमें औदारिककाययोग होता है, क्योकि अन्ययोग असम्भव है। उसीसमय पल्योपमके असरुयातवेंभागप्रमाण 'स्थिति सत्कर्मवाले तीनअघातियाकर्मोकी स्थितिके असंख्यातबहुभाग घात करनेसे सख्यातवेभागप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है। केवलीसमुद्घातके प्रभावसे एकसमयमें ही स्थितिघात हो जाता है । अप्रशस्तप्रकृतियोका जो अनुभाग क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरमसमय में था चरमसमयमें उसका अनन्तबहुभाग घातहोकर अनन्तवेंभागप्रमाण अनुभागसत्कर्म शेष रह जाता है, उसका भी अनन्तबहभाग समुद्घातगत केवलीके प्रथमसमयमें होकर अनन्त-भागप्रमाण अनुभागसत्कर्म रह जाता है। प्रशस्तप्रकृतियोंका स्थितिघात तो होता है, किन्तु अनुभागघात यहां नही होता है । आवजितकरणमे जैसी गुणश्रेणिप्ररुपणा की गई थी वैसी ही प्ररुपणा यहां भी करना चाहिए । (इससे यह सिद्ध हो जाता है कि स्वस्थानकेवलि व आवजितकरणकेवलिके स्थिति व अनुभागघात वही होता।) ____ अनन्तरसमयमें अर्थात् केवलीसमुद्घातके द्वितीयसमयमें कपाटसमुदुघात होता है । जैसे किवाड़ (कपाट) बाहल्य (मोटाई) में स्तोक होकर भी विषकम्भ और आयाममें (लम्बाई-चौड़ाईमें) बढ़ता है उसीप्रकार विस्तारमें जीवप्रदेश मूलशरीरप्रमाण या मूलशरीरसे तिगुणे होकर कुछकम चौदहराजू लम्बे और दोनों पार्श्वभागोमें सातराजू या हानि-वृद्धिरूप सातराजू चौड़े फैल जाते हैं इसलिए इसको कपाट (किवाड़) समुदुघात कहा है । यहां स्फुट कपाटरूप संस्थान उपलब्ध होता है तथा पूर्व या उत्तरमुखके कारण विष्कम्भमें भेद हो जाता है । कपाटसमुद्घात में औदारिकमिश्रकाययोग. होता है । कार्मण और औदारिक इन दोनोंको मिलो हुई अवस्थाके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंकी परिस्पन्दरूप पर्याय उत्पन्न होती है। शेषकर्मस्थितिका असंख्यात बहुभाग Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३६ ] क्षपणासार [ २०१ और अप्रशस्तप्रकृतियोंके शेष अनुभागके अनन्तबहुभागका घात कपाटसमुद्घात में होता है। यहां गुणश्रेणीको प्ररुपणा आवजितकरण में कथित गुणश्रेणिप्ररुपणाके समान ही है । केवलीसमुद्घातके तृतीयसमयमें मंथ (प्रतर) समुद्धात होता है, जिसके द्वारा कर्मोंका मथन किया जावे वह मन्थ है । अघातियाकर्मोकी स्थिति व अनुभागका हनन होता है और प्रात्मप्रदेशोंकी अवस्थाविशेष (प्रतररूपसे फैल जाते हैं) को प्रतरसनावाला मन्थ कहा गया है। इस अवस्थाविशेषमें वर्तन करनेवाले केवलीके जीवप्रदेश चारों ओर प्रतराकारसे फैल जाते हैं, वातवलयोंके अतिरिक्त शेष समस्त लोकाकाशके प्रदेशोंमें व्याप्त हो जाते हैं, क्योंकि इस अवस्था में वातवलयोमें केवलीके जीवप्रदेशोके संचारका अभावरूप स्वभाव है, जीवप्रदेशोंकी ऐसी अवस्थाको प्रतरसंज्ञा आगमरुढिके बलसे जानना । इस अवस्थामें केवली कार्मणकाययोगी व अनाहारक हो जाते हैं । मूलशरीरके अवलम्बनसे उत्पन्न जीवप्रदेशोका परिस्पन्दन असम्भव है क्योकि शरीरके तत्प्रायोग्य नोकर्म पुद्गलपिण्डके ग्रहणका अभाव है। स्थितिसत्कर्मके असख्यात बहुभाग और अप्रशस्त प्रकृतियों के अनुभागसत्कर्मके अनन्तबहुभागका पूर्वके समान हो घात होता है और उसीप्रकार प्रदेश निर्जरा भी होती है। स्वस्थानके वलीको गुणश्रेणिनिर्जरासे असंख्यातगुणी गुणश्रेणीनिर्जरा आवर्जितकरण आदि अवस्थाओंमें होती है। ___ तदनन्तर चतुर्थसमयमें लोकपूरणसमुदुधात होता है। वातवलयसे अविरुद्ध लोकाकाशके प्रदेशोंमें जीवप्रदेश प्रवेशकर जानेपर जीवप्रदेश व लोकाकाशके प्रदेशों में समानता होनेसे सम्पूर्ण लोकाकाशमें जीवप्रदेश निरन्तर (अन्तररहित) व्याप्त हो जाते हैं इसलिए 'लोकपूरण' संज्ञावाला यह चतुर्थ केवलीसमुद्घात है। यहांपर भी कार्मणकाययोग व अनाहारक अवस्था होती है, क्योंकि शरीरनिर्वृत्तिके लिए औदारिकरूप नो. कर्मवर्गणाओंका निरोध देखा जाता है । लोकपूरणसमुदुधातमें वर्तन करनेवाले केवलोके लोकप्रमाण समस्त जीवप्रदेशों में वृद्धि-हानिके बिना योग-अविभागप्रतिच्छेद सदृश होकर परिणमन करते हैं इसलिए सर्वजीवप्रदेशोमे एक योगवर्गणा हो जाती है अर्थात् सर्वजीव प्रदेशों में समान योग होता है। सर्वजीवप्रदेशों में सदृशयोगशक्तिके अतिरिक्त विसदृशयोग शक्तिको अनुपलब्धि है । सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्ययोगसे असख्यातगुणा तत्प्रायोग्य मध्यसयोगस्वरूप वह सदृशयोग परिणाम होता है। लोकपूरण समुद्धातमें असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिका घात हो जानेपर शेषस्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रह Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] क्षपणासार गाथा २३६ जाती है जो शेषप्रायुसे संख्यातगुणी है । लोकपूरणसमुद्घति हो जानेपर भी तीनअघातियाकर्मोंका स्थितिसत्कर्म आयुकर्मके समान नही हुआ, किन्तु संख्यातगुणा है, परन्तु महावाचक आर्यमंक्षु आचार्यने क्षपणके उपदेश में यह कहा है कि लोकपूरणसमुद्घात में नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मका स्थिति सत्कर्म अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेषआयुके बराबर हो जाता है । इस व्याख्यानसे चूणिसूत्र (यतिवृषभाचार्यकृत) विरुद्ध है, क्योकि चूणिसूत्र में मुक्तकण्ठसे कहा गया है कि शेषआयुसे संख्यातगुणी अघातियाकर्मों की स्थिति रह जाती है । इसप्रकार यहां दो उपदेश हैं। प्रवृत्तमान उपदेशकी प्रधानताका अवलम्बन लेकर यहां शेष आयुसे संख्यातगुणी तीन अघातियाकर्मोंकी स्थिति कही गई है। । समुद्घातके इन चारसमयों में प्रति समय अप्रशस्तकर्मोके अनुभागका अपवर्तनाघात होता है । इनचार समयोंमें एक-एकसमयमें एक-एकस्थितिघात होता है । आवजितकरणके अनन्तर केवलीसमुद्घात करके नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है। शङ्का-लोकपूरणसमुद्घातक्रियाके पूर्ण होनेपर केवलो समुदुघातक्रियाका उपसंहार (सकोच) करके स्वस्थानको किसप्रकार प्राप्त होते हैं ? समाधान-लोकपूरणसमुद्घातके अनन्तर पुनः मन्थक्रिया होती है, क्योंकि मन्थपरिणाम (पर्याय) के बिना सकोच नही हो सकता। लोकपूरणसमुद्घात संकुचित होचेपर समयोगपर्यायका नाश होकर आगमके अविरोधसे सर्व पूर्वयोग-स्पर्धक उघाटित हो जाते हैं। मन्थ (प्रतर) का संकोच होकर कपाटरूप प्रवृत्ति होती है. क्योकि कपाटरूप पर्यायके बिना मन्थका संकोच नहीं हो सकता । अनन्तरसमयमें दण्डसमुद्घातरूप परिणमन करनेपर कपाटका संकोच होता है तथा तदनन्तरसमयमें स्वस्थानकेवलोपर्याय के द्वारा दण्डसमुद्घातका संकोच करके होनाधिकतासे रहित मूलशरीरप्रमाण जोवप्रदेशोंका अवस्थान हो जाता है । इसप्रकारे संकोच करनेवालेके तीनसमयप्रमाण काल है, चौथेसमयमें स्वस्थानकेवली हो जाते हैं। किन्हीके व्याख्यानुसार संकोच करनेवालेका चारसमय काल है, क्योकि जिससमयमें दण्डसमुद्घातका संकोच होता है वह समय भी समुद्घातमें ही अन्तर्भूत कर लिया है। पूर्ववत् प्रतरसमुद्घातमें कामणकाययोग, कपाटसमुद्घातमें औदारिकमिश्रकाययोग और 'दण्डसमुद्घातमे औदारिककार्ययोग होता है । कहा भी है Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३७-२३ ] क्षपणासार दण्डं प्रथमे समये कवाटमथ चोत्तरे तथा समये । मथानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थेतु ॥ संहरति पंचमे त्वन्तराणि मथानमथ पुनः षष्ठे । सप्तम के च कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् ॥ [ २०३ प्रथम समय में दण्ड, अनन्तर अगले समय में कपाट, तृतीयसमय में मंथान और चतुर्थ समय में लोकव्यापी, पांचवें समयमे संकोचक्रिया, छठे समय में मथान, सातवें समयमें कपाट तथा उसका संकोच होकर आठवें समय में दण्ड हो जाता है । इसप्रकार समुदुघात प्ररूपणा समाप्त हुई' । लोकपूरणसमुदुघातसे उतरनेवाला अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति के संख्यातबहुभागको घात के लिए स्थितिकाण्डकघातको और अप्रशस्त प्रकृतियोके पूर्वघातित अवशेष अनुभागके अनन्तबहुभागको घातने के लिए अनुभाग काण्डकघात प्रारम्भ करता है । यहां स्थिति काण्डकघात और अनुभागकाण्डकघातका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, क्योकि लोकपूरणसमुदुघातके अनन्तरसमय से प्रतिसमय एकसमयवाला स्थितिघात व अनुभागघात नही होता । इस प्रकारसे समुदुघातको संकोच करनेके कालमें और स्वस्थान काल में संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात हो जानेपर योग विरोध करता है । बादरमण वचि उस्सास कायजोगं तु सुहुमजचउक्कं । भदि कमलो बादरहुमेण य कायजोगेण ॥ २३७॥६२८॥ विमाणि पुणे जहरणम वय कायजोगादो । कुरणदि असंखगुणं सुहुमणिपुराणवरदोवि उस्सासं ॥ २३८॥६२६॥ एक्कक्कस्स टिंभणकालो तोमुत्तमेतो हु । सुमं देहणिमाणमारणं हियमाणि करणाणि ॥ २३६ ॥ ६३० ॥ अर्थ – बादर काययोगद्वारा सनोयोग-वचनयोग उच्छ्वास- काययोग, इन चारों को क्रमसे नष्ट करता है तथा सूक्ष्मकाययोगरूप होकर उन चारोंसूक्ष्म योगोंको क्रमसे १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७२ से २२६२ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] क्षपणासार [गाथा २३६ नष्ट करता है। संज्ञोपर्याप्तके जो जघन्यमनोयोग पाया जाता है उससे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्ममनोयोग करता है और द्वीन्द्रियपर्याप्तकके जो जघन्य वचनयोग पाया जाता उससे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्मवचनयोग करता है तथा सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तके जघन्य काययोगसे असख्यातगुणाहीन सूक्ष्मकाययोग करता है तथा सूक्ष्मनिगोदिया पर्याप्तके जघन्यउच्छ्वाससे असख्यातगुगाहोन सूक्ष्म उच्छ्वास करता है । एक-एकबादर व सूक्ष्म मनोयोगादिके निरोधकरनेका काल अन्तम हर्तप्रमाण जानना तथा सूक्ष्मकाययोगमें स्थित रहते हुए सूक्ष्मउच्छ्वासको नष्ट करनेके अनन्तर सूक्ष्मकाययोगको नष्ट करनेके लिए प्रवृत्त होता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त विधिसे समुद्घातको संकोचकरके स्वस्थानकेवलो होकर संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डक व्यतीत हो जानेपर योगनिरोधके लिए क्रियान्तर करते हैं। शङ्का~योग किसे कहते हैं ? समाधान-मन-वचन-कायकी चेष्टासे निर्वतित कर्मोंके ग्रहण करनेमें कारणभूत शक्तिस्वरूप जीवप्रदेशोंका परिस्पदन योग कहा जाता है। वह योग तीनप्रकारका है-मनोयोग, वचनयोग व काययोग । उनमेंसे प्रत्येक योग सूक्ष्म व बादरके भेदसे दोप्रकारका है। योगनिरोधक्रियासे पूर्व सर्वत्र बादरयोग होता है, बादरयोगके पश्चात् सूक्ष्मयोगरूपसे परिणमनकर योगनिरोध करता है, मात्र बादरयोगसे ही प्रवृत्ति करनेवालेके योगनिरोध नहीं होता। योगनिरोध करनेवाले केवलीभगवान् सर्वप्रथम ही बादरकाययोगके अवलम्बनके बलसे बादरमनोयोगका निरोध करते हैं। बादरकाययोगसे वर्तन करते हुए बादरमनोयोगकी शक्तिको निरोधकर सूक्ष्मभावसे सज्ञोपंचेन्द्रिय पर्याप्तके सर्वजघन्य मनोयोगसे नीचे असख्यातगुणी हीन शक्ति वाले सूक्ष्ममनोयोगको स्थापित करते हैं। बादरमनोयोगकी शक्तिका निरोध करके अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकालके द्वारा बादरकाययोगका अवलम्बन लेकर बादरवचनयोगशक्तिका भी निरोव करते हैं। द्वीन्द्रिय पर्याप्तको सर्वजघन्य योगशक्तिसे लेकर उपरिम सर्ववचनयोगशक्ति बादर वचनयोगशक्ति है। उस बादरवचनयोग शक्तिको रोककर द्वोन्द्रियपर्याप्तकी सर्वजघन्य वचनयोगशक्ति से नीचे असंख्यातगुणाहीन सूक्ष्मवचनयोगरूप कर देते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से बादरकाययोगके द्वारा बादरउच्छ्वास-निश्वासका Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३६ ] निरोध करते हैं । सूक्ष्म निगोदनिवृत्तिपर्याप्त अर्थात् श्रानपानपर्याप्तिसे पर्याप्त के सर्वजघन्यउच्छ्वास- नि.श्वासशक्तिसे असंख्यातगुणी संज्ञी पंचेन्द्रियकी उच्छ्वास- निःश्वासरूप परिस्पन्दशक्तिका बादरउच्छ्वास निःश्वासरूपसे ग्रहण करना चाहिए। उस बादरउच्छ्वासनिःश्वासका निरोधकरके सूक्ष्मनिगोदियाकी सर्वजघन्य उच्छ्वासशक्तिसे नीचे असंख्यात - गुणीहीन सूक्ष्मशक्तिरूप कर देता है, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त से बादरकाययोगके द्वारा बादरकाययोगका निरोधकर सूक्ष्मरूप कर देते हैं, सूक्ष्मनिगोदिया के जघन्यकाययोग से असख्यातगुणहीन शक्ति से परिणमा देते हैं । इस सम्बन्धमें दो उपयोगीश्लोक है क्षपणासार "पंचेन्द्रियोऽथ संज्ञी य: पर्याप्तो जघन्ययोगी स्यात् । निरुणद्धि मनोयोगं ततोऽप्य संख्यातगुणहीनं ॥ द्वन्द्रिय साधारणयोर्वा गुच्छ्वासावघो जयति तद्वत् । कायजोगं जघन्यपर्याप्तकस्याषः ॥ " पनकस्य २०५ संज्ञी पञ्चेन्द्रियपर्याप्त जघन्ययोगका विरोध होकर, उससे भी असंख्यातगुणाहीन मनोयोग हो जाता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके जघन्यवचनयोगका निरोध होकर उससे भी असख्यातगुणाहीन वचनयोग हो जाता है । साधारण अर्थात् निगोदिया के जो जघन्यउच्छ्वास है तथा सूक्ष्म वनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जो जघन्य उच्छूवास है तथा सूक्ष्मवनस्पतिकाय अर्थात् सूक्ष्मनिगोदियाके जो जघन्यकाययोग है उन बादर-बादर वचन, उच्छ्वास व काययोगका निरोध होकर उनसे भी असंख्यातगुणाहोत वचनयोग, उच्छ्वास व काययोग हो जाता है । इसप्रकार यथाक्रम बादरमनोयोग, बादरवचनयोग, बादरउश्वास- निःश्वास व बादरकाययोगशक्तिका निरोध होकर सूक्ष्मपरिस्पन्दशक्ति हो जाती है । इसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्ममनोयोगका निरोध करते हैं अर्थात् विनाश करते हैं । यहांपर सूक्ष्ममनोयोग से, सज्ञीपंचेंद्रियपर्याप्त के सर्वजघन्य परिणाम से असख्यातगुणेहीन अवक्तव्यस्वरूप द्रव्यमनोयोगके निमित्त से जो जीवप्रदेशो में परिस्पन्द होता है, उसका ग्रहण होता है । उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा सूक्ष्मकाययोगसे सूक्ष्मवचनयोगका निरोध अर्थात् विनाश होता है । द्वीन्द्रियपर्याप्तके सर्वजघन्यवचनयोगशक्ति से नीचे असख्यातगुणेहीन वचनयोगको सूक्ष्मवचनयोग कहते हैं, उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्म उच्छ्वासका निरोध ( नाश) करता है। यहां भी सूक्ष्मनिगोदियापर्याप्तजीवके सर्व जघन्य उच्छ्वाससे नीचे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपरणासार [ गाथा २४०.४३ मायानगुणीहीन उच्छ्वासशक्तिका ग्रहण होता है । बादर व सूक्ष्ममनोयोगादि प्रत्येकके मरने में लन्तमहतकाल लगता है । योगनिरोध करनेवाले केवली सूक्ष्मकाययोगसारा मन, वचन व उच्छ्वासकी सूक्ष्मशक्तिको भी यथोक्तक्रमसे निरोध (नाश) को माययोगका निरोध करने के लिए इन करणोंको अबुद्धिपूर्वक करते हैं । सुहमस्स य पढमादो मुहुत्तअंतोत्ति कुणदि हु अपुवे । पुव्वगफडगहेट्टा सेढिस्ल असंखभागमिदो ॥२४०॥६३१॥ पुवादिवग्गणाणं जीवपदेसा विभागपिंडादो। होदि असंखं भागं अपुव्वपढमम्हि ताण दुगं ॥२४१॥६३२॥ प्रोक्कदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणियकमे । कुणदि अपुवफट्टयं तन्गुणहीणक्कमेणेव ॥२४२॥६३३॥ सेढिपदस्स असंखं भागं पुव्वाण फड्डयाणं वा। सव्वे होंति अपुवा हु फड्ढया जोगपडिवद्धा ॥२४३।।कुलय।।६३४॥ अर्थ-सूक्ष्मयोग होनेके प्रथमसमयसे अन्तमुहूर्त व्यतीतकर पूर्वस्पर्धकोके नोचे जगच्छेणीके असंख्यातवेभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक करते हैं। पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी जीवप्रदेशके असख्यातवेभागप्रमाण जीवप्रदेशोद्वारा प्रथमसमयमें अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है जिनमे पूर्वस्पर्षककी आदिवर्गणाके असंख्यातवेंभागप्रमाण अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । प्रतिसमय असंख्यात-असंख्यातगुणे क्रमसे जीवप्रदेशोका अपकर्षण करते हैं, किन्तु नवीन अपूर्वस्पर्धक असंख्यातगुणेहीन क्रमसे रचे जाते हैं । योगसम्बन्धी सर्व अपूर्वस्पर्धक जगच्छे णोके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेभागप्रमाण अथवा सर्व पूर्वस्पर्धकोके सत्यातवेंभागप्रमाण होते हैं । विशेषार्य-सूक्ष्मनिगोदियाजीवके जघन्ययोगसे असंख्यातगुणीहीन सूक्ष्मकायपरिस्पन्दनशक्तिरूप परिणपन होनेपर भी पूर्वस्पर्धक ही हैं, उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर प्रथमत्तमयमे पूर्वस्पर्षकोके नीचे अपूर्वस्पर्धकोको रचना होती है जिनकी सख्या पूर्व १. जपरवल मूल पृष्ठ २२८३ से २२८५। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०७ गाथा २४३ ] क्षपणासार स्पर्धकोंके अथवा जगत्श्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सूक्ष्मनिगोदिया जीवके जघन्ययोगस्थानसे असंख्यातगुणेहोन सूक्ष्मकाययोगके अविभागप्रतिच्छेद होते हैं। इसमें भी आदिवर्गणाके असंख्यातवेंभागरूप परिणमाकर अपूर्वस्पर्धकोंकी रचना होती है। यहां असंख्यातवेंभागसे पल्यका असख्यातवांभाग ग्रहण करना चाहिए । प्रथमसमयमै असंख्यातवेंभागप्रमाण जीवप्रदेशोंका अपकर्षणकरके अपकर्षित जीवप्रदेशोंमें से बहुत जीवप्रदेश अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें दिये जाते हैं, क्योंकि सर्वजघन्यशक्तिरूपसे परिणमन करते हुए जीवप्रदेशोंमें बहुत्व होने में विरोधका अभाव है। अपूर्वस्पर्धककी ही द्वितीयवर्गणामें विशेषहीन प्रदेशाग्र दिये जाते हैं। इसप्रकार विशेषहोन-विशेषहीन प्रदेशाग्न दिये जाने का यह क्रम अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणातक जानना चाहिए । विशेषहीनके लिए प्रतिभागका प्रमाण श्रेणिका असंख्यातवांभाग है । पुनः अपूर्वस्पर्धककी चरमवर्गणासे असंख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें दिये जाते हैं। यहां हानिगुणकारका प्रमाण पत्यके असंख्यातवेंभागमात्र होते हुए भी अपकर्षण उत्कर्षणभागहारसे अधिक है। उससे ऊपर आगमसे अविरुद्धरूपसे विशेषहोन-विशेषहीन जीवप्रदेशोंका विन्यासक्रम जानना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयमे अपूर्वस्पर्धककी प्ररुपणा कही, तथैव द्वितीयसमयसे लेकर अन्तम हर्तकालतक अपूर्वस्पर्धकोंको रचना होतो है। प्रथमसमयमें किये गए अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे उनसे असंख्यातगुणे होन अपूर्वस्पर्धक द्वितीयसमय में किये जाते हैं, द्वितीयसमय में रचित अपूर्वस्पर्धकोसे असंख्यातगुणेहीन उनके नीचे तृतीयसमयमें अन्य अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । इसप्रकार नीचे-नीचे अन्तर्मुहूर्त के चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणेहीन-असंख्यातगुणेहोनरूपसे अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं, किन्तु प्रथमसमयमें जितने जोवप्रदेशोका अपकर्षण किया था उनसे असंख्यातगुणे जीवप्रदेश द्वितीयंसमय में अपकर्षित किये जाते हैं । इसप्रकार तृतीयादि समयों में भी असंख्यातगुणे जीवप्रदेशोंके अपकर्षणका यह क्रम जानना चाहिए। द्वितीयसमयमें अपकर्षित जीवप्रदेशोंके द्वारा रचे गए अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणामें बहुत जीवप्रदेश दिये जाते हैं तथा उससे आगे द्वितीयसमयमें हो रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंको चरमवर्गणातक आदिवर्गणा से विशेषहोन-विशेषहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं। उससे ऊपर प्रथमसमयमे रचित अपूर्वस्पर्धकोंमें से जघन्यस्पर्धककी आदिवर्गणामें असंख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश दिये जाते हैं, इससे ऊपर सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन जोवप्रदेश दिये जाते हैं। इसीप्रकार तृतीयादि समयोंमें असंख्यातगुणे-असख्यातगुणे जीवप्रदेशोका अपकर्षण होकर तथा उस Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २०८] [ गाया २४४-४७ उससमयमें रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओंमें एवं उससे ऊपर पूर्वसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथमादिवर्गणाओं जीवप्रदेश दिये जाते हैं । सर्व अपर्वस्पर्धकों. का प्रमाण जगच्छणीके प्रथमवर्गमूलका असख्यातवांभाग है । पूर्वस्पर्धकोके असख्यातवें भागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं, क्योकि पूर्वस्पर्धकोंमें पल्यके असंख्यातवेभागप्रमाण गुणहानियां हैं, उनमेसे एकगुणहानि स्थानान्तरमें जितने स्पर्धक हैं उनसे भी असख्यातगुणेहोन अपूर्वस्पर्धक हैं। शंका-गाथासूत्रके बिना यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध गुरूपदेशके बलसे उसप्रकारकी सिद्धि होने में कोई विरोध नहीं है, क्योकि व्याख्यानसे विशेषअर्थकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है। इसप्रकार अन्तम हर्तप्रमाण अपूर्वस्पर्धक करने का जो काल है उसके चरमसमयमें अपूर्वस्पर्धकक्रिया समाप्त हो जाती है। अपूर्वस्पर्धकक्रिया समाप्त हो जानेपर भी सर्व पूर्वस्पर्धक उसीप्रकार स्थित हैं, क्योकि अभी तक उनके विनाशका अभाव है। यहां सर्वत्र सयोगकेवलीके चरमसमयतक स्थितिघात, अनुभागघात तथा गुणश्रेणीनिर्जराकी प्ररुपणा पूर्वोक्त क्रमसे जानना चाहिए, क्योकि उनकी प्रवृत्तिमें प्रतिबन्धका अभाव है । इसप्रकार अपूर्वस्पर्धकक्रियासम्बन्धी कथन समाप्त हुआ' । एतो करेदि किहि मुहुत्तअंतोत्ति ते अपुवाणं । हेद्वादु फड्ढयाणं सेढिस्स असंखभागमिदं ॥२४४॥६३५॥ . अपुवादिवग्गणाणं जीवपदेसाविभागपिंडादो । होति असंखं भागं किट्टीपढमम्हि ताण दुगं ॥२४५॥६३६॥ प्रोक्कदि पडिसमयं जीवपदेसे असंखगुणिदकमे। ' तग्गुणहीणकमेण य करेदि किहितु पडिसमए ॥२४६॥६३७॥ सेढिपदस्स असंखं भागमपुव्वाण फड्ढयाणं व । सव्वाश्रो किडीओ पल्लस्स असंखभागणिदकमा॥२४७।।६३।। १. जयघवल मूल पृष्ठ २२८५ से २२८७ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४७ ] क्षपणासार [ २०६ अर्थ-इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तकालपर्यन्त अपूर्वस्पर्धकोंके नीचे सूक्ष्मकृष्टि करता है, उन सूक्ष्मकृष्टियोंका प्रमाण जगच्छणिके असख्यातवेभागमात्र है। अपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी सर्व जीवप्रदेश और अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद इन दोनोंके असख्यातवेंभागप्रमाणकृष्टि प्रथमसमयमें होती हैं । द्वितीयादि समयोमै प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रमसे जोवप्रदेशोका अपकर्षण करता है तथा प्रतिसमय की गई कृष्टियोंके नीचे असख्यातगुणेहीन क्रमसहित नवोनकृष्टियां करता है । सर्वसमयोमें की गई कष्टियोंका प्रमाण जगच्छरिणके असख्यात वेभागप्रमाण है अथवा अपूर्वस्पर्धकोके प्रमाणका असंख्यातवेभागप्रमाण है । सर्वकृष्टियां पल्यके असख्यातवेंभागगुणित क्रमसे हैं। विशेषार्थ- अपूर्वस्पर्धक करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालतक कृष्टिकरनेके लिए प्रतिसमय असंख्यातगुणितक्रमसे जीवप्रदेशोंका अपकर्षण करते हैं । जघन्यकृष्टिमें समान (सदृश) अविभागप्रतिच्छेदवाले असख्यातजगत्प्रतरप्रमाण जीवप्रदेश हैं । जघन्यकृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर द्वितीयकृष्टिके एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । इसप्रकार चरमकृष्टिपर्यन्त पल्योपमके असंख्यातवेभागप्रमाण प्रत्येककृष्टिगत अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकार जानना । चरमकृष्टिके एकप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोंको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामें एकजीवप्रदेशसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । उससे ऊपर ऊपर स्पर्धकोंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेषअधिक क्रमसे होते है, यह कथन एकजीवप्रदेशकी अपेक्षा किया गया है । अथवा जघन्यकृष्टिको पल्यके असंख्यातवेभागसे गुणा करनेपर द्वितीयकृष्टि होती है । यह गुणकार चरमकृष्टि तक जानना चाहिए। कृष्टिगत जीवप्रदेशोंके सदृश अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षासे गुणकारका यह कथन किया गया है। चरमकृष्टि में सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले समस्त जीवप्रदेशोके अविभागप्रतिच्छेदसमुदायसे अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणासे सदृश अविभागप्रतिच्छेदवाले जीवप्रदेशों में अविभागप्रतिच्छेदोका समूह असख्यातगुणाहीन है। उपरिम अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी गुणकारके अघस्तनवर्ती जीवप्रदेशसम्बन्धी गुणकार असख्यातगुणा है । यद्यपि चरमकृष्टिके एकवर्गसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदोसे अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद एकवर्ग मे असख्यातगुणे हैं, किन्तु जीवप्रदेशोंकी संख्या आदिवर्गणाको अपेक्षा चरमकृष्टिमें असंख्यातगुणी है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] क्षपणासार [गाथा २४०-२५१ जीवप्रदेशोंका गुणकार अविभागप्रतिच्छेदोके गुणकारसे असंख्यातगुणा है जो श्रेणिके असंख्यातवेभागप्रमाण है । अर्थात् अपूर्वस्पर्षकको आदिवर्गणासम्बन्धी जीवप्रदेशोंका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदोका परस्परगुणा करनेसे जो प्रमाण आता है वह चरमकुष्टिसम्बन्धी जीवप्रदेशोका और एकवर्गके अविभागप्रतिच्छेदोके परस्पर गुणनफलसे असंख्यातगुणाहोन है, क्योकि चरमकृष्टि से असख्यातगुणेहीन जीवप्रदेश आदिवर्गणामें दिये जाते हैं। श्रेणिके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टिया है तथा अपूर्वस्पर्धक भी श्रेणिके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं, किन्तु पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी एकगुणहानिस्थानान्तर में स्पर्धकशलाकाके असंख्यातवेंभागप्रमाण अपूर्वस्पर्धक हैं । एकस्पर्धकसम्बन्धी वर्गणाओं के असख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियां हैं जो अपूर्वस्पर्धकोंके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं । इसप्रकार एक अन्तर्मुहूर्त कृष्टिकरणकाल है'। एत्थापुव्वविहाणं अपुवफड्डयविहि व संजलणे । बादरकिट्टिविहिं वा करणं सुहुमाण किट्टीणं ॥२४॥६३६॥ अर्थ-योगोके अपूर्वस्पर्धक करनेका विधान जैसे पहले संज्वलनकषायके अपूर्वस्पर्धक करनेका विधान कहा है उसोप्रकार जानना तथा योगोंको सूक्ष्मकृष्टि करने का विधान भी पहले कहे हुए सज्वलनकषायकी बादरकृष्टि करने के विधान सदृश ही जानना । किट्टीकरणे चरमे से काले उभयफड्ढये सव्वे । णासेदि मुहुत्तं तु किट्टीगदवेदगो जोगी ॥२४६॥६४०॥ पढमे असंखभागं हेटठवरिं णासिदण विदियादी। हेढुवरिमसंखगुणं कमेण किट्टि विणादि ॥२५०॥६४१॥ मझिम बहुभागुदया किहि वक्खिय विसेसहीणकमा। पडिसमयं सत्तीदो असंखगुणहीणया होंति ॥२५१॥६४२॥ अर्थ-कृष्टिकरणकालके चरमसमयके अनन्तर काल में सवं पूर्व अपूर्वस्पर्धकरूप प्रदेशोंको नष्ट करता है तथा अन्तमहर्तकालमें कृष्टिको प्राप्त योगका अनुभव १. जयघवल मूल पृष्ठ २२८७ से २२८६ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? गाथा २५१ ] [२११ करता है । इसप्रकार प्रदेशों में जो कृष्टिरूप योगशक्ति हुई वह अब प्रगटरूप परिणमन करती है । कृष्टिवेदककाल के प्रथम समय में स्तोक अविभागप्रतिच्छेदयुक्त अधस्तन और बहुत विभागप्रतिच्छेदयुक्त ऊपरितनकृष्टियोको मध्यकी कृष्टिरूप परिणमाकर नष्ट करता है, उनका प्रमाण सर्वकृष्टियोंके असंख्यातवेभागप्रमाण है तथा द्वितीयादि समयोंमें उनसे असख्यातगुणे क्रमसहित ऊपरितन कृष्टियोंको उसीप्रकार नष्ट करता है । सर्व कृष्टियोको असख्यातका भाग देनेपर उसमे से बहुभागप्रमाण मध्यवर्ती कृष्टियां उदयरूप होती हैं । वे कृष्टियां प्रथमसमयसे द्वितीयादि समयोंमे विशेषहीन क्रमसहित जानना चाहिए । इसप्रकार सयोगीके अविभागप्रतिच्छेदरूप शक्तिकी अपेक्षा प्रथमसमयसे द्वितीयादि चरमसमयपर्यन्त असख्यातगुणेहोच क्रमसहित योग पाया जाता है । क्षपरणासार विशेषार्थ - कृष्टिकरणकाल के चरमसमयतक पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकों का नाश नही होता; अविनष्टरूपसे दिखाई देते हैं, किन्तु प्रतिसमय पूर्व - अपूर्व स्पर्धको का असंख्यातवां भाग कृष्टिस्वरूप से परिगमन होता है । कृष्टिकरण के चरमसमयसे अनन्तरसमय में सर्व पूर्व - अपूर्वस्पर्धक अपने स्वरूपका परित्याग करके कृष्टिरूपसे परिणमन कर जाते हैं । जघन्यकृष्टिसे उत्कृष्ट कृष्टिपर्यन्त सर्वकृष्टियोंके सदृश होकर उसी समय में परिणमन कर जाते हैं तब अन्तर्मुहूर्त कालतक योगकृष्टि वेदककाल होता है, उस अन्तमुहूर्त कालतक अवस्थितयोग नही होता । प्रथमसमय में कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागका वेदन होता है । प्रथमसमय में जिनकृष्टियों का वेदन किया था उनमें से ऊपर और नीचे - की असंख्यात वेभागप्रमाण कृष्टियां अपने स्वरूपको छोड़कर मध्यमकृष्टिरूपसे द्वित्तीयसमय में अनुभव की जाती हैं । प्रथमसमयके योगसे द्वितीयसमय में श्रसंख्यातगुणाहीन योग होता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयोमें भी जानना चाहिए । प्रथमसमय में बहुतकृष्टियोंको तथा द्वितीयसमय में उससे विशेषहीन कृष्टियोंको वेदते हैं । इसप्रकार चरमसमयपर्यन्त विशेषहीन क्रमसे कृष्टियोका वेदन करते हैं । अथवा द्वितीय उपदेशानुसार प्रथमसमयमे स्तोक कूष्टियोंको वेदते हैं, क्योंकि प्रथमसमयमे ऊपर-नीचेकी असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियां नष्ट हो जाती हैं । यहाँ प्रधानरूपसे इसीकी विवक्षा है । द्वितीयसमय में प्रथमसमयकी अपेक्षा असख्यातगुणी कृष्टियों का अनुभव करते है, प्रथमसमय में जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं उनसे असख्यातगुणी कृष्टिया जो कि ऊपर-नीचेकी कृष्टियोंके असंख्यातवेभागप्रमाण हैं वे द्वितीय समय में वष्ट होती हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक असंख्यातगुणितश्रेणिरूपसे कृष्टिगत योगका Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५२ २१२ ] वेदन करते हैं, क्योकि प्रतिसमय मध्यमकृष्टि आकारसे परिणमन करनेवाली कृष्टियोंको असख्यातगुणितभावसे प्रवृत्ति होती है । क्षपणासार शङ्का -- प्रथमादि समयों में यथाक्रम जिन जीवप्रदेशोंकी कृष्टियां केवली के द्वारा अनुभव की गई हैं वे जीवप्रदेश द्वितीयादि समयो में निष्कम्परूपसे प्रयोगभावको प्राप्त हो जाते हैं ऐसा क्यो नही स्वीकार करते ? समाधान- नही, क्योकि एक जीवमें सयोग और अयोगपर्यायकी अक्रमरूप ( युगपत् ) प्रवृत्तिका विरोध 1 प्रतिसमय ऊपर व नीचेकी असंख्यात वेभागप्रमाण कृष्टि असंख्यातगुणित श्रेणिरूप से मध्यमकृष्टिआकाररूप परिणमन करके नाशको प्राप्त होती हैं, यह सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त कृष्टिगतयोगका अनुभव करनेवाले सूक्ष्मकाययोगी केवलीके ध्यानका कथन आगे करते हैं' । किट्टिगजोगी कारणं कायदि तदियं खु सुहुमकिरियं तु । चरिमे असंखभागे किट्टीणं खासदि सजोगी ।। २५२ ।। ६४३ ।। अर्थ- सूक्ष्मकृष्टिवेदक सयोगोजिन तृतीय सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति नामक शुक्लध्यानको ध्याता है । सयोगी गुणस्थानके चरमसमय में कृष्टियोके असख्या तबहुभागप्रमाण मध्यकी जो कृष्टि अवशेष रही उनको नष्ट करता है, क्योंकि इसके अनन्तर अयोगी होना है । - विशेषार्य – सूक्ष्म कृष्टिको प्राप्त सूक्ष्मतर काययोग जनित किया अर्थात् परिस्पन्द पाया जाता है और अप्रतिपाती अर्थात् अधःप्रतिपातसे रहित है इसलिए उस ध्यानका सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नाम सार्थक है और इसका फल योगनिरोध अर्थात् सूक्ष्मतर कायपरिस्पन्दनका भी वहां विरत्वयरूपसे निरोध हो जाता है । यद्यपि सकलपदार्थ विषयक प्रत्यक्ष निरन्तर ज्ञानीके एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षणरूप ध्यान असम्भव है इसलिए ध्यानकी उत्पत्ति नही है तथापि योगका निरोध होनेपर कर्मास्रवका निरोधरूप ध्यान फलको देखकर उपचारसे केवलीके ध्यान कहा है । अथवा छद्मस्थोके चिताका कारण योग है इसलिए कारणमे कार्यका उपचार करके योगको भी चिता कहते हैं, १. जयघवल मूल पृष्ठ २२८६-६० । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २५३-२५४ ] [ २१३ उस चिंताका एकाग्नभावसे यहां निरोध होता है इसकारण भी ध्यानसंज्ञा सम्भव है । छद्मस्थोंके अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त एकवस्तुमें चिताके निरोध अर्थात् अवस्थानको ध्यान कहते हैं तथा केवलीभगवानके योगनिरोधका नाम ध्यान है। इसप्रकार ध्यान करनेवाले परमऋषिके परमशुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणि निर्जरा करनेवाले तथा स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाण्डकघात करनेवालेके पूर्वोक्तप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणे क्रमसहित कृष्टियोंको नष्ट करते हुए योगशक्तिको क्रमशः हीयमान करता है एव सयोगकेवलीगुणस्थान के चरमसमयमें सर्वकृष्टियोंके असंख्यातबहुभागप्रमाण मध्यवर्ती जितनी कृष्टियां अवशेष बची उनको नष्ट करता है, क्योकि इसके पश्चात् अयोगी होना है। इससम्बन्धमें उपयोगी श्लोक "तृतीयं काययोगस्य सर्वज्ञस्यादुद्भुतस्थितेः । योगक्रियानिरोधार्थ शुक्लध्यानं प्रकोर्तितम् ॥" अद्भुत स्थितिवाले काययोगी सर्वज्ञके योगक्रिया निरोधके लिये तृतीयशुक्लध्यान कहा गया है। "अंतोमुत्तमद्ध चिंतावत्थाणमेयवत्थुम्मि । छदुभत्थाणं झाणं जोगणिरोधो जिणाणतु ॥" अर्थात अन्तमुहर्तकालतक एकवस्तुमें चिताका अवस्थान छनस्थोंका ध्यान है और योगनिरोध जिनेन्द्र भगवान्का ध्यान है। - केवलीभगवान् कर्मको ग्रहण करनेको सामर्थ्यवाले योगको पूर्णरूपसे निरोध करनेके लिए सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्तिनामक तृतीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं। प्रतिसमय योगशक्ति क्रमसे घटतो जाती है और सयोगकेवली गुणस्थानके चरमसमयमें निर्मूलतः नष्ट हो जाती है। जोगिस्त सेसकालं मोत्तूण अजोगिसव्वकालं य । चरिमं खंडं गेण्हदि सीसेण य उवरिमठिदीओ ॥२५३॥६४४॥ तत्थ गुणसेडिकरणं दिज्जादिकमो य सम्मखवणं वा । अंतिमफालीपडणं सजोगगुणठाणचरिमम्हि ॥२५४॥६४५॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २१४] [गाथा २५४ से काले जोगिजिणो ताहे उगसमा हि कम्माणि । अर्थ-सयोगकेवलीगुणस्थानके शेषकाल तथा अयोगकेवलीके सर्वकाल इन दोनों कालोंको छोड़कर शेष सर्वस्थितिको गुणश्रेणिशीर्षसहित उपरितनस्थितिका घात करने के लिए अघातियाकर्मोके चरमस्थितिकाण्डकमें ग्रहण करता है। वहां गुणश्रेणिका करना और देयद्रव्यादिका क्रम सम्यक्त्वप्रकृतिकी क्षपणाविधिके समान है। सयोगकेवली गुणस्थानके चरमसमयमें अन्तिमफालिका पतन होता है तथा वही पर सयोगीजिनके (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोको स्थिति आयुकर्मके समान हो जाती है। विशेषार्थ-सयोगीजिनका शेषकाल और अयोगीजिनके सर्वकाल, इन कालोको छोडकरगुणश्रेणीशीर्षसहित ऊपरितन सर्वस्थितियोंको नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मके चरमस्थितिकाण्डकमे घात करनेके लिए ग्रहण करता है । उससमय प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके उदयस्थिति में स्तोक देता है तथा अनन्तरस्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशाग्न देता है । स्थितिकाण्डकघातकी जघन्यस्थितिके नीचे अनन्तरस्थितिपर्यन्त असख्यातगुणे क्रमसे प्रदेशाग्न देता है अर्थात् १४३ गुणस्थानके अन्ततक असंख्यातगुणे क्रमसे देता है, यही वर्तमान गुणश्रेणिका शीर्ष है । इस गुणश्रेणिशीर्षसे अनन्तरस्थिति में भी जो गुणश्रेणिशीर्षकी जघन्यस्थिति है उसमें असंख्यातगुणित प्रदेशाग्र देता है, उससे अनन्तरस्थितिसे लेकर पुरातनगुणश्रेणिशीर्षतक विशेषहीन' क्रमसे प्रदेशाग्न देता है । यहासे गलितावशेष गुणश्रेणि प्रारम्भ हो जाती है। इस अन्तिम स्थितिकाण्डकको द्विचरमफालितक यहक्रम रहता है, किन्तु चरमफालिके द्रव्यमेसे उदयस्थितिमें स्तोक' प्रदेशान देता है, उससे अनन्तरस्थितिमें असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र देता है। इसप्रकार असंख्यातगुणा क्रम अयोगकेवलीके चरमसमयपर्यन्त जानना चाहिए। चरमफालिके पतनसमय में योगनिरोधक्रिया तथा सयोगकेवली कालकी परिसमाप्ति हो जाती है, इससे आगे (१४वे. गुणस्थानमे) गुणोरिण, स्थितिघात और अनुभागघात नही है, मात्र असख्यात गुरणश्रेणीरूपसे अधःस्थितिगलन होता है अर्थात् प्रतिसमय अधस्तन एकस्थितिकालका नाश होनेसे स्थितिका क्षय होता है । यहीपर सातावेदनीयकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति हो जातो एव (३६) प्रकृतियोकी उदीरणाव्युच्छित्ति भी हो जाती है तथा उसीसमयमे नाम-गोत्र व वेदनीयकर्मकी घातकरनेसे शेष बची स्थिति आयकर्मके समान हो जाती है अर्थात् अयोगकेवलीकालके बराबर इन अघातिया (नाम-गोत्र व वेदनीय) कर्मोकी स्थिति शष Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५५-५६ ] [ २१५ रह जाती है । इसप्रकार सयोगकेवलीगुणस्थानका पालन करके उसके कालकी परिसमाप्ति हो जाती है तथा उससे अनन्तरसमय में अयोगीजिन हो जाता है। क्षपणासार तुरियं तु समुच्छिणं किरियं झायदि अजोगिजिणो ॥ २५५ ॥ ६४६ ॥ 'सीलेसिं संपत्ती विरुद्धणिस्सेसप्रासवो जीवो। धरय विमुक्का गयजोगो केवली होदि ॥ २५६॥६४७।। अर्थ--अयोगीजिन समुच्छिन्न क्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्या हैं तथा शैलेश्यभावको प्राप्त करके निःशेष (सम्पूर्ण ) आस्रवका निरोधकर बन्धरूपी रजसे मुक्त होकर योगरहित केवली हो जाते हैं । विशेषार्थ -- समुच्छिन्न अर्थात् उच्छेद हुआ है मन वचन कायरूप क्रियाका जहां तथा निवृत्ति (प्रतिपात ) से रहित अथवा मोक्षसे रहित होनेसे जो अनिवृत्त है ऐसा यह ध्यान सार्थक नामवाला है । यहां भी ध्यानका उपचाररूप कथन पूर्वोक्तप्रकार ही जानना, क्योकि यथार्थतया तो एकाग्रचित्तानिरोध ही ध्यानका लक्षण है जो कि केवली भगवान्के सम्भव नही है । समस्त आस्रवसे रहित केवली भगवान के अवशेषकर्मनिर्जरा कारणभूत स्वात्मामें प्रवृत्तिरूप ध्यान ही पाया जाता है । इसप्रकार सयोग - गुणस्थानके अनन्तर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालतक अयोगकेवली होकर शैलेश्य भगवान् arलेश्याभावको प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् योगनिरोध हो जावेसे योगजनित लेश्याका भो अभाव हो जाता है | शंका- शैलेश्य किसे कहते है ? समाधान -- शीलका ईश (स्वामी) शीलेश है, उस शीलेशका भाव शैलेश्य कहलाता है । समस्त गुणशीलके अधिपतित्वको प्राप्त कर लिया है यह इसका अर्थ है । शङ्का - यदि ऐसा है तो इस विशेषणका यहां आरम्भ नहीं होना चाहिए । भगवत् अर्हत्परमेष्ठी के सयोगकेवली अवस्था में समस्त गुण-शीलका आधिपत्य अविकल - १. धवल पु० १ पृष्ठ १६ε, पंचसग्रह १-३०, जीवकाण्ड गाथा ६५, विशेषकथन के लिए अष्टसहस्त्री पृष्ठ २३६-३७ एव प्रमेयकमलमार्तण्ड भी देखना चाहिए । २. कम्मरय इति पाठान्तरं । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२६२-६३ । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा २५७ को प्राप्त अर्थात् आत्मसात् हो जाता है, अन्यथा सयोगकेवलीके परिपूर्ण गुण-शील होनेगे हमारे समान परमेष्ठीपने की अनुत्पत्ति हो जावेगी। समाधान- यह सत्य है, सयोगकेवली भी आत्मस्वरूपकी प्राप्ति हो जानेसे बनेपगुणनिधान, निष्कलंक, परमोपेक्ष यथाख्यात विहारशुद्धिसंयमकी पाराकाष्ठाको प्राप्त हो जाते हैं। इसप्रकार अविकल स्वरूपसे सकल गुण-शील प्रगट हो जाते है, किन्तु सयोगमवस्थामे योग व आस्रवकी अपेक्षा नि.शेषकर्मों की निर्जरा जिसका फल है ऐसा मकलसंवर उत्पन्न नही हुआ । प्रयोगकेवलीके नि शेष आस्रवद्वार निरुद्ध हो जानेसे निष्प्रतिपक्षस्वरूपसे आत्मलाभ प्राप्त हो गया है। अतः मात्र अयोगकेवलीके ही गेलेयभाव अनुज्ञात होता है, इसमे दोषको कुछ भी अवसर नहीं है। वाहत्तरिपयडीओ दुचरिमगे तेरसं य चरिमम्हि । झाणजलरोण कवलिय सिद्धो सो होदि से काले ॥२५॥६४८॥ अर्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानके द्विचरमसमयमे (अनुदयरूप) ७२ प्रकृतियोको तथा चरमसमयमे (उदयरूप) १३ प्रकृतियोको शुक्लध्यानरूपी अग्निद्वारा कवलित (ग्रासीमूत) करता है अर्थात् नष्ट करता है और अनन्तरवर्तीसमयमे सिद्ध होता है। विशेपार्थ-अयोगकेवलीगुणस्थानका काल पांच ह्रस्वाक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारणमें जितना समय लगता है उतना है। उसकालमे एक-एकसमयमें एक-एक निषेत गलनत्प जो अघ स्थितिगलन है उसके द्वारा क्षीण हुई अनुदयरूप ७२ प्रकृतियाँ विचरमसमयमे तथा चरमसमयमे उदयरूप १३ प्रकृतियां, शुक्लध्यानरूपी ज्वलन अर्थात् कग्नि द्वारा कवलित (नप्ट) होती हैं । इनमे अनुदयरूप वेदनीय, देवगति, ५ शरीर, ५. वधन, ५ नंघात, ६ संस्थान, ६ सहनन, ३ आंगोपाग, वर्णादि २०, देवगत्यानुपूर्वी, पन नून पृष्ठ २२६२ । २ 'यो देशनिगपावस्थानकाल. शैलेश्यद्धा नाम । स पुन: पचह्रस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्न परिमायागर्मापदां निश्चयः।" (जयघवल मूल पृष्ठ २२६३) : मोनाहिवरमममये अनुदयरूपा वेदनीय-देवगतिपुरस्सरा: द्वासप्ततिप्रकृतीः क्षपयति । १२ प मोद. वेदनीय-मनुप्यायु-मनुप्यगतिप्रभृतिकास्त्रयोदशप्रकृतीः क्षपयतीति प्रति. (ययन मूल पृष्ठ २२६३) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५८ ] क्षपणासार [ २१७ अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, प्रशस्तविहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र ये ७२ प्रकृतियां हैं तथा उदयरूप वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, मनुष्यानुपूर्वी,' त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशस्कोति, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र ये १३ प्रकृतियां हैं । इसप्रकार इन ७२ व १३ प्रकृतियोंका क्रमशः द्विचरमसमय व चरमसमयमें क्षयकरनेके अनतरसमयमे जिसप्रकार कालिमारहित शुद्धसोना निष्पन्न होता है उसीप्रकार सर्व कर्ममलरहित कृतकृत्यताको प्राप्त यह आत्मा सिद्ध हो जाता है । तिहवणसिहरेण मही वित्थारे अट्ठजोयणुदयथिरे । धवलच्छत्तायारे मणोहरे ईसिपब्भारे ॥२५८॥६४६॥ अर्थ-तीनलोकके शिखरमें ४५ लाखयोजन विस्तृत एवं ८ योजन ऊंची, स्थिर, श्वेतवर्णवाली, छत्राकार ईषत्प्राग्भारनामक मनोहरपृथ्वी है । विशेषार्थ-सिद्ध होनेपर ऊर्ध्वगमनस्वभावसे यह जीव तीनलोकके शिखर में ईषत्प्राग्भारनामक अष्टमपृथ्वीपर एकसमयमात्रमें पहुँचकर तनुवातवलयके अन्तमें विराजमान होता है। वह सिद्धभूमि मनुष्यपृथ्वीके समान ४५ लाखयोजन विस्तृत गोलकारवाली आठयोजनऊंची, स्थिर, श्वेतछत्रके आकारकी मध्यमें मोटी व सिरोंपर पतली तथा मनोहर है । यद्यपि ईषत्प्रागभारनामक पृथ्वी धनोदधि-वातवलयपर्यन्त हैं, किन्तु यहां उस पृथ्वीके मध्य पाई जानेवाली सिद्धशिलाकी अपेक्षा यह प्ररुपण किया गया है। धर्मास्तिकायके अभावसे उससे आगे गमव नही होता है। अतः वहीं चरमशरीरसे किंचित्ऊन आकाररूप जीवद्रव्य अनन्तज्ञानानन्दमय विराजते हैं। १. १४ वे गूणस्थानमे 'मनुष्यगत्यानुपूर्वी' अनुदयप्रकृति है। (धवल पु० ६ पृष्ठ ४१७, धवल पु० १० पृष्ठ ३२६, भगवति आराधना गाथा २११७-१८) २. तन्वी मनोज्ञा सुरभिः पुण्या परम भास्वरा। प्राग्भारानाम वसुधा लोकमूनि व्यवस्थिता नलोकतुल्यविषकम्भा सितच्छत्रनिभाशुभा । उध्वं तस्याः क्षितेः सिद्धा लोकान्ते समवस्थिताः ।। १८४-८५ (ज. प. मूल पृष्ठ २२६६) ३. ततोऽप्यर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्तीति चेन्मति।। धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परा॥ (जयधवल मूल पृष्ठ २२६६ श्लोक १८८) Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [ गाथा २५६ पुव्वगृहरुस गृहस्त तिजोगो संतो खीणो य पढमसुक्कं तु । विदियं सुक्कं खीणो इगिजोगो झायदे झाणी || २५६ ॥ ६५० ॥ अर्थ - पूर्व अर्थात् ग्यारह अङ्ग व १४ पूर्वके ज्ञाताके तथा तीनोंयोगवालो के उपान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानमे प्रथमशुक्लध्यान होता है एवं क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती और एकयोगवाले द्वितीयशुक्लध्यानको ध्याते हैं । विशेषार्थ -- इस गाथामे प्रथमशुक्लध्यानके स्वामी उपशान्त मोहनामक ११वे गुणम्यानवाले तथा क्षीणमोहनामक १२वे गुणस्थानवालोको बताया है । अर्थात् ११ वें गुणस्थान से पूर्व के गुणस्थानोमे शुक्लध्यान नही होता, किन्तु धर्मध्यान होता है ऐसा इस गावाके पूर्वार्धका अभिप्राय जानना चाहिए । धर्मध्यान सकषायी जीवोंके और शुक्लध्यान कपायरहित जीवोके होता है । कहा भी है " धम्मज्झाणमेयवत्थुम्हि थोव कालाबट्टाइ । कुदो ? सकषाय परिणामस्स भहरंत द्विदपईवस्सेव चिरकालमवट्टाणाभावादो | धम्मज्भाणं सकसाएसु चेव होदि ति कथं व्यदे ? अतंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद- पमत्तसंजद- श्रपमत्तसंजद अपुव्वसंजदप्रणिपट्टिन जब सुहुमसापराइयखवगोवसाएसु धम्मज्भास्स पवृत्ती होदित्ति जिणोवएसादो | सुक्कज्माणस्स पुण एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्भाणावद्वाणकालादो संखेज्जगुणपालमपट्टण होदि, वीयपरिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेण संचाला - नावादी' ।" अर्थात् धर्मध्यान एकवस्तुमे स्तोककालतक रहता है, क्योकि कषायसहित परिणाम गर्भग्रहके भीतर स्थित दीपक के समान चिरकालतक अवस्थान नही बन नरना | मयतमम्यग्दृष्टि, संयतासयत प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तस्यत, क्षपक व उपशामक नयन अतिवृत्तिकरणसयत-सूक्ष्मसाम्परायसयतो के धर्मध्यानकी प्रवृत्ति होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवका उपदेश है । इससे जाना जाता है कि धर्मध्यान सकषाय जीवोके क्यानका एकपदार्थमे स्थित रहनेका काल धर्मध्यानके अवस्थानकाल है, क्योकि वीतरागपरिणाम मणिको शिखाके समान बहुतकालके द्वारा श्रीमान नहीं होते । होगा है, ܀ क्षपणासार ܕ पर २०१३ ७४-७५ | Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] क्षपणासार [ २१६ यद्यपि धर्मध्यान अवस्था में कर्मबन्ध भी होता है, क्योंकि वह सकषायी जीवोंके होता है; तथापि वह संवर निर्जरा व कर्मरूप शत्रुकी सेनाके राजा मोहनीय कर्मका विनाश करनेवाला है । "किं फलमेदं धम्मज्झाणं ? अक्खवएसु विउलामर सुहफलं गुणसेडीए कम्मणिज्जराफलं । खवएसु पुण असखेज्जगुरणसेडीए कम्मपदेसणिज्जराणफल सुहकम्माणमुक्कस्साणुभाग विहाणफलं च' । मोहरणीयविणासो पुण धम्मज्भाणफल, सुहुमसां पराइयचरमसमए तस्स विणासुवलभादो' । श्रर्थात् — शङ्का - धर्म ध्यान का क्या फल है ? समाधान- अक्षपक जीवोंको देवपर्याय सबधी विपुलसुख मिलना और कर्मोकी गुणश्रेणिनिर्जरा होना धर्मध्यानका फल है । क्षपक जीवोंके तो प्रसंख्यातगुणश्रेणिरूपसे कर्मनिर्जरा होना और शुभकर्मोंका उत्कृष्टअनुभाग होना धर्मध्यानका फल है । मोहनीयकर्मका विनाश करना भी धर्मध्यानका फल है । धर्मध्यानपूर्वक ही शुक्लध्यान होता है, क्योकि धर्मध्यानके द्वारा मोहनीय कर्मका उपशम या क्षय हो जानेपर ही वीतरागता होती है । अब शुक्लध्यावका कथन करते हैं— शङ्का - शुक्लध्यान के शुक्लपना किस कारण से प्राप्त है ? समाधान — कषायमलका अभाव होनेसे शुक्लध्यानके शुक्लपना प्राप्त है । वह शुक्लध्यान चारप्रकारका है - पृथक्त्ववितर्कवीचार, एकत्ववितर्कअवीचार, सूक्ष्म क्रियाअप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रिया-प्रतिपाति । इनमें से प्रथमशुक्लध्यानका लक्षण इसप्रकार है -- पृथक्त्वका अर्थ भेद है, वितर्क द्वादशांगश्रुतको कहते हैं और वीचारका अर्थ मन-वचन-काययोग तथा अर्थ (पदार्थ) और व्यंजनकी संक्रान्ति है । पृथक्त्व अर्थात् भेदरूपसे वितर्क ( श्रुत) का वीचार ( सक्रांति ) जिसध्यान में होता है वह पृथक्त्ववितर्कवीचारनामक ध्यान है । १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८१ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाया २५६ यतः उपशान्त मोहजीव अनेक द्रव्योका तीनों योगके आलम्बनसे ध्यान करते अनिए उसे पृथक्त्व कहा है। यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगतअर्थ में गुगल साधु ही इसध्यानको ध्याते हैं इसलिए इसध्यानको सवितर्क कहा है । अर्थ-व्यंजन और योगोका संक्रम वीचार है, ऐसे सक्रमसे जो ध्यानयुक्त होता है वह सवीचार कहा जाता है। चौदह, दस और नौ पूर्वका धारी प्रशस्त तीनसंहननवाला और तीन योगोमें किसी एकयोगमे विद्यमान ऐसा उपशान्तकषायवीतरागजीव बहुत नयरूपी वनमें लीन हए ऐसे एकद्रव्य या पर्यायको श्रुतरूपी रविकिरणके प्रकाशके बलसे ध्याता है । इसप्रकार उगो पदार्थको अन्तर्मुहर्तकालतक ध्याता है, इसके पश्चात् अर्थान्तरपर नियमसे सममित होता है अथवा उसी अर्थ के गुण या पर्यायपर संक्रमित होता है और पूर्वयोगसे म पवित् योगान्तरपर संक्रमित होता है । इसप्रकार एकअर्थ, अर्थान्तर, गुण, गुणान्तर और पर्याय, पर्यायान्तरको नीचे-ऊपर स्थापित करके फिर तीन योगोंको एकपंक्तिमें स्थापित करके द्विसंयोग और त्रिसयोगको अपेक्षा यहां पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यावके ४२ माश उत्सन्न करना चाहिए । जीव, पुद्गल, धर्मम. व. का. द्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल ये छह द्रव्य हैं; इनके सहभावीगुण बोर क्रमभावी पर्याय हैं । प्रत्येकद्रव्यकी अपेक्षा अन्य द्रव्य द्रव्यान्तर है, प्रवर गुणकी अपेक्षा अन्य सभी गुण गुणान्तर हैं और प्रत्येकपर्यायकी अपेक्षा अन्यपर्याय पर्यावान्तर है । द्रव्य, द्रव्यान्तर, गुण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर छहोके योगत्रयपनामपले १८ भंग होते हैं। भावतत्त्वके गुण-गुणान्तर तथा पर्याय-पर्यायान्तर इन पानेमे योगमय नक्रमणको अपेक्षा १२ भग और द्रव्य तत्त्वके गुण-गुणान्तर व पर्याय पर्यादातर इन चारोमे योगत्रय सक्रमणको अपेक्षा १२ भग होते हैं, ये मिलकर कुलभाग १८-१२-१२-४२ होते हैं । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालतक शुक्ललेश्यावाला उपमाललायजीव छह द्रव्य और नौ पदार्थविषयक पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको अन्त तर ध्याता है । अयंसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नही १. ० १३ ११७८ गाथा ५८-५९-६०॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] क्षपणासार [ २२१ होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। इसध्यानके फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमर (देव) सुख प्राप्त होता है ; क्योंकि इससे मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती। यद्यपि प्रथमशुक्लध्यान शुद्धोपयोग है, तथापि मोहनीयकर्मका उपशम होनेसे मुक्ति नहीं होती । क्षपकश्रेणिवालेके धर्मध्यानरूप शुभोपयोग मोक्षका कारण है, क्योंकि धर्मध्यानसे मोहनीयकर्मका क्षय होता है । उपशमश्रेणिवालेके शुक्लध्यानरूप शुद्धोपयोग मुक्तिका कारण नहीं है, क्योंकि मोहनीयकर्मका क्षय नहीं हुआ'। ___ एकत्ववितर्कावीचार नामक द्वितीयशुक्लध्यानका कथन इसप्रकार है-एक का भाव एकत्व है, वितर्क द्वादशांगको कहते हैं और अवोचारका अर्थ असंक्रान्ति जिसध्यानमे होती है वह एकत्ववितर्क अवीचारध्यान है । इस विषयमें कहा भी है यतः क्षोणकषायजीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है इसलिए उस ध्यानको एकत्व कहा है। यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत अर्थमें कुशल साधु इसध्यानको ध्याते हैं इसलिये इसध्यानको सवितर्क कहा गया है । अर्थ-व्यंजन और योगोके सक्रमका नाम वोचार है, उस वीचारके अभावसे यह ध्यान अवीचार है । अर्थात् जिसके शुक्ललेश्या है, जो निसर्ग से बलशाली है, स्वभावसे शूर है, वज्रवृषभसंहननका धारी किसी एक संस्थानवाला है, चौदहपूर्व-दसपूर्व या नौपूर्वधारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है, और जिसने समस्त कषायवर्गका क्षयकर ऐसा क्षीणकषायीजीव नोपदार्थों में से किसी एक पदार्थका द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करते हैं । इसप्रकार किसी एक योग और एक व्यंजन (शब्द) के आलम्बनसे यहां एकद्रव्य, गुण या पर्याय में मेरुपर्वतके समान निश्चलभावसे अवस्थित चित्तवाले असंख्यातगुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धोके गलाने वाले अनन्तगुणी श्रेणि क्रमसे कर्मोके अनुभागको शोषित करनेवाले और कर्मों की स्थितियोंको एक तथा एकशब्दके अवलम्बनसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे घात करनेवाले उनका अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत होता है। तदनन्तर शेष बचे क्षीणकषायके कालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर उपरिम सर्वस्थितियोंकी उदयादि गुणश्रेणिरूपसे रचना करके पुनः स्थितिकाण्डकघात बिना अधःस्थितिगलवा द्वारा ही असंख्यातगुणश्रेणिक्रमसे कर्मस्कन्धोंका घात करता हुआ क्षोणकषायके अन्तिम १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७७ से ७६ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ७९ गाथा ६१-६२-६३ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा २५६ २२] समय प्राप्त होने तक जाता है और वहां क्षीणकषायके चरमसमयमै ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वन्तराय इन तीनकर्मोका युगपत् नाश करता है, क्योंकि तीनघातिया कोका निर्मूल विनाश करना एकत्ववितर्कावीचार ध्यानका फल है । गंका-एकत्ववितर्कावीचारध्यानके लिए 'अप्रतिपाति' विशेषण क्यों नहीं दिया। समाधान-नहीं, क्योकि उपशान्त कषायजीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तमे पुनः कषायोको प्राप्त होनेपर एकत्ववीतर्क-अवीचारध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। शंका--यदि उपशान्तकषायगुणस्थानमें एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान होता है तो 'उवसतो दु पुत्तं' इत्यादि वचनके साथ विरोध आता है ? समाधान-ऐसी आशंका नही करना चाहिए, क्योंकि उपशान्तकषायगुणस्थानमें केवल पृथक्त्ववीचारध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नही है । शडा-पृथक्त्ववीतर्कवीचार प्रथमशुक्लध्यान व एकत्ववितर्कावीचारनामक मुपलध्यान इन दोनोका काल परस्पर समान है या हीनाधिक है ? समाधान--एकत्ववितर्कअवीचार शुक्लध्यानका काल अल्प है और पृथक्त्ववितकवीचारनामक शुक्लध्यानका काल अधिक है । शंका-पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथमशुक्लध्यानमें योगका संक्रमण होता है और एक त्ययितर्क-अवीचारमे योगसंक्रान्ति नहीं होती इसमें क्या कारण है ? समायान-लक्षणभेदसे योगसंक्रमण व असंक्रमका भेद हो जाता है । प्रथमध्यान सबीचार होनेने उसमे अर्थ, व्यजन (शब्द) और योगकी संक्रान्ति होती है । हा भी है--जिस ध्यानमे अर्थ-व्यजन-योगमे संक्रान्तिरूप वीचार हो वह एकत्ववितर्ककवीचारध्यान है। १ पचन पृ. १३ पृष्ठ ७६.८० । 'तिणं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कमवीचार " (अयन पु० १६ पृष्ठ ८१) २ ० १६ पृष्ट ८१ । .. यमपु०१ पृष्ट ३४४ व ३६१ । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २५६ ] [ २२३ शङ्का-गृहस्थके धर्म या शुक्लध्यानमेंसे कौनसा ध्यान होता है ? समाधान-गृहस्थके धर्म या शुक्लध्याच सम्भव नहीं, क्योंकि वह ग्रहकार्यों में फंसा रहता है । श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है"खपुष्पमथवाशृङ्ग खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गहाश्रमे ।। ___ आकाशके पुष्प और गधेके सींग नहीं होते हैं । कदाचित् किसी देश या काल मैं इनके होने की प्रतीति हो सकती है, किन्तु गृहस्थाश्रममें ध्यानकी सिद्धि होनो तो किसी देश व कालमें सम्भव नहीं है' । पुनरपि कहा है-- "मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते । तप्तलोहगोलकसमानगृहीणां परमात्मध्यानं संगच्छते ।" मुनियोंके ही परमात्माका ध्यान अर्थात् धर्मध्यान घटित होता है। तप्तलोहके गोलेके समान गृहस्थियोंके परमात्माका ध्यान अर्थात् धर्मध्याव नहीं होता । इसोप्रकार भावसंग्रहमे भी कहा है "मट्टरउद्द झाणं भद्द अथित्ति तम्हि गुणठाणे । बहु आरभपरिग्गह जुत्तस्स य रणत्थि तं धम्म ॥" गृहस्थके इस (५वें) गुणस्थानमें आर्त-रौद्र और भद्र ये तीनप्रकारके ध्यान होते हैं, इस गुणस्थानवर्तीजीवके बहुत आरम्भ व परिग्रह होता है इसलिए इस गुणस्थानमें धर्मध्यान नहीं होता । और भी कहा है "घरवावारा केई करणीया अस्थि ते ण ते सव्वे । झाणट्ठियस्स पुरा चिट्ठति णिसीलियच्छिस्स ॥" गृहस्थों को घरके कितने ही कार्य करने पड़ते हैं और जब वह गृहस्थ अपने क्षेत्रोंको बन्दकर ध्यान करने बैठता है तब उसके सामने घरके करने योग्य सब व्यापार आ जा हैं। १. ज्ञानार्णव अ० ४ श्लोक १७ । २. मोक्षप्राभृत गाथा २ को टीका। ३. भावसंग्रह गाथा ३५७ । ४. भावसंग्रह गाया ३८५। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २५६ तत्त्वानुशासन में धर्मध्यानका जो लक्षण कहा गया है उससे भी सिद्ध है कि गृहस्थ धर्मध्यान नही होता, क्योकि गृहस्थके चारित्र नही होता । तद्यथा- २२८] क्षपणासार " सहप्टिज्ञानवृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदु । तस्माद्यदनपेतं हि घम्यं तदुध्यानमभ्यधुः ।। " धर्मके ईश्वर गणधरादि देवोने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है जो उस रत्नत्रयरूप धर्मसे उत्पन्न हो उसे ही आचार्यगण धर्मध्यान कहते हैं । गृहस्य के रत्वत्रयरूप धर्म नही होता अतः उसके धर्मध्यान भी नहीं होता । शङ्का -- आचार्योंने चतुर्थगुणस्थानसे धर्मध्यान कहा है तब फिर उपर्युक्त वचनका आचार्यवाक्योसे विरोध क्यो नही होगा ? समाधान- -चतुर्थादि गुणस्थानोंमे धर्मध्यानका निरुपण आगम में पाया जाता है, किन्तु वहां मौपचारिक धर्मध्यान होता है, क्योकि वहाँ प्रमाद विद्यमान है । तत्त्वातुशासन व भावसंग्रह में कहा भी है- "मुख्योपचारभेदेन अप्रमत्तेषु धर्मध्यानमिहद्विधा । तन्मुख्यमितरेष्वीपचारिक ।।" २ "मुक्खं धम्मभाणं उत्त तु पमायविरहिए ठाणे | देसविरए पमत्त उवयारेणेव णायव्वं ॥" मुख्य और उपचारके भेदसे धर्मध्यान दो प्रकारका है, उसमेंसे अप्रमत्तगुणस्थानमें मुख्य गौर चतुर्थ पंचम व छठे गुणस्थान में औपचारिकधर्मध्यान होता है । गृहस्थों के दानपूजादिको उपचारसे धर्मध्यान कहा गया है, क्योकि गृहस्थधर्म में दानपूपादिकी मुत्यता है । कहा भी है- "तेपां दानपूजापर्वोपवाससम्यक्त्व प्रतिपालनशील व्रतरक्षणादिकं गृहस्थधर्मएवोपदिष्ट भवतीति भावार्थ: । ये गृहस्थापि सन्तो मनागात्मभावनासासाद्य वयं ध्यानिन एति ते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्यः ॥ " १. तयानुगासन ग्लोक ५१ । २. स्वानुशासन लोक ४७ । ३. भगाया ३७१ । ४. गावा २ को टीका । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा २५६ ] [ २२५ ___गृहस्थोंके दान-पूजा, पूर्वउपवास, सम्यक्त्वप्रतिपालन, शीलवतरक्षणादि धर्म कहा है, जो गृहस्थ होते हुए भी किंचित् भी आत्मभावनाको प्राप्त करके अपने आपको ध्यानी कहते हैं वे जिनधर्मके विराधक मिथ्यादृष्टि हैं । और भी कहा है-- "जिण-साहुगुणुक्कित्ताण-पसंसणा-विणय-दाणसंपण्णा । -सील-संजमरदा धम्मज्झाणे मुणेयव्वा' । जिनेन्द्र भगवान और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दानसम्पन्नता, श्रुत-शील व संयममें त होना इत्यादि कार्य धर्मध्यानमें होते हैं, ऐसा जानना चाहिए । अतः गृहस्थके औपचारिक धर्मध्यान कहा गया है। यद्यपि गाथा २५६ में प्रथम व द्वितीयशुक्लध्यानका ही कथन किया गया है, किन्तु यह कथन तृतीय व चतुर्थशुक्लध्यानकी सूचनार्थ है । अतः तृतीय व चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन करते हैं सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति नामक तृतीयशुक्लध्यान है । क्रियाका अर्थ योग है, जो ध्यान पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है । जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिया कहा जाता है। सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान कहलाता है। यही केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञानका अभाव हो जाता है इसलिए यह ध्यान अवितर्क है । अर्थान्तर व्यंजन-योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है। शंका-तृतीयशुक्लध्यानमें अर्थ-व्यञ्जन व योगकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है ? समाधान--इनके अवलम्बन बिना ही युगपत् त्रिकालगोचर अशेषपदार्थोंका ज्ञान होता है इसलिए इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिके अभावका ज्ञान होता है। "अविदक्कमवीचारं सुहमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्हि कायजोगे भणिदं त सव्वभावगदं । १. धवल पु० १३ पृष्ठ ७६ गाथा ५५ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८३ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [गाथा २५६ २२६] सुहमम्हि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कं । ज्झायदि णिरु भिदु जो सुहुम तं कायजोगं पि' ॥" तृतीय शुक्लध्यान अवितर्क-अवीचार और सूक्ष्मक्रियासे सम्बन्ध रखनेवाला होता है, क्योकि काययोगके सूक्ष्म होनेपर सर्वभावगत यह ध्यान कहा गया है। जो केवलोजिन सूक्ष्मकाययोगमे विद्यमान होते हैं, वे तृतीयशुक्लध्यानका ध्यान करते हैं और उस सूक्ष्मकाययोगका भी निरोध करने के लिए उसका ध्यान करते हैं । शंका-योगनिरोध किसे कहते हैं ? समाधान-योगके विनाशको योगनिरोध कहते हैं। अन्तर्मुहूर्तकालतक कृष्टिगत योगवाले अर्थात् सूक्ष्मकाययोगवाले होते हैं तथा उसीकालमे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको ध्याते हैं । अन्तिमसमयमें कृष्टियोंके असंख्यातबहभागका नाश होता है। . . . . . शंका-केवलीजिनके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यान नहीं बनता, क्योंकि केवलीजिन अशेषद्रव्य और उनकी पर्यायोंको - विषय करते हैं, अपने सम्पूर्णकालमें एकरूप रहते हैं बोर इन्द्रियज्ञानसे रहित हैं अतएव उनका एकवस्तु में मनका-निरोध करना उपलम्य नही है तथा मनका निरोध किये बिना ध्यान होना सम्भव नहीं है, क्योंकि अन्यत्र वैसा देखा नही जाता ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि प्रकृत में "एकवस्तुमै चिन्ताका निरोध करना ध्यान है," यदि ऐसा ग्रहण किया जाता तो उक्त दोष आता, किन्तु यहां ऐना ग्रहण नही है । यहां तो उपचारसे योगका अर्थ चिन्ता है और उसका एकाग्ररूपसे निरोव अर्थात् विनाश जिसध्यानमे किया जाता है वह ध्यान है, ऐसा यहां ग्रहण करता चाहिए । अतः यहा पूर्वोक्त दोप सम्भव नहीं है। "तोयमिव गालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। पनिहादिकमेण तहा जोगजलं ज्झारण जलणेण' ।।" .. भगती मारायना गाया १८८६-८७ । २. "को जोगनिरोहो ? जोगविणासो" (३० पु० १३ पृष्ठ ८४) . ५यत पु० १३ पृष्ठ ८६ गाथा ७४ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] [ २२७ जिसप्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहपात्र में स्थित जलका क्रमश: अभाव होता है उसीप्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है । उक्त च - क्षपणासार "जह सव्वसरीरगदं मंतरण विसं णिरुभए डंके । तत्तो पुणोऽवरिगज्जदि पहाणज्भरमंत जोएन || तह बादरतणुविषयं जोगविस ज्झाणमंतबलजुत्तो | अणुभावहरु भदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो' ।” जिसप्रकार मंत्र के द्वारा सर्वशरीर में व्याप्त विषका डंकके स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करनेवाले मंत्र के बलसे उसे पुनः निकालते हैं उसीप्रकार ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादरशरीर विषयक योगविषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल देता है । चतुर्थ शुक्लध्यानका कथन इसप्रकार है - जिसमें क्रिया अर्थात् योग सम्यक्प्रकार से उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्नक्रिय कहलाता है । समुच्छिन्नक्रिय होकर जो प्रतिपाति है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपातिध्यान है | यह श्रुतज्ञानसे रहित होनेके कारण अवितर्क है, जीवप्रदेशो के परिस्पन्दका अभाव होनेसे अवीचार है या अर्थ- व्यञ्जन- योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है । "अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसि । ज्भाणं णिरुद्धजोगं अपच्छिमं उत्तमं सुक्कं ॥" अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्करहित, वीचाररहित है, अनिवृत्ति है, क्रियारहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योगरहित है । योगका निरोध होनेपर शेषकर्मोकी स्थिति आयुकर्मके समान अन्तर्मुहूर्त होती है, तदनन्तरसमय में शैलेशी अवस्थाको प्राप्त होता है और समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति शुक्लध्यानको ध्याता है | १. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७५-७६ । २. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७ गाथा ७७ । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपरणासार २२८] [गाथा २५६ शड्डा-यहां ध्यानसंज्ञा किस कारणसे दी गई है । समाधान-एकाग्ररूपसे जीवके चिन्ताका निरोध अर्थात् परिस्पन्दका अभाव होना ही ध्यान है । इसदृष्टिसे यहां ध्यानसंज्ञा दी गई है। शङ्का-इस ध्यानका क्या फल है ? समाधान--अघातिचतुष्कका विनाश करना इस ध्यानका फल है तथा योगका निरोध करना तृतीयशुक्लध्यानका फल है । शैलेशी अवस्थाका काल क्षीण होनेपर सर्वकर्मोसे मुक्त हुआ यह जीव एकसमयमें सिद्धिको प्राप्त होता है । कहा भी है-- "जोगविणासं किच्चा कम्म चउक्कस्स खवणकरणहूँ। जं झायदि अजोगिजिणो णिकिरियं तं चउत्थं य॥" योगका अभाव करके अयोगकेवलोभगवान् चार अघातिया कोको नष्ट करनेके लिए जो ध्यान करते हैं वह चतुर्थ व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान है, इसका दूसरा नाम समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति भी है । इसके द्वारा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु इन चार अघातियाकर्मोंका क्षय होता है। १४वें गुणस्थानवाले अयोगिजिन इसध्यानके स्वामी हैं। शंका-ध्यान मवसहित जीवोके होता है, केवलीके मन नही है अतः वहां ध्यान नही है ? समाधान-ध्यानके फलस्वरूप कर्म निर्जराको देखकर केवलीके उपचारसे ध्यान कहा गया है। अथवा यद्यपि यहां सनका व्यापार वही है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्यान कहा गया है । पुनरपि कहा है झाणं सजोइकेवलि जह तह अजोइ रणत्थि परमत्थे । उवयारेण पउत्तं भूयत्थ णय विवक्खा य ॥ १. धवल पु० १३ पृष्ठ ८७-८८ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ४८७ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६० क्षपणासार [ २२९ झाणं तह झायारो झेयवियप्पा य होति मणसहिए। तं णत्थि केवलि दुगे तम्हा झाणं रण सभवदि' ॥" ध्यान, ध्याता, ध्येय और विकल्प ये सब मनसहित जीवोके होते हैं, परन्तु वह मन सयोग व अयोगकेवलीके नहीं है अतः इनके ध्यान सम्भव नही है । जिसप्रकार सयोगके वलीके ध्यान नहीं है उसीप्रकार अयोगकेवलोके ध्यान नहीं है, इनके भूतपूर्वनयको अपेक्षा औपचारिकध्यान माना जाता है । तथापि उक्त-- "यद्यत्र मानसो व्यापारो नास्ति तथाप्युपचारक्रियया ध्यानमित्युपचर्यते । पूर्ववृत्तिमपेक्ष्य घृतघटवत् । यथा घटः पूर्व घतेन भृतः पश्चात् रिक्तः कृतः घृतघट आनीयतामित्युच्यते तथा पूर्व मानसव्यापारत्वात् ॥" यद्यपि यहां मनका व्यापार नही है तथापि पूर्ववृत्तिकी अपेक्षा उपचारसे ध्याद कहा गया है। जैसे घटमें पहले घो भरा हुआ था पश्चात् वह रिक्त हो गया फिर भो वह घीका घट कहलाता है। पहले मनका व्यापार था, केवली होनेपर मनका व्यापार नहो रहा तथापि भूतपूर्व नयसे ध्यानका उपचार किया जाता है । और भी कहा है-- "निरवशेष निरस्तज्ञानावरणे युगपत् सकलपदार्थावभासि केवलज्ञातातिशये चिन्ता निरोधाभावेऽपि तत्फलकर्मनिहरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत् ।" समस्तज्ञानावरणके नाश हो जानेपर युगपत् समस्तपदार्थों के रहस्यको प्रकाशित करनेवाले केवलज्ञानका अतिशय होनेपर चिन्तानिरोधका अभाव होनेपर भी कर्मों के नाशरूप उसके फलकी अपेक्षा ध्यानका उपचार किया जाता है। सो मे तिहुणमहिदो सिद्धो बुद्धो णिरंजणो णिच्चो । दिसदु वरणाणदंसणचरित्तसुद्धि समाहिं च॥२६०॥६५१॥ अर्थ-तीनलोकसे पूजित, बुद्ध, निरंजन, नित्य ऐसे सिद्धभगवान मुझे उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन व चारित्रकी शुद्धि तथा समाधि देवे । १. भावसंग्रह गा० ६८२-८३ । २. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८७ को टोका पृष्ठ ३८५। ३. सर्वार्थसिद्धि अ. ६ सूत्र ११ । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] क्षपणासार [ गाथा २६० विशेषार्थ-पंच लघुअक्षर (अ इ उ ऋ ल) के उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने कालप्रमाणवाले अयोगके वली नामक १४वें गुणस्थानको अध:स्थितिगलनके द्वारा व्यतीतकरके समस्तकों के पूर्णरूपसे क्षय होजाने के कारण निरंजन है । अनन्तज्ञान व अनन्तदर्शन पराकाष्ठाको प्राप्त हो जानेसे बुद्ध हैं, अविकल आत्मस्वरूपकी उपलब्धि हो जानेसे नित्य, अविनाशी अर्थात् आत्मस्वरूपसे चलायमान होनेवाले नही हैं । समस्त पुरुषार्थ सिद्ध हो जानेसे सिद्ध हैं, तीनलोकके शिखरपर विराजमान हो जानेसे तीनलोक् से पूजित हैं अथवा उनका ध्यान करने से भव्यजीवोंको मोक्षकी सिद्धि हो जाती है इसलिए भी वे सिद्धभगवान् पूजित हैं। चरमशरीरसे किंचित् न्यून आकारवाले मूर्तिक (कर्म-नोकर्मसे रहित होने के कारण) सिद्ध भगवान् मुझे क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा समाधि (वीतरागता) देवे। जैसे दीपकका बुझना प्रदीपका निर्वाण है उसीप्रकार आत्माकी स्कन्धसन्तान का उच्छेद होनेसे अभावमात्र निर्वाणकी कल्पना बौद्ध करता है। अभावलक्षणवाले निर्वाणका विरोध करनेके लिए सर्वपुरुषार्थकी सिद्धिसे सिद्ध तथा ज्ञान व दर्शनको पराकाष्ठाको प्राप्त हो गये ऐसा कहा गया है । ज्ञानीजन स्वनाशके लिए पुरुषार्थ नहीं करते, विन्तु अपूर्वलाभके लिए पुरुषार्थ करते हैं। नैयायिक कहता है कि वुद्धि, सुख, दु.ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार, इन नव आत्मगुणोके नाशसे निर्वाणकी कल्पना करते हैं, किन्तु यह कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि गुणोंके अभावसे गुणो आत्माका भी अभाव हो जावेगा। अतः उपर्युक्त पुरुषार्थसिद्धि व परमकाष्ठाको प्राप्त ज्ञान-दर्शन विशेषण दिए गए हैं। इसीप्रकार गधेके सीगके समान मुक्तावस्था में मात्माका अभाव माननेवालोका तथा कार्य-कारणसम्बन्धसे रहित बहुत सोते हुए पुरुष के समान आत्माके अव्यक्त चैतन्य मानने वालोका विरोध हो जाता है। अत: हमारे सिद्धान्तमे स्वात्मोपलब्धि ही निर्वाण (सिद्धि) है, यह सिद्ध हो जाता है। 45 १. उपवन मूल पृष्ट १९६३-६४। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अह खवणाहियार -- चूलिया दर्शनमोह और चारित्रमोह कर्मप्रकृतियोंकी क्षपणाविधि पूर्वमें कही गई उसका उपसंहार करते हुए आगे ११ गाथाओमें चूलिकारूप व्याख्यान किया जाता है-- अण मिच्छ मिस्स सम्म अटुणचुसित्थिवेदछक्कं च । पुवेद च खवेदि हु कोहादीए च संजलणे ॥१॥ अर्थ-अनन्तानुबन्धी, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति, पाठकषाय, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, छह वोकषाय, पुरुषवेद और तत्पश्चात् क्रोधादि चार सज्वलवकषायका क्षय करता है। विशेषार्थ-'अण' अर्थात् चार अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन क्रियाके द्वारा सर्वप्रथम नाश करता है । 'मिच्छ' दर्शनमोहकी क्षपणाके के लिए आरुढ़ हुआ पूर्वमें मिथ्यात्वका क्षय करता है । 'मिस्स' उसके पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय करता है। 'सम्म' उसके पश्चात् सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है। 'अ' अपने योग्यगुणस्थानमें सप्त प्रकृतियोका क्षय करके पश्चात् क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता हुआ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें अन्तरकरणसे पूर्व आठ कषायोका क्षय १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२ । "चूलिका विशेष व्याख्यानम् अथवा उक्तानुक्तन्याख्यानम्, उक्ता नुक्तसंकीर्णव्याख्यानम् ।" (व० द्र० सं० क्षेपक गाथा १-२ की टीका अन्तमे) 'सुत्त मूइदत्य पयासणं चूलिया णाम।" (धवल पु० १० पृष्ठ ३६५) "काल विहाणेण सूचिदत्याण विवरण चूलिया। जाए अत्थ परूवरणाए कदाए पुवपरूविदत्यम्मि सिसाणं णिच्छो उप्पज्जदि सा चलिया त्ति भरिणदं होदि ।" (धवल पु० ११ पृष्ठ १४०)। "एक्कारस अगिमोगद्दारेनु नइदत्थस्स विसेसियूण परूवणा चलिया।" (ध० पु० ७ पृष्ठ ५७५) । विशेष व्याख्यान नयवा उक्तानुक्त व्याख्यान चूलिका है । सूत्र सूचित अर्भके प्रकाशित करनेका नाम लिका है। भूचित अर्थका विशेष वर्णन करना चूलिका है। जिस मर्थ प्ररूपणाके किये जानेपर पूर्व में परिणत पदार्थक विषयमे शिष्यको निश्चय उत्पन्न हो वह चूलिका है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] क्षपणासारचूलिका [ गाथा २-३ फरता है । इसीप्रकार (अन्तरकरणके पश्चात्) गाथानुसार क्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय (हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा), पुरुषवेदका क्षय करता है । अवेदी होकर संज्वलनक्रोध, संज्वलनमान और संज्वलनमायाका क्रमसे क्षय करके सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान में संज्वलन लोभका क्षय करता है । इसप्रकार प्रथमगाथामें चार अनन्तानुबन्धीकषाय और दर्शनमोहकी तीनप्रकृतियोके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्ति बताकर चारित्रमोहकी नव नोकषाय व चारसंज्वलन कषायोके क्षयका क्रम बतलाकर अब दूसरी गाथामें क्षय होनेवाली सोलह प्रकृतियोके नाम कहते हैं 'अह थीणगिद्धिकम्मं णिहाणिद्दा य पयलपयला य । अह णिरय तिरियणामा खीणा संछोहणादीस ॥२॥ अर्थ-स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति-तिर्यञ्चगति और सहचरी नामकर्मको प्रकृतियोका अन्य प्रकृतियोमें संक्रमण करके नाश करता है । विशेषार्थ-अन्तरकरण करतेसे पूर्व क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हुआ मनुष्य प्रथम आठ मध्यवर्ती कषाय (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) का क्षय करता है उसके पश्चात् दर्शनावरणकर्मकी तीन प्रकृतियां (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला) तथा नामकर्मकी १३ प्रकृतियां-वरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म व साधारण इसप्रकार (३+१३) इन सोलह प्रकृतियोंमें संक्रमण करके इनका क्षय करता है। अन्तरकरण करनेके पश्चात् मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसंक्रमण होता है उसीको तीन गाथाओमे कहते हैं सव्वस्त मोहणीयस्स आणुपुवी य संकमो होइ । लोहकसाए णियमा असंकमो होइ बोद्धव्वो ॥३॥ २. जयधवल मूल पृष्ठ २२७२-७३ । १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७३, क० पा० सुत्त गा० १२८ पृष्ठ ७५६ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४-५ 1 क्षपणासारचूलिका [ २३३ संछुहदि पुरिलवेदे इत्थीवेदं णबुंसयं चेत्र । सत्तेव णोकसाए णियमा कोह रिह संछुहदि ॥४॥ कोहस्स छुहइ माणे माणं मायाए रिणयमला छुहइ। मायं च छुहाइ लोहे पडिलोमो संकमो णस्थि ॥५॥' अर्थ-अन्तरकरण करनेके पश्चात् द्वितीयसमयसे सर्व मोहनीयकर्मका आतुपूर्वीसक्रमण होता है । लोभकषायका नियमसे असक्रामक होता है ऐसा जानना चाहिए। स्त्रीवेद और नसकवेदके द्रव्यको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है। सात (पुरुषवेद व छह नोकषाय) नोकषायके द्रव्यको नियमसे क्रोधमे सक्रमित करता है । क्रोधके द्रव्यको मानमें, मानके द्रव्यको माया में और मायाके द्रव्यको लोभमें संक्रमित करता है । प्रतिलोम संक्रमण नही होता। विशेषार्थ- चारित्रमोहनीयकर्म नव नोकषाय और तीन संज्वलनकपायका स्वमुखक्षय नही परमुखक्षय होता है । अर्थात् इनके द्रव्यका परप्रकृतिरूप सक्रमण होकर इनका क्षय होता है। वह पर प्रकृतिरूप संक्रमण आनुपूर्वीरूपसे होता है प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) विधिसे नही होता। सबसे अन्तमें लोभकषायके पश्चात् कोई कषाय नही है जिसमें लोभकषायका द्रव्य संक्रमित हो सके । अतः लोभकषायका सक्रमण नहीं होता, इसका स्वमुखसे क्षय होता है । सर्वप्रथम नसकवेदका क्षय होता है। इसके पश्चात् स्त्रीवेदका क्षय होता है । स्त्रीवेदका बन्ध नही होता, पुरुषवेदका बन्ध होता है । अतः नपुसकवेद व स्त्रीवेदके द्रव्यका सक्रमण पुरुषवेदमे होता है। पुरुषवेद और छह नोकपाय इन सातके पुरातनद्रव्यका क्रोधकषायमे सक्रमण होकर क्षय होता है । क्रोध-मान-माया-लोभ ऐसा क्रम है । संज्वलन क्रोधके द्रव्य का संज्वलनमान कषायमें संक्रमण होकर संज्वलन कोघका क्षय होता है । सज्वलनमानके द्रव्यका सज्वलनमायामे संक्रमण होकर क्षय होता है और संज्वलन मायाके द्रव्यका संज्वलनलोभमे संक्रमण होकर क्षय होता है। अन्तरकरण करनेके पश्चात् प्रतिलोम (पश्चादानुपूर्वी) संक्रमण नही होता अर्थात् लोभका १. जयघवल मूल पृष्ठ २२७३ गा० १३६-१३८-१३६ । क. पा. सुत्त पृष्ट ७६४.६५ गा० १३६. १३८-१३६ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] क्षपणासारचूलिका [गाथा ६-७ संक्रमण माया, मान, क्रोध में अथवा मायाका सक्रमण क्रोध-मानमें या मानका संक्रमण क्रोध नहीं होता है । बन्धप्रकृति में ही सक्रमण होता है 'जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होई संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णस्थि ॥६॥ अर्थ-जो जीव जिसप्रकृतिका सक्रमण करता है वह नियमसे बध्यमान प्रकृति में संक्रमण करता है । जिस स्थितिको बांधता है उसके सदृशस्थितिमें अथवा उससे होन स्थितिमें सक्रमण करता है, किन्तु अधिक स्थितिमे संक्रमण नहीं करता। विशेषार्थ-इस गाथामें बध्यमान प्रकृतियोमें सक्रमण किये जानेवाली बध्यमान या अबध्यमान प्रकृतियोका किसप्रकार संक्रमण होता है, यह बतलाया गया है। क्षपकश्रेणी में जो जीव जिस विवक्षित प्रकृतिके कर्मप्रदेशोको उत्कीर्णकर जिस प्रकृति में संक्रमण करता है नियमसे बन्धसदृशमे सक्रान्त करता है । यहां पर 'बन्ध' से साम्प्रतिकबन्धकी अग्नस्थितिका ग्रहण होता है, क्योकि स्थितिबन्धके प्रति उसकी ही प्रधानता है । अर्थात् इससमय बंधनेवाली प्रकृति की जो स्थिति है उसमें उसके समान प्रमाणवाली विवक्षित सक्रम्यमान प्रकृति के प्रदेशानको उत्कीर्णकर संक्रान्त करता है । 'बन्धेण हीणदरगे' इसका अभिप्राय यह है कि बन्धनेवाली अग्रस्थितिसे एकसमयादि कम अधस्तन बन्धस्थितियोमे भी जो आबाधाकालसे बाहर स्थित है, अधस्तन प्रदेशाग्रको स्वस्थान या परस्थानमे उत्कीर्णकर संक्रमण करता है, किन्तु वर्तमान में बन्धनेवाली स्थितिसे उपरिम सत्त्वस्थितियों में उत्कर्षण सक्रमण नही होता है। यह 'अहिए वा सकमो णत्थि' का अर्थ है । आबाधाकालका पर प्रकृतिरूप संक्रमण समस्थितिमे प्रवृत्त होता है। क्षपकौणिमें बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोको यथासम्भव सक्रमण करता हुआ बध्यमान प्रकृतियोके प्रत्यग्रबन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरितन स्थितियोमें से समस्थितिमें सक्रमण करता है । 'बंधेण होइ उदो अहिय उदएण संकमो अहिओ । गुणसेडि अणतगुणा बोद्धव्यो होइ अणुभागो ॥७।। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७३, क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गा० १४० । २. जयधवल मूल पृष्ठ १९८६-६०। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२७४; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ गा० १४४ । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८-६] क्षपणासारचूलिका [२३५ 'बंधेण होइ उदओ अहिओ उदएण संकमो अहिओ। गुणसेढि असंखेज्जा य पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥८॥ उदश्रोय अणंतगुणो संपहि बंधेण होइ अणुभागो । से काले उदयादो संपहि बंधो अणंतगुणो ॥६॥ अर्थ-बन्धसे अधिक उदय होता है और उदयसे अधिक संक्रमण होता है। इसप्रकार अनुभागके विषय में अनन्तगुणित गुणश्रेणि जानना चाहिए। बंधसे अधिक उदय होता है और उदयसे अधिक संक्रमण होता है । इसप्रकार प्रदेशके विषयमें असंख्यातगुणश्रेणी जानना चाहिए । अनुभागविषयक साम्प्रतिकबन्ध अनन्तगुणा होता है । विशेषार्थ-गाथा नं. ७ में अनुभागकी अपेक्षा, बन्ध, उदय व संक्रमणका अल्पबहुत्व कहा गया है। अनुभागको अपेक्षा बन्ध अल्प है, क्योंकि यहांपर तत्काल होनेवाले बन्धको विवक्षा है । बन्धसे उदय अनन्तगुणा है, क्योंकि वह चिरन्तन सत्त्वके अनुभागरूप है । उदयसे सक्रमण अनन्तगुणा है । इसका कारण यह है कि उदयमें तो अनुभागसत्त्व अनन्तगुणाहीन होकर प्राता है. किन्तु परप्रकृतिरूप संक्रमण तो चिरन्तनसत्त्वका तदवस्थारूपसे होता है । यह अल्पबहुत्व घातियाकर्मों की अपेक्षासे कहा गया है । गाथा नं. ८ में प्रदेश विषयक अल्पबहुत्व बतलाया गया है । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके उक्त स्थलपर पुरुषवेद आदि जिस किसी भी कर्मका नवकबन्ध समयप्रबद्ध प्रमाण होता है यह प्रदेशोंको अपेक्षा उदयादिसे अल्प है। बन्धसे प्रदेशोदय असख्यातगुणा है, क्योंकि आयुकर्मके अतिरिक्त अन्यकर्मोंका उदय गुणश्रेणी गोपुच्छाके माहात्म्यसे समयप्रबद्धसे असख्यातगुणा हो जाता है। उदयरूप प्रदेशोंसे संक्रमणरूप प्रदेश भी असंख्यातगुणे होते हैं । इसका कारण यह है कि जिनकर्मोका गुणसंक्रमण होता है उन कर्मो का गुणसंक्रमण द्रव्य और जिनका अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है उनका अधःप्रवृत्तसंक्रमण द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होनेसे उदयकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हो जाता है। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७४ व ध० पु० ६ पृष्ठ ३६२ गा. २७, क. पा. सुत्त पृष्ठ ७७० गा. १४५ । २ क० पा• सुत्त पृष्ठ ७६६ । ३. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासारचूलिका [ गाथा १०-११ गाथा हमें जिस अनुभाग- अल्पबहुत्वका कथन पूर्वानुपूर्वी क्रम से किया है चूर्णि - सूत्रकारने उसको पश्चातानुपूर्वी क्रमसे कहा है । चूर्णिसूत्रो मे कथन इसप्रकार हैविवक्षितसमयके अनन्तरकालमे होनेवाला अनुभागबन्ध अल्प है । इस अनुभागबन्धसे उसी समय होनेवाला उदय अनन्तगुणा है, इसका कारण गाथा न० ७ में कहा गया है । इसके अनन्तर समयवर्ती अनुभागोदय से विवक्षित समय में अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है, क्योकि प्रतिसमय अनन्तगुणी बढ़नेवाली विशुद्धि के माहात्म्यसे विवक्षित समयकी विशुद्धि से अनन्तरसमयकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । इसलिए पूर्व- पूर्व समयके उदयसे उत्तरोत्तर समयका बन्ध भी अनन्तगुणा हीन होता है अथवा उत्तरोत्तर समयके उदय से पूर्व पूर्व समयका बन्ध अनन्तगुणा होता है यह सब विशुद्धिका साहात्म्य है' । मोहनीयकर्मके अतिरिक्त अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके अन्तसमय में शेष कर्मोका स्थितिबन्ध -- २३६ ] र बादरागे गामा- गोदाणि वेदरणीयं च । वसंत बंधदि दिवसरतो य जं सेसे ॥१०॥ अर्थ - बादरसाम्परायके चरमसमय में नाम - गोत्र वेदनीय इन तीन अघातिया - कर्मो का स्थितिबन्ध अन्तः वर्षप्रमाण और शेष तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध अन्त:दिवस प्रमाण होता है । विशेषार्थ - चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायके नाम, गोत्र व वेदनीयकर्मो का स्थितिबन्ध कुछकम एक वर्ष प्रमाण होता है और तीन घातिया कर्मो का पृथक्त्वमुहूर्तप्रमाण स्थितिबन्ध अन्तःवर्षप्रमाण और तीन घातिया कर्मो का पृथक्त्वमुहूर्त प्रमाण स्थितिबन्ध होता है, किन्तु मोहनीयकर्मका अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है । १ २ * जं चात्रि संकुहंतो खरेदि किहिं प्रबंधगो तिस्से | सुकुम्हि संपराए अबंधगो बंध गियराणं ॥ ११ ॥ क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७० । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८७४ गा० २०६ व पृष्ठ ६६६ गा० १०, ज. ध. मूल पृष्ठ २२२१ व २२७४ ॥ जयधवल मूल पृष्ठ २२२२ ३ ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८८१ गा० २१७ व पृष्ठ ६६६ गा० ११; ज. घ मूल पृ० २२३५ व २२७४ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२] क्षपणासारचूलिका [ २३७ अर्थ-जिस कृष्टिको भी संक्रमण करता हुआ क्षय करता है उसका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्परायमें भी अबन्धक होता है, किन्तु इतरकृष्टियोंके वेदन व क्षपणाकाल में उनका बन्धक होता है। विशेषार्थ-दो समयकम दो प्रावलिपूर्व नवकबन्धकृष्टियों का संक्रमण करके क्षय करनेवाला उस अवस्था में उन कृष्टियोंका अबन्धक होता है । सूक्ष्मसाम्पराय नामक १०वें गुणस्थानमें सूक्ष्मकृष्टियोंका वेदन करते हुए भी उनका अबन्धक होता है, क्योंकि वहांपर बन्धशक्तिका अभाव है। बादरसाम्परायगुणस्थानमें क्षय होनेवाली कृष्टियोंके वेदककालमे कृष्टियोंका बाधक होता है। अर्थात् जिस जिस कृष्टिका क्षय करता नियमसे उसका बन्धक होता है, किन्तु दो समयकम दो आवलिबद्ध कृष्टि योके क्षपणाकालमें सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके क्षपणाकालमें उनका बन्ध नहीं करता। इन ग्यारह गाथाओं द्वारा सूक्ष्मसाम्परायपर्यन्त चारित्रमोहकी क्षपणाविधि चूलिकारूपसे कही गई । कुछ गाथा पूर्वमै कही जा चुकी हैं, किन्तु पुनरुक्त दोष नही आता' । 'जाव ण छदुमत्थादो तिरह घादीण वेदगो होइ । अहऽणंतरेण खइया सव्वण्हु सव्वद रिसी य ॥१२॥ अर्थ-जबतक क्षीणकषायवीतरागसंयतछद्मस्थ अवस्थासे नहीं निकलता तबतक वह तीनघातियाकर्मोंका वेदक होता है। इसके पश्चात् अनन्तर समयमें तीनघातियाकोका क्षय करके सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है । विशेषार्थ-जबतक छद्मस्थ पर्यायको निष्क्रान्त नही करता तबतक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोंका नियमसे वेदन करता है, अन्यथा छद्मस्थभाव उत्पन्न नही होंगे । अनन्तर समय में द्वितीय शुक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा समस्त घातिया कर्मरूपी गहन बनको दग्ध करके छद्मस्थ पर्यायसे निष्क्रान्त होकर क्षायिकलब्धिको प्राप्त कर [क्षायिकज्ञान दर्शन-सम्यक्त्व-चारित्र दान-लाभ-भोग उपभोग और वीर्य इन 8 क्षायिक भावोको प्राप्तकर] सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हुए विहार करते हैं। २ गाथाओके समाप्त होनेपर चारित्रमोहक्षपणा चूलिका सम्पूर्ण होती है। पष्ठ २२३५। २२७४। '७५। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] क्षपणसारचूलिका [ गाथा २६१-२६२ नोट--उपर्युक्त १२ गाथाओंका ग्रन्थान्तर (जयधवल मूल) से क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन हिन्दी टीकाकारने उद्धृ त किया है । इसके अनन्तर आचार्य वेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा क्षपणासारका उपसंहार करते हुए अन्तिम मंगल दो गाथाओं द्वारा किया गया है । उसीको कहते हैं-- वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणं दिसिस्सेण । दसणचरित्तलद्धी सुसूयिदाणेमिचंदेण ॥२६१॥६५२॥ अर्थ-इसप्रकार वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिाचार्यके दत्स तथा अभयनन्दिआचार्य के शिष्य मुझ अल्पज्ञ नेमिचन्द्रने दर्शन व चारित्रलब्धिको भले प्रकारसे कहा है। अब प्राचार्य गुरुनमस्कार पुरस्सर अन्तिममङ्गल करते हैं-- जस्ल य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिएणों । वीरिंदणंदिवच्छोणमामि तं अभयणंदिगुरु ॥२६२।।६५३॥ अर्थ-वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि आचार्यका वत्स मैं नेमिचन्द्रआचार्य जिनके चरणप्रसादसे अनन्तसंसारसमुद्रसे पार हुआ उन अभयनन्दिनामक गुरुको नमस्कार करता हूँ। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र क्षपणासार पृष्ठ पंक्ति १ ११ प्रशुद्ध खमणाए असख्यातवा भाग मात्र चतुर्थांगिक देशामर्सक दुम्वर हो जाती है । यहा पर सक्रामण कर्मों का अनुभागकाण्डक घात खवरणाए सख्यातवाँ भाग मात्र चतु स्थानिक देशामर्शक दुःस्वर हो जाती है, क्योकि इनका उदय प्रमत्तसयत गुणस्थान तक पाया जाता है। यहाँ पर सक्रमण कर्मों का स्थितिघात होने पर स्थिति स्थान कौन सा रह जाता है अर्थात् स्थितिकाण्डक होने पर कितनी स्थिति शेष रह जाती है ? अनुभाग मे प्रवर्तमान कर्मों का अनुभागकाण्डकघात पल्य के सख्यातवें भाग अनन्तर समय प्रोव्वट्टणा १७वें निषेक तक ६६८ ६६७ अपकर्षित प्रदेशाग्र का दूसरे सक्रमण तथा उदीरणा के लिये जाते है, कुछ का अपकर्षण (५) उत्कर्षण सम्बन्धी अरिणयट्टिस्स ठिदिखडयं C -U mr १४ १५ २२ २ पल्य के असख्यातवे भाग अन्तरसमय प्रोव्बट्टणा १वें निपेक तक ९७८ ওও अपकषित प्रदेशाग्र दूसरे सक्रमण के लिये जाते है, अपकर्पण (५) उत्कर्ष सम्बन्धी अरिणयट्टस्स ठिदिखडपं जवतक हो जाता उससे असख्यात गुणा कहते है और वही कहेगे सख्यात गुणा है । पुनः २६ १५ १५ 44 ३४ १० ३४ ११ ३५ १३ हुआ है अतः संख्यात गुणा कहना है या वहाँ कहना चाहिये असख्यात गुणा है । पुनः Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३७ ११ अशुद्ध सक्रमण होता है । इसप्रकार सक्रमण होता है। ऐसे ही द्वितीयकाण्डक का सक्रमण होता है । ऐसे क्रम से पृथक्त्व स्थितिकाण्डक के द्वारा ८ कपाय के द्रव्य का पर प्रकृतिरूप सक्रमण होता है। इसप्रकार प्रथम काण्डकघात होता है । ऐसे चक्खु प्रथमकाण्डकघात होकर ३८ ४२ ७-८ २२ चक्खू किन्तु स्थितिबन्ध पल्योपम के असख्यातवे भाग प्रमाण ही होता है । इसप्रकार अनुभाग स्तोक होने से गो कसायारण उपरितनवर्ती अपकपित द्रव्य को निषिद्ध है। परप्रकृति समस्थितिसक्रम प्रथमस्थिति मे अपकर्पण और ४३ ४४ १७ २१ ४24 ४५ २४ ४६ २४ ४७ १६ असख्यातवें भाग को इति पाठो। "पाउत्तकरण" इति पाठो सच उपयुक्तो प्रतिभाति । (६) नपु सकवेदता जय हो जाता है। इति पाठो प्रतिभाति । भेवरूप लिये स्थिति होता है। अनुभाग स्तोक व अधिक होने से गोकसायारण उपरितन उत्कर्पित द्रव्य को निषिद्ध है। परप्रकृतिसक्रम प्रथमस्थिति मे अपकर्पण सक्रमण द्वारा देता है, उदय को प्राप्त सज्वलनो की प्रथम स्थिति मे अपकर्पण और सख्यातवें भाग को इति पाठः। "पाउत्तकरण" इति पाठ., सच उपयुक्तः प्रतिभाति । नपु सकवेदका क्षय हो जाता है। इति पाठः प्रतिभाति । भेदरूप लिये अन्य स्थिति होता है ।१ इसी क्रम से अर्थात् प्रतिसमय अनन्त गुरिणत हीन क्रम से अप्रशस्त प्रकृतियो के अनुभाग का बन्ध भी होता है। वही वहीं विवक्षित समय से करनी आढत्ते ५१ ५२ २३ २१ به له ५६ ५६ ५६ ५८ ७ ६ ११ ११ वही वही विवक्षित समय मे करना पाडत्ते Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ६० ६१ ६१ ६३ ६३ ૬૬ ७१ ७१ ७१ ७३ ७५. ७७ ७८ ७९ ७९ ८० ८१ ८२ २१ २ * १६ १६ १८ ११ २२ २ ९ E १२ अशुद्ध उपपादानुच्छेद धनुपपादानुच्छेद ८२ २० ८३ १९ ८३ २३ ८३ २४ ८६ ५ ए इस नवकसमयप्रवद्ध का अपगतवेदी का सातपर्य परितासरवातस्य कफी श्रादि वगंगा मे नीचे के जघन्यपरीतानन्त १७ ४] से ७ इससे पूर्वस्वको का यु हीदि घपुष्यदिवग्गलाउ पूर्वस्पर्थक वर्गणा पूर्व - स्पर्धक वर्गणात्री के करके जो प्रमाण पूर्वराष्टों के श्रीवादिचार काण्डकारण मे एक बोध हो जावे जयघवला टीकाकार दूसरी कपाय का ****** ************* [100006500... भागहार असख्यातगुणा है। ( ३ ) मुबदेहि होणो अनुभाग अनुभाग ७४९ अनुभावसम्बन्ध शुद्ध उत्पादानुच्छेद श्रनुत्पादानुच्छेद एदेण उरा नवकसमयप्रबद्ध का अपगतवेदी की प्रसख्यात हजार वर्ष परीता सख्यातवे स्पर्धक की श्रादि वर्गणा मे तदनन्तर नीचे के जघन्यपरीतानन्तयें सु देवि यदिमवग्गणाउ पूर्वस्पर्धक की सकलवाए पूर्व स्पर्धक की आदि वर्गणा के करके रूपाधिक करके जो प्रमाण पूर्वस्पर्धक के सकल खण्डो के क्रोधादि चारो काण्डप्रमाण में क्रमशः एक बोध हो जावे, एतदर्थं जयधवला टीकाकार दूसरी कपाय की इससे पूर्वस्पर्वको की धपेक्षा एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर का अवहारकाल असख्यातगुणा है। क्योंकि एक प्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धेको को स्थापित करके पुनः उनमे से पूर्व स्पर्धको का प्रमाण एक बार अपहृत करना (घटाना) चाहिये । और एक अवहारशलाका स्थापित करनी चाहिये इसप्रकार पुनः पुनः अपहृत करने पर [ घटाते जाने पर ] अपकर्षणउत्कर्षणभागहार से असख्यातगुणा, पत्योपम का असख्यातधा भाग प्राप्त होता है। इस कारण यह श्रवहारकाल पूर्वोक्त से श्रसंख्यातगुणा है, ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। [ ज०६० २०३२] ममुदेदि होणो अणुभाग अथवा रसस्सबधो या "रसवधोय" प्रणुभाग ७९४ अनुभागसम्बन्धी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ८९ १४ असख्यातवें भाग गुणी असख्यातवें भाग गुणित अनन्तगुणी ८९ १६ स्पर्घको की संख्या स्पर्घको के वर्गणाओ की सस्या ८९ २२ वर्गणा का सर्ववर्गणानो का ८९ २२-२३ पूर्वस्पर्षको के अनन्तवें भाग प्रमाण अब चू कि ८४ २५ जाता है। जाता है। ८९ २८ क्योकि अनुभाग खण्ड के क्योकि प्रथम अनुभागखण्ड के नोट--पृष्ठ ८६ की टिप्पणी १-सकल अपूर्व स्पर्धक वर्गणाए = एक गुणहानि० की स्पर्धक सस्या एक स्पर्षकगत अनन्त वर्गणा असत्यात जवकि सकलपूर्व स्पर्धक= पूर्व स्पर्धक सवधी नानागुणहानिशलाका एक गुणहानि मे स्पर्धक सख्या या एक स्पर्धक की वगणाएँ x अनत एक गुणहानि मे स्पर्धक संख्या १ [ज० घ० मूल पृ० २०४३ से ] या सकल पूर्व स्पर्धक=एक स्पर्धक गत अनत वर्गणा - अनन्त ४ एकगुणहानि मे स्पर्धक सख्या अव सूत्र (1) से सूत्र (1) मे मान स्पष्टतया अनन्तगुणा होने से यह सिद्ध होता है कि-सकल अपूर्व स्पर्वक वर्गणाओं से पूर्व स्पर्धको की सख्या अनन्तगुणी है । इति सिद्धम् । अनन्तगुणी वर्गणाओं से मायास्पर्धक m अनन्तगुणी उनकी वर्गणाओं से माया के पूर्व स्पर्धक ६२ ९४ ९६ ९६ १० २२ ११ १२ जयघवल पु० ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त सूत्र से प्रदेशाग्न सख्यात गुणित है। ६६ १ प्रकार क्रोध कपाय की १०० २३ अतराइणाम १०० २७-२६ अर्थात्.... (जयघवल मूल पृष्ठ २०५१) धवल पु० ६ पृष्ठ ३८१ उपर्युक्त कथन से प्रदेशाग्न सबसे कम हैं । तृतीय सग्रह कृष्टि मे विशेष अधिक हैं क्रोध की तृतीय सग्रह कृष्टि से ऊपर उसकी ही प्रथम सग्रह कृष्टि मे प्रदेशाग्न सख्यात गुरिणत है । से क्रोध कषाय की अतराइ णाम । अर्थात् स्वस्थान गुणकार की "कृष्टि-अन्तर", ऐसी सशा है तथा परस्थान गुणकारो की "सग्रह कृष्टि अन्तर", ऐसी सज्ञा है। (जयपवल मूल पृ० २०५०) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध दुगुरगा-दुगुणा करने पर पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध १०४ मंष्टि के १० वार दुगुणा करने पर नीचे से तीसरी लाइन १०५ १७ निक्षिप्तमान १०५ २०-२३ म विधान से............अन्य कोई देता हुग्रा इसप्रकार इस विधान से अनन्तरोपनिया की अपेक्षा ऊपर सर्वत्र एक-एक वर्गणा विशेष प्रमाण हीन करते हए तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि समस्त सग्रह कृष्टियो की अन्तर कृष्टियो को उल्लघन करके सर्वोत्कृष्ट चरम क्रोध कृष्टि (यानी क्रोध की तृतीय सग्रह कृष्टि की अन्त कृष्टि) को प्राप्त हो जाय । क्योकि इस अध्वान मे अनन्तर उत्तर की अनन्तर पूर्व से अनन्तभाग हानि को छोडकर प्रकारान्तरता सभव नही है। इति पाठः। १०५ १०६ २५ १ ति पाठो पर्याय असम्भव है। अनन्तवे भाग प्रमाण है और १०६ १०७ १०७ विशेप मे हीन समस्त द्रव्य है ।१ १२ कृप्टियो के नीचे जाननी । दृश्यमान मे १८ अनन्त वें भाग प्रमाण है यहा हीन सकल द्रव्य का प्रमाण विशेप है। १२ कृष्टियो मे से प्रत्येक की जघन्य कृष्टि के नीचे जाननी। इसप्रकार देय (दीयमान) द्रव्य मे तेबीस स्थानो मे उष्ट्रकूट रचना होती है । दृश्यमान मे प्रथम सग्रहकृष्टि की जघन्यकृष्टि से अनन्तर द्वितीयकृष्टि मे अनन्तभाग से हीन जाते हैं, अपूर्व तृतीय सग्रह कृष्टि मे भी १४ १०६६ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११३ ११४ १७ १० २० ७ १४ १५ १४ प्रथममग्रह कृष्टि मे अनन्त भाग से हीन जाते है । अपूर्व तृतीयसग्रहकृष्टि के नीचे अन्तर कृष्टियो मे भी चरम कृष्टि से बारह सुज्जुत्तो अनुभवता वेदना जानना कि ये सर्वनिषेक तव संज्वलन के चरम कृष्टियो से बारह सजुत्तो भोगता वेदन करना जानना । तथा अवशेष सर्वनिषेक वहां सज्वलन के Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पक्ति ११४ २३-२४ लब्ध मे से एक भाग ११५ ६ था उसको ११६ ६-७ उपरितन कृष्टि प्रमाण का ११६ १६ द्वितीयादि अधस्तन ११६ २० प्रमाण पश्चात् ११७ ६ अधस्तन व उपरितन अनुभय प्रादि ११८ १६ वर्तमान मे उत्तर११८ २६ नीचे की केवल ११६ १ सप्रति ११६ २३ उदय कृष्टि मे १२० २ अनुभाग वाली है । इसप्रकार लब्ध एक भाग है उसको उपरितन, कृष्टि प्रमाण का द्वितीयादि निचली प्रमाण है । पश्चात् निचली अनुभय कृष्टि आदि वर्तमान उत्तरनीचे की कृष्टि केवल साम्प्रतिक उदय की उत्कृष्ट कृष्टि मे अनुभाग वाली है। उससे दूसरे समय मे बन्ध की जघन्य कृष्टि अनन्तगुणे हीन अनुभाग युक्त है । उससे उसी समय मे जघन्य उदय कृष्टि अनन्तगुणे हीन अनु. भागयुक्त है । इसप्रकार द्वितीय तृतीय सग्रह कृष्टि वेदक के घात द्रव्य से व्ययद्रव्य और एक भाग का चदुसुठाणेसु रची जाती हैं, क्योकि वध्यमान द्रव्य एक समयप्रबद्ध प्रमाण है। सक्रम्यमाण प्रदेशाग्न से असत्यातगुणी अपूर्वकृष्टिया रची जाती हैं । क्योकि [अर्थात् अपकर्षित समस्त द्रव्य] १२० ५ १२४ १६ १२५ ७ १२६ २२ १२७ १० द्वितीयसग्रहकृष्टिवेदक के घातक द्रव्य से व्यय और एक भाग के चदुसट्टाणेसु रची जाती हैं, क्योकि जो १२६ १२६ १२९ १२९ १३० १३० १३० १३० १३० १३१ १३१ १३२ ३ अर्थात् अपकर्पित समस्त द्रव्य ४ रची जाती है उससे ११ 'इदराणाम' कृष्टिवेदककाल की प्रथमसमय मे निर्वर्त्यमान १४ चरमकृष्टि मे निर्वर्तित १४ जघन्य कृष्टि के प्रथम समय मे २० उसके आने ७ पूर्वकृष्टि मे से १५ अर्थात् प्रथम १९-२१ प्रथम समय मे विनष्ट कृष्टियो से रहित शेप बची हुई कृष्टियो के रची जाती हैं। 'इदरा कृष्टिवेदककाल मे प्रथम समय मे उस प्रदेशाग्र के द्वारा निर्वय॑मान चरमकृष्टि के जघन्य अर्थात् प्रथम कृष्टि मे उसके आगे पूर्व सग्रहकृष्टि मे से अर्थात् पल्योपम के प्रथम द्वितीय समय मे असख्यात गुणीहीन कृष्टियो का नाश करता है । क्योकि घाते गये अनुभाग के बाद शेष रहे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १३४ २० १३७ १ १३७ २ १३९ १३६ * १४० १० १४० १२ १४० १४ १४० १५ १४१ १० १४६ 북 १४९ १५० १५१ १५३ १ १५४ १४ १५४ १८ १५७ १५ १५५ १५ १५.५ २२ १ प्रशुद्ध असख्यातवे भाग का घात करता है इसलिए द्वितीय समय मे मतख्यात गुखीहीन कृष्टियो का नाश करता है । इसी प्रकार प्राप्त होते है, जो कि प्रथम ग्रहकृष्टि वेदककाल के विभाग से कुछ अधिक है। उस संग्रहकृष्टि को चरमसमयवर्ती करता है, अतिस्थापना सहिया अवयव कृष्टियो के द्रव्य का द्वितीय कृष्टि मे कृष्टियो का संख्यातगुणा चौदह गुणा हो गया । १ प्रथमस्थिति शेष रह अन्तर कृष्टियों के नीचे वेद करके अपेक्षा असख्यात विशेष कृष्टियो का (0) एक खण्ड द्रव्य जघन्य बादर जाता तथा दिया जाता है । इससे आगे शुद्ध अनुभाग को नष्ट करने मे कारणभूत यहा की विशुद्धियो की उसी प्रकार से प्रवृत्ति होने का नियम देखा जाता है । इसी प्रकार अर्थ- सूक्ष्मसाम्पराचिककृष्टिकारक प्राप्त होते है। प्रथम सग्रह कृष्टि वेदककाल त्रिभाग से कुछ अधिक है। । उस संग्रहकृष्टि की चरम समय मे करता है । किन्तु प्रतिस्थापना एक भाग प्रमाण द्रव्य दिया जाता है । एक भाग प्रमाण द्रव्य चढे गये अध्वान प्रमाण विशेषो से होन करके दिया जाता है । एक खण्ड द्रव्य विशेषाधिक करके (चयाधिक करके) जघन्य बादर जाता है तथा दिया जाता है। पूर्वनिर्वर्तित कृष्टि को प्रतिपद्यमान प्रदेशान का असख्यातवा भाग हीन दिया जाता है । इससे आगे अर्थ - लोभ की तृतीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कृष्टि रूप परिणत हुआ वह स्तोक है । उससे लोभ की द्वितीय सह कृष्टि से जो द्रव्य लोभ को तृतीय संग्रह कृष्टिरूप परिणत हुआ वह सत्यातगुणा है। महिया श्रवयव कृष्टियो का धीर द्रव्य का द्वितीय कृ ष्ट मे संख्यातगुणा कृष्टियो का x X चौदह गुणा हो गया । १ इन अन्तरकृष्टियो के प्रदेशान का भी अल्पबहुत्व इसी प्रकार जानना चाहिए । प्रथम शुद्ध स्थिति में समयाधिक धावती काल शेष रह कृष्टि अन्तरो मे वेदन करके अपेक्षा संख्यातअन्तर कृष्टियों का Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति १५७ ११ १५७ ११ १५७ १२ १५८ १५ १५८ २८ १६० १६ १६२ १० १६३ ४ १६३ १७ १६३ १९ १६५ २६ १६८ २३ १६८ २३. १६८ २४ १६६ १५ १७० १३ १७० १४ १७० १८ १७१ ३ १७२ १७२ १७३ २३ २४ ३ १७६ ४ १७७ १७८ १ शुद्ध १७९ १७ १८० १० प्रतिग्राह्य के अल्पबहुत्व के अनुसार अर्थात् प्रतिग्राह्य का श्रल्पबहुत्व करने वाले के क्रोध की होता है, अतः यहाँ पर ही होता है तथा वादरकृष्टिवेदन ने श्रायाम भी इतना है । श्रधिक, क्योकि श्रवरहिया प्रसख्यात गुणहीन गुणसे दि होदि विसेसाहिय अट्ठ वस्सट्ठि तत्प्रायोग्य संख्यात गुग्गा उदीर्णमान संख्यातवें भाग को उदीर्णमान स्थितिकाण्डको को देयमान ११-१२ क्षीणकषाय गुणस्थान के ऊपर और पडदे ऊपर जो दिया जाता है, यह द्रव्य अनन्तर स्थिति मे देता है । (5) तत्स्मृतम् जिस काल मे अश्वकर्णकरण शुद्ध उससे लोभ की द्वितीय संग्रहकृष्टि से जो द्रव्य सूक्ष्म कृष्टिरूप परिणत हुआ वह मरयात गुग्गा है । विशेषार्थ - सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिकारक प्रतिग्रह के माहात्म्य के अनुसार ही श्रर्थात् प्रतिगृह्यमाण की प्रवृत्ति करने वाले के जो प्रदेपा को को होता है, किन्तु लोभ को प्रथम नग्रह कृष्टि के द्रव्य का लोभ की द्वितीय तृतीय सह कृष्टि में सक्रमण होता है अतः यहा पर ही होता था, वह भी रुक गया तथा वादरकृष्टिवेदन के श्रायाम भी सामान्य से इतना है । अधिक है, क्योकि श्रवहरिया विशेष ( चय) होन गुढीस होदि, विसेसाहियं श्रट्ठवस्सट्ठिदि तत्प्रायोग्य सस्यात उदीयमान असख्यातवें भाग को उदीर्ण स्थितिकाण्डको के यथाक्रम बीत जाने पर चरम स्थितिकाण्डक को ऊपर पहले ( पुरातन ) जो दिया जाता है, यहा प्रथम निषेक मे दिया गया द्रव्य श्रनन्तर स्थिति मे [ तृतीय पर्व की प्रथम स्थिति मे ] देता है । दीयमान X पदिदे तत्सस्मृतम् जिस काल मे चार कषायो का अश्वकर्णकररा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० IS US arwww * सेढेक्क १८९ mr m १६० पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २६ अश्वकर्णकरणकाल, कृष्टिकरणकाल १८१ १६ सढेक्क कर्मप्रकृतिया सत्त्व से कर्म प्रकृतिया उदय और सत्त्व से १८५ ९ निर्गल निर्मल १८६ अन्तरित अन्तरित कहलाता है। १८७ १६ विग्ध च उक्कारण विग्घचउक्काण स्तु विक स्तिबुक १८९ केबलज्ञान अविनश्वरता को केवलज्ञान की अविनश्वरता को १६० प्रमेय प्रानन्त्य प्रमेय मे प्रानन्त्य १९० अतः उनके अत: उनको १९० नानन्त्यपना प्रानन्त्य केवलज्ञान उपचारमात्र से केवलज्ञान मे उपचारमात्र से १६१ आवरक प्रावारक १६१ २१ अनवस्था अनवस्थान १६३ ५ अभाव और अभाव है और १६३ १९ केवलज्ञानरूपी जिसका केवलज्ञानरूपी १९३ २२-२३ और घातिया कर्मों को जीत लेने कहा जाता है अर्थात् क्षय कर देने से जिन कहे जाते हैं सकता सकते १९५ आदि व्यापार स्वाभाविक व्यापार प्रादि स्वाभाविक १६५ १५ पादाम्बुज पादाम्बुजः बघादि बधदि १६७ १४ पाविसिय पविसिय १९७ २१ अवशिष्टकाल; और अयोग अवशिष्ट काल; अयोगी का सर्वकाल और अयोग १९७ २२ सर्वकालका संख्यातवाभाग इन दोनोको काल का संख्यातवा भाग इनको प्रात्मप्रदेशो को कपाटरूप आत्मप्रदेशो को प्रतररूप करता है। द्वितीयसमय में प्रतर समेट कर प्रात्मप्रदेशो को कपाटरूप १९८ २२-२३ गुणश्रेणिशीर्प से उपरिम गुण रिणशीर्ष से वर्तमान गुणश्रेणिशीर्ष नीचे है। किन्तु पूर्व की अपेक्षा असख्यातगुणे प्रदेशाग्र का विन्यास करता है। यह गुणश्रेणी के ११ स्थानो की प्ररूपणा वाले सूत्र से सिद्ध है। गुरणणि शीर्प दे उपरिम Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति te; २७ १६९ ३ ३ (22 २०० ११ २०० २७ २०१ १० २०१ ११ २०२ २०३ २०३ ६ ७ २०३ १४ २०३ १८ २०६ १३ २०७ ३ २०५ १ २०६ ५ २११ १२ २११ २३-२८ अशुद्ध परमगुत्सम्पदा वीर्यपरिणामो मे होने पर भी अन्तर्मुहूर्त नल्यातवे होता है । कार्मण जाते हैं। मूल असम्भव है क्योकि क्षपरण के उपदेश मे यह लोकव्यापी, पाचवें समय मे सकोच - ( १० ) विहुमारि लोकव्यापी, फिर क्रमश: पाचवें समय ने लोकपूरण क्रिया की संकोचत्रिया उसका सकोच होकर आठवें समय मे आठवें समय मे दण्ड का संकोच हो जाता है । दण्ड हो जाता है । काल मे श्रर व्यतीत कर श्रनख्यात भागरूप परिणामाकर एत्ता ख्यातगुणे क्रम से परिणमन अथवा द्वितीय उपदेशानुसार. *** 2001 994 AT LE द्वितीय समय मे नष्ट होती हैं । शुद्ध परमगुरुसम्प्रदाय वीतराग परिणामों मे होने पर भी आयु के अन्तर्मुहूर्त असंख्यातवें २१४ १४-१५ राशि को जघन्य स्थिति होता है । क्योकि कार्मरण जाते हैं । क्योकि वहा मूल असम्भव है और क्योकि बाद सविसुमरिण तक असंख्यातवें भाग प्रमाण प्रविभागी प्रतिच्छेद अपूर्व स्पर्धको को चरम वर्गणा मे होते हैं । अर्थात् पूर्व स्पर्धको मे से जीव प्रदेशो का अपकर्षण कर उनको पूर्व स्पर्धको की श्रादि वर्गरणा के अविभागी प्रतिच्छेदो के असंख्यातवें भाग रूप परिणमाकर एत्तो प्रतिसमय संख्यातगुणे क्रम से परिणत अथवा प्रथम समय मे स्तोक कृष्टियों का वेदन करता है; क्योकि अघस्तन और उपरिम असंत्यातवें भाग प्रमाण ही कृष्टियां प्रथम समय मे विनाश को प्राप्त होती हुई प्रवानरूप से विवक्षित हैं । दूसरे समय मे असख्यातगुणी कृष्टियों का वेदन करता है । क्योकि प्रथम समय मे विनाश को प्राप्त होने वाली कृष्टियो से दूसरे समय मे, अवस्तन और उपरिम, असंख्यातवें भाग से सम्बन्ध रखने वाली, असल्यातगुणी कृष्टिया विनाश को प्राप्त होती हैं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है । स्थितिकाण्डक की जघन्यस्थिति Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) पृष्ठ पंक्ति २१४ १६ प्रशुद्ध प्रदेशाग्र देता है । यहा से २१६ २१६ २२० २२१ २२२ rur LAR शुद्ध प्रदेशाग्र देता है। पुरातन गुणश्रेणिशीर्ष से अनन्तर उपरिम स्थिति मे असख्यातगुणा हीन देता है। उसके ऊपर सर्वत्र विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्र देता है। यहा से अपरिपूर्ण निर्जरा ही जिसका एक द्रव्य या गुरण-पर्याय को एक योग तथा एक शब्द के वीचार हो वह पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान है । जिस ध्यान मे अर्थ, व्यंजन व योग की सक्रान्ति न हो, वह एकत्ववितर्क परमात्मध्यानं न सगच्छते । जिण-साहुगुणुक्कित्तण परिपूर्ण निर्जरा जिसका एकद्रव्य या पर्याय को एक तथा एक शब्द के वीचार हो वह एकत्वविर्तक घृतघट २२३ ९ २२५ ४ २२९ ८ २२९ १२ २३१ ५ २३२ १० २३२ ११-१२ परमात्मध्यान सगच्छते जिग-साहुगुणुक्कित्ताण घृतघट वह घी का घट कहलाता है। पु वेद खीणा अर्थ-स्त्यानगृद्धि ..................... ............करके नाश करता है। २५ २३ २४ २३३ २३४ २३४ २३४ २३५ २३५ "घी का घडा लायो", ऐसा कहा जाता है। वैसे ही पु वेद मीणा अर्थ-मध्यम ८ कषायो के क्षय करने के अनन्तर स्त्यानगृद्धिकर्म, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, इन तीन दर्शनावरण की प्रकृतियो को, तथा नरकगति और तिर्यंचगति सम्बन्धी नामकर्म की १३ प्रकृतियो को सक्रम आदि करते समय (अर्थात् सर्वसक्रम आदि मे यानी सक्रम काण्डकघात प्रादि करके) क्षीण करता है गा० ३-४-५ अहियो बोधव्वा अणुभागे अणुभागे अनुभाग की अपेक्षा साम्प्रतिक बन्ध से साम्प्रतिक उदय अनन्तगुणा होता है । इसके अनन्तरकाल मे होने वाले उदय से पश्चादानुपूर्वी गा० १३६, १३८-१३९ अहिय वोधव्वो अणुभागो अणुभागो अनुभागविषयक ३ ८ २३६ २ २३६ १३ २३६ १८-१९ पश्चातानुपूर्वी सेसे और तीन घातिया कर्मों का पृथक्त्व सेस Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) पृष्ठ पंक्ति २३७ २३७ २३७ ८ ९ १० मुहूर्त प्रमाण स्थितिबन्ध अन्त:वर्षप्रमाण बाधक बन्धक करता नियम से करता है, नियम से क्षपणाकाल मे सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपणाकाल मे और सूक्ष्मसाम्परायिक उपर्युक्त १२ गाथाम्रो का (जयघवलमूल) से (जयपवलमूल) के चूलिका का कथन चूलिका मे स्थित उपर्युक्त १२ गाथानो का कथन २३८ २३८ १ २ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षणावली क्षपणासार परिभाषा शब्द ग्रन्थ में जहां प्राया वह पृष्ठ अघस्तन कृष्टि ११५ अधःप्रवृत्त सक्रम भागहार अनुत्पादानुच्छेद २३६-६० अनुभागकाण्डक काल अनुसमयापवर्तन १६७, १३४ प्रथम, द्वितीय आदि कृष्टियो को अधस्तन कृष्टि कहते हैं । पल्य के अर्द्धच्छेद के असख्यातवे भाग प्रमाण अधःप्रवृत्त सक्रम भागहार होता है । जहा जिसका बन्ध सम्भव हो, ऐसी जो विवक्षित प्रकृति, उसके परमाणुओ को अधःप्रवृत्त सक्रम भागहार का भाग देने पर एक भाग मात्र परमाणु अन्य प्रकृति रूप हो जाते हैं, यह अधःप्रवृत्तसक्रम कहलाता है । देखो-उत्पादानुच्छेद की परिभाषा मे। एक अनुभागकाण्डक का घात अन्तर्मुहूर्त काल मे पूरा होता है, इस काल का नाम अनुभागकाण्डकोत्कीरण काल या अनुभागकाण्डककाल है। जहा प्रति समय अनन्त गुणे क्रम से अनुभाग घटाया जाय वहा अनुसमयापवर्तन कहलाता है । पूर्व समय मे जो अनुभाग था उसको अनन्त का भाग देने पर बहुभाग का नाश करके एक भाग मात्र, अनुभाग अवशेष रखता है। ऐसे समय-समय अनुभाग का घटाना हुआ, अतः इसका नाम अनुसमयापवर्तन है। कहा भी है-उत्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है । (घवला १२/३२) अर्थात् प्रतिसमय कुल अनुभाग के अनन्त बहुभाग का अभाव करना अनुसमयापवर्तना है। शका-अनुसमयापवर्तना को अनुभाग काण्डकघात क्यो नही कहते ? समाधान नहीं कहते, क्योकि प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभागकाण्डकघात है; परन्तु उत्कीरण काल के बिना एक समय द्वारा ही जो घात होता है वह अनुसमयापवर्तना है। दूसरे, अनुसमयापवर्तना मे नियम से अनन्तवहुभाग नष्ट होता है, परन्तु अनुभागकाण्डकघात मे यह नियम नहीं है, क्योकि छह प्रकार की हानि द्वारा काण्डकघात की उपलब्धि होती है । धवल १२ पृष्ठ ३२ अन्तरकृष्टि 88 एक-एक सगह कृष्टि मे अनन्तर कृष्टि मनन्त होती हैं। क्योकि अनन्तकृष्टि के Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) शब्द पृष्ठ मन्तरित १८६, १८९ २३६ परिभाषा समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है । तथा संग्रह कृष्टि की ये अवान्तर कृष्टिया हो "अन्तर कृष्टि" कहलाती है । (अवयवकृष्टि अन्तरकृष्टि क० पा० ८०६) अतीत, अनागत काल सम्बन्धी अन्तरित कहलाता है । जैसे राम, रावण ग्रादि । प्राप्त मीमासा. वृ० ५ तथा न्याय दी० पृ० ४१ । परन्तु पंचाव्यायी मे ऐसे कहा है-अन्तरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपाः ॥२/४८४ अर्थात् द्वीप, समुद्र, पर्वत प्रादिक पदार्थ अन्तरित हैं। क्योकि इनके बीच में बहुत सी चीजें या गई हैं, इसलिये ये दिख नहीं सकते । दिवस से कुछ कम को अन्तदिवस (अन्तःदिवस) कहते हैं । अन्त. अर्थात् अन्दर । अत: जहा विवक्षित प्रमाण से कुछ कम हो वहा अन्तः संज्ञा होती है । इसी तरह कोडा कोडी से नीचे तथा कोड़ी से ऊपर को अन्तः कोटा कोटी कहते हैं । कहा भी है-"अन्तः कोडा कोडी सागर" ऐसा कहने पर एक कोडा कोड़ी सागरोपमको सख्यात कोटियो से खण्डित करने पर जो एक खण्ड होता है वह अन्तः कोड़ा कोडी सागर का अर्थ ग्रहण करना चाहिये । (ववल ६/ १७४ चरम पेरा) प्रश्वकर्णकरण, आदोलकरण, अपवर्तनोद्वर्तनकरण; ये तीनो एकार्थक नाम हैं । उनमे से अश्वकर्णकरण ऐसा कहने पर उसका अर्थ होता है अश्व का कर्ण अश्व कर्ण । अश्वकर्ण के समान जो करण वह प्रश्वकर्णकरण है। जिस प्रकार अश्व पाया. फोटि गागर २१ मनोनारण ६४ ६% मूल कथन दिया जाता है ताकि अन्तर सुस्पष्ट हो जायगा(1) अन्तरिताः कालविप्रकृष्टाः अर्याः (1) अन्तरिता यया द्वीपसरिन्नाथनगाधिपाः प्रा० मी० वृ० ५ लाटीसहिता सर्ग ४ श्लोक ८ पूर्वि पृ० ५१ (1) अन्तरिता: कालविप्रकृष्टा रामादयः (1)अंतरिता यथा द्वीपसरिनाथनगाधिपा। ___ न्यायदीपिका पृ० ४१ पंचाव्यायी २/४८४ राजमल्ल ()प्रतीत अनागतकाल सम्बन्धी अतरित कहिये । (1) ५० टोडरमलजी नार-पहा टक ग्रन्यो में काल से अतरित नोट-ऊपर दोनो ग्रन्यो मे क्षेत्र से अंतरित (यहित) प्रयवा विप्रकृप्ट (दूर) व्यवहित ( यानी विप्रकृष्ट ) को पाई यो "अन्तरित" कहा है। "अन्तरित" कहा है । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ परिभाषा आगे से लेकर मूल तक क्रम से घटता हुआ दिखाई देता है उसी प्रकार यह करण भी क्रोध सज्वलन से लेकर लोभ संज्वलन तक क्रम से अनन्तगुणे हीन अनुभाग के आकाररूप से व्यवस्था का कारण होकर अश्वकर्णकरण इस नाम से लक्षित होता है। अब भादोलकरण का अर्थ-पादोल नाम हिंडोला का है। आदोल के समान जो करण वह प्रादोल करण है । जिसप्रकार हिंडोले के खम्भे और रस्सी अन्तरान्त मे त्रिकोण होकर कर्ण रेखा के प्राकार रूप से दिखाई देते हैं, वैसे ही यहा भी फ्रोधादिक कषायो का अनुभाग का सन्निवेश क्रम से हीयमान दिखाई देता है। इसलिये अश्वकर्णकरण की प्रादोलकरण सज्ञा हो गई है। इसीप्रकार अपवतना-उद्वर्तनाकरण यह पर्यायवाचक शब्द भी अनुगत अर्थ वाला है, ऐसा ज्ञातव्य है। यतः क्रोधादि सज्वलन कषायो के अनुभाग का विन्यास हानि-वृद्धि रूप से अवस्थित देख कर उसकी पूर्वाचार्यों ने "अपवर्तना-उद्वर्तना करण", यह सज्ञा प्रवर्तित की है । जय धवला मूल पृष्ठ २०२२ एव धवल पु० ६/३६४, कषाय पाहुड सुत्त पृ० ७८७ अभिप्राय यह है कि प्रकृत मे अश्वकर्णकरण की अपवर्तनोद्वर्तनकरण और आदोलकरण ये दो सज्ञाए होने का कारण यह है कि सज्वलन क्रोध से सज्वलन लोभ तक के अनुभाग को देखने पर वह उत्तरोत्तर प्रनतगुणा हीन दिखलाई देता है और सज्वलन लोभ से लेकर सज्वलन कोष तक के अनुभाग को देखने पर वह उत्तरोत्तर अनंतगुणा अधिक दिखलाई देता है । जैसे घोडे के कान मूल से लेकर दोनो और क्रम से घटते जाते है वैसे ही क्रोध सज्वलन से लेकर अनुभाग स्पर्धक रचना क्रम से अनन्तगुणी हीन होती चली जाती है इस कारण तो अश्वकर्णकरण सज्ञा है । आदोल (हिंडोला) के खम्भे और रस्सी अन्तराल मे कर्ण रेखा के प्राकाररूप से दिखाई देते है उसी प्रकार यहा भी क्रोधादि कषायो के अनुभाग की रचना क्रम से दोनो ओर घटती हुई दिखाई देती है अतः अादोलकरण नाम है। इसी तरह इसी अपवर्तन-उद्वर्तन करण सज्ञा भी सार्थक है, क्योकि क्रोधादि सज्वलनो के अनुभाग की रचना हानि-वृद्धि रूप से अवस्थित है । जै० ल० १/१९५ जिन स्पर्धको को पहले कभी प्राप्त नही किया, किन्तु जो क्षपक श्रेणी मे ही अश्वकर्णकरण के काल मे प्राप्त होते हैं और जो ससार अवस्था मे प्राप्त होने वाले पूर्व स्पर्धको से अनन्तगुणित हानि के द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाव वाले हैं, उन्हे अपूर्व स्पर्धक कहते हैं । अपूर्व स्पर्वक Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) शब्द पृष्ठ परिभाषा क० पा० सु० पृष्ठ ७८६, जय घ० अ० ११०६; कहा भी है-वधर्मान तो पूर्व स्पर्धक तथा हीयमान अपूर्व स्पर्धक हैं । इसप्रकार दो प्रकार के स्पर्धक जानना चाहिये । पच स० अमित० १/४६ अश्वकर्णकरण के प्रथम समय से लगाकर उसके अन्तिम समय पर्यन्त वराबर यह अपूर्वस्पर्षक बनाने का कार्य चलता रहता है ।१ अर्थात् अश्वकर्ण करण का अन्तमुहूर्त प्रमाण काल ही इसकी विधि का काल है (इसके ऊपर कृष्टिकरण का काल प्रारम्भ होता है ।) ऐसा जानना चाहिये । एक-एक सग्रह कृष्टि की अनन्त अवयव कृष्टिया होती है । एक-एक संग्रह कृष्टि मे जो अनन्त कृष्टिया होती है, वे ही अवयव कृष्टिया हैं । क० पा० सु० ८०६ देखो-अपवर्तनोद्वर्तनकरण की परिभाषा मे। अवयव कृष्टि अश्वकर्णकरण ६४,८७, ८६, ८८ आदोलकरण , प्रायद्रव्य १२१ भावजितकरण १९८ जिस प्रकार लोक व्यवहार मे जमा-खर्च कहा जाता है। उसी प्रकार यहा भी आयद्रव्य और व्ययद्रव्यरूप कथन करते हैं। अन्य सग्रह कृष्टियो का जो द्रव्य सक्रमण करके विवक्षित सग्रहकृष्टि मे पाया, (प्राप्त हुआ) उसे आय द्रव्य और विवक्षित सग्रहकृष्टि का द्रव्य सक्रमण करके अन्य संग्रह कृष्टियो मे गया उसे व्यय द्रव्य कहते हैं। केवलि समुद्घात के अभिमुख होने को प्रावर्जित करण कहते हैं। अर्थात् केवलिसमुद्घात करने के लिये जो आवश्यक तैयारी की जाती है उसे शास्त्रकारो ने "प्रावर्जितकरण" सज्ञा दी है। इसके किये बिना केवलि समुद्घात का होना सम्भव नही है, अतः पहले अन्तर्मुहूर्त तक केवली आवजितकरण करते हैं। क० पा० सु० पृ०६०० सत्त्व के घटते २ जो आवली मात्र स्थिति अवशिष्ट रह जाती है उसका नाम उच्छिष्टावलि ३८ १ वैसे तो कृष्टिकरण काल मे भी अश्वकर्णकरण पाया जाता है । क्योकि वहा भी अश्वकर्ण के आकार सज्वलनो का अनुभागसत्त्व या अनुभागकाण्डक होता है । क्ष० सा० ४९१ परन्तु "अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरण का काल" यहा प्रकृत है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) शब्द पृष्ठ उत्कृष्ट कृष्टिः उपरितन कृष्टि उष्ट्रकूट श्रेणी ११९ ११५ १०९ काण्डक कृष्टि अन्तर १००-१०१ परिभाषा "उच्छिष्टावली" है। यानी स्थितिसत्त्व मे प्रावली मात्र के अवशिष्ट रहने पर वह उच्छिष्टावली कहलाती है । सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिम कृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है। चरम, द्विचरम आदि कृष्टियो को उपरितन कृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार ऊँट की पीठ पिछले भाग मे पहले ऊँची होती है पुनः मध्य मे नीची होती है, फिर आगे नीची-ऊँची होती है, उसी प्रकार यहा भी प्रदेशो का निषेक प्रादि मे बहुत होकर फिर थोडा रह जाता है । पुनः सन्धिविशेषो मे अधिक और हीन होता हुअा जाता है । इस कारण से यहा पर होने वाली प्रदेश श्रेणी की रचना को उष्ट्रकूट श्रेणी कहा है । क० पा० सु० पृ० ८०३, जय धवल २०५९-६४ अन्तर्मुहूर्त मात्र फालियो का समूह रूप "काण्डक" है । एक-एक कृष्टि सम्बन्धी अवान्तर कृष्टियो के अन्तर की सज्ञा "कृष्टि अन्तर" है । क. पा० सु० ७६६ केवली भगवान् अघातिया कर्मों की हीनाधिक स्थिति के समीकरण के लिये जो समुद्घात ( अपने आत्म प्रदेशो को ऊपर, नीचे और तिर्यक् रूप से फैलाना) करते है. उसे केवलि-समुद्घात कहते है। इस समुद्घात की दण्ड, कपाट. प्रतर और लोकपूरणरूप चार अवस्थाएं होती है। दण्ड समुद्घातमे प्रात्म प्रदेश दण्ड के आकार रूप फैलते है । कपाट समुद्घात मे कपाट ( किवाड ) के समान आत्मप्रदेशोका विस्तार बाहुल्य की अपेक्षा तो अल्प परिमाणमय ही रहता है, पर विष्कम्भ और मायाम की अपेक्षा बहुत परिमाणमय होता है। तृतीय समुद्घातमे अघातिया कर्मों की स्थिति और अनुभाग का मन्थन किया जाता है, अत: तीसरा "मन्थसमुद्घात" कहलाता है । इसे ( तृतीय समुद्घातको ) प्रतर समुद्घात और रुजक समुद्घात भी कहते हैं । समस्त लोक मे आत्म प्रदेशो का फैलाव, चौथे समयमे हो जाने से, चौथे समयमे लोकपूरण समुद्घात कहलाता है। विशेष के लिए जयधवला का पश्चिमस्कन्ध अर्थाधिकार तथा प्रस्तुत ग्रन्थ पृष्ठ १६६ से २०३ देखना चाहिए। __ दस कोडाकोडी पल्य ( अद्धापल्य ) का एक सागर (प्रद्धासागर ) होता है। तथा एकसागर को "करोड x करोड़" से गुणा करने पर जो आवे वह कोटाकोटी केवलि-समुद्घात १६६ कोटाकोटीसागर Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्द पृष्ठ क्रोधकाण्डक क्षायिक चारित्र गुणश्रेणिनिर्जरा परिभाषा सागर कहलाता है। अर्थात् करोड ४ करोड x सागर = कोडाकोडीसागर । [ कर्मों की स्थिति श्रद्धापल्य, श्रद्धासागर से वर्णित है ] __ क्रोध की अपूर्वस्पर्धकसख्या को मान कपाय की अपूर्व स्पर्धक सख्या मे से घटाने पर जो शेष रहे उसका क्रोध की अपूर्वस्पर्धक सख्या मे भाग देने पर "क्रोध के काण्डक' का प्रमाण प्राप्त होता है। तथा उस काण्डकप्रमाण मे क्रमश. एकएक अधिक करने से मान, माया एव लोभ, इन तीन काण्डको का प्रमाण प्राप्त होता है। यानी क्रोध के काण्डक ( क्रोध काण्डक ) से एक अधिक का नाम मान काण्डक है। इससे एक अधिक का नाम माया काण्डक है । तथा इससे भी एक अधिक का नाम लोमकाण्डक है । सकल चारित्रमोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने वाले चारित्र को क्षायिक चारित्र कहते हैं। त वृत्ति २-४, ल सा ६०६, धवल पु १४/१६ [ चारित्त मोह क्खएण समुप्पण्ण खइय चारित्त ], त वा २/४/७; स सि २/४ आदि । ३९ विशुद्धिवश गुणश्रेणी के द्वारा कर्मप्रदेशो की निर्जरा होना गुणश्रेणि निर्जरा है। "गुणश्रेणी" की परिभाषाके लिए देखो-उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी प्रायाम की परिभाषा मे । इतना विशेष जानना कि गुणश्रेणि निर्जरा कर्म की होती है, नोकर्म की नही । ध० ९/३५२ "समय पडि असखेज्जगुणाए सेढीए जो पदेससकमो सो गुणसकमो त्ति भण्णदे।" अर्थात् प्रत्येक समय असख्यातगुणी श्रेणी के द्वारा जो प्रदेश सक्रम ( अन्य प्रकृति रूप परिणमन ) होता है वह गुणसक्रम कहलाता है । जयघवल पु० ९ पृ० १७२ गो० क० जी० प्र० ४१३ आदि कहा भी है-अप्रमत्त गुणस्थान से आगे के गुणस्थानो मे बन्ध से रहित प्रकृतियो का गुणसक्रम और सर्व सक्रम होता है । धवल १६/४०९ प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कहा है कि प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रम से युक्त, अवन्ध अप्रशस्त प्रकृतियोका द्रव्य, बध्यमान स्वजातीय प्रकृतियो मे सक्रान्त होता है, यह गुणसक्रम है । ल सा. ४००, गो० क० ४१६ अर्थात् विशुद्धि के वश प्रतिसमय असख्यातगुणित वृद्धि के क्रम से मबध्यमान अशुभ प्रकृतियो के द्रव्य को जो शुभ प्रकृतियो मे दिया जाता है इसका नाम गुण सक्रम है । २३१ सूत्र-सूचित अर्थ के प्रकाशित करने का नाम चूलिका है। धवल १०/३९५ जिस अर्थ-प्ररूपणा के किये जानेपर पूर्व मे वरिणत पदार्थ के विषय मे शिष्य को निश्चय गुरगसक्रम चूलिका Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १९ ) शब्द पृष्ठ छद्मस्थ २३७ जघन्य कृष्टि ११९ १८६-१८९ दूरवर्ती परिभाषा उत्पन्न हो, वह चूलिका है । धवल ११३१४० पूर्व निरूपित अनुयोग द्वारों मे एक, दो अथवा सभी अनुयोगद्वारो से सूचित अर्थों की विशेष प्ररूपणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम चूलिका है। घवल पु० ७ पृ० ५७५ ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का नाम “छद्म" है। इस छद्म मे जो स्थित रहते हैं, उन्हे छद्मस्थ कहते है । धवल १०।२९६, धवल ११९०, धवल ११८८ सवसे स्तोक अनुभाग वाली प्रथम कृष्टि ही जघन्य कृष्टि कहलाती है। दूरवर्ती क्षेत्र मे स्थित "दूर" कहलाती है। क्ष. सार ६११ एव न्यायदीपिका पृ ४१ कहा भी है-"स्वभाव विप्रकर्षी परमाणु आदि, काल विप्रकर्षी राम, रावण आदि और देश विप्रकी हिमवान् आदि सूक्ष्म, अन्तरित एव दूरार्थ माने गये हैं।" प्रा. मी ५ ( कारिकाकार स्वामी समन्तभद्र ) पृ० ३५, ३४ अनु० मूलचन्दजी न्यायतीर्थ अत: हिमवान् पर्वत आदि “दूर" कहलाते है । (दूर अर्थात दूरवर्ती) परन्तु पचाध्यायी उ० श्लोक ४८४ मे लिखा है कि राम, रावण, चक्रवर्ती (बलभद्र, अर्द्धचक्री, चक्री ) जो हो गये हैं और जो होने वाले हैं वे दूरार्थ (दूरवर्ती) कहलाते हैं ( यथा-दूरार्था भाविनोतीता रामरावणचक्रिण ) यही बात लाटीसहिता ४-८ पर लिखी है। फर्क इतना है कि पचाध्यायी व लाटीसहिता मे काल की अपेक्षा दूर से "दूर" लिया है। परन्तु ऊपर प्रस्तुत ग्रन्थ मे एव प्राप्तमीमासा मे देश ( क्षेत्र ) की अपेक्षा दूर को "दूर" कहा है। अन्य कोई बात नहीं है। अर्थात विवक्षित कर्मद्रव्य का परप्रकृतिरूप सक्रमण होकर क्षय होना। निकटतम अन्य कषाय की प्रथम सग्रह कृष्टि मे विवक्षित कषाय के द्रव्यका सक्रमण करना परस्थान सक्रमण कहलाता है। ज. ध २१८३-८४ जो द्रव्य जिस कषाय मे सक्रमण करता है वह उसी कषायरूप परिणमन कर जाता है। जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत क्रम से की जाती है उसे पश्चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे—मैं मोक्ष सुख की इच्छा से वर्षमान स्वामीको तथा शेष तीर्थंकरो को भी नमस्कार करता हू'-यह प्ररुपणा । परमुख क्षय परस्थान सक्रमण २३३ १२०-१३६ पश्चादानुपूर्वी २३६ १ अर्थात् पहले वर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करता है। और विलोमक्रम से वर्धमान के बाद पार्श्वनाथ को, पार्श्वनाथ के बाद नेमिनाथ को; इत्यादि क्रम से शेष जिनेन्द्रो को भी नमस्कार करता हूँ। (घ. १६७४, मूलाचार १०५) यह पश्चादानुपूर्वी है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) शब्द पृष्ठ पूर्वानुपूर्वी प्रदेश ४६ परिभाषा धवल ११७४ कहा भी है-विलोमेण परुवणा पच्छाणुपुब्बी णाम । धवल ९।१३५ अर्थात् विलोम क्रम से प्ररूपणा करना पश्चादानुपूर्वी है । (ध ९।१३५ प्रथम पेरा ) जयघवल पुस्तक १ पृ २५ प्रकरण २२ ( प्रथम पेरा) मे भी कहा है कि-उस पदार्थ की विलोम क्रमसे अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक गणना करना पश्चादानुपूर्वी है। उद्दिष्ट क्रम से अर्थाधिकार की प्ररूपणा का नाम पूर्वानुपूर्वी है । (घवल ९।१३५ प्रथम पेरा ।) जो पदार्थ जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, अथवा जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है । जयघवल १।२५। जो वस्तु का विवेचन मूल से परिपाटी द्वारा किया जाता है उसे पूर्वानुपूर्वी कहते हैं । उसका उदाहरण इस प्रकार है'ऋषभनाथ की वन्दना करता हू, अजितनाथ की वन्दना करता हूँ' इत्यादि क्रम से ऋषभनाथ को प्रादि लेकर महावीरस्वामी पर्यन्त क्रम वार वन्दना करना, सो वदना सम्वन्धी पूर्वानुपूर्वी उपक्रम है । धवल ११७४ (i) जितने क्षेत्र मे एक परमाणु रहता है उसका नाम प्रदेश है । 2 स. सि. ५-८; द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र १४०, प्र. सा. ( जय.) २,४५; नियमसार पृ० ३५ अन्य विवक्षा मे--स्कन्ध के आधे के प्राधे भाग को या देश के प्राधे भाग को प्रदेश कहते हैं । 2 त० सा० ३१५७; वसुनन्दिश्राव० १७ गो० जी०, जी० प्र० ६०४, पं० का० ७५; मूला० ५-३४ ( वट्टकेराचार्य ), भाव स० ३०४, गो० जी० ६.४ प्रादि । (u) परन्तु यहा कर्म शास्त्र मे, प्रकृत मे प्रदेश शब्द से, परमाणुरूप द्रव्य जानना चाहिए। लब्धिसार-क्षपणासार मे जहा प्रदेश शब्द आया है, वहा प्रायः "कर्मपरमाणु" अर्थ मे ही प्राया है। प्रदेश = कर्मपरमाणु । ( देखो क्षपणासार गा० ४४१ पृ० ४६ आदि पर आगत प्रदेश शब्द ] (1) कार्य के विनाश का नाम प्रध्वसाभाव है। धवल १५।२६ (1) दही मे जो दूध का अभाव है वह प्रध्वसाभाव स्वरूप है । जै० ल० ३७६५ (ii) प्रध्वस अर्थात् कार्य का विघटन नामक धर्म । के नोट-ये दोनो (1) व (ii) परिभाषाए परिज्ञान मात्र के लिए दी गई है । प्रध्वसाभाव १५४ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द फालि बन्धावली मान काण्डक माया काण्डक लोभ काण्डक व्ययद्रव्य सक्रमावली संग्रहकृष्टि संग्रहकृष्टि अतर सूक्ष्म सूक्ष्मसाम्पराय कृष्टिकरण पृष्ठ ४८ ८० ८१ ८२ १२१ ९४ १००-१०१ १८६-१८६ १५० परिभाषा (IV) आगामी पर्याय में वर्तमान पर्याय के प्रभाव को प्रध्वसाभाव कहते हैं। जै० सि० प्र० १८३ ( 1 ) समय - समय मे जितना द्रव्य संक्रमित होता है वह फालि है । ( सक्रम प्रकरण मे ) ( 11 ) स्थिति काण्ड के प्रकरण में जितना द्रव्य काण्टक मे से प्रति समय अव शिष्ट नीचे की स्थिति मे दिया जाता है वह फालि है । ( 111 ) ऐसे ही उपशमन काल मे पहले समय जितना द्रव्य उपशमाया वह उपशम की प्रथम फालि, द्वितीय समय मे उपशमाया वह उसकी द्वितीय फालि इत्यादि । भावतः समुदायरूप एक क्रिया में पृथक्-पृथक् लण्ड करके विशेष करना " फालि" कहलाता है । इसे अचलावली भी कहते हैं। प्रकृति का बन्ध होने के बाद आवली मात्र कालतक वह उदय, उदीरणादिरूप होने योग्य नही होता, यही ग्रावलीकाल बन्धावली है । इसे श्रावाघावली भी कहते हैं । देखो- क्रोधकाण्डक की परिभाषा मे । 27 ( २१ ) כן 23 31 देखो - प्रायद्रव्य की परिभाषा मे । जिस आवली में समरण पाया जाय वह समावली है। 1 कोषादि सज्वलन कपायो की जो बारह नौ छः और तीन कृष्टिया होती हैं क० पा०सु० पृ० ८०६ वे ही सग्रह कृष्टिया हैं । पुन. इस एक-एक संग्रह कृष्टि की श्रवयव या अन्तर कृष्टिया अनन्त होती है । ( क० पा० सुत्त पृ० ८०६ ) क्योकि अनन्त कृष्टियों के समूह का ही नाम संग्रह कृष्टि है । (1) परस्थान गुणकार का नाम संग्रहकृष्टि ग्रन्तर है। ( जयधवल मू० २०५० ) ( 11 ) सग्रहकृष्टियो के और संग्रहकृष्टियों के प्रधस्तन- उपरिम श्रन्तर ११ होते है, उनकी सजा "सग्रहण्टिअन्तर", ऐसी है क. पा सु. पू. ७९९ सू. ६११ आदिक सूक्ष्म हैं । धर्मद्रव्य, कालाणु, पुद्गलपरमाणु आदि सूक्ष्म है । पचाध्यायी २२४०३, लाटी सहिता ४१७ घादि । परमाणु सज्वलन लोभकषाय के अनुभाग को वादर साम्परायिक कृष्टियों से भी अनन्त गुरिणत हा निरूप से परिमित करके अत्यन्त सूक्ष्म या मन्द अनुभागरूप से Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ स्थितिकाण्डककाल ५३ स्थितिबधापसरणकाल ५३ ( २२ ) परिभाषा अवस्थित करने को सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकरण कहते हैं। जयघवल मूल पृ० २१९४-९५ तथा क० पा० सुत्त पृ. ८६२ एक स्थितिकाण्डकघात मे लगने वाला काल स्थितिकाण्डककाल कहलाता है। यह अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । यह स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल भी कहलाता है। एक स्थितिबन्धापसरणकाल मे लगने वाले काल को स्थितिबन्धापसरण काल कहते हैं । यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। इसे स्थितिवन्धकाल भी कहते हैं। एक स्थितिकाण्डकका काल (यानी स्थितिकाण्डककाल) और स्थितिवधापसरण का काल परस्पर तुल्य होते हैं । ( ल० सा० गाथा ७६ पृ. ६४, ६५, ७६ क्ष० सा० पृ. ३४ प्रादि ) स्वस्वरूपसे उदित होते हुए क्षय होना । विवक्षित कषाय की सग्रह कृष्टि का द्रव्य जव अन्य संग्रह कृष्टि में सक्रमण करता है तो उस विवक्षित कपाय की ही शेष अवस्तनकृष्टियो मे मक्रमण करता है यह स्वस्थान सक्रमण है। स्वस्थान मे अर्थात् अपनी ही अन्य मग्रहकृष्टियोमे । सक्रमण करना, अर्थात् तद्रूप परिणमन करना, ऐसा अर्थ है । स्वमुखक्षय १२०-१३९ स्वस्थान सक्रमरण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २२३ २३१ २३२ २२७ २२५ १६३ २३५ २१३ ११४ क्षपणासार "टीकायामुद्धृतगाथासूचिः" गाथांश अन्य ग्रन्थ में जहां पाई हैअट्टरउद्द झारण भावसग्रह गा० ३५७ प्रण मिच्छ मिस्स ज० ध० मूल ५० २२७२ गा० १ अध थीणगिद्धि ज० ध० मूल पृ० २२७३ गा० २ तथा क०पा०सु० पृ० ७५६ गा० १२८ अविदक्कमवीचार परिणयट्टी धवल १३ १० ८७ गा० ७७ अविदक्कमवीचार सुहुम भ० प्रा० गा० १८८६ असहायरणारगदसरा ज० घ० मूल प० २२७७ गा०२ तथा धवल पु० १ पृ० १६१-६२ उदयो च अणंतगुणो ज० ध० मू०प०२२७४ गा०६ अंतोमुहत्तमद्ध ज० ध० मू० पृ० २२६१ गा० १५७ काणि वा पुत्ववद्धाणि क० पा० सु० पृ० ६१४ गा० ६२ कायवाक्यमनसा ज० ध० मू०प० २२७१ गा० १४८ तथा स्वयंभू स्तोत्र ७४ कि ट्ठिदियाणि कम्माणि क० पा० सु० पृ० ६१५ गा० ६४ के असे खीयदे पुत्व क० पा० सु० पृ० ६१५ गा० ६३ केवलणाणदिवायर ज०५० मूल पृ० २२७० गा० १ तथा धवल १/ १६१-६२ कोहस्स छहइ माणे ज० ध० मू० पृ० २२७३ गा० ५ तथा क० पा० सू० प०७६४-६५ घरवावारा केई भावसग्रह गा०३८५ चरिमे बादररागे ज० ध० मू०प०२२७४ गा० १० तथा क० पा० सु० पृ० ८७४ गा० २०६ जगते त्वया हितम ज० ध० पृ० २२७१ गा० १४७ जहसव्वसरीरगद धवल १२ पृ० ८७ गा० ७५ जाव रण छदुमत्थादो ज० ध० म०प०२२७४ गा० १२ जिण साहुगुणुक्कित्तण धवल १३ १०७६ जोगविणास किच्चा स्वा० काति० अनु० गा० ४८७ जो जम्हि सछुहतो ज० ध० मूल पृ० २२७३ गा० ६ तथा क० पा० सु० पृ० ७६५ गा० १४० जं चावि संछुहंतो ज० ध० मूल पृ० २२७४ गा० ११, क. पा० सु० पृ० ८८१ गा० २१७ तथा क० पा० सु०प० ६२५ गा०११ १६३ २२३ २३६ १६४ २२७ २३७ २२५ २२८ २३४ २३६ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २४ ) पृष्ठ २२६ २२८ १७५ २२७ गायांश झारण तह झायारो भाग सजोइकेवलि गिस्सेसखीणमोहो तव वीर्य विघ्नविलयेन तह वादरतणुविसयं तित्यय रस्त विहारो ततीयं काययोगस्य तोयमिव रणालियाए तो सुनदेवयमिणमो दण्ड प्रथमे समये द्वीन्द्रियसाधारणयोनभस्तलं पल्लवयन् २१३ २२६ २०३ २०५ १६५ २०५ २३५ पचेन्द्रियोऽथ सज्ञी यः वघेण होइ उदो २३४ वण होइ उदयो अन्य ग्रन्थ में जहां आई हैभावसग्रह गा० ६८३ भावसंग्रह गा० ६८२ गो० जी० ६२ ज० ५० मूल पृ० २२६९ गा० १४२ धवल १३ पृ०८७ गा०७६ जय ध० मूल पृ० २२७१ गा० १५० जय घ० मूल पृ० २२६० श्लोक १५६ धवल १३/८६ गा० ७४ ज० ध० मूल पृ० १९३६ जय घ० मूल पृ० २२८२ गा० १५२ जय ५० मूल पृ० २२८४ श्लोक १५५ जय घ० मूल पृ० २२७२ तथा स्वयभूस्तोत्र; पनप्रभस्तवन गा०४ ज० घ० मूल पृ० २२८४ श्लोक १५४ ज० ५० मूल पृ० २२७४ गा०८ तथा धवल पु० ६५० ३३२ गा० २७ एवं क० पा० सु० प ७७० ज०६० मूल पृ० २२७४ गा० ७ तथा क० पा० सु० पृ०७६६ गा० १४४ भावसग्रह गा० ३७१ तत्त्वानुशासन श्लोक ४७ जय ५० मूल पृ० १६३६ जय घ० मूल० पृ० २२७० गा० १४४ जय घ० मूल पृ० २२७१ गा० १४६ तत्त्वानुशासन श्लोक० ५१ प्रवचनसार गा० ७६ तथा जयघवल मूल पृ० २२७० गा० १४३ जय ५० मूल पृ० २२७३ गा० ३ तथा क० पा० सु० पृ० ७६४-६५ गा० १३६ ज० घ० मूल पृ० १६३६ भ० आ० गा० १८८७ क० पा० सुत्त० पृ० ६१४ गाथा ६१ जयघवल मूल पृष्ठ २२७३ गाथा ४ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७६४-६५ जयववल मूल पृ० २२८२ गा० १५३ २२४ मुक्ख धम्मज्झारण २२४ मुख्योपचारभेदेन मुगियपरमत्यवित्थर १६२ विरागहेतु प्रभव न विवक्षासन्निधानेऽपि सदृष्टिज्ञानवृत्तानि १९२ सपर वाहासह्यि २२४ सबस मोहणीयस्स मनुदेवयाए भत्ती सुदोमुहमम्हि कायजोगे सकामणपळवगस्त २३३ संहदि पुरिनवेदे २०३ सहरति पचमे त्वन्तराणि Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार विशेष शब्द-सूची १८०,१७६,६४,८७.८८ २३३ १६७ ६४,८७,८८ १२१,१२२,१२४ १६७,१६८ २०० २१७ २३४ अनस्थिति भतिस्थापना प्रतिस्थापनावली प्रधस्तनकृष्टि प्रध.करण अधःप्रवृत्तसंक्रम अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहार अनिवृत्तिकरण अनुत्पादानुच्छेद अतुभागकाण्डककाल अनुभागकाण्डकघात अन्तदीपक अन्तरकरण अन्तरकृष्टि अन्तरायाम अन्तरित अन्तःकोड़ाकोड़ी अन्त दिवस अन्तःवर्ष अपकर्षण अपकर्षण उत्कर्षण भागहार अपवर्तन अपवर्तनोद्वर्तनकरण अपूर्वकरण अपूर्वस्पर्धक मपूर्वस्पर्धककरण अभिसन्धि अवयवकृष्टि अवस्थित गुणश्रेणी १२ । अश्वकर्णकरण ११, १६४ असक्रामक प्रागाल प्रादोलकरण प्रानुपूर्वीसक्रमण ४६ प्राबाधा १५८ प्रायद्रव्य २,२४ पायुक्तकरण ६०,२३१ प्राजितकरण ५६ आवजितकरण केवली ४, १० ईषत् प्राग्भार पृथिवी ६७ उच्छिष्टावली उत्कीर्ण उत्कृष्ट कृष्टि उत्पादानुच्छेद १८६,१८६ उपरितनकृष्टि उपरितनस्थिति उष्टकूटश्रेणी २३६ एकत्ववितर्क प्रवोचार कपाटसमुद्घात काण्डक । कृष्टि कृष्टि अनुभवन ६०,६३,८८ कृष्टि अन्तर कृष्टिकरण १६४ केवलीसमुद्घात ६४ कोडाकोड़ी १७८ । क्रमकरण ११६ २३,६१ ११५ २१ २३६ १० १०६,११० २२२ १६७,१६६ ४८ ६४, ६६,६७ २, ११२ १००,१०१ 0Worn Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) कोषकाण्डक गलितावशेषगुणश्र णो गुपयोगि आयाम गुगघरिण निर्जरा गुणश्रेणी शीर्ष गुरगमक्रमण गोपुच्छा घातद्रव्य चालीसीय चलिका उद्मस्थ जघन्यकृष्टि जघन्य वर्गरणा डेढगणहानि तोसीय दण्डसमुद्घात दीयमान दूरवर्ती दूरापकृष्टि दृश्यमान ११६ ४६ फालि ७६ | पूर्वस्पर्धक ७२ १०, २० पूर्वानुपूर्वी २३६ १० पृथक्त्व ३१,३८,२३६ पृथक्त्व वितर्क सविचार २२२ १७७ प्रतर समुद्घात १९७, १६६ ११, २० प्रतिग्रह १५७ प्रतिग्रहस्थान १५६ १२५ प्रतिग्रह्यमारण १५७ २७,२६ प्रत्यागाल २३१ प्रत्यावली २३६. प्रथम वर्गमूल १७७ प्रदेश प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर ८६ १७३ प्रध्वंसाभाव २७, २६ ४६,४८ १९७, १९६ वादर उच्छ्वास निःश्वास २०३ ११४, १७६, १३० बादर काययोग १८६, १८६ बादर मनोयोग २०३ २६, ३०, ३१ वादर वचनयोग २०३ ११४,१३०,१५७,१६८ बीसीय २७, २८,२६ भजितव्य ४२,२ महावाचक आर्यमक्षु २०२ मानकाण्डक ८० मायाकाण्डक यति वृषभाचार्य २०२ ११३ योगनिरोध १९८ लोकपूरणसमुद्घात १६७,१९६ लोमकाण्डक ८२ २३३ वर्षपृथक्त्व २३४ विशेषहीन विसयोजना ३,२३१ १२० व्यय द्रव्य १२२,१२३,१२४,१२१ व्युपरतक्रियानिवर्ती ૨૨૭ २०,१७७ शेषशेष २६ शैलेश्य भाव १४ २१३ देशघातिकरण देशामर्शक द्रव्यवेद ध्यान नवाममय प्रवद्ध निक्षेप नि.मिचमानप्रदेशान परम्पउदय परमुगक्षय परम्यान परम्यान गुणकार परन्धानमत्रमण Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) १५० १८६ २३४ ६७,६४ १००,१०१ ४,१० २१,२३ ५३ संक्रमण संक्रान्त सग्रहकृष्टि सग्रहकृष्टिअन्तर सत्वापसरण सिद्धान्तचक्रवर्ती सूक्ष्म सूक्ष्म उच्छवास नि.श्वास सूक्ष्मकृष्टि सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती सूक्ष्ममनोयोग सूक्ष्मवचनयोग २३८ १८६,१८६ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टि स्तिवुक सक्रमण स्थितिकाण्डकघात स्थितिबन्धापसरण स्थितिबन्धापसरणकाल स्थितिसत्कर्म स्वजातीय स्वमुखक्षय स्वस्थान केवली स्वस्थानगुणकार स्वस्थान सक्रमण २०३ २३३ १७० २२५ २०३ २०३ १६६, २०० १०१ १३३ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "क्षपणासारस्य गाथानुक्रमणिका" गा सं. गाथा पृ. सं. १७२ २१० १६९ २३ २०८ ३ गा सं. गाथा ५९६/२०५ एत्तो सुहुमंतो त्ति य ६३९/२४८ एत्यापुव्वविहाण ५६३/२०२ एदेणप्पाबहुग४२०/२९ एव पल्ल जादा "प्रो" ५८४/१९३ अोक्कट्टदिइगिभाग ६३३/२४२ प्रोकड्डदि पडिसमय ६३७/२४६ ओकड्डदि पडिसमय ४७०/७६ प्रोक्कड्डिद तु देदि ४०३/१२ प्रोक्कड्डदि जे असे ४९३/१०२ प्रोक्कट्टिद दव्वस्स य ४०१/१० ओव्वट्टणा जहण्णा ४९५/१०४ अकसायकसायारण ४११/२० अणियट्टिस्स य पढने ६३६/२४५ अपुव्वादिवग्गणाण ६०८/२१७ अवगयवेदो सतो ४०९/१८ असुहाण पयडीण "श्रा" ४०६/१५ पाउगवज्जारण ठिदि ३६६/५ अादिमकरणद्धाए ४८३/६२ श्रादोलस्स य चरिमे ४८२/९१ आदोलस्स य पढमे ४८४/६३ आदोलस्स य पढमे ५२५/१३४ आयादो वयमहिय ६११/२२० आवरणदुगारण खये २०६ २०८ १२४ १६७ ४४३/५२ इदि सढ सकामिय ४६०/६६ अतरकदपढमादो ५८९/१९८ अतरपढमठिदि त्तिय ५८६/१९५ अतरपढमठिदित्तिय ५८७/१६६ अतरपढमठिदि त्तिय ५९०/१९६ अतरपढमठिदि त्तिय ४०७/१६ अतोकोडाकोडी ६२०/२२६ अतोमुत्तमाऊ १६४ १६६ १६८ १७३ ४४ १६६ ५६७/२०६ उक्किण्णे अवसारणे ४३५/४४ उक्कीरिद तु दव्व ४१४/२३ उदधिसहस्स पुषत्त ४२१/३० उदधि सहस्स पुषत्त ५२७/१३६ उदयगदसगहस्स य ५१७/१२५ उरि उदयाणा १२४ २१२ ६ ६४३/२५२ किट्टिमजोगी झारण ५०६/११५ किट्टीकरणद्धाए ६४०/२४९ किट्टीकरणे चरिमे ४६४/१०३ किट्टीयो इगिफड्ढय २८ ५१४/१२३ किट्टीवेदगपडमे ५७५/१८४ किट्टीवेदगपढमे ४७४/८३ कोहदुसेसेणवहिद १५ ५५६/१६५ कोहपढमं व मारणो २०८ ५६७/१७६ कोहस्स पढमकिट्टी १६७ । ५४७/१५६ कोहस्स पढमकिट्टी ११४ ३ ४१७/२६ एइदियट्ठिीदीदो ६३०/२३९ एक्कास णिभरण ४०८/१७ एवकेक्कठिदिखड्य ४०४/१३ एक्क च ठिदिविसेस ६३५/२४४ एत्तो करेदि किट्टि ६२०/२२६ एत्ता पदर कवाड १५७ ७९ १४४ १५१ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा सं. गाथा... पृ. स. | १२६ ११६ १३५ पृ सं. १७८ ६०३/२१२ चरिमे खडे पडिदे ६०९/२१८ चरिमे पढम विग्छ । ४१०/६६ छक्कम्मे सछुद्ध : १७९ १५७ गा. सं. गाथा ५३०/१३६ कोहस्स पढमकिट्टी ५१६/१२५ कोहस्स पढमसगह ५४२/१५१ कोहस्स पढमसगह ५३७/१४६ कोहस्स य जे पढमे ६०४/२१३ कोहस्स य पढमठिदी ५७७/१८६ कोहस्स य पढमादो ४९७/१०६ कोहस्स य माणस्स य ५४४/१५३ कोहस्स विदियकिट्टी ५४५/१५४ कोहस्स विदियसगह ५३८/१४७ कोहादि किट्टियादि ५३६/१४५ कोहादि किट्टिवेदग ४९२/१०१ कोहादीणं सगसग ४७१/८० कोहादीरामपुव्वं ४३९/४८ कोह च छुहदिमारणे ५८८/१९७ कंडयगुणचरिमठिदी س १३७ १३७ १३३ १३२ ६२६/२३५ जगपूरणम्हि एक्का ५४८/१५७ जस्स कसायस्स जं ६५३/२६२ जस्स य पायपसाए: ४७३/८२ जे हीरणा अवहारे ६२३/२३२ जोगिस्स सेसकाले - ६४४/२५३ जोगिस्स सेसकालं ६१४/२२३ ज णोकसायविग्ध६१५/२२४ जंणोकसायविग्ध ७९ १६७ 4 ७९ ४८ २१३ १८७ १८७ १६६ ६१०/२१९ खीणे घादिचउक्के ५८३ ४६७/७६ गणणादेयपदेसे ४५४/६३ गुणसेढि मणतगुणे ४४२/५१ गुणसे ढि असखेज्जा ५८३/१९२ गुणसेढि अतरहिदि ३६३/२ गुणसेढी गुणसंकम ३६७/६ गुणसेढी गुणसकम ३६८/७ गुणसेढीदीहत्तं ५८५/१९४ गुरिणय चउरादिखडे "घ" ५२६/१३५ धादयदन्वादो पुण ५०८/११७ घादितियाणं संख ५४०/१४९ घादितियाण बधो ५५२/१६१ धादितियाणं बघी ५५३/१६२ धादितियाण सत्तं ६०१/२१० घादीण मुहत्तत ४५१/६० ठिदिखडपुत्तगदे . ६२४/२३३ ठिदिखंडमसखेज्जे ४३३/४२ ठिखिडसहस्सगदे ४३१/४० ठिदिवंधपुछत्तगदे . ४३०/३९ ठिदिवधपुधत्तगदे ४५०/५९ ठिदिवधपुछत्तगदे ४१५/२४ ठिदिवसहस्सगर्दै ४१६/२५ ठिदिवधसहस्सगदे ४२६/३८ ठिदिवसहस्सगदे ४४०/४६ ठिदिवधसहस्सगदे ४८९/१८ ठिदिसत्तमघादीण ४५८/६७ ठिदिसत घादीण ११० १३३ ६१६/२२५ णा य रायदोसा ६१२/२२१ रणवणोकसायविग्ध ४७८/८७ रावफड्ढयाण करण १७६ ६१९/२२८ गवरि समुग्धादगदे ५९८/२०७ गामदुगे वेयरणीये ६२५ । ५२४/१३३ रणादि परहाणिय १४२ १७४ १२३ ६२५/२३४ चउसमएसु रसस्स य Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ स. | गा. सं. गाथा पृ. सं. १११ १० १०६ १२३ ११९ १६१ १९६ १४७ १६८ गाथा "त" ४१८/२७ तक्काले ठिदिसतं ४२६/३५ तक्काले वेयरिणय ५७६/१८८ तत्तो सुहम गच्छदि ६४५/२५४ तत्थ गुणसेढिकरण ५६१/१७० तदियगमायाचरिमे ५५८/१६७ तदियस्स माणचरिमे ४३७/४६ तस्साणुपुग्विस कम ५८१/१६० ताण पुण ठिदिसत ४७६/८५ ताहे अपुव्वफड्ढय ४४७/५२ ताहे असखगुरिणय , ५१२/१२१ ताहे कोहुच्छिट्ठ ४७५/८४ ताहे दव्ववहारो ४४६/५५ ताहे मोहो थोवो ४४५/५४ ताहे सखसहस्सं ४६३/७२ ताहे सजलणाणं ४६६/७५ ताहे सजलणाण ५३९/१४८ ताहे सजलणाण ५५१/१६० ताहे सजलणाण ३६२/१ तिकरणमुभयोसरण ५६९/२०८ तिण्ह घादीण ठिदि६४९/२५८ तिहुवरणसिहरेण मही ४२८/३७ तीदे वधसहस्से ४२३/३२ तेत्तियमेत्ते बधे ४२४/३३ तेत्तियमेत्ते बधे ४२५/३४ तेत्तियमेत्ते वधे FFru ds २८ ५०६/११८ पडिपदमणतगुरिणदा ४००/९ पडिसमयमसखगुण ५०२/१११ पडिसमयमसखगुण २१३ ५२३/१३२ पडिसमयमसखेज्जदि १४८ ४५२/६१ पडिसमय असुहाण १४६ ५२१/१३० पडिसमयं अहिगदिणा ३९९/८ पडिसमय अोक्कड्डिदि ६१८/२२७ पडिसमयं दिव्वतमं ८२ ५५९/१६८ पढमगमाया चरिमे ५६१/२०० पढमगुणसे ढिसीस ५१५/१२४ पढमस्स य सगहस्स य ४८१/९० पढमाणुभागखडे ४७९/८८ पढमादिसु दिज्जकम ४८०/८९ पढमादिसु दिस्सकम ५७३/१८२ पढमादिसु दिस्सकमं ४९६/१०५ पढमादिसगहाम्रो ५४३/१५२ पढमादिसगहाण १४२ ६४१/२५० पढमे असखभाग ४१०/१९ पढमे छठे चरिमे ५४६/१५५ पढमो विदिये तदिये ३९५/४ पल्लस्स संखभाग ४०५/१४ पल्लस्स सखभाग ४१३/२२ पल्लस्स सखभाग ४१९/२८ पल्लस्स सखभाग ४३२/४१ पुणरवि मदिपरिभोग ४५९/६८ पुरिसस्स य पढमद्विदि ६०६/२१५ पुरिसोदयेण चडिद ६५०/२५९ पुव्वण्हस्स तिजोगो १८३ ४६८/७७ पुवाणफड्डयाण ५०४/११३ पुवादिम्मि अपव्वा ६३२/२४१ पुवादिवग्गणाण १५४ ५१०/११६ पुव्वापुन्वप्फड्ढय १२७ । ५१६/१२८ पुचिल्लबघजेट्ठा १३३ १३६ २१० २२ १३८ १७४ २१७ Nurs a9 ४४४/५३ थीद्धासखेज्जा ६०७/२१६ थीपढमट्ठिदिमेत्ता १०४ ५७२/१८१ दव्वगपढमे सेसे ५७०/१७९ दव पढमे समये ५३३/१४२ दिज्जदि अणतभागे २०६ १११ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. सं. ११३ १०७ १४७ ९२ १४५ oud गाथा "व" ६०२/२११ बहुठिदिखडे तीदे ४१२/२१ बादरपढमे पढम ६२८/२३७ बादरमण वचि उस्सा ६४८/२५७ बाहत्तरि पयडीओ ५३१/१४० बधणदव्वादो पुण ५२९/१३८ वधद्दव्वाणतिम ४४१/५० बघेण होदि उदो ४५३/६२ बघेण होदि उदो ४२७/३६ बघे मोहादि कमे ४५५/६४ बवोदएहिं णियमा "म" ६४२/२४८ मज्झिमबहुभागुदया ५४९/१५८ माणतियकोहतदिये ६०५/२१४ माणतियाणुदयमहो ४८६/६५ मारणादीणहियकमा ५७६/१८५ मायातियादो लोह५६२/१७१ मासपुधत्त वासा ४२२/३१ मोहगपल्लासख aur m mm १४१ ७६ १६७ २०३ पृ सं. | गा. सं गाथा ५१३/१२२ लोहादो कोहादो १७७ २४ ५०५/११४ वारेक्कारमणत २०३ ५६०/१६६ विदियगमायाचरिमे २१६ ४९१/१०० विदियतिभागो किट्री१२६ ५५७/१६६ विदियस्स माणचरिमे १२६ ५१८/१२७ विदियादिसु चउठाणा ५७१/१८० विदियादिसु समयेसु ४७७/८६ विदियादिसु समयेसु वि ६५२/२६१ वीरिंदणदिवच्छे ५५०/१५९ वेदज्जादिििठदीए __ "स" ४७२/८१ सगसगफड्ढएहिं १४० ६२२/२३१ सट्ठाणे आवज्जिद १७६ ६२९/२३७ सण्णिविसुहुमरिण पुण्णे ४३६/४५ सत्तकरणाणि अतर४४९/५८ सत्तण्ह पढमछिदि ४४८/५७ सत्तण्ह पढमहिदि ६१३/२२२ सत्तण्ह पयडीण ४५७/६६ सत्तण्ह सकामग ३९४/३ सत्त्थारणमसत्थाणं ४६१/७० समऊणदोणि पावलि ४६९/७८ समखड सविसेस ६१७/२२६ समयट्ठिदिगो बधो ६४७/२५६ सीलेसिं सपत्तो ५९२/२०१ सुहुमद्धादो पहिया ६३१/२४० सुहुमस्स य पढमादो १०५ ५६६/१७८ सुहुमानो किट्टीमो १०५ ५६४/२०३ सुहुमारण किट्टीण १५० ५९५/२०४ सुहुमे सखसहस्से १५१ ४६२/७१ से काले ओवट्टणु१४९ ५११/१२० से काले किट्टियो१५६ । ५५४/१६३ से काले कोहल्स य 9 ४ mur men, १८७ ४६५/७४ ४८७/९६ ४६४/७३ रसखडफड्ढयायो रसठिदिखडाणेव रससत आगहिदं २१५ ~ २०६ ~ ~ ५८०/१८९ लोहस्स तिघादीण ५७८/१८७ लोहस्स विदिय किट्टि ४९६/१०८ लोहादी कोहो त्ति य ५००/१०६ लोहस्स अवरकिट्टिग ५०१/११. लोहस्स अवरकिट्टिग ५६६/१७५ लोहस्स तदियसंगह ५६८/१७७ लोहस्स पढमकिट्टी ५६३/१७२ लोहस्स पढमचरिमे ५७४/१८३ लोहस्स य तदियादो १५३ १७० १७० ६४ ११२ १४३ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) १३५ १२७ गा सं. गाथा ५४१/१५० से काले कोहस्स य ६४६/२५५ से काले जोगिजियो ५५५।१६४ से काले माणस्स य ५६५/१७४ से काले लोहस्स य ५८२/१९१ से काले सुहुमगुण ६००/२०६ से काले सो खीण६३४/२४३ सेढिपदस्स असख ६३८/२४७ सेढिपदस्स असख ५६४/१७३ सेसाण पयडीण ५०७/११६ सेसाण वस्सारण ६५१/२६० सो मे तिहुवणमहियो ४५६/६५ सकमण तदवत्थ ५२२/१३१ सकमदि सगहाण ५३४/१४३ सकमदो किट्टीण पृ संगा सं गाथा ४०२/११ सकामेदुक्कड्डदि ५३२/१४१ सखातीदगुणाणि य १४३ ५३५/१४४ सगहतरजाणं १५० ४९७/१०६ सगहगे एक्केक्के १६२ ४३८/४७ सछुहदि पुरिसवेदे १७४ ४३४/४३ सजलणारण एक्क २०६ २०८ १४९ ४८८/६७ हयकण्णकरण चरिमे ११० ५२८/१३७ हेट्ठाकिट्टिप्पहुदिसु २२६ ५०३/११२ हेठा असखभागं ६२१/२३० हेट्ठा दडस्सतो १२० ५२०/१२९ हेट्ठिमणुभयवरादो १२८ | ४८५/९४ होदि असवेज्जगुण १२५ १०६ ८८ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती विरचित लब्धिसार (सिद्धान्तबोधिनी टीका समन्वित ) सम्पादक : स्व. व. पं. रतनचन्द्र मुस्तार सहारनपुर (उ.प्र) Page #298 --------------------------------------------------------------------------  Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार विषयानुक्रमणिका ६८ ९ ७२ प्रारम्भ विषय पृष्ठ विषय मगलाचरण गुणश्रेणि निर्जराका कथन प्रथमोपशम सम्यक्त्व गुण सक्रमण का कथन प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य जीव स्थिति काण्डक का स्वरूप पचलब्धियो का नाम निर्देश स्थिति काण्डक घात की विशेषताए क्षयोपशमलब्धि-विशुद्धिलब्धि का स्वरूप ५ | अनुभाग काण्डक घात आदि का कथन देशनालन्धि का स्वरूप ६ | अनिवृत्तिकरण का स्वरूप और उसमे होने वाले कार्य ६७ प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप अन्तरकरण सम्बन्धी कथन प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता का विवेचन ७ | अन्तरकरण के पश्चात होने वाले विशेष कार्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वाभिमुख स्थितिबन्धपरिणाम प्रथमोपशम सम्यक्त्व के ग्रहणकाल मे होने वाले प्रायोग्य लब्धिकाल मे प्रकृति बंधापसरण विशेष कार्य चौंतीस प्रकृति वन्धापसरण का प्रतिपादन मिथ्यात्व को तीन भागो मे विभक्त करने की विधि ७३ चारोगतियो मे पाये जाने वाले बन्धापसरण गुण सक्रमण की सीमा और विध्यातसंक्रम का गतियोंके आधार से बध्यमान प्रकृतियो का प्रतिपादन १७ स्थिति-अनुभागबन्ध का कथन अनुभाग काण्डकोत्कीरण कालादि २५ पदो का सम्यक्त्वाभिमुख मिथ्यादृष्टि के प्रदेश विभाग २० अल्बहुत्व महादण्डको मे कथित अपुनरुक्त प्रकृतिया २१ प्रथमोपशम ग्रहणकाल मे स्थिति सत्त्व का कथन ८० प्रथमोपशम सम्यक्त्वाभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टि के देशसयम व सकलसयम के साथ प्रथमोपशम सम्यक्त्व उदययोग्य प्रकृति सम्बन्धी स्थिति-अनुभाग तथा ग्रहण करने वाले जीव के स्थिति सत्त्व प्रदेशो की उदय-उदीरणा का कथन २४ दर्शन मोहोपशम काल मे होने वाली विशेषता प्रकृत सत्त्व के सम्बन्ध मे विशेष विचार सासादन का स्वरूप एव काल का कथन सत्कर्म प्रकृतियो के स्थित्यादि सत्कर्म कथन उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी प्रारम्भिक सामग्री पूर्वक प्रायोग्यलब्धि का उपसहार उपशम सम्यक्त्व काल के अनन्तर उदययोग्य कर्म करणलब्धि का विवेचन का विशेष कथन अधःप्रवृत्तादि तीन करणो का स्वरूप दर्शन मोहनीयकर्म के अन्तरायाम पूरण का विधान ८७ अघ.करण का विशेष विवेचन सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का कार्य अपूर्वकरण का विशेष विचार मिश्र प्रकृति के उदय का कार्य गुणश्रेणी का स्वरूप निर्देश | मिथ्यात्व प्रकृति के उदय का कार्य निक्षेप व प्रतिस्थापना का विशेष कथन | प्रथमोपशम सम्यक्त्व चूलिका व्याघातापेक्षा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना क्षायिक सम्यक्त्व प्ररूपरणाउत्कर्षण सम्बन्धी विशेष निर्देश |क्षायिक सम्यक्त्वोत्पत्ति की सामग्री Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पृष्ठ ०५ ०८ १५७ विषय विषय पष्ठ दर्शन मोह की क्षपणा करने वाले प्रस्थापक देशसयम के कार्य विशेष का कथन निष्ठापक के सम्बन्ध में विशेष कथन अथाप्रवृत्तसंयत के काल मे होने वाले कार्य अनन्तानुबन्धी की विसयोजना सम्बन्धी कथन १०६ विशेष का स्पष्टीकरण १४७ विमयोजना के अनन्तर होने वाले कार्य १०६ प्रथाप्रवृत्तसयत के गुणश्रेणि द्रव्य की प्ररूपणा १४८ मिप्रतिक को चरमफालिका गुण श्रेणी मे निक्षिप्त अल्पवहुत्व की प्रतिज्ञा पूर्वक अल्पबहुत्व का कथन १४९ द्रव्य के क्रममहित प्रमाणादि का कथन देशसंयम की जघन्य-उत्कृष्टलब्धि के साथ उसके अनुभाग अपवन का निर्देश १२० अल्पबहुत्व का कथन सम्यक्त्व के पाठ वर्प प्रमाण स्थिति सत्त्व रहने जघन्य देशसयम के अविभागी प्रतिच्छेदो के प्रमाण पर होने वाले कार्य विशेप का कथन एवं उक्त सयम के भेदो व उसमे अन्तर पाठ वर्ष की स्थिति के बाद होने वाले कार्य विशेष १२२ | का निर्देश अन्तिम काण्डक का विधान १२६ देशसयम के जघन्य व उत्कृष्ट रूप से प्रतिपातादि साम्प्रतिक गुण श्रेणि के स्वरूप निर्देश पूर्वक तीन भेदो मे कौन किसमे है चरमफालि का पतनकाल १२९ देशसयम के उक्त प्रतिपातादि भेदो मे स्वामित्व कृतकृत्यवेदक मम्यक्त्व के प्रारम्भ समय मे का निर्देश १५५ अवस्था विशेप की प्ररूपणा सकलचारित्र की प्ररूपणा का प्रारम्भ प्रघ.करण के प्रथम समय से कृतकृत्यवेदक के वेदकसम्यक्त्व के योग्य मिथ्यात्वी आदि जीव के चरम समय पर्यन्त लेश्या परिवर्तन होने सकलसंयम ग्रहण समय मे होने वाली विशेषता १५७ अथवा न होने सम्बन्धी कयन १३२ देशसयम के समान सकलसयम में होने वाली कृतकृत्यवेदक काल मे पायी जाने वाली क्रिया प्रक्रिया विशेष का निर्देश विशेष १३३ जघन्यसयत के विशुद्धि सम्बन्धी अविभाग मल्पबहुत्व के कथन की प्रतिज्ञा १३६ प्रतिच्छेदो की संख्या अल्पबदुत्व के ३३ स्थानो का कथन १३६ सकलसयम सम्बन्धी प्रतिपातादि भेदो को बताते धायिक सम्यक्त्व के कारण गुण-भवसीमा हुए प्रतिपाद भेद स्थानो का कथन क्षायिकन्नधित्व आदि का कथन १४१ प्रतिपद्यमान स्थानो का कथन चारित्रलब्धि प्रधिकार अनुभय स्थानो का कथन १६२ देशायम और सकलसयमलब्धि की प्ररूपणा | सूक्ष्म साम्पराय व यथाख्यातसयम स्थान मिव्याप्ति के देगसयम की प्राप्ति के प्रतिपातादि स्थानो का विशेष कथन पर पायी जाने वाली सामग्री का कथन १६३ १४३ उपप्रम सम्परत्व के माय देशसयम को ग्रहण करने चारित्रमोहनीय उपशमनाधिकारपार गया कार्य १४४ उपशान्त कषाय वीतरागियो को नमन करके मिरवान्टिीव वेदक सम्यक्त्व के साथ देश- उपशमचान्त्रि का विधान प्ररूपण पानिवग्रहरा के समय होने वाली विशेषता -मयमरी प्राप्ति के समय से गण श्रेणिरूप' दर्शनमोह के उपशमका निर्देश, उपशमणि पर मावि प्रारोहण की योग्यता का निर्देश तथा दर्शन• १४६ / मोहोपशम मे गुणसंक्रमण के प्रभाव का प्रतिपादन १७० १५९ १६२ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय दर्शनमोहोराम के समय पाया जाने वाला स्थितिसत्त्व विशेष, प्रपूर्वकरण मे होने वाले कार्य विशेष, अन्तरकरण श्रादि का कथन दमोह के सक्रम सम्बन्धी विशेष कहापोह द्वितीयोपशमनम्नदृष्टि के विशुद्धि सम्बन्धी एकान्तानुवृद्धि काल का प्रमाण द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि के विशुद्धि में हानि-वृद्धि का कथन प्रमुख कार्य उपशम रिग में होने वाले चारि मोहोपराम विधान मे पाये जाने वाले माठ कार्य पूर्वकरण में स्थिति काण्डक का कथन अनुभाग काण्डक प्रादि के प्रमाण का निर्देश पूर्वकरण के प्रथम समय मे गुण रिण निर्जरा का प्ररूपण पूर्वकरण मे बन्ध-उदय व्युच्छित्ति को प्राप्त प्रकृतिया निवृत्तिकरण के प्रथम समय मे होने वाले कार्यों का निर्देश निवृत्तिकरण गुग्ण स्थान के प्रथम समय मे कर्मों के स्थितिबन्ध-स्थितिसत्त्व के प्रमाण का कथन निवृत्तिकरण काल मे स्थितिबन्धापसरण के क्रम से स्थितिबन्धो के क्रमशः श्रल्प होने का कथन वासरण के विषय मे विशेष कथन स्थिति बन्धो के क्रमकररणकाल मे स्थिति बन्धो का प्रमाण उक्त प्रकरण मे श्रल्पबहुत्व प्ररूपणा सम्बन्धी विशेषताए द्वितीय क्रम का निर्देश अन्य क्रम के निर्देशपूर्वक पुनरपि क्रम भेद निर्दोश क्रमकरण के उपसंहारपूर्वक उसके अन्त मे होने वाली असख्यात समय प्रवद्धो की उदीरणा का सकारण प्रतिपादन ( ३ ) पृष्ठ १७२ १७४ १७५ १८० १७७ १७७ स्थिति बन्धा पसरण के प्रमारण का निर्देश स्थिति वन्धा पसरण सम्बन्धी विशेष कथन १७९ | नपु सवेदोपशामना के पश्चात् होने वाली स्त्रीवेदोपशामना का कथन स्त्रीवेद के उपशमन काल मे होने वाले कार्य विशेष १८० १७६ २०० १७६ | उदीरणा और उदयादिरूप द्रव्यसम्बन्धी अल्पबहुत्व २०१ स्थिति काण्डकादि के प्रभाव का निर्देश २.२ २०३ २०४ १८१ १८३ १८३ १८५ विषय देश घातिकरण का कथन अन्तरकरण का निरूपण अन्तरकरण की विधि का प्रतिपादन अन्तरकरण की निष्पत्ति के अनन्तर समय मे होने वाली क्रिया विशेष चारित्रमोहोपशम का क्रम उक्त क्रम मे सर्वप्रथम नपुंसक वेद का उपशम विधान १८८ १८५ १६० पुरुषवेद की प्रथम स्थिति मे दो श्रावलि शेष रहने पर होने वाली क्रियान्तर छह नो कषाय के द्रव्य का पुरुष वेद मे सक्रमित होने का निषेध १८६ | क्रोध द्रव्य के क्रम का विशेष २०५ सात नोकषायोपशामना एव क्रिया विशेष का कथन २०६ पुरुषवेद के उपशमनकाल के अन्तिम समय मे स्थिति बन्ध प्रमाण प्ररूपणा पृष्ठ १९१ १९३ १६५ उपशमनावली के अन्तिम समय मे होने वाली क्रिया विशेष मानत्रय का उपशम विधान प्रत्यावलि मे एक समय शेष रहने पर होने १८६ वाले कार्य १९७ १९६ माया की प्रथम स्थिति करने का निर्देश मायात्रय के उपशम विधान का कथन लोभय के उपशम विधान का कथन २०४ २०६ पुरुष वेद सम्बन्धी नवकबन्ध के उपशम का विधान २०६ अपगत वेद के प्रथम समय मे स्थितिबन्ध का कथन अपगतवेदी के अन्य कार्य २१० २११ २१२ २०८ २०८ २१३ २१४ २१६ २१७ २१८ २२० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय संज्वलन लोभ के अनुभागसत्व की कृष्टिकरण दिषि संचालन सोभ सम्बन्धी कृष्टियो की निक्षेपण विधि द्वितीयादि समयो मे निक्षेपण का कथन कृष्टिगत द्रव्यों के विभाग का निर्देश तृतीयादि समय मे कृष्टियो के विशेष रूपन पूर्वक निशंपद्रव्य के पूर्व अपूर्वगत सचि विशेष का कथन कृष्टियो का शक्ति सम्बन्धी प्रत्पबहुत्व कृष्टिकरण काल मे स्थितिवन्ध के प्रमाण की प्ररूपणा सक्रमणकाल सम्बन्धी अवधि का विचार लोभनय की उपशमन विधि सूक्ष्म साम्पराय मे किये जाने वाले कार्य विशेष सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान के प्रथम समय मे उदीयमान कृष्टियों का निर्देश द्वितीयादि समय मे उदयानुकृष्टि का निर्देश सूक्ष्मकृष्टि द्रव्य के उपशम की विधि एवं सूक्ष्मसाम्पराय के अन्त में कर्मों के स्थिति बन्ध का निर्देश ( ४ ) उपशान्तकपाय वीतरागी के कालक्षयरूप पतन कारण का प्ररूपण उपान्यरूपाय से गिरकर सूक्ष्मसाम्पराय गुण स्यान को प्राप्त जीव के कार्य विशेष पृष्ठ २२१ २२२ २२३ २२४ मानवेदक जीव के कार्य विशेष संज्वलन कोष में होने वाली क्रिया विशेष का विचार अवरोहक नवम गुण स्थानवर्ती के पुरुपोदयकाल सम्बन्धी किया विशेष स्त्रीवेद के उपशम के विनाश को प्ररूपणा नपुसकवेद के विनाश व उस समय होने वाली क्रिया विशेष उतरते हुए लोभसक्रमण, बधावति व्यतीत होने पर उदीरणा की प्ररूपणा २३८ | क्रमकरण के नाश का विधान २३२ २३४ २३५ २३७ २३७ २३९ २४० विषय अवरोहण (पतन) को घपेक्षा नवम गुण स्थान को प्राप्त जीव की क्रिया विशेष का कथन मायावेदक के क्रिया विशेष २४१ २४२ २४३ अवरोहक प्रनिवृतिकरण के चरम समय का स्थितिवन्ध प्रवरोहणापेक्षा प्रपूर्वकरण मे होने वाले कार्य विशेष पूर्वोक कथन का उपसंहार उपशान्तकपाय कब होता है ? इसका निर्देश उपशान्तकषाय गुण स्थान के काल का कथन करते हुए विशेष स्पष्टीकरण उक्त गुण स्थान मे उदय योग्य ५९ प्रकृतियो मे श्रवस्थित मनवस्थितवेदन वाली प्रकृतियो का विभाजन चारित्र मोहोपशामना परिशिष्ट अधिकार उपशान्तकषाय से अध पतन कथनाधिकारउपशान्तकपाय वीतरागी के भवक्षयरूप पतन कारण का विवेचन २५३ उपसमधे णि चढने वाले १२ प्रकार के जीवों की २५४ क्रिया में पाये जाने वाले भेद का कथन उपशम सी मे धल्पबहुत्व के कथन की प्रतिज्ञा २५५ पुरस्सर मल्पबहुत्व स्थानों का कचन ૨૪૬ २४९ पृष्ठ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के कालका प्रमाण द्वितीयोपशम सम्ययस्व से सासादन को प्राप्त जीव मरण का कपन करते हुए सासादनवर्ती जीव का मन्य गतित्रय मे मरण नही होने का कारण उप रिए से उतरते हुए जीव के सासादन की प्राप्ति का अभाव २५९ २६१ २६३ २६४ २६६ २६५ २७० अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय मे अवस्थित गुण ि २८२ प्राचीन गुण के विशेष निर्देश २८४ स्वस्वान सवमी के गुण खि भायाम के तीन स्थान २६५ अवरोहरू अप्रमत्त श्रघ प्रवृत्तकरण में सक्रम २४४ विशेष का कपन २७१ २७४ २८० २=१ २०६ २०६ २८५ २८९ २९० २६७ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि घसार "सिद्धान्तबोधिनी हिन्दोटीका" "मंगलाचरणम्" सिद्धे जिणिंदचंदे आयरिय उवज्झाय साहुगणे । वंदिय सम्मदसण-चरित्तलद्धिं परूवेमो ॥१॥ अर्थ-मैं नेमिचन्द्रप्राचार्य सिद्ध-अरिहन्त-प्राचार्य-उपाध्याय तथा सर्वसाधुनो को नमस्कार करके सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति (के उपाय) को कहू गा । विशेषार्थ-चन्द्रमाके समान सम्पूर्णलोकके प्रकाशक अरहन्त भगवान्को, जिनके सभी कार्य सिद्ध होनेसे जो कृतकृत्य हो गये है अर्थात् जिन्होने सम्पूर्णकर्मोका क्षय कर दिया है ऐसे सिद्ध भगवान्को, तेरहप्रकारके चारित्रमे जो स्वय प्रवृत्ति करते है तथा अन्यको प्रवृत्ति कराते है ऐसे आचार्यको, जिनवाणीके पठन-पाठनमे रत उपाध्यायो को और रत्नत्रयके साधक साधुगणोको अर्थात् इन पचपरमेष्ठियोको नमस्कार करके श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीने लब्धिसारग्रन्थको कहनेकी प्रतिज्ञा की है। इस लब्धिसार ग्रन्थमे सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र की प्राप्तिके उपायका कथन किया जावेगा। प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिके योग्य जीवको बताते हैं'चदुगदिमिच्छो संगणी पुण्णो गब्भज विसुद्ध सागारो। पदमुवसमं स गिबहदि पंचमवरल द्धिचरिमम्हि ।।२॥ १. दृश्यता षट्खण्डागम, जीवस्थान चूलिका (अष्टमी) सूत्र ४ एव किंचित् पाठान्तरेण जीवकाडेऽपि आगता गाथेयं । (गो. जी. गा. ६५२) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २) লগিৰ [ गाथा २ अर्थ-चारोगतिका मिथ्यादृष्टि-सज्ञी-पर्याप्त-गर्भज-विशुद्धपरिणामी-साकारोपयोगी जीव अतिम पचमलब्धिका अत होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है। विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करनेवाला जीव सामान्यरूपसे चारो ही गतियोमे होता है । 'सण्णी' पदसे तिर्यञ्चगति सम्बन्धी एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असज्ञी पचेन्द्रिय जीवोका प्रतिषेध किया गया है। पर्याप्तावस्थामे ही सम्यक्त्वोत्पत्ति की योग्यता होती है, अपर्याप्तावस्थामे नही इसलिये 'पुण्णो' विशेषण दिया गया है। लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्तावस्थाको छोडकर नियमसे सजीपचेन्द्रियपर्याप्तजीव ही प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके योग्य होता है'। नरकगतिसम्बन्धी सर्व नारकपृथ्वियोके सभी इन्द्रकविलोमे, सर्व श्रेणिवद्ध व प्रकीर्णकबिलोमे विद्यमान नारकीजीव यथोक्तसामग्रीसे परिणत होकर वेदनाअभिभवादि कारणोसे प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है । भवनवासियोके जितने आवास है, उन सभीमे उत्पन्न हुए जीव जिनबिम्बदर्शन और देवर्धिदर्शनादि कारणोसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करते है । सर्व द्वीप और समुद्रोमे रहनेवाले सजीपचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त तथा ढाईद्वीप-समुद्रोमे सख्यातवर्षकी आयुवाले गर्भज और असख्यातवर्पकी आयुवाले सभी मनुष्य जातिस्मरण, धर्मश्रवणादि निमित्तोसे अपने-अपने लिए सर्वत्र प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है, यहा देशविशेषका नियम नही है । शका-त्रसजीवोसे रहित असख्यातसमुद्रोमे तिर्यञ्चोका प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करना कैसे सम्भव है ? समाधान-उन असख्यातसमुद्रोमे भी बैरीदेवोके द्वारा ले जाये गये तिर्यचोके प्रथमोपणमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति पाई जाती है। असख्यातद्वीप-समुद्रोमे जो व्यन्तरावास है उन सभीमे वर्तमान वानव्यन्तरदेव जिनमहिमादर्शनादि कारणोंसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करते है। ज्योतिषीदेव भी जिनविम्बदर्शन और देवद्धिदर्शनादि कारणोसे सर्वत्र प्रथमोपशमसम्यग्दर्शनको उत्पन्नकरनेके योग्य होते है । सौधर्मकल्पसे उपरिमग्न वेयकपर्यन्त सर्वत्र विद्यमान और अपनी-अपनी जातिसे सम्बन्धित सम्यक्त्वोत्पत्तिके कारणोसे परिणत हुए देव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करते है। .. १ ज घ. पु १२ पृ. २६७ । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २ ] लब्धिसार ___शंका-उनसे (उपरिमन वेयकसे) आगे अनुदिश और अनुत्तरविमानवासीदेवोमे प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति क्यो नही होती ? ___समाधान-अनुदिंश व अनुत्तरविमानोमे प्रथमोपशमंसम्यक्त्वकी उत्पत्ति नही होती, क्योंकि उनमें सम्यग्दृष्टिजीवोंके ही उत्पन्न होनेका नियम है । आभियोग्य और किल्विषिकादि अनुत्तमदेवोमे भी यथोक्त हेतुअोका सन्निधान होनेपर प्रथमोपशमसम्यवत्वकी उत्पत्ति अविरुद्ध है' । तिर्यञ्च व मनुष्योमे गर्भजको ही प्रथमोपशमसम्यक्त्व होता है, सम्मूर्छनको नही होता । दर्शनमोहके उपशामक जीव विशुद्धपरिणामी ही होते है, अविशुद्धपरिणामी नही । अधःप्रवृत्तकरणके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्तसे लेकर अनन्तगुणी विशुद्धि प्रारम्भ हो जाती है। शंका-ऐसा किस कारणसे है ? ___समाधान-जो जीव अतिदुस्तर मिथ्यात्वरूपी गर्तसे उद्धार करनेका मनवाला है, जो अलब्धपूर्व सम्यक्त्वरूपी रत्नको प्राप्त करनेकी तीव्र इच्छावाला है जो प्रतिसमय क्षयोपशमलब्धि और देशनालब्धि आदि के बलसे वृद्धिगत सामर्थ्यवाला है और जिसके सवेग व निर्वेदसे उत्तरोत्तर हर्षमे वृद्धि हो रही है उसके प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी प्राप्ति होनेका निषेध नही है । जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है। अर्थके ग्रहणरूप आत्म परिणामको भी उपयोग कहते है । उपयोगके साकार और अनाकारके भेदसे दो प्रकार है। इनमें से सांकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है, इनके क्रमसे मतिज्ञानादिक और चक्षुदर्शनादिक भेद है । दर्शनमोहका उपशामकजीव साकारोपयोगसे परिणत होता हा प्रथमोपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, क्योकि अविमर्शक और सामान्यमात्राही चेतनाकार दर्शनोपयोगके द्वारा विमर्शकस्वरूप तत्वार्थश्रद्धानलक्षण सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके प्रति अभिमुखपना नहीं बन सकता। इसलिए मति-श्र तअजान ( कुमति व कुश्रु तज्ञान ) से या विभगज्ञानसे परिणत होकर यह जीव प्रथमोपणम १. जं. घ. पु. १२ पृ. २९८ से ३०० । २. ज.ध. पु. १२. पृ. २०० । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ ] लब्धिसार [ गाथा ३ सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेके योग्य होता है ' । विमर्शकका अर्थ है किसी तथ्यका अनुसवान, किसी विपयका विवेचन या विचार | सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदकसम्यग्दृष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त नही होता है, क्योकि इन जीवोके प्रथमोपशमसम्यक्त्वरूप परिणमन होनेकी शक्तिका अभाव है । उपशमश्र णिपर चढनेवाले वेदकसम्यग्दृष्टिजीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्वका 'प्रथमोपशमसम्यक्त्व' यह नाम नही है, क्योकि उस उपशमश्र णिवाले उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति सम्यक्त्वपूर्वक होती है इसलिये प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिए । अथानन्तर सम्यक्त्वोत्पत्तिसे पूर्व मिथ्यात्वगुणस्थानमें जो पांचलब्धियां होती हैं उनका व्याख्यान करते हैं अर्थ - क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य व करणलब्धि ये पाच लब्धियां है उनमेसे चार लब्धिया तो सामान्य है तथा कररणलब्धिके होनेपर ( उपशम) सम्यक्त्व या चारित्र अवश्य होता है । विशेषार्थ - यहा गाथामे जो 'सामण्णा' शब्द है इसका प्रयोग आगे गाथा ७ व १५ मे भी हुआ है, किन्तु प्रत्येकगाथामे 'सामण्णा' शब्द विभिन्न विषयोका द्योतक हे । यहापर 'करण सम्मत्तचारिते' से यह स्पष्ट हो जाता है कि करणलब्धिसे पूर्वकी 'खयवसमियविसोढी देणपाउग्गकरणलद्धि य । चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तवारिते ॥ ३ ॥ ज ध. पु १२ पृ २०३ - २०४ २ 'नम्यन्दृष्टिरेव द्वितीयोपशम प्राप्नोति, ' ध. पु १ पृ २११-१२, मूलाचार अ. १२ गा २०५ की टीका, स्वामिकार्तिकेयानप्रक्षा गा ४८४ की टीका । ३ ፡ 3 घ. पु ६ पृ. २०६७ व व पु १ पृ ४१० । ६.पृ २०५, पर तत्र चतुर्थचरणे "करण पुरण होइ सम्मत्त" इति पाठ । इयमेव गाथा धनाजी त्रस्थान चूलिकाया (पप्ठे पुस्तके) अप्यागता, व पु ६ पृ. १३६; गो जी. गा. ६५१ । चनारिनि लद्धीश्री भवियाभवियमिच्छाइट्ठीरण साहारणाओ । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५ गाथा ४-५ ] लब्धिसार (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना व प्रायोग्य) चार लब्धियां होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नही है, किन्तु करणलब्धिके प्रारम्भ होनेपर प्रथमोपशमसम्यक्त्व अवश्य उत्पन्न होगा। जिन जीवोको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होना है उनको तथा जिनको नही होना है उनको भी क्षयोपशमादि चारलब्धिया हो जाती है। अत. प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति और अनुत्पत्तिकी अपेक्षा आदिकी चारो लब्धिया साधारण ( सामान्य ) है। अब क्रमप्राप्त क्षयोपशमलब्धिका स्वरूप कहते हैकम्ममलपडलसत्ती पडिसमयमणंतगुणविहीणकमा । होद्णुदीरदि जदा तदा खोवसमलद्धी दु ॥४॥ अर्थ-प्रतिसमय क्रमसे अनन्तगुणी हीन होकर कर्ममलपटल शक्तिकी जब उदीरणा होती है तब क्षयोपशम लब्धि होती है। .. विशेषार्थ- पूर्वसचित कर्मोके मलरूप पटलके अर्थात् अप्रशस्त (पाप) कर्मोके अनुभागस्पर्धक जिससमय विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुणहीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होते है उससमय, क्षयोपशमलब्धि होती है। अब विशुद्धिलब्धिका स्वरूप कहते हैमादिमलद्रिभवो जो भावो जीवस्त सादपदीणं । सस्थाणं पयडीणं बंधणजोगो विसुखलद्धी सो ॥५॥ अर्थ-आदि (प्रथम) लब्धि होनेपर साताअादि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियोके बन्धयोग्य जो जीवके परिणाम वह विशुद्धिलब्धि है। विशेषार्थ-प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरित अनुभागस्पर्धकोसे उत्पन्न हुआ साताअादि शुभकर्मोके बन्धका निमित्तभूत और असाताआदि अशुभकर्मोके बन्धका विरोधी जो जीवका परिणाम, वह विशुद्धि है उसकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है। १. २ ध. पु. ६ पृ. २०४। घ. पु ६ पृ. २०४। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [गाथा ६ अथानन्तर देशनालब्धिका स्वरूप कहते हैंछंदवणवपयत्थोवदेसयर रिपहुदिलाहो जो । देसिदपत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी हूँ ॥६॥ अर्थ-छहद्रव्य और नवपदार्थका उपदेश देनेवाले आचार्यश्रादिका लाभ अथवा उपदेशित पदार्थोको धारण करनेका लाभ, यह तृतीयलब्धि है । विशेषार्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छहद्रव्योके और जीव, अजीव, आस्रव, वध, सवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन नौ पदार्थोके उपदेशका नाम 'देशना" है । उस देशनासे परिणत प्राचार्यादिकी उपलब्धिको और उपदिष्ट अर्थक ग्रहण, धारण तथा विचारणकी शक्तिके समागमको देशनालब्धि कहते है। ___गाथाके अन्तमे 'दु' शब्द आया है उसके द्वारा वेदनानुभव, जातिस्मरण, जिनविम्वदर्शन, देवऋद्धि दर्शनादि कारणोका ग्रहण होता है, क्योकि इन कारणोसे नैसर्गिक प्रथमोपणमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है। जो प्रथमोपशमसम्यक्त्व धर्मोपदेशके विना जिनविम्वदर्शनादि कारणोसे उत्पन्न होता है वह नैसर्गिकसम्यग्दर्शन है, क्योकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शनके बिना नैसर्गिक प्रथमसम्यग्दर्शनका उत्पन्न होना असम्भव है । जिनविम्बदर्शनसे निधत्ति और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्बदर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमे कारण होता है । जिनपूजा, वदना और नमस्कारसे भी बहुत कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होती है । सामान्यरूपसे भवस्मरण (जातिस्मरण) के द्वारा सम्यक्त्वकी उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु धर्मबुद्धिसे पूर्वभवमे किये गये मिथ्यानुष्ठानोकी विफलताका दर्शन प्रथमोपशमसम्यक्त्वके लिए कारण होता है। १ व पु.६ पृ २०४। २ "वाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम्” [सर्वार्थसिद्धि १।३ व राजवार्तिक १।३।५] ३ जाइस्म जिविवदसणेहिं विणा उप्पज्जमाणणइसग्गियपढमसम्मत्तस्स असभावादो ( घ. पु. पृ ४३१) ४ ध पु ६ पृ ४२७ । ५. ध पु. १० पृ २८६ । ६ घ पु ६ प ४२२ । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार अब प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप कहते हैं तोकोडाकोडी विद्वाणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभव्वेषु सामण्णा ||७|| गाथा ७-८ ] अर्थ — कर्मोकी स्थितिको अन्त कोडाकोड़ी तथा अनुभागको द्विस्थानिक करने को प्रायोग्यलब्धि कहते है । यह लब्धि भव्य और अभव्य के समानरूपसे होती है । विशेषार्थ - प्रत. कोडाकोडीसागर कर्मस्थिति रह जानेपर सज्ञीपचेन्द्रियपर्याप्तजीवके प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता होती है । इस प्रायोग्यलब्धिमे इतनी विशुद्धता हो जाती है | कि सर्वकर्मोकी उत्कृष्टस्थितिका काण्डकघातके द्वारा घातकरके अन्तं॰कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थिति कर देता है तथा अप्रशस्तप्रकृतियोके चतु स्थानीय अनुभागको घातकरके द्विस्थानीय अनुभागमे स्थापन कर देता है अर्थात् घातियाकर्मोका अनुभागलता-दारुरूप और अप्रशस्त अघातियाकर्मीका अनुभाग निम्ब - काजीररूप द्विस्थानगत शेष रह जाता है, किन्तु प्रशस्तप्रकृतियोका अनुभाग गुड-खाड -शर्करा और अमृतरूप चतु स्थानीय ही होता है, क्योकि विशुद्धिके द्वारा प्रशस्त प्रकृतियो के अनुभागका घात नही होता है' । इन अवस्था के होनेपर करण अर्थात् पचम करणलब्धि होनेके योग्य भाव पाए जाते है । इतनी विशुद्धि भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक इन दोनो प्रकारके जीवोके हो सकती है; इसबात को बतलानेके लिए गाथा मे ' भव्वाभव्वेसु सामण्णा' पद दिया है; इसमे किसी भी आचार्यको विवाद नही है । अथानन्तर प्रसंगप्राप्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणकी योग्यताका प्रतिपादन करते हैं [ ७ जेवर द्विदिबंधे जेवरट्ठदितियाण सत्ते य । णय पडिवज्जदि पढसमसम्मं मिच्छजीवो हु ||८|| गाथार्थ - उत्कृष्ट अथवा जघन्यस्थितिबन्ध करनेवाले तथा स्थिति अनुभाग व प्रदेश इन तीनोके उत्कृष्ट या जघन्य सत्त्ववाले मिथ्यादृष्टिजीवके प्रथमोपणमसम्यक्त्व उत्पन्न नही होता । १. ध. पु ६ पृ. २०९ एवं घ. पु. १२ पृ १८ व ३५ । २. ध. पु ६ पृ २०५ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लव्विसार [ गाथा ८ विशेषार्थ - जो सर्वपर्याप्तियोसे पर्याप्त है, साकार जागृत श्रुतोपयोगसे उपयुक्त है, उत्कृप्टस्थितिवन्धके साथ उत्कृष्टस्थितिबन्धके योग्य संक्लेश परिणामवाला है अथवा ईषत् मध्यमसक्लेशपरिणामवाला है ऐसा कोई एक सजीपंचेन्द्रियमिथ्यादृष्टिजीव सातकर्मो (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र व अन्तराय) के उत्कृष्टस्थितिवन्धका स्वामी है' । जो अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिकक्षपंक अन्तिमबंध मे अवस्थित है, ऐसा सम्यग्दृष्टिजीव छहकर्मो ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र व ग्रन्तराय ) के जघन्यस्थितिवन्धका स्वामी है । जो अनिवृत्तिकररणक्षपक अंतिमस्थितिवन्धमे अवस्थित है वह मोहनीयकर्मके जघन्यस्थितिबन्धका स्वामी है' । उत्कृष्टविशुद्धिके द्वारा जो स्थितिबन्ध होता है वह जघन्य होता है, क्योकि सर्वस्थितियोके प्रशस्तभावका अभाव है । सक्लेशकी वृद्धिसे सर्वप्रकृतिसम्बन्धी स्थितियोंकी वृद्धि होती हैं और विशुद्धिकी वृद्धिसे उन्ही स्थितियोकी हानि होती है । असातावेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम सक्लेशित और साताके बंधनेयोग्य परिणाम विशुद्ध होते हैं । जो चतु स्थानीय यवमध्यके ऊपर अन्त कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिको वांधता हुया स्थित है और अनन्तर उत्कृष्टसक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्टस्थितिका बन्ध किया है ऐसे किसी भी मिथ्यादृष्टिजीवके उत्कृष्टस्थितिसत्त्व होता है । किसी भी क्षपकजीवके सकषायावस्थाके अन्तिमसमयमे अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके चरमसमयमें मोहनीयकर्मका जघन्यस्थितिसत्त्व होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मोंका जघन्यस्थितिसत्त्व क्षीणमोह गुणस्थानके अन्तिमसमयमे होता है । चार अघातिया कर्मों का जघन्यस्थितिसत्त्व प्रयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमे होता है, क्योकि इन सर्वक्रर्मोका वहा-वहा एकसमयमात्र स्थितिसत्त्व पाया जाता है । जो जीव उत्कृप्टननुभागका वन्च करके जबतक उस अनुभागका घात नही करता तवतक वह जीव उत्कृष्ट अनुभागनत्त्ववाला होता हैं । सकषाय क्षपकके अर्थात् दसवेगुणस्थानके अन्तिमसमयमे मोह्नीयकर्मका जघन्यअनुभाग सत्त्व होता है । शेष तीन घातिया कर्मों का जघन्यग्रनुभागमत्त्व क्षीरणमोहगुणस्थानके अन्तिमसमय में होता है और उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व गुणित ८ 1 १ महाबन्ध पृ २ पृ ३३ ॥ ÷ 1. و ६ पु११ पृ ३१४ । ३ पृ १६ । ज.धपु ५ पृ ११ । २. महावन्व पु २ पृ. ४० । ४ धपु ६ १८० । ६ ८. ज. व. पु३ पृ. २० । जघ. पु. ५ पृ १५ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६-१० ] लब्धिसार [६ कर्माशिकके सातवें नरकमें चरमसमयमें होता है । क्षपितकर्माशिकके दसवेगुणस्थानके अन्तिमसमयमे मोहनीयकर्मका और १२वे गुणस्थानके चरमसमयमे तीनघातिया कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्त्व है । विशेष जाननेके लिए ध पु १० देखना चाहिए । स्वामित्वसम्बन्धी उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्कृष्ट स्थितिबन्ध व उत्कृष्टस्थिति-अनुभाग व प्रदेशसत्त्व उत्कृष्टसक्लेशपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीवके होता है जिसके उत्कृष्टसक्लेशके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नही हो सकता तथा जघन्यस्थितिबन्ध व जघन्यस्थिति-अनुभाग-प्रदेशसत्त्व क्षपकणिमे होता है वहापर तो क्षायिकसम्यक्त्व होता है। अब आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुखजीवके स्थितिबंधपरिणामोंको कहते हैं सम्मत्तहिमुह मिच्छो विसोहिवडीहि वड्डमाणो हु। अंतोकोडाकोडिं सत्तण्इं बंधणं कुणदी ॥६॥ अर्थ-विशुद्धिकी वृद्धिद्वारा वर्धमान तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव सातकर्मोका अन्त कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिबन्ध करता है । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सभी मिथ्यादृष्टिजीव एककोडाकोडीसागरके भीतरकी स्थिति अर्थात् अन्त कोडाकोडीसागरोपमको बांधता है, इससे बाहर अर्थात् अधिक स्थितिको नही बाधता' । कहा भी है-स्थितिबन्ध भी इन्ही अर्थात बधनेवाली प्रकृतियोका अन्त कोडाकोडीसागरोपमप्रमाण ही होता है, क्योकि यह अर्थात प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीव विशुद्धतरपरिणामोसे युक्त होता है । अथानन्तर प्रायोग्यलब्धिकालमें प्रकृतिबंधापसरणको कहते हैं तत्तो उदय सदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय । बंधम्मि पयडि बंधुच्छेदपदा होंति चोत्तीसा॥१०॥ पर्थ-उससे अर्थात् अन्त कोडाकोड़ीसागर स्थितिसे पृथक्त्व सौ सागरहीन स्थितिको बाधकर पुनः पुनः पृथक्त्व १०० सागर घटाकर स्थितिवन्ध करनेपर प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्ति के ३४ स्थान होते है । १. ध. पु. ६ पृ. १३५। २. ज.ध. पु. १२ पृ. २१३ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] -लब्धिसार [ गाथा-११-१५ विशेषार्थ-अन्त-कोडाकोडीसागरोपम - स्थितिवन्धसे पृथक्त्व :-१०० सौगरप्रमाग स्थितिवन्ध घटनेका क्रम इसप्रकार है-अन्त कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाणं स्थितिवधसे पत्यवे सत्यातवेभागसे हीन स्थितिको अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त-समानता लिये हुए ही बाधता है, फिर उसने पल्यके संख्यातवेभागहीन - स्थितिको अन्तर्मुहूर्ततक वाधता है । इसप्रकार पल्यवे मध्यातवेभागहीन क्रमसे एकपल्यहीन अन्तःकोडाकोडीसागरोपम स्थितिको अतमुहर्ततक वाचता है तथा इसी पल्यके - सख्यातवेभाग-हीन क्रमसे स्थिंतिवन्धापसरण करता हुआ दो पल्यसे हीन, तीनपल्यसे हीन इत्यादि स्थितिको अतमुहूर्ततक बांधता है। पुन इसीक्रमसे आगे-आगे स्थितिवन्धका ह्रास करता हुआ एक सागरसे हीन, दो सागरने हीन, तीन सागरसे हीन इत्यादि क्रमसे सात-पाठसौ सागरोपमोसे हीन अत - कोटाकोटीप्रमाण स्थितिको जिससमय बाधने लगता है, उससमय प्रकृतिवध-व्युच्छित्तित्प एकबन्धापसरण होता है। उपर्युक्त क्रमसे ही स्थितिबन्धका ह्रास होता है और जब वह ह्रास सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमित हो जाता है तव प्रकृति वन्ध व्युच्छित्तिरून मग बन्धापनरंग होता है । यहीक्रम आगे भी जानना चाहिए'। . - आगे चौतिस प्रकृतिबंधापसरणों को पांच गाथाओके द्वारा कहते हैं- . भाऊ पडि णियद्गे, सुहुमतिये सुहुमदोरिण पत्तेयं । वादरजुन दोगिण पदे, अपुराणजुद बितिचलरिणसण्णीसु ॥११॥ भट्ट अपुण्णपदेलु वि, पुण्णेण जुहेसु तेसुं तुरियपदे। एइंदिय आदाब, थावरणामं च मिलिदव्वं ॥१२॥ तिरिगदगुज्जोवो वि य, णीचे अपसत्थगमणदुभगतिए । हुंडासंपत्ते वि य, णउंसए वामखीलीए , ॥१३॥ खुज्जद्धं णाराए, इत्थीवेदे य सादिणाराए । .. णगोधवज्जणारा ए मणुओरालदुगबज्जे ॥१४॥ . . अधिरयसभ जस अरदी, सोयप्रसादे य होंति चउतीमा । । यंधोसरणट्रागा, भवाभवेत सामण्णा ॥१५॥ , मान्यतटीग के प्राधान्से लिखा है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 गाथा १५]] लब्धिसार ... अर्थ-आयुबन्धयुच्छित्ति स्थानोंके पश्चात् क्रमश नरकद्विक, सूक्ष्मादि तीन, सूक्ष्मादि दो व प्रत्येक, बादर-अपर्याप्त-साधारणे, बादर-अपर्याप्त प्रत्येक, अपर्याप्तद्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-वीन्द्रिय, अपर्याप्तचतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त-असज्ञी-पचेन्द्रिय, अपर्याप्तसज्ञीपचेन्द्रिय ॥११॥ आठ पदोमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिएं, किन्तु चतुर्थपद एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर भी मिलाना चाहिए । अर्थात् ( पूर्वोक्त छठे पदंसें १३वे पदतक ८ पदोमे अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोडना चाहिए)। तिर्यञ्चद्विक व उद्योत, नीचगोत्रं, अप्रशस्तविहायोगति और दुर्भगादि तीन (' दुर्भग-दुःस्वर-अनादेयं, हुण्डसस्थान-सृपाटिकासंहनन, न सकवेद, वामनसस्थान व कीलितसहर्नन । कुजसंस्थानअर्धनाराचसहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसस्थान-नाराचसहनन, न्यग्रोधसंस्थान-वज्रवाराच' सहनन, मनुष्यगतिद्विक (मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी )-औदारिककि (ौदारिक शरीर-ग्रौदारिकअंङ्गोपाङ्ग)-वज्रर्षभनाराचसहनन । अस्थिर-अंशुभ-अयश कीति परति शोक व असातावेदनीयकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । ये ३४ 'बन्धापसरणस्थान भव्य वं अभव्यके समानरूपसे होते है ।। . . . . . . . . शिवाय सात-आठसा सागरापमत हान . अन्त कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिको जिससम्य बाधने लगता है उससमय एक नरकायु प्रकृति 'बन्धसे. व्युच्छिन्न. होती हैं, उससे सांगरोपमशत पृथक्त्व नीचे अपसरणकरके तिर्यञ्चायुकी 'बधुव्युच्छिति होती है, उससे सांगरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्याँयुकां बन्धव्युच्छेद होता है. तथा उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे 'उतरकर देवायुको बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन दोनो प्रकृतियोंका एकसाथै "बन्धव्युच्छेद होता हैं, उससे ' सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बादरअपर्याप्त-साधारणशरीर परस्परसयुक्त इन तीनो प्रकृतियोका युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येक परस्पर सयुक्त इन तीन प्रकृतियोका "बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बादर-अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोका बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर परस्परसयुंक्त बादर-अपर्याप्त-प्रत्येकशरीर इन तीनो प्रकृतियोकी एकसाथे बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमंजतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त द्वीन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोका बंधव्युच्छेदं युगपत् होता है, उससे सागरोपमणतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] लब्धिसार [ गाथा १५ त्रीन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोकी "बन्धव्युच्छित्ति एकसाथ होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त चतुरिन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोका एकसाथ '२बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर असंज्ञोपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्त परस्परसयुक्त इन दोनो प्रकृतियोका युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त संज्ञोपंचेन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोकी एकसाथ 'बन्धसे व्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमणतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्पर संयुक्त सूक्ष्म-पर्याप्तसाधारण इन तीनो प्रकृतियोकी एकसाथ "बन्धव्युच्छित्ति होती है; उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त सूक्ष्म-पर्याप्त-प्रत्येकशरीर ये तीनो प्रकृतिया युगपत् "बन्धसे व्युच्छिन्न होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त बादर-पर्याप्त-साधारणशरीर इन तीनो प्रकृतियोका युगपत् १ बन्नसे व्युच्छेद होता है; उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त बादर-पर्याप्त-प्रत्येकशरीर-एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर इन छहो प्रकृतियोकी 'बन्धव्युच्छित्ति युगपत् होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त द्वोन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोका एकसाथ "बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त त्रोन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोका एकसाथ २°बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त चतुरिन्द्रियजाति और पर्याप्त ये दोनो प्रकृतिया युगपत् २'बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होती है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसंयुक्त असंज्ञोपंचेन्द्रियजाति और पर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोकी युगपत् २२बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमणतपृथक्त्व नीचे उतरकर तिर्यंचगति-तियंचगत्यानपूर्वी और उद्योत इन तीनो प्रकृतियोका एकसाथ "वन्धसे व्युच्छेद हो जाता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर नोचगोत्रको "बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, दुःस्वर और अनादेय ये चारो प्रकृतिया "बन्धसे व्युच्छिन्न होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर हण्डकसंस्थान व असंप्राप्ता. सृपाटिकासंहनन ये दो प्रकृतिया युगपत् २६बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर नपुंसकवेदका "बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर यामनसंस्थान और कोलितशरीरसंहनन ये दोनो Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १५ ] लब्धिसार [ १३ प्रकृतिया बन्धव्युच्छित्तिको प्राप्त होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर कुब्जकसंस्थान और अर्धनाराचशरीरसंहनन इन दोनो प्रकृतियोका एकसाथ बंधव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्वं नीचे उतरकर स्त्रोवेदको बधुव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर स्वातिसंस्थान और नाराचशरीरसंहनन इन दोनो प्रकृतियोकी 3'बधव्युच्छित्ति युगपत् होती है, उससे सागरोपमंशतपृथक्त्व नीचे उतरकर न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान और वज्रनाराचसंहनन ये दो प्रकृतियां युगपत् ३२बन्धसे व्युच्छिन्न होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्यगति मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर-औदारिकशरीरअंगोपांग और वज्रर्षभनाराचसंहनन इन पांच प्रकृतियोकी युगपत् 33बन्धव्युच्छित्ति होती है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर अरति-शोक, अस्थिर-अशुभ, अयशःकीति-असातावेदनीय इन छहो प्रकृतियोका युगपत् "बन्धव्युच्छेद होता है'। शंका-प्रकृतियोके बन्धव्युच्छेदका यह क्रम किस कारणसे है ? समाधान--अशुभ, अशुभतर और अशुभतमके भेदसे प्रकृतियोका अवस्थान माना गया है उसी अपेक्षासे यह प्रकृतियोके बन्धव्युच्छेदका क्रम है । बन्धव्युच्छेदका यह क्रम विशुद्धिको प्राप्त होनेवाले भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टिजीवोमे साधारण अर्थात् समान है, किन्तु जयधवलाकारने कहा है कि "जो अभव्योके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अन्त कोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिबन्धकी अवस्था मे एक भी कर्मप्रकृति की बन्धव्युच्छित्ति नही होती ।" इसप्रकार इससम्बन्धमे दो मत है । इसीप्रकार ३४ स्थितिबन्धापसरणोके सम्बन्धमे भी दो मत है-ध. पु ६ प्र १३६ से १३६ तक प्रत्येक बन्धापसरणमे सागरोपमशतपृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका क्रम बताया है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ. २२१ से २२४ तक मात्र सागरोपमपृथक्त्व स्थितिबन्ध घटनेका उल्लेख है। अन्तिम ३४ वे बन्धापसरणमे असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्ति इन छह प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके हो जाती है । यद्यपि ये प्रकृतिया प्रमत्तसयतगुणस्थानतक बन्धके १. ज.ध. पु १२ पृ. २२१ से २२५ एव ध पु. ६ पृ १३४ से १३६ । २ पु ६ पृ १३६-१३६ । ३ ज. ध पु १२ पृ २२१ । . : : Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] लब्धिसार [ गाथा १६-१६ योग्य है, तथापि यहां इनकी बन्धव्युच्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होती, क्योंकि उन प्रकृतियोके वन्धयोग्य संक्लेशका उल्लंघनकर उनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोके वन्य की निमित्तभूत विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमे कोई विरोध नही। इन उपर्युक्त प्रकृतियोके वन्धसे व्युच्छिन्न होनेपर अवशिष्ट प्रकृतियोको सम्यक्त्वके अंभिमुख मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच और मनुष्य तब तक वाधता है जबतक वह मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके चरमसमयको प्राप्त होता है । . उपर्युक्त ३४ बंधापसरणोंमे से चारोंगतिमें कौन-कौनसे बंधापसरणस्थान होते हैं सो कहते हैं रणरतिरियाणं ओघो भवणतिसोहम्मजुगलए विदियं । . तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥ - ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण. हीणया-होति । - रयणादिपुढविछक्के सणक्कुमारादिदसकप्पे -॥१७॥ ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा , प्राणद कप्पावरिमगेवेज्जतोत्ति ओसरणा ॥१८॥ . . .अर्थ-मनुष्य और तिर्यचोमें ओघ अर्थात् चौतीसबन्धापसरण होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलमे दूसरा, तीसरा, अठारहवां और तेईसवां आदि दश व अन्तिम ३४वा ये १४ वन्धापसरण होते हैं । रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथ्वियोमें और सनत्कुमार आदि दशकल्पो (स्वर्गों) में उपर्युक्त १४ बन्धापसरणोमे से १८वां वधापसरण नही होता. ( शेष १३ बन्धापसरण होते हैं .). मानतकल्पसे.लेकर उपरिम नौवे ग्रेवेयकपर्यन्त उपर्युक्त १३ स्थानोमे से दूसरा और २३वां बन्धापसरण नहीं होते (शेष ११ वन्वापसरण होते है। . विशेषार्थ:-प्रथमोपणमसम्यक्त्वके अभिमुख -मनुष्य व तिर्यंचोके पूर्वोक्त ३४ वापसरण होते है जिनमे ४६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । प्रथमोपणमसम्यक्त्वके अभिमुख देव तथा सातवे नरेकको छोड़कर शेष छह पृथ्वीके नारकी जीवोके १. ज. प. पु १२ पृ. २०४-२२५ । २ धपु ६ पृ १४० । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८ लब्धिसार [ -१५ नही बध नेवीली प्रकृतियोंकी स्पष्टीकरण इसप्रकार हैं-- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपु ंसकवेद, अरति, शक, चारोंप्रयु, नरकगति, तिर्यग्गति, देवगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति त्रीन्द्रियजाति, वितुरिन्द्रियजाति, वैकिविकेशरीर, प्राहारकशरीर, समचतुरस्रसंस्थानको छोड़कर शेष पाचसस्थान, वैक्रियिकशरीर अगोपाग, श्रीहारशरीर अगोपाग, वज्रर्षभनाराचसंहननको छोड़कर शेष पाच सहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तंविहायोगति, प्रातप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेय, अयश कीर्ति, नीचगोत्र, और तीर्थकर ' । इनमेसे अपनी-अपनी बंन्ध - अयोग्य प्रकृतियोको घटाकर शेष प्रकृतियोका बन्धाप्रसरण द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है । こん - भवनत्रिक (भवनवासी, वानव्यतर, ज्योतिष ) देवो व सौधर्म - ऐशानस्वर्गके देवोमे तिर्यगायु, मनुष्यायु, एकेन्द्रिय, तप, स्थावर, तिर्यंचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दु.स्वर्, अनादेय, हुण्डसस्थान, असप्राप्तासृपाटिकासहनन, नपु सकवेद, वामनसस्थान, कोलितसंहनन, कुंब्जकसस्थान, अर्धनाराचसहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसस्थान, नाराचसहनन, न्यग्रोध संस्थानं, वज्रनाराचसंहनन, अस्थिर, अशुभ, अयश-कीर्ति, भरति, शोक, असातावेदनीय इन ३१ प्रकृतियोकी बघ - व्युच्छित्तिं प्रथमोपशमस॒म्यक्त्व के अभिमुख जीवके होती है । प्रथमादि छहनरक और तृतीयस्वर्ग से बारहवेस्वर्गत कके जीवोमे उपर्युक्त ३१ प्रकृतियोमेसे बन्धके अयोग्य एकेन्द्रिय॒ज्ञाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोको कम करनेसें शेष २८ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति सम्यक्त्वके श्रभिमुखजीवके होती है । १३वे स्वर्गसे १६वे स्वर्गं तथा नौग्रं वैयकतकके देवोंमें उपर्युक्त २८ प्रकृतियो मे से बन्धके अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यचगति, तिर्यचगत्यानुपूर्वी और उद्यत इन चार प्रकृतियोको कम करनेसे शेष २४ प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति प्रथमोपशमसम्यक्त्वके- अभिमुखजीवके होती है । . -^ + - शंका- जिस प्रकार मनुष्य व तिर्यचोके औदारिकशरीर और औदारिकअगोपाग इन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होती है उसीप्रकार उसी विशुद्धिमे वर्तमान देव और नारकियोके औदारिकशरीर व अंगोपांगका बन्धव्युच्छेद क्यो नही होता ? समाधान - सहकारीकारणरूप मनुष्यगति और तिर्यचगतिके उदयसे वर्जित केली (केवल ) विशुद्धि श्रीदारिकशरीर व औदारिकशरीरङ्गोपाङ्गका बन्धव्युच्छेद १ पु ६ पृ १४१-४२ । एवं जयववल पु. १२ पृ २२५ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] लब्धिसार [ गाथा १६ करनेमें समर्थ नही है, क्योंकि कारणसामग्रीसे उत्पन्न होनेवाले कार्यकी विकलकारणसे उत्पत्तिका विरोध है । देव और नारकियोमें औदारिकशरीरादि प्रकृतियोका ध्रुवबन्ध होता है अतः उनकी बन्धव्युच्छित्ति नही होती है । इसीप्रकार वज्रर्षभनाराचसंहननके विषयमें भी जानना चाहिए'। अब सातवीं नरकपृथ्वीमें बंधापसरणपदोंको कहते हैंते चेवेक्कारपदा तदिऊणा विदियठाणसंपत्ता। चउवीसदिमेण णा सत्तमिपुडविम्हि भोसरणा ॥१६॥ अर्थ-गाथा १८ मे कहे गये ११ बन्धापसरणोमें से तीसरा व २४वा बन्धापसरण घटानेपर तथा दूसरा बन्धापसरण मिलानेपर सातवी नरकपृथ्वीमे १० बन्धापरण होते हैं। विशेषार्थ-सातवे नरकमे मनुष्यायु बन्धयोग्य नहीं है इसलिये तीसरा बधापसरण कम किया गया है। प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवे नरकके नारकीजीवके नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति नही होती अत २४वां बन्धापसरण भी कम किया गया है । मिथ्यादृष्टि सप्तमपृथ्वीस्थ नारकीके तिर्यंचायु बधयोग्य है, किंतु प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके तिर्यचायुकी बंधव्युच्छित्ति हो जाती है अतः दूसरा बधापसरण मिलाया गया है । इसप्रकार सप्तमनरकमे १० बधापसरण होते है, जिनके द्वारा २३ प्रकृतियोकी बधव्युच्छित्ति होती है । सप्तमनरकमे बन्धयोग्य ६६ प्रकृतिया है, उसमेसे २३ प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति हो जानेपर ७३ प्रकृतियां बन्धयोग्य शेष रह जाती है । इन ७३ प्रकृतियोमे उद्योतप्रकृतिका बन्ध भजनीय है अर्थात् बन्ध होता भी है और नही भी होता है । यदि उद्योतप्रकृति बंधती है तो ७३ प्रकृतियोंका बंध होता है, यदि उद्योतका बन्ध नही होता तो ७२ प्रकृतियोका बन्ध होता है । शंका-तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इन प्रकृतियोकी सातवे नरकमे बन्ध व्युच्छित्ति क्यो नही होती ? १. घ पु ६ पृ १४१ । २. ज ध पु. १२ पृ २२३, ध. पु ८ पृ. ११०, गो. क. गा १०७। . ३. गो क. गा १०५ से १०७ की टीका व मल एव ज. पु १२ पृ. २२५ । क पा सुत्त पृ. ६१६ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०-२१ ] लब्धिसार [ १७ . समाधान- नही होती, क्योकि भवसम्बन्धी संक्लेशके कारण शेषगतियोके बन्धके प्रति अयोग्य ऐसे सातवी पृथ्वीके नारकी मिथ्यादृष्टिके तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्रको छोडकर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षस्वरूप प्रकृतियो का बन्ध नही होता है. तथा विशुद्धिके वशसे ध्र वबन्धी प्रकृतियोका बन्धव्युच्छेद नही होता, अन्यथा उस विशुद्धिके वशसे ज्ञानावरणादि प्रकृतियोके भी बन्धव्युच्छित्तिका प्रसग प्राप्त हो जावेगा, किन्तु ऐसा है नही, क्योकि वैसा माननेपर अनवस्थादोष आता है। . प्रागे मनुष्य व तियंचगतिमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रभिमुख मिथ्यावृष्टि जीवके द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंको तथा मनुष्यगतिमें अप्रमत्तगुणस्थान में बंधनेवाली २८ प्रकृतियों को दो गाथाओंमें कहते हैं घादिति सादं मिच्छं कसायपुहस्सरदि भयस्स दुगं । अपमत्तडवीसुच्चं बंधंति विसुद्धणरतिरिया ॥२०॥ देवतसवण्णभगुरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइयं । सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछरिणमिणमडवीसं ॥२१॥ - अर्थ-विशुद्ध ( सम्यवत्वके अभिमुख प्रायोग्यलब्धिमें स्थित मिथ्यादृष्टि ) मनुष्य या तिर्यंच तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्म सातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भयद्विक ( भय-जुगुप्सा ), अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी २८ और उच्चगोत्रको बाधता है । देवचतुष्क, त्रसचतुष्क, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, समचतुरस्रसस्थान, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्तविहायोगति, पचेन्द्रियजाति, स्थिरादि ६ और निर्माण ये २८ प्रकृतियां अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी जानना । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख, प्रायोग्यलब्धिमें जिसने ३४ बन्धापसरणोसे ४६ प्रकृतियोकी बन्धव्युच्छित्ति कर दी है ऐसा विशुद्ध मिथ्यादप्टि गर्भजसज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्ततिर्यच अथवा मनुष्य, पाचो ज्ञानावरणीय (मति-श्रुत-अवधि१. णवरि सत्तमपुढविणेरइयमस्सियूण तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइ पामोग्गाणुपुबीउज्जोव-णीचा गोदाण बधवोच्छेदो रणत्थि। (ज. प. पु. १२ पृ. २२३; गो. क. गा. १०७ ) तिरिक्तगई. तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वीणीचागोदारण : "" एत्थ धुववधित्तादो। (ध पु ८ पृ. ११०; ज. पु. १३ पृ २२६) २. ध. पु. ६ पृ. १४३-१४४ । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "लब्धिसार [ गाथा २२ मनःपर्यय-केवलज्ञानावरण ) नौ दर्शनावरण ( चक्षु प्रचक्षु प्रविधि - केवलदर्शनावरण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला ) पांच अंतराय ( दान- लाभ-भागउपभोग - वीर्यातराय ) इसप्रकार तीन घातिया कर्मोकी १२ प्रकृतियां, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी प्रप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन क्रोध - मान-मायालोभ ये १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, देवगत्यानुपू, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरग्रङ्गोपाङ्ग (देवचतुप्क), त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर (त्रसचतुष्क), वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श (वर्ण चतुष्क), गुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वात ( गुरुलघुचनुष्क), समचतुरस्रसंस्थान, तैजसशरीर, कार्मणशरीरं, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति ( स्थिरान्छिह) निर्माण और उच्चगोत्र इन ७१ प्रकृतियोंको बांधता है' | आगे देव-तरकगतिमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुख मिथ्यादृष्टि के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों को कहते हैं तं सुरचउक्कहोणं खर्चवज्जजुद पडिपरिमाणं । सुरछपुढवीमिच्छा सिद्धोतरणा हु बंधति ||२२|| अर्थ - उन (उपर्युक्त ७१ प्रकृतियों) में से देवचतुप्कको कम करके मनुष्य चतुष्क (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रदारिकशरीर, श्रदारिकशरीरअंगोपांग) और वज्ज्रर्षभनाराचसंहननको मिलानेसे इन ७२ प्रकृतियोको, बन्धापसरण कर चुकनेपर मिथ्यादृष्टिदेव और प्रथमादि छह पृथिवियोके नारकी बांधते हैं । १८] विशेषार्थं – प्रथमोपशनसम्यक्त्वके अभिमुख देव व प्रथम छह पृथ्वीके नारकी प्रायोग्यलब्धिमें ब्रन्वापसरण करनेके पश्चात् इन ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैंपाचज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व ग्रनन्तानुवन्धी आदि १६ कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरत्न संस्थान, औदारिकशरीरअंगोपांग, वज्रर्षभुनाराचसंहनन, वर्ण, गन्व, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु उपघात, परघात, - उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, देय, यश: कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचग्रन्तराय ये ७२ प्रकृतियां हैं । १. ध. पु. ९ पृ. १३३-३४ । ज. व पु. पृ. २११ | एवं पृ. २२५ २२६ ॥ २. ध. पु ६ पृ. १४०-१४१ । ज. घ. पु. १२ पृ. २११-१२ । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३-२४ ] लब्धिसार अथानन्तर सप्तमपृथ्वीमें बन्धप्रकृतियोंको कहते हैंतं रणदुगुच्चहीणं तिरियदु णीच जुद पयडिपरिमाणं । उज्जोवेण जुई वा सत्तमखिदिगो हु बंधति ॥२३॥ अर्थ-उनं (पूर्वोक्त ७२ प्रकृतियों) मे से मनुष्य द्विक ( मनुष्यगति, मनुष्य गत्यानुपूर्वी ) और उच्चगोत्रको कम करनेसे तथा तिर्यचगतिट्टिक (तिर्यचगति, तिर्यच गत्यानुपूर्वी) व नीचंगोत्रको मिलानेपर ७२ प्रकृतिया होती है। यदि उद्योतप्रकृति मिलाई जाती है तो ७३ प्रकृतिया हो जाती है । उन ७२ अथवा ७३ प्रकृतियोको (प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख) सातवीपृथ्वीको मिथ्यादृष्टि नारकी बाधता है । विशेषार्थ- सम्यक्त्वंके अभिमुख सप्तमपृथ्वीको मिथ्यादृष्टि नारकी बन्धापसरण कर चुकनेके पश्चात् जिन ७२ प्रकृतियोका बन्ध करर्ती है वे इसप्रकार हैपाचज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी आदि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यचगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसस्थान, औदारिकशरीरअङ्गोपाङ्ग, वजर्षभनाराचसंहनन, वर्ण, गध, रस, स्पर्श, तिर्यचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात; उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीति, निर्माण, नीचगोत्र और पाचो अन्तराय ये ७२ प्रकृतिया है । उद्योत प्रकृतिको कदाचित् बांधता है और कदाचित् नही बाधता है। यदि बाधता है तो ७३ प्रकृतियोका बन्धे होता है । इसप्रकार सम्यक्त्वके अभिमुखमिथ्यादृष्टिजीवके प्रकृतिबन्ध-प्रबन्धका विभाग समाप्त हुआ। . अथानन्तर स्थिति-अनुभागबन्धभेदका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडीठिदि असत्थाण सस्थगाणं च । - बिचउट्ठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥२४॥ अर्थ- (सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि) वधनेवाली प्रकृतियोंका स्थितिबंध अन्तःकोटाकोटीसागरोपमप्रमाण करता है । अप्रशस्तप्रकृतियोका द्विस्थानीय अनुभागवध करता है और प्रशस्तप्रकृतियोंका चतु स्थानीय अनुभागवन्ध करता है । १. ध. पु. ६ प. १४२-४३ । ज. ध पु. १२ पृ. २१२ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] लब्धिसार [ गाथा २५-२६ विशेषार्थ-गाथा २१-२२ व २३ में कही गई प्रतियोंका स्थितिबन्ध अत. कोड़ाकोड़ीसागसेपमप्रमाण ही होता है; क्यो कि सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव विशुद्धतर परिणामोसे युक्त होता है, इसलिए उसके इससे अधिक स्थितिबन्ध सम्भव नही है । अनुभागबन्ध भी अप्रशस्तप्रकृतियोंका द्विस्थानीय होता है, प्रशस्तप्रकृतियोका चतुःस्थानीय होता है'। आगे सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि के प्रदेशविभागको कहते हैंमिच्छणयीणति सुरचउ समवज्जपसत्थगमणसुभगतियं । .. णीचुक्कस्लपदेसमणुक्कस्तं वा · पबंधदि हु ॥२५॥ एदेहि विहीणाणं तिगिण - महादंडएसु उत्ताणं...। एकढिपमाणाणमणुक्कस्तपदेसंबंधणं कुणदि ॥२६॥ अर्थ-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धोचतुष्क, स्त्यानगृद्धित्रिक, देवचतुष्क, समचतुरत्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभगादि तीन और नीच गोत्रका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता हैं । इन प्रकृतियोसे रहित तीन महादण्डक अर्थात् गाथा २१-२२ व २३ मे कही गई शेष ६१ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध करता है । विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव जिन प्रकृतियोको बांधता है उसका कथन तीन महादण्डके द्वारा किया गया है प्रथम महादण्डकमें मनुष्य व तिर्यचके बंधयोग्य प्रकृतियोका कथन है, द्वितीय महादण्डकमे देवो व प्रथमछहनारकियोके बन्धयोग्य प्रकृतियोका कथन है । तृतीय महादण्डकमें सप्तमपृथ्वीके नारकी द्वारा वन्धयोग्य प्रकृतियोका कथन है । निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभ, देवगति-देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीरवैक्रियिकशरीरअंगोपाग, वज्रर्षभनाराच-संहनन, समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और नीचगोत्र इन १६-प्रकृतियोंका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । पांच ज्ञानावरणीय, छहदर्शनावरणीय, सातावेदनीय, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभरूप १२ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, १. ज. प पु १२ पृ २१३; ध. पु. ६ पृ २०६-१० । २. घ. पु ६ पृ १३३-३४, १४०-४१-४२-४३ । । - - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१ गाथा २७ ] लब्धिसार कार्मरणशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, यश कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचअन्तराय ( दान-लाभभोग-उपभोग और वीर्य ) इन ६१ प्रकृतियोंका अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध होता है । उक्त तीन महादण्डकोंमें कथित अपुनरुक्त प्रकृतियोंको कहते हैं-- . पढमे सव्वे विदिये पण तिदिये चउ कमा भपुणरुत्ता । इदि पयडीणमसीदी तिदंडएसु वि अपुणरुत्ता ॥२७॥ . अर्थ-क्रमश प्रथमदण्डकमे सर्वप्रकृतिया, द्वितीयदण्डकमे पांचप्रकृतिया और तृतीयदण्डकमें चारप्रकृतियां, इसप्रकार तीनो दण्डकोमें सर्व ८० प्रकृतिया अपुनरुक्त हैं । विशेषार्थ-प्रथमदण्डक ( गाथा २० ) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिमनुष्य व तिर्यचोके बन्धयोग्य ७१ प्रकृतियोका नामोल्लेख है; ये ७१ प्रकृतिया अपुनरुक्त है, क्योकि ये प्रकृतिया प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं। द्वितीयदण्डक (गाथा२२) में प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिदेव व प्रथमादि छह पृथ्वियों के नारकसम्बन्धी बन्धयोग्य ७२ प्रकृतियोका कथन है; इन ७२ प्रकृतियोंमें ६७ प्रकृतियां तो प्रथमदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिकअङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसहनन ये पाच प्रकृतिया प्रथमदण्डकसम्बन्धी नही है, अतः अपुनरुक्त है । तृतीयदण्डक (गाथा २३) में ६६ प्रकृतिया तो द्वितीयदण्डकसम्बन्धी हैं, किन्तु तिर्यचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, नीचगोत्र और उद्योत ये चार प्रकृतियां प्रथम व द्वितीयदण्डकमे नही है अत अपुनरुक्त है । तृतीयदण्डकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सातवीपृथ्वीके मिथ्यादृष्टि नारकीसम्बन्धी बन्धयोग्य प्रकृतियोंका कथन है और सातवी पृथ्वीका उक्तजोव निरन्तर तिर्यचगतिआदि प्रकृतियोका बन्ध करता है। इसप्रकार प्रथमदण्डककी सर्व ७१, द्वितीयदण्डककी ५ प्रकृति तथा तृतीयदण्डककी ४ ये सर्वमिलकर (७१+५+४) ८० प्रकृतिया अपुनरुक्त कही गई है। इसप्रकार प्रथमलम्यक्त्वके अभिमुख विशुद्धमिथ्यादृष्टिके प्रकृति-स्थितिअनुभाग और प्रदेशोंके बन्ध-प्रबन्धरूपभेद को कहकर उसीके उदयका कथन करते हैं १. ज.ध. पु. १२ पृ. २१३ । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २८ २२ ] उदधे चउदसघादी णिहापयलाणमेक्कदरगं तु । मोहे दस सिय णांमे वंचिठाणं सैसगे संजोगेक्कं ॥२८॥ - अर्थ-तीनं धातियांकर्मोकी १४ प्रकृतियां, निद्रा या प्रचलामें से कोई एक, मोहनीयकर्मकी स्यात् (कथंचित्) १० प्रकृति, नामकर्मकी भाषापर्याप्तिकालमे उदययोग्य प्रकृतियां और शेष वेदनीय, गोत्र व आयुकर्मकी एक-एक प्रकृति भी मिला लेना चाहिए । ये सर्वप्रकृतियां उदययोग्य है ।। विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख चारोगतिसम्बन्धी मिथ्यादृष्टिजीवके सर्व मूल प्रकृतियोंका उदय होता है तथा उत्तरप्रकृतियोमे से पाचज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, पांचअंतराय ये (५+४+५) १४ प्रकृतियां, मिथ्यात्व, पंचेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कॉमरणशरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परंघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण इन प्रकृतियोका नियमसे उदय होता है, क्योकि यहापर इन प्रकृतियोका ध्र व उदय होता है । साता व असातावेदनीयमे से किसी एकको उदय होता है, क्योकि ये दोनो प्रकृतिया परावर्तमान उदयस्वरूप है' । मोहनीयकर्मकी १०-६ अथवा ८ प्रकृतिका उदय होता है । मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीक्रोध-मान-माया-लोभमे से कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणकोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक, सज्वलनक्रोध-मान-माया व लोभमे से कोई एक (क्रोधादिमें से जिसकषायको उदय हो, अनन्तानुबन्धीआदि चारोमे उसी कषायका उदय होगा) स्त्रीवेद, पूरुषवेद, नपु सकवेद इन तीनो वेदोमे से कोई एक, हास्य-रति और अरति-शोके इन दोनो युगलोमे से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा , मोहनीयकर्मकी ये १० प्रकृतिया उदयस्वरूप होती है । इन १० प्रकृतियोमे से भय या जुगुप्सा (किसी एक) को कम कर देनेसे मोहनीयकर्मकी ६ प्रकृतिया उदयस्वरूप रह जाती है । इन्ही १० प्रकृतियोमे से भय और जुगुप्सा इन दोनो प्रकृतियोको कम कर देनेपर मोहनीर्यकर्मकी आठ प्रकृतिया उदयस्वरूप रह जाती हैं । चारो आयुअोमे से किसी एक आयुकर्मका उदय होता है, १ ज. ध पु. १२ पृ २१५-१६ । यस्माच्च-वेदरणीयस्स सादासादोण रगत्थि उदएंगण झीरणदा। (ज घ. पु १२ पृ. २२७ ) २ प पु ६ पृ २११ । गो क. ४७५ से ४७६ एव प्राकृतपचसग्रह सप्तति अ. प. ३२५ गा. ३६ तथा ध पु १५ पृ ८२-८३, ज.ध. पु. १२ पृ २३० । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांथा २८ ] . लब्धिसार [ २३ क्योकि ये चारो पृथक्-पृथक् प्रतिनियत गतिविशेषसे प्रतिबद्ध है इसलिए तदनुसार ही उस-उस आयुकर्मके उदयका नियम देखा जाता है। चारगति, दोशरीर, छहसस्थान और दो अगोपांग ; इनमेसे अन्यतर एक-एक नामकर्म प्रकृतिका उदय होता है। छहसहननोंमे से कदाचित् किसी एक-एकका उदय होता है और कदाचित् उदय नही होता। यदि मनुष्य या तिर्यच प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी एक सहननका 'नियमसे उदय होता है । यदि देव या नारकी प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख है तो किसी भी सहननका उदय नही होता । उद्योतका कदाचित् उदय पाया जाता है; क्योकि पचेन्द्रियतिर्यचोमे किन्हीके उद्योतका उदय होता है। दो विहायोगति, सुभगदुर्भग, सुस्वर-दु स्वर, प्रादेय-अनादेय, यश कीर्ति और अयश कीर्ति इन पाच युगलोमे से किसी एक-एक प्रकृतिका उदय होता है अर्थात् इन पाच युगलोमे से प्रत्येकयुगलकी किसी एक प्रकृतिका उदय होता है । उच्चगोत्र और नीचगोत्र इनमेसे किसी एक प्रकृतिका उदय होता है। यह प्रकृतियोके उदयसम्बन्धी कथन चारोंगतिकी अपेक्षासे है। आदेशकी अपेक्षा चारोगतियोमे जो विशेषता है वह इसप्रकार है-चारो आयुनोमे से जिसगतिमें जो आयु अनुभव की जाती है उस आयुका उसग़तिमे उदय होता है। नरकगति व तिर्यचगतिमे नीचगोत्रका ही उदय है,' मनुष्यगतिमे नीचगोत्र और उच्चगोत्रमेसे एकका उदय है और देवगतिमे उच्चगोत्रका ही उदय है । नामकर्मकी अपेक्षा यदि नारकी है तो नरकगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डकसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अगुभ, दुर्भग, सुभग, अनादेय, अयश कीर्ति और निर्माण ; "नामकर्मकी इन २६ प्रकृतियोका उदय होता है। यदि तिर्सच है तो तिर्यंचगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर कार्मणशरीर, छह सस्थानोमे से कोई एक सस्थान, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, छह सहननोमे से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, कदाचित् उद्योत, दो विहायोगतिमे से कोई एक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग-दुर्भगमे से कोई एक, सुस्वर-दु स्वरमे से कोई एक, आदेय-अनादेयमे से कोई एक, यश कीर्ति-अयश कीतिमें से कोई एक और निर्माण । नामकर्मकी इन ३० या ३१ प्रकृतियोका उदय होता है । १. २. ३. ध पु १५ पृ ६१ । . Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] लब्धिसार [ गाथा २६-३० यदि मनुष्य है,तो उपर्युक्त ३० प्रकृतियोमे तिर्यंचगतिके स्थानपर मनुष्यगतियुक्त ३० प्रकृतियोका उदय होता है । मनुप्योमें उद्योतका उदय सम्भव नही है अतः नामकर्मकी ३१ प्रकृतियोका उदय नह होता है । यदि देव है तो देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मरणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीराङ्गोपाङ्ग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघ, उपघात, परघात. उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर. स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति और निर्माण ; नामकर्मकी इन २६ प्रकृतियोंका उदय होता है'। उपर्युक्त गाथामे तथा ध. पु ६ पृ. २१० पर निद्रा और प्रचला किसी एकके उदय के साथ दर्शनावरणीयकर्मकी पांचप्रकृतियोका उदय बतलाया है, किन्तु ज. ध पु. १२ १ २२७ पर पांचो निद्राकी उदयव्युच्छित्ति कही गई है, क्योकि साकारोपयोग और जागृत अवस्थाविशिष्ट दर्शनमोह-उपशामकके पांच निद्रादिके उदयरूप परिणामका विरोध है । इसप्रकार निद्रा व प्रचलाके उदयमे दोमत है । एकमत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार करता है, दूसरा मत निद्रा या प्रचलाका उदय स्वीकार नहीं करता । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिके निद्रादि पांचदर्शनावरण, वारजातिनामकर्म, चारो आनुपूर्वी नामकर्म, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीर, ये प्रकृतिया उदय से व्युच्छिन्न होती है । अथ प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रभिमुख विशुद्ध मिथ्यादृष्टिके उपययोग्य प्रकृतिसम्बन्धी स्थिति व अनुभागका तथा प्रदेशोंकी उदय-उदीरणाका कथन करते हैं उदइल्लाणं उदये पत्तेक्कठिदिस्स वेदगो होदि । विचउट्ठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरसभुत्ती ॥२६॥ मजहरणमणुक्करस्प्पदेसमणुभवदि सोदयाणं तु । उदयिल्लाणं पय डिचउक्काणमुदीरगो होदि ॥३०॥ ! 7..२८ २१६-२२० । गो .गा. ५६५-५६७ व ३०३-३०४। अत्र भाषापर्याप्तिस्थाने स्वागतमातिरयन वनंते । २ २१ २२६-३० । ३५ १२१ २२६-२७ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ २५ अर्थ-उदयवान् प्रकृतियोका उदय प्राप्त होनेपर एकस्थितिका वेदक होता है । अप्रशस्तप्रकृतियोके द्विस्थानरूप और प्रशस्तप्रकृतियो के चतु स्थानरूप उदयमान ग्रनुभागको भोगता है । उदयरूप प्रकृतियोके प्रजघन्यं - अनुत्कृष्ट प्रदेशाको अनुभव करता -है । उदयस्वरूप प्रकृतियोके प्रकृति- प्रदेश- स्थिति व अनुभागका उदीरक होता है । गाथा ३१ ] विशेषार्थ - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के श्रभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव के जिन प्रकृतियो का उदय है, उन प्रकृतियोकी स्थितिक्षयसे उदयमे प्रविष्ट एकस्थितिका वेदक होता है तथा शेषस्थितियोका वेदक होता है । उक्त जीवके जिन अप्रशस्तप्रकृतियोका उदय होता है उनके लता-दारुरूप अथवा निम्ब- काञ्जीररूप द्विस्थानीय अनुभागका वेदक होता है । उदयमे आई हुई प्रशस्तप्रकृतियोके चतु स्थानीय अनुभागका वेदक होता है, उदयागत प्रकृतियोके अजघन्य अनुत्कृष्टप्रदेशोका वेदक होता है । जिन प्रकृतियोका वेदक होता है, उन प्रकृतियोके प्रकृति- स्थिति और प्रदेशोकी उदीरणा करता है । शंका - उदय और उदीरणामे क्या अन्तर है ? समाधान -- जो कर्म स्कन्ध अपकर्षण, उत्कर्षणादि प्रयोगके बिना स्थितिक्षय को प्राप्त होकर अपना-अपना फल देते है उन कर्मस्कन्धोकी 'उदय' सज्ञा है ( जो महान् स्थिति और अनुभाग में अवस्थित कर्मस्कन्ध अपकर्षित करके फल देनेवाले ये है, उन कर्मस्कधोकी ‘उदीरणा' संज्ञा है, क्योकि अपक्व कर्मस्कन्धके पाचन करनेको उदीरणा कहते है' । 'ध. पु ६ पृ. २१३ पर अजघन्य - अनुत्कृष्टप्रदेशोका उदय कहा है. किन्तु ज.ध. पु. १२ पृ. २२६ पर अनुत्कृष्ट प्रदेशपिण्डका उदय कहा है । उदय उदीरणाका कथन करनेके अनन्तर सत्वको कहते हैंदुति भाउ तित्थद्दारच उक्कणा सम्मगेण हीणा वा । मिस्सेा वा विय सव्वे पयडी इवे सत्तं ॥ ३१ ॥ अर्थ-दो या तीन आयु, तीर्थकर और आहारकचतुष्क; इन प्रकृतियोसे रहित तथा सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्वबिना शेष सर्वप्रकृतियोका सत्त्व होता है । विशेषार्थ — प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव यदि श्रद्धायुक है तो उसके भुज्यमान श्रायुके बिना तीन प्रायुका सत्त्व नही होता । यदि वह जीव १. ध. पु. ६ पृ. २१३-१४ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ३१ बद्धायुप्क है तो उसके भुज्यमान व बद्ध्यमानायुके बिना शेष दो आयुका सत्त्व नही होता । जिसने दूसरे या तीसरे नरककी आयुका बन्ध करनेके पश्चात् तीर्थंकरप्रकृतिका बन्ध किया है वह जीव एक अन्तर्मुहूर्तके लिए मिथ्यात्वमे जाता है पुनः वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है, क्योकि पल्योपमके असंख्यातवेभागपर्यन्त वेदकसम्यक्त्वका उत्पत्तिकाल है । वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकालके पश्चात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वका ग्रहण हो सकता है । आहारकचतुष्कके उद्वेलनाकालसे वेदकसम्यक्त्वोत्पत्तिकाल बडा है अत आहारकचतुष्ककी उद्वेलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नही हो सकता। प्रथमोपणमसम्यक्त्वके अभिमुख किसी जीवके सम्यक्त्वप्रकृतिका सत्त्व नहीं होता और किसी जीवके सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति इन दोनों ही का सत्त्व नही होता अथवा दोनोका सत्त्व होता है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीवके आठों ही मूलप्रकृतियोंका सत्त्व होता है। उत्तरप्रकृतियोमे भी ज्ञानावरणकी पाच, दर्शनावरणकी नौ, वेदनीयकी दो, मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व, १६ कषाय और नव नोकषाय ये छब्बीस प्रकृतिया सत्कर्म रूपसे होती हैं, क्योकि अनादिमिथ्यादृष्टि तथा २६ प्रकृतियोंके सत्कर्मवाले सादि मिथ्यादृष्टिके इनका सद्भाव पाया जाता है। अथवा सादिमिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्वप्रकृतिके विना मोहनीयकर्मकी २७ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती हैं, क्योकि सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलनाकरके उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उनके होने में कोई विरोध नहीं है । अथवा सम्यक्त्वप्रकृतिके साथ २८ प्रकृतियां सत्कर्मरूपसे होती है, क्योकि वेदकसम्यक्त्वके योग्यकालको उल्लघकर जिसने सम्यक्त्वप्रकृतिकी पूर्णरूपसे उद्वेलना नही की है, ऐसे उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवके उक्तप्रकारसे २८ प्रकृतियो का सद्भाव देखा जाता है। आयुकर्मकी एक या दो प्रकृतिया सत्कर्मरूपसे होती है । जिसने परभवसम्बन्धी आयुका वन्ध किया है, उसके आयुकर्मकी दो प्रकृतियां होती है और जिसने परभवसम्वन्वी आयुका वन्ध नही किया, उसके भुज्यमानायुकी एकप्रकृति होती है । नामकर्मकी चारगति, पाचजाति, औदारिक-वैक्रियिक-तैजस व कार्मणशरीर, १. प पु. ८ पृ. १०४-प्रथमपृथिव्या तीर्थकरप्रकृतियुक्तमिथ्यात्वीनारकीनामभावः । २. गो क. गा ६१५ । ३ गोफ गाथा ६१५ तथा घ पु ५ पृ. ६-१० और ३३-३४।-- ४ गो य. गा. ६१३ तथा ज.घ पु. १२ प. २०६ । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २७ गाथा ३२ ] लब्धिसार इन्ही शरीरोके बन्धन और सघात, छहसंस्थान, आहारकशरीरांगोपागके बिना दो अङ्गोपाङ्ग, छहसहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चारोमानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्ताप्रशस्तविहायोगति, त्रस-स्थावरादि १० युगल और निर्माण ये प्रकृतियां सत्कर्मरूप है । गोत्रकर्मकी नीच-उच्चगोत्ररूप दो प्रकृतिया सत्कर्मरूप है तथा अन्तरायकर्मकी पाचोप्रकृतिया सत्कर्मरूप है। इन प्रकृतियोका प्रकृतिसत्कर्म है, शेष प्रकृतियोका नही है । शंका-पहले उत्पन्न किये गये सम्यक्त्वके साथ आहारकशरीरका बन्धकरके पुर- मिथ्यात्वमे जाकर तत्प्रायोग्य पल्यके असख्यातवे भागप्रमाण कालके द्वारा उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके आहारकद्विकका सत्कर्म यहा क्यों नही उपलब्ध होता ? समाधान-आहारकद्विकका सत्कर्म उपलब्ध नहीं होता, क्योकि आहारकशरीरकी उद्वलना किये बिना प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिकी योग्यता नही होती। वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालसे आहारकशरीरका उद्वेलनाकाल स्तोक है ऐसा परमागमका उपदेश है। ___ अथानन्तर सत्कर्मप्रकृतियोंके स्थितिआदि सत्कर्मके कथन पूर्वक प्रायोग्यतालब्धिका उपसंहार करते हैं अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदीतियं होदि सत्तपयडीणं । . एवं पयडिचउक्कं बंधादिसु होदि पत्तेयं ॥३२॥ अर्थ-उक्त सत्त्वप्रकृतियोका स्थितित्रिक (स्थिति-अनुभाग-प्रदेश) अजघन्यअंनुत्कृष्टं होता है । बन्धादि (बन्ध-उदय-उदीरणा) प्रत्येकमे इसीप्रकार प्रकृतिचतुष्क (प्रकृति-स्थिति-अंनुभाग-प्रदेश) लगा लेना चाहिए। . . विशेषार्थ-आयुकर्मके अतिरिक्त इन्ही उक्त प्रकृतियोका स्थिति-सत्कर्म अंत:कोडाकोडीसागर होता है | आयुकर्मका तत्प्रायोग्य स्थितिसत्कर्म होता है। पाचज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्वे, १६ कषाय, नवनोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रियादि चारजाति, पाचसस्थान, पाचसहनन, अप्रशस्तवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, नरकगत्यानुपूर्वी, तियंचगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त १. ज. ध पु. १२ पृ. २०७-२०८-२०६ । गो. क. गाथा ६१४-१५। . Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] लन्धिसार [ गाथा ३३ विहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दु स्वर, अनादेय, अयश कीति, नीत्रगोत्र और पांचअन्तराय इन अप्रशस्तप्रकृतियोका द्विस्थानीय (लता-बारु या निम्ब-कांजोर) अनुभागसत्कर्म होता है । सातावेदनीय, मनुष्यगति, देवगनि. पचेन्द्रियजाति, ओदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर तथा उन्हीके बन्धन और संघात, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरागोपाग, वैक्रियिकगरीरागोपाग, वज्रर्पभनाराचसहनन, प्रशस्तवर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक गरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, प्रादेय, यश कीति, निर्माण, उच्चगोत्र इन प्रास्तप्रकृतियोका चतु स्थानीयअनुभागसत्कर्म होता है । जिन प्रकृतियोका सत्कर्म है, उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । अब क्रमप्राप्त करणलब्धिको कहते हैंतत्तो अभव्वजोगं परिणाम बोलिऊण भन्बो हु । करणं करेदि कमसो अधापवत्तं अपुवमणियि ॥३३॥ अर्थ-उसके पश्चात् अर्थात् प्रायोग्यलब्धिके पश्चात् अभव्यके योग्य परिणामोको उल्लघकर भव्यजीव क्रमश. अध.प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको करता है। विशेषार्थ-गुरुपदेशके वलसे अथवा उसके विना भी अभव्यजीवोके योग्यविशुद्धियोको व्यतीत करके भव्यजीवोके योग्य अब प्रवृत्तकरण सजावाली विशुद्धिमें मन्त्राजीव परिणत होता है । जिस परिणामविशेषके द्वारा दर्शनमोहका उपशमादिरूप विवक्षितभाव उत्पन्न किया जाता है वह विशेषपरिणाम करण कहा जाता है । शंका-परिणामोकी 'करण' यह सज्ञा कैसे है ? समाधान-यह कोई दोष नही है, क्योकि असि ( तलवार ) और वासि (वमूला) के नमान साधकतमभावकी विवक्षामें परिणामोके करणपना पाया जाता है । १. पु. १२ १.२०६-२१० । . प.६५१३।६ पु. १५ १८१ । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४-३५ ] लब्धिसार [ २६ वह करण यहा तीनप्रकारका होता है। प्रथम अधःप्रवृत्तकरण, द्वितीय अपूर्वकरण और तृतीय अनिवृत्तिकरण । ये तीनोंकरण क्रमशः होते है । अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीनप्रकारकी विशुद्धिया होती है। आगे तीनोंकरणोंके कालका अल्पबहुत्वसहित कथन करते हैं अंतोमुत्तकाला तिरिणवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा कमेण संखेज्जरूवेण ॥३४॥ अर्थ-तीनों करणोमे से प्रत्येककरणका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल होता है, किन्तु ऊपरसे नीचेके करणोंका काल सख्यातगुणा क्रम लिये हुए है । विशेषार्थ-अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनों करणोमे से प्रत्येक करणका काल अन्तर्मुहूर्त है। इसमे भी अनिवृत्तिकरणका काल स्तोक है, उससे सख्यातगुणा अपूर्वकरणका काल है, उससे संख्यातगुणा अधःप्रवृत्तकरणका काल है । अन्तर्मुहूर्तकालके बहुत भेद है। अथानन्नर अधःप्रवृत्तकरणका निरुक्तिपूर्वक कथन करते हैं- . जम्हा हेद्विमभावा उवरिमभावेहिं सरिसगा होति । . तम्हा पढमं करणं अधापवत्तोत्ति णिहिट्ठ॥३५॥ अर्थ-क्योंकि अधस्तन (नीचेके) भाव उपरितनभावोंके साथ सदृश होते है अत प्रथमकरणको अध प्रवृत्तकरण कहा गया है । विशेषार्थ-प्रथमकरणमे विद्यमानजीवके करणपरिणाम अर्थात् उपरितन समयके परिणाम (पूर्व) समयके परिणामोके समान प्रवृत्त होते है वह अध प्रवृत्तकरण' है। इसकरणमे उपरिमसमयके परिणाम नीचेके समयोमे भी पाये जाते है, क्योकि १. ज ध पु. १२ पृ. २३३ । २. ध पु ६ पृ २१४; ज. घ. पु. १२ पृ. २३३, क. पा. सु पृ ६२१ । ३. क पा सुत्त पृ ६२१ । ४. किंचित् पाठान्तरेणेयमेवगाथाऽऽगता गोम्मटसारजीवकाण्डे (गाथा ४८) । ५. ज.ध. पु १२ पृ. २३३ । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] लब्धिसार [ गाथा ३६-३७ जगन्तिनसमयवर्ती परिणाम अध अर्थात् अधस्तनसमयवर्ती परिणामोमे समानताको प्राप्त होते है अत अध प्रवृत्त यह सजा सार्थक है'। आगे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके स्वरूपका निरूपण करते हैं'समए समए भिण्णा भावा तम्हा अपुवकरणो दु। 'मणियट्टीवि तहं वि य पडिसमय एक्कपरिणामो ॥३६॥ अर्थ-प्रतिसमय भिन्न भाव होते है इसलिये यह अपूर्वकरण है और प्रतिममय एक समान ही परिणाम होते है अत वह अनिवृत्तिकरण है । ___ विशेषार्थ-जिस करणमे प्रतिसमय अपूर्व अर्थात् असमान व नियमसे अनन्तगणरूपसे वद्धिगत करण अर्थात् परिणाम होते है वह अपूर्वकरण है । इसकरण में होनेवाले परिणाम प्रत्येक समयमे असख्यातलोकप्रमाण होकर भी अन्यसमयमें स्थित परिणामोके सदृश नही होते यह उक्तकथनका भावार्थ है । जिसकरण मे विद्यमान जीवोके एकसमयमें परिणाम भेद नही है वह अनिवृत्तिकरण हे । अनिवृत्तिकरणमे एक-एक समयमे एक-एक ही परिणाम होता है, क्योकि यहा एकसमयमे जघन्य व उत्कृष्टभेदका अभाव है । एकसमयमें वर्तमानजीवोके परिणामोकी अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहा नही होती वे परिणाम अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। आगे अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी विशेष कथन ५ गाथाओंमें करते हैंगुणसेढी गुणसकम ठिदिरसखंडं च णत्थि पढमम्हि । पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्डीहिं वड्ढदि हु ॥३७॥ १. घ. पु६ प २१७ । २. गो जी गा ५१, प्रा पं स अ १ गा. ८, ध पु. १ पृ.५३। ३. 'होति अगियदिरणोते, पडिसमय जेस्सिमेक्कपरिणामा' गो. जी. गा. ५७; घ. पु १ पृ. १८६; __घ १६ पृ २२, प्रा. पं. स अ. १ गा. २२ । ४ प पा सुन पृ. ६२१ । ५ ज. पु. १२ पृ. २३४ । ६ उ. पु. १२ पृ २:४। ७ पुष २२१ । ८. प. पु. ६१ २२२ । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गाथा ३८-४१ ] - लब्धिसॉर सत्थाणमसत्थाणं चउविद्वाणं रसं च बंधदि हु । पडिसमयमांतेण य गुणभजियकमं तु रसबंधे ॥ ३८ ॥ पल्लम्स संखभागं मुहुत्ते ओसरदि बंधे । संखेज्जसहस्त्राणि य अधापवत्तम्मि ओसरणा ||३६|| आदिमकरणद्धाएं पढमद्विदिबंधो दु चरिमंम्हि संखेज्जगुणविहीण ठिदिबंधो होइ यिमेण ॥४०॥ तच्चरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देसलयलजमं । परिवज्जमागस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥ ४१ ॥ अर्थ:- - प्रथम ( अधःकरण ) में गुणश्र णि, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्ड और अनुभागखण्ड नही होते, किन्तु प्रतिसमय विशुद्धिमे अनन्तगुणीवृद्धिद्वारा वृद्धिको प्राप्त होता है । प्रशस्तप्रकृतियोका चतु स्थानीय ( गुड, खाड, शर्करा और अमृत) अनुभागबन्ध होता और प्रशस्तप्रकृतियोका द्विस्थानीय ( लता - दारु या निब- काजीर ) अनुभागबन्ध होता है । प्रतिसमय प्रशस्तप्रकृतियो का अनन्तगुणे क्रम सहित बृन्ध होता है और अप्रशस्तप्रकृतियोके अनन्तवेभागप्रमाण अनुभागबन्ध होता है । तथा एक-एक अतर्मुहूर्तके अन्तराल से पल्यका सख्यातवाभाग घटता हुआ स्थितिबन्ध होता रहता है । प्रध प्रवृत्तकरणकालमें सख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण होते रहते है । अध प्रवृत्तकरणके श्रादिमे जो प्रथम स्थितिबन्ध होता है तथा अन्तमे नियमसे उससे सख्यातगुणाहीन स्थितिबन्ध होता है । इस चरमस्थितिबन्धसे देशसयमसहित प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है ! इसस्थितिबन्धसे सकलसयमसहित प्रथमो - पशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवालेके सख्यातगुणाहीन स्थितिबन्ध होता है । १. [ ३१ विशेषार्थ - यद्यपि यह जीव अध प्रवृत्तकरणकालमे प्रत्येक समयमे अनतगुणी विशुद्धि से अत्यन्तविशुद्ध होता जाता है तथापि स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकघात योग्य विशुद्धिको प्राप्त नहीं होता है । इसलिए अध प्रवृत्तकरणभावमे विद्यमान इसके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकघात नही होता' । अध प्रवृत्तकरणमे स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्र ेणी और गुणसंक्रमण नही होता, क्योकि इन ग्रथ - ज घ पु. १२ पृ. २३२ । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ४२-४५ ३२] प्रवृत्तकरणपरिणामोमें पूर्वोक्त चतुर्विध कार्योके उत्पादन करनेकी शक्तिका (विशुद्धिका) अभाव है; मात्र अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव अप्रशस्तकर्मोके द्विस्थानीय (नीब-काजीर) अनुभागको प्रतिसमय अनंतगुणाहीन वाचता है और प्रशस्तकर्मोका गुड-खांड-शर्करा-अमृतरूप चतु स्थानीय अनुभागको प्रतिसमय अनन्तगुणा-अनन्तगुणा बांधता है । अध प्रवृत्तकरणकालमें एक स्थितिबंधका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र है । एक-एक स्थितिबन्धका काल पूर्ण होनेपर पल्योपमके संख्यातवेभागसे हीन अन्य स्थितिवन्ध होता है । इसप्रकार सख्यातसहस्रबार स्थितिबन्धापसरण हो जानेपर अध.प्रवृत्तकरणकाल समाप्त हो जाता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिवन्धसे उसीका अन्तिमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध संख्यातगुणाहीन होता है । यहीपर (अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयमे) प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुखजीवके जो स्थितिबन्ध होता है, उससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित संयमासयमके अभिमुख जीवका स्थितिवन्ध सख्यातगुणाहीन होता है, इससे प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहित सकलसंयमके अभिमुख जीवका अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयसम्बन्धी स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है। अब ८ गाथाओंमें अधःप्रवृत्तकरणसम्बन्धी अनुकृष्टि और अल्पबहुत्व इन दो अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं आदिमकरणद्धाए पडिसमयमसंखलोगपरिणामा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥१२॥ ताए अधापवत्तद्वाए संखेज्नभागमेत्तं तु । अणुकट्टीए अद्धा णिव्वग्गणकडयं तं तु ॥४३॥ पडिसमयगपरिणामा णिव्वग्गणसमयमेत्तखंडकमा । अहियकमा हु विसेसे मुहुत्तअंतो हु पडिभागो ॥४४॥ पडिखंडगपरिणामा पत्तेयमसंखलोगमेत्ता हु। लोयाणमसंखेज्जा छठाणाणी विसेसेवि ॥४५॥ १ व.पु ६ पृ. २२२-२३ । ज ध पु १२ पृ २५८-५६ । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६-४९ ] लब्धिसार पढमे चरिमे समये पढमं चरिमं च खंडमसरित्थं । सेसा सरिसा सव्वे अव्वंकादि अंतगया ॥ ४६ ॥ चरि सव्वे खंडा दुरिमसमत्ति अवरखंडाए । सरिसखंडागोली अधापवत्तम्हि करणहि ॥ ४७ ॥ पढमे करणे भवरा णिव्वग्गणसमयमेत्तगा तत्तो । हिदिणा वरमवरं तो वरती अतगुणिंदकमा ॥ ४८ ॥ पढमे करणे पढमा उड्डगढीय चरिमसमयस्स । तिरियगखंडापोली असरित्थाांतगुणिदकमा ॥४६॥ १. अर्थ - आदिकरण (अध प्रवृत्त कररण) के कालमे प्रतिसमय अधिकक्रम लिए हुए सख्यात लोकप्रमाण परिणाम होते है । विशेष ( चय) को प्राप्त करनेके लिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रतिभाग है । उस अध प्रवृत्तकररणकालके ( समयोके ) संख्यातवेभागप्रमाण अनुकृष्टिरचनाका आयाम है और जितना वह आयाम है उतने समयोका एकनिर्वर्गरणाकाण्डक होता है ।' निर्वर्गरणाकाण्डकके समान प्रतिसमयके परिणामोके क्रमशः खण्ड होते है, वे खण्ड अधिक मवाले होते है । यहा विशेषको प्राप्त करनेका प्रतिभाग अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । प्रत्येकखण्ड मे असख्यात लोक प्रमाण परिणाम है । प्रत्येकखण्ड षट्स्थानपतितवृद्धि असख्यातलोकबार होती है । एक- एक विशेष ( चय ) मे भी षट्स्थानपतितवृद्धि असख्यात लोकबार होती है । प्रथमसमयका प्रथमखण्ड और चरमसमयका अन्तिंमखण्ड ये विसदृश और शेषखण्ड सदृश है । सर्वखण्डोका ग्रादि 'भ्रष्टा' है और अन्त 'उर्वाक' है । चरमसमयके सर्वखण्ड और प्रथमसमयसे लेकर द्विचरमसमयपर्यन्तका सर्वप्रथमखण्ड, यह प्रध प्रवृत्तकरणमे असदृशखण्डोकी पंक्ति है । प्रथम ( ध प्रवृत्त ) करण निर्वर्गरणाकाण्डकप्रमाण समयोमे प्रत्येकसमय के प्रथमखण्ड के जघन्यपरिणाम ऊपर-ऊपर अनन्तगुणे क्रमसे है । निर्वर्गरणाकाण्डकके चरमसमयसम्बन्वी जघन्यपरिणामसे प्रथमसमयका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुरणा है, उससे द्वितीय निर्वर्गगाकाण्डकके प्रथमसमयके प्रथमखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुरंगा है इसप्रकार जघन्यसे उत्कृष्ट और उससे जघन्य सर्पकी चालवत्' अनन्तगुणक्रमसे है । प्रथम ( प्रवृत्त ) [ ३३ क. पा सुत्त पृ. ६२६ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार ...[..गाथा ४६ करणमे सर्वसमयोके प्रथमखण्डकी उर्वश्रेणीरूपसे और चरमसमयके सर्वखण्डोंकी तिर्यगावलिरूपसे रचना करनेपर सर्व असदृशखण्डोकी पक्ति हो जाती है जो अनतगुणित क्रमसे स्थित है। विशेषार्थ-इन गाथाअोमे अध प्रवृत्तकरणसम्बन्धी अनुकृष्टि और अल्पबहुत्व, इन दो अनुयोगद्वारोका कथन किया गया है। अनुकृष्टिका कथन करनेके पश्चात् अल्पबहुत्वका कथन किया गया है । अनुकृष्टिका कथन इसप्रकार है- 'अध प्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयपर्यन्त पृथक्-पृथक् एक-एकसमयमें छह वृद्धियोके क्रमसे अवस्थित और स्थितिबन्धापसरणादिके कारणभूत असख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थान होते है । परिपाटीक्रमसे विरचित इन परिणामोके पुनरुक्त और अपुनरुक्तभावका अनुसंधान करना अनुकृष्टि है । - 'अाकर्षणमनुकृष्टि' अर्थात् उनपरिणामोकी परस्पर समानताका विचार करना यह अनुकृष्टिका अर्थ है । अन्तमुहर्तप्रमाण अवस्थितकालका जो कि अब प्रवृत्तकरणके सख्यातवेभागप्रमाण है, विच्छेद होनेपर अर्थात् निवर्गणाकाण्डकके व्यतीत होनेपर अनुकृष्टिका विच्छेद होता है । अध प्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमे असख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थान होते है । पुनः दूसरे समयमें वे ही परिणामस्थान अन्य अपूर्व परिणामस्थानोके साथ विशेष अधिक होते है । प्रथमसमयके परिणामस्थानोमे अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर जो एकभागप्रमाण असख्यातलोकप्रमाण परिणाम प्राप्त होते है वह विशेषका प्रमाण है । इसप्रकार इस प्रतिभागके अनुसार प्रत्येकसमय मे विशेष अधिक परिणामस्यान करके अव प्रवृत्तकरण के अन्तिमसमयतक लेजाना चाहिए । अध प्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी परिणामस्थानके अन्तर्मुहूर्त अर्थात् अध प्रवृत्तकरणकालके सख्यातवेभागप्रमाण कालके जितने समय है उतने खण्ड करने चाहिए, वही निर्वर्गणाकाण्डक है। विवक्षितसमयके परिणामोका जिसस्थानसे आगे अनुकृष्टिविच्छेद होता है वह निर्वर्गणाकाक कहा जाता है। ये खंड परस्पर सदृश नही होते, विसदृश ही होते हैं, क्योकि एक दूसरेसे यथाक्रम विशेषअधिकक्रमसे अवस्थित है । अन्तर्मुहूर्तका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उतना विशेष (चय) का प्रमाण है। पुनः प्रथमखडको छोडकर इन्ही परिणामस्थानोको दूसरेसमयमें परिपाटीको उल्लघकर स्थापित करना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि इस दूसरे समयमे असख्यातलोक१ ज घ. पृ १२ पृ २३४ प्रतिमपंक्ति । २ ज. ध पु १२ पृ २३५-२३६ । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६ ] लब्धिसार [ ३५ प्रमारण अन्य अपूर्व परिणामस्थान होते है जो प्रथमसमयके चरमखण्डके परिणामोमे अन्तमुहर्तका भाग देनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उत्ने विशेषअधिक होते है, उन्हे यहा। अन्तिमखण्डरूपसे स्थापित करना चाहिए। इसप्रकार स्थापित करनेपर दूसरे समय में भी अन्तर्मुहर्तप्रमाण परिणामखण्ड प्राप्त होते है । इसीप्रकार तूंतीयादि समयोमे भी परिणामस्थानोकी रचना अध प्रवृत्तकरणके चरमसमयके प्राप्त होनेतक क्रमसे करना चाहिए। 'दूसरे समयके जघन्यपरिणामके साथ प्रथमसमयका जो परिणामस्थान समान होता है उससे भिन्न पूर्वके समस्त परिणामस्थानोको ग्रहणकर प्रथमसमयमे प्रथमखण्ड होता है। पुन. तृतीयसमयके जघन्यपरिणामके साथ प्रथमसमयका जो परिणामस्थान समान होता है उससे पहले ग्रहण किये गए पूर्वके समस्त परिणामोंसे शेप बचे हए परिणामस्थानोको ग्रहणकर वही दूसरे खडका प्रमाण होता है । इसप्रकार क्रमसे जाकर पुन. प्रथम निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तिमसमयके जघन्यपरिणामोके साथ प्रथमसमयके परिणामस्थानोमे जो परिणाम सदृश होते है उससे पहले ग्रहण किये गये पूर्वके समस्त परिणामोसे शेष बचे परिणामस्थानोको ग्रहणकर प्रथमसमयमे द्विचरम खडका प्रमाण होता तथा उससे अागेकै शेष समस्त विशुद्धिस्थानोके द्वारा अन्तिम- . खंडका प्रमाण उत्पन्न होता है। ऐसा करनेपर अध प्रवृत्तकरणकोलके सख्यातभाग करके उनमेंसे एकभागमें जितने समय होते है उतने ही खड हो जाते है । इसीप्रकार अध.प्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयके प्राप्त होनेतक द्वितीयादिसमयोमे भी पूर्वोक्त कही गई । विधिसे पृथक्-पृथक् अन्तर्मुहूर्तप्रमाण खड जानना चाहिए । इसप्रकार कहे गए समस्तपरिणामोकी सदृष्टिं निम्नप्रकार है. | समय प्रथमखण्ड | द्वितोयखण्ड । तृतीयखण्ड अन्तिमखण्ड . अन्तिम, निर्वर्गणाकाण्डक अन्तिम १००००००००००००० १००००००००००००० समय द्विचरम-१००००००००००। १०००००००००००-१०००००००००००० १००००००००००००० समय छठा १००००००००० १००००००००००० १०००००००००० समय पाचवा १०००००००० ०००००००००० ००००००००००० समय । ।। । १००००००००० १. ज.ध. पु. १२ पृ. २३८-३९ । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ४६ १०००००००००० १००००००००० 000000 १०००००००० १०००००००० १००००००००० १००००००० प्रथमनिर्वर्गणाकाण्डक १०००००००० १००००००० १०००००० १०००००० समय द्वितीय १००००० समय प्रथम | १०००० समय १००००००० १००००० १०००००० - : उपर्युक्तसदृष्टिमे अध करणकालके ८ समय और एकनिर्वर्गणाकाण्डकके चारसमय, प्रत्येक समयके चारखण्ड, अध प्रवृत्तकरणकालमे दो निर्वर्गणाकाण्डक । चयका (विशेषका) प्रमाण एक शून्यरूपसख्या परिणामोकी संख्याकी द्योतक है । इसी उपर्युक्त कथनकी अकसदृष्टि निम्न प्रकारसे है। प्रथम निर्वर्गणाकाण्डक | द्वितीय निर्वर्गणाकाण्डक | तृतीय निर्वर्गणाकाण्डक | चतुर्य निर्वर्गणाकाण्डक | समय १ | २ | ३ ४ ५ ६ ७८६ | १० | ११ | १२ १३ | १४ | १५ | १६ | | ३| | सर्वधन |१६२ १६६ १७० १७४१७८ | १८२, १८६ १६०/ १६४ १६८ २०२ २०६/२१० २१४ २१८ २२२ इस अकसदृष्टिमे अध प्रवृत्तकरणका १६ समय, एकनिर्वर्गणाकाण्डकमें चारसमय, प्रतिसमय चयका प्रमाण ४, प्रतिखड चयका प्रमाण १ तथा निर्वर्गणाकाडकोकी सख्या ४' । __ अध प्रवृत्तकरण के प्रथमसमयसम्बन्धी प्रथमखडके परिणाम उपरिमसमयसम्बन्धी परिणामोमे से किन्ही भी परिणामोके समान नही होते है। वहीपर द्वितीयखडके परिणाम दूसरे समयके प्रथमखडके परिणामोके समान होते है। इसोप्रकार यहाके अर्थात् प्रथमसमयके तृतीयादि खडोके परिणामोंका भी तृतीयादि समयोक १ पु. ६ पृ २१६ से उक्त सदृष्टि बनाई है । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४६ ] लब्धिसार [ ३७ प्रथमखंडके परिणामोंके साथ क्रमसे पुनरुक्तता तबतक जानना चाहिए जब जाकर प्रथमसमयसम्बन्धी अन्तिमखडके परिणाम प्रथमनिर्वर्गेणाकाडकके अन्तिमसमयके प्रथम - खण्डसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते है । इसीप्रकार अधःप्रवृत्त - करणके द्वितीयादि समयोके परिणामखण्डोको भी पृथक्-पृथक् विवक्षितकरके वहाके द्वितीयादि खण्डगत परिणामोंका विवक्षितसमय [ द्वितीयादिसमय ] से लेकर ऊपर एक समयकम निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण समयपक्तियोके प्रथमखण्डसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्तपनेका कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र प्रथमखडके परिणाम अपुनरुक्तपनेसे अवशिष्ट जानना चाहिये । अर्थात् प्रत्येकसमयके प्रथमखंड - सम्बन्धी परिणाम अगले समयके किसी भी खडसम्बन्धी परिणामोंके सदृश नही होते । इसीप्रकार द्वितीयनिर्वर्गकाण्डक परिणामखुण्डोका तृतीयनिर्वर्गरणा काडक परिणामखडोके साथ पुनरुक्तपना जानना चाहिए, किन्तु यहा भी प्रथमखंडसम्बन्धी परिणाम ही अपुनरुक्तरूपसे अवशिष्ट रहते है । इसीक्रमसे तृतीय, चतुर्थ और पंचमादि निर्वर्गणाकाण्डकोंके भी अनन्तर उपरिम निर्वर्गरण काण्डको के साथ पुनरुक्तपना वहातक जानना चाहिए जब जाकर द्विचरमनिर्वणाकाण्डक के प्रथमादिसमयोंके सर्व परिणामखड प्रथमखंडको छोड़कर अन्तिमनिर्वर्गणाकाडकसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते है । अब अन्तिमनिर्वर्गरणा काडकसम्बन्धी परिणामोके स्वस्थानमें पुनरुक्त अपुनरुक्तपनेका अनुसन्धान परमागमके विरोधपूर्वक करना चाहिए' । प्रकसदृष्टि के अनुसार अपुनरुक्तखंड अपनेसे उपरिम किसी खंडके सदृश नही है १. ज.ध.पु १२ पृ. २४०-४१ प्रकरण ११ । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंधिसार [ गाथा ४६ ५२ ५१ ४८ |४७ ४६ ४३ ४२ ४१ ४० प्रथमसमयमे जो प्रथमखण्ड है वह ऊपर किसीके साथ भी समान नही है । पुनः प्रथमसमयका दूसरा खड (४०) तथा द्वितीयसमयका प्रथमखंड (४०) दोनो सदृश ही है, तथैव प्रथमसमयका तृतीयखण्ड (४१) और द्वितीयसमयका दूसराखड (४१) समान है । इसीप्रकार आगे जाकर पुनः प्रथमसमयका अन्तिमखंड (४२) एव द्वितीयसमयका द्विचरमखण्ड (४२) सदृश है, तथैव द्वितीयसमयके परिणामखडोका और तृतीयसमयके परिणामखंडोका सन्निकर्ष करना चाहिए । एवमेव ऊपर भी पिछले की तदन्तरोके साथ सन्निकर्षविधि जानकर कहनी चाहिए'। इसप्रकार अनुकृष्टिप्ररुपणा समाप्त हुई। १. ज.ध पु १२ पृ २४१ प्रकरण ६२ । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२ ] लब्धिसार [3 अल्पबहुत्व स्वस्थान और परस्थानके भेदसे दो प्रकारका है । स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है - अधः प्रवृत्तकरणके प्रथमसमय में प्रथमखंडका जघन्यपरिणाम सबसे स्तोक है, उससे वहीपर द्वितीयखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । उसमे वहींपर तीसरेखण्डका जघन्यपरिणाम अनन्तगुणा है । इसप्रकार वहीपर अन्तिम खण्डका जघन्यपरिरणाम अनन्तगुरणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक जानना चाहिये । इसप्रकार मात्र प्रथमसमयके परिणामखण्डों के जघन्यपरिणामस्थानोका अवलम्बन लेकर स्वस्थानअल्पबहुत्व किया । अब प्रथमसमयमे प्रथमखण्डका उत्कृष्टपरिणाम स्तोक है । उससे वहीपर दूसरे खन्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुरणा है, उससे वहीपर तृतीयखण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है । इसीप्रकार आगे भी अन्तिम खण्डका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणा है इसस्थानके प्राप्त होनेतक कथन करना चाहिए । इसप्रकार प्रथमसमयके सर्वंखण्डोके उत्कृष्टपरिणामोंका अवलम्बन लेकर स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन किया', ! इसीप्रकार दूसरे समयसे लेकर अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिमसमयतक प्रत्येकखण्डके प्रति प्राप्त जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंका स्वस्थान प्रल्पबहुत्व जानना चाहिए । इसके पश्चात् स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन समाप्त हुआ" । परस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है- अधः प्रवृत्तकरण के प्रथमसमयमे जघन्यविशुद्धि सबसे स्तोक है, क्योकि इससे कम अन्य कोई जघन्यविशुद्धिस्थान अधःप्रवृत्तकरणमें नहीं है । उससे दूसरे समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि प्रथम समय के जघन्यविशुद्धिस्थानसे षट्स्थानक्रमसे असंख्यात लोकमात्र विशुद्धिस्थानोंको उल्लघकर स्थित हुए द्वितीयखण्ड (४०) के जघन्यविशुद्धिस्थानका दूसरे समय मे जघन्यपना देखा जाता है; इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त जानना चाहिए तथा अन्तर्मुहूर्त से ऊपर जाकर स्थित प्रथमनिर्वर्गुणाकाण्डक के अन्तिमसमय के प्राप्त होनेतक इस क्रमसे जघन्य विशुद्ध ही प्रतिसमय अनन्तगुणित क्रमसे कथन करना चाहिए । उससे प्रथमसमयकी (४२की.) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि इसके अनन्तर पूर्व जो जघन्यविशुद्धि कही गई है वह अध प्रवृत्तकरणके अन्तिमखण्ड (४२) की जघन्यविशुद्धि है और यह उसे प्रतिमखड (४२) की उत्कृष्टविशुद्धि है जो उक्त जघन्यविशुद्धिसे छहस्थान क्रम वृद्धिरूप असख्यातलोकप्रमाण परिणामस्थानोंको उल्लंघकर अवस्थित है । इसलिए श्रुनन्तरपूर्वकी जघन्यविशुद्धि से यह उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी हो गई है । इस उत्कृष्ट ज.ध. पु. . १२ पृ. २४४-४५ । १. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ४६ ४० ] लम्बिसार विशुद्धिसे द्वितीय निर्गणाकांडक्के प्रथमसमयकी (४३) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि प्रथमसमयकी उत्कृष्टम्भुिद्धि 'उर्वक ल्पसे अवस्थित है और द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके प्रथमतमयकी जघन्यविशुद्धि 'अप्टांक' रूपते अवस्थित है इसलिये अनन्तगुणी हो गई। उससे प्रयननिर्वर्गणानांडकके दूसरेसमयकी उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि पूर्वकी जघन्यविशुद्धि दूसरे नमश्के अन्तिमखण्डके जघन्यपरिणामस्वरूप है और यह उत्कृप्वविशुद्धि असंत्यातलोप्रमाण पत्यानवृद्धिको उल्लंघकर स्थित हुए दूसरे नमयके अन्तिमखंडकी उत्कृष्टविशुद्धि है, इसलिये यह उत्कृष्टविशुद्धि पूर्वकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी सिद्ध हो जाती है । इस पद्धतिसे अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण एक निर्गणाकाण्डकको अवस्थितकरके उपरिम और अधस्तन जघन्य और उत्कृष्टपरिणामोंसे अल्पबहुत सावना चाहिए । अन्यबहुन्त्रका यह क्रम सर्व निर्वर्गणाकाण्डकोंको क्रमले उल्लंयकर पुनः हिवरमनिर्वर्गणानांके अन्तिमसमयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे अवःप्रवृत्तकरणके अन्तिम निवर्गणाकांकजी जघविशुद्धि अनन्तगुणी होकर जघन्यविशुद्धिका अन्त प्राप्त होनेतक करना चाहिए। इतनी दूर तक जो एक-एक निर्वर्गणाकाण्डकके अन्तरसे जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानोंग अल्पवहुत्व कहा गया है उसमें कोई भेद नहीं है। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-प्रथननिर्वर्गणाकांडकके दूसरे सनयकी (४३ की) उत्कृष्टविशुद्धिसे दूसरे निवर्गणाकांडकके दूसरे समयकी (४४ की) जयन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, इसने प्रयननिर्गरणाकांडकके तीसरेसमयकी (४४ की) उप्ठन्शुिद्धि अनन्तगुणी है. इसने द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके तीसरेसमयकी (४५ की) जयन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, इससे प्रथमनिर्वर्गणाकांडकके चौथेसमयकी (४५ को) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार दूसरे निर्वर्गणाकांउकके अंतिमसन्नी जयन्यविशुद्धिपर्यन्त अनन्तगुणत्व ले जाना चाहिए । इसीप्रकार तृतीय निर्वगंगानगंड के सनयोंकी जयन्यविशुद्धि और द्वितीयनिर्वर्गणाकांडकके समयोंकी उत्कृष्टविगुटिका परस्पर अव्यवहुन्त्र कहना चाहिये । इसीप्रकार अनन्तर उपरिम निर्वर्गणा राहकके जवन्यपरिणानोका नन्तर अवस्तन निर्गणाकांडकके उत्कृष्टपरिणामोंके नाय ने अनुसन्धान करते हए. अधःप्रवनकरणके अन्तिमसमयकी जघन्यविशुद्धि हिनन्दिगगाडको अन्तिमसमयकी उत्कृष्टविद्धिसे अनन्तगणी होकर जघन्यवित्रियों कन्नको प्रान होती है: रहा ले जाना चाहिए । पुनः हिवरमनिर्वनणामा.पने अन्तिनम्म्यको (५: श्री) उत्कृष्टविद्धिने प्रवःप्रवृत्तकरणके अंतिमसमयकी Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा ५० ] [४१ (५४ की) जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चरमनिर्वर्गणाकाडकके प्रथमसमयकी (५४ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चरमनिर्वर्गणाकाडकके द्वितीय समय (५५ की) उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे तीसरे समयकी (५६ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है, उससे चतुर्थसमयकी (५७ की) उत्कृष्टविशुद्धि अनन्तगुणी है । इसप्रकार यह क्रम अध प्रवृत्तकरणके अन्तिमसमयतक (अन्तिमनिर्वर्गणाकाडकके अन्तिमसमयतक) ले जाना चाहिए । ज ज ज ४० २० १२१ ज ज ज ज ज ज ज ज ज ज. ज. ज.. १६३ २०६ २५० २५५ ३४१ २-८ ४३६ ४५ ५३५ ५८६ ६३८ ६८१ ४ १५ १ १६२ २०५ ४८ २४४ ३४० ३२७ ४३५ ४८४ ५३४ ५ ६७ ६० ७४४ ५. उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ उ । उपर्युक्तसंदृष्टिमे-१ से १६ तक की सख्या अध:प्रवृत्त करणके समयोकी सूचक है । एब अपूर्वकरण सम्बन्धी कथन करते हैपढमं व विदियकरणं पडिसमयमसंखलोगपरिणामा। अहियकमा हु विसेसे मुहत्तअंतो हु पडिभागो ॥५०॥ अर्थ-प्रथम अर्थात् अध प्रवृत्तकरण के समान द्वितीय अर्थात् अपूर्वकरण है। इसमे प्रतिसमय अधिक क्रमसहित असख्यातलोक परिणाम होते है । विशेष (चय) के लिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रतिभाव है। विशेषार्थ-अध प्रवृत्तकरणमे प्रतिसमय असंख्यातलोक परिणाम होते हैं और वे चय अधिकक्रमसे होते है ऐसा कथन पहले गाथा ४२ में किया जा चुका है। यहां द्वितीय अपूर्वकरणसम्बन्धी कथन किया जावेगा। अपूर्वकरणसम्बन्धी तीन अनुयोगद्वार है-(१) प्ररुपणा (२) प्रमाण और (३) अल्पबहुत्व । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें परिणामस्थान हैं, दूसरेसमयमे परिणामस्थान हैं । इसप्रकार अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्त १ ज.ध. पु १२ पृ. २४५ से २५१ तक । १. अपूर्वकरणद्धाए सव्वत्थ समए समए असखेज्जलोगा परिणामहाणाणि। (क पा.सुत्त पृ. ६३३) Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] -लवार कालुके चरमसुनुयुतक –—–प्रतिसमय से परिणामस्थान जालना समाप्त हुना सारोको एक-एक समयमे परिणामस्थान अख्यातुलो का समय है । NI [[ ग्राथा अनुयोगद्वार (कि अनुहार समाप्त ि ) मधुतासम्बन्धी प्★ल्पेवहुत्व + । FT) ०४ । द्र --- - - अल्पबहुत्व दोप्रकारका है विशुद्धियोकी तीव्रता र परिणाम की पत्तियो की क्रीता (सरबा) - सम्बन्धी बहसपूर्वक क प्रथमसमयमे परिणामोकी पक्तिका आयामी (संख्या) सबसे स्लाभा हा उससे दूसरे समयमे विशेष अधिक है । प्रथमसमयसम्बन्धी परिणामोके यन्तम् हूर्त के समय प्रमाण खण्ड करनेपर उनमेंसे एकक्डप्रमाण विशेषअधिक प्रमाण हैं । अर्थात प्रथम मयंक परिणामोकों अन्तर्मु इतके समयति, भीग देनपर जो लव्ध प्राप्त हो, उतने (श्रसंख्यात- ( लोक) प्रमाणे विशेषअधिक है ।। इसप्रकार अन्तरो विधाका आश्रय करके अर्थात् निरन्तर विशेषअधिक, क्रमसे अन्तिमसमयके परिणामो प्रतिके प्रायाम(परिम की संख्या) के प्राप्त होनेतक कथन करते हुए ले जाना जाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येकसमयमे अपूर्व ही परिणामस्थान होते हैं । इसप्रकार पूर्वकरणके अन्तमुं हूर्तकालमे सर्वत्र प्रत्येकसमयमे असख्यात लोक प्रमाण परिरंगांमस्थान होते हैं। दूसरे करणको अपूर्वकरण- सज्ञी देनेका कारण कहते हैं 'जम्हा' उद्देरिमभात्रा' हेट्टिमभावैहिं रात्थि सैरिसन्तं" । लम्हा विदियं करणं अव्त्रकरणं त्ति गिट्टि ५१ ॥ -अर्थ-क्योकि उपरिम समय के परिणाम नीचले समय सम्बन्धी परिणामोके समान नही होते इसलिये इस दूसरे करणको अपूर्वकरण' कहा गया है विशेषार्थ - जितने स्थान ऊपर जाकर विवक्षित समयकें परिणामोकी अनुकृष्टिका विच्छेद होता हैं उसीका नाम निर्वर्गरणाकोडक" है, किन्तु यहाँ अपूर्वकरणके प्रत्येकसमयमे निर्वर्गणाकाङकोको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि विवक्षितसमयक् परिणाम ऊपरके एक भी समयमै सम्भव नही है । प्रत्येकसमयमें अनुकृष्टिके विच्छेद स्क्रूप म्रुचूर्वकरणका लक्षण जानना चाहिए । CETTE CATC ज. १२२५२-५३-५४ । th २. दृश्यताम् घ पु १ पृ १८३ । प्रा. पं स . १ गा. . १८३० - जी. या ३ कालच्छे FIF ज घ. प. पू. १२, १५४ 15 F ܐ ୧ i Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - ५२ ] ] लसी -करण नाम परिरंगामका है' नानी जो करण होते हैं उन्हें अपूर्वकरण कहते है, जिनका अर्थ समाला परिणाम होता है 'इसप्रकार पूर्वकरणका लक्षण निरुपण किया गया है ! FEM? YESP WHITE 1-1-27-अब परिणामोंमें परस्पर विशेषता कहते हैंए जिम्म रु 1. 3 ए ल 33 "विदियकरणादि समयादतिमसमत्ति अवरवरसुद्धी-1 अहिगदिणा खलु सव्वे होंति श्रतेाः गुद्रिक५२ ॥ 3 क " 1. ५ १. ध. पु १ पृ. १८१ ॥ २. 'ध' पु. ६ पृ.२ ३ ४. 'की अर्थ—दूसरे 'अर्थात् अपूर्वकरणकै प्रथमसमयसे लेकर अतसम॑य॒पय॑न्त॒ प्रत्येक समयकें जघन्यपरिणामसे उसी समयका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिवाला है. इस उत्कृष्टपरिणामसे अनन्तर उत्तरसंमयका जघन्य परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिवाला है। इसप्रकार सर्पको चालके समान विशुद्धतासम्बन्धी अल्पबहुत्वका कथन है । „ २२१ । एव के पा. सुत्त पु די 1 ट्रा 2 X FOTO, 751 , विशेषार्थ - अपूर्वकृरण के प्रथम समय मे असख्यात्तलोक प्रमाण विशुद्धिस्थानों के मध्य जो जघन्यविशुद्धि- है वह सबसे स्तोक अर्थात् मन्द्रअनुभागवाली है । प्रपूर्वक ररण के प्रथमसमयमे जो उत्कृष्टविशुद्धि है- वह असख्याच लोकः षट्स्थानवृद्धिको उल्लघकर अवस्थित है और वह पूर्व की जघन्य विशुद्धि से अनत्तगुणी है । प्रथमसमयकी उत्कृष्टविशुद्धिसे द्वितीयसमयकी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि असख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानवृद्धिकै अन्तरसे इसकी उत्पत्ति होती है । अपूर्वकरण के दूसरे समयकी उत्कृष्टविशुद्धि उसीसमयकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी हैं । द्वितीय समय की उत्कृष्टविशुद्धि... से तृतीयसमयकी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है । तृतीयसमयको उत्कृष्टविशुद्धि श्रनन्तगुणी है; कारण पूर्ववत् ही है । इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरणके चरमसमयतक ले जाना चाहिए । 只 FB पर ए क. पा. सुत्त पृ. ६२३ सूत्र ६५-७१ । 1 ព ज ध. पु. १२ पृ. २५३-५४ । ६२२ * " ין -1 फ ६२३ । ؟ TOT F ך ! דורין : : יין *♪ 1 1 स - 1 ܪ ر S | ४४ iT, 3 [ 167 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] लब्धिसार [ गाथा ५३-५४ आगे अपूर्वकरणपरिणामका कार्यविशेष बतानेके लिए गाथासूत्र कहते हैंगुणसे ढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुव्यकरणादो । गुणसंकमेण सम्मा मिस्साणं पूरणोति दवे ॥ ५३ ।। अर्थ – प्रपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर, गुणसक्रमरण से सम्यक्त्व-मिश्रद्वय प्रकृतिके पूरनेके कालके चरमसमयपर्यन्त गुणश्र णि, गुणसक्रमण, स्थितिका कघात और अनुभागकाडकघात होते है । विशेषार्थ–उपशमसम्यक्त्वके कालमे यद्यपि दर्शनमोहकी गुणश्रेणि व स्थितिकाडकघातादि नही होते, किन्तु प्रयुकर्म और मिथ्यात्व को छोडकर शेपकर्मो के स्थितिघात, अनुभागघात और गुण रिणरूप कार्य तबतक होते रहते है जबतक गुणसक्रमण ( मिथ्यात्वका ) होता रहता है' । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके श्रभिमुखजो त्र के अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे गुण सक्रमण प्रारम्भ नही होता, किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथमसमयसे सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे असख्यातगुणे क्रमसे प्रदेशपुज देनेके लिये गुणसक्रमण प्रारम्भ होता है । इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकालतक गुणसक्रमण होता है उसके पश्चात् उपशमसम्यक्त्वके अन्ततक विध्यातसक्रमण होता है । स्थितिबन्धासरण कब तक होता है सो कहते हैं— 'ठिदिबंधोसरणं पुण श्रधापवत्तादुपूरणोत्ति हवे | ठिदिबंध द्विदिखंडुक्कीरणकाला समा हौनि । ५४ ॥ श्रर्थ—स्थितिबधापसरण भी अध प्रवृत्तकरण से लेकर सम्यक्त्व व मिश्रप्रकृतियोके पूरणकालतक होता है । स्थितिबधापसरणकाल और स्थितिकाडकघातका उत्कीरणकाल, ये दोनो काल समान अर्थात् तुल्य होते है । विशेषार्थ — स्थितिबधापसरण यद्यपि प्रायोग्यलब्धि में भी होता है, किन्तु यहा उसकी विवक्षा नही है, क्योकि प्रायोग्यलब्धि भव्य और अभव्य दोनोके समानरूपसे होनेसे प्रायोग्यलब्धिमे सम्यक्त्वोत्पत्तिका नियम नही है । (देखो गा. ७) प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमे मिथ्यात्वका बन्ध नही होता इसलिये सम्यक्त्वकालमे दर्शनमोहनीयकर्मका वन्धापसरण नही होता, किन्तु अन्यकर्मोका बन्धापसरण होता रहता है । १. जध पु १२ पृ २८५; घ. पु१६ पृ. ४१५; गो क.गा ४१६ । २. ज. घ. पु १२ पृ २८२ से २८४ । ३. तम्हि ट्ठिदिखडयद्धा ठिदिवधगद्धा च तुल्ला । क. पा सुत्त पृ. ६२५ सूत्र ८७ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५५ ] लब्धिसार [ ४५ अन्तर्मुहूर्तकालतक समान स्थितिका बन्ध होनेके पश्चात् स्थिति घटकर बंधती है वह स्थिति भी अन्तर्मुहूर्तकालतक बधी है। इसप्रकार एकस्थितिबन्धापसरणका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा गया है। स्थितिकांडकघात करनेमें भी अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्तके प्रत्येकसमयमें एक-एक फाली (कुछद्रव्य) उत्कीर्ण की जाती है । अन्तिमफाली द्वारा शेषद्रव्य उत्कीरण ोने पर स्थितिघात होता है । अतः स्थितिकाडकघातमे जितनाकाल लगता है वह काल और स्थितिबन्धापसरणकाल दोनो तुल्य व अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। अपूर्वकरणमे प्रथमस्थितिबन्धापसरणकाल व स्थितिकाडकोत्कीरणकाल तुल्य है । द्वितीयादि स्थितिकांडक और स्थितिबधका काल परस्पर समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथमस्थितिकांडकके उत्कीरणकालसे और प्रथमस्थितिबन्धके कालसे द्वितीयादिकोका काल यथाक्रम विशेषहीन-विशेषहीन जानना चाहिए'। अथानन्तर गुणश्रेणीके स्वरूपका निर्देश करते हैंगुणसेढीदीहत्तमपुव्वदुगादो दु साहियं होदि । गलिदवसेसे उदयावलिबाहिरदो दु णिक्खेवो ॥५५॥ अर्थ-गुणश्रेणीकी दीर्घता अर्थात् गुणश्रेणीआयाम अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकालसे अधिक होता है वह गुणश्रेणीप्रआयाम गलितावशेष है तथा उदयावलीसे बाह्यनिक्षेप होता है। विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख यह जीव अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे आयुकर्मके अतिरिक्त शेषकर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप प्रारम्भ कर देता है । शंका-आयुकर्मका गुणश्रेणिनिक्षेप क्यो नहीं करता है ? समाधान-आयुकर्मका गुणश्रोणि निक्षेप स्वभावसे ही नही करता है, क्योकि इसमे गुणश्रोणि निक्षेपकी प्रवृत्ति असभव है । ___ उस गुणश्रोणि निक्षेपका प्रमाण अपूर्वकरणकालसे और अनिवृत्तिकरणकालसे अर्थात् इन दोनो कालोसे विशेषअधिक है। यहां अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणके समुदित कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है, उससे विशेषअधिक इस गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम है। १. ज.ध. पु. १२ पृ २६६ । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [[ममा ५६ 17 लब्धिसार शंका,-विशेषका प्रमाण कितना है ? . . . . , .. समाधान-अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातवेभाग विशेषका प्रमाण है, ७ : नोट-जिन निषेकोमे गुणाकार क्रमसे अपकर्षितद्रव्य निक्षेपित किया जाता है अर्थात् दिया जाता है उन निषेकोका-नाम गुरणश्रेणिनिक्षेप है उन निषेकोंकी सख्याका प्रमाण गुणश्रेणीमायाम है। : अथानन्तर निक्षेप व अतिस्थापना स्वरूप-भेद-प्रमाणादिका कथन करते हैं- णिक्खेवमंदित्थावर्णमवरं समऊंगावलितिभागं। ' तेणणावलिमेत्तं विदियावलियादिमणिसेगे॥५६॥ . . अर्थ-द्वितीयावलिका आदिनिषेक अर्थात् उदयावलिसे अनन्तंर उपरिमनिषेक मे से द्रव्य अपकर्षितकरके नीचे उदयावलिमे देता है तब एकसमयकम आवलिका त्रिभाग तो जघन्यनिक्षेप है तथा प्रावलिके शेषनिषेक जघन्यप्रतिस्थापना है । . विशेषार्थ-जो स्थिति अभी उदयावलिके अन्तिमसमयमे प्रविष्ट नही हुई है, किन्तु अनन्तर अगले समयमें प्रविष्ट होनेवाली है उसके निक्षेप और प्रतिस्थापना सर्वजघन्य है । स्पष्टीकरण इसप्रकार है "उस स्थितिका अपकर्पण करके, उदयसमयसे लेकर आवलिके तृतीयभार्गतक" उसका निक्षेप करता है और भागप्रमाण "ऊपरके हिस्सेको प्रतिस्थापनारूपसे स्थापित करता है। इसलिए प्रावलिका तृतीयभाग उस अपकर्षितस्थितिके निक्षेपका विषय है और प्रावलिका ई भाग अतिस्थापना है। शंका-प्रावलिकी परिगणना कृतयुग्म सख्यामे की गई अत' उसका तृतीयभाग कैसे ग्रहण किया जाता है ? " " - समाधान-प्रोवलिका प्रमाण जघन्ययुक्तासंख्यात है, अत पावलिकी परिगणना कृतयुग्मसख्यामे की गई है, (जो सख्या ४ से पूर्णरूपेण विभाजित हो जोवें वह 'कृतयुग्म' सख्या है ) इसलिए उसका शुद्ध तीसराभाग नही हो सकता अत' प्रावलिसे एककम करके उसका तृतीयभाग ग्रहण करना चाहिए। अब यहा आवलिमे से जो १. ज प.पु ८ प २४३-४४ । २ प पु १२ प्रस्तावना पृ ३, ध पु १४ पृ १४७, ध. पु. १२ पृ १३४, भगवतीसूत्र लो प्र १२।७६, ध पु. ३ प २४६, ध. पु १० प्रस्तावना पृ. ३, ध पु १० मूल पृ. २२-२३ । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गाथा ५७"]'' लब्धिसार [ ४७ एककम किया गया है उसको त्रिभाग में मिला देनेपर जघन्यनिक्षेप होता है और एककम लबलिका भागप्रमाण जघन्य प्रतिस्थापना होती है जो जघन्यनिक्षेपके दूनेसे दो समयकम' है' I उदाहरण - आवलिका प्रमाण १६ समय है । ( १६-१)=१५; १५÷३= +१=६ 'जघन्यनिक्षेप है । १६- ६ = १० समय जघन्य प्रतिस्थापना है । ' +4 एतो समऊणावलितिभागमेत्तो तु तं खु-सिक्खेवो । उवरिं वलिवज्जिय सगट्टिदी होदि क्खेिवो ॥५७॥ अर्थ – इस प्रथमनिषैकसे ऊपर एकसमय कम आवलिके त्रिभागतकके निषेकोके अपकृष्टद्रव्यका निक्षेप तो पूर्वोक्त ही है । इससे ऊपर प्रतिस्थापनारूप आवलिको छोड़कर अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण निक्षेप होता है । 7 7 के विशेषार्थ - उदयावलिसे बाह्य अनन्तर प्रथमस्थिति से ऊपर अनन्तरसमयवर्ती द्वितीयस्थितिके अपकष्तिव्यका उतना ही निक्षेप होता है, क्योकि इसमे कोई भेद नही है, किन्तु प्रतिस्थापना एकसमय अधिक होती है, चू कि उदयावलि के बाहर की स्थिति भी प्रतिस्थापना में मिलर्गई है।' इसप्रकार प्रतिस्थापनामे उदयावलिके बाहरसे, जघन्यनिक्षेपप्रमाण स्थितियोके प्रविष्ट होनेतक निक्षेपको अवस्थितरूपसे ले जाना चाहिए और अतिस्थापनाको उत्तरोत्तर एक-एक समय अधिक क्रमसे अनवस्थितरूपसे ले जाना चाहिए । यहा जो स्थिति प्राप्त होती है उसकी प्रतिस्थापना पूर्ण एकावलिप्रमाण हैं तथा निक्षेप जघन्य ही रहता है ! "र्शका-जिसेस्थिति विशेषके प्राप्त होनेपर प्रतिस्थापना पूरी ऐकावलिप्रमाण होती हैं, वह स्थितिर्विशेष किसस्थानमै प्राप्त होता है ? -- समाधान-उदयावलिके बाहर आवलिके तृतीयभागकी जो अतिमस्थिति है, वहां वह॒ स्थितविशेषु प्राप्त होता है । ( यहा अन्तिम स्थिति से तदनन्तर उपरिम I स्थिति विशेष ग्राह्य है । ) 1 १. ज.-ध-पु. ८ पृ. २५१-१ २ जग्ध' पु ं८ पृ. २५१ ३. ज.ध.पु. ८ पृ. २४५ । 一 1 7 IT 1 TE 7 = 1 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] लब्धिसार . [ गाथा ५८ गाथामें जो 'समऊणावलितिभाग' पद पाया है उससे एकसमयकम प्रावलिका विभाग व एकसमयअधिक ऐसा ग्रहण करना चाहिये । उदयावलिके बाहर जघन्यनिक्षेपप्रमाण स्थितिका उलघनकरके जो स्थिति स्थित है उसके प्राप्त होनेपर पूरी एकावलिप्रमाण अतिस्थापना होती है। उससे आगे निक्षेप बढता है, क्योकि उत्कृष्टनिक्षेपके प्राप्त होनेतक जघन्य निक्षेपसे आगे एक-एकसमयाधिक क्रमसे निक्षेपकी वृद्धि होनेमे कोई विरोध नही आता, क्योकि निर्व्याघातप्ररुपणामे सत्त्वप्रकृति पर्याप्त है। ( स्थितिकाडकघातका अभाव निर्व्याघात कहलाता है' । ) उदयस्थितिसे लेकर एकसमयाधिक दोआवलिप्रमाण स्थान आगे जाकर वहा अतिस्थापना व निक्षेप दोनो ही एक-एक प्रावलि प्रमाण हो जाते है उदयावलिके वाहर वहातककी सर्वस्थितियोके प्रदेशाग्रोका निक्षेप उदयावलिके भीतर ही होता है। सर्वत्र अपकर्षितस्थितिको छोड कर उससे नीचे अनन्तरवर्ती स्थितिसे लेकर एकावलिप्रमाण स्थितिया अतिस्थापना होती हैं तथा उदयस्थितिसे लेकर अतिस्थापनासे पूर्वतककी सर्वस्थितियोंमे निक्षेप होता है। उक्कस्सटिदिबंधो समयजुदावलिदुगेण परिहीणो । ओक्कदिदिम्मि चरिमे ठिदिम्मि उक्कस्सणिक्खेवो ॥५८।। अर्थ उत्कृष्टस्थितिका बन्ध होनेपर चरमस्थितिके अपकर्पितद्रव्यका समयाधिक दोप्रावलिहीन उत्कृष्टस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप होता है । विशेषार्थ-उत्कृष्टस्थितिको बाधकर और बन्धावलि ( अचलावलि ) को व्यतीतकर फिर चरम अर्थात् अग्रस्थितिका अपकर्षणकरनेपर प्रतिस्थापनाकी एक श्रावलिको छोडकर, उदयपर्यन्त उस अपकर्षितद्रव्यके निक्षिप्त करनेपर निक्षेपका प्रमाण एकसमयाधिक दोग्रावलिसे न्यून' उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप उपलब्ध होता है। १. ज.ध.पु ८ पृ. २४७ । २. वन्धके बाद बद्धद्रव्यावलि तक तो सकलकरणोके अयोग्य होनेसे बद्धद्रव्यका प्रावलिकाल तक अपकर्पण भी नही होगा सो १ प्रावलि तो यह कम पडी तथा अतिस्थापना ( सावलीप्रमाण ) मे अपकृष्ट द्रव्य का निक्षेप नही होता। आवली यह और गई तथा अन्तिमनिषेकके द्रव्यका उसी निषेकमे तो निक्षेप या प्रतिस्थापना होती नही अत. एक वह स्वय कम पडा । इसप्रकार बधावलि+प्रतिस्थापनावलि+अपकृष्यमारण निषेक-कुल एक समय अधिक दो प्रावलिमे निक्षेपण का अभाव हुआ। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५६-६० ] लब्धिसार [ ४६ - उदाहरण-कर्मस्थिति ४८०० समय । एकसमयाधिक दो आवलि (१६४२ +१)=३३ समय । ४८००-३३=४७६७ उत्कृष्ट निक्षेप' । अब व्याघातापेक्षा उत्कृष्ट प्रतिस्थापनाका कथन करते हैंउक्कस्सदिदि बंधिय मुहुत्तअंतेण सुज्झमाणेण । इगिकंडएण घादे तम्हि य चरिमस्स फालिस्स ।।५।। चरिमणिसेमोक्कड्डे जेट्ठमदित्थावणं इदं होदि । समयजुदंतोकोडाकोडि विणुक्कस्सकम्मठिदी ॥६०॥ . अर्थ-उत्कृष्टस्थितिको बाधकर अन्तर्मुहूर्तके द्वारा विशुद्ध होता हुआ, अंतःकोड़ाकोड़िसागरप्रमाण स्थितिके अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण. उत्कृष्टस्थितिका एककाडकघातके द्वारा घात करनेवालेके काडककी चरिमफालिके चरमनिषेकके अपकर्षितद्रव्यकी उत्कृष्टअतिस्थापना समयाधिक अन्त कोडाकोडिसागरंसे होन उत्कृष्टकर्मस्थिति होती है। विशेषार्थ-स्थितिका घात करते हुए जिसने स्थितिघात करनेके लिये उत्कृष्टकांडकको ग्रहण किया है, उसके उत्कृष्टप्रतिस्थापना होती है । - शंका–उत्कृष्टकाडक कितना है ? समाधान-जितनी उत्कृष्टकर्मस्थिति है उसमेसे अन्त कोड़ाकोडिसागर कम कर देनेपर जो स्थिति शेष रहे उतना उत्कृष्टस्थितिकाडकघात होता है । इस स्थितिकाडकको प्रारम्भ करनेपर उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है और प्रतिसमय होनेवाले घातसे सम्बन्ध रखनेवाली स्थितिकाडकसम्बन्धी फालिया भी उतनी ही होती है अर्थात् अन्तर्मुहूर्तके जितने समय होते है उतनी ही कांडककी फालिया, होती हैं। उसकाडकमें से प्रथमसमयमे जो प्रदेशाग्र उत्कीरण होते है उसकी प्रतिस्थापना एकावलिप्रमाण होती है, क्योकि कांडकरूपसे ग्रहण की गई इन सर्व स्थितियोका अभी अभाव नही होनेसे इनका व्याघात नही होता इसलिए यहांपर भी निर्व्याघातविपयक अतिस्थापना होती है। इसप्रकार द्विचरमसमयवर्ती अनुत्कीर्ण स्थितिकाडकके प्राप्त होनेतक ले - जाना चाहिए, क्योकि कांडकरूपसे ग्रहण की गई इन सर्व स्थितियोंको १. ज. ध पु. ८ पृ. २५२ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथो ६१ ५० ] अभी अभाव नही हुआ है । उस उत्कृष्टस्थितिकाडकघातके अन्तिमसमयकी चरमफालि मे जो अनस्थिति अर्थात् चरमनिषेकका द्रव्य होता है उसकी प्रतिस्थापना एकसमयकम काडकप्रमाण होती है, क्योकि उस अन्तिमसमयकी फालीमे स्थितिकाडकघातके भीतर आई हुई सभी स्थितियोका व्याघातके कारण घात होता है। इसलिये चरमस्थितिकी एकसमयकम उत्कृष्टकाडकप्रमाण (उत्कृष्टस्थितिमे से अन्तःकोडाकोडीसागर कम कर देने पर शेषस्थिति उत्कृष्टकांडक है) उत्कृष्टअतिस्थापना होती है । शंका-इस प्रतिस्थापनाको एकसमयकम क्यो कहा ? समाधान-क्योकि अपकर्षणको प्राप्त होनेवाली अग्रस्थिति (अन्तिमनिषेक) प्रतिस्थापनासे बहिर्भूत होती है । यह एकसमयकम उत्कृष्टस्थितिकाडकप्रमाण उत्कृष्टअतिस्थापना स्थितिकाडकविषयक व्याघातके होनेपर होती है, अन्यत्र नही होती' । अब सातगाथाओंमें उत्कर्षणका कथन करते हैंसत्तग्गठिदिबंधो भादित्थियुक्कड्डणे जहणणेण । श्रावलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खियदि ॥६१॥ अर्थ-बन्ध होनेपर सत्त्वकर्मकी अग्रस्थिति ( अन्तिमस्थितिके द्रव्य ) का उत्कर्पण होता है उस उत्कर्षणकी अतिस्थापना ( आदिस्थिति ) जघन्यसे आवलिके असख्यातवेभाग होती है और जघन्यनिक्षेप भी उतना ही होता है । विशेषार्थ-नवीन अधिकस्थितिबन्धके सम्बन्धसे पूर्वकी स्थितिमेसे कर्मपरमाणुओं (प्रदेशो) की स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षण है । उसके दो भेद है—निर्व्या. घातविपयक और व्याघातविषयक । जहां प्रावलिके असंख्यातवेभागादि निक्षेपसे सबध रखनेवाली एकावलिप्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात नही होता वहां निर्व्याघातविषयक प्रतिस्थापना होती है, क्योकि उसप्रकारके निक्षेपके साथ प्राप्त हुई एकावलिप्रमाण अतिस्थापनाका प्रतिघात यहा व्याघातरूपसे विवक्षित है। १ ज. ध पु.८ पृ २४८ से २५०। २ अयं विशेषो यद् उदयावलिपरमाणुनामुत्कर्षणं कदापि न सम्भवति उदयावलि बहि स्थितेष्वपि । ३. ज. घ पु.७ पृ. २४३ । केपाचिदेव उत्कर्पण सम्भवति न सर्वेषाम् (प. पु. ७ पृ. २४३) Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i A गाथा ६२-६४ ] लब्धिसार शंका - इस प्रकारका व्याघात कहां नही होता ? समाधान - जहां सत्कर्मसे ऊपर एकसमयाधिक श्रादिके क्रमसे स्थितिबन्ध वृद्धिको प्राप्त होता हुआ एकश्रावलिके असख्यातवेभाग से युक्त एकप्रावलि बढ़ जाता है वहासे लेकर उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्राप्त होनेतक सर्वत्र ही निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण होता है' । [ ५१ व्याघातकी अपेक्षा उत्कर्षरण - यदि सत्कर्मसे बन्ध एकसमयअधिक हो तो उसस्थितिमे अग्रस्थितिका उत्कर्षण नही होता, क्योकि वहां जघन्यप्रतिस्थापना और निक्षेप इन दोनोंका प्रभाव है । यदि सत्कर्मसे दो समयाधिक स्थितिका बन्ध होता है तो उस बन्धस्थितिमे भी पूर्व - विवक्षित सत्कर्मकी प्रग्रस्थितिका स्वभावसे ही उत्कर्षण नही होता । इसप्रकार तीनसमयाधिक आदिसे लेकर आवलिके असंख्यातवेभागतक बन्धकी वृद्धि हो जानेपर भी उत्कर्षण नही होता, क्योंकि यहां जघन्य प्रतिस्थापनाके होते हुए भी उससे सम्बन्ध रखनेवाला जघन्यनिक्षेप अभी भी नही पाया जाता और निक्षेप विषयक स्थितिके बिना उत्कर्षण नही हो सकता, जघन्यप्रतिस्थापनाके ऊपर फिर भी आवलिके असंख्यातवेभागप्रमाण बन्धकी वृद्धि होने पर जघन्यनिक्षेपका होना सम्भव है । यदि सत्कर्मसे जघन्यप्रतिस्थापना और जघन्यनिक्षेपप्रमाण स्थितिबन्ध अधिक हो तो सत्कर्मकी उस अग्रस्थितिका उत्कर्षण होता है, क्योकि यहांपर जघन्यअतिस्थापना और जघन्यनिक्षेप अविकलरूपसे पाये जाते है । तत्तोदित्थावगं वढदि जावावली तदुक्कस्सं । उवरीदो क्खेिो वरं तु बंधिय दिट्ठदि जेट्ठ ॥६२॥ बोलिय बंधावलियं मोक्कड्डिय उदयदो दु णिक्खिविय । उवरिमसमये विदियावलिपढमुक्कहणे जादे ॥ ६३ ॥ तक्कालवज्जमाणे वारट्रिट्ठदीए अदित्थियाबाहं । समयजुदावलियाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ॥६४॥ १. ज. ध. पु. ८ पृ. २५३ एवं ज. ध पु. ७ पृ. २४५ ॥ २. ज.ध.पु. ८ पृ २५७-२५६ । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ५२ ] लब्धिसार [ गाथा ६४ अर्थ-उसके पश्चात् अतिस्थापना एक-एक समय बढ़ते हुए प्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो जाती है, इसके पश्चात् निक्षेपावलिके असख्यातवेभ से उत्कृप्टनिक्षेप प्राप्त होनेतक बढता है। उत्कृष्टनिक्षेप-उत्कृष्टस्थितिको वाधकर वधावलि बीत जानेपर उस उत्कृष्टस्थितिके अन्तिमनिषकसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षणकरके उदयादि निषेकोमे निक्षेपण किया अर्थात् दिया । अनन्तर अगले समयमे द्वितीयत्रावलि के प्रथमनिषेकका उत्कर्षरण करनेके लिये उस अनन्तरसमयमें उत्कृप्टस्थितिस हेत वंधनेवाले कर्मकी उत्कृष्ट आबाधाको प्रतिस्थापना कर प्रथमादि निषेकोमे निक्षेपण होता है, किन्तु अन्तके एक समयाविक प्रावलिप्रमाण निपेकोमे निक्षेपण नही होता। अत एकसमयअधिक आवली और आबाधाकाल इन दोनोसे न्यून उत्कृष्टस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप है'। . विशेषार्थ-तदनन्तर एकसमयाधिक स्थितिवन्धके होनेपर निक्षेप उतना ही रहता है, किन्तु अतिस्थापना वृद्धिको प्राप्त होती है । शका-ऐसा क्यो है ? समाधान-क्योकि सर्वत्र प्रतिस्थापनाकी वृद्धिपूर्वक ही निक्षेपकी वृद्धि देखी जाती है। . शंका-किन्तु वह अतिस्थापनाकी उत्कृष्टवृद्धि कितनी होती है ? समाधान-प्रतिस्थापनाके एक प्रावलिप्रमाण होनेतक उसकी वृद्धि होती रहती है। स्थितिबन्धकी वृद्धिके साथ वह जघन्यप्रतिस्थापना एक-एक समयाधिकके क्रमसे वढती हुई पूरी एक प्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट प्रतिस्थापनाके प्राप्त होनेतक बढती जाती है। शंका-इससे आगे भी अतिस्थापना क्यों नही बढाई जाती है ? समाधान नही, क्योकि , परमप्रकर्षको प्राप्त हो जानेपर फिर उसकी वृद्धि होनेमे विरोध आता है। उसके आगे उत्कृष्टनिक्षेपके प्राप्त होनेतक निक्षेपकी वृद्धि होती है । यहांपर पूर्वमे विवक्षित सत्कर्मकी अग्रस्थितिके उत्कृष्ट निक्षेपकी वृद्धि एक-एक समयअधिकके १. ज.ध.पु ८ पृ २५६-२६१।। २. ज. घ. पु ८ प २६० । - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६४ ] लब्धिसार ५३ क्रमसे होती हुई अतिस्थापनावलिसे अधिक जो अधस्तनं अन्त'कोडाकोड़ी उससे हीन' कर्मस्थितिप्रमाण होती है, किन्तु इतनी विशेषता है कि बन्धावलिके साथ अन्तःकोड़ाकोडीको कम करना चाहिए। यह आदेशसे उत्कृष्टवृद्धि है । फिर इससे नीचेकी सत्कर्मसम्बन्धी द्विचरमादि स्थितियोकी एक-एक समय अधिकके क्रमसे पश्चादानुपूर्वीकी अपेक्षा निक्षेपवृद्धि तबतक कहनी चाहिए जबतक वह अोघसे उत्कृष्टनिक्षेपको प्राप्त न हो जावे, किन्तु ओघकी अपेक्षा वह उत्कृष्टनिक्षेप होता है ऐसा निर्णय करनेके लिये कहते है। शंका-उत्कृष्टनिक्षेप कितना है ? . समाधान-जो उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करनेके बाद एकावलिको ब्रिताकर उस- उत्कृष्टस्थितिका अपकर्षणकरके उदयावलिके बाहर दूसरी स्थितिमें निक्षेप करता है. फिर तदनन्तर समयमे उदयावलिके बाहर अनन्तरवर्तीस्थितिको प्राप्त होगा कि इस स्थितिके कर्मद्रव्यका उत्कर्षणकरके उसका एकसमयाधिक एक प्रावलिसे कम अग्नस्थितिमे निक्षप करता है । यह उत्कृष्टनिक्षेप है' -- - स्पष्टीकरण इसप्रकार है जिस सज्ञीपचेन्द्रियपर्याप्त जीवने साकारोपयोगसे उपयुक्त होकर जागृतावस्था के रहते हुए सर्वोत्कृष्ट सक्लेशके कारण उत्कृष्टदाहको प्राप्त होकर ७० कोडाकोडीसागरप्रमाण उत्कृष्टस्थितिका बन्ध किया । फिर बन्धावलिके व्यतीत हो जानेपर उस उत्कृष्टस्थितिका अपकर्षण करके उसे उदयावलिके बाहरकी प्रथमस्थितिके निषेकसे विशेषहीन दूसरी स्थितिमे निक्षिप्त किया। फिर तदनन्तर समयमें अनन्तरपूर्व समयवर्ती स्थितिका उदयावलिके भीतर प्रवेश करवाकर और उस दूसरी स्थितिको प्रथमस्थितिरूपसे स्थापित करके तदनन्तर समयमे विवक्षित स्थितिको उदयावलिके भीतर प्राप्त कराता, इसप्रकार स्थित होकर उसी समयमे, इससे पूर्व समयमें अपकर्षणको प्राप्त हुए प्रदेशानका उत्कर्षणके वशसे उसी समय हुए नवीनबधसे सम्बन्ध रखनेवाली उत्कृष्टस्थितिमें निक्षेप किया। यहां इस निक्षेपको आबाधामे नवीनबन्धके परमाणुओका अभाव होनेसे उत्कृष्टयाबाधाको अतिस्थापनारूपसे स्थापित करके प्राबाधाके बाहर प्रथमनिषेककी स्थितिसे लेकर एकसमयअधिक एकावलिसे न्यून अग्रस्थितिके प्राप्त होनेतक १. क. पा सुत्त पृ. ३१८ सूत्र ३६ । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ६५ ५४ ] करता है, क्योकि इसके ऊपर शक्ति स्थिति नही है । जो जीव इसप्रकार निक्षेप करता है उसके उत्कृष्टनिक्षेप होता है । इस निक्षेपका प्रमाण समयाधिक आवलि और आबाधासे हीन उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमारण उत्पन्न होता है' । महवावलिगदव र ठिदिपढमणिसेगे वरस्स बंधस्स । विदयणिसे पहुदिसु णिक्खिते जेदुणिक्खेो ॥ ६५ ॥ अर्थ - अथवा, आवलि व्यतीत हो जानेपर उत्कृष्टस्थिति के प्रथमनिषेकका द्रव्य बंधनेवाली उत्कृष्टस्थितिके द्वितीयादि निषेकमे निक्षेपण करनेपर उत्कृष्टनिक्षेप होता है । विशेषार्थं - उत्कृष्ट प्राबाधा और एकसमयाधिक एकप्रावलि इनसे न्यून जितनी उत्कृष्टकर्मस्थिति है उतना उत्कृष्ट निक्षेप है । अथवा, ( इस " अथवा " शब्द से 'यहा आचार्यान्तर के मतानुसार निक्षेप का निरूपण किया गया है; ऐसा ज्ञातव्य है ) उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने के पश्चात् बन्धावली को बिताकर उसके प्रथम निषेक का उत्कर्षण किया । इस उत्कृष्यमाण निषेक के द्रव्य का, इस उत्कर्षण क्रिया के समय बुद्ध उत्कृष्टस्थितियुक्त समयप्रबद्ध के द्वितीयादि समस्त निपेको मे निक्षेपण किया; किन्तु चरम श्रावलीप्रमारण स्थिति मे निक्षेपण नही किया । ऐसा करने पर उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है और इस उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण एकसमयाधिक श्रावली और आबाधाकाल, ( वर्तमान मे बद्ध समयप्रबद्धका ) इन दोनोके योग से हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट निक्षेप होता है ' । टिप्परण : १ जध पु. ८ पृ. २५६ से २६१ । क पा सुत्त पृ ३१५; ज. पु ७ पृ. २४६; ज. ध. पु. २५६ । २. यहा उत्कर्षण के विधान मे इतना ज्ञातव्य है कि - १. उत्कर्षरण बन्धके समय मे ही होता है । अर्थात् जव जिसकर्मका बन्ध हो रहा हो तभी उस कर्म के सत्ता मे स्थित कर्मपरमाणुओ का उत्कर्षण हो सकता है; अन्य का नही । उदाहरणार्थ -- यदि कोई जीव साता प्रकृति का बन्ध कर रहा है तो उस समय सत्ता मे स्थित साता प्रकृति के कर्मपरमाणुनो का ही उत्कर्षण होगा, असता के कर्म-परमाणु का नही । ( ज घ. ७।२५१ ) प.पू. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६५ ] लब्धिसार [ ५५ २. उदयावली के कर्म-परमाणुप्रो का उत्कर्षण नहीं होता। ( ज.ध. ७।२४४ एवं २४०, २४१, २४२ आदि ।) ३. बन्धे हुए कर्म अपने बन्ध समय से लेकर एक पावली काल तक तदवेस्थ रहते है। ( अर्थात् बन्धावली सकलकरणों के अयोग्य है।) ४. बधने वाले कर्म की अपने प्राबाधाकाल मे निषेकरचना नही पाई जाती। (ज.ध.७।२५१) ५. अतिस्थापना-कर्मपरमाणुगो का उत्कर्षण होते समय उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति मे निक्षेप नही होता, वह "प्रतिस्थापना" स्थिति कहलाती है। अव्याघात दशा मे जघन्य अतिस्थापना एकत्रावलीप्रमाण और उत्कृष्ट अतिस्थापना, उत्कृष्ट आबांधाप्रमाणे होती है, किन्तु व्याघातदशा मे जघन्य प्रतिस्थापना प्रावली के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समयकम पावली प्रमाण होती है । ( ज.ध. ७।२५०) ६. निक्षेप-उत्कर्षण होकर कर्मपरमाणुओ का जिन स्थितिविकल्पो मे पतन होता है उनकी निक्षेप सज्ञा है । अव्याघात दशा मे जघन्य निक्षेप का प्रमाण एकसमय ( क. पा. सु पृ. २१५) और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण उत्कृष्ट पाबाधा और एक समयाधिक आवली; इन दोनो के योग से हीन ७० कोटाकोटीसागर है । व्याघात दशा मे जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण पावली के असख्यातवे भागप्रमाण है । (ल. सा. गा. ६१; ६२ एव ज. ध. पु ८ पृ २५३; ज. ध. ७।२४५) ७. बन्ध के समय उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर अन्तिमनिषेक की सब की सब व्यक्तस्थिति होती है। इसका मतलब यह है कि अन्तिम निषेक की एकसमयमात्र भी शक्तिस्थिति नही पाई जाती। उपान्त्य निषेक की एक समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेष स्थिति व्यक्त होती है । तथा त्रिचरम निषेक की दो समयमात्र शक्तिस्थिति होती है और शेषस्थिति व्यक्त होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक नीचे जाने पर शक्तिस्थिति का एक-एक समय बढता जाता है और व्यक्ति स्थिति का एक-एक समय घटता जाता है। इस क्रम से प्रथम निषेक की शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति का विचार करने पर व्यक्तस्थिति एक समय अधिक उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण प्राप्त होती है और इस व्यक्तस्थिति को पूरी स्थिति मे से घटा देने पर जितनी शेष रहे उतनी शक्तिस्थिति प्राप्त होती है। इस प्रकार यह बन्ध के समय जैसी निषेक-रचना होती है उसके अनुसार विचार हुआ, किंतु उत्कर्षण से इसमे कुछ विशेषता आजाती है। यथा-उत्कर्षण द्वारा जिस निषेक की जितनी व्यक्तस्थिति बढ़ जाती है, उतनी उसकी शक्तिस्थिति घट जाती है । अपकर्षण करने पर जिस निषेक की जितनी व्यक्त स्थिति घट जाती है उतनी उसकी शक्ति स्थिति बढ जाती है। यह सब उत्कृष्टस्थितिबन्ध की अपेक्षा शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति का विचार है । उत्कृष्ट स्थितिबन्ध न होने पर जितना स्थितिवन्ध कम हो उतनी अन्तिमनिषेक की शक्ति-स्थिति होती है और शेष निषेको की भी इसी अनुक्रमसे शक्तिस्थिति बढती जाती है । ( जयधवल ७।२५० ) ८ अपकर्षण के समय उत्कर्षण नही होता, उत्कर्षण के समय अपकर्षण नही होता । अव । इन सभी (आठो) नियमो को ध्यान में रखते हुए गाथा ६५ को समझने के लिए उदाहरण देते है । है मानाकि पावली-३ समय तथा विवक्षित कर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ४८ समय है तथा प्रारम्भ के १२ समय आबाधा के है; शेष ३६ समयो मे निषेकरचना हुई है, तो प्रथमनिषेक की १३ समय Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार ५६ ] [ गाथा ६५ स्थिति पड़ी । ( क्योकि आबाधामे निषेक रचना नही होती नियम ४ ) वन्धावली ( ३ समय) के बीतने पर प्रथम निषेक (जिसकी कि बन्ध के समय शक्तिस्थिति तो ३५ समय तथा व्यक्तस्थिति १३ समय थी ( ज. घ. ७/२५६ ) की व्यक्तस्थिति १० समय ही रहेगी । तब उस प्रथम निषेक का उत्कर्षरण होने पर (नियम न० ३ से) उससमय बध्यमान उत्कृष्ट प्रबद्ध की उत्कृष्ट प्रावाधा १२ के बाद १३ वे निषेक मे भी निक्षेपण सम्भव नही होगा; क्योकि विवक्षित उत्कृष्यमाण १० समयस्थितिक प्रथम निषेके से ३ समय स्थितिरूप अतिस्थापनावली छोडकर बादमे ही निक्षेप सम्भव होगा, अतः निक्षेप वध्यमान समयप्रबद्ध के १४ वे समय से होगा और यही चौदहवाँ समय उससमय बध्यमानप्रवद्ध का द्वितीयनिक का है ( क्योकि आबाधा के बाद तेरहवा समयं प्रथम निषेक का तथा चौदहवा समय द्वितीय निषेक का है । अतः उत्कर्षण के समय वध्यमान प्रबद्ध के द्वितीयनिषेक से उत्कर्षित द्रव्य का - निक्षेपण होगा तथा बध्यमान वर्तमानप्रबद्ध की ग्रन्तिमग्रावली मे निक्षेप नहीं करता, क्योकि उन कर्मपरमाणुओं की उनमे निक्षेपकरने योग्य शक्ति- स्थिति नही पाई जाती । ( नियम ७ देखो ) ( जध. ७।२४९) शेष कथन सुगम है । इसप्रकार द्वितीय निषेक से लगाकर सर्वत्र उत्कर्षितद्रव्य का निक्षेप होता है, मात्र चरमावली मे नही होता । चित्र - उत्कृष्ट स्थितिक समय प्रद्ध १४८ समय स्थितिक अन्तिम निषेक बन्धावली बीतने के बाद भगरतय वि १३ सम्म पत्रपति ५२ समय जलाधा ४४ समय चरम निषेक उत्कर्षित होने वाले निषेक के उत्कर्षण के समय बद्ध समय प्रबद्ध, - समयस्थितिक द्वि नि 1१० समयस्थितिक प्र नि. ए समय आबाधां 3 ४८ समयस्थितिक चश्मनिषेक ४६ समय स्थितिक निषेक ४७ ४५ समयस्थितिक निर्बंक शिक्षण का प्रभाव म १४ स्थितिक निषेक यानी द्वितीय बिना मध्य तक । यानी चरमआवल) (४६ से ४८) (तक के ३ समय) 1 of 'सम्यस्थितिक द्वि निर्मिक १३ समयस्थिति प्र. निषेक १२ समय ऊबाधा (49 9293) नोट यहां अतिस्थापनावली-प्रथमनिषेक एवं १ समयकम वली प्रमाण आवाखा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६६ ] लब्धिसार [ ५७ उक्कस्सट्ठिदिबंधे प्रावाहागा ससमयमावलियं । मोदरियणणिसेगेसुक्कड्डेसु भवरमावलियं ॥६६॥ अर्थ-उत्कृष्टस्थितिका बन्ध होनेपर उस कर्मबन्धके प्राबाधाकालसम्बन्धी चरमसमयसे एकसमयअधिक आवलिकाल पूर्वतक जो उदय आने योग्य सत्कर्म निषेक है, उनके द्रव्यका उत्कर्षण होनेपर आवलिप्रमाण जघन्यप्रतिस्थापना होती है । विशेषार्थ- इस गाथासूत्रका यह भाव है कि जो स्थितिया बधती है, उनमें पूर्वबद्ध स्थितियोंका उत्कर्षण होता है और उत्कर्षणको प्राप्त हुई स्थितिकी एकआवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है जो निर्व्याघात उत्कर्षणकी जघन्यप्रतिस्थापना है । वह इसप्रकार है-७० कोडाकोडीसागरके बन्धयोग्य कर्मकी पूर्वमे अन्तःकोडाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिका बन्ध हुआ। इसस्थितिके ऊपर बन्ध करनेवाले जीवके एकसमयअधिक, दो समयअधिक आदिके क्रमसे जबतक एकावलि और एकावलिके असख्यातवेभाग अधिक स्थितिका बन्ध नही होता, तबतक उसस्थितिके अन्तिमनिषेकका उत्कर्षण सम्भव नही है, क्योकि निर्व्याघातउत्कर्षणका प्रकरण है। इसलिये एकआवलिप्रमाण अतिस्थापना और प्रावलिके असंख्यातवेभागप्रमारण जघन्य निक्षेपके परिपूर्ण हो जानेपर ही निर्व्याघातविषयक उत्कर्षण प्रारम्भ होता है। इससे आगे प्रावलिप्रमाण अतिस्थापनाके अवस्थित रहते हुए अपने उत्कृष्टनिक्षेपकी प्राप्ति होनेतक निरन्तर क्रमसे निक्षेपकी वृद्धिका कथन करना चाहिए। इसीप्रकार अन्त.कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिके द्विचरमनिषेकका भी कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वके निक्षेपस्थानोसे इसके निक्षेपस्थान एकसमयअधिक होते है। इसीप्रकार नीचेकी सर्वस्थितियोकी प्रत्येकस्थितिको विवक्षित करके प्ररूपणा करनी चाहिए । नवीन कर्मबन्धकी आबाधाके भीतर एकसमयअधिक प्रावलिप्रमाण नीचे जाकर जो पूर्व सत्कर्मकी स्थिति स्थित है, उसके प्राप्त होनेतक अतिस्थापना एकावलिप्रमाण ही रहती है । इससे नीचेकी स्थितियोका उत्कर्षण होनेपर निक्षेप तो पूर्वके समान रहता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि उदयावलीके बाहरकी स्थितिके प्राप्त होनेतक इन स्थितियोकी अतिस्थापना एक-एकसमय बढती जाती है। १. ज.ध.पु.८ पृ २५४-५५ । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] ब्धिसार वह बढ़ती हुई कितनी होती है सो हो कहते हैं— ओरिय तदो विदीया पिढमुक्कडणे वरं हेडा | अइच्छावरणमाबाद्दा समयजुदावलियपरिहीणा ॥६७॥ [ गाथा ६७-६६ अर्थ- वहासे उतरकर सत्कर्मसम्बन्धी द्वितीयावलिके प्रथमनिषेक ( जो वर्तमानसमयसे ग्रावलिकालके बाद उदयमे आवेगा ) का उत्कर्षरण होनेपर अधस्तन समयाधिकग्रावलिसे हीन प्राबाधाकालप्रमाण उत्कृष्ट - प्रतिस्थापना होती है | विशेषार्थ - पूर्वके सत्कर्मसम्बन्धी उदयावलिके निषेकोका उत्कर्षरण सम्भव नही है । उदयावलिसे बाह्य- अनन्तर प्रथमनिषेकका उत्कर्षरण होनेपर वर्तमान उत्कृष्टस्थितिवाले कर्मबन्धकी उत्कृष्ट प्रबाधाके बाहर स्थित निषेकोमे उत्कर्षितप्रदेशोका निक्षेपण होता है । श्राबाधाकाल प्रतिस्थापना होती है । वर्तमानसमयमे बंध होने से ग्रावाधाकाल वर्तमान समयसे प्रारम्भ हो जाता, किन्तु जिसनिषेकका उत्कर्षरण हुआ है, वह वर्तमानसमयसे एक ग्रावलिके ऊपर स्थित है अत प्रबाधाकालमे से एक प्रावलि और एकसमय (उत्कर्षरण होनेवाले निषेकसम्बन्धी ) कम करनेपर उत्कृष्ट प्रतिस्थापना होती है । १ उदाहरण -- उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण ४८ समय, उत्कृष्ट प्रबाधा १२ समय, ग्रावलिका प्रमाण ४ समय, वर्तमानमे ४८ समय उत्कृष्टस्थितिवाले कर्मका बन्ध हुआ है । वर्तमानसमय से १२ समयवाली उत्कृष्ट प्राबाधा प्रारम्भ हो जाती है, किन्तु जिस निषेकका उत्कर्षण हुआ है वह उदयावलि ( ४ समय ) से बाहरका प्रथमनिषेक अर्थात् वर्तमानसे पाचवा निषेक है, अत आबाधाकाल ( १२ समय ) मे से पाचसमय कम करनेपर (१२-५) ७ समय उत्कृष्ट प्रतिस्थापना है' । अब प्रकरण प्राप्त गुणश्रेणिनिर्जराका कथन करते हैंउदयामावलिम्हि य उभयाणं बाहरम्मि विवरण | लोयाणमसंखेज्जो कमलो उक्कडणो द्वारो ॥ ६८ ॥ श्रोक्कडिदगिभागे पल्लासंखेण भाजिदे तत्थ । बहुभागमिदं दव्वं उच्चरिल्लठिदीसु णिक्खिवदि ॥ ६६ ॥ घ. पु८ पृ २५६ ॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार से सगभागे भजिदे असंखलोगेण तत्थ बहुभागं । गुणसेडीए सिंचदि सेसेगं च उदयम्हि ॥ ७० ॥ उदयास्स दव्वं वलिभजिदे दु होदि मज्झधणं । रूऊद्धा देणे सेियहारेण ॥७१॥ मज्झिमधमवहरिदे पचयं पचयं णिसेयहारेण । गुखिदे दिणिसेयं विसेसहीणे कर्म तत्तो ॥७२॥ प्रोक्कडिदहि देदिह असंखसमय पबद्धमादिहि | संखासीद गुणक्कममसंखहोणं विसेसहीणकमं ॥७३॥ गाथा ७०-७३ ] [ ५६ अर्थ - उदयवान प्रकृतियोका उदयावलिमे क्षेपण करनेके लिए तथा उदय व अनुरूप दोनो प्रकारकी प्रकृतियोका उदयावलिसे बाहर क्षेपण करनेके लिए भागहार क्रमश असख्यातलोक व अपकर्षरणभागाहारप्रमाण है । एकभागप्रमाण अपकर्षितद्रव्य को पल्यके असख्यातवेभागसे भाजित करनेपर बहुभाग उपरितन स्थितियो मे दिया जाता है । शेष एकभावको असख्यात लोकसे भाजित करनेपर बहुभाग गुणश्रेणिमे दिया जाता है और शेष एकभाग उदयावलिमे दिया जाता है । उदयावलिमे दिये जाने वाले द्रव्यको ग्रावलिसे भाजित करनेपर मध्यधन होता है । एककम वान को निपेकभागहारमे से घटानेपर जो शेष रहे उसका मध्यमधनमे भाग देोपर चयका प्रमाण प्राप्त होता है । चयको निषेकभागाहारसे गुणा करनेपर प्रथमनिषेक प्राप्त होता है, उससे ऊपरके निषेक चयहीन चयहीन क्रमसे है । अपकर्षित द्रव्यमे से गुण रिके प्रथमनिषेकमे असख्यातसमयबद्धप्रमाण द्रव्य देता है आगे गुण गिशीर्षतक असख्यातगुणित क्रमसे देता है, अनन्तर असंख्यातगुणे हीन और उससे आगे क्रमसे चयहीन द्रव्य देता है । विशेषार्थ - अपूर्वकरणके प्रथमसमय में डेढगुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोको अर्थात् सत्त्वद्रव्यको अपकर्षण- उत्कर्षणभागहारसे भाजितकर वह लब्धरूपसे प्राप्त एकखण्डप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकरके उस एकभाग प्रमाण अपकर्षितद्रव्यमे पल्यके असंख्यातवेभागसे भाग देनेपर एकभागप्रमाण द्रव्यको असख्यात लोकसे भाजितकर जो एकभागरूप द्रव्य प्राप्त हो उसे उदयावलिके भीतर गोपुच्छाकार रूपसे निक्षिप्त- किया Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ७३ ६० ] जाता है अर्थात् चयहोन क्रमसे दिया जाता है। उसका विधान इसप्रकार है-उदयावलि प्रमाण द्रव्य (३२००) को प्रावलिरूप गच्छ (८) से भाजित करनेपर मध्यम धन (३२००८=४००) प्राप्त होता है । एकएक अद्ध वान (८-१७) के आधे (६) को निषेक भागाहार (८४२-१६) में से घटानेपर जो शेष (१६-५ ५ ) का भाग मध्यमधनमे देनेपर चयका प्रमाण (४००६१५=३२) प्राप्त होता है। इस चय (३२) को निपेकभागाहार (१६) से गुणा करनेपर प्रथमनिषेक (३२४१६= ५१२) हो जाता है। इस प्रथमनिषक (५१२) से ऊपरके निषेक (४८०-४४८४१६-३८४-३५२-३२०-२८८) चय (३२) हीनक्रमसे हैं (५१२-३२-४८०, ४८०-३२-४४८ इत्यादि) । पुन' बहुभागप्रमाण (असख्यातलोक बहुभाग) द्रव्यको उदयावलिसे बाहर गुणश्रोणिमे देता है । इसमें से उदयावलिसे बाह्य अनन्तरस्थितिमे असख्यात समयप्रवद्धप्रमाण द्रव्यको निक्षिप्त करता है तथा उससे उपरिमस्थितिमे असख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इसप्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेप अधिककालमे गुणोरिणशीर्षके प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर असख्यातगुरिणत श्रेरिणरूपसे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार पल्यके असंख्यातवेभागसे भाजित अपकर्षितद्रव्यके एकभाग द्रव्यका विभाजन हआ। शेष बहभागको गुणश्रेणिशीर्पसे उपरिमनिषेकोमे देता है । गुणश्रेणिशीर्षकी उपरिम अनन्तरस्थितिमे असंख्यातगुणा हीनद्रव्य देता है, उसके पश्चात् अतिस्थापनावलिको प्राप्त न होता हुआ उससे पूर्वकी अन्तिमस्थितिपर्यन्त क्रमसे विशेष (चय) हीन द्रव्यका निक्षेप होता है । गुणश्रेणिके प्रथमसमयकी एकशलाका, इससे असख्यातगुणी द्वितीयसमयवर्ती शलाका, इससे भी असख्यातगणी तृतीयसमयकी शलाका इसप्रकार गुणरिणके अन्ततक प्रतिसमय शलाका असंख्यातगुग्गित क्रम लिये हुए है। सर्वसमयसम्बन्धी शलाकाओंका जोड देकर जो प्राप्त हो उससे गुणधरणीके लिये अपकर्षितद्रव्यको भाजित करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो उसको अपनी-अपनी शलाकाअोसे गुणा करनेपर अपने-अपने निषेकके निक्षिप्तद्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । पुन. गुणश्रेणिसे उपरिमस्थितियोंके लिए अपकर्षितद्रव्यको कुछ अधिक डेढगुणहानिसे भाजित करनेपर गुणश्रेणिसे उपरिम प्रथमनिषेकमें निक्षिप्तद्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है जो गुणश्रेणिके अन्तिमनिपेकमें निक्षिप्त द्रव्यका १. ज प पु १२ १ २६५ । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७४-७६ ] लब्धिसार [ ६१ असंख्यातवाभाग है। इससे द्वितीयादि निषेकोमें क्रमसे चयहीन द्रव्य दिया जाता है । प्रत्येक गुणहानिमे दीयमान द्रव्य प्राधा-आधा होता जाता है । पडिसमयमोक्कड्ड दि भसंखगुणिदक्कमेण सिंचदि य । इदि गुणसेढीकरणं भाउगवज्जाण कम्माणं ॥७॥ प्रर्थ-प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे द्रव्यका अपकर्षण करके सिचन करता है । आयुके बिना शेष कर्मोकी इसप्रकार गुणश्रेणि करता है । विशेषार्थ--उपरितन द्वितीयादि सर्वसमयोमे की जानेवाली गुणश्रोणिसंबधी प्रथमसमयके विधानानुसार कथन करना चाहिए, विशेषता केवल यह है कि प्रथमसमयमे अपकर्षित किये गये प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमे असख्यातगुणित प्रदेशाग्र को अपकर्षित करता है, द्वितीयसमयके प्रदेशाग्रसे तृतीयसमयमे असख्यातगुणित प्रदेशाग्र अपकर्षित करता है । इसप्रकार यह क्रम सर्वसमयोमे जानना चाहिए। प्रथमसमयमें दिये जानेवाले प्रदेशाग्रसे द्वितीयसमयमे स्थिनिके प्रति दिये जानेवाला प्रदेशाग्र असख्यातगुणा है । इसप्रकार सर्वसमयोमे दिये जानेवाले प्रदेशाग्नका यही क्रम कहना चाहिए । इतनी और विशेषता है कि प्रतिसमय गलित होनेसे जो काल शेष रहे उसके आयामके अनुसार अपकर्षितद्रव्य निक्षिप्त करता है । प्रधानन्तर दो गाथानोंमें गुणसंक्रमणका कथन किया जाता हैपडिसमयमसंखगुणं दव्वं संकमदि अप्पसत्थाणं । बंधुझियपयडीणं बंधंतसजादिपयडीसु ॥७॥ एवं विह संक्रमणं पढमकसायाण मिच्छमिस्साणं । संजोजणखवणाए इदरेसिं उभयसेडिम्मि ॥७६॥ अर्थ-प्रतिसमय बन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोका द्रव्य असख्यातगुणित क्रमसे वध्यमान स्वजाति प्रकृतियोंमें संक्रमण करता है । प्रथमअनन्तानुबन्धीकषायका ऐसा ا १. किमट्ठमाउगस्स गुणसेढिणिक्खेो गस्थि त्ति चे? ण सहावदो चेव । तत्थ गुणसेढिरिणक्खेव पउत्तीए पसभवादो। (ज. प. पु. १२ पृ. २६४; क. पा. सु. पृ. ६२५) २. ध. पु. ६ पृ २२७ । ३. ज. ध प. १२ पृ. २६५ । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ७७ ६२ ] गुणसंक्रमण विसंयोजनाके कालमे होता है । मिथ्यात्व' व सम्यग्मिथ्यात्व' का गुणसंक्रमण दर्शनमोहनीयकर्मकी क्षपरणामे होता है । शेष प्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम व क्षपकश्र ेणियोमे होता है । विशेषार्थ - गाथा ७५ व क्षपणासार की गाथी ( ६ -४००) शब्दश. एक ही हैं । गाथा ७५ प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रकरण मे ग्राई है और गाथा ४०० का सम्बन्ध चारित्रमोहकी क्षपणासे है । वन्धरहित अप्रशस्तप्रकृतियोके द्रव्यका प्रतिसमय असंख्यातगुणित क्रमसे सक्रमण होना गुणसक्रमण है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके श्रभिमुख जीवके गुणसक्रमण नही होता है । अनन्तानुबन्ध क्रोध- मान-माया व लोभका गुणसक्रमण तो श्रनन्तानुवन्धीकषायकी विसयोजना करनेवाले जीवके होता है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोका गुणसंक्रमण इनकी ही क्षपणा के समय होता है । अन्य अवद्ध्यमान अप्रशस्तप्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपगम व क्षेपक इन दोनो क्षेणियोंमें होता है । प्रशस्त व अप्रशस्तरूप उद्वेलनप्रकृतियोको उद्घोलनके अन्तिमका कमें गुणसमरण होता है । अवस्थितिकाण्डका स्वरूप कहते हैंपढमं अवरवर द्विदिखंडं पल्लरस संखभागं तु । सायरपुधत्तमेतं इदि संखसहस्सखंडाणि ॥ ७७ || अर्थ - पूर्वकरणके प्रथम स्थितिखण्ड आयामका प्रमाण जघन्यसे तो पल्यका सत्यातवाभाग और उत्कृप्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाण है । अपूर्वकरणमे संख्यातहजार स्थितिखण्ड होते है । विशेषार्थ — ग्रध प्रवृत्तकरणके कालको व्यतीतकर अपूर्वकररणमें प्रविष्ट हुआ जीव प्रथमसमयमे ही स्थितिकांडक और अनुभागकाडकघात प्रारम्भ करता है, क्योकि पूर्वकरण की विशुद्धिसे युक्त परिणामोमे इन दोनोके घात करनेकी - हेतुता है । १. प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक उपशम सम्यक्त्वीके मिथ्यात्वका गुणसंक्रमण होता है । ( १९ पृ ४१५; जघ पु १२ पृ. २६४). २निया को प्राप्त सम्यक्त्वीके · अन्तिम काण्डकमै द्विचरम फाली तक गुरणसक्रमण होता है । (घ. पु १६ पृ ४१६) टिप्पण नं० १-२ में कथित कार्य (गुरगसक्रम) क्षपरणामे तो होते ही हैं । (घ१६ पृ ४१५-१६ ) प्र पु ዓ पृ ४०६ एव गो. क. गा. ४१६ । AMY Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७८ ] लब्धिसारे [ ६३ शंका- पूर्वकरण में प्रथम स्थितिकांडकका प्रमारण एकप्रकारका है या उसमें जघन्य व उत्कृष्ट भेद भी सम्भव है ? समाधान—– जघन्यरूपसे पत्यं के संख्यातवेभाग श्रायामवाला होता है, क्योंकि दर्शनमोहनीयकी उपशामनाके योग्य सबसे जघन्य अन्त कोड़ा कोड़ो प्रमाण स्थितिसत्कर्म से आये हुए जीवके प्रथमस्थितिकाण्डकका 'आयाम पल्योपमका संख्यातवाभाग पाया जाता है, किन्तु उत्कृष्टरूपसे सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण आयामवाला प्रथमस्थितिकांडक होता है, क्योकि पूर्वके जघन्यस्थिति सत्कर्मसे सख्यातगुणे स्थिति सत्कर्मके साथ ग्राकर पूर्वकरण में प्रविष्ट हुए जीवके उसकी उपलब्धि होती है । शका- - दोनो जीवोंके ही विशुद्धिरूप परिणामोंके समान होनेपर घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मोमे इसप्रकारकी विसदृशता क्यो होती है ? समाधान - ऐसी आशका नही करना चाहिए, क्योकि संसारावस्थाके योग्य प्रध. करणविशुद्धियां सभी जीवोमे समान होती है, ऐसा कोई नियम नही है ' । आगे स्थितिकाण्डघातकी विशेषताएं कहते हैं । भागवज्जाणं ठिदिघादो पढमांदु चरिमठिदिसत्तो । ठिदिबंधो य अपुत्रो होदि हु संखेज्जगुणहीणो ॥ ७८ ॥ अर्थ — प्रायुकर्मको छोड़कर शेषकमका स्थितिघात होता है । अपूर्वकरण के प्रथमसमयके स्थितिसत्त्व और स्थितिबन्धसे चरमसमयमे अपूर्व स्थितिसत्त्व तथा स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है ! | विशेषार्थ–अपूर्वकरणमे 'संख्यातहजार स्थितिकाडक होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिकाडक से दूसरा स्थितिकांडक सख्यातवांभागहीन है । इसप्रकार अन्तिम स्थितिकाडके प्राप्त होने तक पूर्व- पूर्वके स्थितिकाडकसे श्रागे-आगे का स्थितिकाडक विशेष - विशेषहीन होता जाता है । अपूर्वकरण के प्रथमस्थितिसत्कर्म से अन्तिमसमयवर्ती स्थिति संत्कर्म सख्यातगुणा होन है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम - समयमे जो पूर्वकी अन्त कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमारण स्थिति है उसके संख्यातबहुभाग १ ध. पु १२ पृ २६० । २. ज.ध.पु १२ पृ. २६८ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ७६ ६४ ] प्रमाण स्थितिका अपूर्वकरण-विशुद्धि-निमित्तक सहस्रों स्थितिकांडकोके द्वारा घात होने पर उसके अन्तिमसमयमे सख्यातवेभागमात्र ही स्थितिकर्म शेष रहता है । अब अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयतक जितने सागरोपम स्थितियोका घात हुआ है वह सव त्रैराशिकके द्वारा प्राप्त हो जाता है । तत्प्रायोग्य सख्यात संख्या प्रमाण स्थितिकाडकोका यदि एक. पल्योपम प्राप्त होता है तो इनसे संख्यातहजारकोटिगुणे स्थितिकाण्डकोमे कितने पल्योपम प्राप्त होगे ? इसप्रकार त्रैराशिकसे स्थितिकाण्डक स्थितिकाण्डकके सदृश है अत. उनका अपनयन करके अधस्तन सख्यात सख्यासे उपरितन सख्यात सख्याको भाजित करनेसे जो लब्ध आवे उससे पल्योपमको गुणा करनेपर स्थितिकाण्डकसम्बन्धी गुणाकारके माहात्म्यसे सख्यातकोडाकोड़ीप्रमाण पल्योपम प्राप्त होते है । पुन इन सख्यातकोडाकोडी पल्योपमोको त्रैराशिकविधिसे सागरोपमप्रमाणसे करनेपर सख्यातकोटिप्रमाण सागर होते हैं। इतने होते हुए भी अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे विवक्षित अन्त.कोडाकोडीके सख्यातबहुभागप्रमाण होते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अपूर्वकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्कर्मसे अतिमसमयका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणाहीन नही बन सकता। स्थितिवन्यापसरणके विषयमे भी इसीप्रकारकी योजना करनी चाहिए'। . अब अनुभागकाण्डकघातका कथन करते हैंएक्केक्कढिदिखंडयणिवडणठिदिबंधमोसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥७॥ अर्थ-एक स्थितिकाण्डकके पतनकालमे अथवा एक स्थितिवन्धापसरणकालमे संख्यातहजार अनुभागकाडकोंका पतन होता है । ' विशेषार्थ- अपूर्वकरणमे प्रथम स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल और प्रथम स्थितिवन्धका काल अर्थात् स्थितिबन्धापसरणकाल अन्तर्मुहूर्त होकर परस्पर तुल्य होते हैं । इसीप्रकार द्वितीयादि स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धापसरण (स्थितिबन्ध) काल परस्पर तुल्य हैं । एक स्थितिकाडक में हजारो अनुभागकाण्डकोंका घात होता है, क्योकि स्थितिकाडकोत्कीरणकाल से अनुभाग काण्डकोत्कीरण काल सख्यात१. जप पु. १२ पृ. २६९-७० । २. क पा सुत्त पृ ६२५ । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ७६ ] लब्धिसार [ ६५ गुणा हीन होता है । एक अनुभागकाण्डकोत्कीरणकालका स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमे भाग देनेपर सख्यातहजार सख्या प्राप्त होती है। पुनः इस सख्याका विरलनकर प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण कालके समान खण्ड करके प्रत्येक विरलन अंक के प्रति देयरूप से देने पर वहां एक-एक अकके प्रति अनुभागकाडकके उत्कीरणकालका प्रमाण प्राप्त होता है, पुन यहा पर एक अङ्कके प्रति जो प्राप्त हुआ उसका विरलन कर पृथक् स्थापित करना चाहिये । अब इसप्रकार का जो पृथक् विरलन स्थापित किया उसके प्रथम समयमे पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण आयामवाले प्रथम स्थितिकाडककी प्रथमफालिका पतन होता हैं। अनुभागकाडककी भी जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक विरचित स्पर्धको की अनन्त बहुभागप्रमाण प्रथम फालि का वही पर पतन होता है । पृथक् स्थापित हुए उसी विरलनके दूसरे समय मे उसी विधि से स्थितिकीडक की दूसरी फालिका तथा अनुभागकाडक की दूसरी फालि का पतन होता है । इसप्रकार पुनः पुनः उन दोनो को ग्रहण करनेसे पूर्वोक्त विरलनके एक-एक अक प्रति समयका जितना प्रमाण प्राप्त हुआ था, तत्प्रमाण फालियो का पतन होने पर प्रथम अनुभागकाडक सम्राप्त हो जाता है, किन्तु प्रथमस्थितिकाडक अभी भी समाप्त नही हुआ, क्योकि उसके उत्कीरणकालका सख्यातवाभाग ही व्यतीत हुआ है । पुन इसी विधि से शेष विरलनो के प्रति प्राप्त सख्यातहजार अनुभागकांडकोका घात करने पर उस समय अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्ध (प्रथमस्थितिबन्धापसरण). प्रथमस्थितिकाडक और यहा तक के सख्यातहजार अनुभागकाडक ये तीनो ही एक साथ समाप्त होते है। इसप्रकार एकस्थितिकाडक के भीतर हजारो अनुभागकाडकघात होते है यह सिद्ध हुआ' । स्थितिकाडक को चरमफालि के पतनकाल मे ही सर्वत्र स्थितिबन्ध समाप्त हो जाता है, क्योकि स्थितिकाडकोत्कीरणकाल के साथ स्थितिबन्धका काल समान होता है उसी समयमे तत्सम्बन्धी अन्तिम अनुभागकाडक की अन्तिमफालि भी नष्ट होती है, क्योकि अनुभागकाडकोत्कीरणकाल से अपवर्तन किये गये स्थितिवन्ध के काल मे विकलरूपता नही हो सकती। १. २ ज.ध. पु. १२ पृ. २६६-२६८ । ध. पु ६ पृ. २२६ । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] लेब्धिसार [ गाथा ८०-८१ ___ अब शुभ-अशुभप्रकृतियों में अनुभागकाण्डकघातका निषेध-विधिरूप कथन करते हैं असुहाणं पयडीणं अणंतभागा' रसस्त खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णस्थि त्ति रसस्त खण्डाणि ॥२०॥ अर्थ-अप्रशस्त प्रकृतियोके अनन्तबहुभागका धात होता है । प्रशस्त प्रकृतियो के अनुभाग का घात नियम से नहीं होता। विशेषार्थ-अप्रशस्तप्रकृतियो के तत्कालभावी द्विस्थानीय अनुभागसत्त्व को अनन्तका भाग देने पर एक भाग तो अवशेष रहता है और शेप बहुभाग अनुभागकाडक द्वारा घाता जाता है । अवशेष रहे अनुभागको अनन्तका भाग देने पर वहुभाग अनुभागका घात होता है और एक भाग शेष रह जाता है, क्योकि करण परिणामो के द्वारा अनन्त बहुभाग अनुभाग घाते जानेवाले अनुभागकाडकके शेष विकल्पो का होना असम्भव है। प्रशस्त प्रकृतियो का अनुभागकाडकघात नियम से नही होता, क्योकि विशुद्धिके कारण प्रशस्त प्रकृतियोका अनुभाग, वृद्धिको छोड़ कर उसका घात नही वन सकता। एक-एक अन्तर्मुहूर्त मे एक-एक अनुभागकाडक होता है। एक अनुभागकाडकोत्कीरण काल के प्रत्येक समयमे एक-एक फालिका पतन होता है । अनुभागगतस्पर्धक आदिका अल्पबहुत्व कहते हैंरसगदपदेसगुणहाणिट्ठाणगफड्याणि थोवाणि । अइत्थावणणिक्खेवे रसखंडेणंतगुणिदकमा ॥१॥ अर्थ-अनुभागसम्बन्धी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरमे स्पर्धक स्तोक है । उनसे प्रतिस्थापना अनन्तगुणी है, उससे निक्षेप अनन्तगुणा और उससे अनन्तगुणा अनुभागकाडक है। विशेषार्थ- अनुभागविषयक एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जो स्पर्द्धक है वे अभव्यो से अनन्तगुणे और सिद्धो के अनन्तवभागप्रमाण होकर आगे कहे जाने वाले पदो की अपेक्षा स्तोक है । अनुभागसम्बन्धी स्पर्धको का अपकर्षण करते हुए १ क पा. सुत्त पृ. ६२५ । २. ज ध पु १२ पृ २६१ से २६३; घ. पु ६१ २०६; घ पु १२ पृ १८ एव ३५ आदि । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८२-८३ ] लब्धिसार [ ६७ जितने अनुभाग-स्पर्धको को जघन्यरूपसे अतिस्थापित कर उनसे नीचे के स्पर्धकरूप से अपकर्षित करता है वे जघन्य अतिस्थापना विषयक स्पर्धक एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तर के स्पर्धको से अनन्तगुणे होते है, क्योंकि जघन्य अतिस्थापना के भीतर अनन्त प्रदेशगुणहानि स्थानान्तरोंका अस्तित्व पाया जाता है । जघन्य अतिस्थापना स्पर्धको को छोडकर नीचे के शेष सर्व स्पर्धकोका निक्षेपरूपसे ग्रहण करने पर वे निक्षेप-स्पर्धक जघन्य अतिस्थापना सम्बन्धी स्पर्धकोसे अनन्तगुणे होते है.। अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डकमे काण्डकरूपसे जो स्पर्धक ग्रहण किये गये वे निक्षेपसम्बन्धी स्पर्धको से अनन्तगुणे होते है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमे द्विस्थानीय अनुभागसत्कर्म के अनन्तवे भागको छोड कर शेष अनन्त बहुभागको काडकरूप से ग्रहण किया है' ।.. अब प्रशस्त-अप्रशस्तप्रकृतिसम्बन्धी अनुभाग विशेषका कथन करते हैंपडमापुत्वरसादो चरिमे समये पसंस्थइदरण। रससत्तमणंतगुणं अणंतगुणहीणयं होदि ॥२॥ अर्थ-अपूर्वकरणके प्रथम समय सम्बन्धी प्रशस्त-अप्रशस्त प्रकृतियो का जो अनुभाग सत्त्व है उससे अपूर्वकरण के चरम समय मे प्रशस्तप्रकृतियो का अनुभाग तो अनन्तगुणा बढता हुआ तथा अप्रशस्त प्रकृतियो का अनन्तगुणा हीन होता हुअा अनुभाग सत्त्व है। विशेषार्थ-अपूर्वकरण में प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होने के कारण प्रशस्त प्रकृतियो का अनन्तगुणा बढता अनुभाग सत्त्व है तथा अनुभागकाण्डकघात के माहात्म्य से अप्रशस्तप्रकृतियों का अनन्तवा भाग अनुभाग सत्व चरमसमय मे होता है । अब अनिवृत्तिकरण परिणामोंका स्वरूप और उसका कार्य कहते हैं'बिदियं व तदियकरणं पडिसमय एक्क एक्क परिणामो।- - - भएणं ठिदिरसखंडे अण्णं ठिदिबंधमाणुवई ॥३॥ - १. ज. ध. पु १२ पृ. २६२-६३ । २. ध. पु. ६ पृ २२६ । ३ ध पु. ६ पृ २२६-३० । ज. ध. पु. १२ पृ. २७१ । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ८४ अर्थ — दूसरे करण (अपूर्वकरण) के समान ही तृतीयकरण ( अनिवृत्तिकरण ) होता है, किन्तु प्रतिसमय एक-एक परिणाम होता है । अन्य स्थितिकाडक, अन्य अनुभागकाडक और अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है । ६] लब्धिसार विशेषार्थ — ग्रनिवृत्तिकरण मे भी स्थितिकाडकघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसररण, गुरणश्रेणी ये सभी क्रिया अपूर्वकरणवत् होती है, किन्तु इनका प्रमाण अन्य होता है । प्रपूर्वकरण मे प्रत्येक समय के परिणाम असख्यातलोक प्रमाण होते हैं, किन्तु अनिवृत्तिकरणमे प्रत्येक समयमे नानाजीवो के एक सा ही परिणाम होता है । नानाजीवो के परिणामो मे निवृत्ति अर्थात् परस्पर भेद जिसमे नही है वह श्रनिवृत्तिकरण है' । निवृत्तिकरण मे प्रविष्ट होनेके प्रथम समय से ही अपूर्वकरण के अन्तिम स्थितिकाडक से विशेष हीन अन्य स्थितिकाडक को प्रारम्भ करता है । पूर्व के रितिबन्ध से पत्योपम के सख्यातवेभागप्रमाण हीन स्थितिवन्ध भी वही पर आरम्भ करता है तथा घात करने से शेष रहे अनुभागके ग्रनन्त बहुभागप्रमाण काण्डकको भी वही पर ग्रहण करता है, किन्तु गुणश्र णिनिक्षेप पूर्वका ही रहता है जो अध स्तनस्थितियो के गलने पर जितना शेष रहे उतना होता है तथा प्रतिसमय असख्यातगुणे प्रदेशो के विन्यास से विशेषता को लिए हुए होता है । शेष विधि भी पूर्वोक्त ही जाननी चाहिए । अब अनिवृत्तिकरणकालमें विशेष कार्यका कथन करते हैंसंखेज्जदिमे से से दंसणमोहस्स अंतरं कुणई । अरणं ठिदिरसखंड अरणं ठिदिबंधणं तत्थ ॥ ८४ ॥ अर्थ – (अनिवृत्तिकरणकाल का ) सख्यातवाभाग शेष रह जाने पर दर्शनमोहनीयकर्मका अन्तर करता है । वहा पर अन्यस्थितिकाण्डक अन्य अनुभागकाण्डक और अन्य ही स्थितिवन्व होता है । विशेषार्थ — इसप्रकारं अनन्तर पूर्व कही गई विधि के अनुसार जो प्रत्येक स्थितिकाण्टक हजारो अनुभाग काण्डको का ग्रविनाभावी है, ऐसे बहुत हजार स्थिति १. पु. १ पृ १६३ एवं क पा. मुत्त पृ ६२४, ज. घ. पु १२ पृ २५६ । २. ज. ध. पु १२ पृ. २७१ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८५ ] लब्धिसार [ & काण्डकों के द्वारा अनिवृत्तिकरणकाल के सख्यात बहुभाग को बिताकर संख्यातवे भागप्रमाण काल शेष रहने पर अन्तरकरण का आरम्भ करता है । शका — अन्तरकरण किसे कहते है ? समाधान-1 - विवक्षित कर्मो की अधस्तन और उपरिम स्थितियो को छोड़कर मध्य की अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियो के निषेको का परिणाम विशेष के कारण प्रभाव करने को अन्तरकरण कहते है' । उस समय पूर्व स्थितिकाडक से अन्यस्थितिकांडक, पूर्व अनुभागकाण्डक से अन्य अनुभागकाण्डक, पूर्व स्थितिबन्ध से अन्य स्थितिबन्ध को प्रारम्भ करता है । अथानन्तर अन्तरकरण में लगने वाले कालका परिमाण कहते हैंएयट्ठिदिखंडुक्कीरणकाले अंतरस्सप्पित्ती | अंतरकरणस्स श्रद्धाणं तो मुहुत्तमेत्तं ॥८५॥ अर्थ-एक स्थितिकाडकोत्कीरणकाल के द्वारा अन्तरकी निष्पत्ति होती है । अन्तरकररणका अध्वान अन्तर्मुहूर्त मात्र है । विशेषार्थ - अन्तर करनेवाला कितने काल के द्वारा अन्तर करता है ? जो उस समय स्थितिबन्ध का काल है अथवा स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल है उतने काले के द्वारा अन्तर करता है । इस वचन के द्वारा यह बतलाया गया है कि एक समय द्वारा अथवा दो या तीन समयों द्वारा इसप्रकार संख्यात और सख्यात समयो द्वारा ग्रन्तरकरण विधि समाप्त नही होती, किन्तु अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा ही यह विधि समाप्त होती है । अन्तरकरण के प्रारम्भ के समकालभावी स्थितिबन्धके कालप्रमाण द्वारा प्रत्येक समयमे अन्तर सम्बन्धी स्थितियोका फालीरूपसे उत्कीरण करने वाले जीव ने क्रमसे किया जाने वाला अन्तर, अन्तरकरण के काल सम्बन्धी अन्तिम समय मे ग्रन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालि का पतन करने पर सम्पन्न किया । यह मिथ्यात्वकर्म का ही १. जध पु. १२ पृ २७२, २७४-७५, क. पा सुत्त पृ. ६२६ - अन्तरायामके समस्त निषेकोके प्रथम द्वितीय स्थिति देनेको अन्तरकरण कहते है । ध. पु ६ प. २३१, क प्र ग्रन्थ पृ २६० | २. ज ध. पु १२ पृ २७३ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ८६ ५.] अन्नरकरण है, क्योंकि दर्शनमोहनीय की उपशामना में अन्य कर्मोके अन्तरकरणका अभाव है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका सत्कर्म वाला जीव यदि उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उन कर्मप्रकृतियोंका भी अतरकरण इसी विधि से करता है, किन्तु उन प्रकृतियो सम्बन्धी नीचेकी एक आवलिप्रमाण (उदयावलिप्रमाण) स्थितियोके सिवाय उपरितन स्थितिसे लेकर ऊपर मिथ्यात्वके अन्तर सदृश अन्तर करता है। अब अन्तरायामका प्रमाण एवं उसमें निषेक रचनाविधिका कथन करते हैंगुणलेडीए सीसं तत्तो संखगुण उवरिमठिदि च । हेटुवरिम्हि य आबाहुझिय बंधम्हि संछुहदि ॥८६॥ अर्थ--गुणश्रेणी शीर्ष और उससे सख्यातगुणे उपरितन निषेको के मिथ्यात्व द्रव्य को ग्रहण कर नीचे प्रथम स्थिति मे और ऊपर उस समय बधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आवाधा को उल्लघ करके बधने वाले कर्मो के निषेकों के साथ द्वितीय स्थिति मे देता है। विशेषार्थ- गुण श्रेणी शीर्ष अर्थात् अनिवृत्तिकरण काल से उपरिम विशेष अधिक गणश्रेणी निक्षेप उस सबको तथा गुरगश्रेणी शीर्ष से ऊपर अन्य भी सख्यात गुणी स्थितियो (निषेको) को अन्तर के लिए ग्रहण करता है । अन्तर के लिए जितनी स्थितियो को ग्रहण करता है उसकी अन्तरायाम सज्ञा है, उस अन्तरायाम से नीचे जितना अनिवृत्तिकरण का काल शेष है वह प्रथम स्थिति है। उस अन्तरायाम से जितनी उपरितन कर्मस्थिति है वह द्वितीय स्थिति है । अन्तर के लिये जो द्रव्य ग्रहण किया गया है उसको प्रतिसमय फालि रूप से प्रथम स्थिति व द्वितीय स्थिति मे देता है, किन्तु उस समय वधने वाले मिथ्यात्वकर्म की आबाधा मे नही देता है । अन्तरफालियों में असख्यातगुणे क्रम से द्रव्य को ग्रहण करता है। कुछ प्राचार्यो का यह मत है कि गुणश्रेणिशीर्प से नीचे सख्यातवे भाग स्थितियो का भी खण्डन करता है। एक स्थिनिकाण्डक उत्कीरणकाल के जितने समय है उतनी ही फालियो द्वारा अन्तर सम्बन्धी स्थितियों के द्रव्य का उत्कीरण किया जाता है । अन्तर करने के काल के चरम समय १. 7 व. पु १२ १ २७५. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८७-८८ ] लब्धिसार [ ७१ मे अतरसम्बन्धी प्रतिमफाली का पतन होने पर अंतर का कार्य सम्पन्न हो जाता है । इसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण का जो काल शेष रहा वह प्रथमस्थितिप्रमाण है' । प्रथानन्तर अन्तरकरण की समाप्ति के पश्चात् होने वाले कार्य को कहते हैंअंतरकदपदमादो पडिसमयमसंखगुणिदमुवसमदि । गुणसंक्रमेण दंसणमोहणियं जाव पढमठिदी ॥८७॥ अर्थ- — अन्तर कर चुकने के पश्चात् प्रथम संमय से प्रथमंस्थिति के अन्त तक प्रतिसमय गुणसक्रमण के द्वारा असंख्यातगुणे क्रमसे दर्शनमोह को उपशमाता है । विशेषार्थ - इसप्रकार एक स्थितिकाडकोत्कीरण काल के बराबर काल द्वारा अन्तरकरण कर लेने के पश्चात् का समय प्रथमस्थिति का प्रथम समय है उसी प्रथमस्थिति के चरम समय पर्यन्त प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रमसे अतरायाम के ऊपरवर्ती निषेकरूप द्वितीयस्थिति मे स्थित दर्शनमोहनीय के द्रव्य का उपशम करता है । यद्यपि यह जीव पहले ही अध प्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर उपशामक ही है तथापि निवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभागो के बीत जाने पर तथा सख्यातवां भाग शेष रहने पर अन्तर को करके वहा से लेकर दर्शनमोहनीय की प्रकृति, स्थिति और प्रदेशों का उपशामक होता है । करण परिणामो के द्वारा निशक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के बिना अवस्थित रहने को उपशम कहते है । उपशम करने वाले को उपशामक कहते है । अब दर्शनमोहनीय को उपशम क्रियामें पायी जाने वाली विशेषताका कथन करते हैं पढमट्ठि दियावलि पडिभावलिसेसेसु णत्थि श्रागाला । पडियागाला मिच्छत्तस्स य गुणासेढिकरणं पि ॥ ८८ ॥ अर्थ - प्रथम स्थिति मे ग्रावली प्रत्यावली अर्थात् उदयावली और द्वितीयावली अवशेष रहने पर आगाल - प्रत्यागाल तथा मिथ्यात्व की गुरणश्रेणी नही होती है । १. ध. पु ६ पृ २३२ । एव ज. ध. पु. १२ पृ २७३-२७५ । २ ध पु. १२ पृ. २७६ ॥ ३. ज ध. पु. १२ पृ. २८० । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ८६ विशेषार्थ — 'आगालनं आगाल:' अर्थात् द्वितीयस्थिति के कर्म परमाणुओ का प्रथम स्थिति मे अपकर्षण वश आना आगाल है । 'प्रत्यागालन प्रत्यागालः ' ग्रर्थात् प्रथमस्थिति के कर्मपरमाणुओ का द्वितीयस्थिति में उत्कर्षरण वश जाना प्रत्यागाल हैं । प्रथम और द्वितीय स्थिति के कर्मपरमाणुओं का उत्कर्षण - अपकर्षरण वश परस्पर विषय सक्रमण का नाम आगाल- प्रत्यागाल है । यह आगाल - प्रत्यागाल तव तक व्युच्छिन्न नही होता जब तक प्रथमस्थिति में एकसमय अधिक ग्रावलि - प्रत्यावलि शेष रहती है । प्रतएव आवलि- प्रत्यावलि को उसकी मर्यादा स्वरूप से गाथा सूत्र मे निदेश किया है । प्रावलि कहने से उदयावलि का ग्रहण होता है प्रत्यावलि शव्द से उदयावलि से उपरिम दूसरी प्रावलि का हरण होता है । प्रथमस्थिति के प्रावलि - प्रत्यावलि मात्र शेष रहने पर आगाल - प्रत्यागाल के विच्छेद का नियम है | ७२ ] प्रावलि और प्रत्यावलि के शेष रहने पर मिथ्यात्व की गुरणश्र ेणी भी नही होती, क्योकि दूसरी स्थिति से प्रथम स्थिति में कर्म परमाणुओं के आने का निषेध है । यदि कहा जावे कि प्रथमस्थिति मे प्रत्यावलि के कर्म परमाणुओ का अपकर्षण करके गुणश्र ेणी निक्षेप किया जाता है सो ऐसा कहना भी ठीक नही है, क्योकि उदयावलि के भीतर गुणश्र ेणी निक्षेप का होना असम्भव है । प्रत्यावलि से अपकर्षित प्रदेशपुंज का वही गुणी मे निक्षेप होता है यह भी सम्भव नही है, क्योकि अपनी प्रतिस्थापना मे अपकर्षित द्रव्य के निक्षेप का विरोध है, किन्तु शेष कर्मों की गुण रिंग होती है' । आगे प्रथमसम्यक्त्व के ग्रहणकाल में होने वाले कार्य विशेषका कथव करते हैं अंतरपढमं पत्ते उवसमणामो हु तत्थ मिच्छत्तं । ठिदिरसखंडेण विणा उवठाइ कुदिति ॥ ८६ ॥ अर्थ — ग्रन्तर के प्रथम समय को प्राप्त होने पर उपशम सम्यग्दृष्टिजीव वहां पर मिथ्यात्व को अपवर्तन करके स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात के विना तीन प्रकार करता है । १. ज. व पु १२ पृ २७७-७८ । २ ज.धपु १२ पृ. २७६, क पा सुत्त पृ ६२८ सूत्र ६६ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा, ६० ] लब्धिसार [ ७३ विशेषार्थ- अन्तर में प्रवेश करने के प्रथम समय में ही दर्शनमोहनीय का उपशामक उपशम, सम्यग्दृष्टि हो गया, किन्तु यहा पर सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योकि उपशमपने को प्राप्त होने पर- भी दर्शनमोहनीय के सक्रमण और अपकर्षण करण पाये जाते हैं । उसी समय वह मिथ्यात्वकर्म के तीन कर्म रूप भेद उत्पन्न करता है । जैसे यन्त्र से कोदो के दलने पर उनके तीन भाग हो जाते है, वैसे ही अनिवृत्तिकरण परिणामो के द्वारा दलित किये गये दर्शनमोहनीय के तीन भेदो की उत्पत्ति होने मे विरोध का अभाव है। अब स्थिति-अनुभागको अपेक्षा मिथ्यात्वद्रव्यका तीनरूप विभाग बताते हैंमिच्छत्तमिस्ससम्मसरूवेण य तत्तिधा य दव्वादो। सत्तीदो य असंखाणंतेण य हाँति भजियकमा ॥६॥ अर्थ-मिथ्यात्व, मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व), सम्यक्त्व प्रकृतिरूप दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार होता है वह क्रमसे द्रव्य की अपेक्षा असख्यातवा भाग मात्र और अनुभाग की अपेक्षा अनन्तवा भाग प्रमाण जानना ।। विशेषार्थ-मिथ्यात्व के परमाणूरूप द्रव्य को गुणसक्रम भागहार का अर्थात् पल्योपम के असख्यातवे भाग का भाग देकर एक अधिक असख्यातसे गुणा करने पर जो लब्ध आवे उतने द्रव्य के बिना बहुभाग प्रमाण समस्त द्रव्य मिथ्यात्वरूप है । गुण सक्रमण भागहार से भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को असख्यात से गुणा करने पर जो लब्ध आया उतना द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणमित हुआ और गुणसक्रमभागहार से भाजित मिथ्यात्व द्रव्य को एक से गुणा करने पर प्राप्त लब्ध प्रमाण द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृतिरूप परिणमित हुआ उससे असख्यातवा भाग रूप क्रम द्रव्यापेक्षा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वप्रकृतिमे प्राप्त हुआ। अनुभागापेक्षा सख्यात अनुभागकाडको के घात से मिथ्यात्व का अनुभाग पूर्व अनुभाग का अनन्तवाभाग प्रमाण अवशिष्ट रहा उससे अनन्तवाभाग अनुभाग सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग है तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के इस अनुभाग से अनन्तवाभाग सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग है। १. ज ध पु. १२ पृ. २८०-८१ । ज ध. पु ६ पृ. ८३, क पा सुत्त. पृ. ६२८ सूत्र १०२-१०३; ध. पु ६ पृ. ३८ व २३२, ध. पु १३ प ३५८; अमितगतिश्रावकाचार श्लो. ५३ । २. ध पु ६ पृ २३५ । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ६१ लेब्धिसार ४] इस प्रकार अनुभागापेक्षा अनन्तवेभाग रूप क्रम है । अर्थात् मिथ्यात्वप्रकृति के अनुभाग से सम्यन्मिथ्यात्वका अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के अनुभागमे सम्यक्त्वप्रकृति का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है । अथानन्तर गणसंक्रमणको सीमा और विध्यातसंक्रमके प्रारम्भका कथन करते हैं पढमादो गुणसंकमचरिमोति य सम्ममिस्ससम्मिस्से । अहिगदिणाऽसंखगुणो विज्झादो संकमो तत्तो ॥११॥ अर्थ--गुणसक्रम कालके प्रथम समय से अन्तिम समय पर्यन्त प्रतिसमय सर्प की गति के समान असख्यातगुणे क्रम सहित मिथ्यात्वरूप द्रव्य है वह सम्यक्त्व और मिश्रप्रकृति रूप परिणमता है । इसके (गुरंगसंक्रमण के) पश्चात् विध्यात सक्रमण होता है। विशेषार्थ -प्रथमसमयवर्ती उपशान्त दर्शनमोहनीय जीव के द्रव्यमे से सम्यग्मिथ्यात्व मे बहुत प्रदेशपुञ्ज को देता है, उससे असख्यातगुणे हीन प्रदेशपुञ्ज को सम्यक्त्व प्रकृति मे देता है । प्रथम समय मे सम्यग्मिथ्यात्व मे दिये गये प्रदेशों से द्वितीय समय मे सम्यक्त्वप्रकृति मे असंख्यातगुणित प्रदेशो को देता है और उसी दूसरे समयमे सम्यक्त्वप्रकृति में दिये गये प्रदेशो की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व मे असख्यातगुरिणत प्रदेशो को देता है । इसप्रकार इस परस्थान अल्पबहत्व विधि से अन्तर्मुहर्तकाल पर्यत गुणसक्रमण के द्वारा मिथ्यात्व के द्रव्य मे से सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को पूरित करता है । यहा गुणसक्रम भागहार प्रतिभाग है जो पल्योपम के असख्यातवे भाग प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के प्रदेशों के आने के निमित्तरूप गुरासक्रम भागहार से सम्यक्त्व के प्रदेशो के आने का निमित्त गुरगसक्रम भागहार असल्यातगुणा है । स्वस्थान अल्पवहुत्व का कथन करने पर प्रथम सेमय मे सम्यग्मिथ्यात्वे में सक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज स्तोक है। दूसरे समय मे सक्रमित हुआ प्रदेशपुञ्ज अमन्यात गुगा है । यह असंख्यातगुणा कम गुणसंक्रमण के अन्तिम समय तक जानना चाहिए । इसीप्रकार सम्यक्त्व का भी स्वस्थान अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए । यहा १. प. पुपृ. २३५॥ २ घ पु. ६ पृ. २३५; ज. प. पु १२ पृ. २८२ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६२-६३ ] लब्धिसार [७५ उपशम सम्यग्दृष्टि के द्वितीय समय से लेकर जहा तक मिथ्यात्व का गुण सक्रम होता है वहा तक सम्यग्मिथ्यात्व का भी सक्रमण होता है, क्योकि सूच्यगुल के असख्यातवे भाग के प्रतिभागरूप विध्यातगुणसक्रमण-द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्य का सम्यवत्व मे सक्रमण उपलब्ध होता है । इस गुणसक्रमण के पश्चात् सूच्यगुल के असख्यातवे भाग प्रमाणवाला मिथ्यात्व द्रव्य का विध्यातसक्रमरण होता है । जब तक उपशमसम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि है । विध्यात् अर्थात् मन्द हुई है विशुद्धि जिसकी ऐसे जीव के स्थितिकाडक, अनुभागकाडक और - गुणश्रेणि आदि परिणामो के ‘रुक जाने पर प्रवृत्त होने के कारण यह विध्यातसक्रमण है। जब तक मिथ्यात्व का गुणसक्रमण होता है तव तक एकान्तानुवृद्धिरूप परिणामो के द्वारा दर्शनमोहनीय को छोड कर शेष कर्मो के स्थितिकाडक घात और गुणश्रेणी निक्षेप होते रहते है, किन्तु उपशान्त अवस्था को प्राप्त मिथ्यात्व का स्थितिकाडक आदि का अभाव है। अनिवृत्तिकरणरूप परिणामो के उपरम (समाप्त) हो जाने पर भी पूर्व प्रयोग वश कितने ही काल तक अन्य कर्मो का स्थितिकाडक आदि होने मे बाधा नही उपलब्ध होती' । अब ५ गाथाओंमें अनुभागकाण्डकोत्कोरणकाल प्रादि २५ पदों का अल्पबहुत्व कहते हैं विदियकरणादिमादों गुणसंकमपूरणस्स कालोत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्प बहु ॥१२॥ अर्थ-अपूर्वकरण के प्रथम समय से गुणसक्रमणकाल के पूर्ण होने तक किये जाने वाले अनुभागकाडकोत्कीरणकालादि का अल्पबहुत्व कहेगे । (इस प्रकार प्रस्तुत गाथा मे प्राचार्यदेव ने आगे किये जाने वाले कथन की प्रतिज्ञा की है । ) अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमो अहिमो। तत्तो संखेज्जगुणो चरिमट्टिदिखंडहदिकालो ॥१३॥ अर्थ-ग्रन्तिम अनुभागकाडकोत्कीरण काल से प्रथम अनुभाग काडकोत्कीरणकाल विशेषाधिक है। उससे अन्तिम स्थितिकाडक काल व स्थितिबधापसरणकाल सख्यातगुणा है। १ ध पु ६ पृ. २३५-३६; जयधवल पु. १२ पृ. २८२ से २८४ के प्राधार से । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार : [ गाथा है। विशेषार्थ-दर्शनमोडनीय की प्रथम स्थिति के चरम समय में होने वाले नग अन्य कर्मों के गुणसक्रमण काल के अन्तिम समय में जो अनुभागकांडक होता है उमा बात करने का जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल है वह अन्तिम अनुभागखंडोत्कीरण पाल है जो कि आगे कहे जाने वाले अनुभाग काडकोत्कीरण काल से स्तोक है। इससे मोके नल्यात भागप्रमाण अर्थात् सख्यात आवलि विशेष से अधिक अपूर्वकरण के प्रथम समय मे प्रारम्भ होने वाले अनुभागकाडकोत्कीरण का काल है, क्योंकि अन्तिम पन्भागकाइक से विशेष अधिक क्रम से संख्यातहजार अनुभागकांडक नीचे उतरने पर उसकी उपलब्धि होती है । इससे सख्यातगुणा काल अन्तिम स्थितिकांडकोत्कीरण काल और स्थिति बन्धापसरण काल है ये दोनो परस्पर समान हैं, क्योंकि एक स्थितिकांडककाल के भीतर संख्यात हजार अनुभागकाण्डक होते है । मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के अन्त मे होने वाला स्थितिकाडक और अन्य कर्मों का गुणसंक्रम काल के अन्त में होने वाला स्थितिकाण्डक, सो अन्तिम स्थितिकाण्डक काल है। तत्तो पढमो महिमो पूरणगुणलेडिसीसपढमठिदी। संखेण य गुणियकमा उवसमगद्धा विसेसहिया ॥६॥ प्रर्य-चरम स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल से प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल अधिक है । इससे सम्यक्त्वप्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र प्रकृति) के पूरण का काल मन्यात गुणा है। इससे गुणश्रेणीशीर्ष संख्यातगुणा है, इससे प्रथम स्थिति मन्चातगुणी है और इससे उपणम करने का काल विशेषाधिक है। विशेषार्थ-यद्यपि गाथा में अन्तर करने का काल नही कहा गया है, किन्तु पायपाहुइ चूर्णिमूत्रकार ने 'अन्तर करने का काल' इस अल्पबहुत्व में ग्रहण किया है। उनके अनुसार गाथा ६३ मे पूर्वोक्त चरम स्थितिकाण्डकघात काल से अन्तर करने का पाल ग्रार वही पर होने वाले स्थितिवन्ध का काल ये दोनों परस्पर तुल्य होकर विशेष पित हैं, क्योंकि पूर्वोक्त काल से नीचे अन्तर्मुहर्तकाल पीछे जाकर इन दोनों कालो मी प्रवृत्ति होती है। उससे प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण काल और स्थिति बंध का ' उ पु १२ पृ २८६-८७ । .. 7. . पु. १२ पृ २८७ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ६५ ] लब्धिसार [ ७७ काल ये दोनो परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक है, क्योकि पूर्वोक्त दोनों कालों से नीचे अन्तर्मुहूर्त काल पीछे जाकर अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिकाण्डक के समय इनकी प्रवृत्ति होती है। इन दोनो से उपशामक जीव जब तक गुणसक्रम के द्वारा सम्यक्त्वप्रकृति और मिश्रप्रकृति को पूर्ण करता है वह काल सख्यातगुणा है, क्योकि उस काल के भीतर सख्यात स्थितिकाण्डक और स्थितिबन्ध सम्भव है। प्रथम समयवर्ती उपशामक ( अन्तर करने वाला ) का गुणश्रेणीशीर्ष अर्थात् अन्तर सम्बन्धी अन्तिम फालिका पतन होते समय गुणश्रेणी निक्षेप' के अनाग्रसे सख्यातवे भाग का खडन कर जो फालि के साथ निर्जीर्ण होने वाला गुणश्रेणि शीर्ष है वह पूर्वके गुणसक्रम सम्बन्धीकाल से सख्यातगुणा है, क्योकि गुणश्रोणिशीर्ष के सख्यातवे भाग मे ही गुणसक्रमकाल का अत हो जाता है । अथवा गाथा सूत्र मे प्रथम समयवर्ती उपशामक सम्बन्धी मिथ्यात्व का गुणश्रेणीशीर्ष ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहा गया है, किन्तु सामान्यरूप से गुणश्रेणी शीर्ष कहा गया है, इसलिये प्रथम समयवर्ती उपशामक के शेष कर्मोके गुणश्रेरिणशीर्षका ग्रहण करना चाहिए क्योकि उन कर्मोका अन्तरकरण न होने से प्रथमसमयवर्ती उपशामकके उसके सम्भव होने में कोई विरोध नही पाया जाता । उससे प्रथमस्थिति सख्यातगुणी है, क्योकि प्रथमस्थिति के सख्यातवे भाग मात्र ही गुणश्रेणीशीर्ष को अन्तर के लिये ग्रहण किया गया है। उससे उपशामक का काल विशेष अधिक अर्थात् एक समय कम दो प्रावलिमात्र विशेष अधिक है, क्योकि अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि के द्वारा बांधे गये मिथ्यात्व सम्बन्धी नवक बन्ध का एक समय प्रथम स्थिति मे ही गल जाता है, पुनः इस प्रथमस्थिति सम्बन्धी अन्तिम समय को छोड़कर उपशम सम्यक्त्व काल के भीतर एक समय कम दो आवलि प्रमाण ( बन्धावलि व सक्रमावलि ) काल ऊपर जाकर उस नवक बन्ध की उपशामना समाप्त होती है इसलिये प्रथमस्थिति मे एक समय कम दो आवलिकाल प्रवेश कराकर यह विशेष अधिक हो जाता है । मणियट्टीसंखगुणो णियट्टिगुणसे ढियायदं सिद्धं । उवसंतद्धा अंतर अवरवराबाह संखगुणियकमा ।।५।। १. गुणश्रेणीनिक्षेप = गुणश्रेणी-आयाम । २. ज. ध पु. १२ पृ. २८८-२६० । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ६५ अर्थ-अनिवृत्तिकरण का काल सख्यातगुणा है इससे अपूर्वकरण का काल, गणगि का आयाम, उपशम सम्यक्त्वका काल, अन्तरायाम, जघन्य आबाधा और नष्ट पाबाधा ये सख्यातगुणित क्रम से है । विशेषार्थ-प्रथमस्थिति से एक समय कम दो प्रावलि अधिक उपशमावने (उपशामक) के काल से अनिवृत्तिकरण का काल सख्यातगुणा है, क्योंकि सर्वदा अनिवृत्तिकरणकाल के सख्यातवें भाग मे प्रथमस्थिति की उपलब्धि होती है । इससे अपूर्वकरण का काल सख्यातगुणा है, क्योकि सर्वदा अनिवृत्तिकरणकाल से अपूर्वकरणकाल सल्यातगुणा होता है। इससे गुणश्रेणि आयाम ( गुणश्रेणिनिक्षेप ) विशेष अधिक है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथमसमय से गुणश्रेणियायाम की उपलब्धि होती है जो अनिवृत्तिकरणकाल व अनिवृत्तिकरणकाल के सख्यातवे भाग सहित अपूर्वकरणकालप्रमाण है। इसलिये गुणश्रेणीअायाम, अपूर्वकरणकालसे अनिवृत्तिकरणकाल व अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातवे भाग काल प्रमाण अधिक है । गुणश्रेणि आयाम से उपशान्ताद्धा अर्थात् उपशमसम्यक्त्वका काल सख्यातगुणा है, इससे संख्यातगुणा अंतगयाग है, क्योकि अन्तर का आयाम अर्थात् जितने निषेको के मिथ्यात्वद्रव्य का अभाव किया गया है उन निपेको का काल सख्यातगणा है, क्योकि अन्तरायाम के सख्यातवें भाग मे ही उपशमसम्यक्त्व के काल को गलाकर उससे आगे दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रतियो मे से किसी एक का अपकर्षण कर उसका वेदन करता हुआ अन्तर को समाप्त करना है । अन्तरायाम से सख्यातगुणी जघन्य आवाधा है । अन्तिम समयवर्ती मियादृष्टि के जो नवकवन्य होता है, उसकी आबाधा जघन्य होती है, क्योकि अन्यत्र मिथ्यात्व की जघन्य आवाधा उपलब्ध नहीं होती, परन्तु शेष कर्मो का गुणसंक्रमण के अन्तिम समय मे जो नवक बन्ध होता है, उसकी आबाधा जघन्य होती है, क्योकि गुणसंक्रमण काल को उल्लघकर विध्यातसक्रम को प्राप्त हुए जीव के मन्दविशुद्धि वश स्थितिबन्ध वृद्धिगन होता है इसलिये वहा की याबाधा सवसे जघन्य नही हो सकती । जघन्य आवाधा में उत्कृष्ट याबाग सख्यातगुणी है। सर्व कर्मो की अपूर्वकरण के प्रथम समय मे स्थितिबन्ध सम्बन्धी आवाधा यहा पर उत्कृप्ट आवाधारूपसे विवक्षित है । जघन्य स्थितिबरगे यह स्थितिवन्ध सख्यातगुणा है इसलिए इसकी आबाधा भी सख्यातगुणी है' । १ . पु १२ प २६०-२६३ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा ६६ ] GË पढमापुवजहएणढिदिखंडमसंखसंगुणं तस्स । . अवरवरदिदिबंधा तढिदिसत्ता य संखगुणियकमा ॥६६॥ अर्थ-अपूर्वकरण के प्रथम समय मे जघन्य स्थितिखण्ड असख्यातगुणा है, इससे सख्यातगुणा जघन्य स्थितिबन्ध है। इससे सख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, इससे सख्यातगुणा जघन्य स्थितिसत्त्व तथा उससे सख्यातगुणा उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है । इसप्रकार सख्यात गुणित क्रम से स्थान जानना । विशेषार्थ-गाथामें "पढमापुवजहणे ट्ठिदिखंडमसखेसगुणं” पाठ है । ध. पु. ६ पृ. २३७ पर "अपुन्वकरणस्स पढमसमए जहण्णो ठिदिखडप्रो असखेज्जगुणो" यह पाठ है । इन दोनो का अर्थ है कि "अपूर्वकरण के प्रथम समयमे जघन्य स्थितिखंड असख्यातगुणा है, किन्तु ज. ध. पु. १२ पृ २६३ पर चूर्णिसूत्र "जहण्णय ट्ठिदिखडयमसखेज्जगुण" पाठ है। इसमे "पढमापुव्व" अर्थात् 'अपूर्वकरणके प्रथम समयमे' यह पाठ नही है। इस पाठ के अभाव मे प्रथम स्थिति के अन्त मे होने वाले 'स्थितिखण्ड' का ग्रहण होता है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिखण्ड की अपेक्षा प्रथम स्थिति के अन्त का स्थितिखण्ड जघन्य है। यह जघन्य स्थिति खण्ड भी पूर्वोक्त उत्कृष्ट आबाधा से असख्यातगुणा है । जयधवला टीका मे कहा भी है-"मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति अल्प शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिमस्थितिकाण्डक का और शेषकर्मो के गुणसक्रमण काल के शेष रहने पर प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाडक का जघन्य स्थितिकाण्डकरूपसे ग्रहण करना चाहिए । यह पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण होनेसे पूर्व में कही गई उत्कृष्ट आबाधा से असंख्यातगुणा है । यद्यपि गाथामे 'उत्कृष्ट स्थिति खण्ड' का कथन नही है, किन्तु ध पु. ६ पृ. २३७ व जयवंवल पु. १२ पृ २६४ के आधारसे यहा उसका कथन किया जाता हैअपूर्वकरण का 'उत्कृष्ट स्थितिखण्ड' जघन्य स्थितिखण्ड से सख्यातगुणा है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिखण्ड का प्रमाण सागरोपम पृथक्त्व है। उससे जघन्य स्थितिवन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि अन्तिमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिबंध और शेष कर्मों का गुणसक्रम के अन्तिम समय का जघन्य स्थितिवन्ध अन्त' कोडाकोड़ी सागरोपम प्रमाण है । उससे उत्कृष्टस्थितिबन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि सभी कर्मों का अपूर्वकरण के प्रथम समय मे जो स्थितिबन्ध होता है वह पूर्व मे कहे गये जघन्य Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] लब्धिसार [ गाथा ६७-SF स्थितिवन्ध से सख्यातगुणा है। उससे जघन्य स्थिति सत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में मिथ्यात्व का जो जघन्य स्थिति सत्कर्म होता है और शेष कर्मों का भी गुणसक्रमण काल के अन्तिम समय मे जो जघन्य सत्कर्म होता है, वन्ध की अपेक्षा उस सत्कर्म के सख्यातगुणा होने मे कोई विरोध नही है। उससे उत्कृष्ट सत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि सभी कर्मों के अपूर्वकरण सम्बन्धी प्रथम समय से सम्बन्ध रखने वाले उत्कृष्ट सत्कर्म का प्रकृत मे अवलम्बन लिया गया है । इसप्रकार पच्चीस पदवाला दण्डक समाप्त हुआ' । अब प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहणकालमें पाये जाने वाले स्थितिसत्त्वका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडी जाहे संखेज्जप्लायरसहस्से । गुणा कम्माण ठिदी ताहे उवसमगुणं गहइ ॥१७॥ अर्थ-जब सख्यात हजार सागर से हीन अन्त कोडाकोडी प्रमाण स्थिति सत्त्व होता है उस समय मे उपशमसम्यक्त्व गुण को ग्रहण करता है । ___ आगे देशसंयम व सकलसयमके साथ प्रथमोपशमसम्यक्त्व ग्रहण करनेवाले जोवके स्थितिसत्त्व को कहते हैं तट्ठाणे ठिदिसत्तो आदिमसम्मेण देससयलजमं । पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण होणकमो ॥६॥ अर्थ-उसी स्थान मे यदि देशसयम सहित प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करे तो उसके पूर्वोक्त स्थितिसत्त्व से सख्यातगुणा हीन स्थिति सत्त्व होता है और यदि सकलसयम सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करे तो उसके उससे भी सख्यातगुणा हीन स्थिति सत्त्व होता है। विशेषार्थ-अनन्तगुणी विशुद्धि की विशेषता के कारण स्थितिखण्डायाम सख्यातगुणा होता है उससे घटाई हुई अवशिष्ट स्थिति सख्यातवे भाग होती है । १. ज. ध पु १२ पृ २६३-२६६ । क पा मुत्त पृ ६२६-३० । २. घ. पु ६ पृ २६८ । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०१ ] लब्धिसार [८३ के उदय से होता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पूर्व तीनकरण (अधकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण) होते है । अनिवृत्तिकरण काल का बहुभाग व्यतीत हो जाने पर दर्शनमोहनीय कर्म का अन्तर होकर उपशम होता है, किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क का न तो अन्तर होता है और न उपशम होता है । हा । परिणामो की विशुद्धता के कारण प्रतिसमय स्तिवुक सक्रमण द्वारा अनन्तानुबन्धीकषाय का अप्रत्याख्यानादि कषायरूप परिणभन होकर परमुख उदय होता रहता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल मे अधिक से अधिक छह प्रावलि काल शेष रह जाने पर और कम से कम एक समय काल शेप रह जाने पर यदि परिणामो की विशुद्धता मे हानि हो जावे तो अनन्तानुवन्धीकषाय का स्तिवुकसक्रमण रुक जाता है और अनन्तानुबन्धीका परमुख उदय की बजाय स्वमुख उदय आने के कारण प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्रासादना (विराधना) हो जाती है और प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरकर दूसरा सासादन गुणस्थान हो जाता है । मिथ्यात्वप्रकृति का अभी उदय नही हुआ, क्योकि उसका अन्तर व उपशम है। अतः उसको मिथ्यादृष्टि नही कहा गया । अनन्तानुबन्धीकषाय जनित विपरीताभिनिवेश हो जाने के कारण सम्यक्त्व की विराधना हो जाने से उसकी सासादनसम्यग्दृष्टि (सम्यवत्व की विराधना सहित) सज्ञा हो जाती है। अब उपशमसम्यक्त्व सम्बन्धी प्रारम्भिक सामग्रीका कथन करते हैं'सायारे पट्ठवगो णिटुवगो मज्झिमो य भजणिज्जो । जोगे अण्णदरम्हि दु जहण्णए तेउलेस्साए ॥१०१॥ अर्थ-दर्शनमोहके उपशमन का प्रस्थापक जीव साकार उपयोग मे विद्यमान होता है, किन्तु उसका निष्ठापक और मध्य अवस्थावर्ती जीव भजितव्य है। तीनो योगो में से किसी एक योग मे विद्यमान तथा तेजोलेश्या के जघन्य अश को प्राप्त वह जीव दर्शनमोह का उपशामक होता है । विशेषार्थ- उक्त गाथा कषायपाहुड गाथा १८ से शब्दश मिलती है । दर्शनमोहोपशामना सम्बन्धी १५ गाथाओ मे से यह चतुर्थ गाथा है। इस गाथा सूत्र मे १ किंचित् पाठान्तरेण गाथेय (ज. ध पु. १२ पृ. ३०४ गा ६८ पर) अस्ति । "सायारे पढ़वो णिवो मज्झिमो य भयणिज्जो। जोगे अण्णदरम्मि दु जहण्णए तेउलेस्साए । (प. पु. ६ पृ २३६ गा. ५) Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] लब्धिसार [ गाथा १०० के कालमे छह प्रावलि शेष रहने पर वहा से सासादन गुणस्थानकी प्राप्ति किन्ही भो जीवो मे सम्भव देखी जाती है । "णीरासाणो य खीणम्मि" अर्थात् उपशम सम्यक्त्व का काल क्षीण होने पर यह जीव सासादनगुणस्थानको नियम से नही प्राप्त होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-ऐसा किस कारण से है ? समाधान-क्योकि उपशम सम्यक्त्वके काल मे जघन्यरूप से एक समय शेष रहने पर और उत्कृष्टरूप से छह प्रावलि काल शेप रहने पर सासादनगुणस्थान परिणाम होता है, इसके बाद नही ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा “णीरासागो य खीणम्मि" ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीयका क्षय होने पर यह जीव निरासान ही है, क्योकि उसके सासादनगुणस्थानरूप परिणाम सम्भव नहीं है ऐसा यहा ग्रहण करना चाहिये । कारण कि क्षायिक सम्यक्त्व अप्रतिपातस्वरूप होता है और सासादन परिणाम के उपशम सम्यक्त्व पूर्वक होनेका नियम देखा जाता है । आगे सासादनके स्वरूप एवं कालका कथन करते हैं*उवसमसम्मत्तद्धा छावलिमेत्ता दु समयमेत्तोत्ति । अवसि? आसाणो अणअण्णदरुदयदो होदि ॥१०॥ अर्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके काल मे उत्कृष्टकाल छह श्रावलि और जघन्यकाल एक समय मात्र अवशेष रह जाने पर अनन्तानुवन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों मे से किसी एक के उदय होने से सम्यक्त्व की प्रासादना ( विराधना ) होकर सासादन गुणस्थान होता है । विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन की घातक मिथ्यात्वप्रकृति व अनन्तानुबन्धीकपाय चतुष्क है । "मिथ्यात्व नाम विपरीताभिनिवेश । स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते ।" (ध पु १ सूत्र ११६ की टीका ) विपरीत अभिनिवेश का नाम मिथ्यात्व है और वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी इन दोनो कर्मो १. ज ध पु १२ पृ ३०२-३०३ । एव ध पु ६ पृ २३६ । २ पाठान्तरेणाऽत्रोक्तभावो अन्यत्रापि दृश्यते, प्रा. प स. पृ ६३३ श्लो ११; गो जी. गा १६ । ३ ज. ध पु ४ पृ २४, ज. ध पु १० प १२३-२४; ज ध. पु. १२ पृ ३०३ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०१ ] लब्धिसार [ ८५ गाथा के 'जोगे अण्णदरम्हि' का अर्थ है मनोयोग, वचनयोग और काययोग, इनमें से किसी एक योग में वर्तमान जीव दर्शनमोह की उपशमविधि का प्रस्थापक होता है । जीवप्रदेशो की कर्मो के ग्रहण में कारणभूत परिस्पन्दरूप पर्याय का नाम योग है। वह योग मनोयोग, वचनयोग और काययोग के भेद से तीन प्रकार का है। उनमे से सत्यमनोयोग मृषामनोयोग, सत्यमृषामनोयोग और असत्यमृषामनोयोग के भेद से मनोयोग चार प्रकार का है। इसीप्रकार वचनयोग भी चार प्रकार, का है। काययोग सातप्रकार का है । मनोयोग के इन भेदो मे से दर्शनमोहोपशामक के (प्रस्थापक के ) अन्यतर मनोयोग होता है, क्योकि उन चारो मनोयोग के ही यहा प्राप्त होने में किसी प्रकार का विरोध नही पाया जाता। इसी प्रकार वचनयोग का भी अन्यवर भेद होता है, किन्तु काययोग, औदारिक काययोग या वैक्रियिक काययोग होता है, क्योकि अन्य काययोग का प्राप्त होना असम्भव है । इन दस पर्याप्त योगो मे से अन्यतर योग से परिणत हुआ जीव प्रथमसम्यक्त्व को प्राप्त करने के योग्य (प्रस्थापक) होता है । शेप योगो से परिणत हुअा जीव ( प्रस्थापक ) नही होता' । इसीप्रकार निष्ठापक और मध्यमावस्था वाले जीव के भी कहना चाहिए, क्योकि इन दोनो अवस्थाप्रो मे प्रस्थापक से भिन्न नियम की उपलब्धि नहीं होती। गाथा में "जहण्णगो ते उलेस्साए" के द्वारा लेश्या का कथन किया गया है । पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यानो में से नियम से कोई एक वर्धमान लेश्या उसके (प्रस्थापक) के होती है । इनमें से कोई भी लेश्या हीयमान नही होती । यदि अत्यन्त मन्द विशुद्धि से परिणमन कर दर्शनमोहोपशमनविधि प्रारम्भ करता है तो भी उसके तेजोलेश्या का परिणाम ही उसके योग्य होता है । इससे नीचे की लेश्याका परिणाम अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत लेश्यारूप परिणाम नही होते, क्योकि तीन अशुभ लेश्या सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारणरूप करण परिणाम से विरुद्ध स्वरूप है । शंका-वर्धमान शुभ तीन लेश्याओ का नियम यहा पर किया है वह नही बनता, क्योकि नारकियो के सम्यक्त्वोत्पत्ति करने में व्याप्त होने पर तीन अशुभ लेश्याए भी सम्भव है ? १. ज ध पु १२ पृ ३०६ । २. ज प पु १२ पृ. २०६ । ३. ज. ध पु १२ पृ ३०६ । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] लब्धिसार [ गाथा १०१ दर्शनमोहोपणामक के उपयोग, योग और लेश्या परिणामगत विशेष कथन किया गया है । 'सायारे वटुवो ऐसा कहने पर दर्शनमोह को उपशमविधिको प्रारम्भ करने वाला जीव अध.प्रवृत्तकरण के प्रथमसमयसे अन्तमु हूर्त काल पर्यन्त प्रस्थापक कहलाता है' । __ जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है । आत्मा के अर्थग्रहणरूप परिणाम का नाम उपयोग है । वह उपयोग साकार अोर अनाकार के भेद से दो प्रकार का है ।' साकार तो जानोपयोग है और अनाकार दर्शनोपयोग । इनके क्रमश मतिनानादि और चक्षुदर्शनादिभेद भी है । दर्शनमोहोपशामना विधि का प्रस्थापक जीव नियम से जानोपयोग मे उपयुक्त होता है, क्योकि अविमर्शक और सामान्यमात्रग्राही चेतनाकार उपयोग के द्वारा विमर्शक स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान लक्षण सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रति अभिमुखपना नही बन सकता । अर्थात् प्रस्थापक के अविचार स्वरूप दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति का विरोध है। इसलिये कुमति, कुश्रु त और विभङ्गज्ञान मे से कोई एक साकारोपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नही होताः। इस वचन द्वारा जागृत अवस्था से परिणत जीव ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य होता है, अन्य नही, क्योकि निद्रारूप परिणाम सम्यक्त्वोत्पत्ति के योग्य विशुद्ध परिणामो से विरुद्धस्वभावी है । इसप्रकार प्रस्थापक के साकारोपयोग का नियम करके, निष्ठापकरूप और मध्यम अवस्था में साकारोपयोग और अनाकारोपयोग में से अन्यतर--उपयोग के साथ भजनीयपने का कथन करने के लिये, गाथा में 'णिवगो मज्झिमो य भजणिज्जो' यह वचन कहा है । दर्शनमोह के उपशामनाकरण को समाप्त करने वाला जीव निष्ठापक होता है अर्थात् समस्त प्रथमस्थितिको क्रम से गलाकर अन्तरं प्रवेश के अभिमुख जीव 'निष्टापक होता है । वह साकारोपयोग से उपयुक्त होता है या अनाकारोपयोग मे, क्योकि इन दोनों उपयोगो मे से किसी एक उपयोग के साथ निष्ठापक होने मे विरोध का अभाव है इसलिये भजनीय है। इसी प्रकार मध्यम अवस्थावाले के भी कथन करना चाहिए। प्रस्थापक और निष्ठापकै पर्यायों के अन्तराल काल मे प्रवर्तमान जीव मध्यम कहलाता है। दोनो ही उपयोगो का क्रम से परिणाम होने मे विरोध का अभाव होने से भजनीय है । . . . . १ क पा नुत्त पृ ६३२, ज ध पु १२ पृ ३०४ । २ ज. ध पृ. १२ १ २०३, गो. जो गाथा ६७२-७३, प्रा.प स. अ. १ गा. १७८ पृ. ३७ ।। : ज.धः पु. १२ पृ २०४, के. पा. सुत्त पृ"६३२ ।' ४ ज घ. पु. १२ पृ. ३०५ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा १०२-१०३ ] लब्धिसार [८७ अथानन्तर उपशमसम्यक्त्वकालके अनन्तर उदययोग्य कर्मविशेषका कथन करते हैं 'अंतोमुत्तमद्ध सम्वोवसमेण होदि उवसंतो। तेण परं उदओ खलु तिषणेक्कदरस्स कम्मस्स ॥१०२॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्त काल तक सर्वोपशमसे उपशान्त रहता है इसके पश्चात् नियम से तीन कर्म प्रकृतियो मे से किसी एक का उदय होता है। विशेषार्थ-उक्त गाथा कषायपाड मे दर्शनमोहनीय कर्म के सर्वोपशम से अवस्थानकाल के प्रमाणका अवधारण करने के लिये आई है। गाथा सूत्रमे "अंतोमुहत्तमद्ध" ऐसा कहने पर अन्तरायाम का सख्यातवा भाग प्रमाण काल लेना चाहिए । यह पूर्व मे कहे गये अल्पबहुत्व से जाना जाता है । गाथा सूत्र मे “सव्वोवसमेण" ऐसा कहने पर सभी दर्शनमोहनीय कर्मों के उपशम से ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योकि प्रकृति-स्थिति-अनुभाग प्रदेश से विभक्त मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीनों ही कर्मप्रकृतियो का यहां पर उपशान्तरूपसे अवस्थान होता है । "तेण परं उदओ खलु" उसके पश्चात् दर्शनमोह के भेदरूप तीनो प्रकृतियो मे से किसी एक का नियम से उदय होता है । अब दर्शनमोहनीयकर्मके अन्तरायाम पूरणका विधान कहते हैंउवसमसम्मत्तुवरि दंसणमोहं तुरंत पूरेदि । उदयिल्लस्सुदयादो सेसाणं उदयवाहिरदो ॥१०३॥ अर्थ-उपशम सम्यक्त्वकाल के ऊपर जो दर्शनमोह के अन्तरायाम का शेष भाग, उसको शीघ्र ही पूरता है । उदय वान प्रकृतिके द्रव्य को तो उदय स्थिति से देना प्रारम्भ करता है और शेष दो अनुदय प्रकृति के द्रव्य को उदयावलि से बाहर देता है। १. ज. ध पु १२ पृ. ३१४ गाथा १०३ किन्तु वहा 'तेरण पर उदयों के स्थान पर 'तत्तो परमदगे' ऐसा पाठ है । ध. पु ६ पृ. २४१ । क पा गा १०३ । २ ज ध पु १२ पृ. ३१४-३१५ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १०१ समाधान—यह कोई दोष नही है, क्योकि मनुष्य और तिर्यचों की अपेक्षा यह गाथा सूत्र प्रवृत्त हुआ है । तिर्यच और मनुष्यो के सम्यक्त्व प्राप्त करते समय तीन शुभ लेश्याओं को छोडकर अन्य लेश्याए सम्भव नहीं है, क्योकि अत्यन्त मन्द विशुद्धि द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले जीवके भी वहा जघन्य पीतलेश्या का नियम है । शका - यहा देव और नारकियो की विवक्षा क्यों नही है ? ८६ ] समाधान - देव और नारकियो की विवक्षा नही की, क्योकि उनके ग्रवस्थित लेश्याभावका कथन करने के लिये यहां परिवर्तमान सर्व लेश्यावाले तिर्यच और मनुष्यो की ही प्रधान रूप से विवक्षा है । अथवा देवो मे तो यथायोग्य तीन शुभलेश्यारूप परिणाम ही होता है । इसलिये उक्त कथन का वहा कोई व्यभिचार नही आता । नारकियो मे भी अवस्थित स्वरूप कृष्ण, नील और कापोतलेश्यारूप परिणाम होते है, वहा तीन शुभलेश्यारूप परिणाम असम्भव ही है इसलिए उनमे यह गाथा सूत्र प्रवृत्त नही होता त तिर्यंचो और मनुष्यो को विषय करनेवाली ही यह गाथा है' । यद्यपि गाथा सूत्र मे कषाय और वेद का कथन नही किया तथापि उनका कथन किया जाता है, क्योकि इस गाथा सूत्र मे एकदेश कथन किया गया है अर्थात् यह देशामर्शक गाथा सूत्र है । दर्शनमोह का उपशम करनेवाले जीवके क्रोधादि चारो कषायो मे से अन्यतर कषायपरिणाम होता है, किन्तु वह नियमसे हीयमान कषायवाला होता है, क्योकि विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त होनेवाले के वर्धमान कषाय के साथ रहने का विरोध है । इसलिए क्रोधादि कषायो के द्विस्थानीय अनुभागोदय से उत्पन्न हुए तत्प्रायोग्य मन्दतर कषाय परिणाम का अनुभवन करता हुआ सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के लिये आरम्भ करता है । सम्यक्त्वोत्पत्ति मे व्यापृत हुए जीवके तीन वेदो मे से कोई एक वेद परिणाम होता है, क्योकि द्रव्य और भाव की अपेक्षा तीन वेदो मे से ग्रन्यतर वेदपर्याय से युक्त जीवके सम्यक्त्वोत्पत्ति में व्यापृत होनेके विरोध का प्रभाव है । १ २ ३ धपु १२ पृ जव पु १२ पृ व पु १२ पृ २०५ व ३०६ । २०२ - २०३ एव क पा सुत्त पृ ६१६ । २०६, के पा सुत्त पृ. ६१६ सूत्र १६ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार F-गाथा १०४ ८८] विशेषार्थ-अन्तरायामका सख्यातवा भाग उपशम सम्यक्त्व का काल है। उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर भी अन्तरायाम का सख्यात बहुभाग शेष रहता है जहां पर दर्शनमोहनीय कर्म के सत्त्व का भी अभाव है। अन्तरायाम के ऊपर द्वितीय स्थिति मे दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य है जिसका अपकर्षण करके अन्तरायाम को पूरता है । अर्थात् शेष अन्तरायाम काल मे अपकर्षित द्रव्य का क्षेपण करके दर्शनमोहनीय कर्म का सत्त्व स्थापन करता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियो मे से जिस प्रकृति का उदय प्रारम्भ हो जाता है उस प्रकृति के द्रव्य को उदय स्थिति से लेकर सर्व स्थितियों में देता है और जिन दो प्रकृतियो का उदय नही है उनके द्रव्य को उदयावलि से बाह्य सर्व स्थितियो मे देता है, किन्तु उदयावलि मे नही देता । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापना मे तीनो प्रकृतियोका द्रव्य नही दिया जाता। यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है । यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। प्रोक्कट्ठिदइगिभागं समपट्टीए विसेसहीणकमं । सेसासंखाभागे विसेसहीणेण खिवदि सम्वत्थ ॥१०४॥ अर्थ-अपकृष्ट द्रव्यका एक भाग तो चय (विशेष) हीन क्रम से उदयावलि मे देना शेष असख्यात बहुभाग सर्वत्र विशेष (चय) हीन क्रम से दिया जाता है । विशेषार्थ-यदि उदयरूप सम्यक्त्वप्रकृति होवे तो उसके द्रव्यमे अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से बहुभागप्रमाण द्रव्य यथावस्थित ही रहे । एक भाग को असख्यातलोकका भाग देकर उसमे से एकभागप्रमाण द्रव्य 'उदयावलिस्त दवं इत्यादि सूत्र द्वारा जैसा पूर्वमे विधान कहा था वैसे ही उदयावलिके निषेकोमे चय हीन क्रमसे निक्षिप्त करना । अपकर्षित द्रव्यमे से अवशिष्ट बहुभागमात्र जो द्रव्य है उसे १ ज व पु १२ पृ ३१५ के आधार से । क पा सुत्त पृ ६३५, ध पु ६ प २४१। । २ ल सा गा. ७१। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०४ ] . - लब्धिसार -[ ६६ अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य कहते है, उस द्रव्यमे से, अन्तरायामके निषेकोका अभाव था उन निषेकोका सद्भाव करने के लिये कितना एक (कुछ) द्रव्य दिया जाता है । उस देय द्रव्यका कितना प्रमाण है यह जाननेका विधान कहते है . नानागुणहानिमे स्थित सम्यक्त्वप्रकृतिकी द्वितीयस्थितिके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भाग पृथक् करके अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यमे "द्विवडगुणहाणिभाजिदे पढमा"' इस सूत्र द्वारा साधिक डेढगुणहा निप्रमाणका भाग देने पर उस द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है, सो इसके बराबर अतरायामके सर्व निषेकोको चय रहित स्थापित करके जोडनेसे आदिधनका प्रमारण प्राप्त होता है। 'पदहतमुखमादिधन'२ इस करण सूत्रसे अन्तरायामप्रमाण गच्छसे उस प्रथम निषेकको गुणा करने पर अन्तरायामके निषेकोका आदिधन प्राप्त हुआ। तथा द्वितीय स्थितिके "नीचे अन्तरायामके निषेक है इसलिये द्वितीय स्थितिके आदि निषेकसे चय वद्धि (बढते) क्रमसे अन्तरायामके निषेक है । चयका प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते है . द्वितीय स्थितिकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेक से अधस्तनवर्ती अन्तरायाम सम्बन्धी गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य दोगुणा प्रमाण युक्त चय है । इसको दो गुणहानिका भाग देनेपर अन्तरायाममे चयका प्रमाण प्राप्त होता है । "सैकपदाहतपददलचयहतमुत्तरधन" इस सूत्रसे यहा अन्तरायामप्रमाण गच्छ है, सो एक अधिक गच्छसे गच्छके आधेको गुणा करके पुनः चयसे गुणा करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। इसप्रकार प्राप्त आदिधन और उत्तरधन (चयधन) को जोडनेपर जो प्रमाण प्राप्त हा उतना द्रव्य उक्त अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य से ग्रहणकर अन्तरायाममे देना। द्वितीय १. इसका अर्थ-प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणाका द्रव्य-सर्वद्रव्य साधिक डेढ गुणहानि । ( गो जी. गा. ५६ की टीका व ध. पु १० पृ. १२२ ) मादिद्रव्यको पदसे गुणा करने पर आदिधनका प्रमाण निकलता है। ( गो जी. गा ५१ की टीका; गणितसारसंग्रह अ. २०६३ ) ३ इसका अर्थ-एक अधिक पदसे गुणित 'पदका आधा' गुणित चय = उत्तरवन ( पद+१)x (पद) ४ चय= (पद+१) पदरचय उत्तरधन । यहा "व्यकपदार्वघ्न चयगुणो गच्छ उत्तर धन" सत्र नही लगता, क्योकि अन्तरायामके निपेको को द्वितीय स्थितिके प्रथम निपेकवत माननेपर कोई भी निषेक मन्तरायामका सर्वहीन निपेक भी नहीं बनता। अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी एक चयसे अधिक करने पर बनेगा अतः "सैकपदाहत... इत्यादि कहा। २ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०४ ] लब्धिसार [ ८६ अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य कहते है, उस द्रव्यमे से, अन्तरायामके निषेकोका अभाव था उन निषेकोका सद्भाव करने के लिये कितना एक (कुछ) द्रव्य दिया जाता है । उस देय द्रव्य का कितना प्रमाण है यह जाननेका विधान कहते है नानागुणहा निमे स्थित सम्यक्त्वप्रकृतिकी द्वितीय स्थितिके द्रव्यको अपकर्षण भागहार का भाग देकर एक भाग पृथक् करके अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यमे "द्विवडगुणहाणिभाजिदे पढमा"' इस सूत्र द्वारा साधिक डेढगुणहा निप्रमाणका भाग देने पर उस द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकका प्रमाण प्राप्त होता है, सो इसके बराबर अतरायामके सर्व निषेकोको चय रहित स्थापित करके जोडनेसे आदिधनका प्रमाण प्राप्त होता है। 'पदहतमुखमादिधन'२ इस करण सूत्रसे अन्तरायामप्रमाण गच्छसे उस प्रथम निषेकको गुणा करने पर अन्तरायामके निषेकोका आदिधन प्राप्त हुआ । तथा द्वितीय स्थितिके 'नीचे अन्तरायामके निषेक है इसलिये द्वितीयस्थितिके आदि निषेकसे चय वृद्धि (बढते) क्रमसे अन्तरायामके निषेक है । चयका प्रमाण प्राप्त करने की विधि कहते है द्वितीय स्थितिकी प्रथमगुणहानिके प्रथमनिषेक से अधस्तनवर्ती अन्तरायाम सम्बन्धी गुणहानिके प्रथम निषेकका द्रव्य दोगुणा प्रमाण युक्त चय है। इसको दो गुणहानिका भाग देनेपर अन्तरायाममे चयका प्रमाण प्राप्त होता है । "सकपदाहतपददलचयहतमुत्तरधन" इस सूत्रसे यहा अन्तरायामप्रमाण गच्छ है, सो एक अधिक गच्छसे गच्छके आधेको गुणा करके पुनः चयसे गुणा करनेपर उत्तरधन प्राप्त होता है। इसप्रकार प्राप्त आदिधन और उत्तरधन (चयधन) को जोडनेपर जो प्रमाण प्राप्त हा उतना द्रव्य उक्त अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य से ग्रहणकर अन्तरायाममे देना। द्वितीय १. इसका अर्थ-प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणाका द्रव्य=सर्वद्रव्य-साधिक डेढगुणहानि । ( गो जी. गा. ५६ की टीका व ध. पु. १० पृ. १२२ ) २ भादिद्रव्यको पदसे गुणा करने पर प्रादिधनका प्रमाण निकलता है। ( गो जी. गा. ५१ की टीका; गणितसारसंग्रह अ. २।६३ ) । ३ इसका अर्थ-एक अधिक पदसे गुरिणत ‘पदका आधा' गुणित चय= उत्तरधन ( पद+१)x ( पद) चय= (पद+१) पदxचय =उत्तरधन । यहा "व्यैकपदार्धघ्न चयगुणो गच्छ उत्तर धन" सत्र नही लगता, क्योकि अन्तरायामके निषेको को द्वितीय स्थितिके प्रथम निपेकवत माननेपर कोई भी निषेक अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी नही बनता। अन्तरायामका सर्वहीन निषेक भी एक चयसे अधिक करने पर बनेगा अतः "सैकपदाहत..." इत्यादि कहा। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [- गाथा १०४ विशेषार्थ - अन्तरायामका सख्यातवां भाग उपशम सम्यक्त्व का काल है । उपशम सम्यक्त्व का काल समाप्त हो जाने पर भी अन्तरायाम का सख्यात बहुभाग शेष रहता है जहां पर दर्शनमोहनीय कर्म के सत्त्व का भी अभाव है । अन्तरायाम के ऊपर द्वितीय स्थिति मे दर्शनमोहनीय कर्म का द्रव्य है जिसका अपकर्षण करके अन्तरायामको पूरता है । अर्थात् शेष अन्तरायाम काल मे अपकप्ति द्रव्य का क्षेपण करके दर्शनमोहनीय कर्म का सत्त्व स्थापन करता है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन प्रकृतियो मे से जिस प्रकृति का उदय प्रारम्भ हो जाता है उस प्रकृति के द्रव्य को उदय स्थिति से लेकर सर्व स्थितियो मे देता है और जिन दो प्रकृतियो का उदय नही है उनके द्रव्य को उदयावलि से बाह्य सर्व स्थितियो मे देता है, किन्तु उदयावलि मे नही देता । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापना मे तीनो प्रकृतियोका द्रव्य नही दिया जाता । यदि मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो यह जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है । यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्वप्रकृति के उदय होने से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है' । = 1 ८८ प्रोक्कविदइगिभागं समपट्टीए विसेसहीणकमं । सेसासंखाभागे विसेसहीणेण विवदि सम्वत्थ ॥ १०४ ॥ अर्थ- - अपकृष्ट द्रव्यका एक भाग तो चय (विशेष) हीन क्रम से उदयावलि मे देना शेष असख्यात बहुभाग सर्वत्र विशेष ( चय) हीन क्रम से दिया जाता है । विशेषार्थ - यदि उदय रूप सम्यक्त्वप्रकृति होवे तो उसके द्रव्यमे अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से बहुभागप्रमाण द्रव्य यथावस्थित ही रहे । एक भाग को असख्यातलोकका भाग देकर उसमे से एकभाग प्रमाण द्रव्य 'उदयावलिस्स दव्वं" इत्यादि सूत्र द्वारा जैसा पूर्वमे विधान कहा था वैसे ही उदयावलिके निषेकोमे चय हीन क्रमसे निक्षिप्त करना । अपकर्षित द्रव्यमे से अवशिष्ट बहुभागमात्र जो द्रव्य है उसे १ जधपु १२ पृ ३१५ के आधार से । क पा सुत्त पृ ६३५, घ पु ६ पृ २४१ । २ ल सा. गा ७१ । Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ गाथा १०६ ] लब्धिसार अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृति के उदय मे तत्त्वों का और पदार्थो का अथवा तत्त्वार्थ का चल-मलिन-प्रगाढ सहित श्रद्धान करता है तथा स्वयं न जानता हुआ गुरु के नियोग से असद्भत अर्थ का भी श्रद्धान करता है। सूत्र के द्वारा समीचीनरूप से दिखलाये गये उस अर्थका जब यह जीव श्रद्धान नही करता उस समय से लेकर वही जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। विशेषार्थ-सम्यक्त्वप्रकृति के द्वारा सम्यग्दर्शनकी स्थिरता और निष्कांक्षता का घात होता है । स्थिरता का घात होने से चल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते है । निष्काक्षता का घात होने से मल दोष उत्पन्न होता है । जैसे वृद्धपुरुष लाठी को पकडे रहता है, किन्तु कांपती रहती है, स्थिर नहीं रहती । इसीप्रकार वेदक सम्यग्दष्टि का तत्त्वार्थश्रद्धान स्थिर नही रहता-चलायमान रहता है । स्थिरता के घात के कारण श्रद्धा भी दृढ नही होती। निष्कांक्षता का घात होने से शंका, काक्षा आदि दोष सम्यक्त्व को मलीन करते रहते है। इसीलिये गाथा में कहा गया है कि सम्यक्त्वप्रकृति के उदय मे चल-मलिन व अगाढ़ सहित तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है । "सहहइ असम्भाव" ऐसा कहने पर असद्भूत अर्थ का भी सम्यग्दृष्टि जीव गुरुवचन को प्रमाण करके स्वयं नही जानता हुआ श्रद्धान करता है। इस गाथा के उत्तरार्ध द्वारा आज्ञासम्यक्त्वका लक्षण कहा गया है । शंका-अज्ञानवश असद्भूत अर्थ का ग्रहण करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ? समाधान-यह परमागम का ही उपदेश है ऐसा निश्चय होने से उस प्रकार स्वीकार करने वाला वह जीव परमार्थ का ज्ञान नही होने पर भी सम्यग्दृष्टिपने से च्युत नहीं होता। यदि पुनः कोई परमागमके ज्ञाता विसंवादरहित दूसरे सूत्र द्वारा उस अर्थ को यथार्थ रूप से बतलावे फिर भी वह जीव असत् आग्रहवश उसे स्वीकार नही करता है तो उस समय से वह जीव मिथ्यादृष्टि पद का भागी हो जाता है, क्योकि वह प्रवचन विरुद्ध बुद्धिवाला है ऐसा-परमागम का निश्चय है। इसलिये यह ठीक १. को भागो सम्मत्तस्स तेण घाइज्जदि ? थिरतं णिक्कंक्खत्त । (ज. ध. पु. ५ .पू १३०) Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १०५-१०६ स्थितिके प्रथम निषेकसे गच्छप्रमाण चयोसे अधिक द्रव्य तो अन्तरायामके प्रथम निषेकमे देना चाहिए । यहा गच्छका प्रमाण अन्तरायाम और चयका प्रमाण पूर्वोक्त जानना । तथा द्वितीयादि निषेकोमे एक-एक चयहीन क्रमसे देना । अन्तिम निषेकमे एक चय अधिक (द्वितीयस्थितिके प्रथम निषेककी अपेक्षा) देना। इसप्रकार देने पर जैसे क्रम लिये हुए चाहिए वैसे अन्तरीयामके निषेकोंका अभाव हुआ था उनका पुन सद्भाव हो गया। अब अपष्टावैशिष्टे द्रव्यमे से इतना द्रव्य देने पर किचित् ऊनं हुआ सो उस अवशेष द्रव्यको अन्तरांयाम अथवा द्वितीय स्थितिमे देना । वहां अन्तरीयाममे तो पूर्वमे जिसप्रकार आदिधन और उत्तरधनको मिलाकर द्रव्यका प्रमाण निकालने का विधान कहा था उसी प्रकार द्रव्यका प्रमाण प्राप्तकर उतने द्रव्यको अन्तरायामके निषेकोमे' देना । इतना द्रव्य अन्तरायामके निषेकोमे देनेके पश्चात् जी द्रव्य अवशिष्ट रहा उसको 'दिवड्ढगुणहारिणभाजिदे पढेमा' इत्यादि सूत्र विधान द्वारा द्वितीय स्थितिके नानागुणहानि सम्बन्धी निषेकोमे से अन्तिम प्रतिस्थापनावलीप्रमाणे निषेक छोडकर सर्वत्र देना चाहिए । इसप्रकार उदय योग्य सम्यक्त्वप्रकृतिका विधान कहा । तथा उदयके अयोग्य सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व प्रकृतियोके द्व्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एक भाग उदयावलीसे बाहर जो अन्तरार्याम है उसमे और द्वितीय स्थितिमें पूर्ववत् निक्षिप्त करना चाहिये उदयावलिमें निक्षिप्त नहीं करना चाहिए। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व अथवा मिथ्यात्वप्रकृति मे से अन्यंतर उदयं योग्य होवे अवशेष दो प्रकृति उदययोग्य नही होवे तो वहां यथासम्भवै विधान जानना । जैसे गाय की पूछ क्रमसे मोटाईसे हीन होती है वैसे सर्वत्र चयं हीन क्रम पायी जाता है, अतः उसे गोपुच्छाकार कहते है। अथानन्तर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका कार्य को गाथानों में कहते हैंसम्मुदये चलमलिणमगांडं सेहदि तच्चयं प्रत्यं । 'सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥१०५॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा रेण सद्दहदि । सों व हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पैहुदी ॥१०६॥ १. ज घ पु. १२ पृ ३२१ गाथा १०७ का उत्तरार्घ; ध पु. १ पृ १७३; ध. पु. ६ पृ. २४२, प्रा. प. स.अ १गा.१२ २ ज. प. पु. १२ पृ. ३२२, घ. पु११ २६२ । ३ 'त्ति तदो पहुडि जीवो' इत्यपिपाठः Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाथा १०७ ] लब्धिसार पना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अनेकान्त बिना उसके अर्थक्रियाकारीपना नही वन सकता जबकि समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रमसे एक आत्मा मे पाया जाना सम्भव है तो कदाचित् किसी आत्मा मे एक साथ भी उन दोनो का रहना बन सकता है। यह सर्वकथन काल्पनिक नही है, क्योकि पूर्व स्वीकृत देवता के अपरित्याग के साथ-साथ अरिहन्त भी देव है ऐसा अभिप्रायवाला पुरुष पाया जाता है' * शंका-श्रीपशमिकादि पाच भावो मे से सम्यग्मिथ्यात्व कौन सा भाव है ? समाधान-क्षायोपशमिक भाव है, क्योकि प्रतिबन्धी कर्म का उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव पाया जाता है वह गुणाश क्षायोपशमिक कहलाता है । गुणो के सम्पूर्णरूप से घातने की शक्ति का प्रभाव क्षय कहलाता है । क्षयरूप ही जो उपशम होता है वह क्षयोपशम कहलाता है, उस क्षयोपशम मे उत्पन्न होने वाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय मे रहते हुए सम्यक्त्व की कणिका भी अवशिष्ट नही रहती है, अन्यथा सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघातीपना बन नही सकता। इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक है यह कहना घटित नही होता। - समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वकर्म के उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक करचित् अर्थात् शवलित या मिश्रित जीव परिणाम उत्पन्न होता है, उसमे जो श्रद्धानाश है वह सम्यक्त्व का अवयव है उस श्रद्धानाश को सम्यग्मिथ्यात्व कर्मोदय नष्ट नहीं करता, इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक है.। शंका-अश्रद्धानभाग के बिना केवल श्रद्धानभाग के ही 'सम्यग्मिथ्यात्व' यह सज्ञा नहीं है, इसकारण सम्यग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक नही है। समाधान-उक्त प्रकार की विवक्षा होने पर सम्य ग्मिथ्यात्वभाव क्षायोपशमिक भले ही न होवे, किन्तु अवयवी के निराकरण और अवयवके अनिराकरण की १. ध. पु. १ सूत्र ११ की टीका पृ १६७-१६८ । 'सूर्य को अर्घ देना ...... इस प्रकार की अनेक मूढताए जाननी चाहिये । कोई यदि इन मूढतानो का सर्वथा त्याग नही करता (और सम्यक्त्व के साथ-२ किसी मूढता का भी पालन करता है) उसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि मानो । उपासकाध्ययन । कल्प ४ । श्लोक १४४ । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १०७ १२] कहा गया है कि प्रवचनमे उपदिष्ट अर्थ का आज्ञा और अधिगम से विपरीतता के बिना श्रद्धान करना सम्यग्दृष्टि का लक्षण है। अब मिश्रप्रकृतिके उदयका कार्य कहते हैंमिस्सुदये सम्मिस्सं दहिगुडमिस्सं व तच्चमियरेण ।। सद्दहदि एक्कसमये मरणे मिच्छो व अयदो वा ॥१०७॥ अर्थ-मिश्रप्रकृति के उदय मे दधि और गुड के मिश्रित स्वादके समान एक समयमे सम्यक्त्व व मिथ्यात्व मिश्रित तत्त्व का इतर जाति ( जात्यन्तर ) रूप श्रद्धान होता है । मरणकाल मे मिथ्यात्व या असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । विशेषार्थ-जिसप्रकार दही और गुड परस्पर इसप्रकार मिल जाते है कि उनका पृथक् पृथक् अनुभव नही हो सकता, किन्तु खट्टा और मीठा मिश्रित रसास्वाद का अनुभव होता है उसी प्रकार एक ही काल मे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हए परिणाम मिश्र ( सम्पग्मिथ्यात्व ) प्रकृति के उदय से होते है । अभेद विवक्षा, में उसके जात्यन्तर भाव कहा है (अभेद विवक्खाए जच्चतरत्तं) किन्तु भेद की विवक्षा करने पर उसमे सम्यग्दर्शन का एक अश है ही। यदि ऐसा न माना जावे तो उसके. जात्यन्तर मानने में विरोध आता है । शंका-एक जीव मे एक साथ सम्यक् और मिथ्यारूप दृष्टि सम्भव नही है, क्योकि इन दोनो दृष्टियो का एक जीव मे एक साथ रहने मे विरोध आता है। यदि कहा जावे कि ये दोनो दृष्टिया क्रम से एक जीव में रहती है तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम के स्वतन्त्र गुणस्थानो मे ही अन्तर्भाव मानना चाहिए । इसलिये सम्यग्दृष्टि भाव सम्भव नही है । ___ समाधान-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इसमे विरोध भी नही आता, क्योकि आत्मा अनेक धर्मात्मक है, इसलिये उसमे अनेक धर्मो का सहानवस्थान लक्षण का विरोध प्रसिद्ध है । प्रात्मा के अनेकात१. ज. घ. पु १२ पृ. ३२१-२२ । २. घ. पु १ पृ. १६८, प्रा प. स. १११०; गो. जी का. गा. २२ । । ३. घ. पु. ५१ २०८ । ५पृ. २०८ । Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०७ ] लब्धिसार [ ६५ नोट - ऐसा प्रतीत होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के मिथ्यात्व अवयव की दृष्टि से उपर्युक्त कथन जयधवला मे किया गया है | शंका- सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व भाव होता है इसलिये उसको औदंयिकंभाव कहना चाहिये था । समाधान - संम्यग्मिथ्यात्व को प्रदयिकभाव नही कहा गया, क्योकि मिथ्यात्वप्रकृति के उदय से जिसप्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है, उसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व को निरन्वय नाश नही होता इसलिये सम्यग्मिथ्यात्व को औदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है । शंका- यदिं सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश नही करता तो उसको सर्वघाति क्यों कही गया ? समाधान - ऐसी शका ठीक नही, क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबन्ध करता है - इस पेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघांति केहा है ' । शङ्का - जिसप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के उदयसे मिथ्यात्वका बंधक होता है उसीप्रकार क्या सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को बांधता है या नही ? समाधान - सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति को नही बांधता, क्योकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवो मे दर्शनमोहनीयके बन्धके प्रभावका मुक्त कण्ठ होकर इस "सम्मामिच्छाइट्ठी दंसणमोहस्सऽबंधगो होइ "" इत्यादि गाथा सूत्र मे उपदेश दिया गया । (ज. ध. पु. १२ पृ ३१३ ) दूसरे सम्यग्मिथ्यात्व बन्ध योग्य प्रकृति नही है सलिये भी उसका बन्ध सम्भव नही है । जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव है वह या तो साकारोपयोगवाला होता है या अनाकार उपयोगवाला होता है, क्योकि दोनो ही उपयोगो के साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुण की प्राप्ति होने मे विरोध का प्रभाव है | दर्शनमोह की उपशामना मे प्रवृत्त हुए जीव के प्रथम अवस्था मे जिसप्रकार उपयोग का नियम है उसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व १ ध. पु १ सूत्र ११ की टीका पृ. १६६ । २. क पा. गा. १०२ । ३. गो क. गाथा ३७ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १०७ अपेक्षा वह भायोपशमिक है। सम्यग्मिथ्यात्व द्रव्यकर्म सर्वघाति होवे, क्योकि जात्यन्तरभूत सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सम्यक्त्वता का अभाव है किन्तु श्रद्धानभाग अश्रद्धानभाग नही हो जाता, क्योकि श्रद्धान और अश्रद्धान के एकता का विरोध है। श्रद्धानभाग कर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि इसमें विपरीतता का अभाव है और न उनमे सम्यग्मिथ्यात्व सज्ञा का ही अभाव है, क्योकि समुदाय मे प्रवृत्त हुए शब्दो की उनके एक देश मे भी प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिकभाव है। सम्यग्मिथ्यात्वलब्धि क्षायोपशमिक है, क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे उत्पन्न होती है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धक सर्वघाति ही होते है इसलिये इसके उदयसे उत्पन्न हुआ सम्यग्मिथ्यात्व क्षायोपशमिक कैसे हो सकता है ? समाधान---शका ठीक नहीं है, क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के स्पर्धको का उदय सर्वघाति नहीं होता। शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्वरूप अश की उत्पत्ति अन्यथा वन नही सकती। इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके स्पर्धकों का उदय सर्वघाति नहीं होता। सम्यग्मिथ्यात्व के देशघाति स्पर्धको के उदयसे और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों की उपशम सजावाले उदयाभाव से सम्यग्मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है इसलिये वह तदुभय प्रत्ययिक (क्षायोपशमिक) कहा गया है । . सम्यग्मिथ्यात्व की अनुभागउदीरणा सर्वघाति और द्विस्थानीय है । शंका-इसका सर्वघातिपना कैसे है ? समाधान-मिथ्यात्व की उदीरणा से जिसप्रकार सम्यक्त्वगुण का निर्मूल विनाश होता है उसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उदीरणा से भी सम्यक्त्व संज्ञावाले जीव का निर्मूल विनाश देखा जाता है । १. ध पु ५१ १६८-६६ । २ ६ पु १४ पृ २१ । : ज घ. पु ११ पृ ३८ । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १०६ ] लब्धिसार [६७ जो नियम से मिथ्यादृष्टि जीव है वह नियम अर्थात् निश्चय से जिनेद्र द्वारा उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नही करता है । शङ्का-इसका क्या कारण है ? समाधान- क्योकि वह दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) के उदय के कारण विपरीत अभिनिवेशवाला है । इसलिये वह 'सद्दहइ असब्भावं' अपरमार्थ स्वरूप असद्भूत अर्थ का ही मिथ्यात्वोदयवश श्रद्धान करता है । वह 'उवइ8 वा अणुवइट्ठ' अर्थात् उपदिष्ट या अनुपदिष्ट दुर्मार्गका ही दर्शनमोह ( मिथ्यात्व ) के उदयसे श्रद्धान करता है। इसके द्वारा व्युद्ग्राहित और इतर इन दो भेदो से मिथ्यादृष्टि का कथन किया गया है । कहा भी है तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं तच्चाणं होइ अत्थाणं । संसइयमभिग्गहियं अरणभिग्गहिय ति तं तिविहं ।। अर्थ-तत्त्वो का और अर्थों का जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व है । सशयिक, अभिगृहीत और अनभिगृहीत के भेद से वह मिथ्यात्व तीन प्रकार का है । जिसप्रकार पित्तज्वर वाले मनुष्य को दूध आदि मधुर पदार्थ रुचिकर नहीं होते, क्योकि पित्त के कारण मिष्ट पदार्थ भी कटुक प्रतीत होता है। इसीप्रकार मिथ्यादष्टिजीव को तत्त्वार्थ का यथार्थ उपदेश रुचिकर नही होता, क्योकि उसके हृदय मे मिथ्याश्रद्धान बैठा हुआ है । इसलिये उसको मिथ्यामार्ग ही रुचता है । __“जीवादि नौ पदार्थ का स्वरूप जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ यथार्थ है या नहीं" इत्यादिरूप से जिसका श्रद्धान दोलायमान हो रहा है वह संशयिक मिथ्यादष्टि है। जो कुमार्गियों के द्वारा उपदिष्ट पदार्थो का श्रद्धान करता है वह अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि है । जो उपदेश के बिना शरीर आदि में अपनेपन की कल्पना करता है वह अनभिगृहोत मिथ्यादृष्टि है'। १ ज.ध. पु. १२ पृ. ३२२-२३ । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १०८-१०६ में नियम नहीं है, किन्तु दोनो ही उपयोगो के साथ सम्य ग्मिथ्यात्व गुण को प्राप्त होता है। जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर और आगामी आयु को बांधकर सम्यग्मिथ्यात्व भाव को प्राप्त होता है वह सम्यक्त्व के साथ ही मरण को प्राप्त होकर उस गति से निकलता है। अथवा जो मिथ्यादृष्टि होकर और आगामी. आयु का बध करके नम्यग्मिथ्यात्वभाव को प्राप्त होता है वह मिथ्यात्व के साथ ही मरण को प्राप्त हो उम गतिसे निकलता है । सम्यग्मिथ्यात्व में मरण नही है और आयु बन्ध भी अब मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयका कार्य दो गाथाओंमें कहते हैं'मिच्छत्तं वेदंतो जीवो विवरीयदंसणं होदि । ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा जुरिदो ॥१०॥ "मिच्छाइट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयणं ण सदहदि । सद्दहदि असब्भावं उवइ8 वा अणुवइ8 ॥१०॥ अर्थ-मिथ्यात्व का वेदन करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला होता है । जैने ज्वर से पीडित मनुष्य को मधुर रस नही रुचता है वैसे ही मिथ्यादृष्टि को धर्म नहीं रचता। मिथ्यादृष्टिजीव नियम से उपदिष्ट प्रवचन का श्रद्धान नहीं करता, उपदिष्ट या अनुपदिप्ट असद्भाव का श्रद्धान करता है। . . विशेषार्थ- उपर्युक्त गाथा सख्या १०८ जयधवल पु. १२ पृ. ३२३ पर उद्धत गाथा न २ के समान है तथा गाथा १०६ कषायपाहुड के गाथा १०८ के सदृश होने से कपायपाहृड गाथा १०८ के अनुसार यहा विशेषार्थ दिया जा रहा है। १ ज प पू १२ पृ ३२४ । २ प.पु ५१:१ ध, पु ४ पृ ३४३ । 2. प पु ७ पृ ४५८, घ पु ४ पृ. ३४३, गो. जी गाथा २४ । मिश्रगणस्थानमे मारणान्तिक समुद्घात भी नही होता है। १ ज ध पु १२ पृ ३२३ । ५ जप पु १२१ ३२२ गा १० । ६ गियमा ति पाठान्तरम् । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ प्र स. चूलिका ] लब्धिसार सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह विय?ण। भजियव्वों य अभिक्खं सवोवसमेण देसेरणं ॥२॥ अर्थ-सम्यक्त्व का प्रथम लाभ सर्वोपशम से ही होता है तथा विप्रकृष्ट जीव के द्वारा भी सम्यक्त्व का लाभ सर्वोपशम से ही होता है, किन्तु शीघ्र ही पुन. पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है।। विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०४ वी गाथा है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को जो सम्यक्त्व का प्रथम लाभ होता है वह सर्वोपशम से ही होता है, क्योकि उसके अन्यप्रकार से सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव नही है । ''तह विय?ण' मिथ्यात्व को प्राप्त हो जो बहुत काल के पश्चात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है। इसका भावार्थ इस प्रकार है-सम्यक्त्व को ग्रहणकर पुन मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति की उद्वेलना कर पल्योपम के असख्यातवेभाग प्रमाण काल द्वारा या अर्द्ध पुद्गले परावर्तन काल द्वारा जो सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशम से ही प्राप्त करता है । 'भजियवो य अभिक्ख' जो सम्यक्त्वसे पतित होता हुआ पुन पुन सम्यक्त्वग्रहण के अभिमुख होता है, वह सर्वोपशम से अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, क्योकि यदि वह वेदक प्रायोग्यकाल के भीतर ही सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो देशोपशम से, अन्यथा सर्वोपशमसे प्राप्त करता है । इसप्रकार वहा भजनीयपना देखा जाता है । तीनो (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व) कर्म प्रकृतियो के उदयाभावका नाम सर्वोपशम है और सम्यक्त्वप्रकृति के देशघातिस्पर्धको का उदय देणोपशम कहलाता है। मिच्छत्तवेदरणीय कम्म उवसामगस्स बोद्धव्व । उवसंते प्रासाणे तेण परं होदि भजिदव्वो ॥३॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय का उपशम करने वाले जीव के मिथ्यात्वकर्म का उदय जानना चाहिए । दर्शनमोह की उपशान्त अवस्था मे मिथ्यात्वकर्म का उदय नही होता। उपशमसम्यक्त्वं की प्रासादना के अनन्तर उसका ( मिथ्यात्वका) उदय भजनीय है। १ २ गो क गा. ६१४-१५ । ज ध पु १२ पृ ३१६-१७ । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [प्र. स. चूलिका "प्रथमोपशमसम्यक्त्व चूलिका" नधिमार गन्य मे १०६ गायायो द्वारा प्रथमोपशम सम्यक्त्व नामक प्रथम र ममान हो चुका है, किन्तु कपायपाहड ग्रन्थ मे प्रथमोपशम सम्यक्त्व के मा में निम्न गाथाम्रो मे कुछ विशेप वर्णन किया गया है अत उसे उपयोगी जानवारा महिन रहा पर प्रथमोपणमसम्यक्त्व चूलिका के रूप मे उद्ध त किया गया है सव्वेहि ढिदिविसेसेहिं उवसंता होति तिणि कम्मंसा । एपकम्हि य अणुभागे रिणयमा सव्वे दिदि विसेसा ॥१॥ प्रथ-दर्शनमोहनीय कर्म की तीनो प्रकृतिया सभी स्थिति विशेषो के साथ मान्न रहती है तथा सभी स्थिति विशेष नियमसे एक अनुभागमे अवस्थित रहते है । विशेषार्थ-यह कपायपाहुड की १०० वी गाथा है। इस गाथासूत्र में निजि कम्ममा' ऐसा कहने पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का ग्रहण रना चाहिए, क्योकि दर्शनमोह की उपशामना का प्रकरण है। ये तीनो ही कर्म निग मभी स्थिति विशेषो के साथ उपशान्त रहती है, उनकी एक भी स्थिति नामान नहीं होती। अत मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति मेकर उमष्टम्थिति तक उन सब स्थिति विशेपो मे स्थित सब परमाणु उपशान्त ते, पद मिया । इसप्रकार उपगान्त हुए उन सब स्थिति विशेषो का अनुभाग " प्रगर का ही है । 'एककम्हि य अणुभागे' एक ही अनुभाग विशेष मे इन तीनो तिकी के सब स्थिति विशेप होते है । अन्तरायाम के बाहर अनन्तरवर्ती जघन्य नविना में जो अनुभाग है वही उससे उपरिम उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समस्त चिमे होता है, अन्य नहीं होता । मिथ्यात्व का तो घात करने से शेष रहा निभानीय अनुभाग मब स्थिति विशेषो मे अवस्थित रूप से स्थित रहता है । र गम्मियान्त्र का भी जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि • गग में यह अनन्तगग्गा हीन होता है । सम्यक्त्व का अनुभाग तो • मानणा हीन होता है, जो देशघाति द्विस्थानीयरूप होकर दारु समान , अनन्नबंभागनप में अवस्थित उत्कृष्ट स्वरूप एक प्रकार का सर्वत्र ०६-१० । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र स. चूलिका ] लब्धिसार [ १०१ मिच्छत्तपच्चयो खलु बंधो उवसामगस्स बोद्धव्वो। उवसंते प्रासाणे तेण परं होवि भजिदव्यो ॥४॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयका उपशम करने वाले जीवके नियम से मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध जानना चाहिए, किन्तु उसके उपशान्त रहते हुए मिथ्यात्वनिमित्तक बन्ध नही होता तथा उपशात अवस्था के समाप्त होने के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है। विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०१ वी गाथा है। मिथ्यात्व है प्रत्यय अर्थात् कारण जिसका वह खलु अर्थात् स्पष्टरूप से मिथ्यात्व प्रत्यय बन्ध है, जो दर्शनमोह उपशामक के प्रथम स्थिति के अन्तिम समय तक होता है। शंका-मिथ्यात्व प्रत्ययबन्ध किन कर्मों का होता है ? समाधान-मिथ्यात्व और ज्ञानावरणादि शेष कर्मों का मिथ्यात्वप्रत्यय बध होता है । यद्यपि यहा पर (मिथ्यात्वगुणस्थानमें) शेष असंयम, कषाय और योग का भी प्रत्ययपना है तथापि मिथ्यात्व की ही प्रधानता की विवक्षामें इसप्रकार कहा गया है, क्योकि ऊपरके गुणस्थानो मे मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध के अभाव का कथन करनेवाला यह वचन है। 'उवसते आसाणे' दर्शनमोहनीय के उपशात होने पर अन्तरायाम में प्रवेश करनेके प्रथम समय से लेकर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध का आसान अर्थात् विनाश ही है। वहां मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नही है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अथवा 'उवसंते' दर्शनमोहनीय का उपशम होने पर सम्यग्दृष्टि जीव के और 'आसाणे' अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध नहीं होता इतना वाक्यशेष का योग करके सूत्रार्थ का समर्थन करना चाहिए। तेण परं होदि भजिवन्यो' अर्थात् उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय है, क्योकि उपशमसम्यक्त्व कालके क्षीण होने पर दर्शनमोह की तीनो प्रकृतियो मे से किसी के होने पर कदाचित् ( मिथ्यात्वोदय होने पर ) मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध होता है, कदाचित् (सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय होने पर) अन्य ( असंयम, कषाय, योग ) निमित्तक बन्ध होता है । अत' Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [प्र. स. चूलिका १०० ] विशेषार्थ-यह गाथा कषायपाहुड की ६६ वी गाथा है। इस गाथा द्वारा यह बतलाया गया है कि दर्शनमोहनीय के उपशामक जीव का जब तक अन्तर मे प्रवेश नही होता, तब तक उसके मिथ्यात्व का उदय नियम से होता है उसके पश्चात् उपणम सम्यक्त्वकाल के भीतर मिथ्यात्व का उदय नहीं होता, परन्तु उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर मिथ्यात्व का उदय भजनोय है। इसप्रकार इस गाथा द्वारा तीन विशेष अर्थ कहे गये हैं । तद्यथा-'मिच्छत्त वेदणीय कम्म' ऐसा कहने पर जिस कर्म के द्वारा मिथ्यात्व वेदा जाता है वह मिथ्यात्ववेदनीयकर्म उदय अवस्था से युक्त उपशामक के नियम से होता है ऐसा जानना चाहिये । इसप्रकार गाथा के पूर्वार्ध का पद सम्बन्ध है। इसलिये मिथ्यात्वकर्म का उदय दर्शनमोह के उपशामक के नियम से होता है। शंका-सूत्र द्वारा अनुपदिष्ट उदय विशेषण कैसे उपलब्ध होता है ? समाधान-ऐसी आशङ्का नही करना चाहिये, क्योकि अर्थ के सम्बन्ध से ही उसप्रकार के विशेषण की यहा उपलब्धि होती है । अथवा जो वेदा जावे वह वेदनीय है । मिथ्यात्व ही वेदनीय मिथ्यात्ववेदनीय है । उदय अवस्था से परिणत मिथ्यात्वकर्म, यह इसका तात्पर्य है। वह उपशम करनेवाले जीव के होता है । इसप्रकार उक्त विशेपण सूत्रोक्त हो जानना चाहिए । 'उवसते आसाणे' ऐसा कहने पर दर्शनमोहनीय की उपशान्त अवस्थामें उपशमसम्यग्दृष्टिपने को प्राप्त हुए जीव के मिथ्यात्व वेदनीयकर्म के उदयका आसान अर्थात् विनाश ही रहता है, क्योकि अन्तर प्रवेशरूप अवस्थामे उसके उदयका अत्यन्ताभाव होने से उसका उदय निषिद्ध ही है तथा उसका अनुदय ही उपशान्तरूपसे यहा पर विवक्षित है । अथवा 'उवसते' अर्थात् उपशमसम्यक्त्व काल के भीतर तथा 'आसाणे' अर्थात् सासादनकाल के भीतर मिथ्यात्वका उदय नही है । इसप्रकार वाक्यशेष के वश से मूत्र का अर्थ के साथ सम्बन्ध करना चाहिए । 'तेण पर होदि भजिदवो ऐसा कहने पर उपशमसम्यक्त्वकाल के समाप्त होने पर तदनन्तर मिथ्यात्वकर्म के उदयसे वह भजनीय है, क्योकि मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व मे से अन्यतर के उदय का वहा विरोध नही पाया जाता है अर्थात् उन तीनो मे से किसी एक का उदय अवश्य होता है । ' जघ पु १२ पृ ३०७-८ । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. स चूलिका ] -1 लब्धिसार [ १०३ शंका- यह किस प्रमाण से जाना जाता है समाधान—दर्शनमोहनीय की उपशामना के सम्बन्धमे जो पचविंशति (२५) स्थानीय अल्पबहुत्वद्ण्डक कहा गया है उससे यह जाना जाता है । १ न्तर अधस्तनापेक्षा । २. ज. ध. पु ७ पृ. ३१५-१६ । जो मिथ्यादृष्टि हो गया है वह मिथ्यात्वको प्राप्त होने के प्रथमसमय मे अन्तरकाल के ऊपर दूसरी स्थिति मे स्थित प्रथम निषेक से लेकर मिथ्यात्व की अन्त कोड कोडी प्रमाण स्थिति के अन्तिम निषेक तक जितनी स्थितिया है उन सबके कर्म - परमाणुओंों में पल्यके असख्यातवे भाग प्रमाण अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार का भाग देकर वहा जो एक भाग प्राप्त होता है उसे अन्तर को पूरा करने के लिये अपकर्षित करता है, फिर इसप्रकार अपकर्षित हुए द्रव्यमे असख्या लोकप्रमाण भागहार का भाग देकर जो एक़भाग प्राप्त हो उसमे से बहुभाग उदय मे देता है । दूसरे समयमे विशेष हीन देता है । यह विशेष का प्रमाण निषेक भागहार से ले आना चाहिए । इसप्रकार उदद्यावलि के अन्तिम समय तक विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देना चाहिये । यहा उदय समय से लेकर उदयावलि के अन्तिम समयतक असख्या व्यात लोक प्रतिभाग से प्राप्त हुआ एकभाग प्रमाण द्रव्यं समाप्त हो जाता है । फिर शेष प्रसंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य मे से उपरिम अनन्तरवर्ती स्थिति में ' प्रसख्यातगुणे द्रव्य का निक्षेप करता है । 1 PV" P शङ्का – यहां गुणकार का प्रमारण क्या है ? समाधान — असख्यातलोक । - फिर इससे आगे की स्थिति मे दोगुणहानिप्रमाण निषेकभागहार की अपेक्षा विशेषहीन द्रव्यका निक्षेप करता है । इसप्रकार यह क्रम अनन्तरकाल के अन्तिम समय तक प्रारम्भ रहता है। इससे आगे की उपरिम स्थितिमे दृश्यमान कर्मपरमाणुओं के ऊपर असख्यातगुणे हीन द्रव्यका निक्षेप करता है फिर इससे आगे प्रतिस्थापनावलि के प्राप्त होने के पहले तक पूर्वविधि से विशेषहीन विशेषहीन द्रव्य का निक्षेप करता है । इसप्रकार दर्शन मोहोपशामना अधिकार पूर्ण हुआ । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [प्र. स. चूलिका १०२ ] उपशम सम्यक्त्व काल के पश्चात् मिथ्यात्व निमित्तक बन्ध भजनीय होने में विरोध उपलब्ध नहीं होता' सम्मत्तपढमलभस्साणंतरं पच्छदो य मिच्छत्त। __ लभस्स अपढमस्स दु भजिद-वो पच्छदो होदि ॥५॥ अर्थ-सम्यक्त्व के प्रथम लाभ-(उपशमसम्यक्त्व) के अनन्तर ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व ही होता है। अप्रथमलाभ (क्षयोपशम सम्यक्त्व) के ( पच्छदो ) पूर्व मिथ्यात्व भजनीय है। विशेषार्थ-यह कषायपाहुड की १०५ वी गाथा है। ‘पच्छदो' यद्यपि ‘पश्चात्' का वाचक है, किन्तु यहा पर 'पीछे का वाचक शब्द ग्रहण करके 'पूर्व' -अर्थ किया गया है, क्योकि प्रथमोपशमसम्यक्त्व के पश्चात् मिथ्यात्व का नियम नही है, सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति का भी उदय हो सकता है जैसा कि उपरोक्त गाथा ३ व ४ मे कहा गया है, किन्तु प्रथमोपशमसम्यक्त्व से अनन्तरपूर्व मिथ्यात्व का उदय नियमसे होता है, क्योकि मिथ्यादृष्टि ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण के अभिमुख हो सकता है, अन्य नहीं । अत यहा पर 'प्रच्छदो' का 'पीछे' अर्थात् सम्यक्त्व से पूर्व क्या अवम्या थी इस बात का ज्ञान कराने के लिये 'पूर्व' अर्थ किया गया है। इसका समर्थन कपायपाहुड की जयधवल टीका से भी होता है जो इसप्रकार है- . अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का जो प्रथम लाभ होता है उसके 'अणतर पच्छदो' अनन्तरपूर्व पिच्छली अवस्थामे मिथ्यात्व ही होता है, क्योकि उसके प्रथमन्थिति के अन्तिम समयतक मिथ्यात्वके अतिरिक्त प्रकारान्तर सम्भव नही है । 'लभस्स अपढमस्स दु' अर्थात् जो नियमसे अप्रथम सम्यक्त्व का लाभ है उसके अनतर पुर्य अवस्था मे मिथ्यात्व का उदय भजनीय है। कदाचित् मिथ्यादृष्टि होकर वेदकनन्यस्त्व (क्षयोपशम सम्यक्त्व) या प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त करता है और बाचित् गम्य ग्मिय्यादृष्टि होकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त करता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व से गिरने का कथन यहा उपशम सम्यक्त्व के रहते हुए जितना अन्तरकाल समाप्त हुआ है उससे अनयाल गेप बचा रहता है वह उपशमसम्यक्त्व के काल से सख्यातगुणा होता है। . " "g08:१०.१२ । 7., पु २ पृ २६८; व पु ६ पृ २४२, क पा सुत्त पृ ६३५। . Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १११ ] लब्धिसार [ १०५ वर्तनकर किसमें संक्रमित करता है ऐसा पूछने पर 'सम्मत्ते' अर्थात् सम्यक्त्व कर्मप्रकृति में सक्रमित करता है यह निर्देश किया है' । मिथ्यात्वका पूरा द्रव्य सक्रमण करने के बाद स्थित हुई सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति की ही मिथ्यात्व सज्ञा है । ऐसे जीवके जघन्यसे तेजोलेश्या होनी चाहिए। दर्शनमोहकी क्षपणा करते समय सर्वत्र ही वर्तमान शुभ तीन लेश्यारो में से अन्यतर लेश्या वाला ही होता है, अन्य लेश्या वाला नही होता, क्योकि विशुद्धि के विरुद्ध स्वभाववाली कृष्ण, नील, कापोत लेश्यानोका वहा अत्यन्त प्रभाव होने से निषेध है। अत. विशुद्धरूप परिणामों मे से जघन्यरूप मन्दपरिणामो में विद्यमान दर्शनमोहनीयका क्षपकजीव भी तेजोलेश्या का उल्लंघन नहीं करता है । अब दर्शनमोहको क्षपणा करनेवाले प्रस्थापक-निष्ठापकके सम्बन्धमें विशेष कथन करते हैं णिवगो तहाणे विमाणभोगावणीसु धम्मे य । किदकरणिज्जो चदुसु वि गदीसु उप्पज्जदे जम्हा ॥१११॥ अर्थ—प्रारम्भक काल के अनन्तर समय से लगाकर क्षायिकसम्यक्त्व ग्रहण के समय से पहले तक निष्ठापक होता है । यह निष्ठापक जहा दर्शनमोह की क्षपणा का प्रारम्भ हुअा वहा ही या सौधर्मादिस्वर्गोमे या कल्पातीत विमानो मे या भोगभूमिज मनुष्य-तिर्यचो मे अथवा प्रथम घर्मानरक मे होता है; अर्थात् निष्ठापक इतनी जगह हो सकता है, क्योकि बद्धायुष्क कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी मरकर चारो गतियो मे उत्पन्न होता है। विशेषार्थ-दर्शनमोहकी क्षपणाको उद्यत हुए जीवके 'प्रस्थापक' सज्ञा कव प्राप्त होती है, यह पूर्व में कहा ही जा चुका है । यथा-जब मिथ्यात्व प्रकृति के सर्व १. ज. ध पु. १३ पृ. ५। २. क. पा. सुत्त पृ. ४६० । ३. ज.ध. पु. १३ पृ. ६ । ४. "णिढवगो चावि सव्वत्थ" । अर्थात् दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक चारों गतियोमे होता : (क. पा. गा. ११०; जीवस्थान चूलिका ८ सूत्र १२, ध. पु. ६ पृ २४७) '. लेकिन भवन को और देवियो को छोड़कर (ज. ध. पु. १३ पृ. ४) Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ११० १०४ ] "अथ क्षायिकसम्यक्त्व प्ररुपणा. अधिकार" अब क्षायिक सम्यक्त्वोत्पत्तिको सामग्रीका कथन करते हैंदसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजो मणुसो। तित्थयरपायमूले केवलिसुदकेवलीमुले ॥११०॥ अर्थ-कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ मनुष्य तीर्थङ्कर के या अन्यकेवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल मे दर्शनमोहकी क्षपणा का प्रस्थापक-प्रारम्भ करनेवाला होता है । विशेषार्थ- इस गाथा द्वारा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक कर्मभूमिज मनुष्य ही होता है । यह निश्चय किया गया है, क्योकि अकर्मभूमिज ( भोगभूमिज ) मनुष्य के दर्शनमोह की क्षपणा करने की शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होने के कारण वहा उसका निषेध किया गया है। इसलिये शेष गतियोमे दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रतिषेध होनेसे मनुष्यगतिमे ही विद्यमान जीव दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है। मनुष्य भी कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ ही होना चाहिए अकर्मभूमिमें नही ऐसा यहा अर्थग्रहण करना चाहिए । कर्मभूमि मे उत्पन्न हुआ मनुष्य भी तीर्थङ्कर, केवली और श्रुतकेवली के पादमूलमे अवस्थित होकर दर्शनमोहकी क्षपणा प्रारम्भ करता है, अन्यत्र नही, क्योकि जिसने तीर्थङ्करादि के माहात्म्यका अनुभव नही किया है उसके दर्शनमोहनीय की क्षपणाके कारणभूत करण-परिणामोकी उत्पत्ति नही हो सकती' । अध करण के प्रथम समयसे लेकर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के द्रव्य का सम्यक्त्वप्रकृतिरूप होकर सक्रमण करने तक अन्तर्मुहर्तकाल पर्यंत दर्शनमोहकी अपणाका प्रारम्भक कहा जाता है । जिस कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व परिणाम का वेदन करता है उस कर्मको मिथ्यात्वकर्म कहते है । उसके अपवर्तित होने पर अर्थात् सर्वसक्रम द्वारा सक्रमित होनेपर वहासे लेकर यह जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक इस सज्ञाको प्राप्त होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परन्तु उसका अप १. ज.घ पृ १३ पृ. २ देखो गाथा ११० कषायपाहुउ । २ लब्धिसार गाथा ११० की टीका। ३ व पा मुत्त पृ ६४० । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११३-११६ ] लब्धिसार [ १०७ अणियट्टीश्रद्धाए अणस्स चत्तारि होति पवाणि । सायरलक्खपुधत्तं पल्लं दूरावकिट्ठि उच्छि8 ॥११३॥ पल्लस्स संखभागो संखा भागा असंखगा भागा। ठिदिखंडा होंति कमे अणस्स पव्वादु पन्वोत्ति ॥११४॥ अणियट्टीसंखेज्जा भागेसु गदेसु अणगठि दिसत्तो। उदधिसहस्सं तत्तो वियले य समं तु पल्लादी ॥११५॥ उबहिसहस्तं तु सयं पण्णं एणवीसमेक्कयं चेव । वियलचउक्के एगे मिच्छुक्कस्सट्ठिदी होदि ॥११६॥ अर्थ-दर्शनमोह की क्षपणाके पहले तीनकरण विधान द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ की उदयावलिसे बाह्य की स्थितिका अनिवृत्तिकरणके अन्त समयमे नियमसे विसयोजन करता है । अनिवृत्तिकरणकाल में अनन्तानुबन्धीकषायके पृथक्त्वलक्षसागर, पल्यप्रमाण, दूरापकृष्टिप्रमाण और उच्छिष्टावलि प्रमाणरूप चार स्थितिसत्त्व होते है। __ अनन्तानुवन्धीके स्थितिसत्त्वके प्रथम पर्वसे दूसरे पर्व पर्यन्त, दूसरे से तीसरे पर्व पर्यन्त और तीसरे से चौथे पर्व पर्यन्त जो स्थितिकाडक होते है उनका आयाम क्रम से पल्यका सख्यातवाभाग, पल्यका सख्यात बहुभाग और पल्यका असख्यात बहुभागमात्र है। अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर एक भाग अवणिप्ट रहनेपर अनन्तानुबन्धीका स्थितिसत्त्व एक हजारसागर प्रमाण, पश्चात् विकलेन्द्रियके बन्ध समान, पश्चात् पल्य और आदि शब्दसे दूपिकृष्टि और प्रावलिमात्र होता है। विकल चतूप्क अर्थात् असज्ञी पचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्रमसे एकहजारसागर, सौ सागर, पचास सागर, पच्चीससागर और एक सागरप्रमाण होता है। इन्ही के समान अनन्तानुवन्धी का स्थितिसत्त्व होता है । इसका कथन पूर्व मे किया ही है । विशेषार्थ-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीनो ही करणोको; असयत, देशसयत, प्रमत्त और अप्रमत्तसयत जीव करके अनन्तानुवन्धी की Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ११२ लब्धिसार ..1 व्यको सम्यग्मिथ्यात्व मे सक्रमण कर देता है और उसके पश्चात् जब सम्यग्मिथ्यात्व के नर्वद्रव्य को सम्यक्त्वप्रकृति मे सक्रमण करता है, तब उसे 'प्रस्थापक' यह सजा प्राप्त होती है । तथा मिथ्यात्व-सम्यग्मिथ्यात्व का क्षय करके कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होने के बाद यह जीव दर्शनमोहनीयको क्षपणाका निष्ठापक कहलाता है। इसप्रकार प्रस्थापक-निप्ठापक भेद कहा गया । प्रस्थापक कौन होता है, यह पूर्व मे कहा ही जा चुकर है । निष्ठापक कहाकहा पर स्थित जीव हो सकता है, यह वात इस गाथा मे मूल मे ही बताई जा चुकी है । जो कुछ विशेष है उसे यहा पर कहा जाता है यह कृतकृत्य जीव यदि प्रथमसमय मे मरता है तो नियम से देवो मे उत्पन्न होता है अर्थात् कृतकृत्य होने के प्रथमसमय मे ही यदि मरण करता है तो नियम से देवगति मे ही उत्पन्न होता है, अन्य गतियो मे नही । इसका भी कारण यह है कि अन्यगतियो मे उत्पत्ति को कारणभूत लेश्या का परिवर्तन उस समय असम्भव है । इसी प्रकार कृतकृत्य जीव के तत्प्रायोग्य अन्तमुहर्तप्रमाण काल के अन्तिमसमयतक द्वितीयादि समयो मे भी देवो मे ही उत्पत्ति का नियम जानना चाहिये। उसके बाद मरण करने वाला कृतकृत्य जीव शेष गतियो मे भी, पहले बाधी आयु के कारण उत्पत्ति के योग्य होता है। कहा भी है--"यदि नारकियो मे, तिर्यचयोनियो मे और मनुष्य मे उत्पन्न होता है तो नियम से कृतकृत्य होने के अन्तर्मुहूर्त काल बाद ही उत्पन्न होना है"" । क्योकि अन्तर्मुहूर्त के बिना उक्त गतियो मे उत्पत्ति के योग्य लेश्याका परिवर्तन उस समय सम्भव नही है। इसका भी कारण यह है कि कृतकृत्य होने पर यदि लेश्या का परिवर्तन होगा, तो भी पूर्व मे चली आई हुई लेश्या मे वह अन्तर्मुहूर्त तक रहेगा, तत्पश्चात् ही लेश्या-परिवर्तन सम्भव है । शेष कथन सुगम है । आगे ५ गाथाओं में अनन्तानुवन्धीको विसंयोजनासम्बन्धी कथन करते हैंपुवं तिरयणविहिणा अणं खु अणियट्टिकरणचरिमम्हि । उदयावलिवाहिरगं ठिदि विसंजोजदे णियमा ॥११२।। १. पागुन ५ ६४० । २ पा मुत्त प ६५४ नूय ८७ । ३. १३५८७ । ४ र पा गुन प ६५४; ज घ. पु १३ प ८७ । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०६ गाथा ११७-११६ ] लब्धिसार चारित्रमोहोपशामना और चारित्रमोहक्षपणा में अन्तरकरण सम्भव है, अन्यत्र नही ऐसा नियम है । अनिवृत्तिकरणमे हजारों स्थितकाण्डक और हजारो अनुभागकाडकों के हो जानेपर अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात बहुभाग बीत जाता है। पश्चात् विशेष घात वश अनन्तानबन्धी सत्कर्म असंज्ञियोके स्थितिबन्ध के समान हो जाता है। उसके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिकाण्डको के होने पर स्थिति सत्कर्म चतुरिन्द्रिय जीवोके स्थितिबन्धके समान होता है । इसप्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय के स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जानेपर पुनः पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म हो जाता है । तत्पश्चात् शेष स्थितिके संख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकाडक को ग्रहण करता हुआ अनन्तानुबन्धीका दुरापकृष्टिप्रमाण सत्कर्म करके पश्चात् शेष स्थितिके असख्यात बहुभागका घात करता हुआ सख्यातहजार स्थितिकाडको के जाने पर अनन्तानुबन्धी के उदयावलि बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मको अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमय मे, पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमरण आयामवाले अन्तिम स्थितिकांडक सम्बन्धी अन्तिमफालिरूप से बध्यमान शेष कषायो और नो कषायोमे सक्रमित कर प्रकृत क्रियाओ को समाप्त करता है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक विश्राम करता है । अब अनन्तानुबन्धोकी विसंयोजना वाले जीवके विसंयोजनाके अनन्तर होने वाले कार्यको ११ गाथाओं द्वारा कहते हैं अंतोमुहूत्तकालं विस्समिय पुणोवि तिकरणं करिय । अणियट्टीए मिच्छं मिस्सं सम्मं कमेण णासेइ ।।११७॥ 'अणियट्टिकरणपढमे दंसणमोहस्स सेसगाण ठिदी। सायरलक्खपुधत्तं कोडीलक्खगपुधत्तं च ॥११॥ "श्रमणंठिदिसत्तादो पुत्तमेचे पुधत्तमेत्ते य । ठिदिखंडेय हवंति ह चउ ति वि एयक्ख पल्लठिदी ॥११॥ १ ज. ध पु १३ प्रस्तावना पृ २०; ज. घ. पु. १३ पृ. २०० । २. ज. ध. पु १३ पृ. २००-२०१, ध. पु. ६ पृ २५१ । ३ ज ध पु १३ पृ. ४१, ध पु. ६ पृ २५४ । ज ध पु १३ प ४१-४२-४३ । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ११६ लब्धिसार १०८ ] विसयोजना करता है। इन करणोका लक्षण दर्शनमोहकी उपशामनामे जिसप्रकार कहा गया है उसीप्रकार यहा जानना चाहिये, क्योकि कोई विशेषता नही है । अध.. प्रवृत्तकरणरूप विशुद्धि द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालतक विशुद्ध होने वाले जीवके प्रतिसमय केवल अनन्तगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता जाता है । अध प्रवृत्तकरण मे स्थितिघताई अनुभागघात, गुणश्रेरिण और गुणसक्रमण नही होता, क्योकि अध प्रवृत्त करणरूप विशुद्धि स्थितिघात आदि का कारण नही है । हजारो स्थितिवन्धापसरण, अशुभकर्मो का प्रतिसमय अनन्तगुणीरूप से अनुभागबन्धापसरण और शुभ कर्मोका अनन्तगुगी वृद्धिरूप से चतु स्थानीय अनुभागबन्ध यह अध प्रवृत्तकरण विशुद्धियोका फल जानना चाहिये। ___ अपूर्वकरणमे स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेरिण और गुणसंक्रमण है । यहा की गुणश्रोणि सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, सयतासयत और सयतसम्बन्धी गुणश्रेणियोसे प्रदेशोकी अपेक्षा असख्यातगुणी है तथा उनके आयामसे सख्यातगुणी हीन है। परन्तु गुणसक्रम अनन्तानुबन्धियोका ही होता है, अन्य कर्मोका नही होता ऐसा कहना चाहिए। इसप्रकार प्रत्येक हजारो अनुभागकाडकोके अविनाभावी ऐसे स्थितिवन्धापसरणोके साथ होनेवाले हजारो स्थितिकाण्डको के द्वारा अपूर्वकरणके कालको समाप्त करता है। अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे जो स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म होता है उससे उसके अन्तिम समयमे स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा हीन होता है । तत्पश्चात् प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरणवाला हो जाता है। तव अनन्तानुवन्धियोका स्थितसत्कर्म अन्त कोडाकोडीके भीतर लक्षपृथक्त्वसागरोपमप्रमाण होता है । शेप कर्मोका अन्तःकोडाकोडीके भीतर होता है। फिर भी अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए जीवके भी इसीप्रकार स्थितिकाडक, अनुभागकाडक, स्थितिवन्धापसरण, गुणथोरिणनिर्जरा और गुणसक्रम परिणाम व्यामोहके बिना जानना चाहिए । अनिवृत्तिकरण मे भी पूर्वोक्त स्थितिकाडकघात, अनुभागकाडकघात, गुणश्रेणि, गुणसक्रमरण आदि कार्य होते है । दर्शनमोहकी उपशामना मे जिसप्रकार अनिवृत्तिकरणमे अन्तरकरण होता है, उसप्रकार यहा पर नही होता है, क्योकि दर्शनमोह१. ज ध. पु १३ पृ १६८ । २ त सू. अ सू ४५। ३ ज घ. पु १३ पृ १६६ । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाव १२७ ] लब्धिसार [ १११ अर्थ - अनन्तानुबन्धीका विसयोजन करनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक विश्राम करके फिर तीन कररणो को करता है । अनिवृत्तिकरणकालमे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति को नष्ट करता है ।।११७।। . अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में दर्शनमोहकी स्थिति पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण है और शेष कर्मोकी स्थिति पृथक्त्व लक्ष कोटिसागर प्रमाण है ।।११८ ।। दर्शनमोहकी पृथक्त्व लक्षसागरप्रमाण स्थिति प्रथम समय मे सम्भव होती है उससे आगे सख्यातहजार काण्डक होने पर प्रसंज्ञीके बन्धके समान एक हजारसागर स्थितिसत्त्व रहता है । उसके पश्चात् बहुत - बहुत स्थितिकाडक हो जाने पर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान सौ सागर, पचाससागर, पच्चीससागर और एकसागर स्थितिसत्त्व होता है । पश्चात् बहुत स्थितिखण्ड होने पर पत्यप्रमाण स्थितिसत्त्व होता है ॥ ११६ ॥ पत्यकी स्थितिसत्त्वके बाद संख्यात बहुभाग प्रायामवाले संख्यातहजार स्थितिघात होजाने पर नियमसे दूरापकृष्टि संज्ञावाला स्थितिसत्त्व होता है ।। १२० । दूरापकृष्टि नामक स्थितिसत्त्वका प्रमाण पल्य के सख्यातवे भागमात्र है । उससे आगे पल्यमे असंख्यातका भाग देनेपर उसमेसे बहुभागप्रमारण आयामवाले संख्यातहजार स्थितिकाण्डकं होनेपर सम्यक्त्वप्रकृतिके द्रव्यका अपकर्षण किया उसमे असख्यात समयप्रबद्धप्रमाण उदीरणारूप द्रव्यको उदयावलीमे देता है । इसके पश्चात् बहुत स्थितिखण्डों के द्वारा मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि अर्थात् उदयावलि मात्र स्थिति रह जाती है ।।१२१-१२२ ।। जिस अवसरमे असख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होती है उस समयसे उत्तरकालमें उदयावलीमे द्रव्य देने के लिए भागहार पल्यका असख्यातवा भागमात्र है । पूर्ववत् असंख्यातलोक मात्र नही है ।।१२३|| मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलि स्थिति के बाद पत्य के असंख्यात बहुभागवाले संख्यात स्थितिखण्ड व्यतीत हो जानेपर सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका नियमसे उच्छिष्टावलिमात्र स्थितिसत्त्व रहता है ।। १२४ ॥ { जब मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व ) की उच्छिष्टावलि प्रमाण स्थिति रहती है उसी समयमे रहनेके समयसे सम्यक्त्वप्रकृतिके पल्यके प्रसख्यात बहुभाग प्रायामवाले सख्यात Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] १ २ 3 pur ४ ६ ७ लब्धिसार 'पल्लद्विदिदो उवरिं संखेज्जसहरसमेत्तठिदिखंडे । दूरावसिरिणद ठिदिसत्तं होदि यिमेण ॥१२०॥ पल्लस्स संखभागं तस्स पमाणं तदो असंखेज्जं । भागप्रमाणे खंडे संखेज्जसहस्सगेसु तीदेसु ॥१२१॥ सम्मस्स असंखारणं समयबद्धागुदीरणा होदि । तत्तो उवरिं तु पुणो बहुखंडे मिच्छउच्छिट्ठ ॥१२२॥ " जत्थ असंखेज्जाणं समयपबद्धाणुदीरणा तत्तो । पल्ला संखेज्जदिमो छारो णासंखलोगमिदो ॥ १२३ ॥ *मिच्छुच्छिट्ठादुवरिं पल्ला संखेज्जभागिगे खंडे । संखेज्जे समतीदे मिस्सुच्छिट्ठ दवे गियमा ॥ १२४॥ * मिस्तुच्छिट्ठे समये पल्लासंखेज्जभागिगे खंडे । चरिमे पडिदे चेट्ठदि सम्मस्सडवस्ल ठिदिसत्तो ॥ १२५॥ 'मिच्छस्स चरमफालिं मिस्से मिस्सस्स चरिमफालिं तु । संहदि हु सम्मते ताहे तेसिं च वरदव्वं ॥ १२६॥ "जदि होदि गुणिदकम्मो दव्यमणुक्कस्लम गणद्दा तेसिं । अवरहिदी मिच्छदुगे उच्छिट्ठे समय दुगसेसे ॥ १२७॥ 1 जघ पु १३ पृ ४४, ५७ ॥ धपु १३ पृ ४८-४९-५७, ६ पु. ६ पृ २५६ ॥ १३ पृ ४६ । ज ध पु ज ध पु ज ज ध पु १३ पृ ५१, ५५ । जधपु १३ पृ ५१-५२, घ. पु ६ पृ २५६-५७-५८ । १३ पृ. ५३, ध. पु. ६ पृ २५८ पु१३ पृ ५४, ५७ ॥ [ गाथा १२० - १२७ 살 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२७ ] लब्धिसार [ ११३ अधिक भी तथा सख्यातगुणा भी होता है । इसीके अनुसार किसी एकके स्थितिकाडक से दूसरे जीवका स्थितिकाडक तुल्य भी होता है, विशेष अधिक भी होता है, सख्यातगुणा भी होता है' । एक साथ ही प्रथम (उपशम) सम्यक्त्वको ग्रहणकर पुन एक समय ही अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना कर दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हए दो जीवोका अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे सत्कर्म सदृश होता है तथा स्थितिकाडक भी सदश होता है । एक जीव दो छ्यासठ सागरोपम तक वेदकसम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वसहित परिभ्रमण करके दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ, दूसरा दो छ्यासठसागर कालतक सम्यक्त्वसहित परिभ्रमण किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ । दूसरे जीवका प्रथमजीवकी अपेक्षा दो छ्यासठ सागरोपमकाल के समयप्रमाण निषेको की अपेक्षा स्थितिसत्कर्म सख्यातवे भाग विशेष अधिक है। दो जीवो मे से एक जीव उपशमश्रेणी पर चढकर, स्थितिका सख्यात बहुभागका घातकर, उपशातमोह से नीचे उतरकर अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा विशुद्धिको पूरकर तथा दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला है । दूसरा जीव कषायका उपशम किये बिना दर्शनमोहकी क्षपणाका आरम्भकर ऐसा प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण परिणामवाला हो गया । इन दोनो जीवोमे से दसरे जीवका स्थिति सत्कर्म प्रथम जीवकी अपेक्षा सख्यातगुण है । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के स्थितिकाडक पल्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण है । उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवालेका स्थितिकाडक पृथक्त्वसागर प्रमाण है । स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पल्योपमका सख्यातवाभाग है। अप्रशस्तकर्मोके अनुभागकाण्डकका प्रमाण अनुभाग स्पर्द्ध कोका अनन्तबहुभाग है, किन्तु प्रशस्तकर्मोका और आयुकमका अनभागकाण्डकघात नही होता । अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे ही गुणश्रेणिकी रचना की, किन्तु वह यहा पर उदयावलिसे बाहर है, क्योकि यहा पर उदयादि गणश्रेणिका १. ज.ध. पु. १३ पृ. २३-२४ । २ ज ध. पृ. १३ पृ. २४ । ३ ज. ध. पृ. १३ पृ. २५ । ४ ज.ध. पु. १३ पृ. २७ । ५. ज.ध. पु १३ पृ. ३१ । ६. ज.ध. पु. १३ पृ. ३२ । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] लब्धिसार [ गाथा १२७ स्थितिघात व्यतीत होकर यहा प्रकृत समय में होते है । अन्तिमकांडकके पतन होनेपर सम्यक्त्वकी आठवर्षमात्र स्थिति शेष रहती है' ।। १२५ ।। मिथ्यात्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डककी चरमफालि जिस समय सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिर्मे सक्रमित होती है उस समयमे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिको अन्तिमकांडककी चरमफालिका द्रव्य जिससमय सम्यक्त्व - प्रकृतिमे सक्रमित होता है उस समय में सम्यक्त्वप्रकृतिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है ॥ १२६ ॥ दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाला जीव यदि गुग्गितकर्माश ग्रर्थात् उत्कृष्ट कर्मसचय युक्त होता है तो उसके उन दोनों प्रकृतियोंका द्रव्य उस समय उत्कृष्ट होता. है और यदि वह जीव उत्कृष्ट कर्मके सचय से युक्त नहीं होता है तो उसको उन्ही दोनो प्रकृतियोका द्रव्य वहा अनुत्कृष्ट होता है । तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति उच्छिष्टावलिमात्र रही सो क्रमसे एक-एक समयमे एक-एक निषेक गलकर दो समय अवशेष रहनेपर जघन्यस्थिति होती है ॥ १२७॥ विशेषार्थ - अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के द्वारा दर्शनमोह वीक्षपरणा होती है । जिसप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म की उपशामना मे इन तीनोका लक्षण कहा गया है उसी प्रकार क्षपरणामे भी जानना । अध प्रवृतकरणमे स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं है । इतनी विशेषता है कि वह प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि से वृद्धिको प्राप्त होता रहता है । शुभकर्मीका अनुभाग अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए वधता है और अशुभकर्मोका अनुभाग अनन्तगुणी हानि को लिये हुए बघता है । तथा अन्तर्मुहूर्त कालतक होनेवाले एक स्थितिबन्ध के समाप्त होने पर पल्योपमके सख्यातवे भाग हीन-हीन स्थितिबन्ध होता है । अपूर्वकररण के प्रथमसमयमे दो जीवो मे से किसी एक स्थितिसत्कर्म से दूसरे जीवका स्थितिसत्कर्म तुल्य भी होता है और सख्यातवा या असंख्यातवां भाग विशेष १ सम्यग्मिथ्यात्व के उच्छिष्ठावली प्रमित स्थिति रहने का तथा सम्यक्त्व प्रकृति की ८ वर्ष स्थिति रहने का एक ही काल है । यह प्रवाह्यमान उपदेश है । ज. ध. १३१५४ क. पा. चूरिंग । ज. व पु १३ पृ १५ । जध पु१३ पृ २२ एव जध पु ३ पृ २०३ । २. 3 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १२७ ] लब्धिसार [ ११५ करणके प्रथमसमय मे अन्य अनुभागकाण्डक होता है, क्योकि अपूर्वकरणके अतिमसमय के अनुभागसत्कर्मका अनन्तबहुभाग अनुभागकाण्डकरूप से ग्रहण किया गया है, किन्तु गुणश्रेणि पहलेके समान ही गलितावशेष आयामवाली उदयावलिसे बाहर होती है । मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्कर्म भी उसीप्रकार प्रवृत्त रहता है' । अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे दर्शनमोहनीयकर्मकी अप्रशस्तउपशामनाका विनाश हो जाता है, शेषकर्म उपशान्त और अनुपशान्त दोनो प्रकार से रहते है । कितने ही कर्मपरमाणुरो का बहिरङ्ग-अन्तरङ्ग कारणवश उदीरणा द्वारा उदयमें अनागमनरूप प्रतिज्ञा अप्रशस्तोपशामना है। केवल अप्रशस्तउपशामना ही विच्छिन्नं नही हुई, किन्तु दर्शनमोहनीयत्रिक के निधत्तिकरण व निकाचितकरण भी नष्ट होगये, क्योकि सभी स्थितियोके सभी परमाणु अपकर्षण द्वारा उदीरणा करनेके लिये समर्थ हो गये है। __गाथा ११८ द्वारा अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें आयुकर्मके अतिरिक्त शेष सात कर्मोकी स्थितिसत्कर्मका निश्चय किया गया है । दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म विशेषघात के वश से पृथक्त्व लक्षसागर हो जाता है । तत्पश्चात् प्रथमस्थितिकाडक से लेकर सहस्रो स्थितिकाडको द्वारा अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातबहुभाग व्यतीत होने पर और संख्यातवाभाग शेष रहने पर दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म लक्षपृथक्त्वसागर से क्रमशः घटकर पूरा एकसहस्रसागर असज्ञीपञ्चेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान हो जाता है। उसके बाद स्थितिकाडक पृथक्त्व के सम्पन्न होने पर चतुरिन्द्रिय जीवोके बन्धके समान दर्शनमोहनीयका स्थितिकर्म १०० सागर प्रमाण हो जाता है। उसके पश्चात् स्थितिकाडकपृथक्त्वके सम्पन्न होने पर त्रीन्द्रियजीवो के स्थितिबन्धके समान ५० सागर, उसके बाद स्थितिकाडकपृथक्त्व हो जाने पर द्वीन्द्रियजीवो के स्थितिबधवत् २५ सागर, तत्पश्चात पृथक्त्व स्थितिकाडकोके द्वारा एकेन्द्रियजीवोके स्थितिबन्ध सदृश एकसागर इसके बाद स्थितिकाडकपृथक्त्वद्वारा पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रह जाता है । यहा 'पृथक्त्व' विपुलवाची है । पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म रहनेसे पूर्व सर्वत्र ही अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर स्थितिकाडकायाम पल्यके सख्यातवेभाग प्रमाण होता १. ज.ध. पु. १३ पृ. ३६ । २. ज. प. पु. १३ पृ. ४० । ३. ज ध. पु १३ पृ. ४१ । ४. ज.ध. पु. १३ पृ. ४२-४३ । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १२७ ११४ ] निक्षेप सम्भव नही है । परन्तु उसका आयाम अपूर्वकरण और निवृत्तिकरण काल से विशेषाधिक है । यही पर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका गुण सक्रम भी प्रारम्भ होता है । अपूर्वकरणके दूसरे समयमे वही स्थितिकाडक है, वही ग्रनुभागकाडक है, वही स्थितिबन्ध है, किन्तु गुणश्रेणि अन्य होती है, क्योकि प्रथमसमयमे जितने द्रव्यका अपकर्षण हुआ है उससे असख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उदयावलिके बाहर गलितावशेष आयामरूपसे उसका निक्षेप करता है । इसप्रकार एक अनुभागकाडकके व्यतीत होनेके अन्तर्मुहूर्तकालतक जानना चाहिये । ऐसे हजारो अनुभागकाण्डको के समाप्त होने पर प्रथमस्थितिकाडक व स्थितिबन्ध काल समाप्त होता है । ग्रनन्तर समय मे अन्यस्थितिकाडक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकाडकको प्रारम्भ करता है' । प्रथम स्थितिकाण्डक बहुत है उससे दूसरा स्थितिकाडक विशेष हीन है, उससे तृतीय स्थितिकाण्डक विशेषहीन है । इसप्रकार विशेषहीन - विशेषहीन होते-होते अपूर्वकरणकालके भीतर अर्थात् अन्तसे पूर्व ( पहले ) प्रथम स्थितिकाडक से सख्यातगुणाहीन स्थितिकाण्डक उपलब्ध होता है । इस क्रमसे हजारो स्थितिकाण्डकोके व्यतीत होने पर अपूर्वकरण कालके अन्तिम समयको प्राप्त होता है । उसी समय ग्रनुभागकाडकका उत्कीररणकाल, स्थितिकाडकका उत्कीरणकाल और स्थितिवन्ध युगपत् समाप्त होते है । अपूर्वकरण के अन्तिमसमयमे स्थितिसत्कर्म थोडा है, क्योकि सख्यातहजारस्थितिकाडको के द्वारा घात होकर वहा का स्थितिसत्त्व शेष रहा है । उससे अपूर्वकरण के प्रथमसमयमे स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरण परिणामो द्वारा उसका घात नही हुआ है । पूर्वकरण के प्रथमसमयमे स्थितिबन्ध भी बहुत होता है तथा अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमे स्थितिबन्ध सख्यातगुणा हीन होता है । अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे, अपूर्वं करण के अन्तिमस्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्यस्थितिकाण्डकसे विशेषहीन अन्य स्थितिकाण्डक होता है, किन्तु वह स्थिति - काण्डक जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले के जघन्य होता है और उत्कृष्टस्थिति वाले के उत्कृष्ट होता है । परन्तु द्वितीयादि स्थितिकाण्डक सभी जीवोके सदृश होते है वही अनिवृत्ति - १. ज ध पु १३ पृ ३५ । २ ३ जध पु १३ पृ ३६-३७ । पु१३ पृ ३८ । Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७ गाथा १२७ ] लब्धिसार इन तीनो प्रकृतियोका सदृश स्थितिकाण्डक होता था, किन्तु सबसे पहले विनाशको प्राप्त होनेवाली मिथ्यात्वप्रकृतिका इस स्थानपर विशेष घात होता है इसमे कोई विरोध नही है। मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डक की अन्तिमफालीका द्रव्य सर्वसंक्रमण द्वारा संक्रान्त होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका शेष स्थितिसत्कर्मके असंख्यात बहुभागको घात करनेवाले स्थितिकाण्डक होते है । इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिकांडको के व्यतीत होनेपर सम्यग्मिथ्यात्वके उदयावलीके बाहर स्थित समस्त द्रव्यका काडकघात द्वारा ग्रहण होता है तथा मिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) प्रकृतिकी मात्र उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थिति सत्कर्म शेष रह जाता है । उस समय सम्यक्त्वकी आठवर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है, शेष सर्वस्थितियां स्थितिकाण्डकरूप से घातको प्राप्त हो चुकी है। मिथ्यात्वके अन्तिमकाण्डककी अन्तिमफालिका पतन होने पर मिथ्यात्वका जघन्यस्थितिसंक्रम होता है, क्योकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य अन्य स्थिति सक्रम नही पाया जाता। तथा उसी समय मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसक्रम होता है, क्योकि मिथ्यात्वके समस्तद्रव्यका सर्वसक्रम करनेवाले जीवके उत्कृष्टप्रदेश सक्रमकी व्यवस्था वन जाती है । इतनी विशेषता है कि गुणित कर्माशिक नारक भवसे पाकर अतिशीघ्र मनुष्य पर्यायको ग्रहणकर दर्शनमोहकी क्षपणा करनेवाला होना चाहिये, अन्यथा अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशसक्रम होता है तथा उसी समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उत्पन्न होता है, क्योकि मिथ्यात्वका कुछ कम डेढगुणहानि गुणित समयप्रवद्धप्रमाण समस्त द्रव्य उसरूपसे परिणम जाता है। इसलिये मिथ्यात्व के जघन्यस्थितिसंक्रमके साथ होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशसक्रमके प्रतिग्रहवश उसी समय सम्यग्मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, यह सिद्ध हो जाता है । तदनन्तर मिथ्यात्व दो समयकम एक आवलि प्रमाण स्थितियोको क्रमसे गलाकर जिससमय दो समयमात्र कालवाली स्थिति शेष रहती है, उससमय मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म होता है, क्योकि मिथ्यात्वका इससे जघन्य स्थितिसत्कर्म उपलब्ध नहीं होता। जिस समय १ २ ३. ज ध. पु. पृ. ४८-५० । ज. ध पु. १३ पृ. ५३ । ज ध. पु १३ पृ ५४ । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा १२७ ११६ ] है, किन्तु दर्शन मोहनीयका स्थितिसत्कर्म पल्योपमप्रसारण अवशिष्ट रहने पर स्थिति - काण्डकायाम पल्योपमके सख्यात बहुभागप्रमारण होता है'। उसके पश्चात् जो-जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस उसका सख्यातबहुभाग स्थितिकाण्डकायाम होता है । इसप्रकार सहस्रो स्थितिकाडकोके व्यतीत होनेपर पल्योपमके सबसे अन्तिम सख्यात भागप्रमाण दूरापकृष्टि सज्ञा वाला स्थितिसत्कर्म होता है । जिस अवशिष्ट सत्कर्म मेसे संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाडकका घात करनेपर घात करने से शेष वचा स्थितिसत्कर्म नियमसे पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है, उस सबसे अन्तिम स्थितिसत्कर्मकी दूरापकृष्टि सज्ञा है, क्योकि पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म से अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पत्योपमके सख्यातवे भागरूप से इस स्थितिसत्कर्म का श्रवस्थान है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म से नीचे अत्यन्त दूरतक पकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृष - अल्प होने से यह स्थिति दूरापकृष्टि है । यहा से लेकर सख्यात बहुभाग को ग्रहरणकर स्थितिकाण्डक घात किया जाता है प्रत वह स्थिति दूरापकृष्ट कहलाती है । यहा दूरापकृष्टिस्थिति एक भेद स्वरूप है, क्योकि ग्रनिवृत्तिकरणरूप परिणामोके द्वारा घात करने से अवशिष्ट स्थिति के अनेक भेदवाली होने का विरोध है' । पल्यके सख्यातवेभागप्रमाणवाली दूरापकृष्टिसे नीचे सत्त्व असख्यातबहुभागवाले संख्यातहजार स्थितिकाडक व्यतीत होनेपर वहा सम्यक्त्व के प्रख्यात समयप्रवद्धो की उदीरणा होती है । यहा से पूर्व सर्वत्र ही असख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्व की उदीरणा प्रवृत्त होती थी, परन्तु यहा पर पत्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण प्रतिभाग के अनुसार सम्यक्त्वकी उदीरणा प्रवृत्त हुई । पकर्षित समस्त द्रव्य मे पल्योपमके असख्यातवेभाग का भागदेकर जो लब्ध प्रावे उतने द्रव्यको उदयावलिसे बाहर गुरणश्रेणीमे निक्षिप्त करता है । गुणश्रेणीके श्रसख्यातवेभाग मात्र द्रव्यको जो असख्यात समयप्रबद्ध मात्र है, इस समय उदीरित करता है । तदनन्तर बहुत स्थितिकाण्डको के व्यतीत होने पर मिथ्यात्व के अन्तिमकाण्डक मे मिथ्यात्व की उदयावलिसे वाहरके सर्वद्रव्यको ग्रहण किया । इसप्रकार मिथ्यात्वका उदयावलि अर्थात् उच्छिष्टावलिमात्र द्रव्य शेष रह जाता है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व १. २ ३ ज ध पु १३ पृ ४४ । ज ६ पु. १३ पृ ४४-४५ । घ. पु. १३ पृ ४७ ॥ लब्धिसार Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३० ] लब्धिसार [ ११६ अर्थ-मिश्रद्विक अर्थात् मिश्रमोहनीय (सम्य ग्मिथ्यात्व) और सम्यक्त्वमोहनीय इन दोनो प्रकृतियोकी अपनी अपनी अन्तिमफालियोका द्रव्य कुछकम डेढगुणहानि गुणित समयप्रवद्धप्रमाण है । पूर्वोक्त प्रकार उन दोनो अन्तिमफालियोके द्रव्यमे पल्यके असख्यातवेभागका भाग देने पर एक भाग गुणश्रेणी निक्षेपमे दिया जाता है । गुणश्रेणि आयामरूप अन्तर्मुहूर्तकाल कम आठवर्ष प्रमाण ऊपरकी स्थितियो में चरमावलिपर्यन्त ? सदृश चय से हीन इस रचनारूप शेष बहुभाग द्रव्य दिया जाता है। __ सम्यक्त्वमोहनीय की आठ वर्ष स्थिति करनेके समयसे लेकर ऊपर सर्वत्र उदयादि अवस्थिति गुणश्रेणि आयाम है तथा सम्यक्त्वमोहनीयकी स्थितिमे स्थितिखड का अायाम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है । इसके आगे एक-एक स्थितिकाडक द्वारा अन्तर्मुहूर्तअन्तर्मुहूर्त स्थिति घटाता है । विशेषार्थ- जिस समय सम्यक्त्वप्रकृतिका स्थितिसत्कर्म आठवर्षप्रमाण होता है, उस समयमें (पतित) होनेवाली अपनी अन्तिमफालिके द्रव्यके साथ सम्यग्मिथ्यात्व की अन्तिमफालिको ग्रहणकर सम्यक्त्वके उपरिम आठवर्षप्रमाण निषेकोमे सिचन करता हुग्रा' उदयमे स्तोक प्रदेशपु जको देता है। उससे ऊपरवर्ती समयसम्बन्धी स्थितिमे असख्यातगुणे प्रदेशपु जको देता है । इसप्रकार पहलेके गुणश्रेरिणशीर्षके प्राप्त होने तक प्रत्येक स्थितिमे उत्तरोत्तर असख्यातगुणे प्रदेशपुजको देता है । सम्यग्मिथ्यात्वसम्बन्धी अन्तिमफालिके कुछकम डेढगुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको (अपकर्षणभागहारसे असख्यातगुणे) पल्योपमके असख्यातवे भाग से खण्डित कर एक भागमात्र द्रव्य को गुणश्रेणिमे निक्षिप्तकर पुन शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको गोपुच्छाकार से गुणश्रेरिणशीर्ष से ऊपर अन्तर्मुहर्तकम आठ वर्षकी स्थितियोमे निक्षिप्त करता है। इसप्रकार गुणश्रेणिशीर्ष से अनन्तर उपरिम प्रथम स्थिति मे असख्यातगुणे प्रदेशपु ज का निक्षेप होता है, क्योकि द्रव्य बहुभागप्रमाण है और स्थितियायाम स्तोक है। उससे ऊपर सर्वत्र (अनन्तर उपनिधाके अनुसार) आठ वर्षप्रमाण स्थितिके अन्तिम निषेकके प्राप्त होनेतक विशेषहीन विशेपहीन द्रव्य दिया जाता है । आठवर्षप्रमाण सर्व गोपुच्छोके १. जब सम्य ग्मिथ्यात्व की चरमफालीका सक्रमण सम्यक्त्वमे होता है, तब सम्यक्त्वका ८ वर्पप्रमाण ग्थितिसत्कर्म होता है । (ज. ध पु ३ पृ २०५) Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १२८-१३० ११८ ] मिथ्यात्वकी दो समय स्थिति शेष रहती है उस समय वह स्तिबुक संक्रम द्वारा सजातीय प्रकृतिमे सक्रमित हो जाती है। इसलिये तदनन्तर समयमे मिथ्यात्वसम्बन्धी प्रकृति सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म नि सत्त्व हो जाते है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिमकाडककी अन्तिमफालिके कुछ कम डेढ गुणहानि समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यको सर्वसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमे सक्रमित करनेपर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसक्रम होता है, क्योकि अनिवृत्तिरूप परिणामोके द्वारा दूराप कृप्टिरूप से घातित करनेके बाद शेष बची स्थितिके जघन्य होनेमे विरोधका अभाव है, परन्तु उससमय सम्यग्मिथ्यात्वका प्रदेशसंक्रम उत्कृष्ट होता है, क्योकि गणितकर्माशिक जीवकी विवक्षामे उत्कृष्ट प्रदेशसक्रम होनेमे विरोधका अभाव है तथा उसीसमय सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है, क्योकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशोका उसमे सक्रम हुआ है । इसके पश्चात् दो समयकम उदयावलि गलित होने पर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म, दो समय कालप्रमाण, एक स्थितिरूप होता है। अब मिश्रद्विक को अन्तिमफालिका गुरगश्रेणिमें निक्षिप्तद्रव्यके क्रमसहित प्रमाणादिका कथन करते हैं 'मिस्सद्गचरिमफाली किंचूणदिवड्डसमयपबद्धपमा। गुणसेडि करिय तदो असंखभागेण पुवं व ॥१२८॥ सेसं विसेसहीणं अडवस्सुवरिमठिदीए संखुद्धे । चरमाउलि व सरिसी रयणा संजायदे एत्तो ॥१२६॥ 'अडवस्तादो उवरि उदयादिअवद्विदं च गुणसेडी । अंतोमुहुत्तियं ठिदिखंडं च य होदि सम्मस्स ॥१३०॥ १ ज ध पु. १३ पृ ५१-५२-५३ । २ ज व पु १३ पृ ५५-५६ । ज ध पु. १३ पृ. ६४ । 1555 ज.ध.पू.१३ प ५६-६० व ६५-६६ । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३१ ] लब्धिसार [ १२१ पुन इन्ही अन्तिम दो फालिके पतन समयमे-पाठवर्षकी स्थिति करनेके समयमे अनन्तगुणा हीन होकर लताके समान एक स्थानीय अनुभाग हुआ । यहासे लेकर पूर्वमे जो अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनुभागकाडकघात होता था उसका अभाव हुआ और प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन क्रमसे अनुभागका अपवर्तन होने लगा । वहा अनन्तरवर्ती अाठवर्ष स्थिति करनेके समयसे पूर्व समयमे निषेकका जो अनुभाग सत्त्व था उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थिति करने के समयमे उदयावलिके उपरवर्ती उपरितनावलीके प्रथम निषेकका अनुभागसत्त्व अवशिष्ट रहता है । अवशिष्ट अनन्त बहुभागरूप अनुभागका विशुद्धि-विशेषसे अपवर्तन हुग्रा-नाश हुआ । तथा उसी समयमे उदयावलिके अन्तिम निषेकका अनुभागसत्त्व अपनेसे उपरवर्ती उस उपरितनावलिके ( द्वितीयावलि के ) प्रथमनिषेक सम्बन्धी अनुभाग सत्त्वसे अनन्तगुणा हीन रहता है तथा अवशिष्टका नाश होता है । पुन उससे अनन्तगुणा हीन उदयावलिके प्रथम निषेका अनुभागसत्त्व रहता है, शेषका नाश होता है। उससे अनन्तगुणाहीन आठवर्ष स्थितिकरनेके समयसे लेकर अनन्तरवर्ती आगामी समयमे अनन्तगुणाहीन अनुभागसत्त्व होता है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्तगुणा हीन अनुक्रमसे उच्छिष्टावलिके अन्तिम समय पर्यन्त अनुभागका अपवर्तन जानना। भावार्थ-जिससमय सम्यक्त्वप्रकृतिका आठवर्षप्रमाण स्थिति सत्कर्म होता है उससे पहले सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग लता-दारुरूप द्विस्थानीय था । उसकी अब एक लता स्थानीयरूप से प्रतिसमय अपवर्तना प्रारम्भ होती है, पहले अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अनुभागकाण्डककी रचना करता था अब पूर्वके काण्डकघातका उपसहारकर प्रत्येक समयमे सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागकी अनन्तगुणी हानिरूपसे अपवर्तना होती है। अनन्तरपूर्व समयके अनुभागसत्कर्मसे वर्तमान समयमे अनुभागसत्कर्म उदयावलिसे बाहर (द्वितीयावलिके प्रथम निषेकमे) अनन्तगुणा हीन है । इस अनुभागसत्कर्म से उदयावलि के भीतर अनप्रविशमान (उदयावलिके अन्तिम निषेक मे) अनुभागसत्कर्म अनन्तगणा हीन है। इससे भी उदय समयमे प्रवेश करनेवाला (प्रथमनिषेकमे) अनुभागसत्कर्म अनन्तगणा हीन है । इसप्रकार दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके एकसमय अधिक एक श्रावलि पूर्वतक प्रत्येक समयमे इसीप्रकार जानना चाहिये । इसके पश्चात् एक प्रावलि कालतक उदयमे प्रविशमान अनुभागकी प्रतिसमय अपवर्तना पाई जाती है । १. ज ध. पु १३ पृ. ६३ । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] लब्धिसार [ गाथा १३१ ऊपर इस समय दिया जानेवाला द्रव्य प्रत्येक स्थितिके प्रति पूर्वके अवस्थितद्रव्यसे असख्यातगुणा होता है, क्योकि अन्तिमफालि का द्रव्य कुछ कम डेढगुणहानिगणित समयप्रबद्ध प्रमाण है। सम्यक्त्व की आठवर्ष स्थितिसत्कर्म से पूर्व उदयावलिसे बाह्य गणश्रेणि आयाम था, किन्तु अब यहा से उदयरूप वर्तमान समयसे ही गुणश्रेणि आयाम प्रारम्भ हो जाता है इसलिये यह गुणश्रेणी आयाम 'उदयादि' कहा जाता है । पूर्वमे प्रतिसमय गुणश्रोणि आयाम घटता जाता था इसलिये वह गलितावशेप गुणश्रोणि थी, किन्तु अब नीचे का एकसमय व्यतीत होनेपर उपरिम स्थितिका एकसमय गुणगिमे मिल जानेसे गुणश्रेणि आयाम जितना था उतना ही रहता है, घटता नहीं है, अत' यह गुणश्रेणि आयाम अवस्थित स्वरूप है । इसलिये यह उदयादिअवस्थित गुणश्रेरिणआयाम है। पूर्वमे एकस्थिति काण्डक द्वारा पल्यका असख्यातवाभाग स्थितिका घात होता था, किन्तु अब एक स्थितिकाडक द्वारा अन्तर्मुहूर्तमान स्थितिका घात होता है, क्योकि इस स्थलपर पल्योपमके असख्यातवेभाग आदि विकल्प सभव नही है । अनुभाग अपवर्तन का निर्देश करते हैं'विदियावलिस्स पढमे पढमस्संते य आदिमणिलेये । तिट्ठाणेणंतगुणेणूणकमोवट्टणं चरमे ॥१३१॥ अर्थ-द्वितीयावलिके प्रथम निषेक, प्रथमावलि (उदयावलि) के अन्तिम निषेक और उदयरूप प्रथमनिषेक, इन तीनस्थानो मे सम्यक्त्वकी आठवर्षकी स्थितिसे उच्छिष्टावलि पर्यन्त सम्यक्त्वप्रकृतिके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते क्रमसे अपवर्तनघात होता है। विशेषार्थ- सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डककी (मिश्र व सम्यक्त्वप्रकृतिकी) द्विचरम दो फालिके पतन समयमे-पाठवर्ष स्थिति करनेके समयसे पूर्वसमय तक तो लता-दारुरूप द्विस्थानगत अनुभाग है सो अनुभागकाडकघातसे अनन्तागुणा हीन हुआ । १. ज ध पु १३ पृ ६४-६६ । ध पु ६ पृ २५६-६० । २ ज प पु १३ पृ. ५६-६० । ३ ज ध पु १३ पृ ६३ । ध पु ६ पृ २५६ । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १३४ - १३८ ] लब्धिसार ठिदिखंडामुक्कीरण दुम्बरिमसमश्रोत्ति चरिमसमये च । श्रोक्कदिकालीगंददव्वाणि गिसिंचदे जम्हा ॥ १३४ ॥ श्रवस्से संपहियं गुणसेढीसीसयं असंखगुणं । पुव्विल्लादो यिमा उवरि विसेसाहियं दिस्सं ॥ १३५॥ sara य ठिदीदो चरिमेदर फालिपडिददव्वं ख । संखासंखगुणणं तेगुवरिम दिस्समाणमहियं सीसे ॥१३६॥ जदि गोउच्छविसेसं रिणं हवे तोवि धणपमाणादो । जम्हा असंखगुणूणं ण गणिज्जदि तं तदो एत्थ ॥१३७॥ तत्तक्काले दिस्सं वज्जिय गुणसेढिसोसयं एक्कं । उवरिमठिदी वट्टदि विसेसहीणक्कमेणेव ॥१३८॥ [ १२३ अर्थ – सम्यक्त्वंप्रकृति की आठ वर्ष स्थिति शेष रहने के समयमे मिश्र ( सम्यग्मिथ्यात्व ) और सम्यक्त्व प्रकृति सम्बन्धी काण्डक की चरमफालियो का द्रव्य, पूर्व समय के सम्यक्त्वमोहनीय के सत्त्व द्रव्य से असख्यातगुणा है । सम्यक्त्व मोहनीय के सत्त्व द्रव्यसे, स्थितिकाण्डकोत्कीर्णकालके द्विचरम समय पर्यन्त अपकर्षित फालिद्रव्य असख्यातवे भाग है और अन्तिम समयमें अपकर्षित फालिद्रव्य संख्यातवे भाग है । यह द्रव्य निक्षेप किया जाता है ।।१३३-३४। सम्यक्त्वप्रकृति की आठ वर्ष स्थिति शेष रहने के समय गुणश्रेणीशीर्ष का द्रव्य श्रधस्तन गुरणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे नियमत असख्यातगुणा है । उपरिम गुण रिण शीर्षो का दृश्यमान द्रव्य अपने अपने से पूर्व गुणश्र ेगिशीर्ष के द्रव्यसे विशेषाधिक है ।। १३५ ।। सम्यक्त्वप्रकृति की आठ वर्ष प्रमाण स्थिति शेष रहने पर समस्त स्थित द्रव्य से चरम फालि का द्रव्य सख्यातगुणा हीन है और अन्य फालियो का द्रव्य असख्यान - गुणा हीन है इसलिये उपरितन गुणश्र ेणिशीर्षका द्रव्य विशेष अधिक है || १३६॥ यद्यपि अधस्तन गुणेणिशीर्ष से उपरितन गुण रिगशीर्ष मे गोपुच्छ चय ऋण है अर्थात् घटता है तो भी धन ( मिलाया जाने वाला द्रव्य ) के प्रमाण से Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] लब्धिसार [ गाथा १३२-१३३ आठवर्ष को स्थितिके पश्चात् कहांतक और किस विधिसे द्रव्यनिक्षेप होता है इसका कथन करते हैं अडवस्ले उवरिम्मि वि दुचरिमखंडस्स चरिमफालित्ति। संखातीदगुणक्कम विशेषहीणक्कम देदि ॥१३२॥ अर्थ-आठवर्ष की स्थिति करनेके अनन्तर समयसे लेकर द्विचरमकाण्डककी अन्तिमफालिके पतन समयतक उदयादि अवस्थित गुणश्रेरिणायाममे असख्यातगुणा क्रम लिये हुए तथा ऊपर अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्षप्रमाण स्थितियोमे विशेषहीन अर्थात् चय घटता क्रम लिये निक्षेपण होता है अर्थात् दिया जाता है । विशेषार्थ-आठवर्षकी स्थितिसत्कर्मके अनन्तरसे लेकर अन्तर्मुहर्तप्रमाण स्थितिकाण्डकघात के द्वारा अपवर्तित होनेवाली सम्यक्त्वकी स्थितियोमे जो प्रदेश पुज होता है, अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा उसे ग्रहणकर उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिमे निक्षिप्त करता हुआ उदयमे स्तोक प्रदेशपु जको देता है। उससे अनन्तरसमय मे असख्यातगुणा देता है । इसप्रकार क्रमसे गुणश्रेरिणशीर्षके अधस्तनसमयके प्राप्त होने तक असख्यातगुणित क्रमसे सिचन करता है । पुन' इससे उपरिम अनन्तर एक स्थितिमे भी असख्यातगुणे प्रदेशपु ज का सिचन करता है, क्योकि यहां अवस्थित गुणश्रेणि निक्षेपकी प्रतिज्ञा की गई है । इससमय अपकर्षित हुए द्रव्यके बहुभागको अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्षों के द्वारा भाजितकर वहा जो एकभाग प्रमाण द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्रेणिशीर्षमे निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिमात्रसे अन्तिमस्थितिको नही प्राप्त होने तक विशेपहीन-विणेपहीन द्रव्यका सिंचन करता है। इसप्रकार यह क्रम द्विचरम स्थितिकाण्डकतक होता है । आठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्त्व अवशिष्ट करनेके प्रथम (पूर्व) समयमें, आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्त्व करने के समयमें, आगामो समयमें पाये जानेवाले विधान आदिका कथन अडवस्से संपहियं पुबिल्लादो असंखसंगुणियं । उवरिं पुण संपहियं असंखसंखच भागं तु ॥१३३॥ ज घ पु १३ पृ ६४-७० । क पा. सुत्त पृ. ६५२ । १ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२५ गाथा १३८ ] लब्धिसार श्रेरिणशीर्षका द्रव्य प्राप्त होता है । इस समय के गुणश्रेणिशीर्ष द्रव्यको लाने की इच्छा होनेपर एक गोपुच्छविशेषसे हीन इसी द्रव्यको स्थापित कर इस समय अपकर्षित द्रव्यके बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम आठवर्षों के द्वारा भाजितकर वहा प्राप्त एकभाग मात्र द्रव्य से इसे अधिक करना चाहिये और यह अधिक द्रव्य, पिछले गुणश्रेणिशीर्षमें जो गोपुच्छ विशेष अधिक है उससे तथा उसीमे अर्थात् पिछले गुणश्रेणिशीर्षमे इस समय प्राप्त हुआ जो असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणिसम्बन्धी द्रव्य है उससे असंख्यातगुणा है, क्योकि पल्योपमके तत्प्रायोग्य असख्यातवेभागप्रमाण अक यहां पर गुणकाररूपसे पाये जाते है परन्तु वहा के समस्त द्रव्य को देखते हुए वह असख्यातगुणा हीन है, क्योकि साधिक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार के द्वारा उसके खण्डित करने पर वहां जो एक भाग प्राप्त हो वह तत्प्रमाण है । इसलिये इतने मात्र अधिक द्रव्य को निकालकर और पृथक् रखकर वहां अधस्तन गुणश्रेणिशीर्ष के एक गोपुच्छ विशेष से अधिक तत्काल प्राप्त असख्यात समयप्रबद्धप्रमाण समधिक द्रव्यके निकाल देने पर अपनीत शेष जो रहे उतना पहलेके गुणश्रेरिणशीर्षसे वर्तमान गुणश्रेणिशीर्ष सम्बन्धी द्रव्य अधिक होता है ऐसा निश्चय करना चाहिए । इसप्रकार आगे भी प्रत्येक समयमे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षणकर उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि मे निक्षेप करनेवाले की दीयमान और दृश्यमान द्रव्यकी पूरी प्ररूपणा इसीप्रकार करनी चाहिए । इतनी विशेषता है कि आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्मवाले जीवके प्रथम स्थितिकाडकसे लेकर द्विचरम स्थितिकाण्डकतक पतित होनेवाली इन सख्यातहजार स्थितिकाण्डको की अन्तिम फालियो मे भेद है, क्योकि उनके पतन समय गुणश्रेरिणशीर्षमे पतित होनेवाला द्रव्य वहा सम्बन्धी पूर्वके सचयरूप गोपुच्छको देखते हुए सख्यातवा भाग अधिक देखा जाता है। अब उसका अपवर्तन द्वारा निर्णय करके बतलाते है । यथा-वहा सम्बन्धी पूर्वके संचयको लाना चाहते है इसलिये डेढ गुणहानिगुणित एक समयप्रबद्धको स्थापितकर पुन. अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण इसका भागहार स्थापित करना चाहिए। अब प्रथम स्थितिकाडककी अन्तिम फालिका पतन होते समय काण्डक द्रव्यको लाना चाहते है इसलिये डेढगुणहानिगुणित समयप्रबद्धके अन्तर्मुहूर्तसे भाजित आठ वर्ष प्रमाण आयाम को भागहाररूप से स्थापित करना चाहिए । इसप्रकार स्थापित करने पर प्रथम स्थितिकाण्डककी अन्तिमफालिका द्रव्य आता है' । पुन इसके असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको १. देशोन काण्डकद्रव्य प्रमाण आता है । अर्थात् चरमफालि द्रव्यकाण्डक द्रव्यके बहुभागप्रमाण है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा : १३८ १२४ ] सख्यातगुणा हीन है । इसलिये इस चयरूप ऋण को नही गिना अर्थात् द्रव्यप्रमाण लानेमे इसको दृष्टिसे ओझल कर घटाया नही गया ।। १३७ ।। उस समय गुण रिगशीर्ष को छोडकर उपरिम स्थितियो मे दृश्यमान द्रव्य प्रत्येक निषेकमे विशेषहीन क्रमसे वर्तन करता है ।। १३८ ।। विशेषार्थ - इस समय अपकर्षित हुए द्रव्य के बहुभागको अन्तर्मुहूर्त कम ग्राठ वर्षो द्वारा भाजितकर वहा जो एकभागप्रमारण द्रव्य प्राप्त हो, विशेष अधिक करके उसे इस समयके गुणश्र ेणिशीर्षमे निक्षिप्त करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे ऊपर सर्वत्र अतिस्थापनावलिमात्र से अन्तिम स्थिति को नही प्राप्त होने तक विशेषहीनविशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता है । इसप्रकार आठवर्ष के स्थितिसत्कर्मवाले जीवके प्रथमसमयमे दीयमान द्रव्यकी प्ररूपणा की । अब वही दृश्यमान द्रव्य किसप्रकार अवस्थित रहता है इसका निर्णय करेगे । यथा-पहलेके गुणश्र रिगशीर्षसे इस समयका गुणश्रेणिशीर्ष ग्रसख्यातगुणा नही होता है । इस समय अपकर्षित कर ग्रहण किया गया समस्त द्रव्य भी मिलकर ग्राठवर्ष सम्बन्धी एक स्थितिके द्रव्यको पल्योपमके असख्यातवे भागसे भाजितकर जो एक भाग लब्ध आवे उतना होता है, क्योकि आठवर्ष प्रमाण निषेको मे अपकर्षण भागहार का भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण है । पुन उसके भी सख्यातवे भागप्रमाण द्रव्य को ही नीचे गुणश्रेणिमे सिचित करता है । शेष असख्यात बहुभागको इस समय के गुरणश्रेणिशीर्ष से उपरिम गोपुच्छाओ मे आगममे प्ररूपित विधि के अनुसार सिचित करता है । इस कारण से पहले के गुणश्र णिशीर्ष से इस समय का गुणश्रेणिशीर्ष ग्रसख्यातगुणा नही हुआ, किन्तु दृश्यमान द्रव्य विशेषाधिक ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । विशेषाधिक होता हुआ भी प्रसख्यातवा भाग ही अधिक है, अन्य विकल्प नही है'। अब इसी असख्यातवे भाग अधिक को स्पष्ट करनेके लिये यह प्ररूपणा करते हैं । यथा अघस्तन समयके गुणश्रेणिशीर्ष का द्रव्य लाना चाहते है इसलिये डेढ गुणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध को स्थापितकर उसका अन्तर्मुहूर्त कम ग्राठवर्ष प्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये । इसप्रकार स्थापित करने पर पिछले समयके गुण १ ज ध पु १३ पृ ६८ । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया १३६ ] लब्धिसार [ १२७ अक्त कथनका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको घातके लिये ग्रहण करता हुआ इस समय उपलब्ध होनेवाले अवस्थित गुणश्रोणि आयामके संन्यातवें भाग को अर्थात् अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकाल सहित कृतकरणीय कालको छोडकर पुनः शेष संख्यात वहुभाग को ग्रहण करता है । "केवल इतनी ही स्थितियो को नही ग्रहण करता है, किन्तु इनसे संख्यातगुणी उपरिम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपरितन स्थिति के निषेक विशिष्ट स्पष्टीकरणा जमवला (पु. १३) द्रष्टव्याऽस्ति । अवयित गणपणांका ......चश्मस्थिति कास्क के लिये गृहीत मायाम - - - - - -> संरख्यात बहभाग वगलितावीपी Sayamarathi oanimlaimer FALDIPS गरव्यातवां भाग MORE (मपस्थितगुफा शिका कृतकृत्यकाल अर्थात् का संचात बाभाग अन्तकाण्डकोरकर k अवशिस्ट अनिवृत्तिकात Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १३६ १२६ ] ही नीचे गुणश्रेणिमे निक्षिप्तकर शेष बहुभागप्रमाण द्रव्यको अवस्थित गुणश्रेणिशीर्ष से लेकर अन्तर्मुहर्त कम आठ वर्षो मे गोपुच्छाकाररूपसे सीचता है। इसलिये अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्षोके द्वारा इस काण्डकद्रव्यकै भाजित करने पर विवक्षित समयके अवस्थित गुणश्रोणिशीर्षमे पतित होनेवाली द्रव्य वहा सम्बन्धी पूर्वके सचयके समनन्तर अधस्तन गुणश्रेणिशीर्ष के संख्यातवां भाग आता है । इसलिये सिद्ध हुआ कि उस अवस्था मे द्विचरम गुणश्रोणिशीर्ष से अन्तिम गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य सख्यातवा भाग अधिक होकर दिखाई देता है। इसीप्रकार ऊपर भी सर्वत्र द्विचरमस्थितिकाडक की अन्तिमफालि के प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये, क्योकि एक कम स्थितिकाण्डकके उत्कीरणकालप्रमाण कालतक असख्यातवा भाग अधिक और काण्डकके अन्तिम समय मे सख्यातवाभाग अधिक गुणश्रेणिशीर्षमे दृश्यमान द्रव्य होता है। इस प्रकार इस कथनके साथ पूर्वोक्त कथनका कोई भेद नही पाया जाता है । इसप्रकार द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालि पर्यन्त ही यह प्ररूपणाप्रवन्ध है' । आगे अन्तिमकाण्डकका विधान कहते हैंगुणसेटिसंखभाग तत्तो संखगुण उवरिमठिदीओ। सम्मत्तचरिमखंडो दुचरिमखंडादु संखगुणों ॥१३६॥ अर्थ-गुणश्रेणि के सख्यात बहुभाग को और उससे सख्यातगुणी उपरितन स्थितियोको घात के लिये ग्रहण करने वाला चरम स्थितिकाण्डक, द्विचरम स्थितिकाण्डक घात से सख्यातगुणा है।। विशेषार्थ-पहले आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर विशेषहीनके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त आयामवाले स्थितिकाडको का घात कर यहा द्विचरम स्थितिकाण्डकसे सख्यातगुणे आयामरूपसे अन्तिम स्थितिकाण्डको को ग्रहण करता है यह तात्पर्य है । इसप्रकार इस अल्पबहुत्वके द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण-विषयक निर्णय करके अब सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ इस विधि से ग्रहण करता है इस बातका ज्ञान कराने के लिये कहते हैं ___ "चरम स्थितिकाण्डकको घात के लिये ग्रहण करता हुआ गुणश्रेरिणके (उपरिम) सख्यात बहुभाग को ग्रहण करता है और उपरिम अन्य सख्यातगुणी स्थितियो को ग्रहण करता है।" । १ ज. ध पु १३ पृ ६७-७० । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गापा १४३ ] लब्धिसार [ १२६ विशेषार्थ-सम्यक्त्व मोहनीयकी उदयावलि से बाह्य सभी स्थितियो मे से प्रदेगो को अपकर्पित कर वर्तमान गुणश्रोणि मे निक्षिप्त करता हुआ उदय स्थितिमे अल्प प्रदेश पुज को दिया जाता है, क्योकि आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म से लेकर उदयादि गुणोगिकी प्रतिमाके प्रवर्त्तमान होनेमे कोई रुकावट नही पाई जाती । पुनः तदनन्तर उपरिम स्थिति मे असख्यातगुणे प्रदेशपुज को देता है । यहा पर गुणकार तत्प्रायोग्य पत्योपमका असख्यातवा भाग है । इसप्रकार तब तक असख्यातगुणे प्रदेशपुजको देता है जबतक चरमसमय स्वरूप स्थितिकाण्डक की प्रथम स्थिति प्राप्त नहीं होती । यही स्थिति गुण)गिशीर्ष बन गई है, यह प्रथम पर्व है। अब तक अपकर्षित द्रव्यके संख्यातवे भाग को ही गुणश्रेणि मे देता था, किन्तु यहा से असख्यात बहुभाग को गुणधेगिमे निक्षिप्त करने लगा और शेष असख्यातवे भागको उपरिम स्थितियोके समयमे अविरोधपूर्वक निक्षिप्त करता है । इस शेप बचे असख्यातवे भाग मे से असख्यातवे भागको पृथक रखकर वहा प्राप्त बहुभाग को स्थितिकाण्डकके भीतर प्राप्त हए अन्तर्मुहर्त प्रमाण गुणश्रोणि अध्वानसे भाजित कर वहां प्राप्त एक खण्डको विशेष अधिक कर इस समयके गुरगयरिगशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमे अर्थात स्थितिकाण्डककी श्रादि स्थितिमे दिया जाता है । उसके पश्चात् प्राचीन गुणश्रेणिशीर्ष तक यहा के बहुभाग द्रव्यको उत्तरोत्तर विशेष हीन दिया जाता है, यह दूसरा पर्व है । पृथक रखे हुए असख्यातवे भाग प्रमाण द्रव्यको अधस्तन आयामसे सख्यातगणे उपरिम समस्त आयामसे भाजितकर जो एक भाग प्राप्त हो उसे विशेष अधिक करके वहा की गोपुच्छा मे सिचितकर उससे ऊपर अतिस्थापनावलि से पूर्वतक विशेषहीन क्रमसे एक गोपुच्छ श्रेणिरूप से दिया जाता है, यह तीसरा पर्व है। इसप्रकार यहां पर दीयमान द्रव्यकी तीन श्रेणिया हो गई' । इसप्रकार स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालके द्विचरम समय तक अर्थात् द्विचरम फालि तक जानना चाहिए। ___साम्प्रतिकगुरणश्रेणिके स्वरूप निर्देशपूर्वक चरमफालिके पतनकालका निर्देश करते हैं। उदयादिगलिदसेसा चरिमे खंडे हवेज्ज गुणसेढी । फाडेदि चरिमफालि अणियट्टीकरणचरिमम्हि ॥१४३॥ १. ज. ध पु १३ पृ. ७४-७७ । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १४०-१४२ १२८ ] अन्य स्थितियो को भी ग्रहण करता है ।" इस कथन द्वारा अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण पृथक् दिखलाया गया जानना चाहिये । इसलिए अवस्थित गणश्रेणिशीर्षसे उपरिम सर्व गोपुच्छाये और अवस्थितरूपसे किया गया समस्त गुणश्रेणिशीर्पस्थान इन सवको ग्रहणकर तथा अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिकरूपसे रचित पुराने गुणश्रेणिशीर्षके उपरिम भागमे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियोको ग्रहणकर अन्तिम स्थितिकाण्डकको घात के लिए ग्रहण करता है'। सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तिमकाण्डकको प्रथमफालीके प्रथम समयसे लेकर उसके द्विचरमफालीके पतनसमय पर्यन्त उस काण्डकोत्कोरणकालमें फालिद्रव्य व अपकृष्ट द्रव्य के निक्षेप विशेषका विधान कहते हैं सम्मत्तचरिमखंडे दुचरिमफालित्ति ति रिण पव्वामओ। संपहियपुत्वगुणसेढीसीसे सीसे य चरिमम्हि ॥१४॥ तस्थ असंखेज्जगुणं असंखगुणहीणयं विसेसूणं । संखातीदगुणणं विसेसहीणं च दत्तिकमो ॥१४॥ ओक्कट्ठिद बहुभागे पढमे सेसेक्कभागबहुभागे । बिदिए पव्वेवि सेसिगभागं तदिये जहा देदि ॥१४२॥ अर्थ-सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विचरमफालि तक दीयमान द्रव्यके तीन पर्व (श्रेणिया) है । वर्तमान इस समयकी गणश्रेणिशीर्ष तक, प्राचीन गुणश्रणिशीर्ष तक, अन्तिम स्थिति काण्डक के अन्त तक । प्रथम पर्व मे अपकर्षित द्रव्यका असख्यात बहुभाग असख्यातगणे क्रमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थितिमे असख्यातगुणा हीन द्रव्य दिया जाता है । दूसरे पर्वमे शेष असख्यातवे भागका असख्यातबहुभाग द्रव्य विशेष हीन क्रमसे दिया जाता है, उससे अनन्तर स्थितिमे असख्यातगणा हीन द्रव्य दिया जाता है। तृतीय पर्व मे शेष एकभाग प्रमाण द्रव्य विशेष हीन क्रमसे दिया जाता है। १. ज ध पु १३ पृ ७१-७२-७३ । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४५ १४६ ] लब्धत [ १३५१ ----द्विचरम स्थितिमें जो प्रदेश पुञ्ज निक्षिप्त होता है उसे देखते हुए गुणश्र ेणि कीं अन्तिम अग्र स्थितिमे निक्षिप्त होने वाले द्रव्यका जो कार है वह न तो पत्योप के प्रथम वर्गमूलका असख्यातवा भाग है और न अन्य ही है, किन्तु पल्योष के प्रख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है; क्योकि नीचे निक्षिप्त किया गयान्द्रव्य अन्तिम फालिके द्रव्य को पल्योपमकै, असंख्यात प्रथम वर्गमूलोसे भाजित कर जो एक भाग लब्ध प्रावैः तत्प्रमाण स्वीकार किया गया है। इस केथन द्वासी धस्लन समस्त गुणकारों को वल्योप तत्प्रायोग्य असख्यात्वेभागप्रमाण सूचित किया गया जानना चाहिए, क्योंकि उन गुण कारों को पल्योपमक़े असख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण होने पर कर्मस्थितिके भीतर सचित हुए द्रव्य के अंगुलके असख्यातवे भाग समयः प्रबद्ध प्रमाण होनेका प्रतिप्रसङ्ग प्राप्त होता है। इसलिये, अन्तिम गुणकार ही प्पल्योपमं प्रसख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं किन्तु अधस्तन समस्त सुखकार ल्योपम के तत्प्रायोग्य असख्यातवे भागप्रमाण है यह सिद्ध हुआ कि ए FW SPATE TH 5 की 1 F1 - फ TOT अब दो गाथाओं में कृतकृत्यवेद सम्यक्त्व के प्रारम्भसमय के निर्देशपूर्वक उसकी अवस्था विशेषकी प्ररूपणा करते हैं | 15=15 जीए 5 propos 35 2001 Fr चरि फालिदिए कद कर णिज्जेति वेदगो होदि सो वा मरणं पावइ चउगइगमणं च तट्ठाणे ॥१४५॥ काए काल " - Y देतेसुदेव : सुरण र तिरिए - चउग्गईसुपि । कुदकर णिज्जुप्पत्ती कमेण तो मुहुते ॥ १४६ ॥ क अर्थ - अन्तिमफालिं द्रव्य के दिये जाने पर कृतकृत्यवेदकेँ सम्यग्दृष्टि होता है । वहां मरण होवे तो चारो गतियो में जा सकता है । यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम भाग से मरे - तो देवगतिमे ही उत्पन्न होता है । तत्प्रमाण दूसरे भाग मे मरणाही तो देव या मनुष्यो मे उत्पन्न होता है । - तत्प्रमारण तृतीय भागमे मरण हो तो देव, मनुष्य या तिर्यत्व (-इन-तीनो-मे से किसी भी गति ) मे उत्पन्न होता है । तत्प्रमारण चतुर्थभागमे मरण हो-तो चारो गतियोमे उत्पन्न हो सकता है । 11 RED TES 1. -=T क पा. सुत्त. पृ. ६५३ चूर्णिसूत्र ७६-८०; ज.ध.पुरे३ पृ. ७८ आदि T に Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लब्धिसार [ [पाया १४४ "" अर्थसम्युक्त्वप्रकृतिके अन्तिम कण्डक की प्रथम फालिकेट पतन समयमे लेकर द्विचरमकालिके पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गुण रिंग आयाम जाननाः । अवशिष्ट अनिवृत्ति कंस्णकालके अन्तिम समयमे अन्तिम काण्डककी चरमफालिका पतन होता है 7175 1 S 528011 अंतिम समय हिन 36. विशेषार्थ - उदयादि वर्तमान समयसे लेकर यहा गुणन रिण आयाम पाया जाता"हे" इसलिये उदयादि कहते है, और एक-एक व्यतीत होते हुए एक एक समय गश्रेणिं श्रया॒ममे॑ घृ॒टता जाता है इसलिए गलितावशेष कहा है। इसप्रकार उद्या दे गलितावशेष गणश्रेणि आयाम जानना । पूर्वोक्त विधानसे अन्तिमकाण्डककी 'द्विचरमफालिका पतन होने पर काण्डको कारण कलिका अनिवृत्तिकरण कालमे एक समय अवशिष्ट रहता है । Pith hi चाड 65 TJTF 1 FTFI T} p S 10351 चरम फालिं देदिदु पढमे पव्वे श्रसंखगुणिदकमा । J ST Fist T で 17 G पल्ला लेखेज्जमूलाणि ॥१४४॥ अ 30 - - द 7P pi TH R भाज -- अर्थ - अन्तिमकाण्डककी अन्तिमफालिका द्रव्य प्रथम पर्व ( गलितावशेष 下 T गुणश्रेणि) मे असख्यात गुणितं क्रमसे दिया जाता है । अन्तिम समयमे पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण द्रव्य दिया जाता है । 7+ 市 T विशेषार्थ - यहा अपकर्षित होनेवाले द्रव्य का प्रमाण अन्तिमफालिके -माहात्म्यवश कुछकमोडेिढ गुणहानिगुणित 'समयंप्रबद्धप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, -“क्योकि गुणश्रेणिका समस्त द्रव्य अन्तिमफालिको देखते हुए सख्यातगुणा हीन देखा - जाता है । इसको ग्रहणकर कृतकृत्य सम्यक्त्वके कालप्रमारण अधस्तन - निषेकोमे प्रदेशविन्यास करता हुआ उदयमे अल्पप्रदेशपु जको देता है, क्योकि यद्यपि वह असंख्यात -- समयप्रबद्धप्रमाण है. तथापि उसके उपरम निषेकोमे सिचित होने वाले द्रव्यकी अपेक्षा अल्प होने विरोध का प्रभाव है । तदनन्तर समयकी उपरिम स्थिति में असंख्यातगुरणा देता है | गुणकार क्या है ? तत्प्रायोग्य पत्योपमके प्रसंख्यातवे भाग - प्रमाण अड्ड गुणकार हैं । इसप्रकार द्विचरम निषेकके प्राप्त होने तक जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अधस्तन अनन्तर निषेकके गुरणकारसे उपरिम अनन्तर निषेकका गुणकार सर्वत्र असख्यातगुणी वृद्धिरूपसे ले जाना चाहिये । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १४८ ] लब्धिसार [ १३३ पुन' उसके मध्यम अंशको प्राप्त कर और अन्तर्मुहूर्त कालतक उस रूप रहकर जघन्य अशमे भी जब अन्तर्मुहूर्त काल तक नही रह लेता तब तक अन्य लेश्यारूप परिवर्तन का होना सम्भव नही है | कुछ प्राचार्य इसप्रकार भी अर्थ करते है कि जिसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रारम्भमे पूर्वोक्त विधिसे तेज, पद्म और शुक्ललेश्यामे से अन्यतर लेश्या के साथ क्षपण - क्रियाका प्रारम्भ करने वाला जो जीव पुन. दर्शनमोहकी क्षपणारूप क्रियाकी समाप्ति होने पर कृतकृत्यरूप से परिणमन करता है उसके नियमसे शुक्ललेश्याके होनेमे विरोध नही है । पुनः उसका विनाश होनेसे आागममें बतलाई गई विधिके अनुसार यदि तेज और पद्मलेश्यारूपसे परिरणत होता है तो कृतकृत्य होने के बाद जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नही जाता तब तक वह उक्त लेश्यारूपसे परिवर्तन नही करता । अन्तर्मुहूर्तकाल के पश्चात् कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि जीव पहलेकी अवस्थित लेश्याका परित्यागकर जघन्य कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इनमे से अन्यतर लेश्यारूप से परिणमता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इस वचन द्वारा कृष्ण और नीललेश्याका यहा अत्यन्त अभाव कहा गया जानना चाहिये, क्योकि प्रत्यन्त सक्लिष्ट हुआ भी कृतकृत्य जीव अपने कालके भीतर जघन्य कापोत लेश्याका अतिक्रम नही करता है । अब कृतकृत्यवेदक कालमें पायी जाने वाली क्रिया विशेष को कहते हैंसमवयं कद किज्जतोत्ति पुव्वकिरियादो । वट्टदि उदीरणं वा असं समयष्पबद्धा ॥१४८॥ अर्थ - पूर्व प्रयोग वश कृतकृत्यवेदक कालके अन्त तक प्रतिसमय सम्यक्त्व के अनुभागका अनन्तगुणी हानिरूप से अपवर्तन होता है तथा कृतकृत्य वेदककालमें एक समय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक असख्यात समयप्रबद्ध की उदीरणा भी होती है । विशेषार्थ - प्रनिवृत्तिकरणकालका संख्यातवां भाग अवशिष्ट रहने पर जिस प्रकार दर्शनमोहनीयके अनुभागकाण्डकघात को नष्टकर प्रतिसमय अनन्तगुणे घटते क्रम सहित अनुभागका अपवर्तन कहा था उसीप्रकार इस कृतकृत्यवेदककालके अन्तिम समयपर्यन्त पाया जाता है, क्योकि करण परिणामों की विशुद्धता के संस्कार का यहा अवशेष रहना सम्भव है । उस कृतकृत्यवेदककालमें जबतक एक समय अधिक Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १४७ १३२ ] विशेषार्थ-इसप्रकार अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमे सम्यक्त्व मोहनीयके अन्तिमकाण्डकको अन्तिमफालिके द्रव्यका अधस्तनवर्ती निषेको मे निक्षेपण करने के पश्चात् अनन्तरवर्ती समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातवे भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त पुरातन गलितावशेष गुणश्रेणि आयामके शीर्ष को सख्यातका भाग देने पर बहुभागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होता है, क्योकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणा योग्य स्थितिकाण्डकादि कार्य तो अनिवृत्तिकरणके चरम समयमे ही समाप्त हो गया इसलिये किया है करने योग्य कार्य जिसने ऐसे कृतकृत्य नामको प्राप्त जीव भुज्यमान आयुके नाशसे मरण को प्राप्त होवे तो सम्यक्त्व ग्रहणसे पहले जो आयु बाधी थी उसके वशसे चारो-गतियोमे उत्पन्न होता है । वहा कृतकृत्यवेदकके कालके एक-एक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण चार भाग करता है, उनमे से प्रथपभागमे मरे तो देवो मे ही, द्वितीय भाग मे मरे तो देव या मनुष्यो मे, तृतीयभाग मे मरे तो देव-मनुष्य या तिर्यंचो मे तथा चतुर्थभागमे मरे तो चारो गतियो मे उत्पन्न होता है, क्योकि वहा उन ही मे उत्पन्न होने योग्य परिणाम होते है। इस क्रम द्वारा कृतकृत्य वेदककी उत्पत्ति जानना चाहिए। . . . . ... प्रागे अध करणके प्रथमलमयसे लेकर कृतकृत्यवेदककालके चरम समयपर्यन्त लेश्या परिवर्तन होने अथवा न होने सम्बन्धों कथन करते हैं- " करणपडमादु जावय किदुकिच्चुरिं मुहुत अंतोत्ति । ण सुहाण पराबत्ती सा घि कोदावरं तु वरिं ॥१४७॥ अर्थ-अध करण से लेकर कृतकृत्यवेदक के ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक शुभ लेश्या को वदलता नही अर्थात् शुभ लेश्याम अवस्थित रहता है । अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यदि अन्य लेश्या रूप परिणमता है तो जघन्य कापोतलेश्याका अतिक्रम नही करता है । विशेषार्थ-अध प्रवृत्तकरणमे विशुद्धिको पूर कर तेज (पीत), पद्म और शुक्ल इनमे से किसी एक शुभ लेश्या मे दर्शनमोहकी क्षपणा का प्रारम्भकर पुन जब जाकर यह जीव कृतकृत्य होता है तब तक उसके पूर्वमे प्रारम्भ की गई वही लेश्या पाई जाती है तथा पुन उसके आगे भी जब तक अन्तमुहर्तकाल नहीं गया तब तक प्रारव्य उक्त लेश्याको छोड कर अन्य लेश्यारूप परिवर्तन नही करता है, क्योकि कृतकृत्य भावको प्राप्त होनेवाले जीवके पूर्वमे प्रारब्ध हुई लेश्या का उत्कृष्ट अश होता है। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाधा १५१ . 'लब्धिसार [१३५ F- - कृतकृत्य जीवके कालके भीतर जिसप्रकार गुणश्रेणि निक्षेप आदि विशेष • असम्भव है उसी प्रकार वहा असख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा भी असम्भव है ऐसी पाणका नहीं करना चाहिए, किन्तु यह कृतकृत्यजीव । अपने कालके भीतर संक्लेशको प्राप्त हो या विशुद्धिको प्राप्त हो तो भी सक्लेश-विशुद्धिनिरपेक्ष असख्यात समयप्रबद्धप्रमाण उदीरणा प्रतिसमय असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे · कृतकृत्यके कालमे एकसमय अधिक एक आवलिकाल शेष रहने तक प्रवृत्त होती ही है। प्रतिघातको नही प्राप्त होती। यद्यपि असख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा पूर्व-पूर्व समय सम्बन्धी उदीरणाद्रव्यलें असंख्यातगुण कमयुक्त है तथापि अन्तिमकाण्डककी 'अन्तिमौलिके द्रव्यको गुणश्रेणियायाममें दिया था. उस गुणश्रेणिरूप उदयनिषेकके द्रव्यसे, यह उदीरणाद्रव्य गसंख्यातवां भागमात्र ही है, क्योंकि सर्वद्रव्यमे अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एकभागको पल्यके असंख्यातवेभागका भाग देने पर उसमें से एक भागप्रमाण यह उदारणाद्रव्य है और जो गुणश्रेरिण का निषेकं उदयरूप है, उसका द्रव्य, सर्वद्रव्यमें असख्यात पल्य के प्रथम वर्गमूलका भाग देने पर एक भागमात्र इसलिये कृतकृत्यवेदकके प्रथमादि समयोमे उदीरणाद्रव्य जो कि उस-उस समयमे उदयावलिके निषेकोमे दिया जा रहा है वह उस-उस उदयावलिके निषकों के सत्त्वद्रव्यसे असख्यातगुणा हीन है । - पुन कृतकृत्यवेदक कालमें एकसमय अधिक प्रावलिप्रमाणकाल अवशेष रहनेपर पूर्वमें अपकर्षित किये गए द्रव्यसें असख्यातेगुणे द्रव्यको स्थिति के अन्तिम निषेक अर्थात् · उदयावलिसे उपरितनवर्ती एक निपक से अपकर्षित करके उसके नीचे एक समयकम प्रावलिके 3 भागप्रमाण निषेकोंको अतिस्थापनारूप रखकर उसके नीचे एक समयअधिक पावलीने त्रिभागमात्र निपेकोमें द्रव्य देता है। वहां उस अपकर्षण, किये हुए द्रव्यको पल्यके असख्यातवे भाग से भाजितकर उसमे से एक भागप्रमाण द्रव्य तो उदय समयसे लेकर यथायोग्य असख्यातसमय सम्बन्धी निषेकोंमे असख्यातंगुणे क्रमसे देता है और अवशिष्ट बहुभागप्रमाण द्रव्यको प्रतिस्थापनाके अधस्तन समयको छोडकर उसके नीचे शेष बचे प्रावलीके. विभागप्रमाण निषेकोंमें विशेष हीन क्रमसे निक्षिप्त करता है । यही उत्कृष्ट उदीरणा है,, इससे अधिक उदीरणाका द्रव्य नही है । इसप्रकार अनुभागका प्रतिसमय अपवर्तन करके और कर्म परमाणुओंकी उदीरणा करके यह कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्वमोहनीयकी शेष रही अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिमे उच्छिष्टावलिको छोडकर सर्व प्रकृति-स्थिति अनुभाग-प्रदेशो के. सर्वथा विनाश पूर्वक (एक-एक निषेक Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **] लब्धिसार [ गाथा १४६=१११ विशेष रहती है तबतक प्रतिसमय श्रसंख्यातगुणे क्रम सहित सख्या 57-76 नगर प्रवद्धों की उदीरणा पाई जाती है । -- उदयवहिं प्रोक्कयि श्रसंखगुणसमुदयश्रावलिहि खवें । उवरिं विसेसहीणं कद किज्जो जाव इत्थव ॥१४६॥ जदि संकिलेसजुत्तो विसुद्धिसहिदो तो वि पडिसमयं । दव्यमसंखेज्जगुणं प्रोक्कट्टदि णत्थि गुणसेढी १५०॥ ह जदि वि श्रसंखेज्जाणं समयबद्धा गुदरगाहो ।' क उदयगुणसेडिटिदिए असंखभागो हु पडिसमयं ॥१५१॥ ही 3 7 सैन קי 7 अर्थ—उदयावलिसे-बाहरके द्रव्यको अपकर्षित करके उद्यावलिने असख्यातः गणे नमने दिया जाता है उससे ऊपर कृतकृत्यवेदककाल मे प्रतिस्थापना, शेष- रहने ना विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है ।। १४६॥ t · ---- corr कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि चाहे सक्लेशको प्राप्त हो चाहे - विशुद्धिको तो भी उनके एक समय अधिक ग्रावलिकाल शेट रहने तकः प्रतिसमय असख्यातगुणे द्रव्यक्रा घर्षण होता है, किन्तु गुणश्रेणि नही होती ॥ १५०॥ यद्यपि सख्यात समयप्रवद्ध की उदीरणा होती है तथापि प्रतिसमय उदय प्रत्यने उत्कृष्ट उदीरणा द्रव्य ग्रसख्यातवें भाग मात्र है ।। १५१ ।। " - विशेषायं—कृतकृत्यवेदककालप्रमारण सम्यक्त्वमोहनीयके निषेकों का द्रव्य विचित् उन वर्धगुणहानि गुणितः समयप्रवद्ध प्रमाण है उसको अपकर्षणभागहार का भाग पर उनमें से एकभागप्रमाण द्रव्यको उदयावलिसे बाहर उपरितनवर्ती निको मे करके उसको पल्यके श्रसंख्यातवे भागका भांग देकर उसमे से एक भागतो "प्रक्षेपयोगोत" इत्यादि विधानके द्वारा प्रथम समय से लेकर अन्तिम पिये "पर्यन्तं श्रगख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है । तथा अवशिष्ट बहुभाग: प्रमाण द्रव्य उपायलिने अग्निनवर्ती अवशिष्ट ग्रन्तर्मुहूर्तप्रमाण उपरितन स्थितिके अन्तमें यनित प्रतिस्थापनावलि छोड़कर सर्वनिषेकोमे “श्रद्धाणेण सव्वधरणे” इत्यादि शेषहीन श्रममे निक्षिप्त करता है । इसप्रकार उपरितन स्थितिका जो 2 दिया जाता है उसको उदीरणा कहते है । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३७ गाथा १५६-१६३ ] लब्धिसार सम्मे असंखवस्लिय चरिमढिदिखंडओ असंखगुणो। मिस्से चरिमे खंडियमहियं अडवस्समेत्तेण ॥१५६॥ मिच्छे खवदे सम्मदुगाणं ताणं च मिच्छसत्तं हि । पढमंतिमठिदिखंडा असंखगुणिदा हु दुट्ठाणे ॥१५७।। मिच्छंतिमठिदिखंडो पल्लासंखेज्जभागमेत्तेण । हेट्ठिमठिदिप्पमाणेणभिहियो होदि णियमेण ॥१५८॥ दूरावकिठ्ठिपढमं ठिदिखंडं संखसंगुणं तिण्णं । दूरावकिठ्ठिहेठिदिखंडं संखसंगुणियं ॥१५६।। पलिदोवमसंतादो विदियो पल्लस्स हेदुगो जादु । अवरो अपुठवपढमे ठिदिखंडो संखगुणिदकमा ॥१६॥ पलिदोवमसंतादो पढमो ठिदिखंडो दु संखगुणो । पलिदोवमठि दिसंतं होदि विसेसाहियं तत्तो ॥१६१॥ विदियकरणस्स पढमे ठिदिखंड विसेसयं तु तदियस्त । करणस्स पढमसमये दंसणमोहस्स ठिदिसंतं ॥१६२।। दसणमोहणाणं बंधो संतो य अवर वरगो य । संखेये गुणिदकमा तेत्तीसा एत्थ पदसंखा ॥१६३॥ गाथार्थ व विशेषार्थ-सर्वप्रथम दर्शनमोहनीयका आठवर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म रहने पर जो पहले का अनुभागकाण्डक है उसका उत्कीरण काल सबसे स्तोक है । ऊपर कहे जाने वाले सभी पदों से स्तोकतर है, किन्तु कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम मे ज्ञानावरणादि शेष कर्मोका जो पहलेका अनुभागकाण्डक, अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम अवस्थामे उसका उत्कीरणकाल सबसे जघन्य (स्तोक) है, क्योकि उससे आगे कृतकृत्यवेदककालके भीतर स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात आदि क्रियाओकी प्रवृत्ति नहीं होती। अतः सबसे उत्कृष्ट विशुद्धि निमित्तक यह सबसे जघन्य है, यह सिद्ध हुआ' । (१) १ ज ध पु १३ पृ. ६१ । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १३६ ] [ गाथा १५२ - ९५५ का एक-एक समयमे उदयरूप होकर ) नष्ट होता है । तदनन्तर समय मे उच्छिष्टावलि - प्रमाण स्थिति अवशिष्ट रहनेपर उदीरणाका भी अभाव हुआ, केवल अनुभागका अपवर्तन ( पूर्वमे कहे गए अपवर्तनसे यहा अपवर्तनका भिन्न लक्षण है ) अनुभागका अपवर्तन उदयरूप प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय अनन्तगुणे क्रमसे प्रवर्तता है उससे ( अपवर्तन से ) प्रकृति- स्थिति अनुभाग प्रदेशोके सर्वथा नाशपूर्वक प्रतिसमय उच्छिष्टावलि के एक-एक निपेकको गलाकर निर्जीण करता है और अनन्तरसमय मे ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । आगे कहे जाने वाली अल्पबहुत्व के कथन की प्रतिज्ञारूप गाथा कहते हैंविदियकरणादिमादो कदकर णिज्जस्स पढमसमश्रोत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्पबहु ॥ १५२ ॥ अर्थ—–द्वितीय करण (अपूर्वकरण) के प्रथमसमय से लेकर कृतकृत्यवेदक के प्रथम समयपर्यन्त अनुभागकाण्डकोत्कीरण कालादिक के अल्पबहुत्वसम्बन्धी ३३ स्थानों का कथन श्रागे करेंगे । विशेषार्थ - दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम - नमय से लेकर कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम समयतक इस अन्तरालमें जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कीरणकाल तथा स्थितिकाण्डकोत्कीरण कालो के जघन्य व उपस्थितिकाण्डक, स्थितिवन्ध, स्थिति सत्कर्मोके जघन्य व उत्कृष्ट प्रबाधाओ का तथा अन्य पदोके अल्पबहुत्वका कथन किया जावेगा । अब ११ गाथाओं के द्वारा अल्पबहुत्वके ३३ स्थानोंका कथन करते हैंरस ठिदिखंडुक्की र अद्धा अवरं वरं च वरवरं । सत्थवं श्रयिं संखेज्जगुणं विसेलहियं ॥ १५३ ॥ कद करणसम्म खवणायिट्रिटचपुण्वद्ध संखगुणिदकमं । नत्तो गुणमेडिस्स य शिक्खेओ साहियो होदि ॥ १५४ ॥ सम्मदचरमे चरिमे वस्सस्सादिमे य ठिदिखंडा । वववाहाविय अवस्सं संखगुणिदकमा ।। १५५ ।। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ १३६ उत्कृष्ट आबाधा सख्यातगुणी है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमे होनेवाले सख्यातगुणे स्थितिबन्धकी आवाधाका ग्रहण है । ये सब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है ।।१४। उससे सम्यक्त्वप्रकृतिकी आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि अन्तर्मुहूर्तकालसे आठवर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा सिद्ध है ।।१५।। (गाथा १५५) उससे सम्यक्त्वप्रकृतिका असख्यातवर्षप्रमाण अन्तिम स्थितिकाण्डक असख्यातगुणा है, क्योकि वह पल्यके असख्यातवेभागप्रमाण है ॥१६॥ उससे सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका असख्यातवर्षप्रमाण अन्तिम स्थितिकॉड़क विशेष अधिक है । एक प्रावलिकम आठवर्ष विशेषका प्रमाण है, इसका कारण सुगम है ।।११७।। (गाथा १५६) उससे मिथ्यात्वका क्षय होनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका प्रथम स्थितिकाण्डक असख्यातगुणा है, क्योकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिमण्डकसे द्विचम् स्थितिकाडा असंख्यातगुणा है । इसप्रकार त्रिचरम और चतुश्चरम आदि क्रमसे सख्यातहजार स्थितिकाण्डक नीचे जाकर मिथ्यात्व का क्षय होने पर सम्यक्त्व और सम्यरिमथ्यात्वका तत्सम्बन्धी यह प्रथम स्थितिकाडक है। इसलिये यह स्थितिकाण्डक असख्यातगुणा है ॥१८॥ उससे मिथ्यात्व, सत्कर्मवालेके सम्यक्त्व और सम्यरिमथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकापडक. असख्यातगुरणा है, क्योकि मिथ्यात्वः सत्कर्मवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जो अन्तिम स्थितिकाण्डक है, वह पूर्वके स्थितिकाडकसे अनन्तर अधस्तनवर्ती, होनेसे पूर्वके स्थितिकाण्डकसे असख्यातगुणा है ॥ १६ ॥ ( गाथा १५५ ), उससे मिथ्यात्वका अन्तिम, स्थितिकाण्डक विशेष अधिक है, क्योकि मिथ्यात्वके उदयावलि. बाह्य समस्त स्थितिसत्कर्मका ग्रहण होता है, परन्तु सम्यक्त्व और सम्यरिमथ्यात्वकी. उस समय, अधस्तन-पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण स्थितियोको छोडकर, उपरिम बहुभागप्रमाण स्थितियोंका ग्रहण,होता है। इस कारण अधस्तन असख्यातवेभाग मात्रका प्रवेश होकर मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक विशेष अधिक हो गया है.॥२०॥ (गाथा- १५८). उससे मिथ्यात्व सम्यक्त्व: और सम्यग्मिथ्यात्वके असंख्यातगुण हार्निवाले स्थितिकाण्डकोमें से प्रथम स्थितिकाण्डक असख्यातगुणा है, क्योकि पूर्वके स्थितिकाडकसे । सख्यातहजार, स्थितिकाण्डका असख्यातगुरणे, क्रमसे. नीचे उतरकर दूरापकृष्टि सनक स्थितिके असख्यात-बहुभाराके द्वारा इस स्थितिकाण्डककी प्रवृत्तिाहोती है ।।२१।। उससे Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १६३ १३८ ] उससे उत्कृष्ट अनुभागकण्डकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है, क्योकि सभी कर्मोके अपूर्वकरणके प्रथमसमय मे प्राप्त अनुभागकाण्डक सम्बन्धी उत्कीरणकाल यहा ग्रहण किया गया है । (२) उससे स्थितिकाण्डकका जघन्य उत्कीरणकाल और जघन्य स्थितिबन्धकाल ये दोनो तुल्य होकर भी सख्यातगुणे है, क्योकि एक स्थिति - काण्डक उत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल के भीतर नागमोक्त संख्यातहजार ग्रनुभागकाण्डक उत्कीरंणकाल होते है । यहा सम्यक्त्वप्रकृतिका अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीरणकाल तथा वही पर शेष कर्मोके भी स्थितिकाण्डक - उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका ल ग्रहण करने चाहिये । (३) उनसे, उत्कृष्ट ये दोनो परस्पर तुल्य होकर भी, विशेष अधिक हैं, क्योकि अपूर्वकररणकें प्रथम समय सम्बन्धी स्थितिकाण्डक उत्कीरण व स्थितिबन्धकाल ये दोनो उत्कृष्टरूप से ग्रहण किये गये है || ४ || ( गाथा १५३ ) उनसे कृतकृत्यसम्यग्दृष्टिका कालं सख्यातगुंगा है, क्योकि कृतकृत्य सम्यग्दृष्टि के कालमे सख्यातहजार स्थितिबन्ध होते है ॥५॥ उससे सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षपणकाल सख्यातगुरणा हैं, क्योकि मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोका क्षयंकर पुन आठवर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्मका क्षय करनेवाले जीवका कलि ग्रहण किया गया है ॥ ६ ॥ उससे अनिवृत्तिकरणका काल सख्यातगुणा है, क्योकि कररणके सख्यात बहुभाग जाकर सख्यातवे भाग शेष रहने पर सम्यक्त्व प्रकृतिकी क्षपरणाके कालका प्रारम्भ होता है ॥७॥ उससे अपूर्वकरणकाल संख्यातगुणा है, क्योंकि अनिवृत्तिकरण के कालसे अपूर्वकरण के कालका सर्वत्र ' सख्यातगुणे रूपसे अवस्थान होनेका नियम है | उससे गुणश्रेणि निक्षेप विशेष अधिक है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम- समय से लेकर अपूर्वकरण और श्रनिवृत्तिकरण के कालसे' विशेष अधिक प्रमाण गुणश्रेणिश्रायामका निक्षेप विक्षि है | | ( गाथा १५४) उससे सम्यक्त्वप्रकृतिका द्विचरम स्थितिकांडक संख्यातंगुरणा है । यह भी मात्र अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर पिछले पदसे सख्यातगुणा है || १० | उससे उसका अन्तिम स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है ।। ११ ।। उससे प्राठवर्ष प्रमाण स्थितिसंत्कर्म शेष रहने पर जो प्रथमस्थितिकाण्डक होता है वह संख्यातगुणा है । यहां संख्यात समय गुणकार है ।।१२।। उससे जघन्य आवाधा सख्यातगुणी है । यहां पर कृतकृत्य सम्यग्दृष्ट प्रथमत्तमयमे ज्ञानावरणादि कर्मसम्बन्धी जघन्य आबाधाका ग्रहण है ।।१३।। उससे Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १६७ दर्शनमोहका क्षय होनेपर उसी भवमे प्रथवा तृतीय भवमें अथवा मनुष्य या तिर्यचायु का पूर्वमे ( दर्शनमोहका क्षय होने से पहले) बन्ध हो जानेके कारण भोगभूमि की अपेक्षा चौथे भवमे सिद्ध पद प्राप्त करता है । चतुर्थभवका उल्लघन नहीं करता । औपशमिक - क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के समान यह नाशको प्राप्त नही होता है । १४२ ] उक्त सात प्रकृतियोके क्षयसे असंयतसम्यग्दृष्टिके क्षायिकसम्यक्त्वरूप जघन्य क्षायिकलब्धि होती है तथा चार घातिया कर्मोंके क्षयसे परमात्माके केवलज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिकलब्धि होती है । उवणेड मंगलं वो भवियजणा जिवरस्स कमकमलजुयं । जस कुलिसकलससत्थिय ससं कसं खं कुसा दिलक्खणभरियं ॥ १६७॥ अर्थ — मत्स्य, वज्र, कलश, शक्थिक चन्द्रमा, अकुश' शख आदि नाना शुभलक्षणोसे सुशोभित जिनेन्द्र भगवानके चरण कमल भव्य लोगोको मगल प्रदान करे । ॥ इति क्षायिकसम्यक्त्व प्ररूपणा समाप्त ॥ १. भगवानके शरीरमे शख आदि १०८ एव मसूरिका आदि ६०० व्यंजन, इसप्रकार कुल १००८ लक्षण विद्यमान थे ( महापुराण अ. १५।३७ ) Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १६३ १४० सख्यातगणहानिवाले स्थितिकाण्डको मे से जो अन्तिम स्थितिकाण्डक है वह सख्यातगुणा है, क्योकि दुरापकृष्टिप्रमाण स्थितिसत्कर्मो को छोडकर पुन उपरिम संख्यात वहुभागके द्वारा इस स्थितिकाण्डककी प्रवृत्ति होती है ।।२२।। (गाथा १५६) उससे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके रहते हुए दूसरा स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है, क्योकि पूर्वके स्थितिकाण्डकसे पश्चादनुपूर्वी के अनुसार सख्यातगुणवृद्धिरूप संख्यातहजार स्थितिकाडक पीछे उतरकर यह काण्डक होता है ।।२३।। उससे जिस स्थितिकाण्डकके नष्ट होने पर दर्शनमोहनीयका पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है वह स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है । यद्यपि यह भी पल्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण है, किन्तु पूर्वके स्थितिकाण्डकसे सख्यातगुणा है । गुणकार तत्प्रायोग्य संख्यात अङ्क है ॥२४॥ उससे अपूर्वकरणमे प्रथम स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमे ग्रहण किये गये स्थितिकाण्डकसे विशेष हीन क्रमसे तत्प्रायोग्य सख्यात अङ्कप्रमाण स्थितिकाण्डक-गुणहानिगर्भ सख्यातहजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर पूर्वका स्थितिकाण्डक उत्पन्न हुआ है और वहा पर स्थितिकाडक गुणहानियोका अस्तित्व प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योकि अपूर्वकरणके भीतर प्रथम स्थितिकाण्डकसे संख्यातगुणा हीन भी स्थितिकाण्डक होता है इसलिए यह सख्यातगुणा है ऐसा सिद्ध हुआ ॥२५॥ ( गाथा १६०) उससे पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके होनेपर उसके बाद होनेवाला प्रथम स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है, क्योकि जब तक पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म प्राप्त नही होता तव तक अपूर्वकरणके कालमे और अनिवृत्तिकरणके कालमे प्राप्त होनेवाले सभी स्थितिकाण्डक पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण वाले होते है, परन्तु इस स्थितिकाडकमे पल्योपमके सख्यात बहु भागका घात होता है अत पूर्वके स्थितिकाडकसे यह संख्यातगुणा है ।।२६।। उससे पल्योपम स्थितिसत्कर्म विशेषाधिक है । अधस्तन शेष संख्यातवाभाग अधिक है ।।२७।। (गाथा १६१) ___ उससे अपूर्वकरणमे प्राप्त प्रथम उत्कृष्ट स्थितिकाडक विशेष सख्यातगुणा है । जघन्य स्थितिकाण्डक और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकके बीच विशेषका प्रमाण पल्योपमका सख्यातवाभाग हीन पृथक्त्वसागर है जो पल्यसे संख्यातगुणा है ।।२८। उससे अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे प्रविष्ट जीवके दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि वह सागरोपम शतसहस्रपृथक्त्व प्रमाण है ॥२६॥ (गांथा १६२) Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “अथ चारित्रलब्धि अधिकार" दर्शनमोहको क्षपणाविधान की प्ररूपणाके अनन्तर देशसंयम और सकलसंयमलब्धि प्ररूपणाके लिये आगे का गाथा सूत्र कहते हैं दुविहा चरित्तलद्धी देसे सयले य देसचारित्तं । मिच्छो अयंदो सयलें तेवि व देसो य लब्भेई ॥१६८। । अर्थ-चारित्र की लब्धि अर्थात् प्राप्ति, सो चारित्र देश और सकल के भेदसे दो प्रकार है । इसमे से देशचारित्रको मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि प्राप्त करता है और सकलचारित्रको मिथ्यादृष्टि या असयतसम्यग्दृष्टि अथवा देशचारित्री प्राप्त होता है । विशेषार्थ-देशचारित्रका घात करनेवाली अप्रत्याख्यानावरणकषायोके उदयाभावसे हिसादिक दोषोके एकदेश विरतिलक्षण अणुव्रतको प्राप्त होनेवाले जीवके विशुद्ध परिणाम होता है उसे देश चारित्र या सयमासयमलब्धि कहते है । सकल सावद्यकी विरतिलक्षण पांच महाव्रत, पाचसमिति और तीनगुप्तियो को प्राप्त होने वाले जीवका जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे सयमलब्धि जानना चाहिए, क्योकि क्षायोपशमिकचारित्रलब्धिको सयमलब्धि कहा गया है । । अब मिथ्यादृष्टिके देशसंयमको प्राप्तिके पूर्व पाई जानेवाली सामग्रीका कथन करते हैं अंतोमुत्तकाले देसवदी होहि दित्ति मिच्छो हु । सोसरणो सुझतो करणंपि करेदि सगजोग्गं ॥१६॥ अर्थ-अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् जो देशेवंती होगा ऐसे मिथ्यादृष्टिजीव प्रतिसमय अनन्तगुणीविशुद्धिसे वर्धमान होता हुआ आयु बिना सात कर्मोका बन्ध या सत्त्व अन्तकोड़ाकोडी मात्र अवशेष करनेके द्वारा स्थितिबधापसरणको तथा अशुभकर्मोके अनुभागको अनन्तवाभाग मात्र करने के द्वारा अनुभागबधापसरणको करता हुआ अपने करणंयोग्य परिणामकों करता है । १. ज घ. पु १३.५ १०७ । इतना विशेष है कि यह संयमलब्धि.१२ कषायो के अनुदयरूप उपशम से तथा चारसज्वलन और है नोकषायो के देशोपशम से उत्पन्न होती है । ज ध. १३।१०६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय! १६४-१६६ ] लब्धिसार [ १४१ उनसे सख्यातगुणा कृतकृत्यवेदकका प्रथम समयमें दर्शनमोहनीयके बिना शेष कोका जघन्य स्थितिवन्ध है, क्योकि कृतकृत्यवेदकके प्रथम समयमे होनेवाला स्थितिवन्य अन्त कोडाकोडी सागर प्रमाण है ॥३०॥ उससे उन्हीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध गन्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरण के प्रथम समयमे होनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध यहा ग्विक्षित है ।।३१।। उससे दर्शनमोहनीयके बिना शेष कर्मोका जघन्य स्थितिसत्कर्म मन्यातगुगा है, क्योकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके अतिरिक्त अन्यत्र सम्यग्दृष्टियोके उत्कृष्ट स्थितिवन्धसे भी जंघन्य स्थितिसत्कर्म नियमसे सख्यात्तगुणा होता है ॥३२॥ उगने उन्हीका उत्कृप्ट स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमें नभी फर्मोका अन्त कोडाकोडीप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होता है। उसका अभी घात नहीं हुया है अत घात होकर शेष बचे हुए पूर्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मसे इसके उक्तप्रकाररो सिद्ध होनेमे कोई बाधा नही आती है ।।३३।। (गाथा १६३)' अव तीन गाथानों में क्षायिकसम्यक्त्वके कारण-गुण-भवसीमा-क्षायिकलब्धित्व आदिका कथन करते हैं सत्तरहं पयडीणं खयादु खइयं तु होदि सम्मत्तं । मेरु व णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥१६४॥ दंग्मणमोहे खविदे सिझदि तत्थेव तदियतुरियभवे । रणादिक्कति तुरियभवे ण विणस्सति सेससम्मे व ॥१६५।। सत्तरहं पयडीणं खयादु अवरं तु खइयलद्धी दु । उक्कस्सखइयलही घाइचउक्कखएण हवे ॥१६६॥ अयं-अनन्तानुवन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियो के अपने लिगम्यक्त्व होता है सो मेरुके समान निष्कम्प अर्थात् निश्चल है, सुनिर्मल पर नादि मलने रहित है, अक्षय अर्थात् नाश से रहित है तथा अनन्त अर्थात् गुन ६५ मे ६५७, धवल पु ६ पृ २६३ से २६६ ; ज घ.पु १३ पृ. ६१, से.१००। -12, पु? पृ १७२ प्रा प स पृ ३५। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७२ ] - लब्धिसार [ १४५ अर्थ-सादि मिथ्यादृष्टि जीव वेदकसम्यक्त्व सहित देशचारित्र को ग्रहण करता है उसके अधीकरण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते है, उनमें गुणश्रेणि निर्जरा नही होती है, अन्य स्थितिखडादि सभी कार्य होते है । वह अपूर्वकरणके अतिम समयमे वेदकसम्यक्त्व और देशचारित्रको युगपत् ग्रहण करता है, क्योकि अनिवृत्तिकरण बिना ही इनकी प्राप्ति सम्भव है । वहा प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्तिवत् ही करणो का अल्पबहुत्व है, इसलिए यहा अधकरणकालसे अपूर्वकरणका काल संख्यातवेभागप्रमाण है तथा अपूर्वकरणके कालमे सख्यातहजार-स्थितिखण्ड होने पर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है। विशेषार्थ- इसीप्रकार असयतवेदकसम्यग्दष्टि भी दो करणो के अन्तसमयमें देशचारित्रको प्राप्त होता है । मिथ्यादृष्टिके कथन से ही सिद्धान्तके अनुसार असयतसम्यग्दष्टिका भी ग्रहण करना । यहा उपशम सम्यक्त्वका अभाव होने से उस सम्बन्धी गणश्रेणि नही है और देशचारित्रको अभी तक प्राप्त नही किया इसकारण उस सम्बन्धी गणश्रेणि भी नही है तथा वेदकसम्यक्त्व गुणश्रेणिका कारण नही है इसलिये यहां अपर्वकरणमे गणश्रेणिका अभाव कहा है। अनिवृत्तिकरण, कर्मों के सर्व उपशम या निर्मल क्षय होने के समय होता है, क्षयोपशममे नही होता अत. यहा अनिवृत्तिकरणका कथन नही किया'। अधः प्रवत्तकरणका कथन जिसप्रकार दर्शनमोहकी उपशामनामे किया गया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए, क्योकि उससे इसमें कोई भेद नही है। अधःकरणके समाप्त होने पर अपूर्वकरणका प्रारम्भ होता है। दर्शनमोहकी उपशामना प्रकरणमे इसका कथन हो चुका है। यहा इतनी विशेषता है कि देशचारित्रलब्धिकी प्रधानतासे वहाके परिणामोंसे यहाके परिणाम अनन्तगुणे होते है । पूर्ववत् जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डक सागरोपम पृथक्त्वप्रमाण प्रथम समयमें होता है । मध्यमें वह अनेकप्रकारका होता है । अशुभकर्मो के अनन्त बहुभागरूप अनुभागकाण्डकघात होता है, किन्तु शुभकर्मोका अनुभागघात नही १. जब यह जीव दर्शनमोहनीय की उपशामना, चारित्रमोहनीय की सर्वोपशामना दर्शनमोह की क्षपणा, चारित्रमोहकीक्षपणा, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना (ज घ पु. १३ । प. १९७-९८) करता है तब अनिवृत्तिकरण होता है । (ज. ध पु. १३ पृ. ११४ व ज. प. पु. १३ प. २१४) २. ध. पु ६ , ज. ध पु १३ प. १२० । ' Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] लब्धिसार [ गाथा १७०-१७२ विशेषार्थ-मिथ्यादृष्टिजीव पहले ही अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर स्वस्थानके योग्य प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्धिको प्राप्त हुआ आयुकर्मको छोड़ कर सभी कर्मोके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्मको अन्त कोडाकोडीके भीतर करता है, क्योकि उस कालमे होनेवाले विशुद्धिरूप परिणाम उससे उपरिम स्थितिवन्ध और स्थितिसत्कर्मके विरुद्ध स्वभाववाले होते है और उनके उसप्रकारके हुए विना सयमासयमगुणकी प्राप्ति नही बन सकती । प्रकृत विशुद्धके निमित्तसे होनेवाला यह एक फल है। दूसरा फल यह है कि साता आदि शुभ कर्मोके अनुभागबन्ध और अनुभागसत्कर्मको चतु स्थानीय करता है, क्योकि उनका अनुभाग शुभपरिणामनिमित्तक होता है, परन्तु पाच ज्ञानावरणादि अशुभकर्मोके अनुभागबन्ध और अनुभागसत्कर्मको नियमसे द्विस्थानीय करता है, क्योकि विशुद्धिरूप परिणामोके निमित्तसे उन कर्मोके उससे ऊपरके अनुभाग का घात हो जाता है। ___ अब उपशमसम्यक्त्वके साथ देशसंयमको ग्रहण करनेवाले जीवका कार्य बतलाते हैं मिच्छो देसचरितं उवसमसम्मेण गेरहमाणो हु । सम्मत्तुप्पत्तिं वा तिकरण चरिमम्हि गेरहदि हु ॥१७०॥ अर्थ-अनादि या सादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वसहित देशचारित्र ग्रहण करता है । सो वह दर्शनमोहके उपशम मे जो विधान कहा है उसी विधान द्वारा तीन करणोके अन्तिमसमयमे देशचारित्रको ग्रहण करता है । दर्शनमोहके उपशमकालमें जो प्रकृति-स्थितिबन्धापसरण, स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य कहे गये हैं वे सभी कार्य यहा भी करता है कुछ भी विशेषता नही है । अथानन्तर दो गाथाओं से मिथ्यादष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वके साथ देश चारित्रके ग्रहणके समय होनेवाली विशेषता बतलाते हैं मिच्छो देसचरित्तं वेदगसम्मेण गेरहमाणो हु । दुकरणचरिमे गेण्हदि गुणलेढी णंत्थि तक्करणे ॥१७१॥ सम्मत्तुप्पत्तिं वा थोवबहूत्तं च होदि करणाणं । ठिदिखंडसहस्सगदे अपुवकरणं समप्पदि हु॥१७२॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४७ गाथा १७५ ] लब्धिसार अर्थ-एकान्तवृद्धिकालमे असख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यका अपकर्षण होता है । बहुत स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर स्वस्थान सयतासयत अर्थात् अध प्रवृत्त देशसयत हो जाता है। ___ विशेषार्थ-देशसयतके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त प्रतिसमय अनन्तगणी विशुद्धियुक्त बढता है सो इसे एकान्त वृद्धि कहते है। इसके कालमे प्रतिसमय असख्यातगुणे क्रमसे द्रव्यको अपकर्षित करके अवस्थित गुणश्रेरिणायाममे निक्षिप्त करता है । वहा एकान्तवृद्धिकालमे स्थितिकाण्डकादि कार्य होता है तथा बहुत स्थितिखण्ड होने पर एकान्त वृद्धिका काल समाप्त होने के अनन्तर विशुद्धताकी वृद्धिसे रहित होकर स्वस्थान देशसयत होता है इसको अधाप्रवृत्त देशसयत भी कहते है। इसका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्वप्रमाण है । ___ अब अथाप्रवृत्तसयतके काल में होने वाले कार्य विशेषका स्पष्टीकरण करते हैं ठिदिरसघादो णस्थि हु अधापवत्ताभिधाणदेसस्स । पडिउट्ठदे मुहुत्तं संते ण हि तस्स करणदुगा ॥१७॥ अर्थ-अधःप्रवृत्त देशसंयतके. स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नही होता । यदि देशसंयतसे गिर गया और फिर भी अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा वापस देशसंयत हो गया उसके भी स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात नही होते तथा दो करण भी नही होते। विशेषार्थ-करण परिणामोंका अभाव होने पर भी एकान्तानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए संयमासयमके परिणामोकी प्रधानतावश स्थितिकाण्डकघात व अनुभागकाडकघात होते है, परन्तु एकान्तानुवृद्धिकालकी समाप्ति होनेपर अध प्रवृत्त देशसयतके स्थितिकाडकघात और अनुभागकाण्डकघात नही होते, क्योकि करणसम्बन्धी विशुद्धिके निमित्तसे हुआ प्रयत्न-विशेष एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें नष्ट हो जाता है। यदि परिणाम-निमित्तके वश सयतासंयतसे च्युत होकर, किन्तु स्थिति और अनुभागमे वद्धि न कर फिर भी अतिशीघ्र अन्तर्मुहूर्तकालके भीतर ही परिणाम प्रयत्नवश संयमासयम को प्राप्त होता है, उसके भी अधःप्रवृत्त संयतासंयतके समान स्थितिघात और अनभागघात नही होता, क्योकि स्थितिवृद्धि और अनुभागवृद्धिके बिना देशसंयमको प्राप्त होने १. क. पा. सु प. ६६३ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गार्था १७३ - १७४ १४६ ] होता । पिछले समयकी अपेक्षा स्थितिबन्ध पल्योपमका सख्यातवाभाग हीन होता है । सहस्रो अनुभागकाण्डकोके व्यतीत होनेपर स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल स्थितिबन्धकाल व अनुभागकाण्डक-उत्कीरणकाल ये तीनो एक साथ समाप्त होते है । इसप्रकार हजारो स्थितिकाण्डकोके व्यतीत होने पर अपूर्वकरणका काल समाप्त होता है । श्रागे देशसंयमकी प्राप्ति के प्रथमसमयसे गुणश्रेणिरूप कार्यविशेषका निर्देश करते हैं लब्धिसार से काले सवदी असं समयष्पवद्धमाहरियं । उदयावलिस वाहिं गुणसेढीमवट्ठिदं कुदि ॥ १७३ ॥ अर्थ- देशव्रती होनेके कालमे अर्थात् प्रथमसमय में असंख्यात समयप्रवद्धोंकों अपकर्षणकर उदयावलिबाह्य अवस्थित गुणश्रेणिकी रचना होती है' । विशेषार्थ – संयमासयमगुणको प्राप्त होने के प्रथमसमयमें ही उपरिम स्थितियों के द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणिनिक्षेप करता हुआ उदयावलिके भीतर ( निक्षेपार्थ अपकृष्टद्रव्यको ) असंख्यातलोकका भाग देने पर जो भाग लब्ध प्रावे उतने द्रव्यको गोपुच्छाकारसे निक्षिप्तकर उसके बाद उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थिति में असंख्यात - समयप्रबद्धोका सिचन करता है । पुन. उससे उपरिम अनन्तर स्थितिमे श्रसंख्यातगुणे द्रव्यका सिंचन करता है । इंसप्रकार अन्तमुहूर्त ऊपर जाकर गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक असख्यातगुणित श्रेणिरूपसे सिंचन करता हुआ जाता है । तदनन्तर उपरिमस्थितिमे असंख्यातगुणे हीन द्रव्यका सिंचन करता है । इसके पश्चात् प्रतिस्थापनावलिसे पूर्व अन्तिम स्थिति प्राप्त होनेतक उत्तरोत्तर विशेषहीन द्रव्यका सिंचन करता हैं, इस प्रकारका गुणश्रेणिनिक्षेप यहांपर प्रारम्भ किया । घब देशसंयत के कार्य विशेषका ( एकान्तानुवृद्धि संयंत व अथाप्रवृत्त देशसयतका ) कथन करते हैं संक्किमे एयंत डिडकालोत्ति । बहुठिदिखंडे ती अद्यापवत्तो हवे देसो ॥ ९७४ ॥ १ क. पा. सु. पृ ६६२ सूत्र २४, घ पु. ६ पृ. २७२ का दूसरा पेरा । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १७७-१८३ लब्धिसार । १४६ का गुणश्रेणिमें निक्षेप करता है । परिणामोंके अनुसार ही गुणश्रेणि निक्षेपकों आरम्भ करता है । गुणश्रेणि आयाम सर्वत्र अवस्थित ही होता है । अथानन्तर सात गाथाओं में आचार्यदेव अल्पबहुत्वकथनकी प्रतिज्ञा पूर्वक अल्पबहुत्वका कथन करते हैं विदियकरणादु जावय देसस्तेयंतवड्डि चरिमेत्ति । अप्पाबहुगं वोच्छं रसखंडद्धाण पहुदीणं ॥१७७॥ अंतिमरसखंडुक्कीरणकालादो दु पढमो अहियो। चरिमट्ठिदिखंडुक्कीरणकालो खंखगुणिदो हु ॥१७८॥ पढमट्ठिदिखंडुक्कीरणकालो साहियो हवे तत्तो । एयंतवड्डि कालो अपुवकालो य संखगुणिदकमा ॥१७॥ अवरा मिच्छतियद्धा अविरद तह देससंजमद्धा य । छप्पि समा खंखगुणा तत्तो देसस्स गुणसेढी ॥१०॥ चरिमाबाहा तत्तो पढमाबाहा य संखगुणिदकमा । तत्तो असंखगुणिदो चरिमठिदिखंडो णियमा॥१८१॥ पल्लस्त संखभागं चरिमट्ठिदिखंडयं हवे जम्हा । तम्हा असंखगुणिदं चरिमट्ठिदिखंडयं होई ॥१८२॥ पढमे अवरो पल्लो पढमुक्कस्सं य चरिमठिदिबंधो। पडमो चरिमं पढमट्ठिदिसंतं संखगुणिदकमा ॥१८३॥ अर्थ व विशेषार्थ-अपूर्वकरण से लगाकर एकान्तवृद्धिके अन्तसमय पर्यन्त सम्भव अनुभागकाण्डकोत्कीरणकाल आदिका अल्पबहुत्व कहूंगा । एकान्तानुवृद्धिकालके भीतर जो अन्तिम अनुभागका उत्कीरणकाल है वह सबसे स्तोक है ॥१॥ उससे अपूर्व १. क. पा सुत्त पृ. ६६३ सूत्र ३१ । २. ध. पु. १२ पृ. ७६ । ३. ज.ध.पु १३ पृ. १२६-३० । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] लब्धिसार [ गाथा १७६ वाले के तत्प्रायोग्य विशुद्धिके सम्बन्धविना करण परिणामोका होना असम्भव है । तीव्र विराधना के कारणभूत बाह्यपदार्थोका सम्पर्क हुए विना तत्प्रायोग्य सक्लेश परिणामोसे युक्त अन्तरङ्ग कारण के द्वारा जीवादि पदार्थोको दूषित न कर ग्रधस्तन गुणस्थानमे जाकर फिर भी बाह्यकारण निरपेक्ष तत्प्रायोग्य विशुद्धिके साथ मन्द सवेगरूप परिणामोके द्वारा देशसंयम को ग्रहण करनेवाले के अनुभागकाण्डक घात, स्थितिकाण्डकघात व करण नही होते । यदि कोई जीव संक्लेशकी बहुलता से संयतासंयतसे मिथ्यात्वरूपी पातालमे गिरकर फिर भी अन्तर्मुहूर्त काल से या 'वेदक प्रायोग्यभाव नष्ट नही हुआ है' ऐसे विप्रकृष्टकालसे विशुद्धिको पूरकर सयमासयम को प्राप्त होता है तो उसके दो करण होते है, अन्यथा बढाई गई स्थिति और अनुभागका घात नही वन सकता' । आगेको गाथामें अथाप्रवृत्तसंयत के गुणश्रेणि द्रव्यकी प्ररूपणा करते हैं-देसो समये समये सुमंतो संकिलिस्समाणो य । चडिहाणिदव्वादवट्टिदं कुणदि गुणसेटिं ॥ १७६ ॥ अर्थ - अध' प्रवृत्त देशसयतके सर्वकालमे विशुद्धि या संक्लेशको प्राप्त होने पर भी प्रति समय यथा सम्भव चतु स्थानपतित वृद्धि-हानि को लिये गुणश्रेणि विधान होता है । विशेषार्थ- -- जबतक देशसंयत रहता है तबतक प्रतिसमय असंख्यात समयप्रबद्धोका अपकर्षणकर गुरणश्रेणि निर्जरा करता है, क्योकि जबतक सयमासंयम गुरण नष्ट नही होता तबतक संयमासयम निमित्तक गुणश्रेणि निर्जराकी प्रवृत्ति में कोई बाधा नही है । इसलिये सयतासयत गुणश्रेणि निर्जराका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, किन्तु विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ उक्त जीव प्रतिसमय असख्यातगुणे सख्यातगुणे, सख्यातभाग अधिक या असंख्यातभाग अधिक प्रदेशपुञ्जका गुणश्रेणिमें निक्षेप करता है तथा सक्लेशको प्राप्त हुआ उक्त जीव इसीप्रकार असख्यातगुणे होन, सख्यातगुणे हीन, संख्यातभाग हीन या असंख्यात भागहीन प्रदेशपु ज १. ज घ पु. १३ पृ १२४, १२५, १२६, १३१ व १३२ । २. घ पु८ पृ८३, जंघ पु १३ पृ. १२६, गो जी गा. ४७६, घ. पु. १ पृ. ३७३, प्रा पं. सं . १ गा. १३५ । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गायो १८४ ] लब्धिसार कोडाकोडीप्रमाण जघन्य स्थितिबन्धका ग्रहण है ॥१५॥ उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें होनेवाला स्थितिबन्ध सख्यातगुणा ।।१६।। उससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम समयमे होनेवाला जघन्य स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणा है ॥१७॥ उससे अपूर्वकरणके प्रथम समयमे घातके बिना प्राप्त अन्तःकोडाकोड़ीप्रमाण उत्कृष्ट सत्कर्म संख्यातगुणा है' ।। १८ ।। ( गा १८३ ) देशसंयमकी जघन्य व उत्कृष्टलब्धिके साथ उसके अल्पबहुत्वका कथन करते हैं अवरवरदेसलद्धी सेकाले मिच्छसंजसुववरणे । अवरादु अणंतगुणा उक्कस्सा देसलद्धी हूँ ॥१८४॥ अर्थ-मिथ्यात्वके सम्मुख जीवके देशसंयमकी जघन्यलब्धि होती है और संयमके अभिमुख जीवके देशसंयमकी उत्कृष्टलब्धि होती है, जघन्यसे उत्कृष्ट देशसंयमलब्धि अनन्तगुणी है। विशेषार्थ-संयतासयतजीव कषायोके तीव्र अनुभागके उदयसे संक्लिष्ट होकर अनन्तर समयमे मिथ्यात्वको प्राप्त होगा, उस अन्तिम समयवर्ती देशसंयतके जघन्य देशसंयमलब्धि होती है, क्योकि कषायोके तीन अनुभागोदयसे उत्पन्न हुए सक्लेशसे अोतप्रोत देशसयम लब्धिके संबसे जघन्यपनेके प्रति विरोध नही पाया जाता । जो देशसंयत सर्वविशुद्ध होकर सयमके अभिमुख हुआ है, अन्तिम समयवर्ती उस देशसंयतके उत्कृष्ट देशसयमलब्धि होती है, क्योंकि प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होनेवाले सयमके अभिमुख हुए जीवके द्विचरम समयमे उदीर्ण हुए कषायों सम्बन्धी अनुभागस्पर्द्धको से अनन्तगुणे हीन अन्तिम समयसम्बन्धी उदीर्ण हुए स्पर्धकों के द्वारा उत्पन्न हुई अन्तिम विशुद्धि अर्थात् चरमसमयकी देशसयमलब्धिके सर्वोत्कृष्टपनेके प्रति विरोध का अभाव है । जघन्य देशसयमलंब्धि से उत्कृष्ट देशसयमलब्धि अनन्तगुणी है, क्योकि पूर्व के जघन्य लब्धिस्थानसे असख्यात लोकप्रमाण छह स्थानों को उल्लंघकर उत्कृष्ट देशसयम लब्धिस्थानको उत्पत्ति होती है । १. ज.ध.पु. १३ पृ. १३३ से १३७ तक, ध पु. ६ पृ. २७४-२७५, क. पा. सु. ६३४-३५ । २. क. पा सु पृ. ६६६ सूत्र ५५-५६ । ३. ज.ध. पु. १३ पृ १४०-१४१ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १८३ १५० ] करणमें प्रथम अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल विशेष अधिक है ॥२॥ उससे एकान्तानुवृद्धिकालका अन्तिम स्थितिकाण्डक उत्कीरणकाल व जघन्य स्थितिबन्धकाल दोनो तुल्य होकर सख्यातगुण है, क्योकि एक स्थितिकाण्डकमे हजारों अनुभागकाण्डक होते है ।। ३ ।। ( गा. १७८ ) उससे अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकाडक व स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है ॥४॥ उससे सख्यातगुणा एकान्तानुवृद्धिकाल है । यद्यपि यह काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है, तथापि इस एकान्तानुवृद्धिकालमे सख्यातहजार स्थितिकाडक उत्कीरणकाल व स्थितिवन्धकाल होते है इसलिये यह सख्यातगुणा हो जाता है ।।५।। उससे अपूर्वकरणका काल सख्यातगुणा है । यहा तत्प्रायोग्य सख्यात अक गुणाकार है । यहा पर अनिवृत्तिकरण नही है इसलिये तद्विषयक अल्पबहुत्वका विचार भी नहीं किया गया है ।।६।। ( गा. १७६) उस अपूर्वकरणकालसे जघन्य सम्यक्त्वकाल, मिथ्यात्वकाल, सम्यग्मिथ्यात्वकाल तथा जघन्य असंयत-देशसयतकाल व सकल सयमकाल ये छहो काल परस्पर सदृश होकर भी सख्यातगुणे है ॥७॥ उससे संयमासयम (देशसयम) गुणश्रेणिकाल सख्यातगुणा है ॥८॥ (गा. १८० ) उससे एकान्तानुवृद्धिकालके अन्तिम बन्धकी जघन्य आबाधा संख्यातगुणी है ॥६॥ उससे अपूर्वकरण के प्रथम समयमे होने वाले बन्धकी आबाधा सख्यातगुणी है। यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होकर भी पूर्व की आबाधासे संख्यातगुणी है ॥१०।। उससे एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमे होनेवाला पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण जघन्य स्थितिकाण्डक असख्यातगुणा है, क्योकि चरम स्थितिकांडक पल्यके सख्यातवेभाग प्रमाण है इसलिये पूर्वके अन्तर्मुहूर्तकालसे यह चरम स्थितिकांडक असख्यातगुणा है ।। ११ ॥ ( गा. १८१-८२) उससे अपूर्वकरणका प्रथम जघन्य स्थितिकाडक, पल्योपमके सख्यातवेभाग होते हुए भी सख्यातगुणा है, क्योकि पूर्वोक्त चरम स्थितिकांडकसे सख्यात हजार स्थितिकाण्डक गुणहानिया नीचे उतरकर यह अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्राप्त हुआ है ।।१२।। उससे सख्यातगुणा पल्य है ॥१३॥ उससे अपूर्वकरण के प्रथम समयमे होनेवाला सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट स्थितिकांडक है ॥१४॥ उससे सख्यातगुणा जघन्य स्थितिवन्ध है, क्योकि यहा एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें होनेवाले अन्तः Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८७ ] लब्धिसार [ १५३ कषायोदय स्थानोके बिना अनन्तगुणस्वरूप देशसयमलब्धिस्थानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । यह एक षट्स्थान है । इसप्रकार असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान प्रतिपातस्थान है। इन प्रतिपात लब्धिस्थानोका उल्लघनकर असख्यातलोकप्रमाण षटस्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान है। ये पिछले स्थानोसे असख्यातगुरणे स्थानस्वरूप है। उससे भी असख्यातगुणे अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थानोके योग्य असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतितस्थान होते है जो तदनन्तर समयमे सयमको ग्रहण करनेवाले जीवके लब्धिस्थानोके समाप्त होने तक पाये जाते है । प्रतिपात आदि तीनप्रकारके ये सब षट्स्थानपतित देशसयमलब्धिस्थान असख्यातलोकप्रमाण है' । . जिस स्थानके होने पर यह जीव मिथ्यात्वको या असयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपातस्थान कहा जाता है । जिस स्थानके होनेपर यह जीव सयमासयमको प्राप्त होता है वह प्रतिपद्यमान स्थान कहलाता है । स्वस्थानमे अवस्थानके योग्य और उपरिम गणस्थानके अभिमुख हुए जीवके स्थान ये सब शेष लब्धिस्थान अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्वरूप अनुभय स्थान हैं । अथानन्तर देशसंयमके जघन्य व उत्कृष्ट रूप से उक्त भेद कौन किसमें हैं इसका स्पष्टीकरण करते हैं णरतिरिये तिरियणरे अवरं अवरं वरं वरं तिसुवि । . लोयाणमसंखेज्जा छट्ठाणा होति तम्मज्झे ॥१८७॥ . अर्थ-उन प्रतिपात, प्रतिपद्यमान व अनुभय इन तीनो देशसयम लब्धिस्थानों मे प्रथम मनुष्य योग्य जघन्यस्थान होता है । पुन तिर्यच योग्य जघन्य स्थान होता है । तत्पश्चात् तिर्यंचयोग्य उत्कृष्टस्थान होता है उसके पश्चात् मनुष्ययोग्य उत्कृष्ट स्थान होता है । उनके मध्यमे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित स्थान होते है। १ २ ज.ध. पु १३ पृ १४३-१४६ । .. . ज. ध पु १३ पृ. १४२ । सयमासंयम से गिरने के अन्तिम समयमे होने वाले स्थानोको प्रतिपातस्थान कहते हैं । संयमासंयमको धारण करनेके प्रथम समयमे होने वाले स्थानो को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं। इन दोनो स्थानो को छोडकर मध्यवर्ती समयोमे सम्भव समस्त स्थानोको अप्रतिपात अप्रतिपद्यमान या अनुभयस्थान कहते है । यह उक्त कथन का सरल शब्दोमे तात्पर्य है । (ध पु. ६ पृ. २७७, ज. प. पु. १३ प. १४८ आदि) , . Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १८५-१८६ १५२ ] जघन्य देशसंयमके अविभागी प्रतिच्छेदों के प्रमाणका कथन करते हुए देशसंयमके मेदों व उसमें अन्तरका कथन करते हैं अवरे देसट्ठाणे होंति अणंताणि फड्डयाणि तदो। छट्ठाणगदा सव्वे लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१८५॥ तत्थ य पडिवायगदा पडिवच्चगदात्ति अणुभयगदात्ति । उवरुवरिलद्धिठाणा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१८६॥ अर्थ-सर्व जघन्य देशसयमलब्धिस्थानमे अनन्त स्पर्धक होते है । षट्स्थानपतित वृद्धियोके द्वारा असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्व लब्धिस्थान होते है ।।१८।।' देशसयमलब्धिस्थान तीन प्रकारके हैं- १. प्रतिपातगत २. प्रतिपाद्यमानगत ३ अनुभयगत। ये लब्धिस्थान उपर्युपरि होते हुए असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित है ॥१८६ ।। विशेषार्थ-यह जघन्य देशसयमलब्धिस्थान सब जीवोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद अनन्तस्पर्धक कहे जाते हैं, क्योकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोका वाची स्वीकार किया गया है । अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमे गिरनेके सम्मुख हुए सयतासयतके अन्तिम समयमे कषायोके अनन्त अनुभाग स्पर्धकोके उदयसे उत्पन्न हुआ है, इसप्रकार कार्यमे कारण के उपचारसे "अनन्तस्पर्धक" कहे गये है। जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशिप्रमाण भागहारसे भाजितकर वहा प्राप्त एक भागको मिलानेपर जघन्य देशसयमलब्धिस्थानसे अनन्तवाभाग अधिक होकर दूसरा लब्धिस्थान उत्पन्न होता है । जघन्य लब्धिस्थानसे अगुलके संख्यातवेभागप्रमाण अनतभागवृद्धि-काडक जाकर असख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। तत्पश्चात् असख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातभागवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् सख्यातभागवृद्धिकांडक जाकर सख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। तत्पश्चात् सख्यातगुणवृद्धिकांडक जाकर असख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। तत्पश्चात् असख्यातगुणवृद्धि जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है तब कषायोदयस्थान अनन्तगुणा हीन होता है, क्योकि अनन्तगुणेहीन १. घ पु. ६ पृ २७६ दूसरा पेरा। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १८८ ] लब्धिसार [ १५५ प्रतिपातस्थानोका अध्वान (आयाम) स्तोक है, उससे प्रतिपद्यमानस्थानोंका अध्वान असख्यातगुणा है। उससे अनुभयस्थानोका अध्वान असख्यातगुणा है । गुणकार सवत्र असख्यातलोकप्रमाण है। ___अब देशसंयमके उक्त भेदों में से किसका कौन स्वामी है इसका निर्देश करते हैं पडिवाददुगंवरवरं मिच्छे अयदे अणुभयगजहणणं । मिच्छचरविदियसमये तत्तिरियवरं तु सट्ठाणे॥१८८॥ अर्थ-देशसंयतसे मिथ्यात्वको जानेवाले के जघन्य प्रतिपातस्थान और असयतसम्यग्दप्टिगुणस्थानको जाने वाले के उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान होते है। इसीप्रकार मिथ्यात्वसे देशसयम प्राप्त करनेवालेके जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान होता है और असयत चतुर्थगुणस्थानसे देशसंयमको प्राप्त करनेवालेके उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है। "पडिवाद दुग" से प्रतिपातस्थान व प्रतिपद्यमानस्थान इन दोनों स्थानोंका ग्रहण होता है । मिथ्यात्वसे देशसंयमको प्राप्त करनेके दूसरे समयमें जघन्य अनुभयस्थान होता है । तिर्यचोका उत्कृष्ट अनुभयस्थान स्वस्थानमे ही होता है । विशेषार्थ-मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सबसे अधिक सक्लेश परिणामसे युक्त देशसयतमनुष्यके सबसे जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होता है। उससे, मिथ्यात्वमें गिरनेवाले तिर्यचका जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके लब्धिस्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है। उससे तत्प्रायोग्य सक्लेश द्वारा असयमको गिरनेवाले देशसंयत तिर्यचके अन्त समयमें होनेवाला तिर्यच योग्य उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है। यह वेदकसम्यक्त्वसे युक्त असयमको प्राप्त होनेवाले तिर्यचके होता है। इसका अनन्तगुणा होना प्रसिद्ध नहीं है, असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोंको उल्लघकर यह स्थान प्राप्त होता है। उससे तत्प्रायोग्य जघन्य सक्लेशसे सम्यक्त्वके साथ असंयमको प्राप्त होनेवाले देशसयत मनुष्यके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर यह स्थान प्राप्त होता है। तत्प्रायोग्य विशुद्धि से मनुष्य मिथ्यात्वीके सयमासंयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमें प्रतिपद्यमान जघन्य लब्धिस्थान अनन्त, गुणा है । तत्प्रायोग्य विशुद्धिके द्वारा मिथ्यात्वसे देशसयमको ग्रहण करनेवाले तिर्यंचके प्रथम समयमें यह तिर्यंच योग्य जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान पूर्वके स्थानसे अनंत Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १८७ १५४ ] विशेषार्थ-सबसे जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर ऊपर असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपात स्थान मनुष्योके योग्य ही होकर तबतक जाते है जबकि तत्प्रायोग्य असंख्यातलोकप्रमाण पस्थानोको उल्लघन कर तिर्यंचोंके योग्य जघन्य प्रतिपातस्थान उत्पन्न होता है । वहासे लेकर तिर्यच और मनुष्य दोनोंके साधारणरूपसे पाये जानेवाले असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपातस्थानोके जाने पर उस स्थान पर तिर्यंचसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपातस्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। तत्पश्चात् पुन' असंख्यातलोकप्रमाण स्थानं आगे जाकर इस स्थान पर मनुष्यसम्बन्धी उत्कृष्ट प्रतिपांतस्थान विच्छिन्न होता है । इसके वाद असख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुन. मनुष्य संयतासंयंत का जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर तिर्यंच सयतासयतका जघन्य प्रतिपद्यमान स्थान होता है। वहा से लेकर दोनोके ही समानरूपसे असख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर वहां तिर्यंच सयतासयत के उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थानकी व्युच्छित्ति हो जाती है। उससे ऊपर भी असख्यातलोकप्रमाण स्थान जाकर मनुप्योका उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान स्थान विच्छिन्न हो जाता है । तत्पश्चात् असख्यातलोकप्रमाण अन्तर होकर पुन' मनुष्य सयतासयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। उसके वाद अंसख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यंच सयतासयतके जघन्य अनुभयस्थान होता है। तत्पश्चात् दोनों के ही साधारण असख्यातलोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर तिर्यच सयतासयतके उत्कृष्ट अनुभयस्थान विच्छिन्नं हो जाता है । तत्पश्चात् फिर भी असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपरं जाकर मनुष्य संयतासंयतका उत्कृष्ट अनुभयस्थान उत्पन्न होता है। यहा पर प्रतिपातस्थान अधस्तन गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले अन्तिमसमय वाले देशसयतके होते हैं। प्रतिपद्यमानस्थान देशसयमको ग्रहण करनेके प्रथमसमयमें होता है । उपर्युक्त अन्तिम और प्रथम समयको छोडकर शेष समस्त मध्यम अवस्थाके योग्य स्वस्थान सम्बन्धी और उपरिम गुणस्थानके अभिमुख हुए स्थान अनुभयस्थान है । इन तीनो स्थानोकी सदृष्टि इसप्रकार है ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० प्रतिपात लब्धि स्थान । अन्तर । ००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००० प्रतिपद्यमान लब्धि स्थान । अन्तर । ०००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००० अनुभय-लब्धि स्थान । १. प. पु. ६ पृ. २७७; ज.ध.पु १३ पृ. १४८ । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार माथा १८६-१६० ] लब्धिसार [ १५७ प्रथानन्तर सकलचारित्रकी प्ररूपणा करने हेतु अगला सूत्र कहते हैंसयलचरित्तं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च । सम्मत्तुप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिरहदो पढमं ॥१८॥ अर्थ-क्षयोपशम, उपशम और क्षायिकके भेदसे सकलचारित्र तीनप्रकारका है। उपशमसम्यक्त्व सहित जो क्षयोपशमचारित्रका ग्रहण होता है, उसका विधान प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समान है। विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्यात्व पूर्वक होती है' । अतः मिथ्यादष्टिजीव प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित सकलचारित्रको ग्रहण करता है तो वह क्षयोपशमचारित्रको ही अप्रमत्तगुणस्थानसहित ग्रहण करता है। क्षायोपशमिकचारित्र प्रमत्त व अप्रमत्तसयत इन दो गुणस्थानोमे ही होता है, क्योकि ऊपरके गुणस्थान उपशम या क्षपकश्रेरिणमे ही होते है और उनमे उपशम या क्षायिकचारित्र होता है । प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि उपशम या क्षपकवेगिग पर आरोहण नही कर सकता अत उसके अप्रमत्तगुणस्थानसे ऊपरके गुणस्थान सम्भव नही है । सकलचारित्र सहित प्रथमोपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करनेवाले मनुष्यके करणलब्धिमे इतने अधिक विशुद्ध परिणाम हो जाते है कि वह अप्रमत्तगुणस्थानमे ही जाता है, पुनः गिरकर प्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होता है । आगे वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वो प्रादि जीवके सकलसंयम ग्रहण करते समय होने वाली प्रक्रिया विशेष को बताते हैं वेदगजोगो मिच्छो अविरददेसो य दोषिण करणेण । देसवदं वा गिरहदि गुणसेढी णस्थि तक्करणे ॥१०॥ अर्थ-वेदकसम्यक्त्वसहित क्षयोपशमचारित्रको मिथ्यादृष्टि या असयत अथवा देशसयतजीव देशचारित्र ग्रहण करनेके सदृश ही अध प्रवृत्तकरण व अपूर्वकरण, इन दो करणोके द्वारा ग्रहण करता है। उन करणोमे गुणश्रेरिण नही होती है, किन्तु सकलसंयमके ग्रहण समयसे गुणश्रेणि होती है। १. घ. पु. १ पृ. ४१०, ध. पु ६ पृ २०६-७ । Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १८८ १५६ ] गुरणा है, क्योकि जाति विशेष कारण है । असयत सम्यग्दृष्टि तिर्यचके सर्वविशुद्धिसे देशसयमको ग्रहण करने के प्रथमसमयमे उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान होता है जो पूर्वस्थान से अनन्तगुणा है । सर्वविशुद्ध असयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यके देशसयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमे पूर्वस्थान अनन्तगुणा उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान लव्धिस्थान होता है । जघन्य प्रतिपद्यमान स्थानवाले मनुष्यके दूसरे समय मे जघन्य अनुभयस्थान होता है । इसीप्रकार तिर्यंचके जघन्य अनुभयस्थान होता है । ये दोनो स्थान अपने से पूर्व - पूर्व स्थानकी पेक्षा अनन्तगुणे हैं । सर्वविशुद्धि तिर्यंचके पूर्वस्थानसे अनन्तगुणा उत्कृष्ट अनुभवस्थान स्वस्थानमें ही होता है । सयम के अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध देशसंयत मनुष्य के अन्तिम समयमे उत्कृष्ट अनुभयस्थान अनन्तगुरणा होता है' | देशसयतजीव अप्रत्याख्यानावरणकषायको नही वेदता, क्योकि वहा उसकी उदयशक्तिका अत्यन्तक्षय पाया जाता है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी देशसयमका आवरण नही करती, क्योकि सकलसयमका प्रतिबन्ध करनेवाले कषायका देशसयम मे व्यापार नही होता ? शेष चार सज्वलनकषाय और नौ नोकषाय उदीर्ण होकर देशसयमको देशघाति करते है । अनन्तानुबन्धीकपायके उदयका विनाश पहले ही हो गया है । ये तेरह कषाये देशघातिरूपसे उदीर्ण होकर देणसयमको क्षायोपशमिक करती है । यदि चार सज्वलनकषाय और नौ नोकपायका देशघाति उदय न हो तो देशसंयमकी उत्पत्ति नही हो सकती । यदि प्रत्याख्यानका वेदन करता हुआ शेष चारित्रमोहनीयका वेदन नही करे तो देशसयमलब्धि क्षायिक हो जावे । चार सज्वलन और नौ नोकपायका देशघातिरूपसे उदय श्रवश्यभावी है । ॥ इति देशचारित्र विधान ॥ ज. घ. पु १३ पृ १४६ - १५३, व पु. ६ पृ २७८-२५०, क. पा. सु. पृ. ६६६-६७ । ध. पु. ५ पृ. २०२, ज घ. पु. १३ पृ १५४ । तात्पर्य यह है कि ४ सज्वलन और नोकषायो के सर्वघातिस्पर्धको के उदयक्षय से; और उन्ही के देशघाति-स्पर्घंको के उदय से सयमासयम लब्धि अपने स्वरूप को प्राप्त करती है । इसलिये यह क्षायोपशमिक है । ( जयधवलामूल ताम्रपत्र वाली प्रति प १७६४, जघ १३११५५ ) अथवा क्षायोपशम नामक चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर सयतासंयतपना उत्पन्न होता है इसलिये यह (देशसयम ) भाव क्षायोपशमिक है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, सज्वलन चतुष्क और नवनोकषायो के उदय के सर्वात्मना चारित्रविनाशशक्ति का प्रभाव होने से ; उदय की ही क्षयज्ञा है । उन्ही प्रकृतियो की उत्पन्न हुए चारित्र का श्रावरण नही करने के कारण उपशम सज्ञा है । क्षय और उपशम इन दोनो से उत्पन्न देशसयम भाव क्षायोपशमिक है । (घ ५।२०२, घ ७ । ४. ज. घ. पु १३ पृ १४६-१५६, क. पा. सु. पृ. ६६७-६८ । १. २ ३. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गार्थो १६५ ] लब्धिसार [ १५६ अब जघन्य संयतके विशुद्धि सम्बन्धी अविभाग प्रतिच्छेदों की संख्या बताते हैंअवरे विरदट्ठाणे होंति अणंताणि फड्ढयाणि तदो। छट्ठाणगया सव्वे लोयाणमसंख छट्ठाणा ॥१२॥ अर्थ-सर्व जघन्य संयमलब्धिस्थानमें अनन्तस्पर्धक होते हैं । इसके पश्चात् सर्वोत्कृष्ट स्थान पर्यन्त षट्स्थान पतित वृद्धियोके द्वारा असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित सर्वस्थान होते है। विशेषार्थ-यह जघन्य सकलसंयमलब्धि सर्व जीवोसे अनन्तगुणे अनन्त अविभागीप्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न हुआ है । ये ही अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद अनन्त स्पर्धक कहे जाते है, क्योकि यहां पर स्पर्धक शब्द अविभागप्रतिच्छेदोका वाची स्वीकार किया गया है। अथवा यह जघन्य लब्धिस्थान मिथ्यात्वमे गिरनेके सम्मुख हुए सयतके अन्तिम समयमें कषायोंके अनन्त अनुभागस्पर्धको के उदयसे उत्पन्न हुआ है। इसप्रकार कार्यमें कारणके उपचारसे अनन्त स्पर्धक कहे गये है। ___ जघन्य लब्धिस्थानको सर्व जीवराशि प्रमाण भागहारसे भाजितकर एक भागको मिलानेपर जघन्य संकलंसयम लब्धिस्थानसे अनन्तवाभाग अधिक होकर द्वितीय लब्धिस्थान होता है । जघन्य 'लब्धिस्थानसे अंगुलके असख्यातवेभागप्रमाण अंगन्तभागवृद्धिकांडक जाकर असख्यातभोगवृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यातंभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातभाग वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । तत्पश्चात् सख्यातभागवृद्धिकाण्डक जाकर सख्यातगुण वृद्धिस्थान उत्पन्न होता है । उसके बाद सख्यातगुणवृद्धि काण्डक जाकर असंख्यातगणं वृद्धिस्थान होता है । तत्पश्चात् असख्यांतगुणवृद्धि कांडक जाकर अनन्तगुणवृद्धिस्थान होता है, तब उस स्थान की कषाय उदयस्थान अनन्तगुणाहीन होता है, क्योंकि अनन्तगुरणेहीन कषायउदयस्थानोके बिना अनन्तगुणस्वरूप सकलसयम लब्धिस्थान की उत्पत्ति नही हो सकती है । यह एक षट्स्थान है। इसप्रकार असंख्यातलोकप्रमाण षान प्रतिपातस्थान है। प्रतिपात लब्धिस्थानोका उल्लंघनकर असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित प्रतिपद्यमान स्थान है। ये पिछले स्थानोसे असख्यातगुणे है, उससे भी असख्यातगुणे अप्रतिपात व अप्रतिपद्यमानस्थानोके योग्य असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानपतित स्थान होते है' । प्रतिपात आदि तीन प्रकार के ये १. ज घ. पु. १३ पृ. १४३-१४४ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] लब्धिसार [ गाथा १६१ इससे आगे देशसंयमके समान सकलसंयम में होने वाली प्रक्रिया विशेष का निर्देश करते हैं एत्तो उवरि विरदे देसो वा होदि अप्पबहुगोत्ति । देसोति य तटाणे विरदो त्ति य होदि वत्तव्वं ॥१६॥ अर्थ-यहा से ऊपर (आगे) अल्पबहुत्व पर्यन्त, पहले देशचारित्रमे जैसा कथन किया है वैसा ही सर्वकथन यहा ( सकल चारित्रके सम्बन्ध मे ) भी जानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि उस कथनमें जहा देशचारित्र कहा है उसके स्थान पर सकलचारित्र कहना चाहिए । विशेषार्थ-सयम ग्रहणके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्तकालतक चारित्रलब्धिसे एकान्तानुवृद्धिको प्राप्त होता है, क्योकि अलब्धपूर्व सयमको प्राप्त होनेसे सवेगसम्पन्न मनुष्यके एकान्तानुवृद्धि पाई जाती है। प्रतिसमय उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिसे प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेरिणरूपसे कर्मस्कन्धोकी निर्जरा होती है । जबतक एकातानुवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है तबतक आयुकर्मको छोडकर शेष सर्व कर्मोके सहस्रो स्थितिकाडको और सहस्रो अनुभागकांडकोका घात होता है। एकान्तानुवृद्धि कालतक इस जीवको सज्ञा 'अपूर्वकरण' होती है, क्योकि अपूर्व-अपूर्व परिणामोके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होनेवाले जीवके 'अपूर्वकरण' सज्ञाकी सिद्धिमे कोई बाधा नही है अथवा अपूर्वकरणकालके समाप्त हो जानेपर भी अपूर्वकरणके समान प्रतिसमय अपूर्व-अपूर्व परिणामोके द्वारा स्थितिघात आदि कार्य होते हैं । ___एकान्तानुवृद्धिकाल समाप्त होनेपर तत्पश्चात् अध प्रवृत्तसंयत होता है । यहां स्थितिघात और अनुभागघात नही है, परन्तु जबतक सयत है तबतक अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि होती है । इतनी विशेषता है कि विशुद्धिको प्राप्त हुआ असख्यातगुणी, सख्यातगुणी, सख्यातवेभाग अधिक या असख्यातवेभाग अधिक द्रव्यका अपकर्षणकर गुणशेरिण करता है । सक्लंशको प्राप्त हुआ इसीप्रकार गुणहीन या विशेषहीन द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेणि करता है तथा अवस्थित परिणामवाला अवस्थित द्रव्यका अपकर्षणकर गुणश्रेरिण करता है। परिणामोके अनुसार होनेवाली गणश्रेणिनिर्जराके परिणामोकी वृद्धि व हानि वश ही प्रवृत्ति होती है । १. ज प पु १३ पृ १६६ । २ ज घ पु. १३ पृ. १३०, ज घ. पु १३ पृ १६७, प पु १२ पृ.७६ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लव्धिसार [ १६१ प्रतिपातस्थान सबसे अल्प है उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असख्यातगुणे है । उनसे अनुभयस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सभी चारित्रलब्धिस्थान विशेषाधिक है । विशेषाधिक होते हुए भी वे प्रतिपातस्थान और प्रतिपद्यमानस्थानोका जितना प्रमाण है उतने अधिक है । जहा असख्यातगुणा कहा वहा गुणाकार असख्यात लोकप्रमाण है' । तीन प्रकारके प्रतिपातस्थानोके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोका तीव्रता - मन्दताकी अपेक्षा सदृष्टि द्वारा अल्पबहुत्व गाथा २०४ के अन्तमे बतलाया जावेगा । गाथा १६५ ] अथानन्तर प्रतिपद्यमान स्थानों का कथन करते हैं तत्तो पडिवज्जगया अज्जमिलिच्छे मिलेच्छज्जे य । कमसो अवरं वरं वरं वरं होदि संखं वा ॥१६५॥ प्रर्थ— प्रतिपातस्थानोके ऊपर असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपद्यमान स्थान है । वे आर्य मनुष्यका जघन्य, म्लेच्छ मनुष्य का जघन्य, म्लेच्छ मनुष्यका उत्कृष्ट, आर्य मनुष्यका उत्कृष्ट इस क्रम से है । विशेषार्थ - भरत, ऐरावत और विदेहमे मध्यम खण्ड प्रार्यखण्ड है; वहाके निवासी मनुष्य प्रार्य है । मध्यम खण्डके अतिरिक्त शेष पाचखण्ड मलेच्छखंड है और वहाके निवासी मनुष्य मलेच्छ कहलाते है । उनमे धर्म-कर्म की प्रवृत्ति असम्भव होनेसे म्लेच्छपने की उत्पत्ति बन जाती है । दिग्विजय मे प्रवृत्त हुए चक्रवर्तीकी सेनाके साथ जो म्लेच्छ मध्यम अर्थान् आर्यंखण्डमे आये है तथा चक्रवर्ती प्रादिके साथ जिन्होने वैवाहिक सम्बन्ध किया है ऐसे म्लेच्छ राजानके सयमकी प्राप्तिमे विरोधका अभाव है । अथवा उनकी जो कन्याए चक्रवर्ती आदिके साथ विवाही गई उनके गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान मातृपक्षकी अपेक्षा स्वय मलेच्छ है । इनके दीक्षाग्रहण सम्भव है । इसलिये कुछ निषिद्ध नही है, क्योकि इसप्रकारकी जातिवालोके दीक्षाके योग्य होनेमे प्रतिषेध नही है । तीव्रमन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गाथा २०४ के अन्तमे किया जावेगा । १. ज.ध. पु १३ पृ. १७६ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा १६३-१६४ १६० ] सर्वस्थान षट्स्थानपतित-सकलसंयमलब्धिस्थान असख्यातलोकप्रमाण हैं' । सकलसंयमसम्बन्धी प्रतिपातादि भेदोंको बताते हुए प्रतिपाद भेदस्थानोंका कथन करते हैं तत्थ य पडिवादगया पडिवज्जगयात्ति अणुभयगयात्ति । उवस्वरि लद्धिठाणा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१६३।। पडिवादगया मिच्छे अयदे देसे य होति उवरुवरि । पत्तेयमसंखमिदा लोयाणमसंखछट्ठाणा ॥१४॥ अर्थ-(१) प्रतिपातगत (२) प्रतिपद्यमानगत (३) अनुभयगत । ये तीनो लब्धिस्थान उपर्युपरि है तथा असख्यातलोक षट्स्थानपतित प्रमाण है। सयमसे मिथ्यात्व, असयम व देशसयमको गिरने वाले सयतके ये तीनो प्रतिपातस्थान उपर्युपरि प्रत्येक असख्यातप्रमाण है तथा प्रत्येकमे असख्यातलोक षट्स्थानपतित वृद्धि होती है। विशेषार्थ-जिस स्थानसे नीचेके गुणस्थानो में गिरता है, इसप्रकार प्रतिपात शब्दकी व्युत्पत्तिके कारण प्रतिपातस्थान कहा गया है। वे मिथ्यात्व प्रतिपात, असयम सम्यक्त्वप्रतिपात और सयमासयम (देशसयम) प्रतियातको विषय करनेवाले होनेसे प्रतिपातगत स्थान तीनप्रकारके होकर प्रत्येक जघन्य लब्धिस्थानसे लेकर उत्कृष्ट लब्धिस्थानतक षट्स्थानपतित वृद्धि क्रमसे अवस्थित असख्यातलोकप्रमाण है । उनमे से मिथ्यात्वादिमे गिरनेवाले सर्वोत्कृष्ट सक्लेशयुक्त सयतके जघन्य प्रतिपात लब्धिस्थान होते है तथा तत्प्रायोग्य जघन्य सक्लेश परिणामवालेके उत्कृष्ट प्रतिपात लब्धिस्थान होते है । सयमको उत्पन्न करता है इसलिए उत्पादक अर्थात् प्रतिपद्यमान यह सज्ञा है। मिथ्यादृष्टि, असयतसम्यग्दृष्टि व देशसयत (मनुष्य) तत्प्रायोग्य विशुद्धिके साथ सयमको ग्रहण करनेके प्रथम समयमे जघन्यस्थान होता है। तथा सर्वविशुद्ध सयतके उत्कृष्ट होता है । मध्यम भेदरूप प्रतिपद्यमान स्थान तो षट्स्थानपतित वृद्धिरूपसे अवस्थित असख्यातलोकप्रमारण हैं । प्रतिपात और प्रतिपद्यमान स्थानोके अतिरिक्त शेष चारित्रलब्धिस्थान अनुभयस्थान हैं । १ ज ५ पु १३ पृ १७६ । २ घ पु.६५ २८३ । ३ ज ध पु १३ पृ १७६-७७ । 55 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथ १६८-२०४ । लब्धिसार [ १६३ अब सात गाथाओं में उन प्रतिपातादि स्थानोंका विशेष कथन करते हैंपडचरिमे गहणादीसमये पड़िवाददुगमणुभयं तु । तम्मज्झे उवरिमगुणगहणाहिमुहे य देसं वा ॥१८॥ पडिवादादीतिदयं उवरुवरिमसंखलोगगुणिदकमा। अंतरछक्कपमाणं असंखलोगा हु देसं वा ॥१६॥ मिच्छयददेसभिएणे पडिवादट्ठाणगे वरं अवरं । तप्पाउग्गकि लिट्टे तिव्वकिलिढे कमे चरिमे ॥२०॥ पडिवज्जजहरणदुर्ग मिच्छे उक्कस्सजुगलम विदेसे । उवरिं सामाइयदुगं तम्मज्झे होंति परिहारा ॥२०१॥ परिहारस्स जहणणं सामायियदुगे पडत चरिमम्हि । तज्जेठ्ठ सट्ठाणे सव्वविसुद्धस्स तस्सेव ॥२०२॥ सामयियदुगजहरणं अोघं अणियहिखवगचरिमम्हि । चरिमणियटिस्सुवरि पडत सुहुमस्स सुहुमवरं ।। २०३।। खवगसुहुमस्स चरिमे वरं जहाखादमोघजेटं तं । पडिवाददुगा सव्वे सामाइयछेदपडिबद्धा ॥२०४॥ अर्थ-संयमसे गिरते हुए चरम समयमें और संयम को ग्रहण करते समय प्रथम समयमे क्रमसे प्रतिपात और प्रतिपद्यमान ये दो स्थान होते है तथा इनके मध्य में अथवा ऊपरके गुणस्थानके सम्मुख होनेवाले जीव के जो अनुभय स्थान होता है वह देशसयतके समान ही यहा भी जानना चाहिये ।।१८।। प्रतिपात आदि तीन प्रकारके स्थान अपने-अपने जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त ऊपरऊपर असख्यातलोकगुरणे क्रम से युक्त है । उन छहो मे प्रत्येकके असख्यातलोकप्रमाण बार षट्स्थानवृद्धि देशसयतके समान जानना ।। १६६ ।। प्रतिपातस्थान तो मिथ्यात्व, असयम और देशसयमके सम्मुख होनेको अपेक्षा तीन भेद वाला है। उसमें भी जघन्यस्थान सयमके चरम समयमे तीव्रसक्लेशवाले के Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] लब्धिसार [ गाथा १६६-१६७ अथानन्तर अनुभस्थानोंका कथन करनेके लिये अगला गाथासूत्र कहते हैंततोभयठाणे सामाइयछेद जुगल परिहारे । पडिबद्धा परिणामा असंखलोगध्पमा होति ॥ १६६ ॥ अर्थ - प्रतिपद्यमान स्थानोके ऊपर सामायिक - छेदोपस्थापना सम्बन्धी तथा परिहारविशुद्धिसयमसम्बन्धी सख्यातलोकप्रमाण अनुभयस्थान है' । विशेषार्थ -- तत्प्रायोग्य सक्लेशवश सामायिक - छेदोपस्थापना के ग्रभिमुख हुए परिहारविशुद्धिसयत के अन्तिमसमयमे परिहारविशुद्धसयतका जघन्य ग्रनुभयस्थान है । परिहारविशुद्धि से छूटकर सकलसयमी रहा इसलिये सकलसयमकी अपेक्षा अनुभवस्थान कहा गया है, प्रतिपातस्थान नही कहा गया । तीव्र - मन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गा २०४ के अन्तमे किया गया है | आगे सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यातसंयम स्थानोंका कथन करते हैंतत्तो य सुहुमसंजम पडिवजय संखसमयमेत्ता हु | तत्तो दु जहाखादं एयविहं संजमे होदि ॥ १६७॥ अर्थ —— उस सामायिक-छेदोपस्थापनाके उत्कृष्टस्थान से ऊपर प्रसंख्यातलोकप्रमाण स्थानोका अन्तराल करके उपशमश्रेणिसे उतरते हुए श्रनिवृत्तिकरणके सम्मुख जोवके अपने अन्तिम समयमे होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायेका जघन्यस्थान होता है । उसके ऊपर असंख्यातसमयप्रमाण स्थान जाकर क्षपकसूक्ष्मसाम्पराय के अन्त समयमे होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायका उत्कृष्टस्थान होता है । उससे आगे असख्यातलोकप्रमाण स्थानोका अन्तराल करके यथाख्यातचारित्रका एक स्थान होता है । यथाख्यातचारित्ररूप यह स्थान सभी सयमोसे अनन्तगुणी विशुद्धता युक्त उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली व अयोगकेवलीके होता है । इसमे सभी कषायोका सर्वथा उपशम अथवा क्षय है अतः जघन्य, मध्यम व उत्कृष्टरूप भेद नही है । १. क्रम संक्षिप्ततः इसप्रकार है-सर्वप्रथम सामायिक छेदोपस्थापना का जघन्यस्थान फिर असख्यातलोक प्रमित स्थानो के पश्चात् परिहारविशुद्धि का जघन्यस्थान । तत्पश्चात् आगे उतने ही स्थान जाकर परिहारविशुद्धिसयमका उत्कृष्टस्थान, फिर इतने ही स्थान ऊपर जाकर सामायिक-छेदोपस्थापना का उत्कृष्ट स्थान है । २. घ. पु ७ पृ. ५६७, घ. पु ६ पृ २८६ । ज घ. पु १३ पृ. १८७, क. पा सुत्त प ६७५, ला गा. २०४ आदि । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०४ ] लब्धिसार [ १६५ असंख्यातलोकमात्र होते हैं। इनमें सर्वजघन्य प्रतिपातस्थान उत्कृष्ट संक्लेशसे असंयतसम्यक्त्वको जानेवाले सयतके अन्तिम समयमें होता है । उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य संक्लेगसे असयतसम्यक्त्वको जानेवाले संयतके अन्तिम समय में होता है । ००००००० ०००००००००००० । अन्तर । ये संयनासंयम को जाने वाले सयतके प्रतिपातस्थान है । इनमें जघन्य प्रतिपातस्थान सर्व सक्लेशसे सयमासयमको जानेवाले संयतके अन्तिम समयमे होता है और उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य सक्लेशसे संयमासयमको जाने वाले सयतके अन्तिम समय में होता है । ००००००००००००००००००००००००००० ००००००००००००००००००००००००००००००००००००० । अन्तर । ये संयमको प्राप्त होनेवाले जीवके प्रतिपद्यमान या उत्पादस्थान है। इनमें से जघन्य प्रतिपद्यमानस्थान भरतक्षेत्रनिवासी मिथ्यात्वसे पीछे आये हुए सयत (आर्य मनुष्य) के होता है । (अकर्मभूमिज अर्थात् भरतक्षेत्र निवासी म्लेच्छ मनुष्यके मिथ्यात्वसे पीछे आकर संयम ग्रहणके प्रथमसमयमे होनेवाला ) जघन्य प्रतिपद्यमान सयमस्थान पूर्व जघन्यसे अनन्तगुणा है। उक्त (म्लेच्छ) मनुष्यके ही देशविरतिसे पीछे आकर सर्वविशुद्ध संयम ग्रहण के प्रथम समयमे होनेवाला उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थान पूर्वोक्त जघन्यसे अनन्तगुणा है । इससे अनन्तगुणा कर्मभूमिमे संयमको प्राप्त करनेवाले देशविरतिसे पीछे पाये हुए सर्वविशुद्धसयत (आर्य मनुष्य) के प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान लब्धिस्थान होता है। यह स्थान पूर्वसे अनन्तगुणा है'। ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० ०००००००००००। अन्तर । यहां पर उपरिम अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थान सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धि सयतजीवके है । अधस्तन स्थान परिहारशुद्धिसयत जीवके होते है । उनमेसे परिहारशुद्धिसयत जीवका जघन्य प्रतिपातस्थान पूर्वके स्थानसे अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसयमोके अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य सक्लिष्ट परिहार विशुद्धि संयतके अन्तिम समयमें होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है। वह किसके होता है ? सर्वविशुद्ध परिहारसंयतके होता है। उससे सामायिक-छेदोपस्थापना यमियों का उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है । यह किसके होता है ? तदनन्तर समयमे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धि संयमको ग्रहण करनेवाले सर्वविशुद्ध उक्त सयतके होता है। १. ध पु ६ पृ २८४-८५-८६ । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] लदिवसार [ गाथा २०४ एब उत्कृष्टस्थान यथायोग्य मन्दकपायवालेके होता है ।।२००॥ प्रतिपद्यमानस्थान आर्य व म्लेच्छकी अपेक्षा दो प्रकारका है सो उनका जघन्य स्यान तो मिथ्यादृप्टिसे सयमी होनेवाले जोवके और उत्कृष्टस्थानयुगल देशसयतसे नयमी हुए जीवके होता है । प्रतिपद्यमानस्थानोके ऊपर जो अनुभयस्थान है वे सामायिक दोपम्यापना-सयम सम्बन्धी होते है । उन दोनो सयमोके जघन्य व उत्कृष्टस्थानो के मध्य परिहारविशुद्धिसयमके स्थान है ।।२०१॥ परिहारविशुद्धिसयमका जघन्यस्थान सक्लेशवश सामायिक-छेदोपस्थापना नयममे गिरते हए जीवके चरम समय मे और परिहारविशुद्धिसयमका उत्कृष्टस्थान उनमे हो सर्वविशुद्र अप्रमत्तजीवके एकान्तवृद्धिके चरमसमयमे होता है ।।२०२।। ___ मामायिक-छेदोपस्थापनासयमका जघन्यस्थान मिथ्यात्वके सम्मुख हुए जीवके ग्यमसम्बन्धी चरमसमयमे होता है जो जघन्य सयमका स्थान ही है। सामायिक बोपन्यापनासयमका उत्कृष्टस्थान क्षपकअनिवृत्ति करणके चरमसमयमें होता है । ग:मनाम्परायसयमका जघन्यस्थान सूक्ष्मसाम्परायोपशमकजीव जो उपशमशेरिणसे गिरते हाए मूमनाम्परायके चरम समयमे अनिवृत्तिकरणके सम्मुख है, उसके होता है ।।२०३॥ क्षीणकपायके सम्मुख हए सूक्ष्मसाम्परायक्षपकके अन्तिम समय में सूक्ष्ममाम्प रायसयमका उत्कृष्टस्थान होता है । यथाख्यातचारित्र सर्व सयमसामान्य मे मास्थान है, क्योकि उसके जघन्य आदि विकल्पो का अभाव है। प्रतिपात और प्रतिपद्यमान सम्बन्धी जितने भी स्थान कहे है वे सभी सामायिक-छेदोपस्थापनासयम सम्बन्धी ही कहे गये हैं, क्योकि सकलसयमसे भ्रष्ट होते हुए चरम समयमें और सकलनयमको गहग करनेके प्रथमसमयमे सामायिक-छेदोपस्थापना सयम ही होता है, अन्य परिहारविशुद्धि आदि सयम नही होते है । विशेपार्थ-००००००००००००००००००००० अन्तर । ये असंख्यातलोकप्रमाण नयमके प्रतिपातस्थान मिथ्यात्वको जानेवाले संयतके अन्तिमसमयमें होते है । बार नबंजघन्य प्रतिपातम्यान उत्कृप्ट सक्लेशसे मिथ्यात्वको जानेवाले सयतके अतिम मामे होता है। जघन्यमे अनन्तगुणीभूत इन्ही का उत्कृष्ट प्रतिपातस्थान तत्प्रायोग्य मानने मियायको जानेवाले सयतके अन्तिम समयमें होता है । ००००००००००० ००००००००००० । अन्तर । असयतसम्यक्त्वको जानेवाले संयतके ये प्रतिपातस्थान Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०४ ] लब्धिसार [ १६७ कहनेपर पन्द्रह कर्मभूमियोमे से मध्यम खण्डमें उत्पन्न हुए मनुष्यका ग्रहण करना चाहिए, क्योकि कर्मभूमियोमे उत्पन्न हुआ कर्मभूमिज है इसप्रकार वह इस संज्ञाके योग्य है । उससे संयमको प्राप्त करनेवाले अकर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्व के सयमस्थानसे असख्यातलोकमारण षट्स्थान आगे जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति हुई है । उससे सयमको प्राप्त होनेवाले उसीके उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके जघन्य स्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उससे सयमको प्राप्त होने वाले कर्मभूमिज (आर्य) मनुष्यका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि क्षेत्रके माहात्म्यवश पूर्वके संयमस्थानसे इसके अनन्तगुणे सिद्ध होनेमे कोई बाधा नही उपलब्ध होती। उससे परिहारविशुद्धिसयतका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है । यह स्थान तत्प्रायोग्य सक्लेशवश सामायिक-छेदोपस्थापनासयमोके अभिमुखं हुए परिहारविशुद्धि संयतके अन्तिम समयमे होता है, परन्तु यह अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान सामायिक-छेदोपस्थापनासम्बन्धी जघन्य सयमलब्धिसे लेकर असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान ऊपर जाकर वहा प्राप्त सयमलब्धि स्थानके सदृश होकर उत्पन्न हुआ है । इसलिये इसके प्रतिपातके अभिमुख होकर स्वस्थानमे सबसे जघन्य होनेपर परिहारविशुद्धिसयमके माहात्म्यवश पूर्वके स्थानसे अनन्तगुणापना सिद्ध होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा होता है, क्योकि पहले जघन्य स्थानसे असख्यात लोकप्रमाण स्थान ऊपर जाकर सामायिक छेदोपस्थापनासम्बन्धी अप्रतिपातअप्रतिपद्यमान स्थानोके भीतर यथागम इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है । उसमे सामायिक-छेदोपस्थापना सयतोका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि सामायिक-छेदोपस्थापनाके अजघन्य-अनुत्कृष्ट अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थानके समान पूर्वके उत्कृष्टस्थानका निर्देश करनेपर तत्पश्चात् निरन्तर क्रमसे फिर भी उससे ऊपर असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान जाकर इस स्थानकी उत्पत्ति अनिवृत्तिकरण क्षपकके अन्तिम समयमें देखी जाती है। उससे सूक्ष्मसाम्परायिक सयतका जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है । बादर कषायके रहते हुए होनेवाली उत्कृष्ट सयमलब्धिसे सूक्ष्मकषायमे होने वाली जघन्य सयमलब्धि भी अनन्तगुणी होती है, इसके सिवाय वहां अन्यप्रकार सम्भव नही है, परन्तु यह जो उपशामक गिरकर सूक्ष्मसाम्परायमे आया है उसके अन्तिम समयकी लेनी चाहिये । उससे उसीका उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है । सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम समयमे सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिका इसके पहले के जघन्य Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २०४ ००००००००००००००००० । अन्तर । सूक्ष्मसाम्परायसंयमीके ये सयमस्थान है। उससे सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसयतका जघन्य प्रतिपातस्थान अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? अनिवृत्तिकरणके अभिमुख हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसयतके होता है। उससे उसीका उत्कृष्ट अनन्तगुणा है । वह किसके होता है ? सर्वविशुद्ध मूमसाम्परायशुद्धिसंयत क्षपकके अन्तिम समयमे होता है । उससे वीतरागका अजघन्यअनुत्कृष्टस्थान अनन्तगुणा है। वह कषायके अभावके कारण एक ही प्रकारका है। परन्तु वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी जिन और अयोगी जिनका ग्रहण करना चाहिए । इसप्रकार इस सदृष्टि द्वारा जिनको प्रतिबोध हुआ है ऐसे शिष्योको इस समय तीन-मन्दताविषयक अल्पवहुत्वको सूत्रके अनुसार बतावेगे । यथा तीव्र-मन्दताकी अपेक्षा मिथ्यात्वको प्राप्त करनेवाले संयतके जघन्य सयमस्थान सबसे मन्द अनुभागवाला होता है, क्योकि सबसे उत्कृष्ट सक्लेशके साथ मिथ्यात्व को प्राप्त होनेवाले सयतके अन्तिमसमयमे इसका ग्रहण किया है । उससे उसीके उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि तत्प्रायोग्य सक्लेशसे मिथ्यात्वमे गिरनेके सम्मुख हुए सयतके अन्तिम समयमे पूर्वके सयमस्थानसे असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानों को उल्लघकर इसकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे असयत सम्यक्त्वको प्राप्त होने वाले सयतके जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके सयमस्थानसे असख्यातलोकप्रमाण पट्स्थानोको उल्लघकर यह स्थान उत्पन्न हुआ है । इसका भी कारण यह है कि मिथ्यात्वमे प्रतिपातविषयक जघन्य सक्लेश से भी सम्यक्त्वमें प्रतिपातविषयक उत्कृष्ट संक्लेशके अनन्तगुणे हीनपनेको देखते हुए उसके उसप्रकार सिद्ध होनेमे विरोध का अभाव है। उससे उसीके उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पूर्वके जघन्य स्थानने असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोको उल्लघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देखी जाती है। उससे सयमासयमको प्राप्त होनेवाले सयतके जघन्य सयमस्थान अनन्तगुणा है, बाकि पूर्वके उत्कृष्ट स्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोको उल्लघकर इस स्थान की उत्पत्ति देखी जाती है। उससे उसीके उत्कृष्ट सयमस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि पर्वा जघन्य स्थानसे असख्यातलोकप्रमाण षट्स्थानोको उल्लघकर इस स्थानकी उत्पत्ति देगी जाती है । उसमे सयमको प्राप्त करनेवाले कर्मभूमिज मनुष्यका जघन्य सयमस्थान अनन्तगगा है, क्योंकि सक्लेशनिमित्तक पूर्वके प्रतिपातस्थानसे उससे विपरीत स्वरूपवाले मां जघन्य होनेपर भी अनन्तगुणेपन की सिद्धि न्याययुक्त है। यहापर 'कर्मभूमिजके ऐसा Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “अथ चारित्रमोहनीय उपशमनाधिकार" सम्पूर्ण दोषों को उपशान्त किया है जिन्होंने ऐसे उपशान्तकषाय वीतरागियों को नमन करके उमशमचारित्रका विधान कहते हैं उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अणं विजोयित्ता । अंतोमुहुत्तकालं अधापवत्तोऽपमत्तो य ॥२०५॥ अर्थ-उपशमचारित्रके सम्मुख हुआ वेदकसम्यग्दृष्टिजीव सर्वप्रथम पूर्वोक्त विधानसे अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त-अप्रमत्त अर्थात् स्वस्थान-अप्रमत्त होता है । विशेषार्थ-वेदकसम्यग्दृष्टिजीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना किये बिना कषायोकी उपशामनाके लिये प्रवृत्त नही होता इसीलिये गाथामे "उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्मो अण विजोयित्ता" यह पूर्वार्ध कहा है । मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोका सत्कर्मवाला वेदकसम्यग्दृष्टिसयत जबतक अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसयोजना नही करता तबतक कषायोको उपशामनाके लिए प्रवृत्त नहीं होता, क्योकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजना न होनेपर उसके उपशम श्रेणि पर चढने के योग्य परिणाम नही हो सकते । इसलिये अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनामे यह सर्वप्रथम प्रवृत्त होता है'। तीन करणो से अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल तक अधःप्रवृत्त सयत ( अप्रमत्तसयत ) होता हुआ असातावेदनीय, अरति, शोक और अयशःकीर्ति आदि प्रकृतियोका बन्ध करता है । अनन्तानुबन्धीकी विसयोजनारूप क्रिया शक्ति समाप्त होनेके बाद ही दूसरी क्रिया प्रारम्भ नही होती, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना करके अन्तर्मुहूर्तकालतक स्वस्थान अप्रमत्तसयत होकर वहा संक्लेश और विशुद्धिवश प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानो में परिवर्तन करता हुआ असातावेदनीय. अरति, शोक और अयश कीर्ति आदि जिन प्रकृतियोंका पूर्वमे करणरूप विशुद्धिक १ ज.ध. पु. १३ पृ. २०१ । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १६८ ] [ गाथा २०४ परिणामसे अनन्तगुणे सिद्ध होनेमें विरोधका अभाव है। उससे वीतरागका अजघन्य-अनुत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान अनन्तगुणा है, क्योकि उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और केवलियोमे जघन्य एव उत्कृष्ट विशेषणसे रहित यथाख्यात-विहारशुद्धि सयमलब्धिकी यहां पर विवक्षा है'। ।। इति क्षायोपशमिक सकल चारित्र प्ररूपण ।। १. यथाख्यातचारित्रमे जघन्यादि भेद नही होते हैं। ध पु. ६ पृ. २८८, घ पू. ७ पृ. ५६७, ज. प. पु. १३ पृ. १८७. घ. पु. ६ प. २८६ क. पा. सुत्त पृ. ६७५ । ल. सा. गाथा १६७ । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २०७ ] लब्धिसार [ १७१ कर्मोका प्रतिसमय अनन्तगुणाहीन द्विस्थानिक अनुभागका बन्ध होता है तथा प्रशस्तकर्मोका अनन्तगुणी वृद्धिरूपसे चतु स्थानीय अनुभागका बन्ध होता है । अध प्रवृत्तकरण काल समाप्त होनेके पश्चात् अनन्तर समयमे प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण होता है और तभी स्थितिकाण्डकघात, अनुर्भागकाण्डकघात व गुणश्रेणिका एकसाथ प्रारम्भ हो जाता है। वहा गुणसक्रमण नही है। स्थितिकाण्डकका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवेभागप्रमाण है। अनुभागकाण्डकका प्रमाण अप्रशस्तकोंके अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभाग प्रमाण है । गुणश्रेणिनिक्षेप, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनोके कालसे विशेष अधिक गलितशेष आयामवाला है । स्थिति भी पल्योपमके संख्यातवेभाग हीन बधती है। एक स्थितिकाडककालके भीतर सख्यात हजार अनुभागकाडके होते हैं'। अपूर्वकरणके पश्चात् अनिवृत्तिकरण होता है। इन करणोके द्वारा दर्शनमोहनीयकी उपशामना या क्षय होता है। ऐसा नियम है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहनीयकी उपशामनाप्रवृत्ति होती है, अन्यप्रकारसे नही । अनादि मिथ्यादृष्टिसे प्रतिबद्ध दर्शनमोहनीयको प्रथमोपशामनाका पूर्वमे कथन हो चुका है, किन्तु वह यहां उपयोगी नही है, क्योकि वह उपशमश्रेणिके योग्य नही है । वेदकसम्यग्दृष्टि भी उपशमश्रेणिके योग्य नहीं है। मिथ्यात्वसे उत्पन्न होने वाला उपशमसम्यक्त्व प्रथमोपशमसम्यक्त्व है यह चतुर्थगणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक होता है । क्षयोपशमसम्यक्त्व अर्थात वेदकसम्यक्त्वपूर्वक होनेवाला द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। इन दोनोंमे द्वितीयोपशमसम्यक्त्व वाला उपशमश्रेणि चढकर चारित्रमोहनीयकी उपशामना करता है । यद्यपि द्वितीयोपशमसम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थानसे सप्तमगुणस्थानतक किसी भी गुणस्थानमें क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि मनुष्यके हो सकता है, किन्तु विवक्षावश यहापर द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका अप्रमत्तसयत सातवे गुणस्थानकी अपेक्षासे कॅथन किया है । १. ज. ध पु. १३ पृ. २०३-४।। २. ज. ध. मूल पृ. १६१५, दोण्हं पि उवसमसेडिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो। ३. ज.ध. पु १३ पृ. २०२, ध पु. १ । ४. ध.पू. १ प. ११, स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा गा. ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२. गा. २०५ की टीका एव धवल पु. १ पृ. २१४-१५ । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] लब्धिसार [ गाथा २०६ - २०७ माहात्म्यवश नही बाधता था, उनका अब कितने ही कालतक बन्ध करता हुग्रा विश्राम करता है' । तत्पश्चात् कोई जीव दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोका क्षय करके क्षायिकसम्यग्दृष्टि होकर चारित्रमोहका उपशम प्रारम्भ करता है तथा कोई जीव द्वितोयोपशम सम्यक्त्व सहित उपशमश्रेरिंग चढता है उसके दर्शनमोहका उपशम विधान कहेगे । अब दो गाथाओं में दर्शनमोहके उपशमका निर्देश तथा उपशमश्रेणिपर चढ़ने की योग्यता के निर्देश पूर्वक वहां ( दर्शन मोहोपशममें) गुणसंक्रमणके अभाव का प्रतिपादन करते हैं तत्तोनियर विहिणा- दंसणमोहं समं खु उवलमदि । सम्मत्पत्ति वा अणं च गुणसेढिकरणविही ॥ २०६ ॥ दंसणमोहुवसमणं - तक्खवणं वा हु होदि वरिं तु । गुणसंकमो विज्जदि विज्झद वाधापवत्तं च ॥२०७॥ अर्थ --- अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना अन्तर्मुहूर्त पश्चात् तीनकरण विधिके द्वारा तीनो दर्शनमोहनीय कर्म प्रकृतियोको एकसाथ उपशमाता है । गुणश्रेणि, करण व अन्य अर्थात् स्थितिकाडक, अनुभागकाण्डक आदि विधि प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के सदृश करता है । इस विधिके द्वारा दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम या क्षय होता है, किंतु उपशम होनेमे गुणसक्रमण नही होता । विध्यात सक्रमण अथवा अध प्रवृत्तसंक्रमण होता है। विशेषार्थ – विश्राम करने- पश्चात् दर्शनमोहनीयका उपशम अर्थात् द्वितीयो - पशम करने वालेके अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण जो पहले प्रथमोपशम- । सम्यक्त्वोत्पत्तिके विधानमें कहे गये है, यहा भी जानना चाहिए, क्योकि उनसे इनमे - कोई विशेषता नही है । उसीप्रकार स्थितिघात, अनुभागघात व गुणश्रेणी होती है । अध प्रवृत्तकरणकालमे स्थितिघात, अनुभागघात और गुरणसक्रमण नही है, केवल अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ सख्यातहजार स्थितिबधापसरण होते है, अप्रशस्त १. ज. घ. पु १३ पृ २०१ । २. गवरि एत्य गुणसकमो णत्थि विज्झदो चेव, अप्पसत्यकम्मारण अधापवत्तो वा ( धवला पु. ६ पृ. २८६ ) Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१५ ] लब्धिसार [ १७३ अर्थ - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के प्रथम समयोंके स्थितिसत्कर्मसे उन्हीके अपने-अपने अन्तिम समय में स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणाहीन होता है । अनिवृत्तिकरणके बहुकाल बीत जाने पर दर्शनमोहनीयका उपशम- कार्य प्रारम्भ होता है ॥२०८ ॥ उस समय' सम्यक्त्वके असख्यात समय प्रबद्ध की उदीरणा होती है । इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर होता है ||२०| सम्यक्त्वमोहनीयकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण और मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व उदयावलिमात्र प्रथमस्थितिको छोडकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है ।। २१० ।। दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियो के उत्कीरण द्रव्यको सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथम स्थितिमे ही निक्षिप्त करता है, क्योकि मिथ्यात्व के बन्धका अभाव है ।।२११।। द्वितीय स्थिति के द्रव्यमे से अपकर्षणकर अपकर्षितद्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथम स्थिति देता है तथा अन्तरसम्बन्धी निषेकोको छोड़कर शेष अनुकीर्यमाण द्वितीय - स्थिति भी देता है ।।२१२|| उदयावलिके बाहर सम्यक्त्वकी प्रथमस्थितिके समान होकर मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वके प्रदेशपु जको सम्यक्त्वमोहनीयकी समान स्थितियो में संक्रमित करता है । अन्तर की द्विचरमफालितक यही क्रम चलता रहता है । तीनों दर्शनमोहनीय के चरमफालिसम्बन्धी द्रव्यको सम्यक्त्वमोहनीयकी प्रथम स्थितिमें देता है ।।२१३-२१४।। द्वितीय स्थितिका द्रव्य भी प्रथमस्थितिमे तभीतक आता है जबतक सम्यक्त्व - प्रकृतिकी प्रथम स्थितिमे प्रावलि - प्रत्यावलि शेष रह जाती है उसके बाद द्वितीय स्थिति का द्रव्य प्रथमस्थितिमे नही आता है ।। २१५ ।। विशेषार्थ - अपूर्वकरण के प्रथमसमय सम्बन्धी स्थितिसत्त्वसे उसका ही अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व सख्यातगुणाहीन है । प्रथमसमयसम्बन्धी अनिवृत्तिकरणके स्थितिसत्त्वसे अन्तिम समयसम्बन्धी स्थितिसत्त्व सख्यातगुणाहीन है | दर्शनमोहनीयके उपशमानेमे अनिवृत्तिकररणकालके सख्यात भागोके व्यतीत होनेपर सम्यक्त्व प्रकृति के असख्यात समयप्रबंद्धोकी उदीरणा होती है । १. अर्थात् दर्शनमोहकी उपशामना सम्बन्धी अनिवृत्तिकरणकाल के संख्यात बहुभाग जाने पर । ज.ध. ध. पु. ६ पृ. २६० Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार १७२ ] [ गाथा २०८-२१५ विशेष यह है कि वे हो तीनकरण (अनन्त वियोजना सम्बन्धी) पृथक्-पृथक कार्यों के उत्पादक कैसे हो सकते है, (यहा उपशामना मे भी कार्यकारी) ऐसी आशका नहीं करना चाहिये, क्योकि लक्षणकी समानतासे एकत्वको प्राप्त, परन्तु भिन्न-भिन्न कर्मोके विरोधी होनेसे भेदको भी प्राप्त हुए जीवपरिणामोके पृथक्-पृथक् कार्यके उत्पादनमे कोई विरोध नही है । उस समय का स्थितिसत्त्व विशेष, अपूर्वकरणादिमें होने वाले कार्य विशेष, अन्तरकरणविधि आदि का कथन आठगाथाओंमें करते हैं ठिदिसत्तमपुत्वदुगे संखगुणणं तु पढमदो चरिमं । उवसामण भणियट्टीसंखाभागासु तीदासु ।।२०८॥ सम्मस्स असंखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि। तत्तो मुहुत्तअंते दसणमोहंतरं कुणई ॥२०६॥ अंतोमुहूत्तमेत्तं वलिमेत्तं य सम्मतियठाणं । मोत्तूण य पढमट्ठिदि दंसणमोहंतरं कुणदि ॥२१०॥ सम्मत्तपयडिपढमट्ठिदिम्मि संछुह दि दसणतियाणं । उक्कीरयं तु दव्वं बंधाभावादु मिच्छस्स ।।२११॥ विदियट्टिदिस्त दव्वं उक्कट्ठिय देदि सम्मपढमम्हि । विदियट्ठिदिम्हि तस्स अणुक्कीरिज्जतमाणम्हि ।।२१२॥ सम्मत्तपय डिपढमट्ठिदीसु सरिमाण मिच्छमिस्साणं । ठिदिदव्वं सम्मस्स य सरिसणिसेयम्हि संकमदि ॥२१३॥ जावंतरस्स दुचरिमफालि पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदसणदव्वं छुहेदि सम्मस्स पढमम्हि ॥२१४॥ विदियट्ठिदिस्त दव्वं पढमहिदिमेदि जाव आवलिया। पडि आवलिया चिट्ठदि सम्मत्तादिमठिदी ताव ॥२१५॥ १. व पु. ६ पृ २८६ । Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २१७ । लब्धिसार [ १७५ अर्थ-सम्यक्त्वमोहनीयकी आदि (प्रथम) स्थितिक्षय होने पर मिथ्यात्वके द्रव्यमेसे सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रप्रकृतिमें गुणसक्रमण द्वारा नही, किन्तु विध्यातसंक्रमण द्वारा दिया जाता है। विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वमें गुणसक्रमण द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वप्रकृति व मिश्रकृतिमे दिया जाता है, किन्तु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमे विध्यातसक्रमणके द्वारा मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिमे दिया जाता है,' क्योकि गुणसक्रमके कारणभूत जीवपरिणामोकी विचित्रतावश यहा गुणसक्रम नहीं होता, प्रतिसमय विशेषहीन क्रमसे विध्यातसक्रम ही प्रवृत्त होता है तथा यहासे लेकर ज्ञानावरणादि कर्मोका स्थितिकाडकघात व अनुभागकाण्डकघात नही होता, परन्तु सयमरूप परिणामोके निमित्तसे अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि प्रवृत्त रहती है, क्योकि करणपरिणाम-निमित्तक गलितशेष गुणश्रेणिका यहा पर अन्त हो जाता है । ___ अब द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि के विशुद्धिका एकान्तानुवृद्धिकालका प्रमाण कहते हैं सम्मत्तुप्पत्तीए गुणसंकमपूरणस्त कालादो । संखेज्जगुणं कालं विसोहिवड्डीहिं वड्ढदि हु ॥२१७॥ अर्थ-प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका गुणसंक्रमद्वारा जो पूरणकाल प्राप्त होता है उससे सख्यातगुणे कालतक यह उपशान्तदर्शनमोहनीय जीव विशुद्धि के द्वारा बढ़ता रहता है। विशेषार्थ-प्रथमसम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाले जीवका जो गुणसक्रमकाल प्राप्त होता है उससे सख्यातगुणे कालतक यह जीव गुणसक्रमके बिना भी प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिकी वृद्धि होनेसे बढता रहता है । १. तात्पर्य यह है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टिके प्रथमसमयसे लेकर गुणसंक्रम न होकर विध्यात संक्रम होता है । इसलिये उत्तरोत्तर विशेष हीन क्रमसे मिथ्यात्व के द्रव्यका सम्यक्त्व और मिश्र प्रकृति मे सक्रम होता रहता है, ऐसा ज्ञातव्य है । (ज ध पु १३ पृ. २०८) २. ज. ध पु १३ पृ. २०७-२०८ । ३ और इसका काल भी अन्तर्मुहूर्त है। ४. क पा सु पृ ६८०, ज.ध. पु १३ पृ २०८ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] लब्धिसार [ गाथा २१६ इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल जाकर दर्शनमोहनीयका अन्तर करता है। वह इस प्रकार है-सम्यक्त्वप्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्तमात्र प्रथमस्थितिको छोड़कर अन्तर करता है तथा मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतियोकी उदयावलिमात्र प्रथमस्थितिको छोडकर अन्तर करता है । इस अन्तरकरणमे उत्कीर्ण किये जानेवाले प्रदेशाग्रको द्वितीयस्थितिमे नही स्थापित करता है, किन्तु बन्धका अभाव होनेसे सबको लाकर सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिमे स्थापित करता है । सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रदेशानको अपनी प्रथमस्थितिमे ही स्थापित करता है । मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके द्वितीयस्थितिसम्बन्धी प्रदेशानका अपकर्षण करके सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितिमे देता है और अनत्कीर्यमाण (द्वितीय स्थितिकी) स्थितियोमे भी देता है। सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथमस्थितिके समान स्थितियोमे स्थित होकर मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोके जो प्रदेशाग्र है उन प्रदेशाग्रोको सम्यक्त्वप्रकृतिकी प्रथम स्थितियोमे सक्रमण कराता है । जबतक अन्तरकरणकालकी द्विचरमफालि प्राप्त होती है तबतक यही क्रम रहता है। पुन. अन्तिमफालिके प्राप्त होनेपर' मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोके सब अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशाग्रको सम्यक्त्वप्रकृतिको प्रथम स्थितिमे ही स्थापित करता है। इसीप्रकार सम्यक्त्वप्रकृतिके अन्तरस्थितिसम्बन्धी प्रदेशको भी अपनी प्रथम स्थितिमे ही देता है । द्वितीयस्थितिके प्रदेशाग्र भी तबतक प्रथमस्थितिको प्राप्त होता है जबतक कि प्रथमस्थितिमे आवली और प्रत्यावलि शेष रहती है । ___ अब प्रकरण प्राप्त दर्शनमोहके सनमसम्बन्धी ऊहापोह विशेष का कथन करते हैं सम्मादि ठिदिज्झीणे मिच्छदव्वादु सम्मसम्मिस्से । गुणसंकमो ण णियमा विज्झादो संकमो डोदि ॥२१६॥ १. तात्पर्य यह है कि "चरमफालीका पतन होते समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अन्तरस्थिति सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षण-सक्रमणके द्वारा प्रतिस्थापनावलो को छोड़कर जिसप्रकार पहले स्वस्थानमे भी देता रहा उसप्रकार इससमय नही देता है, किन्तु उनके अन्तर सम्बन्धी अतिमफालि के द्रव्यको सम्यक्त्वकी प्रथमस्थिति मे ही गुणश्रेणीरूप से निक्षिप्त करता है।" इसीप्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके चरमफालि सम्बन्धी द्रव्यको अन्यत्र निक्षिप्त नही करता, परन्तु अपनी प्रथम स्थिति मे हो निक्षिप्त करता है । (ज. ध मूल पृ. १८१३-१४) २ प पु ६ पृ २८६-२६१ । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२१-२२२ ] लब्धिसार [ १७७ चारित्रमोहोपशम विधान में पाये जाने वाले आठ कार्योंका निर्देश करते हैंतिकरणबंधोसरणं कमकरणं देसघादिकरणं च । अंतरकरणं उवसमकरणं उवसामणे होंति ॥ २२० ॥ अर्थ - चारित्रमोहनीयका उपशम करनेमे आठ करण होते है । 'तिकरण' अर्थात् अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीनकरण तथा बधापसरण, क्रमकरण, देशघातिकरण, अन्तरकरण और उपशमकरण । इसप्रकार प्राठकरण होते है । दिशेषार्थ - अध' करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बधापसरण, अन्तरकरण और उपशमकरणका स्वरूप प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिमे कहा जा चुका है । अनिवृत्तिकरणकालमे मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनका स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीयके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा नाम व गोत्रका स्थितिबन्ध तुल्य, परन्तु पूर्वसे असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रमसे स्थितिबन्ध होता है इसको पाचवा क्रमकरण कहते है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका बन्ध जब देशघातिरूपसे होने लगता है, सर्वघातिरूपसे बन्ध नही होता उसको छठा देशघातिकरण कहते है । आगे अपूर्वकरण में स्थितिकांडकका कथन करते हैंविदियकरणादिसमये उवसंततिदंसणे जगणेण । पल्लम्स संखभागं उक्कस्सं सायरपुधत्तं ॥ २२९ ॥ ठिदिखंडयं तु खइये वरावरं पल्लसंखभागो दु । ठिदिबंधोसरणं पुण वरावरं तत्तियं होदि ||२२२ || अर्थ– द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि के द्वितीय ( अपूर्व ) करण के आदि ( प्रथम ) समयमे स्थितिकाडक जघन्यसे पल्यका सख्यातवाभाग आयामवाला और उत्कृष्टसे पृथक्त्वसागरप्रमाणवाला होता है, किन्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिकाडकआयाम पल्य के असख्यातवेभाग मात्र है । जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिवधापसरण उतना ही अर्थात् पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण है । विशेषार्थ - अधः प्रवृत्तकरण नामका गुणस्थान न होने के कारण गाथामे ग्रध:करणके कार्योंका उल्लेख नही किया, किन्तु गाथा २२० के अनुसार अध-प्रवृत्तकरण Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] लब्धिसार [ गाथा २१८-२१६ तदनन्तर द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि के विशुद्धिमें हानिवृद्धिका कथन करते हैं ते परं यदि वा वहृदि उवसंतदंसणतियो होदि ५ दो विसुद्धीहिं । १मत्तापमत्तेसु ॥२१८॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयकी तीनो प्रकृतियोका उपशम करनेवाला द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि उसके बाद (अन्तर्मुहूर्त तक विशुद्धि से बढ़ने के बाद) विशुद्धि के द्वारा कभी घटता है, कभी बढता है और कभी अवस्थित रहता है । विशुद्धिको हानि - वृद्धि के प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थान होते रहते हैं । विशेषार्थ - स्वस्थानको ( अप्रमत्तगुणस्थानके) प्राप्त हुए जीवके सक्लेश चौर विशुद्धिवश परिणामोके वृद्धि हानि और अवस्थामे सचरणके प्रति विरोधका प्रभाव है ' । प्रथानन्तर उपशमश्र णिमें होने वाले प्रमुखकार्यो का कथन करते हैंएवं प्रमत्तमियर परावत्तिसहस्लयं तु कादूण | इगवीसमोहणीयं उवसमदि ण श्ररणपयडीसु ॥ २१६ ॥ अर्थ - इस प्रकार प्रमत्त व अप्रमत्त मे सहस्रोवार परावर्तन करके मोहनीयकी इक्कीस प्रकृतियोको उपशमाता है, अन्य कर्मोको नही उपशमाता । विशेषार्थ -- जिसप्रकार अनन्तानुवन्धियोकी विसयोजना करके स्वस्थानको प्राप्त हुआ उक्त जीव असातावेदनीय ग्रादिके बन्धके योग्य होता है उसी प्रकार यह भी उपशान्तदर्शनमोहनीय हो विशुद्धिकालको विताकर प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानो में परावर्तन करता हुआ असातावेदनीय, अरति शोक और अयश कीर्ति आदि अशुभ प्रकृतियोका बन्धक होकर उनके सहस्रो बन्धपरावर्तन करता हुआ अन्तर्मुहूर्त काल तक विश्राम करके पश्चात् उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धि के अभिमुख होता है | अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना पहले हो चुकी और दर्शनमोहका उपशम करके द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि हुआ प्रत चारित्रमोहकी २१ प्रकृतिया शेष रही; जिनके उपशम करनेको उद्यमी हुआ है । मोहनीयकर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मो का उपशम नही होता; अत उनके उपशमका निषेध किया गया है । ज. ध पु १३ पृ २०६ । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२३ ] लब्धिसार [ १७६ उनमें से जो क्षीणदर्शनमोहनीय कषायोका उपशामक होता है, कषायों का उपशम करने के लिए उद्यत हो अपूर्वकरणमे विद्यमान हुए उसके प्रथम स्थितिकाडकका क्या प्रमाण है ? ऐसा पूछने पर 'नियमसे पल्योपमका सख्यातवाभाग होता है' इस वचनके द्वारा उसके प्रमाणका निर्देश किया गया है | दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले परिणामो के द्वारा पहले ही अच्छी तरह से घातको प्राप्त हुई स्थितिमे अधिक स्थितिकाण्डककी योग्यता सम्भव नही है, ' परन्तु जो दर्शनमोहनीयके उपशम द्वारा द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि होकर कषायोका उपशम करता है उसके लिए ऐसा कोई नियम नही है । उसके जघन्य स्थितिकाडक तो पल्योपमके संख्यातवे भाग प्रमाण ही होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थितिकाडक सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिए । उपशान्तदर्शनमोहनीय या क्षीरणदर्शनमोहनीय कषायोंका उपशामक जो जीव अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्धरूपसे जिस स्थिति समूहका अपसरण करता है जघन्य और उत्कृष्ट वह समूह भी पल्योपमके सख्यातवे भागप्रमारण होता है, वहा अन्य विकल्प नही है । श्रागे अनुभागकाण्डक आदिके प्रमाणका निर्देश करते हैं असुहाणं रसखंडमणंतभागा व खंडमियरां । अंतोकोडाकोडी सत्तं बंधं च तट्ठा ॥२२३॥ अर्थ — अपूर्वकरणके प्रथम समयमे प्रशुभकर्मो के अनन्तबहुभाग अनुभागका घात करनेके लिए अनुभागकाडक होता है तथा इतर अर्थात् शुभ प्रकृतियोका अनुभागकाडक नही होता और उसी प्रथम समयमे सर्वकर्मोका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व अत:hastatsसागर होता है । विशेषार्थ - अपूर्वकररण के प्रथम समयमे स्थितिबन्ध व स्थिति सत्कर्म अन्तकोडाकोड़ीसागरसे अधिक सम्भव नही है । तथा शुभ प्रकृतियोका अनुभागकाडकघात १. ज.ध पु. १३ पृ. २२२-२३ । २. ज ध. पु. १३ पृ. २२३-२४ । इस विशेषार्थ मे स्थितिबन्धापसररणका प्रमाण बताया गया है ऐसा जानना चाहिये । Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] लब्धिसार [ गाथा २२२ अवश्य होता है और वह सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानमे होता है। सहस्रोवार प्रमत्तअप्रमत्तगुणस्थानमे परावर्तनके पश्चात् उपशमश्रेणिके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हया कषायोंको उपशमानेके लिये अध प्रवृत्त करण परिणामरूप परिणमता है । कषायोका उपशम करनेवाले जीवके अध प्रवृत्तकरण होता है उसमे प्रवृत्ति करने वाले जीवके स्थितिघात अनुभागघात आदि सम्भव नही है । केवल उसके अन्तर्मुहर्तप्रमाण कालके भीतर प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हया सहस्रो स्थितिवन्वापसरण करके अपने प्रथम समयके स्थितिवन्धसे उसके अतिम समयमे संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्धको स्थापित करता है । अप्रशस्तकर्मोका प्रतिसमय अनन्तगुणी हानिको लिये हुए अनुभागबन्धापसरण भी करता है । यद्यपि इन करणोके लक्षणोके कथनमे वस्तुत कोई भेद नही है तथापि पूर्वके करणोमें विशुद्धि अनन्तगुणीहीन होती है और आगेके करणोमें विशुद्धि अनन्तगुणी अधिक होती है । इसप्रकार इन करणोमें जो भेद उपलब्ध होता है उसका आश्रयकर पृथक्-पृथक् कार्योकी सिद्धि हो जाती है इसमें कोई विरोध नही उपलब्ध होता है। कषायोका उपशामक यह जीव क्षीणदर्शनमोहनीय होवे अथवा उपशान्तदर्शनमोहनीय होवे, दोनोके उपशम श्रेणिपर आरोहण करनेमे निषेधका अभाव है । १ ज. ध पु १३ पृ २१० । ध, पु. ६ पृ २६२ । क पा सु पृ. ६८० । २ सयमगुणश्रेणी को छोडकर अधःप्रवृत्त परिणाम निवन्धन गुणश्रोणि भी नहीं है । (घ. पु. ६ पृ २६२) ३ ज ध पु १३ पृ २१३, ध पु ६ पृ २६२, क पा. सु पृ ६८० । ४ प्रथमोपशमसम्यक्त्व की उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धी की विसयोजना, द्वितीयोपशमकी उत्पत्ति, क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, चारित्रमोहको उपशामना, चारित्रमोहकी क्षपणा इन कार्यों में तीन करण होते है, उनमे लक्षण भी सर्वत्र समान है, परन्तु विशेष यह है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय इन तीन करणो मे सबसे कम विशुद्धि होती है तथा चारित्रमोहकी क्षपणा के समय इन तीन करणोमे सबसे अधिक विशुद्धि होती है। मध्यस्थानो मे अधिकारी भेद से यथायोग्य विशुद्धि जान लेना चाहिये [ज ध पु १३ प २१४, ध पु ६ पृ २८६] ५ ज घ. पु १३ पृ २१३-१४, ध. पु ६ पृ २८६ । ६ दोण्हपि उबसेडिसमारोहणे विप्पडिसेहाभावादो [ज. ध मूल पृ. १६१५] Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा २२६ ] [ १८१ विशेषार्थ - अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रविष्ट हुए संयतजीवके जिस काल में निद्रा और प्रचलाका बन्धविच्छेद होता है वह काल सबसे थोडा है, क्योकि वह पूर्वकरण के कालका सातवा भाग प्रमाण है' । उससे परभव सम्बन्धी नामकर्म की प्रकृतियों का बन्धविच्छेदकाल संख्यातगुणा है, क्योकि वह अपूर्वकरणकाल के छह बटे सात भागप्रमाण है । इससे अपूर्वकरणका सम्पूर्णकाल विशेषाधिक है । इस विशेषाधिकताका प्रमाण अपूर्वकरणके कालके सातवे भागरूप है । यह अपूर्वकरण प्रविष्ट जीव पहले के समान स्थितिघात व अनुभागघात को करता हुआ अपूर्वकरण के अन्तिम समय के प्राप्त होने तक जाता है । तत्पश्चात् इस कालके चरम समय मे स्थितिकाडक, अनुभागकाडक और स्थितिबन्ध एक साथ समाप्त होते है । इसी समय ही हास्य, रति, भय और जुगुप्सा का बन्धविच्छेद होता है; क्योकि इससे उपरिम विशुद्धिया उनके बन्धके विरुद्ध स्वभाव - वाली है । इसी समय हास्य, रति, रति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कर्मो का उदय विच्छेद होता है, क्योकि इससे ऊपर इनकी उदयरूप शक्तिका अत्यन्त प्रभाव होनेसे इनका उदयरूपसे प्रवेश रुक जाता है । यहा पर स्थितिसत्कर्मका प्रमाण अपूर्वकरणके प्रथम समयमे प्राप्त स्थितिसत्कर्म से संख्यातगुणा हीन अन्तःकोडाकोडीके भीतर है । इसीप्रकार स्थितिबन्धका प्रमाण भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि प्रत - कोडाकोडीके भीतर लक्षपृथक्त्व प्रमाण है ऐसा कहना चाहिये । इसप्रकार अपूर्वकरण के कालका पालनकर उसके अनन्तर समयमे अनिवृत्तिकररणमे प्रविष्ट होता है । अब आगे अनिवृत्तिकररणके प्रथम समय में होने वाले कार्योका निर्देश करते हैंयस्य पढमे अट्ठिदिखंड पहृदि मावई । उवसामणा वित्ती णिकाचणा तत्थ वोच्छिणा ॥ २२६ ॥ अर्थ — श्रनिवृत्तिकरण के प्रथम समयमे अपूर्वकरण के चरमसमय सम्बन्धी स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धापसरण, अनुभागखण्डसे अन्य ही ( विलक्षण ही ) स्थितिखण्ड, स्थितिबन्धासरण, अनुभागखण्ड प्रारम्भ करता है । वही ( अनिवृत्तिकरण के प्रथम - समयमें) सभी कर्मों के उपशम, निधत्ति और निकाचना इन तीन करणोकी व्युच्छित्ति है । १. ध. पु१३ पृ. २२७ । २. ज. ध पु. १३ पृ २२८-२६ । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] लब्धिसार [ गाथा २२४-२.५ नही होता, क्योकि विशुद्धि के द्वारा शुभ प्रकृतियो के अनुभाग का खण्डन नही होता' । अब प्रपूर्वकरणके प्रथमसमयमें गुणश्रेणि निर्जराका प्ररूपण करते हैउदयास्स वाहिं गलिदवसेसा पुरवाणिट्टी । सुहुमद्धादोहिया गुणसेडी होदि तट्ठाणे ॥ २२४॥ अर्थ—अपूर्वकरणके प्रथम समयमे उदयावलिसे बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणि होती है । गुणश्रेणिनिक्षेप प्रपूर्वकरण श्रनिवृत्ति कररण- सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अधिक है । विशेषार्थ - प्रधिकका प्रमाण उपशान्तकषायके कालका सख्यातवाभाग है र तथा यही पर नपुसकवेद आदि अबध अप्रशस्त प्रकृतियो सम्बन्धी गुणसक्रमणका भी प्रारम्भ होता है । अपूर्वकरणमें बन्ध-उदय व्युच्छित्तिको प्राप्त प्रकृतियों को बताने के लिए आगे गाथा सूत्र कहते हैं १ पढमे छठे चरिमे बंधे दुग तीस चदुर वोच्छिण्णा । छण्णोकसायउदयो अपुचचरिमम्हि वोच्छिण्णा ॥२२५॥ अर्थ — प्रपूर्वकरणकालसम्बन्धी सातभागो में से प्रथमभागमे निद्रा व प्रचला ये दो, छठे भागमे तीर्थंकर आदि तीस और सातवे भाग मे हास्यादि चार, इसप्रकार ३६ प्रकृतिया बन्धसे व्युच्छिन्न हुई तथा अपूर्वकरण के चरमसमय मे हास्यादि छह नोकषाय उदयसे व्युच्छिन्न हुई है । जध पु. १२२६१ । जध पु१३ पृ २२४ व २५१ । जघ. मूल पृ १९४० । ध पु ६ पृ २०६, ६ पु १२ पृ १८ । २ परन्तु जयधवलामे गुण शिका प्रमाण पूर्वकरण व अनिवृत्तिकरणसे साधिक बताया है । जध पु. १३ पृ २२४ । परन्तु अल्पबहुत्व के प्रकरण के प्रथम समय मे गुणश्र ेणी निक्षेप अपूर्वकरण-प्रनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे अन्तर्मुहूर्त से अधिक है । ३ जघ पु १३ पृ २२४ ॥ ४ वन्ध से व्युच्छिन्न ३० प्रकृतिया – देवगति, पचेन्द्रियजाति, वैक्रियिक- श्राहारक- तैजस-कार्मण शरीर, समचतुरस्रसस्थान, वैक्रियिक- प्राहारक शरीरागोपाग, देवगत्यानुपूर्वी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, श्रृगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, निर्माण और तीर्थंकर । Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २२७-२२८ ] लब्धिसार [ १८३ जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्षणके अविरुद्ध पर्यायके योग्य होकर पुनः उदय और परप्रकृतिसक्रमरूप न हो सकनेकी प्रतिज्ञारूपसे स्वीकृत है उस अवस्था विशेषको निधत्तीकरण कहते है, परन्तु जो कर्म उदयादि इन चारोंके अयोग्य होकर अवस्थानकी प्रतिज्ञामें प्रतिबद्ध है उसकी उस अवस्थानलक्षण पर्यायविशेषको निकाचनाकरण कहते है । इसप्रकार ये तीनो ही करण इससे पूर्व सर्वत्र प्रवर्तमान थे, यहा अनिवृत्ति करण के प्रथम समयमे उनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। इनके व्युच्छिन्न होने पर भी सभी कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण, उदीरणा और परप्रकृतिसंक्रम इन चारोके योग्य हो जाते है । आगे अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके प्रथम समयमें कर्मोके स्थितिबन्ध व स्थितिसत्वके प्रमाणका कथन करते हैं अंतोकोडाकोडी अंतोकोडी य सत्त बंधं च । सत्तरहं पयडीणं अणियट्टीकरणपढमम्हि ॥२२७॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे आयु बिना सात प्रकृतियोंका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोटाकोटीसागर मात्र है और स्थितिवन्ध अन्त कोडाकोडी मात्र है। विशेषार्थ-आयुकर्मको छोडकर शेष कर्मोका स्थितिसत्कर्म अन्त कोडाकोडी सागरोपमके भोतर होता है, क्योकि अत्यन्तरूपसे भी घातको प्राप्त हुए शेष कर्मोका उपशमश्रेणिमे सूत्रोक्त प्रमाण का त्याग किये बिना अवस्थानका नियम देखा जाता है । स्थितिबन्ध अन्त कोडाकोडीके भीतर लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है, क्योकि उसका स्थितिबन्धापसरणके माहात्म्यवश पहले बहुत ह्रास हो गया है, इसलिये उसके सूत्रोक्त सिद्ध होने मे विरोधका अभाव हो गया है । अब तीन गाथाओं में उसी अनिवृत्तिकरणकालमें स्थितिबन्धापसरणके क्रमसे स्थितिबन्धोंके क्रमशः अल्प होनेका कथन करते है ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा । तत्थ अलगिणस्त ठिदीसरिस ट्ठिदिबंधणं होदि ॥२२८॥ १. ज. प. पु. १३ पृ. २३१ । ध. पु ६ पृ. २६६; घ. पु. ६ ५ २३६, घ. पु १५ . २४६, गो. के. गा. ४४०-४४४ एवं ४५० । Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २२६ विशेषार्थ - जिसप्रकार अपूर्वकरणमे स्थित सयत पल्योपमके सख्यातवे भागप्रमाण आयामवाले स्थितिकाडकको ग्रहणकर आया है उसीप्रकार यह भी अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे स्थितिकाडकको ग्रहण करता है, वहा नानापन नही है । इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिकांडकसे लेकर विशेषहीन क्रमसे स्थितिकाडको के अपवर्तित होनेपर सख्यातहजार स्थितिकांडक गुणहानियोका उल्लघनकर उससे (प्रथम समयके स्थितिकाडकसे ) अपूर्वकरण के अन्तिम समयमे सख्यातगुणा हीन स्थितिकाडक होता है । तथा अनिवृत्तिकरणमे प्रविष्ट हुए सयतजीवका प्रथम स्थितिकाडक उससे विशेष हीन होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए | १-२ ] अपूर्व स्थितिबन्ध पल्योपमका सख्यातवांभाग हीन होता है । अनुभागकाण्डक शेषका अनन्त बहुभागप्रमाण होता है, क्योकि सयतजीव अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय मे अनुभागकाडकके संक्रमको इससे पूर्व घाते गये अनुभाग सत्कर्म के अनन्त वहुभागप्रमाण ग्रहण करता है उसमे अन्य प्रकार सम्भव नही है । गुणश्रेणि प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे होती है जिसका उत्तरोत्तर गलितशेष आयाममे निक्षेप होता है । जिसप्रकार अपूर्वकरणमे प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उदयावलिके बाहर गलित-शेष- आयाममे गुणश्रेणिका विन्यास होता है उसीप्रकार यहा भी जानना चाहिए । वहा कोई प्ररूपणा भेद नही है । गुणसक्रम भी पूर्वोक्त अप्रशस्त प्रकृतियोका यहा पर बिना रुकावट के प्रवृत्त होता है ऐसा यहां ग्रहरण करना चाहिए । इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, भय और जुगुप्साका गुणसक्रम भी यहासे प्रारम्भ होता है, क्योकि अपूर्वकरण के अन्तिम समय में उनका बन्ध विच्छेद हो जाता है इसलिए उनका उसप्रकार परिगमन होने मे विरोधका अभाव है । इसप्रकार इन क्रियाकलापो मे नानापनका कथन किया गया है । उपशामनाकरण, उसी अनिवृत्तिकरण कालके प्रथम समय मे अप्रशस्त निधत्तीकरण और निकाचनाकरण व्युच्छिन्न होते है । सभी कर्मोके अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमे प्रवेश करनेके प्रथम समयमे ही ये तीनो ही कररण युगपत् व्युच्छिन्न हो जाते हैं । उसमे जो कर्म अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमके योग्य होकर पुनः उदीरणाके विरुद्ध स्वभावरूपसे परिणत होनेके कारण उदयस्थितिमे अपकर्षित होने के अयोग्य है वह उसप्रकारसे स्वीकार की गई अप्रशस्तउपशामनाकी अपेक्षा उपशान्त ऐसा कहलाता है । उसकी उस पर्यायका नाम अप्रशस्तउपशामनाकरण है । इसी प्रकार Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा २३०-२३१ ] [ १८५ * एई दियट्टिदीदो संखसहस्ले गदे दु ठिदिबंधो । पल्लेकदिवड्डदुगे ठिदिबंधो वीसियतियाणं ॥२३०॥ अर्थ-एकेन्द्रियसदृश स्थितिबन्धसे सख्यातहजार स्थितिबन्ध बोत जानेपर क्रमसे वीसिया ( नाम-गोत्र ) का एक-एक पल्य, तीसीया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मो ) का डेढपल्य, चालीसिया ( चारित्रमोहनीय ) का दो पल्य प्रमाण स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। उससे चार कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण कितना है ? द्वितीयभागप्रमाण है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण कितना है ? तृतीय भागप्रमाण है' । अब बन्धापसरण के विषयमें विशेष स्पष्टीकरण करते हैंपल्लस्स संखभागं संखगुणणं असंखगुणहीणं । बंधोसरणं पल्लं पल्लासंखंति संखवस्संति ॥२३१॥ अर्थ-पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यके सख्यातवेभाग प्रमाणवाला स्थितिबंधापसरण होता है। उसके पश्चात् पल्यके असख्यातवेभाग स्थितिवन्ध प्राप्त होने तक पल्यके संख्यात बहुभाग प्रमाणवाला स्थितिबधापसरण होता है । उसके पश्चात् सख्यातहजारवर्ष स्थितिबन्ध प्राप्त होने तक पल्यका असंख्यात वहभाग प्रमाणवाला स्थितिबन्धापसरण होता है। विशेषार्थ-पल्योपमका सख्यातवे भागप्रमाण स्थितिवन्धापसरण तवतक होता है जबतक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धको नही प्राप्त होता । पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धके हो जानेपर वहासे लेकर सख्यात बहुभागका स्थितिवन्धापसरण होता है यह नियम है। पल्योपमका संख्यातवांभाग दूरापकृष्ट संज्ञावाला स्थितिवन्धसे लेकर पल्योपमके असंख्यात बहुभागोका स्थितिबन्धापसरणका नियम है । इस गाथामे इन नियमोका उपसहार किया गया है । १. ज. घ. पु. १३ पृ. २३४ प ३३ से पृ. २३५ पं. १६ । २. ज.ध. पु. १३ पृ. २३५ व २४० । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २२९ १८४] अर्थ-सहस्रो स्थितकाडक व्यतीत हो जाने पर तथा अनिवृत्तिकरणकालका बहुभाग बीत जानेपर असमीके स्थितिबधके समान स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थ-तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक हजारों अनुभागकाडकोके अविनाभावी ऐसे बहुत हजार स्थितिकाडकोके स्थितिबन्धापसरणोके माय व्यतीत होने पर सातो ही कर्मोका स्थितिबन्ध लक्षपृथक्त्व सागरोपमसे बहत अधिक घटकर हजारपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण हो जाता है । तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरणके मन्यात वहुभाग के व्यतीत होनेपर असज्ञीके समान स्थितिबन्ध होता है। इतनी विणेपता है कि मोहनीयकर्मका हजार सागरोपमके चार बटे सात भागप्रमाण असज्ञीके योग्य स्थितिबन्धके हो जानेपर शेष कर्मोंका अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार हजार सागरोपमका तीन वटे सात भागप्रमाण और दो बटे सात भागप्रमाण यहा पर स्थितिबन्धका प्रमाण होता है ।। ठिदिबंधपुछत्तगदे पत्तेयं चदुर तिय वि एएदि । ठिदिवंधसमं होदि हु ठिदिवंधमणुक्कमेणेव ॥२२६॥ अर्थ- उसके पश्चात् प्रत्येक स्थानके लिये पृथक्त्व स्थितिबधापसरण बीत जानेपर क्रमसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय व एकेन्द्रिय जीवोके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-इतनी विशेषता है कि अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार चतुरिन्द्रिय आदि जीवोमे क्रमसे सौ सागरोपम, पचास सागरोपम, पच्चीस सागरोपम और पूरे एक सागरोपमके चार वटे सात भाग,' तीन वटे सात भाग और दो बटे सात भागप्रमाण जो स्थितिवन्ध होता है उसके समान स्थितिबन्ध होता है । यहा पर पृथक्त्वका निर्देश विपुलतावाची है अत. हजार पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए । १. ध पु.: पृ २६५। २. नानावरण, दर्गनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मका ३. नाम-गोत्रका ४ ज. घ. पु. १३ पृ. २३३ । " चारित्रमोहका स्थितिबन्ध । ६ भानावरण-दर्गनावरण वेदनीय व अन्तरायका । ७. नाम व गोत्रमा ८ ज घ. पु. १३ पृ. २३३ । ६ जप पु १३ पृ २२५।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३२ ] लब्धिसार [ १८७ सख्यातवेभागप्रमाण होता है । तब स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार हैनाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक होता है, उससे चार कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा होता है । तथा उससे मोहका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मका भी स्थितिबध पल्योपमप्रमाण होता है। उसके पश्चात् जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह स्थितिबन्ध आयुकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोका पल्योपमके सख्यातःभागप्रमाण होता है, क्योकि मोहनीयकर्मका भी संख्यात बहुभागोंसे हीन तत्काल होनेवाला स्थितिबन्ध पल्योपमके सख्यातवे भागमात्र होता है । उस समय स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार हैनाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर सख्यातगुणा है, उससे मोहनीयकर्मका स्थितिवध सख्यातगुणा है । जब तक नाम और गोत्रकर्मका दूरापकृष्टि सज्ञावाला अन्तिम पल्योपमका सख्यातवाभागप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होता है, तबतक अल्पबहुत्वका यह क्रम विच्छिन्न नही होता । तत्पश्चात् नाम व गोत्र कर्मका अन्य स्थितिबन्ध पल्योपमके असख्यातवे भागप्रमाण है, क्योकि दूरापकृष्टि स्थितिबन्धसे लेकर असख्यात बहुभागोका स्थितिबन्धापसरणका नियम है । इससे ज्ञानावरणादिकर्मोका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है, क्योकि अभी दूरापकृष्टिसज्ञक बन्ध प्राप्त नहीं हुआ है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है। इस अल्पबहुत्वविधिसे बहुत हजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर ज्ञानावरण आदि चार कर्मोका दूरापकृष्टिविषयक स्थितिबन्ध प्राप्त होता है। उसके बाद इन कोका असख्यात बहभागवाला स्थितिबन्धापसरण होता है । उस समय नाम व गोत्र कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोका स्थितिवन्ध असख्यातगुणा है। उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है, क्योकि अभी भी पल्योपमके सख्यातवे भागप्रमाण स्थितिबन्ध है, दूरापकृष्टिको नहीं प्राप्त हुआ है। ___ इसी क्रमसे बहुत हजार स्थितिबन्ध बीत जाने पर मोहनीयकर्मका दूरापकृष्टिसज्ञक स्थितिबन्ध होता है। आगे भी सख्यातहजार स्थितिबन्धापसरण इसी अल्पवहत्व कमसे व्यतीत होते है, किन्तु इन बन्धापसरणोमे सभी कर्मोके पल्योपमके असख्यातवे भागप्रमाण स्थितिबन्धोमे असख्यातगुणा हानिरूपसे अपसरण करता है'। १ ज ध. पु १३ पृ. २३५-२४२ । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] [ गाथा २३२ आगे स्थितिबन्धके क्रमकरणकालमें स्थितिबन्धोंका प्रमाण बताने के लिए कहते हैं लब्धिसार एवं पल्ले जादे बीसीया तीसिया य मोहोय । पल्लासंखं च कमे बंधेण य वीसियतियाओ || २३२ ॥ अर्थ --वीसिया ( नाम व गोत्र कर्म ), तीसिया ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय ) और मोहनीय कर्मके स्थितिबन्धका जो क्रम पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्धके समय है वही क्रम पल्यके असख्यातवेभाग स्थितिबन्धमे भी रहता है । विशेषार्थ - - नाम व गोत्रकर्मके पल्योपमप्रमारण स्थितिवाले बन्धसे ग्रागे अन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा हीन होता है, क्योकि पल्योपमप्रमाण स्थितिवालेबन्धके हो जानेपर वहासे लेकर सख्यात बहुभागोका स्थितिबन्धा पसरण होता है, यह नियम है । यहा से लेकर नाम और गोत्रकर्मके स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर सख्यातगुणाहीन अन्य स्थितिवन्ध होता है तथा शेष कर्मोका जबतक पल्योपम स्थितिवाला बन्ध नही प्राप्त होता, तब तक प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर पल्योपमका संख्यातवाभाग हीन अन्य स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार हजारो स्थितिबन्धोके बीत जाने पर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्मो का पल्योपमवाला बन्ध होता है, क्योकि डेढ पल्योपमप्रमाण विवक्षितपूर्व स्थितिबन्ध मे से पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध के घटाने पर शेष बचे अर्धपल्योपममे एक स्थितिबन्धापसरणके आयामका भाग देनेपर सख्यातहजार सख्या ( स्थितिबन्धापसरणोकी ) प्राप्त होती है । उस समय मोहनीयकर्म का तीसरा भाग अधिक पत्योपम स्थितिवाला बन्ध होता है, क्योकि जहा तोसिय प्रकृतियोका पल्योगमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है वहा चालीसिय प्रकृतिका कितना स्थितिबन्ध होगा इसप्रकार त्रैराशिक करके मोहूनीयका तीसरा भाग अधिक पत्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध प्राप्त होता है । तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि चार कर्मोका भी जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह सख्यातगुणा हीन होता है और मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष हीन होता है, क्योंकि चार कर्मों के पल्योपम स्थितिवाले बन्धके बाद तब पल्योपमके सख्यात बहुभागवाला स्थितिबन्धापसरण प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु मोहनीयकर्म पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध नही प्राप्त हुआ है । इसलिये उस समय मोहनीयका स्थितिबन्धापसरण पत्योपमके Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३५-२३६ ] लब्धिसार [ १८६ विशेषार्थ-अनन्तर पूर्व प्ररूपित अल्पबहुत्व विधिसे बहुत हजार स्थितिबन्धापसरण व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मकी स्थितिका विशेष घात होनेके कारण बहुत अधिक घटनेवाले मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध एक बारमे सबसे अल्प हो जाता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है, उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है'। अब अन्य कमका निर्देश करते हैंतेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वेयशीयहेट्ठादु । तीसिय घादितियाओ असंखगुणहीणया होति ॥२३५॥ अर्थ-उतने ही अर्थात सख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानावरणादि तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा हीन हो जाता है। विशेषार्थ-पहले वेदनीयकर्मके स्थितिबन्ध सदृश ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध था जो विशेष घात होनेके कारण एक बार में उससे असख्यातगुणा हीन होकर नीचे निपतित हो जाता है। यहां पर अल्पबहुत्व इसप्रकार है-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध अल्प है । उससे नाम और गोत्रकर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असख्यातगुणा है उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनो ही कर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है, क्योकि जिसप्रकार घातिकर्मो का विशुद्धिके वश विशेषघात होता है उस प्रकार इस अघातिकर्मका विशुद्धिके वश बहुत स्थितिबन्धापसरण सम्भव नही है, वेदनीयकर्मके स्थितिबन्धसे तीनो ही कर्मोका घटता हुआ स्थितिबन्ध सख्यातगुणाहीन होता है या विशेष हीन होता है ऐसा कोई विकल्प नहीं है, किन्तु एकबार मे वह असख्यातगुणा हीन हो जाता है । पुनरपि कमभेद को दिखाते हैंतत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठादु । तीसिय घादितियाओ असंखगुणहीणया होंति ॥२३६॥ १. ज ध पु १३ पृ. २४४; क. पा सुत्त पृ. ६८७ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २३३-२३४ १८८ ] इस स्थल पर अल्पबहुत्वकी रूपणामें पाई जाने वाली विशेषता का कथन अगलो गाथामे करते हैं मोहगपल्लासंखदिदिबंधसहस्सगेतु नीदेसु । मोहो तीलिय हेट्ठा, असंखगुणहीणयं होदि ॥२३३॥ अर्थ-मोहनीयकर्म सम्बन्धी पल्यके असख्यातवेभाग प्रमाणवाले हजारों स्थितिवन्धोके व्यतीत हो जानेपर मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध ज्ञानावरणादि कर्मोके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा हीन होता है ।। विशेषार्थ-विशुद्धिरूप परिणामोमें वृद्धि होने पर अतिशय अप्रशस्त मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धका एकबार मे ही विशेष घात होकर ज्ञानावरणादि चार कर्मोके स्थितिबन्धकी अपेक्षा कम स्थितिवाला होता हुआ नियमसे असख्यातगुणा हीन हो जाता है इसलिये यहा पर सख्यातगुणा हीन आदि अन्य विकल्प सम्भव नही है । जवतक मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध ज्ञानावरणादि चार कर्मोके स्थितिवन्धसे अधिक था तबतक वह असख्यातगुणा था। अब असख्यातगुणे स्थानमे असख्यातगुणा हीन हो गया । इसकी अपेक्षा नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सवसे अल्प है, उससे मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध असख्यातगुणा तथा उससे ज्ञानावरणादि चार कर्मोका स्थितिवन्ध असख्यातगुणा है। तदनन्तर दूसरे कमका निर्देश करते हैंतेत्तियमेत्ते बंधे समतीदे वीसियाण हेट्ठावि । 'एक्कसराहो मोहो असंखगुणहीणयं होदि ॥२३४॥ अर्थ-उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जाने पर वीसिया अर्थात् नाम व गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा हीन हो जाता है। यह एक सदृश है अर्थात् असख्यातगुणा हीन ही है, अन्य प्रकार नही है। १. ज ध पु १३ पृ २४२-२४४ । २. एकसदृश एकशराघात इत्यर्थ । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २३६-२४० ] लब्धिसार [ १६१ अर्थ-पल्यके असंख्यातवेभाग प्रमाणवाले संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जानेपर असख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा होती है । विशेषार्थ-अनन्तर पूर्व कहो गई इस अल्पबहुत्व विधिसे हजारों स्थितिबन्धापसरण क्रियाको करते हुए जीवका जब कितना ही काल निकल जाता है तब पुनः जो कर्म बधते है उन सभी कर्मोका स्थितिबन्ध पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण ही होता है, अभी तक किसी भी कर्मका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध प्रारम्भ नही हुआ है, क्योकि इससे बहुत दूर ऊपर जाकर अन्तरकरणके पश्चात् संख्यातवर्षकी स्थितिवाले बन्धका प्रारम्भ देखा जाता है, किन्तु इस स्थल पर सभी कर्मोका स्थितिसत्कर्म अन्त - कोडाकोड़ीके भीतर जानना चाहिए, क्योकि उपशमश्रेणिमें अन्य प्रकार सम्भव नही है। यहां ये जितने स्थितिबन्धापसरण हुए है वहां सर्वत्र ही पूर्वोक्त विधिसे स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात और गुणश्रेणि आदिका अनुगम करना चाहिए, क्योकि इस विषयमे नानात्व नही पाया जाता। __पूर्व में सर्वत्र ही जो उदीरणा असख्यातलोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार प्रवृत्त होती आ रही थी इससमय वह उदीरणा परिणामोके माहात्म्यवश पूर्वोक्त क्रियाकलापके ऊपर असख्यात समयप्रबद्धोंकी प्रवृत्त होती है, क्योकि अपकर्षण भागहारसे असख्यातगुणे भागहारके द्वारा डेढ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोको भाजितकर जो असख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण एक भाग लब्धरूपसे प्राप्त होता है उसका यहा उदीरणारूपसे उदयमे प्रवेश देखा जाता है, परन्तु यहा सर्वत्र उदीरणाको उदयके असख्यातवे भागप्रमाण ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि उत्कृष्ट उदीरणाद्रच्यका भी ऐसा नियम है कि वह उदयगत गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको देखते हुए असख्यातगुणा हीन देखा जाता है । अथानन्तर दो गाथाओं में देशघातिकरणका कथन करते हैंठिदिबंधसहस्सगदे मणदाणा तत्तियेवि ओहिदुगं । लाहं व पुणो वि सुदं अचक्खु भोगं पुणोचक्खु ॥२३६।। पुणरवि मदिपरिभोगं पुणरवि विरयं कमेण अणुभागो। बधेण देसघादी पल्लासंखं तु ठिदिबंधे ॥२४०।। १. क. पा. सु. पृ. ६८८ सूत्र ११५ । २. ज. ध पु १३ पृ. २४८-४६ । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] लब्धिसार अब क्रमकरणका उपसंहार करते हैं तक्काले वेरियं ग्रामागोदाद साहियं होदि । इदि मोहतीसवीसियवेयणियाणं कमी जादो ॥ २३७॥ [ गाथा २३७-२३८ अर्थ - उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जाने पर तीन घातिया तीसिय अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय कर्मोका स्थितिबन्ध वीसिय अर्थात् नाम व गोत्र कर्मोके स्थितिबन्धसे असंख्यातगुणा हीन होता है । उसी समय नाम व गोत्रसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है । इसप्रकार मोहनीय, तीस वीस और वेदनीयकर्मोका क्रम होता है । विशेषार्थ --- इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनो ही कर्मोका स्थितिबन्ध एकबार मे ही विशेष घातको प्राप्तकर नाम व गोत्र कर्मोंके स्थितिबन्धसे ग्रसंख्यातगुणा होन हो गया, क्योकि नाम व गोत्र इन दोनो अघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष घातको प्राप्त नही होता । यद्यपि पहले इन तीनो घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध नाम व गोत्र कर्मोके स्थितिवन्धसे असख्यातगुरगा होता था । उस समय स्थितिबन्धका क्रम इस प्रकार हो जाता है मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीनो कर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर सख्यातगुणा, उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा, उससे वेदनीय कर्मका स्थितिवन्ध द्वितीयभागमात्र विशेष अधिक है, क्योकि नाम व गोत्रकर्म वीसिया है और वेदनीय कर्म तीसिया है' । आगे क्रम करणके अन्त में असंख्यात समयप्रबद्धोंकी उदीरणा और उसका कारण बताते हैं तीदे बंधसहस्से पल्लासंखेज्जयं तु ठिदिबंधो। तत्थ असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥ २३८॥ १. ज. व. पु. १३ पृ. २४६-२४८ । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४१-२४२ ] लब्धिसार [ १६३ घातिकरण नही बन सकता। शङ्का-चार सज्वलन और पुरुषवेदके अनुभागबन्धका यहा पर देशघातिकरण क्यों नही कहा ? समाधान-नही, क्योकि उनका अनुभागबन्ध पहले ही सयतासंयत गुणस्थानसे लेकर देशघाति द्विस्थानरूपसे प्रवर्तमान है अत. इस स्थलपर उनके देशघातिपनेके प्रति विसंवाद उपलब्ध नही होता । संसार अवस्थामे सर्वत्र क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिमें देशघातीकरणके पूर्व सर्व जीव विवक्षित कर्मोके सर्वघाति अनुभागको ही बाधते है। इन कर्मोके देशघाति हो जाने पर भी मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प होता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मका स्थितिबन्ध असख्यातगुणा होता है। उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । उससे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । अब चार गाथाओंमें अन्तरकरण का निरुपण करते हैंतो देसघादिकरणादुवरिं तु गदेसु तत्तियपदेसु । इगिवीसमोहणीयाणंतरकरण करेदीदि ॥२४१॥ अर्थ- उपर्युक्त देशघातिकरणसे ऊपर उतने ही अर्थात् संख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मकी इक्कीस प्रकृतियोका अन्तरकरण करता है । विशेषार्थ-इस देशघातिकरणके पश्चात् इस अल्पबहुत्व विधिसे संख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर अन्तरकरण करनेके लिये प्रारम्भ करता है। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ इन बारह कषायोका तथा हास्यरति, अरति-शोक, भय-जुगुप्सा, स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद इन नव नोकषायोका अन्तरकरण करता है, अन्य कर्मोका अन्तरकरण नही करता। संजलणाणं एक्कं वेदाणेकं उदेदि तं दोरहं । सेसाणं पढमट्ठिदि ठवेदि अंतोमुहुत्त भावलियं ॥२४२॥ अर्थ-सज्वलन कषायों में से जिस एक सज्वलनकषायके उदयसे तथा तीनो वेदोमें से जिस वेदके उदयसे श्रेरिण चंढ़ता है उनकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है; शेष प्रकृतियोंकी आवलिमात्र प्रथमस्थिति होती है । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] लब्धिसार [ गाथा २४० अर्थ-सख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर मन पर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायका अनुभागबन्ध देशघाति होता है। पश्चात् सख्यातहजार स्थितिवन्ध व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तराय कर्मोका अनुभागवन्ध देशघाति हो जाता है । पुन' इसीप्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तराय कर्मोंका अनुभागवन्ध देशघाति हो जाता है। पुन. चक्षदर्शनावरणीयकर्मका अनुभागबन्ध देशधाति हो जाता है पुनरपि मतिनानावरणीय और परिभोगान्तरायकर्मोका अनुभाग देशघाति हो जाता है पुनरपि वीर्यान्तराय कर्मोका अनभागवन्ध देशघाति हो जाता है, किन्तु स्थितिबन्ध पल्यके असख्यातवेभागप्रमाण होता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त सन्धिके बाद जिस प्रत्येक स्थितिकाण्डकमे हजारो अनुभागकाण्डक गभित हैं ऐसे संख्यात स्थितिकाडकोके व्यतीत होनेपर मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्मका अनुभाग बन्धकी अपेक्षा देशघाति हो जाता है, क्योकि उन कर्मोके सबसे मन्द परिणामरूप अनुभागबन्धका उसप्रकारसे परिणमन होनेमे विरोधका अभाव है। इन कर्मोका पहले जो अनुभागबन्ध सर्वघाति द्विस्थानरूपसे होता रहा है यहा वह एक बारमे सहकारी कारणरूप परिणाम विशेषको प्राप्तकर देशघाति द्विस्थानरूपसे परिणत हो गया है, परन्तु वहां सत्कर्मका अनुभाग तो सर्वघाति द्विस्थानरूप ही होता है, क्योकि उसका देशघातिकरण नही होता। । तत्पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होने पर अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । उसके बाद सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर श्रुतज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्मको वन्धकी अपेक्षा देशधाति करता है । पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर चक्षुदर्शनावरणीयको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है । तत्पश्चात् सख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होने पर प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय और परिभोगान्तरायको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है। उसके बाद संख्यात स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर वीर्यान्तरायकर्मको बन्धकी अपेक्षा देशघाति करता है। शङ्का-इनके इस प्रकार देशघातिकरणका क्रमनियम किस कारणसे है ? समाधान-ऐसी आशका नहीं करनी चाहिए, क्योकि जो कर्म अनन्तगुणी हीन शक्तिवाले हैं और जो कर्म अनन्तगुणी अधिक शक्तिवाले हैं उनका युगपत् देश Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४५-२४७ ] लब्धिसार [ १६५ अर्थ-अन्तरकरण करनेके प्रथम समयमें अन्य स्थितिबन्ध, अन्य स्थितिकाडक, अन्य अनुभागकाण्डक होता है । एक काण्डकोत्कीरणकालमें अन्तर कार्यकी समाप्ति हो जाती है। विशेषार्थ-जिस समय अन्तरकरण करनेका आरम्भ किया उसी समय पूर्वके स्थितिबन्ध, स्थितिकांडक और अनुभागकाडक समाप्त हो जानेके कारण अन्य स्थितिबंधको असंख्यातगुणा हीनरूपसे बाधनेके लिए आरम्भ किया, अन्य स्थितिकाडक पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाणवाला ग्रहण किया और शेष अनुभागके अनन्त बहुभाग को ग्रहण किया । हजारों अनुभागकाण्डकोको भीतरकर होनेवाले स्थितिकाण्डककालके समान अंतरकरणका काल होता है। अतः एक स्थिति कांडकोत्कीरणकालके द्वारा अंतरको सम्पन्न करता है। अब तीन गाथाओं के द्वारा अन्तरकरण करने को विधि बतलाते हैंअंतरहेदुक्कीरिददव्वं तं अंतरम्हि ण य देदि । बंधं ताणंतरजं बंधाणं विदियगे देदि ॥२४५॥ उदयिल्लाणंतरजं सगपढमे देदि बंधविदिये च । उभयाणंतरदव्वं पढमे विदिये च संछुहदि ॥२४६॥ अणुभयगाणंतरजं बंध ताणं च विदियगे देदि । एवं अंतरकरणं सिझदि अंतोमुहुत्तेण ॥२४७॥ अर्थ-अन्तरकरण करनेके लिए उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममे नही देता है, किन्तु जो कर्मप्रकृति मात्र बधती ही है उनके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है। जो कर्मप्रकृतियां उदय प्राप्त है उनको प्रथमस्थितिमे देता है और द्वितीय स्थितिमें भी देता है। जिन कर्मप्रकृतियोका बध और उदय दोनो है उनके उत्कीरित द्रव्यको प्रथम और द्वितीय दोनो स्थितियोमे देता है । जिन कर्मप्रकृतियोका न तो वध होता है और न उदय है उन प्रकृतियोके उत्कीरित द्रव्यको द्वितीय स्थितिमें देता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा अन्तरकरणकी सिद्धि (समाप्ति) होती है। १. ज. प. पु १३ पृ. २५५-५६ । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २४३ - २४४ विशेषार्थ-उ - उदयरूप दोनो प्रकृतियो की अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोडकर ऊपरकी कितनी ही स्थितियोको ग्रहणकर अन्तर करता है । अनुदयरूप दो वेदवा उपशामनकाल तथा सात नोकपायोका उपशामनकाल, इन कालोका जितना योग होता है उतनी उदयरूप पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिका काल है, किन्तु उदयरूप उपायकी प्रथमस्थितिका काल इससे अधिक है । जिन प्रकृतियोंका उदय नही है उन प्रतियोकी उदयावलिप्रमारण स्थितियोको छोड़कर श्रावलि बाह्य स्थितियो को अन्तरके लिए ग्रहण करता है' । १९४ ] उचरिं समं उक्कीरs हेट्ठा विसमं तु मज्झिमपमाणं । तदुपरि पढमठिदीदो संखेज्जगुणं हवे यिमा ॥२४३॥ I अर्थ–अन्तरसे ऊपरकी सर्व प्रकृतियोके निषेक सदृश है, किन्तु अन्तरके नीचे उदय व अनुदयरूप प्रकृतियोकी प्रथमस्थितिके निषेक विषम है । प्रथमस्थिति और उपरिम स्थितिके मध्यका प्रमाण अर्थात् अन्तरायाम प्रथम स्थितिसे सख्यातगुणा है ऐसा नियम है । विशेषार्थ- - उदयरूप और अनुदयरूप सभी कषायो तथा नोकषायोके अतरकी अन्तिम स्थिति सदृश ही होती है, क्योकि द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकका सर्वत्र सदृशरुपने यवस्थान देखा जाता है, इसलिए ऊपर अन्तर समस्थितिवाला है, किन्तु नीचे अन्तर विसदृश होता है, क्योकि अनुदयस्वरूप सभी प्रकृतियोके अन्तरके सदृश होने पर भी उदयस्त्ररूप अन्यतरवेद और अन्यतर सज्वलनकषायकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रथम स्थिति परे अन्तर और प्रथमस्थितिका अवस्थान देखा जाता है । इसलिये प्रथम स्थितिके विसदृशपनेका श्राश्रयकर नीचे विषमस्थिति अन्तर होता है यह कहा है । अंतरपढमे णो ठिदिबंधो ठिदिरसाण खंडो य । एयदिट्ठदिखंडुक्कीरणकाले अंतरसंमत्ती ॥२४४ ॥ १ ६ पु १३ पृ २५३-५४, क पा सु. पृ ६८६ । २. अभिनाय यह है कि उदीयमान की प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है, परन्तु अनुदयस्वरूप दो वेद य गारहरुषायों की एक ग्रावली प्रमाण प्रथम स्थिति होती है इसलिये इस प्रथम स्थितिके नियम होने प्रयोभाग मे अन्तरमे विषमता आ जाती है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २४८ - २४६ ] लब्धिसार [ १६७ स्थितिसम्बन्धी सर्व द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थितियोमे सक्रमित हो जाता है । इस विधिसे किये जाने वाले अन्तरको अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा निर्लेप कर दिया जाता है, यह सिद्ध हुआ' । अन्तरकरण की निष्पत्ति के अनन्तर समय में होने वाली क्रिया विशेष को बताते हैं सत्तकरणाणि यंतरकदपढमे होंति मोहणीयस्स । इगिठाय बंधुओ ठिदिबंधो संखवस्तं च ॥ २४८॥ अणुपु०वी संकमणं लोहस्स असंकमं च संस्स | पढमोवसामकरणं छावलितीदेसुदीरणदा ॥ २४६ ॥ अर्थ - अतर कर चुकने के प्रथम समयमे मोहनीयकर्म सम्बन्धी सातप्रकारके करण प्रारम्भ होते है-मोहनीयकर्मका एक स्थानीय बध, एक स्थानीय उदय, मोहनीयकर्मका सख्यातवर्षका स्थितिबध, मोहनीयकर्मका आनुपूर्वीसक्रम, सज्वल लोभका असक्रम, नपुसकवेदकी उपशमक्रियाका प्रारम्भ, छह प्रावलियोके बीत जाने पर मोहनीयकर्मकी उदीरणा । विशेषार्थ - अन्तर समाप्तिका जो काल है उसी समय से ही ये सात करण प्रारम्भ हुए है' । उनमेसे मोहनीय कर्मका आनुपूर्वीसक्रम यह प्रथम करण है । यथास्त्रीवेद और नपु सकवेदके प्रदेशपु जको यहासे लेकर पुरुषवेदमे नियमसे सक्रान्त करता है । पुरुषवेद, छह नोकषाय तथा प्रत्याख्यान और अप्रत्याख्यानके प्रदेशपुञ्जको क्रोधसंज्वलनमें सक्रमित करता है अन्य किसीमे नही । क्रोध सज्वलन और दोनो प्रकार के मानसम्बन्धी प्रदेशपुज को भी मान सज्वलन में नियमसे सक्रमित करता है, अन्य किसी नही । मानसज्वलन और दोनो प्रकारकी मायाके प्रदेशपु जको नियमसे मायासज्वलनमे निक्षिप्त करता है तथा मायासज्वलन और दोनो प्रकारके लोभ सम्बन्धी प्रदेशपु जको नियमसे लोभसज्वलन मे निक्षिप्त करता है, यह श्रानुपूर्वीसक्रम है । पहले चारित्रमोहनीय प्रकृतियो का प्रानुपूर्वीके बिना प्रवृत्त होता हुआ सक्रम इस समय इस प्रतिनियत आनुपूर्वीसे प्रवृत्त होता है । १. ज.ध. पु१३ पृ २५६-२६३ । २. ज. ध. पु. १३ पृ. २६३ । क. पा. सु पृ ६६०; ध. पु ६ पृ. ३०२ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २४७ १६६ विशेषार्थ-चारित्रमोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोका अन्तरकरण करनेके लिए अन्तरायामसे उत्कीरित द्रव्यको अन्तरायाममे नही देता है, किन्तु जो प्रकृतियां बन्धउदय की अपेक्षा उभयरूप हैं ऐसी पुरुषवेद व अन्यतर सज्वलनकषायकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे से उत्कीरण होने वाले प्रदेशपुञ्जको आगमके अनुसार अपनी प्रथम स्थिति मे निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोडकर द्वितीयस्थितिमें भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे निक्षिप्त नही करता, क्योकि उनके कर्मपूजसे वे स्थितिया रिक्त होनेवाली हैं। जबतक अन्तर सम्बन्धी द्विचरमफाली है तबतक स्वस्थान मे भी अपकर्षण सम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड कर अन्तर सम्बन्धी स्थितियोमे प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने ही आचार्य व्याख्यान करते है । यह अर्थ सर्व विकल्पोमे जानकर वतलाना चाहिए। जो कर्म न बधते है और न वेदे जाते है ऐसी अप्रत्याख्यानावरणादि पाठकषाय और हास्यादि छह नोकषायके उत्कीरण होनेवाले प्रदेश पुञ्जको अपनी स्थितियोमे नही देता है, किन्तु बधनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीय स्थितिमे बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सीचता है । बधनेवाली और नही बधनेवाली जिन प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है उनमे यथासम्भव अपकर्षण परप्रकृति सक्रमद्वारा सीचता है, परन्तु स्वस्थान ( अन्तरायाम ) निक्षिप्त नहीं करता। जो कर्मप्रकृतियां बधती नही, किन्तु वेदी जातो हैं ऐसो स्त्रीवेद व नपु सकवेदरूप प्रकृतिकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोके प्रदेश पुजको ग्रहणकर अपनी-अपनी प्रथम स्थितिमे अपकर्षण संक्रमद्वारा देता है । उदयको प्राप्त सज्वलनकषायोंकी प्रथमस्थितिमें अपकर्षण-परप्रकृति सक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा वन्ध को द्वितोयस्थितिमें उत्कर्षणकर सिंचित करता है । जो कर्म केवल बघते ही हैं, वेदे नही जाते, ऐसे परोदय विवक्षामें पुरुषवेद और अन्यतरसज्वलनकी अन्तर सम्बन्धी स्थितियोंमें से उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपुजका उत्कर्पणवश अपनी द्वितीयस्थितिमें सञ्चार विरुद्ध नही है। उदय सहित बंधनेवाली प्रकृतियोकी प्रथम और द्वितीय स्थितियोमे तथा अनुदयरूप बधनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थितिमे सचार विरुद्ध नही है । ____ इस क्रमसे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण फालिरूपसे प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिद्वारा उत्कीर्ण होने वाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर अन्तरकरण करनेका काय समाप्त हो जाता है, क्योकि अन्तर सम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर अतर १. ज. प पु १३ पृ २६० । Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५० - २५१] लब्धिसार [ १६६ लिए शक्य होते है । बन्ध समयसे लेकर जबतक पूरी छह प्रवलिया व्यतीत नहीं होती है तबतक उनकी उदीररणा होना शक्य नही है । जिस प्रकार अन्तरकरण के पूर्व सर्वत्र बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद बद्धकर्म उदीरणाके योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है उस प्रकार इस स्थल पर भी बन्धसमय से लेकर छह आवलि व्यतीत होने के बाद बद्धकर्म उदीरणाके योग्य होता है यह नियम स्वभावसे प्रतिबद्ध है' । अन्तर किये जानेके पश्चात् प्रथम समयसे लेकर नपुसकवेदका आयुक्त (प्रारम्भ ) करणद्वारा उपशामक होता है । इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है—यहा से लेकर अन्तर्मुहूर्तकालतके नपुंसकवेदका आयुक्त ( उद्यत अथवा प्रारम्भ ) क्रियाके द्वारा उपशामंक होता है, शेष कर्मो को तो किंचिन्मात्र भी नहीं उपशमाता है, क्योकि उनकी उपशामनॆक्रियाका अभी भी प्रारम्भ नही हुआ है । इसप्रकार आयुक्त (उद्यत ) क्रियाके द्वारा नपु ंसकवेदके उपशमानेका आरम्भकर उपशमाता है । अब चारित्रमोहोपशमन का क्रम कहते हैं अंतरपदमादु कमे एक्क्कं सत्त चदुसु तिय पयडिं । सममुच सांमदि वकं समऊणावलिदुगं वज्जं ॥ २५० ॥ एय उंसयवेद इत्थीवेदं तहेव एयं च । सत्व णोकसाया कोहादितियं तु पयडीओ ॥ २५१ ॥ श्रर्थ—अन्तर हो जानेके पश्चात् प्रथम समयसे एक अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेदको उपशमाते हैं । तत्पश्चात् पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमे स्त्रीवेदको उपशमाता है । पुनः एक अन्तर्मुहूर्त में सात नोकषाय को, पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमें तीन क्रोध को, पुन. एक अन्तर्मुहूर्तमे तीन मान को पुनः एक अन्तर्मुहूर्तमे तीन माया को, तत्पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तद्वारा तीन लोभका उपशम करता है । वहा एक समय कम दो ग्रावली प्रमाण नवक प्रबद्धो को नहीं उपशमाता है । १. ज. ध पु. १३ पृ. २६५-२६७ । २ ? आयुक्त कररण किसे कहते है इसका उत्तर- प्रायुक्तकरण, उद्यतकरण और प्रारम्भकरण ये तीनो एकार्थक हैं । तात्पर्यरूप से यहा से लेकर नपु सकवेदको उपशमाता है, यह इसका अर्थ है | (ज. ध. पु. १३ पृ. २७२ ) ज ध. पु १३ पृ २७२ । ३ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २४६ लोभका असंक्रम यह दूसरा करण है । यहां गाथा में 'लोहस्स' ऐसा सामान्य निर्देश करने पर भी लोभसंज्वलनका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योकि व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है । इसलिये पहले यानुपूर्वीके बिना लोभसज्वलनका भी शेष सज्वलन और पुरुपवेदमे प्रवृत्त होनेवाला सक्रम यहां श्रानुपूर्वीसक्रमका प्रारम्भ होने पर प्रतिलोमसक्रमका प्रभाव होनेसे रुक गया । यहां से लेकर लोभसज्वलनका सक्रम नही ही होता, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यद्यपि ग्रानुपूर्वीसक्रम से ही यह अर्थ उपलब्ध हो जाता है तथापि मन्दबुद्धिजनोका अनुग्रह करनेके लिए पृथक् निर्देश किया, इसलिए पुनरुक्त दोष प्राप्त नही होता । १६८ ] मोहनीयका एकस्थानीय बन्ध यह तीसरा करण है । इसका तात्पर्य - इससे पूर्वं देशघाति द्विस्थानीयरूपसे मोहनीयका अनुभागबध होता रहा, अब परिणामोके माहात्म्यवश घटकर वह एक स्थानीय हो गया ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । नपु सकवेदका प्रथम समय उपशामक यह चौथा करण यहांपर आरम्भ हुआ है, क्योकि प्रथम श्रायुक्तकरण (उद्यतकरण) के द्वारा नपुंसकवेदकी ही उपशामनक्रियामें यहासे प्रवृत्ति देखी जाती है । छह आवलियोके जाने पर उदीरणा इस पाचवे करण को यहा आरम्भ करता है । मोहनीयका एक स्थानीय उदय यह छठा करण है । इसका अर्थपहले द्विस्थानीय देशघातिरूपसे प्रवृत्त हुआ मोहनीय कर्मका अनुभागउदय अन्तरकरण के श्रनन्तर ही एक स्थानीयरूपसे परिणत हो गया यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'मोहनीयकर्मका सख्यातवर्पप्रमाण स्थितिबन्ध' यह सातवां करण है । इसका अर्थ- पहले मोहनीयकर्मका जो स्थितिबन्ध असख्यातवर्षप्रमाण होता रहा उसका इस समय काफी घटकर सख्यातहजार वर्षप्रमाणरूपसे अवस्थान होता है, परन्तु शेष कर्मोंका असख्यात वर्षप्रमाण ही स्थितिवन्ध होता है, क्योकि उनका अभी भी सख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नही हुआ है । इसप्रकार इन सातो कररणोका अन्तरकर चुकनेके प्रथम समयसे ही युगपत् प्रारम्भ होता है । छह प्रावलियोके व्यतीत होनेपर उदीरणा होती है, इस करणका विशेष कथन इसप्रकार है—जैसे पहले सर्वत्र ही समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत होने के बाद ही नियमसे उदीररणाके लिए शक्य रहता आया है उसप्रकार यहां शक्य नही है, किन्तु ग्रन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर जो कर्मबंधते है मोहनीय या मोहनीयके प्रति - रिक्त ग्रन्य ज्ञानावररणादिक वे कर्म छह आवलियोके व्यतीत होनेके बाद उदीरणाके Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५३ ] लब्धिसार [ २०१ उदीरणा और उदयादिरूप द्रव्यके अल्पबहुत्वका निदश करने के लिए अगली गाथा कहते हैं संडादिमउवसमगे इस्स उदीरणा य उदओं य । . संडादो संकमिदं उत्समियमसंखगुणियकमा ॥२५३॥ अर्थ-नपुंसकवेदके उपशम सम्बन्धी प्रथम समयमें उदय प्राप्त अन्य प्रकृतियों का उदीरणा द्रव्य, उन्हीका उदयरूप द्रव्य, नपु सकवेदका अन्य प्रकृतियोमे सक्रमित होनेवाला द्रव्य और नपु सकवेदका उपशमित होनेवाला द्रव्य क्रमशः असख्यातगुणे हैं । विशेषार्थ-गाथा मे 'इट्ठस' शब्दके द्वारा नपुसकवेदके अतिरिक्त अन्य सब उदयरूप प्रकृतियोका ग्रहण होता है । प्रथम समयमे नपुसकवेदके उपशामक जीवके द्वारा वेदी जाने वाली प्रकृतियोका उदीरणा द्रव्य असख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होनेपर भी आगे कहे जानेवाले पदोकी अपेक्षा स्तोक है । वेदी जानेवाली सभी प्रकृतियोके उदीरणा सम्बन्धी द्रव्यसे उदय सम्बन्धी द्रव्य असख्यातगुणा है, क्योकि अन्तमुहर्तकालप्रमाण सञ्चित गुणश्रेणिके गोपुच्छाके माहात्म्यसे इसका निर्णय होता है कि प्रकृतमें उदीरणाके द्रव्यसे उदयका द्रव्य असख्यातगुणा है । उदय द्रव्यसे नपुसकवेदका अन्य प्रकृतियोंमें सक्रमित होनेवाला प्रदेशपुज ( द्रव्य ) असंख्यातगुणा है, क्योकि अपकर्षण सम्बन्धी द्रव्यके असख्यातवेभागसे प्रतिबद्ध उदय सम्बन्धी द्रव्य है, किन्तु यह पर प्रकृतियोमे सक्रमित होनेवाला द्रव्य गुणसक्रमणरूप है। इसलिए असख्यातगुणा है। इसका भी कारण यह है कि गुणसक्रम सम्बन्धी भागहारसे अपकर्षण सम्बन्धी भागहार असख्यातगुणा होता है । सक्रमित होनेवाले प्रदेशपुजसे नपुसकवेदका उपश मित होने वाला प्रदेशपु ज (द्रव्य) असख्यातगुणा है, क्योकि उस समय शेष प्रकृतियोके उपश मित होने वाले प्रदेशपुजका अभाव है । गुणसक्रमण सम्बन्धी भागहारसे असख्यातगुणे हीन भागहारके द्वारा भाजित करने पर जो एक भाग लब्ध प्राप्त हो उतना उपश मित होने वाला प्रदेशपू ज है इसलिए सक्रमित होने वाले द्रव्यसे असख्यातगुणा सिद्ध होगा। जिसप्रकार नपु सकवेदके उपशामकके प्रथम समयमे यह अल्पबहुत्व है, उसीप्रकार द्वितीया दि समयोमे भी जानना चाहिए । १. ज. ध पु. १३ पृ. २७३-७४ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० लब्धिसार [ गाथा २५२ विशेषार्थ-अन्तरकरण कर चुकनेके पश्चात् अनन्तर प्रथम समयमें नपुंसकवेदको उपशमानेकी क्रिया प्रारम्भ कर एक अन्तर्मुहूर्तकालमें नपु सकवेदको उपशमा देता है । तत्पश्चात् दूसरे अन्तर्मुहूर्तमे स्त्रीवेद को उपशमाता है । पुन. तीसरे अन्तमुहर्तमें हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुपवेद इन सात नोकपायका उपशम करता है । तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानक्रोध, प्रत्याख्यानक्रोध और सज्वलनकोषको अन्तम हर्तकालद्वारा उपशान्त करता है। उसके बाद एक अन्तर्मुहर्तकालमें अप्रत्याख्यानमान, प्रत्याख्यानमान व सज्वलनमानका उपशम करता है। तत्पश्चात् अन्तम हर्तकालद्वारा अप्रत्याख्यानमाया, प्रत्याख्यानमाया व सज्वलनमायाका उपशम करता है। उसके बाद अन्तमुहर्तकालमे अप्रत्याख्यानलोभ, प्रत्याख्यानलोभ और सज्वलनलोभको उपशान्त करता है । इसप्रकार क्रमश सात अन्तर्मुहूर्तकालमे चारित्र मोहनीयकर्मकी २१ प्रकृतियोका प्रशस्त उपशम करता है। आगे सवप्रथम नपुंसकवेदके उपशमका विधान करते हैंअंतरकदपढमादो पडिसमयमसंख्गुणविहाणकमे । णुवसामेदि हु संडं उवसंतं जाण ण च अण्णं ॥२५२॥ अर्थ-अन्तर किये जानेके प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय असंख्यातगुणे क्रम विधानसे नपु सकवेदके प्रदेशपुंजको उपशमाता है, अन्य कर्मोको नही उपशमाता ।। विशेषार्थ-अन्तरकरण करनेके पश्चात् अनन्तर समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकालतक आयुक्त (उद्यत) करणद्वारा नपु सकवेदका उपशामक होता है, शेष कर्मोको तो किचिन्मात्र भी नही उपशमाता, क्योकि उनकी उपशामनक्रियाका अभी भी प्रारम्भ नही हुआ है। इसप्रकार आयुक्तक्रियाके द्वारा नपु सकवेदके उपशमको प्रारम्भकर उपशमित करता हुआ प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे नपु सकवेदके प्रदेशपुञ्जको उपशान्त करता है। प्रथमसमयमे जिस प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है वह स्तोक है । दूसरे समयमे उससे असख्यातगुणे प्रदेशपु जको उपशमाता है । इसप्रकार नपुसकवेदके उपशान्त होनेके अन्तर्मुहूर्त काल तक असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाता है, क्योकि प्रतिसमय कारणभूत परिणामोकी वृद्धिके माहात्म्यवश प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे नपुंसकवेदके प्रदेशपुंजको उपशमाता है । १ ज. प. पु.१३ पृ. २७२-७३ । Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] लब्धिसार [ २०३ इसलिए तब उसका स्थितिघात प्राप्त होता है । इसी मान्यतामें नपु सकवेदकी स्थितिसे स्त्रीवेदको स्थितिका अधिक घात होनेके कारण स्त्रीवेदकी स्थितिसे नपु सकवेदकी स्थिति सख्यातगुणी हीन होनेका प्रसग पाता है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके (उपशमनके समय उससे) पश्चात् क्रमश. उपशमाई जानेवाली सात नोकषाय व बारहकषायोकी स्थिति भी स्त्रीवेदकी स्थितिसे सख्यातगुणी-सख्यातगुणी हीन होनेका प्रसग प्राप्त होगा, किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि उपशान्त अवस्थामे बारहकषाय और नौ नोकषायकी स्थिति सदश ही होती है, ऐसा परमगुरुके उपदेशसे सिद्ध है। इसलिए अन्तरकरण सम्पन्न होने पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात और अनुभागघात नही होता' । पहले जो स्थितिबन्धका प्रमाण असख्यातगुणा हीनरूपसे प्रारम्भ था, अन्तरकरणकी समाप्तिके कालमें ही उस स्थितिबन्धके सख्यातवर्षप्रमाण हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा एक स्थितिबन्धको निवृत्तकर अन्य स्थितिबन्धको सख्यातगुणा हीन करके प्रारम्भ करता है । यह मोहनीयकर्म सम्बन्धी बन्धापसरणोकी विधि है । मोहनीयकर्म के अतिरिक्त शेषकर्मोके प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबध असंख्यातगुणा हीन होता है। अब स्थितिबन्धापसरणके प्रमाणका निर्देश करते हैं वस्साणं बत्तीसादुवरिं अंतोमुहत्तपरिमाणं । ठिदिबंधाणोसरणं अवरट्ठिदिबंधणं जाव ॥२५६॥ अर्थ-सज्वलनकषायका स्थितिबन्ध बत्तीस वर्षप्रमाण हो जानेपर प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होने लगता है । जबतक जघन्य स्थितिबन्ध हो तबतक स्थितिबन्धापसरण अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाला होता है। विशेषार्थ-सवेदी जीवके अन्तिम समयमें सज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण बत्तीस वर्षप्रमाण होता है । उस स्थितिबन्धका वही पर्यवसान होता है। इसलिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होनेपर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमें अन्तम हर्तकम बत्तीसवर्षका स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, क्योकि यहासे लेकर संज्वलन कषायोके स्थितिबन्धका उत्तरोत्तर अपसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष १. ज ध पु. १३ पृ २७५-२७७ । २. ज ध. पु १३ पृ २७५ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 २०२ ] [ गाथा २५४-२५५ लव्धिसार यहीं स्थितिकांडकादिके प्रभावका निर्देश करते हैंअंतरकरणादुवरिं ठिदिरसखंडा ण मोहणीयस्स । ठिदिबंधोसरणं पुण संखेज्जगुण हीणकमं ॥ २५४ ॥ जत्तोपाये होदि हु ठिदिबंधो संखवरसमेत्तं तु । तत्तो संखगुणूणं बंधोसरणं तु पयडीणं || २५५ ॥ अर्थ–अन्तरकरण करनेके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिकाडकघात व अनुभागकाण्डकघात नही होते, किन्तु स्थितिवन्धा पसरण क्रमण सख्यातगुणे हीन होते है । जव से मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातवर्ष मात्र होता है तवसे सव प्रकृतियोका स्थितिबन्धापसरण सख्यातगुणा हीन होता है । विशेषार्थ — अन्तरकरण करके नपु सकवेदकी उपशामना प्रारम्भ होनेपर मोहनीयकर्मके स्थितिघात व अनुभागघात नही होते । नपु सकवेदको उपशमानेवाला प्रथमसमयमे सर्व स्थितियोमे स्थित प्रदेश के प्रसख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको उपशमाता है । इसप्रकार उपशमाकर यदि स्थिति और अनुभागका घात करता है तो उपशमित किये गए प्रदेशपु जका भी स्थितिघात और अनुभागघात प्राप्त होता है, क्योकि उपशमित किये गये प्रदेशपु को छोडकर शेषके भी घातका कोई उपाय नही पाया जाता । उपशमाए गये प्रदेशपु जका घात सम्भव नही है, क्योकि प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशमित किये गये प्रदेशपु जका अपनी स्थिति और अनुभागमे परिवर्तन नही होता । इसप्रकार प्रथम स्थितिकाडकके काल के भीतर प्रतिसमय उपशमित किये गये प्रदेशपु ज के स्थितिघात और अनुभागघातका अतिप्रसग प्राप्त होता है । इसीप्रकार दूसरे स्थितिकाडककालमे उपशमित किये गये द्रव्यके घातका प्रसंग प्राप्त होता है । नपु सकवेदको उपशमाकर स्त्रीवेदको उपशमानेवाला यदि नपुंसकवेदका स्थितिकांडकघात और ग्रनुभाग काण्डकघात करता है तो उपशामना निरर्थक प्रसक्त होती है । यदि उपशमाई जाने वाली या उपशान्त हुई प्रकृतियोका काण्डकघात नही होता, शेष नही उपशमित की गईं मोहनीयकर्मप्रकृतियोका काण्डकघात होता है ऐसा माना जावे तो नपु सकवेदकी स्थितिसे स्त्रीवेदकी स्थिति सख्यातगुणी हीन प्राप्त होती है, क्योकि नपुंसकवेदके उपशमाने सम्बन्धी कालके भीतर उपशमित किये जानेवाले नपु सकवेदका तो स्थितिघात होता नही, किन्तु स्त्रीवेद बादमें उपशमाया जाता है, Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २५६ ] लब्धिसार [ २०५ अपूर्व अनुभागकांडक प्रारम्भ करता है, परन्तु मोहनीय कर्मका यहां स्थितिघात और अनुभागघात नही है । ज्ञानावरणादिकर्मोके असख्यातगुण हानिरूपसे और बधनेवाली मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोका सख्यातगुण हानिरूपसे अन्य स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है । जिसप्रकार असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे नपु सकवेदको उपशमाया है उसीप्रकार प्रतिसमय असंख्यातगुणश्रेणिरूपसे स्त्रीवेदको उपशमित करता है' । अथानन्तर स्त्रीवेदके उपशमन कालमें होने वाले कार्य विशेष को बताते हैंथीयद्धा संखेज्जदिभागेपगदे तिघादिठिदिबंधों । संखतुवं रसबंधो केवल ागठाणं तु || २५६॥ अर्थ —स्त्रीवेदके उपशाने के कालके सख्यातवे भाग व्यतीत हो जाने पर तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातवर्ष प्रमाण होता है और केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणके अतिरिक्त तीन घातिया कर्मो की शेष प्रकृतियोका अनुभागबन्ध एक स्थानीय ( लता रूप ) होता है । विशेषार्थ —स्त्रीवेदके उपशमानेके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालका सख्यातवांभाग व्यतीत हो जानेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मो का स्थितिबन्ध असख्यातवर्षसे घटकर संख्यात हजार वर्षप्रमाण हो जाता है, परन्तु तीन अघातिया कर्मो का स्थितिबन्ध सख्यातवर्षप्रमाण नही होता, क्योकि घातिया कर्मो के बहुत अधिक स्थितिबन्धापसरणके समान प्रघातिया कर्मोका बहुत अधिक स्थितिबंधापसरण सम्भव नही है | जिस समय इन तीन घातियाकर्मोंका सख्यातवर्षप्रमारण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हुआ उसी समय केवलज्ञानावरणको छोड़कर ज्ञानावरणकी शेष चार प्रकृतियोका, केवलदर्शनावरणके बिना दर्शनावरण की चक्षु- प्रचक्षु और अवधिदर्शनावरण तथा अन्तरायकर्मकी सभी पाचो प्रकृतियोका अनुभागबन्ध देशघातिरूप द्विस्थानीयसे घटकर लतारूप एक स्थानीय होने लगता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायका संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ होने पर प्रसख्यातगुणी हानि होना असम्भव है । अतः जो अन्य स्थितिबन्ध होता है वह अपने से पूर्व स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा हीन १. ज. घ. पु. १३ पृ. २७८-७९ । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार २०४ ] [ गाथा २५७-२५८ कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणे हीन क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ सख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए' । अब स्थितिबन्धा पसरण सम्बन्धी विशेष कथन करते हैंठिदिबंधाणोसरणं एवं समयष्पबद्धसहि किच्चा । उत्तं णाणादो पुण ण च उत्तं अणुत्रवत्तीदो || २५७॥ अर्थ - एक समय मे जितना स्थितिबन्ध कम होता है उतना स्थितिबधापसरण का प्रमाण कहा गया है । एक स्थितिबन्धापसरण कालतक वही प्रमाण रहता है, क्योकि प्रत्येक समयमे नाना स्थितिबधापसररणकी प्राप्ति कही गई है । विशेषार्थ - एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व एक स्थितिवन्धाप सरणकाल ये दोनो तुल्य होते हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हैं । स्थितिवन्धापसर के प्रथम समयमे जितनी स्थिति कम होकर स्थितबन्ध होता है, अन्तर्मुहूर्त कालतक प्रत्येक समयमे उतना ही स्थितिबन्ध होता रहता है । इसीलिए एक स्थितिबन्धापसरण कालमे नानापनेकी अनुपपत्ति कही गई है | नपुंसकवेद की उपशामना के पश्चात् स्त्रीवेदको उपशम क्रिया का कथन आगे की गाथा में करते हैं एवं संखेज्जेसु ट्ठिदिबंध सहस्सगेसु तीदेसु । संव समदेतत्तो इत्थि च तदेव उवसमदि ॥ २५८ ॥ अर्थ — इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा नपु सकवेदका उपशम होता है । तत्पश्चात् उसीप्रकार नपु सकवेद के उपशम सदृश अन्तर्मुहूर्तकाल द्वारा स्त्रीवेदका उपशम करता है । विशेषार्थ - नपुसकवेद प्रतिसमय प्रसख्यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाया जाता हुग्रा क्रमसे उपशान्त होता है । इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत होनेपर नपुसकवेदको उपशमितकर तदनन्तर समयसे लेकर स्त्रीवेदका उपशम आरम्भ करता । उसीसमय मोहनीयकर्मके अतिरिक्त शेष कर्मोके पहले आरम्भ किये गये स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोकी समाप्ति हो जानेके कारण अपूर्व स्थितिकाण्डक और १. ज ध. पु १३ पृ २८६ - २६० । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६२] लब्धिसार [ २०७ स्थितिबन्ध तो सातों ही कर्मोका होता है । सख्यात हजार स्थितिबन्धोंके होने पर सात नोकपायोके उपशामना कालका सख्यातवाभाग व्यतीत होता है । तत्पश्चात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन ग्रघातिया कर्मोका स्थितिवन्ध असख्यातवर्षसे घटकर एकबारमें संख्यातवर्ष प्रमाण हो जाता है। अव सभी कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातवर्ष प्रमाण होता है । इस स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व इसप्रकार है मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध सवसे अल्प है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकोंका स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । उससे नाम व गोत्रकर्मका स्थितिबध सन्यातगुणा है, उससे वेदनीयकर्मका स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे आगे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर सख्यातगुणा हीन अन्य स्थितिबन्धका आरम्भ करता है । इस कमसे हजारो स्थितिवन्धो के व्यतीत होने पर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमे सात नोकपाय सर्वात्मना उपशान्त हो जाते है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदके एकसमय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहते है, क्योकि जो अन्तिम प्रावलिमे बधे है उनका वधावलिकाल अभी व्यतीत नही हुआ और जो एक समयकम द्विचरमावलिमे बचे है उनका उपशमनावलिकाल अभी पूर्ण नही हुआ। द्विचरमावलिके प्रथमसमयमे जो समयप्रवद्ध बधा था सो बधावलि बीत जाने पर चरमावलिके प्रथम समयसे लगाकर प्रत्येक समय में एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्तिमसमय तक सर्वद्रव्य उपशमन हो जाता है। द्विचरमावलिके द्वितीय समयमे जो कर्मबन्ध हया था उसकी बन्धावलि, चरमावलिके प्रथम समयतक रहती है। अत' चरमावलिके द्वितीय समयसे लगाकर प्रतिसमय एक-एक फालिके उपशमन द्वारा चरमावलिके अन्त समय पर्यन्त अन्य फालि तो उपशान्त हो जाती है, किन्तु एक फालि शेष रह जाती है । इसीप्रकार द्विचरमावलिके तृतीयादि समयोमे बधे कर्मोकी बंधावलि बीत जाने पर चरमावलिके तृतीय आदि समयोसे लगाकर अन्तिम समय पर्यन्त अन्य फालिया तो उपशमित होती है, किन्तु क्रमशः दो-तीन-चार आदि फालिया नही उपशमित होती है। द्विचरमावलिके अन्तिम समयमें बधे समयप्रबद्धकी एक फालि उपशमित होती है, शेष फालियां नही उपशमती । इसप्रकार द्विचरमावलि का एकसमयकम आवलिप्रमाण और चरमावलिका सम्पूर्ण प्रावलिप्रमाण द्रव्य पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें अनुपशान्त रहता है। १. ज. ध. पु १३ पृ. २८२-२८५ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २६०-२६२ २०६ ] होता है, परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मोका अभी भी संख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबंध प्रारम्भ नही हुना, इसलिए उनका असख्यातगुणा हीन ही स्थितिबन्ध प्रवृत्त रहता है। इन स्थितिबन्धोका अल्पबहुत्व इसप्रकार है मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, उससे ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तरायका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है । उससे नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध असख्यातगुणा है, उससे वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेषाधिक है। इसक्रम से सख्यात हजार स्थितिवन्धोके व्यतीत होनेपर स्त्रीवेद उपशमित हो जाता है । ___ अब सात नो कषायोंकी उपशामना एवं क्रियाविशेष सम्बन्धो कथन तीन गाथाओं के द्वारा करते हैं थीउवसमिदाणंतरसमयादो सत्त णोकसायाणं । उवसमगो तस्सद्धा संखेज्जदिमे गदे तत्तो ॥२६०॥ णामदुग वेयणियविदिबंधो संखवस्सयं होदि । एवं सत्तकसाया उवसंता सेसभागते ॥२६१॥ रणवरि य पुवेदस्स य णवकं समऊणदोरिणावलियं । मुच्चा सेसं सव्वं उपसंतं होदि तच्चरिमे ॥२६२॥ अर्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर सात नोकषाय का उपशामक होता है । सात नोकषायसम्बन्धी उपशामना कालके सख्यातवे भाग बीत जानेपर नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मोका सख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। इसप्रकार शेषभागके अन्त समयमे सात नोकषाय उपशान्त हो जाती है, किन्तु पुरुषवेदके एक समयकम दो आवलिमात्र नवकसमयप्रवद्धको छोड अवशेष सबको उपशमाता है । विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उपशान्त होनेपर अन्य स्थितिकाडक और अन्य अनुभागकाण्डक तथा अन्य स्थितिबन्ध होता है । विशेष यह है कि स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डक तो मोहनीयकर्मको छोड कर शेप कर्मोका होता है, क्योकि इस स्थल पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात व अनुभागघात युक्ति व सूत्र दोनोसे निषिद्ध है, किन्तु १. ज घ. पु. १३ पृ. २८०-८२ । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६५-२६६ ] लब्धिसार [ २०६ लेकर सद्भावके अन्तिम समयमे उसके अभावका विधान गाथामे किया गया है। उत्पादानुच्छेदके अनुसार विवक्षित वस्तुके सद्भावका जो अन्तिम समय है उस समयमे ही उसके अभावका प्रतिपादन किया जाता है । वहासे लेकर पुरुषवेदकी गुणश्रेणी भी नही होती । प्रत्यावलिमे से ही असख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा होती है । हास्यादि छह नो कषायोंका द्रव्य पुरुषवेदमें सक्कान्त नहीं होता इसका कथन आगे की गाथामें करते हैं अंतरकदादु छण्णोकसायदव्वं ण पुरिसगे देदि । एदि हु संजलणस्स य कोधे अणुपुव्विसंकमदो ॥२६५॥ अर्थ-अन्तर करनेके पश्चात् हास्यादि छह नोकषायोका द्रव्य पुरुषवेदमे सक्रमित नही होता, सज्वलनक्रोधमे ही सक्रमित होता है, क्योंकि यहा आनुपूर्वी सक्रमण पाया जाता है। पुरुषवेदके नवक बन्ध सम्बन्धो उपशमका विधान कहते हैंपुरिलस्स उत्तणवकं असंखगुणियक्कमेण उवसमदि । संकमदि हु हीणकमेणधापवत्तेण हारेण ॥२६६।। अर्थ-पुरुषवेदके उक्त ( गाथा २६२ ) नवक समयप्रबद्ध द्रव्यको असख्यातगणी श्रेणिके क्रमसे उपशमाता है, परन्तु पर प्रकृतिमे अध प्रवृत्त सक्रम द्वारा हीन क्रमसे सक्रमाता है। विशेषार्थ-अन्तिम समयवर्ती सवेदो जीवके एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है (गा. २६२)। अवेदभागके प्रथम समयमे दो समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, क्योकि अन्तिम प्रावलिका सपूर्ण नवकबन्ध तथा द्विचरमावलिका दो समयकम आवलिप्रमाण नवकबन्ध अनुपशान्त रहता है कारणकि नवक समयप्रबद्धका बन्धावलिके पश्चात् उपशमनकाल एक आवलिप्रमाण होता है। यहा पर प्रत्येक समयमे उनके प्रदेशपुञ्जको असख्यातगुणी श्रेणिसे क्रमसे उपशमाता है। उनके प्रदेशपुञ्जको केवल स्वस्थानमे नही उपशमाता, किन्तु पर प्रकृतिमे अध.प्रवृत्त सक्रमके द्वारा हीन क्रमसे सक्रमाता है । वन्ध रुक जाने पर गुण १. ज घ. पु. १३ पृ. २८५-८६ । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २६३-२६४ २०० ] आगे पुरुषवेदके उपशमनकालके अन्तिम समयमें स्थितिबन्धके प्रमाणको प्ररपणा करते हैं तच्चरिमे पुबंधो सोलसवस्साणि संजलणगाण । तदुगाणं सेसाणं संखेज्जसहस्सवस्ताणि ॥२६३॥ अर्थ-सवेद भागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका स्थितिबन्ध सोलह वर्षप्रमाण होता है और उससे दुगुणा अर्थात् ( १६४२ ) ३२ वर्षप्रमाण सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध होता है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थ—पहले इन कर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता था। उसने संख्यातगुणी हानिरूपसे घटकर सवेदभागके चरम समयमें पुरुषवेद और चार गग्वलन कपायोका स्थितिवन्ध क्रमशः १६ वर्ष व ३२ वर्ष हो गया, शेष कर्मोका तो अभी भी सत्यातहजार वर्पप्रमाण स्थितिबन्ध होता है। अब पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिमें दो प्रावलि शेष रहनेपर होनेवाली नियान्तर का प्रतिपादन करते हैं पुरिसम्स य पढमठिदी आवलिदोसुवरिदासु आगाला । पडिआगाला छिण्णा पडियावलियादुदीरणदा ॥२६४॥ अर्थ-पुरुपवेदकी प्रथमस्थितिमें दो आवलि शेष रहने पर आगाल और मन्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । प्रत्यावलिमे से ही उदीरणा होती है । विशेषार्थ-प्रथम और द्वितीय स्थितिके प्रदेशपु जोके उत्कर्षण-अपकर्षणवश परम्पर विपयसक्रमणको आगाल-प्रत्यागाल कहते है। द्वितीय स्थितिके प्रदेशजका प्रथम स्थितिम आना आगाल है तथा प्रथमस्थितिके प्रदेशपू जका प्रतिलोमरूपसे द्वितीय स्थितिमे जाना प्रत्यागाल है । पुरुपवेदकी प्रथम स्थितिमे एकसमय अधिक दो-आवलि गाने तक आगाल-प्रत्यागाल होता है। श्रावलि और प्रत्यावलि शेष रहने पर भागाल-प्रत्यागान व्युच्छिन्न हो जाते है अथवा परिपूर्ण श्रावलि और प्रत्यावलि शेष गार प्रागाल-प्रत्यागाल होकर पुन. तदनन्तर समयमे एक समयकम दो आवलि शेष मगार प्रगगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है, क्योकि उत्पादानुच्छेदका आश्रय 2. 7. १३ पु. २८५ । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६८-२६९ ] [ २११ लिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होने पर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमे अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता हुआ सज्वलन के पूर्व के स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्तकम स्थितिबन्धको आरम्भ करता है, क्योकि यहासे लेकर सज्वलनोके स्थितिबन्धका उत्तरोत्तर अपसरणे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणी हानिके क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ संख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए' । अपगतवेद के अन्य भी कार्य दो गाथानों में कहते हैंपदमावेदो तिविहं को उवसमदि पुत्रपढमठिदी | समयाहिय आवलियं जाव य तक्कालठिदिबंधो ॥ २६८ ॥ संजलचक्काणं मासचउक्कं तु सेसपयंडीं । वस्सां संखेज्जसइस्लाणि हवंति खियमेण ॥ २६६ ॥ 7 लब्धिसार अर्थ — प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी जीव तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है । इनकी वही पुरानी प्रथम स्थिति होती है । ( पूर्व स्थिति में ) जब समय अधिक श्रावली - काल शेष रह जाता है, उस समय स्थितिबन्ध नियमसे सज्वलन चतुष्कका चार मास और शेष कर्मोका सख्यातहजार वर्ष प्रमाण होता है । विशेषार्थ - पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्म उपशान्त होने पर उसके नवकबन्धको यथोक्त क्रमसे उपशमाता हुआ उस अवस्थामे ही तीनप्रकारके क्रोधको यहासे उपशमाना आरम्भ करता है । पूर्वमे अन्तर करते समय पुरुषवेद की प्रथमस्थितिसे विशेष अधिक संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति स्थापित की थी, गलित होने से जितनी शेप वची वही यहां र प्रवृत्त रहती हैं । जिस प्रकार आगे मानादिककी उपशामना करते समय सवेदक के कालसे एक आवलि अधिक अपूर्व प्रथम स्थिति की जाती है उसप्रकार यहा पर तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाने के लिए अपूर्व प्रथम स्थिति नही की जाती, किन्तु रची : वही पुरातन प्रथमस्थिति तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाने तक विना प्रतिवन्धके ! वृत्त रहती है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त हीन होता है शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा हीन होता है । २. क. पा. सुत्त पृ ६६७-६८; ज. ध. पु १३ पृ. २८६-२६० । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] लब्धिसार [ गांधी २६७ सक्रमको छोडकर अध' प्रवृत्तसक्रम कैसे सम्भव है, ऐसी आशंका नही करना चाहिए, क्योकि बन्धके उपरत हो जाने पर भी तीन सज्वलनकषाय और पुरुषवेदके नवकबधका ग्रव प्रवृत्तसक्रम होता है । अवेद भागके प्रथम समयमे बहुत प्रदेशपुजको संक्रमाता है, तदनन्तर समयमें विशेष हीन प्रदेशपु ंजको सक्रमाता है, क्योकि बन्धावलि व्यतीत होनेके बाद विवक्षित समयप्रबन्द्वको अधप्रवृत्त भागहारसे भाजितकर जो एकभाग प्राप्त हो उसे प्रथम समयमें संक्रमित करता है । पुन दूसरे समयमे जो कि प्रथम समयमे अपने द्रव्यका असंख्यातवांभाग उपशान्त और सक्रमित हो गया है, उससे हीन शेष उसी समयप्रबद्धको प्रध प्रवृत्त भागहारके द्वारा भा जितकर जो एक भाग प्राप्त हो उसे सक्रमित करता है । इसकारण से प्रत्येक समयमे विशेषहीन ही प्रदेशपु ज सक्रमित होता हुआ जानना चाहिए । यह क्रम एक समयप्रबद्धका ही है । चार प्रकारकी वृद्धि और हानिरूपसे परिरगत हुए योगोके द्वारा बन्धको प्राप्त हुए नाना समयप्रबद्ध बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर सक्रमभावके योग्य होकर पूर्वके योगके अनुसार ही सक्रमित होते हैं इसलिए वहा विशेष हानिरूपसे सक्रमका नियम नही है, किन्तु सख्यातवे और असख्यातवे भागरूपसे कदाचित् विशेषहीन और कदाचित् विशेष अधिक तथा कदाचित् सख्यातगुणा हीन एव कदाचित् सख्यातगुणा, कदाचित् ग्रसख्यातगुणा हीन, कदाचित् असख्यातगुणा नाना समय प्रबद्ध सम्वन्धी सक्रमद्रव्य होता है । अत एक समयप्रबद्धसे सम्बन्धित प्रदेशपु ज ही विशेषहीन होकर सक्रमित किया जाता है' । आगे अपगतवेदके प्रथम समय में स्थिति बन्ध सम्बन्धी कथन करते हैंपढमावेदे संजलणाणं तोमुहुत्तपरिहीणं । वस्ताणं बत्तीसं संखसद्द स्लियर गाठिदिबंधो ॥ २६७॥ अर्थ-अपगतवेदके प्रथम समयमे चार सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम वत्तीस वर्षप्रमाण और शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यात हजारवर्ष है । विशेषार्थ — सवेदी जीवके अन्तिम समयमे सज्वलनोका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण ३२ वर्षप्रमाण होता है, क्योकि उस स्थितिबन्धका वही पर्यवसान हो जाता है । इस वपु १३ पृ २८७ - २८६ । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाधा २७१ ] लब्धिसार [२१३ सज्वलनमें संक्रमण करता है ।। विशेषार्थ-गाथामें जो दो प्रकारका क्रोध कहा है उससे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणक्रोधका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्यप्रकार सम्भव नही है । ये दोनो क्रोध संज्वलनक्रोधमें गुणसंक्रमणके द्वारा तबतक सक्रमित होते है, जब तक सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थिति तीन आवलिप्रमाण शेष रहती है, क्योंकि इस अवस्थाके भीतर उसमें उन दोनोके सक्रमित होनेमें विरोधका अभाव है। संक्रमणावलिरूपसे प्रथमावलिको व्यतीतकर पुन' दूसरी पावलिके प्रथम समयसे उपशमनावलि कालके द्वारा उस द्रव्यको उपशमाता है । अत तीसरी आवलिको उच्छिष्टावलिरूप से छोड़ देता है इस कारणसे तीन आवलिया शेप रहने तक सज्वलनक्रोधमे दो प्रकारके क्रोधका सक्रम विरोधको नही प्राप्त होता । क्रोधसज्वलनकी प्रथम स्थिति में परिपूर्ण तीन आवलियोका अभाव होनेपर अर्थात् एक समयकम तीन आवलियोके शेष रहनेपर दो प्रकारके क्रोधका सज्वलनक्रोध मे सक्रम नही होता, किन्तु मानसज्वलनमे सक्रम होता है, क्योकि दूसराप्रकार सम्भव नही है। ___ उपशमनावलीके अन्तिम समयमें होने वाले किया विशेषका कथन करते हैं कोहस्स पढमठिदी आवलिसेले तिकोहमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति कोहस्स ॥२७१।। अर्थ-सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमे एक आवलि शेप रहनेपर तीनो प्रकार का क्रोध उपशान्त हो जाता है, किन्तु नवक समयप्रबद्ध उपशान्त नही हुया उस समय सज्वलनक्रोधका अन्तिम बन्ध व उदय होता है। विशेषार्थ-प्रत्यावलिके उदयावलिमे प्रविष्ट हो जाने पर सज्वलनको की प्रथमस्थिति आवलिमात्र शेष रह जाती है। इसका नाम उच्छिष्टावलि है। उपशामनावलि बीत जाने पर उच्छिष्टावलिके प्रथम समयमे दो समयकम दो श्रावलि नवक समयप्रबद्धोको छोडकर संज्वलनक्रोधके शेष सभी प्रदेणपुंज प्रशस्त उपशामनारूपसे उपशान्त हो जाते है । प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणीरूपसे उपशमित किये जाते १. ज.ध.पु १३ पृ. २६३-६४ । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २७० २१२ इस क्रमसे जब क्रोध संज्वलनको आवलि-प्रत्यावलि शेष रहती है तव द्वितीय स्थितिमे से अागाल और प्रथमस्थितिमे से प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है । यहा पर आवलि ऐसा कहनेपर उदयावलिका ग्रहण होता है तथा प्रत्यावलिसे उदयावलिके वाहरकी आवलिका ग्रहण होता है । "सज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थितिमे प्रावलि-प्रत्यावलि शेष रहनेपर पागाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है," यह उत्पादानुच्छेदका आश्रय लेकर कहा गया है, क्योकि प्रथम स्थितिमे दो आवलियोके शेष रहने तक अागालप्रत्यागाल होकर एक समयकम दो आवलियोके शेष रहनेपर आगाल-प्रत्यागाल की व्युच्छित्ति विवक्षित है । आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाने पर सज्वलनक्रोधका गुणश्रेणि निक्षेप नही होता, क्योकि सबसे जघन्य भी गुणश्रेणि आयाम एक आवलिप्रमाण है, उससे कम सम्भव नही है। इसलिए प्रत्यावलिमें से ही प्रदेशपुजका अपकर्षण करके असख्यात समयप्रवद्धोकी उदीरणा करता है। प्रत्यावलिमे एक समय शेष रहनेपर क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थिति उदीरणा होतो है, क्योकि उदयावलिके वाहर जो एक स्थिति शेष है उसमेसे अपकर्षणकर उदयावलिमे प्रवेश कराने पर जघन्य स्थिति उदीरणा होती है । उसी समय अर्थात् संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिमें एक समय अधिक प्रावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर चार संज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध क्रमसे ३२ वर्षसे घटकर चार मास प्रमाण हो जाता है। शेष कर्मोका स्थितिवन्ध संख्यात हजार वर्षप्रमाण होता है, क्योकि ज्ञानावरणादि कर्मोके सख्यातवर्षप्रमाण पूर्व स्थितिवन्धसे सख्यातगुणा हीन-सख्यातगुणा हीन ऐसे सख्यातहजार स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जानेपर भी यहां पर उनका स्थितिवन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है। यहां पर स्थितिवन्धका अल्पबहुत्व पूर्ववत् है। अथानन्तर क्रोधद्रव्य के संक्रम विशेषका कथन करते हैंकोहदुगं संजलणगकोहे संछुहदि जाव पढमठिदी । भावलितियं तु उवरि संछुह दि हु माणसंजलणे ॥२७॥ प्रयं-सज्वलनक्रोधमे दो प्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण ) कोषका तब तक सक्रमण करता है जब तक क्रोधसज्वलनको प्रथमस्थितिमें तीन पावलियां (सक्रमावलि, उपशामनाबलि, उच्छिप्टावलि ) शेष रहती हैं। उसके बाद मान १. जय. पु १३ पृ २६०-२६३ । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७४ ] लब्धिसार [ २१५ प्रमारण होकर मानसज्वलन के वेदककाल से एक अवलिप्रमाण अधिक होती है । पकर्षित द्रव्यका असख्यातवाभाग प्रथमस्थिति में दिया जाता है, शेष बहुभागको द्वितीय स्थिति में देता हुआ द्वितीय स्थिति के प्रथम निषेकमे असख्यातगुणे हीन प्रदेशपुंजका सिंचन करता है, क्योकि प्रथम स्थिति के गुणश्रेणिशीर्षरूपसे अवस्थित अन्तिम निषेकमे असंख्यात समयप्रबद्ध निक्षिप्त करता है । परन्तु द्वितीयस्थितिके प्रथमनिषेकमें निक्षिप्त किये जाने वाले द्रव्यका प्रमाण एक समय प्रबद्ध के असख्यातवे भागप्रमाण होता है, क्योकि वह अपकर्षितद्रव्यको डेढगुणहानिसे भाजित करने पर प्राप्त हुआ है । इससे ऊपर सर्वत्र प्रतिस्थापनावलिप्रमाण स्थितिको छोड़कर अन्तिम स्थितितक विशेष ( चय ) हीन द्रव्यको निक्षिप्त करता है । इसीप्रकार मानवेदकके द्वितीयादि समयोमे प्रथम और द्वितीय स्थिति मे प्रदेशोका विन्यास क्रम होता है । इतनी विशेषता है कि प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रदेशपु जका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणिका जितना आयाम गलित हो जावे उससे शेष रहनेवाले प्रायाममे निक्षेप होता है । जिस समय क्रोधसज्वलन के बन्ध - उदय व्युच्छिन्न होते है उस समय तीनप्रकार ( प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन) मानका श्रायुक्त (उद्यत ) क्रिया द्वारा उपशामक होता है । उस समय तीन संज्वलन ( सज्वलन मान - माया - लोभ) का स्थिति - बन्ध अन्तर्मुहूर्तकम चार मास होता है और शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्ष होता है,' क्योकि अनन्तर पूर्व सज्वलनोका स्थितिबन्ध पूर्ण चार माह कहा गया है और बधापसरणका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है । शेष कर्मोका स्थितिबन्ध यद्यपि संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है तथापि श्रनन्तरपूर्वके स्थितिबन्धसे सख्यातगुणा हीन है । इसप्रकार तीन मानके उपशमको प्रारम्भ करके प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणिरूप से उपशमाने वालेके सख्यातहजार स्थितिबन्धोके द्वारा सज्वलनमानकी प्रथमस्थिति क्षीण होती जाती है । माणदुर्ग संजलगमाणे संकुद्ददि जाव पढमठिदी | आवलितियं तु उवरिं माया संजल गेय संछुहदि || २७४ || पा. सु. पृ ६६६ सूत्र २१६ - २०; ज. ध. पु. १३ पृ २६७-६८; ज.ध. मूल पृ. १८५४ । ज ध. पु. १३ पृ. २६५-२६८ । २. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] लब्धिसार [ गाथा २७२-२७३ हुए क्रमसे उपशान्त होते है। क्रोधसज्वलनके दो समयकम दो प्रावलिप्रमाण नवक समयप्रबद्धो को उपशमाने की विधि पुरुषवेदके समान है। जब क्रोध सज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समयकम एक प्रावलि शेप रहती है तभी क्रोध सज्वलनके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न हो जाते हैं, क्योकि इस पूर्वके समय मे जब पूर्ण एक आवलि प्रथम स्थितिमे शेष रह जाती है तब सज्वलनक्रोधका अन्तिम बन्ध व उदय होकर बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति हो जाती है । अत. अगले समयमे सज्वलन क्रोधका प्रथम निषेक सज्वलनमानमे स्तिवुकसक्रम द्वारा सक्रामित हए रहनेसे उसमेसे एक-एक निषेकके कम हो जानेके कारण उच्छिष्टावलिमे से एक समयकम किया है । अथानन्तर पांच गाथाओं में मान त्रयका उपशम विधान निरुपित करते हैंसे काले माणस्स य पढमदिदिकारवेदगो होदि । पढमट्ठिदिम्मि दव्वं असंखगुणियक्कमे देदि ॥२७२॥ पढमट्ठिदिसीसादो विदियादिम्हि य असंखगुणहीणं । तत्तो विसेसहीणं जाव अइच्छावणमपत्तं ॥२७३॥ अर्थ-उसी कालमे सज्वलमानकी प्रथमस्थितिका कर्ता व भोक्ता होता है । प्रथमस्थितिमे द्रव्य असख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है । द्वितीय स्थितिके आदिमे अर्थात् प्रथम निषेकमे द्रव्य प्रथमस्थितिके शीर्षके द्रव्यसे असख्यातगुणा हीन दिया जाता है । उसके पश्चात् अतिस्थापनावलि प्राप्त होने तक विशेषहीन क्रमसे दिया जाता है। विशेषार्थ- एक समयकम उच्छिष्टावलिके अतिरिक्त सज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिको गलाकर तथा उसके बन्ध व उदयकी व्युच्छित्ति करके उसी समय सज्वलनमानका वेदक व प्रथमस्थितिका कारक (करनेवाला) होता है। द्वितीय स्थितिमे स्थित सज्वलनमानके प्रदेशपुञ्जको अपकर्षितकर उदयादि गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता हया उसी समय प्रथम स्थितिका करने वाला होकर मानका वेदक होता है। द्वितोय स्थितिके प्रदेशपू जको अपकर्षणभागहारका भागदेकर एक भागको अपकर्षितकर मानसज्वलनकी प्रथम स्थितिको करता हुआ उदयमे- अल्प प्रदेशपु जको देता है। तदनन्तर समयमे असख्यातगुणे प्रदेशपु जको देता है । इसप्रकार असख्यातगुणे श्रेणिक्रमसे प्रथम स्थितिके . अन्तिम समयके प्राप्त होने तक देता है । यहापर प्रथम स्थितिकी लम्बाई अन्तर्मुहूर्त Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७७ ] लब्धिसार [ २१७ अर्थ- सज्वलनमानकी प्रथमस्थिति में आवलिकाल शेष रहनेपर नवीन समयप्रबद्धके बिना अन्य तीन मानका सर्व द्रव्य उपशान्त हो चुकता है । उसी समय सज्वलन - मानकी बन्ध व उदयव्युच्छित्ति हो चुकती है । विशेषार्थ - मानसंज्वलनकी प्रथमस्थितिकी प्रत्यावलिके अन्तिम समयमें एक समयकम दो आवलिप्रमाण समय प्रबद्धो को छोडकर तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरण-संज्वलन ) मानका सभी स्थिति - अनुभाग और प्रदेश सत्कर्म सर्वोपशमनारूपसे उपशान्त हो जाता है, क्योकि यथाक्रम उपशमाए जाने वाले मानका स समय निरवशेष उपशान्तरूपसे परिणमन देखा जाता है । उच्छिष्टावलिको गौण करके मानसज्वलनके एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवकबन्धको छोडकर ऐसा कहा गया है तथा इसी समय मानसज्वलनकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है । इसी समय संज्वलनमानके बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होते है, क्योकि उत्पादानुच्छेदका आलम्बनकर ऐसा बन जाता है' । माया की प्रथम स्थिति करनेका निर्देश करते हैं— से काले मायाए पढमद्विदिकारवेदगो होदि । माणस्स य भालावो दव्वस्स विभंजणं तत्थ ॥ २७७॥ अर्थ — उसी समय ( सज्वलनमानकी प्रथमस्थिति एक आवलिमात्र शेष रह जाने पर) सज्वलनमायाकी प्रथमस्थितिका कारक व वेदक होता है । सज्वलनमाया के द्रव्यका विभाजन आदि मानके आलापके समान है । विशेषार्थ – मानवेदकके अन्तिम समयके बाद तदनन्तर समयमे अथवा प्रत्यावलिके अन्तिम समयके अनन्तर पश्चात् सज्वलनमानकी प्रथमस्थिति एक प्रावलि ( उच्छिष्टावलि) मात्र शेष रह जानेपर माया सज्वलनके प्रदेशपुंजका ग्रपकर्षणकर तथा उदयादि गुणश्रेणिरूपसे उसका निक्षेप करता हुआ मायासज्वलनकी अन्तर्मुहूर्तवाली प्रथमस्थितिको उत्पन्न करके माया सज्वलनका वेदक होता है । मायासज्वलनकी प्रथम स्थिति सम्बन्धी लम्बाई एक आवलि अधिक अपने वेदककाल प्रमारण होती है । माया वेदकसे लेकर यह तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन ) मायाका १. ज. ध. पु. १३ पृ. २६६-३०० । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] लब्धिसार [ गाथा २७५-२७६ अर्थ-मानसज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समय अधिक एक प्रावलि शेष रहने पर तीन (मान, माया, लोभ) सज्वलनका स्थितिवन्ध दो मास प्रमाण होता है । शेषकर्मोका स्थितिबन्ध क्रोधके आलाप सदृश (सख्यातहजार वर्षप्रमाण) है । विशेषार्थ--प्रत्यावलिमे एकसमय शेष रहनेपर सज्वलनमान-माया-लोभका स्थितिवन्ध दो-माहप्रमाण होता है। शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है जो पूर्व स्थितिबन्धसे सख्यातगुणाहीन है' । माणस्त य पढमठिदी सेसे समयाहिया तु आवलियं। तियसंजलणगबंधो दुमास सेलाण कोह आलावो ॥२७५॥ अर्थ- जब तक प्रथम स्थितिमे तीन प्रावलि शेष रहती है तव तक दो (अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण) प्रकार मानको सज्वलनमानमे संक्रमित करता है, उसके बाद सज्वलन माया मे । विशेषार्थ-मान सज्वलनकी प्रथमस्थितिके तीन प्रावलि शेष रहने तक अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरणरूप दो प्रकारके मानको सज्वलनमानमे संक्रमित करता है । मान सज्वलनकी प्रथम स्थितिके एक समयकम तीन आवलिप्रमाण शेष रहनेपर इन दो प्रकारके मानको सज्वलनमानमें सक्रात नही करता है, किन्तु मायासज्वलनमे सक्रान्त करता है । संज्वलनमानको भी सज्वलनमायामें संक्रान्त करता है। विस्तार पूर्वक कथन सज्वलनक्रोधके समान है। ___ इससे आगे फिरभी एक समयकम एक आवलिप्रमाण प्रथमस्थितिको गलाकर दो आवलि ( प्रत्यावलि और उदयावलि ) के शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल व्यच्छिन्न हो जाते हैं । उदयावलिके ऊपरकी जो दूसरी आवलि है वह प्रत्यावलि कही जाती है। तदनन्तर पुनः एक समयकम एक प्रावलि अर्थात् प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहने पर जो कार्य होता है उसको बतलाते हैं माणस्स य पढमठिदी श्रावलिसेसे तिमाणमुवसंतं । ण य णवकं तत्थंतिमबंधुदया होति माणस्त ॥२७६।। १. ज प पु १३ पृ. २६६ । २. ज व पु १३ पृ २९८-२६६ । Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २७६ - २८० ] लब्धिसार [ २१६ अर्थ - मायाकी प्रथम स्थिति में एकसमय अधिक प्रावलिकाल शेष रहनेपर संज्वलनमाया और लोभका तो मासप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तथा शेष कर्मोका क्रोधवत् कथन जानना । मायदुर्गं संजलणगमायाए छुहदि जाव पढमठिदी । भावलितियं तु उवरिं संकुहदि हु लोहसंजलणे ||२७६ ॥ अर्थ- — सज्वलनमायाका प्रथमस्थितिमे जबतक तीन प्रावलिया शेष रहती है तबतक मायाद्विक (अप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यानरूप माया) के द्रव्यको सज्वलन मायामे ही सक्रमित करता है तथा उससे आगे सक्रमणावलीमे उनके द्रव्यका सज्वलनलोभमे सक्रमण करता है । विशेषार्थ - मायासज्वलनकी प्रथमस्थितिमे एक समयकम तीन ग्रावलियो के शेष रहने पर प्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरणरूप दो प्रकारकी मायाके द्रव्यको माया सज्वलनमें सक्रान्त नही करता, किन्तु सज्वलन लोभमे सक्रान्त करता है' । मायाए पढमठिदी आवलिसेसेत्ति मायमुवसंतं । णय वकं तत्थंतिमबंधुदया होंति मायाए ॥ २८०॥ अर्थ – मायाकी प्रथमस्थितिमे आवलिप्रमाण काल अवशिष्ट रहनेपर उपशमनावलिके अन्तिम समयमे नवक समयप्रबद्ध बिना अन्य सर्व मायाका द्रव्य उपशमित होता है । उसी समय मे सज्वलनमायाका बन्ध व उदय व्युच्छिन्न होता है । विशेषार्थ - द्वितीय उपशमनावलिके अन्तिम समयमें एक समयकम दो ग्रावलि - प्रमाण नवबन्धको छोडकर तीनप्रकार ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, और सज्वलन) मायाका अन्तिम उपशामक होता है । उस समय सज्वलनमा उदय व्युच्छिन्न होते है, क्योकि उत्पादानुच्छेदमें यह कथन बन जाता है । माया सज्वलन की प्रथम स्थितिका एक समयकम एक अवलिप्रमाण द्रव्य शेष है, वह स्तिवुक सक्रम के द्वारा लोभसज्वलनमे विपाकको प्राप्त होता है । १ ज.ध पु १३ पृ. ३०३ । २. ज ध. पु. १३ पृ. ३०३ - ३०४ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१] लब्धिसार [ गाथा २७८ उपनामक होता है । माया और लोभ सज्वलनका स्थितिबन्ध' अन्तर्मुहूर्तकम दो माह प्रमाण होता है । ग्रनन्तरपूर्व व्यतीत हुए दो माह प्रमाण स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्त घट कर उससमय दो सज्वलनोंका स्थितिबन्ध होता है । शेषकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण है जो पूर्व स्थितिवन्धसे सख्यातगुरणा हीन है । इन्ही कर्मोका स्थितिकाण्डक पल्योपमके सख्यातवभागप्रमाण है और अनुभाग काण्डक अनन्तगुणी हानिरूप है । उसममय मान संज्वलनका जो एक समयकम उदयावलिप्रमारण सत्कर्म शेष रहा वह स्तिकतक्रमण द्वारा मायाके उदयमे विपाकको प्राप्त होता है । उदयरूपसे समान स्थितिमे जो सक्रम होता है वह स्तिवुकसंक्रमण है' । मायात्रेदकके प्रथम समयमे पूर्व में कहे गये मानसंज्वलनके एक समयकम दो श्रावलिप्रमाण नवकवन्धके समयप्रवद्धोके ग्राद्य ( प्रथम ) समयप्रबद्ध का निर्लेप होता है, लिये उसे छोड़कर दो समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध प्रत्येक समयमें यातगुणी श्रेणिरूपसे उपशमाए जाते हुए मायावेदक कालके भीतर एक समयंकम दो प्रायति कालके द्वारा पूर्णरूप से उपशमाए जाते है, क्योकि प्रत्येक समय में एक-एक समयबद्ध के उपशामन क्रियाकी समाप्ति हो जाती है । मानसज्वलनके द्रव्यको विशेष हीन श्रेणिकमसे सज्वलन मायामे सक्रमण करता है । ये सर्व क्रिया मायावेदकके प्रथम नमय मे होती है । व मायात्रय उपशमविधान के लिए ३ गाथाएं कहते हैंमायाए पढमठिदी सेसे समयाहियं तु श्रावलियं । मायालोहगावंधो मासं सेसाण कोह आलावो ॥२७८॥ . : मायावेदन के प्रथम समय का स्थितिवन्ध है । प्र.६ पु १३ पृ ३०९ । उदवरूपसे अर्थात् उदीयमान प्रकृतिके रूपमे अनुदय प्रकृतिका स्तुविक होता है। स्थिति मे श्रर्थात् जिस उदीयमान निषेकसे ऊपर वाले अनुदय निषेकका भविष्य मे उदय पाने वाले निषेन में नरम होता है वह उस उदयसे ऊपर वाले निषेकमे ही होगा । अर्थात् स्थिति मम नही होगा यह तात्पर्य है । 7.१३ ३०० से ३०२; क. पा सु पृ. ७०० । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८३ ] लब्धिसार [ २२१ विशेषार्थ-तत्पश्चात् सख्यातहजार स्थितिबन्धोंके हो जानेपर बादरलोभकी प्रथम स्थितिका अर्धभाग व्यतीत हो जाता है। अर्धभागसे कुछ अधिक अर्धभागका ग्रहण होता है उस अर्धभागके अन्तिम समयमें लोभसज्वलनका स्थितिबन्ध घटकर दिवसपृथक्त्व प्रमाण हो जाता है । शेष कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाणसे घटकर हजारवर्ष पृथक्त्वप्रमाण होता है, परन्तु उस समय अनुभाग सत्कर्म स्पर्धकगत ही होता है। अब संज्वलनलोभके अनुभागसत्त्वकी कृष्टिकरण विधि कहते हैंविदियद्धे लोभावरफड्डयट्ठा करेदि रसकिहि । इगिफड्डयवग्गणगद संखाणमणंतभागमिदं ॥२८३॥ मर्थ-(बादरलोभसज्वलनकी प्रथमस्थितिके) दूसरे अर्धभागमें लोभके जघन्यस्पर्धक के नीचे अनुभागकृष्टियोंको करता है । उनका प्रमाण एक स्पर्धककी वर्गणाओके अनन्तवे भागप्रमाण है। विशेषार्थ-बादरलोभसंज्वलनकी प्रथमस्थितिके प्रथम अर्धभागके व्यतीत हो जाने पर द्वितीय अर्धभागमें लोभसज्वलनके अनुभाग सत्कर्म सम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके नीचे अनन्तगुणी हानिरूपसे अपवर्तितकर अनुभागकृष्टियोको करता है । सबसे जघन्य लतासमान स्पर्धककी प्रथमवर्गणा के अविभागप्रतिच्छेदोसे अनन्तगुणे हीन अनुभाग युक्त सूक्ष्मकृष्टियोंको करता है। एक स्पर्धककी वर्गणाप्रोके आयाममें तत्प्रायोग्य अनन्तसे भाजितकर वहां एक खण्डमें जितनी वर्गणाए प्राप्त हो तत्प्रमाण कृष्टियां बनती है । इतना विशेष है कि उपशमश्रेणिमे स्पर्द्ध कगत लोभका बादरकृष्टिकरण न होकर सीधा सूक्ष्मकृष्टिकरण होता है । यह ज्ञातव्य है कि बादरलोभ स्पर्द्ध कगत होता है तथा उसके सूक्ष्मकरणकी प्रक्रिया ही सूक्ष्मकृष्टिकरण कहलाती है। १ क. पा. सु. पृ. ७०१-७०२; ज. ध. पु. १३ पृ. ३०६ । २ से काले विदियतिभागस्स पढमसमये लोभसंजलणाणुभागसंतकम्मस्स जं जहण्णफय तस्स हैटेवादो अणुभागकिट्टीअो करेदि । तासिं पमाणमेयफद्दय वग्गणाणमणतभागो। (ज ध. मू पृ १८५६) ३. ज. ध पु. १३ पृ ३०७-८ । ४ क. पा. सुत्त पृ. ७०२ । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २८१-२८२ २२० ] अब लोभत्रयके उपशमविधानका कथन दो गाथाओं में करते हैंसे काले लोहस्स य पढमदिदिकारवेदगो होदि । ते पुण बादरलोहो माणं वा होदि णिक्खेत्रो ॥२८१॥ अर्थ-उसो समय सज्वलनलोभकी प्रथमस्थितिका वेदक व कारक होता है । मानकी विधिके अनुसार बादरलोभका निक्षेप होता है। विशेषार्थ-उसी समय अर्थात् माया सज्वलनकी प्रथम स्थिति उच्छिष्टावलि शेष रह जाने पर द्वितीय स्थितिसे लोभसज्वलनके प्रदेशपु जका अपकर्षणकर उदयादि गुणश्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ लोभसज्वलनकी प्रथम स्थितिको अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थापितकर वेदन करता है। यहा से लेकर सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय पर्यन्त जो लोभवेदक काल है, उस कालके तीन भाग करके उनमेसे साधिक दो त्रिभागप्रमाण बादर लोभसज्वलनकी प्रथमस्थिति इस समय की है, क्योकि यहा से उपरिम समस्त लोभवेदककालके कुछकम तीसरे भागप्रमाण सूक्ष्मलोभ वेदक काल होता है । सूक्ष्मलोभ वेदककालसे साधिक दूने बादरलोभवेदककालको एक प्रावलिप्रमाण अधिक करके वादरसाम्परायिक जीव प्रथमस्थिति करता है । इसप्रकार इतनी प्रथम स्थितिको करके तीनप्रकारके लोभको उपशमाने वाले जीवके लोभ सज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम एकमास होता है, क्योकि अन्तिम समयवर्ती माया वेदकके स्थितिबन्ध पूरा एक मास होता है उससे एक अन्तर्मुहूर्त घटाकर इस समय लोभसज्वलनके स्थितिवन्धको प्रारम्भ करता है । शेषकर्मो का स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्धसे सख्यातगणा हीनरूपसे प्रवृत्त होता हुआ अभी भी सख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है क्योकि सख्यात हजारवर्षोके अनेक भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोका प्रमाण पूर्वोक्त पल्योपमका असख्यातवाभाग व अतन्तगुणी हानिरूप होता है । पढमहिदि अलुते लोहस्त य होदि दिणुपुधत्तं तु । वस्तसहस्लपुधत्तं सेसाणं होदि ठिदिबंधो ॥२८॥ अर्थ-वादरलोभकी प्रथम स्थिति-अर्थ के अन्तमे सज्वलनलोभका स्थितिबन्ध पृथक्त्व दिवस और शेष कर्मोका पृथक्त्व हजार वर्षप्रमाण होता है । १. ज. ध पु. १३ पृ ३०४-३०६ व क. पा सु. पृ ७०१-७०२ । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८५ ] लब्धिसार [ २२३ अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद है। इसलिये एककम कृष्टिआयाममात्र बार अनंतसे गुरणा करने पर अन्तिमकृष्टिमे पाये जाने वाले वे अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद पूर्वस्पर्धकसम्बन्धी जघन्यवर्गके अनन्तवेभागप्रमाण है। इसप्रकार प्रथम समयमे की गई सूक्ष्मकृष्टि होती है। अपकर्षित किये गये द्रव्यमे बहुभागरूप जो द्रव्य पृथक् स्थापित किया था उनके द्रव्यको पूर्वमे सत्तारूप पाये जाने वाले पूर्वस्पर्धक सम्बन्धी नानागुणहानिमे निक्षिप्त करता है । "दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा" इत्यादि करणसूत्र विधानसे उस बहुभागप्रमाण द्रव्यको अनुभाग सम्बन्धी साधिक डेढगुणहानिका भाग देने पर जो लब्धरूप द्रव्य प्राप्त हो उसको प्रथमगुणहानिकी प्रथमवर्गणामे निक्षिप्त करता है । तथा द्वितीयादि वर्गणाओमे एक चयहीन क्रम सहित द्रव्य निक्षिप्त करता है । द्वितीयादि गुणहानियोकी वर्गणाप्रोके क्रमसे पूर्वगुणहानिसे आधा-आधा द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार सूक्ष्मकृष्टिकरण कालके प्रथमसमयमे अपकर्षितद्रव्यको निक्षिप्त करता है । यहां अन्तिमकृष्टिमे निक्षिप्त द्रव्यसे पूर्वस्पर्धककी जघन्य वर्गणामे निक्षिप्तद्रव्य अनन्तगुणा हीन जानना। 'कृश' तनुकरणे धातुके आश्रयसे 'कर्षण कृष्टि.' अर्थात् कर्मपरमाणुप्रोकी अनुभागशक्तिका कृश करना-घटाना कृष्टि है । अथवा 'कृश्यत इति कृष्टि.' के अनुसार प्रतिसमय पूर्व स्पर्धककी जघन्य वर्गणासे भी अनन्तगुणी हीन अनुभागरूप वर्गणाको कृष्टि कहते है। अब द्वितीयादि समयोंमें निक्षेपणका कथन करते हैंपडिसमयमसंखगुणा दव्वादु असंखगुणविहीणकमे । पुत्वगहेट्ठा हेट्ठा करेदि किट्टि स चरिमोत्ति ॥२८५॥ अर्थ-असख्यातगुणे-असख्यातगुणे अपकर्षित द्रव्यमे से प्रतिसमय की गई कृष्टिका प्रमाण पूर्व-पूर्व कृष्टियोके प्रमाणसे असख्यातगुणा घटता होता है । यह क्रम अन्तिम समय तक जाता है। विशेषार्थ-कृष्टिकरण कालके प्रथम समयमें जो कृष्टिया की गई वे अभव्यो से अनन्तगुणी और सिद्धोके अनन्तवे भागप्रमाण होकर एक स्पर्धककी वर्गणायोके अनन्तवे भागप्रमाण है तथा वे बहुत है । पुनः तदनन्तर समयमे प्रथम समयवर्ती Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथ २८४ २२२ ] आगे संज्वलनलोभ सम्बन्धी कृष्टियोंको निक्षेपणविधि बताते हैंप्रोक्कड्डिदइगिभागं पल्लासंखेज्जखंडदिगिभागं । देदि सुहुमासु किट्टिसु फड्डयगे सेस बहुभागं ॥२८४॥ अर्थ- (सज्वलनलोभके द्रव्यको अपकर्षण भागहार द्वारा भाजितकर उसमें से) एक भाग अपकर्षित द्रव्य है । इसको पल्यके असख्यातवेभागसे खण्डितकर उसमे से एक भागको सूक्ष्मकृष्टियोमे देता है, शेष बहुभागको स्पर्धकोमे देता है। विशेषार्थ-सज्वलनलोभके सर्व सत्त्वरूप द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एक भागप्रमाण द्रव्यको पुन पत्यके असख्यातवेभागका भाग दिया। उसमेसे बहुभागप्रमाण द्रव्यको पृथक् रखकर एक भागप्रमाण द्रव्यको सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणमाता है । “अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे"' इत्यादि करणसूत्र विधान द्वारा उस एक भागप्रमाण द्रव्यमे कृष्टियोके प्रमाणरूप कृष्टयायामका भाग देने से मध्यधनका प्रमाण प्राता है । इस मध्यधनको एक कम कृष्टिआयामके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देने पर चयका प्रमाण प्राप्त होता है । उस चयप्रमाणको दोगुणहानिसे गुणा करने पर आदिवर्गणाके द्रव्यका प्रमाण आता है । इतने द्रव्यको तो प्रथमकृष्टिमे निक्षिप्त करता है जिससे प्रथमकृष्टि उत्पन्न होती है । यह प्रथमकृष्टि प्रथमसमयमे की गईं कृष्टियोंमें जघन्यकृष्टि है । तथा इससे द्वितीयादि कृष्टियोमे एक-एक चयप्रमाण हीन द्रव्य निक्षिप्त करता है। इसप्रकार एककम कृष्टिआयामप्रमाण चयोसे हीन प्रथमकृष्टिप्रमाण द्रव्यको अन्तिम कृष्टिमे निक्षिप्त करता है । अब इन कृष्टियोमे शक्तिका प्रमाण कहते है पूर्व स्पर्धकोके जघन्यवर्गमे अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदोके प्रमाण को कृप्टियायामका जो प्रमाण है उतनीबार अनन्तका भाग देने पर प्राप्त लब्धके बराबर प्रथमकृप्टिमे अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद है तथा द्वितीयादि कृष्टि मे क्रमसे अनन्तगणे १. "प्रद्धाणेण सव्वधणे खडिदे मज्झिमधणमागच्छदि" यह पूरा करणसूत्र है इसका अभिप्राय यह है कि सर्ववनको अध्वानसे खण्डित करने पर मध्यमधन आता है। अत. विवक्षित गुगाहानिका सर्वद्रव्य - गुणहानि पायाम = मध्यमधन (गो क. गा १५९ की टीका) । या (अध्वान) या (अध्वान) २ "त रुऊणद्धारणद्धेणूणेण णिसेयभागहारेण मज्झिमधणमवहरिदे पचय" (ल सा. गा ७१-७२) -अर्थात् मध्यधनमे एक कम गच्छका प्राधा दो गुणहानि (निषेक भागहार) मे से घटाने पर जो प्रावे उसका भाग देने पर चय आता है । अर्थात् चय=मध्यधन: [दो गुणहानि-(गच्छ-१)।२] Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२७ प्रमाण लिये जो विवक्षित समयमें अपूर्वकृष्टिकी उनमें समान प्रमाण लिये समपट्टिकारूप द्रव्य देना चाहिए, इसका ही नाम अधस्तनकृष्टिद्रव्य है । इस द्रव्यको देनेपर अपूर्वकृष्टियां प्रथमपूर्वकृष्टिके समान हो जाती है। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पूर्वोक्त पूर्वकृष्टि सम्बन्धी चयको दो गुणहानि से गुणा करने पर पूर्वकृप्टियो में से प्रथमकृष्टिके द्रव्यका प्रमाण आता है सो एक कृष्टिका द्रव्य इतना है तो समस्त अपूर्वकृष्टियोंका कितना होगा? ऐसे त्रैराशिकसे उस प्रथमपूर्वकृष्टिके द्रव्यको समस्त अपूर्वकृष्टिके प्रमाण से गुणा करनेपर अधस्तन कृष्टिका द्रव्यप्रमाण होता है। यहा, प्रथम समयमें की गई कृष्टियोंके प्रमाणको असंख्यातगुणे अपकर्षणभागहारका भाग देने पर द्वितीय समयमे की गई कृष्टियोंका प्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए । इस प्रकार पर्वोक्त अधस्तनशीर्ष विशेषद्रव्य और अधस्तनकृष्टि द्रव्य देने पर समस्त पर्वअपूर्वकृष्टि समान प्रमाण लिये हो गईं। वहां अपूर्वकृष्टिकी प्रथमकृष्टिसे लगाकर ऊपर-ऊपर अपूर्वकृष्टि स्थापित करके फिर उनके ऊपर प्रथमादि पूर्वकृष्टि स्थापित करनी चाहिए । इसप्रकार स्थापित करके चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ करने के लिये' सर्वकृष्टि सम्बन्धी सम्भवचयका प्रमाण लाकर अन्तकी पूर्वकृष्टिमे एक चय, उसके नीचे उपान्त्यपर्वकष्टि में दो चय; ऐसे क्रमसे एक एक चय अधिकाधिक करते हुए प्रथम अपर्वकष्टि पर्यन्त देना । इसीका नाम उभयद्रव्य विशेषद्रव्य है । इसे देने पर समस्त पर्व अपर्वकष्टि के चय घटते क्रमरूप एक गोपुच्छ होता है। इसका प्रमाण इसप्रकार प्राप्त किया जाता है पूर्व समयमें कृष्टिमे जो द्रव्य दिया था और इस विवक्षित समयमे जो कष्टिमें देने योग्य द्रव्य है, इन दोनोको मिलानेपर जो द्रव्यप्रमाण हुआ उसको पूर्वापूर्व (पर्वअपर्व) कृष्टियोके योगरूप मच्छसे विभक्त करनेपर मध्यमधन प्राप्त होता है। इसको एककम गच्छके आधेसे हीन दोगुण हानिसे विभक्त करनेपर यहाके चयका (विशेषका) . १. अब इनकी समान द्रव्यरूप स्थितिको मिटाकर चय घटता क्रमरूप गोपुच्छ को करने के लिए निम्नानुसार द्रव्य मिलाते है Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] लब्धिसार [ गाथा २८६ चयको आदिरूप स्थापित करना, क्योकि द्वितीयकृप्टिमे एक चय देना है । एक चय उत्तर ( आगे ) स्थापित करना, क्योकि, तृतीयादि कृष्टियोमे क्रमश एक-एक चय अधिक देना है । तथा एककम पूर्वकृष्टि प्रमाण गच्छ स्थापित करना चाहिए, क्योकि प्रथमकृष्टि में चय नही मिलाना है । ऐसे स्थापित करके “पदमेगेण विहीरण" इत्यादि श्रेणिव्यवहाररूप गणितसूत्र से एक कम गच्छको दो का भाग देकर, उसको ( लब्धको ) उत्तरसे (जो कि एक चयरूप है, उससे ) गुणा करके उसमे प्रभव अर्थात् आदिके एक चयको मिलानेपर तथा फिर गच्छसे गुणा करने पर चयधन प्राप्त होता है । अकसदृष्टि की अपेक्षा -- जैसे एक कम कृष्टिप्रमाण गच्छ ७, इसमे से एक घटाने पर छः आये । ६ मे २ का भाग देनेपर ३ प्राये | इसे चय ( १६ ) से गुणा करनेपर ४८ आये । इसमे प्रभव (एक चय यानी १६ ) को मिलाने पर ६४; पुनः इसको गच्छ ( ७ ) से गुणा करने पर ४४८ चयधन होता है । इस विधानसे जो प्रमाण आवे उतना अधस्तन शीर्ष विशेषद्रव्य जानना' । अब जो पूर्वकृष्टिमे से प्रथमकृष्टिका प्रमाण था उसीके समान १. श्रव इसके ( पूर्व कृष्टिके) नीचे प्रपूर्वकृष्टिकी रचना करता है वे ४ हैं तथा वे प्रथमपूर्वकृष्टिके तुल्य-तुल्य ही हैं अर्थात् २५६ - २५६ परमाणु प्रमाण हैं अतः द्वितीय समयमे श्रधस्तन कृष्टिद्रव्य २५६४४=१०२४ हुआ; तब सदृष्टि इसप्रकार होगी चरमपूर्वकृष्ट क् प्रथमसमयकृत पूर्व कृष्टिया जो स्तनशीर्ष विशेष द्रव्य से कृष्टिया समयकृत पूर्व द्वितीय २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ २५६ प्रथमपूर्वकृष्टि चरम पूर्वकृष्टि २५६ २५६ २५६ २५६ प्रथम पूर्वकष्टि । ― Į अपूर्व समपट्टिका द्रव्य Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २२६ ज्यो का त्यो द्रव्य रहता है । इसका प्रमाण बतलाते है ' - विवक्षित समय में अपकृष्टद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेभागका भाग देने पर एक भागमात्र द्रव्य कृष्टिमें देने योग्य है । इसमें से पूर्वोक्त तीन प्रकारका द्रव्य घटाने पर किचिदून हुआ । (यही किचिदून द्रव्य मध्यमखंड द्रव्य है ।) इतना द्रव्य सकलकृष्टियोमे देना है तो एककृष्टिमें कितना देना होगा ? ऐसी त्रैराशिक विधि करके उस द्रव्यमे पूर्व प्रपूर्वकृष्टियों के प्रमाणका भाग देने पर एक कृष्टिमें १ अब द्वित्तीय समयमे अपकृष्ट द्रव्य ३६२० मे से श्रधस्तन शीर्षविशेषद्रव्य ४४८, श्रधस्तन कृष्टिद्रव्य १०२४, उभयद्रव्य विशेषद्रव्य १२४८, इन तीनोको घटानेपर ३९२०- (४४८ + १०२४ + १२४८ ) = १२०० शेष रहे । ये शेष बचे १२०० परमाणुप्रमाण द्रव्य ही मध्यमखण्डद्रव्य है : इसे समस्त पूर्व-पूर्व कृष्टियो में ( ८ + ४ = १२ कृष्टियोमे) समान खण्ड करके देने पर सभी को अर्थात् प्रत्येक कृष्टिको १००-१०० द्रव्य प्राप्त होता है । उसे मिलाने पर रचना ऐसी है— २७२+१०० २८८ + १०० ३०४+१०० ३२०+१०० ३३६+१०० ३५२+१०० ३६८ + १०० ३८४ + १०० ४००+१०० ४१६+१०० ४३२+१०० ४४८+१०० = ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ = = = ३७२ • चरमपूर्वकृष्टि - ३८८ ४२० = ४३६ ४०४ ॥ ॥ ॥ ४५२ ४६८ ४८४ ܘܘܥ ५१६ == ५३२ ५४८ - प्रथमपूर्वकृष्टि - चरमप्रपूर्वकृष्टि नोट -- यहां इतना स्मरण रखना चाहिये कि उभयद्रव्यविशेषद्रव्य निकालनेके लिए यहा निम्नविधि है - यहा एक गुणहानि = १७६ ( गुरणहानि वस्तुस्थित्या खण्डरूप नही होती पर सप्ट या दृष्टान्त तो सदृष्टि या दृष्टान्त ही ठहरा, वह दान्तिसे सर्वदेश साम्य नही रखता, ऐसा जानना चाहिये) क्योकि ५४८ रूप प्रथमकृष्टि १७ स्थानो को पार करनेके बाद उसके श्रागे एकस्थान जाने पर श्राघी रह जाती है; श्रत १७ स्थान, गुणहानिका प्रभाग होगा । यथा ५१२ कर्मपरमाणुरूप प्रथम निषेकसे = स्थान के बाद नवमस्थानमे जाकर २५६ रह जाते हैं तो वहा गुणहानिका प्रमाण ८ होता है । वैने ही यहा पर ५४८ रूप प्रथमकृष्टि चयहीन होती हुई ऐसे जाती है - ५४८, ५३२, ५१६ - प्रथम प्रपूर्वकृष्टि ५००, ४६४, ४६८, ४५२, ४३६, ४२०, ४०४, ३८८, ३७२ ३५६, ३४०, ३२४, ३०८, २६२, २७६..... ........! - = सकल अपकृष्टद्रव्य १६०० + ३२० ५५२० । सकल अपकृष्टद्रव्य --- सकलकृष्टियां ५५२० ÷ १२=४६० मध्यमघन Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] लब्धिसार [ गाथा २८६ प्रमाण श्राता है । अब एकचय को स्थापितकर और एक चय उत्तर (आगे) स्थापित कर तथा पूर्व-ग्रपूर्वकृष्टिप्रमाण गच्छ स्थापितकर " पदमेगेणविहीण" इत्यादि सूत्रके अनुसार एककम गच्छके आधेको चयसे गुणित करके उसमे चय मिलाकर उसको चयसे गुणित करने पर सर्व उभय द्रव्य विशेष द्रव्य होता है तथा जो विवक्षित समयमें कृष्टिरूप परिणमावने योग्य द्रव्य अपकृष्ट किया उसमे से अधस्तनशीर्ष विशेषद्रव्य, अधस्तनकृष्टिद्रव्य और उभयद्रव्यविशेषद्रव्य घटाने पर; अवशिष्ट रहे द्रव्यको समस्त पूर्व- अपूर्व कृष्टियोमे समान भाग करके देना ? इसीका नाम मध्यमखण्डद्रव्य है । इसको देने पर उस अपकृष्टद्रव्यकी समाप्ति होती है तथा समस्त पूर्वापूर्वकृष्टियोमें चय घटते क्रमरूप पूर्वद्रव्य + मिलाया जानेवाला द्रव्य = - गोपुच्छाकारता सर्वत्रसम + गोपुच्छाकारता द्रव्य प्रथमपूर्वकृष्टि उभयद्रव्यविशेषद्रव्य चरमपूर्वकृष्टि २५६ + एक चय द्विचरम पूर्वकृष्टि - २५६ + दो चय २५६ + तीन चय २५६ + चार चय २५६ + पाच चय २५६ + छह चय २५६ + सात चय २५६ + २५६ + २५६ २५६ + प्रथम पूर्वदृष्टि - २५६ + श्राठ चय नो चय दस चय ग्यारह चय वारह चय २७२ २८८ ३०४ ३२० ३३६ ३५२ ३६८ ३८४ ४०० ४१६ ४३२ ४४८ उभयद्रव्यविशेषद्रव्य = १ चय+२ चय + ३चय + ४ चय + ५ चय + ६ चय +9 चय + चय + + १० चय + ११ चय+१२ चय= ७८चय = ७८ x १६ = १२४८अत: उभयद्रव्यविशेषद्रव्य = = १२४८ इसे मिलाने पर सर्वत्र प्रथम अपूर्वकृष्टि से लगाकर चरम पूर्वकृष्टि पर्यन्त गोपुच्छाकार द्रव्य हो जाता है वह नीचे लगी सदृष्टिके अनुसार है → चरम पूर्वकृष्टि सर्वगोपुच्छाकारता २७२ २८८ ३०४ ३२० ३३६ ३५२ ३६८ ३८४ - प्रथमपूर्वकृष्टि ४०० - चरमनपूर्वकृष्टि ४१६ ४३२ ४४८ - प्रथमनपूर्वकृष्टि Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २८६ ] लब्धिसार [ २३१ जानना चाहिए । जहा विशेष हो वहा विशेष जानना चाहिए। यहां संदृष्टिकी अपेक्षा चयहीन क्रम लिये पूर्वकृष्टि आदि की रचना निम्न प्रकार होती है पूर्वकृष्टिरचना अन्तिमकृष्टि अr अदा पूर्वकृष्टियोंमे अधस्तनशीर्षद्रव्य । मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि की रचना इसप्रकार होती है ) - पूर्वकृषि पूर्वकृष्टि मादिकृरि अधस्तनशीर्षद्रव्य मिलानेपर समानरूप पूर्वकृष्टि रचना के नीचे ही अधस्तनकृष्टि द्रव्यद्वारा अपूर्वकृष्टि की समपट्टिकारचना निम्नप्रकार होती है संदृष्टि नं० ३ मे उभयद्रव्यविशेषद्रव्य मिलाने पर सदृष्टिकी प्राकृति निम्न प्रकार होती है । इसे गुपुच्छाकृति कहते हैं - अध अच शोध गोष पहा anपूर्व कृष्टि उभय द्रव्य उवा दका विशेष अपूर्वकृष्टि समपट्टिका ट्रन्य द्रव्य अपूर्व कृष्टि समपट्टिका - Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] लब्धिसार [ गाथा २८६ देने योग्य एकखण्डका प्रमाण प्राप्त होता है । इसको सर्वकृष्टिके प्रमाणसे गुणित कर देनेपर सर्व मध्यमखण्ड द्रव्यका प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इसप्रकार यहा विवक्षित द्वितीय समयमे कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमे बुद्धि कल्पनासे अधस्तनशीर्ष विशेष आदि चार प्रकारके द्रव्य भिन्न-भिन्न स्थापित किये । ऐसे ही यहां पर तृतीयादि समयोमे कृष्टिरूप होने योग्य द्रव्यमे विधान जानना । अथवा आगे क्षपकश्रेणिके वर्णनमे अपूर्वस्पर्धकका, वादरकृष्टिका या सूक्ष्मकृष्टिका वर्णन करते हुए ऐसे विधान कहेंगे, वहां ऐसा ही अर्थ श्रव यहा द्रव्य चयहीन होकर जाता हुआ अठारहवें स्थानमे २७६ होता है । हमे ५४८ का श्राघा २७४ प्रभीष्ट है । चू कि एकस्थान आगे पीछे जाने पर ( अर्थात् १८ वें से १७ वे या १७ वे से १८ वें को जाने पर) १६ ( एक चय) की कमी या वृद्धि होती है, तो २ मात्र परमाणुकी हीनता के लिए कितना स्थान आगे जाना पडेगा ? उत्तर होगा = स्थान । अर्थात् २७६ से स्थान प्रागे जाने पर वही कृष्टिका परमाणु परिमाण २७४ हो जाता है जो कि ५४८ से ठीक आधा है तो २७४ परमाणुवाला स्थान १८६ वा हुआ, इसलिये इससे एक स्थान पूर्व श्रर्थात् १७ वें स्थान में ही एक गुणहानि पूरी हो गई ऐसा जानना चाहिए, ( क्योकि जहा द्रव्य श्राधा रह जाय उससे एक स्थान ( पूरा-पूरा) पहले जाने पर जो निषेक स्थित हो वही प्रथम गुणहानिका चरमस्थान होता है) श्रतएव दो गुणहानि - १७३×२ = ३४१ श्रव मध्यघन – एककम गच्छका आधासे न्यून दो गुणहानि = चय श्रर्थात् ४६० - ३४१ - १ = चय ,, ४६०–३४१ – ५३ = चय " 17 " ४६०–२८=चय ४६° X दर्द चय = ८६॰ × ६६५=१६ (चय) अब सूत्रानुसार एककम गच्छ ११ का आधा ५३ से चय १६ को गुरणा करने पर आये । मिलाने पर ८८+१६= १०४ आये । १०४ x गच्छ ( १२ ) = १२४८ श्राये । यही उभयद्रव्य विशेष है। सुगम है । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार गाथा २८६ ] [ २३३ - अर्थ-जघन्यकृष्टिमे बहुत द्रव्य दिया जाता है, उससे आगे अन्तिमकृष्टि पर्यन्त विशेष हीनरूपसे द्रव्य दिया जाता है । पूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणामे अनन्तगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है उससे ऊपर विशेषहीन क्रमसे द्रव्य दिया जाता है, किन्तु पूर्वकृष्टिको प्रथमकृष्टिमे जो द्रव्य दिया जाता है वह अपूर्व अन्तिमकृष्टिमे दिये गये द्रव्यसे असख्यात भाग और अनन्तवे भागहीन है, क्योकि एक अधस्तनकृष्टिका द्रव्य व उभयद्रव्य विशेषसे हीन है। ' विशेषार्थ-प्रथम समयमें अपकर्षित किये गये समस्त प्रदेशपुञ्जके असंख्यातवे भागको ग्रहणकर कृष्टियोमें निक्षिप्त करता हुआ जघन्यकृष्टिमे बहुत प्रदेशपु ज देता है । उससे अनन्तर उपरिमं दूसरी कृष्टिमे प्रदेशपु ज विशेपहोन देता है । दो गुणहानिके प्रतिभागके अनुसार अनन्तवे भागप्रमाण विशेषहीन देता है । इसप्रकार इस प्रतिभागके अनुसार उत्तरोत्तर अनन्तर पूर्वकृष्टिके 'प्रदेशपुञ्जसे विशेष हीन करके अन्तिमकृष्टिके प्राप्त होने तक विशेष हीन प्रदेशपु जको देता है । इतनी विशेषता है कि परम्परोपनिधाकी अपेक्षासे भी गणना करनेपर प्रथमकृष्टिमें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुञ्जसे अन्तिम कृष्टि में निक्षिप्त प्रदेशपुञ्ज अनन्तवा भाग हीन ही होता है, क्योकि कृष्टियोका आयाम एक स्पर्धककी वर्गणाअोके अनन्तवे भागप्रमाण है। पुनः अन्तिम कृष्टिमे निक्षिप्त हए प्रदेशपुञ्जसे ऊपर जघन्य स्पर्धक की आदि वर्गणामे अनन्तगुणे हीन प्रदेशपुञ्ज को देता है । ( विशेष कथनके लिये ज. ध. पु. १३ पृ. ३११ देखना चाहिएं। ) प्रथम समयमें अपकर्षित द्रव्यसे असख्यातगुणे द्रव्यको अपकर्षित कर द्वितीय समयमें पूर्व-अपूर्व कृष्टियोमें सिंचन करता हुआ द्वितीय समयमे तत्काल रची जानेवाली अपर्व कष्टियोकी जो आदि जघन्यकृष्टि है उसमें प्रथम समयकी अन्तिम कृप्टिमे निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे असख्यातगुणे पु जको देता है । इस आदि जघन्यकृष्टिकी अपेक्षा दूसरी अपर्वकष्टि मे अनन्तवेभाग हीन देता है । इसप्रकार अपूर्वकृष्टियोंमे जो अन्तिमकृप्टि है वहां तक इसी क्रमसे द्रव्य देते हुए ले जाना चाहिए। उसके बाद प्रथम समयमे रची गई पूर्वकष्टियो मे जो जघन्यकृष्टि है उसमे विशेष हीन अर्थात् असख्यातवेभाग और अनन्तवेभागप्रमाण कम देता है, क्योंकि प्रथम समयमे पूर्व कृष्टियोमे निक्षिप्त द्रव्य दूसरे समयमे निक्षिप्त किया जानेवाला द्रव्य अपकर्षित किये गये द्रव्यके माहात्म्यवन असख्यातगुणा होता है । इसलिये पूर्वकृष्टियोकी जघन्यकृष्टिमे पहलेका अवस्थित द्रव्य इस समय सिचित किये जाने वाले द्रव्यके असंख्यातवेभागप्रमाण होता है। अतः Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] लब्धिसार [ गाथा २८७-२८६ मदत व्य दिव्या मध्यम || पूर्वकृष्टि संदृष्टि न. ४ मे मध्यमखण्डद्रव्य मिलाने पर सदृष्टिकी आकृति निम्न प्रकार हो जाती है - उभय खण्ड द्रव्य विशेष द्रव्य त्य विशेष अपूर्वकृति द्रव्य द्रव्य सम्वट्टिका इसप्रकार द्रव्य देनेका विधान जानना चाहिए । यद्यपि द्रव्य तो युगपत् जितना देने योग्य है उतना दिया जाता है; तथापि समझने के लिये पृथक्-पृथक् विभाग करके वर्णन किया है। हेट्ठासीसं थोवं उभयविसेसे तदो असंखगुणं । हेट्ठा अणंतगुणिदं मज्झिमखंडं असंखगुणं ॥२८७॥ अर्थ-(पूर्वोक्त गाथा २८६ मे) कहे गये चारप्रकारके द्रव्योमे अधस्तनशीर्ष विणेप द्रव्य सबसे स्तोक है । इससे उभयद्रव्य विशेष असख्यातगुणा है। इससे अधस्तनप्टि द्रव्य अनन्तगुणा है और इससे मध्यमखण्ड द्रव्य असख्यातगुणा है ऐसा जानना। तृतीयादि समयोंमें कृष्टियों सम्बन्धी विशेष करते हुए निक्षेपद्रव्यके पूर्व और अपूर्वगत संघि विशेष का कथन करते हैं भवरे वडगं देदि हु विसेसहीणक्कमेण चरिमोति । तत्तो णंतगुणणं विसेसहीणं तु फड्ढयगे ॥२८॥ णवरि असंखाणंतिमभागणं पुवकिट्टिसंधीसु । इंट्टिमखंडपमाणेणेव विसेसेण होणादो ॥२८६।। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६१ ] लब्धिसार [ २३५ चाहिए । अथवा सदश घनवाले अनन्त परमाणुप्रोको कृष्टिरूपसे ग्रहण कर यह कथन करना चाहिए, क्योकि उत्तरोत्तर एक-एक अविभाग प्रतिच्छेदोकी क्रम वृद्धि यहा पर नही पाई जाती इसलिये इनकी कृष्टि सज्ञा है । पुन' अन्तिम कृष्टिसे ऊपर जघन्य स्पर्धककी प्रथमवर्गणा अनन्तगुणी है । लोभवेदककालके द्वितीय त्रिभागकी कृष्टिकरण कालसज्ञा है, क्योकि यहां पर स्पर्धकगत अनुभागका अपर्वतनकर कृष्टियोको करता है। जिसप्रकार क्षपकश्रेणिमे कृष्टियोको करता हुआ सभी पूर्व और अपूर्व स्पर्धकोका पूर्णरूपेण अपवर्तनकर कृष्टियो को ही स्थापित करता है, उस प्रकार उपशमश्रेणिमे सम्भव नही है, क्योकि सभी पूर्वस्पर्धकोके अपने-अपने स्वरूपको न छोड़ कर उसीप्रकार अवस्थित रहते हुए सर्व स्पर्धको मे से असख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यका अपकर्षणकर एक स्पर्धककी वर्गणाओके अनन्तवेभागप्रमाण सूक्ष्मकृष्टियोंकी रचना होती है । अंब कृष्टिकरणकालमें स्थितिबन्धके प्रमाणको प्ररूपणा के लिए तीन गाथाओं द्वारा कथन करते हैं विदियद्धा संखेज्जाभागेसु गदेसु लोभठिदिबंधो। अंतोमुहृत्तमेत्तं दिवसपुधत्तं तिघादीणं ॥२६१।। अर्थ-लोभसज्वलन कालके तीनभागोमे से दूसरे कालके (भागके) सख्यात बहभाग बीत जानेपर सज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तमात्र होता है शेप तीन (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध पृथक्त्वदिनप्रमाण होता है । विशेषार्थ- कृष्टिकरणकाल अर्थात् द्वितीयकालके अन्तिम समयको प्राप्त किये बिना वहासे नीचे सरककर उस कालके सख्यात भागोके अन्तिम समयमे सज्वलनका तात्कालिक स्थितिबन्ध पूर्वमे होनेवाले दिवस पृथक्त्वप्रमाणसे यथाक्रम घटकर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण हो जाता है । इससे पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया १. ज. ध पु. १३ पृ ३१४-१५; ध. पु. ६ पृ. ३१३ । २. क. पा. सुत्त पृ ७०३ चूर्णिसूत्र २६०-६१; ध. पु. ६ पृ ३१४ । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २६० २३४ ] उतना' (पूर्व अवस्थित द्रव्य) कम करके पुनः एक गोपुच्छ विशेष' और कम करके प्रदेश विन्यास होता है, अन्यथा कृष्टियोमे एक गोपुच्छश्रेणिकी उत्पत्ति नही हो सकती। इससे आगे प्रोघ उत्कृष्ट कष्टिकी अपेक्षा प्रथम समयमे रची गई कृष्टियोमें अन्तिमकृप्टिके प्राप्त होने तक सर्वत्र अनन्तवांभागप्रमाण विशेषहीन विन्यास होता है। पुन' उससे जघन्य स्पर्धककी आदिकी वर्गणामे अनन्तगुणा होन प्रदेशपुञ्ज दिया जाता है । उससे उत्कृष्ट स्पर्धकसे जघन्य प्रतिस्थापना प्रमाण स्पर्धक नीचे सरककर स्थित हुए वहाके स्पर्धककी उत्कृष्ट वर्गणाके प्राप्त होनेतक अनन्तवांभाग प्रमाण विशेष हीन प्रदेश विन्यास होता है। प्रदेश विन्यासका जैसा कम दूसरे समयमे कहा गया है वैसा शेष समयोमे जानना चाहिए, क्योकि दीयमान द्रव्य अर्थात् दिये जाने वाले द्रव्यकी यह श्रेणिप्ररुपणा है । दृश्यमान द्रव्यकी श्रेणीकी अपेक्षा-प्रथमकृष्टिमे दृश्यमान प्रदेशपु ज बहुत है, उससे दूसरीमे अनन्तवा भागप्रमाण विशेष हीन है। इसप्रकार अन्तिमकृष्टि तक उत्तरोत्तर विशेष हीन है । स्पर्धककी वर्गणाओमे भी दृश्यमान द्रव्य विशेष हीन ही होता है । अब कृष्टियोंका शक्ति सम्बन्धी अल्पबहुत्व कहते हैंअवरादो चरिमेत्ति य अणंतगुणिदक्कमादु सत्तीदो। इदि किट्टीकरणद्धा बादरलोहस्त बिदियद्धं ॥२६॥ अर्थ-अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अपर्वकृष्टिके अविभाग प्रतिच्छेदोसे द्वितीयकृप्टिके अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुणे है । इसी प्रकार अनन्तगुरिणत क्रम पूर्वकृष्टिकी अन्तिम कृप्टितक ले जाना चाहिए। इसप्रकार बादरलोभ वेदक कालका द्वितीयार्ध कृष्टिकरणकाल व्यतीत होता है । विशेषार्थ-- जघन्यकृष्टि सदृश घनवाले परमाणुओभे से एक परमाणुके अविभाग प्रतिच्छेदो को ग्रहणकर एक कृष्टि होती है, यह स्तोक है । दूसरी कृष्टिके अर्थात् दूसरी कृप्टिके एक परमाणु सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे है । इसप्रकार एकएक परमाणु को ग्रहणकर अनन्तगुणित क्रमसे अन्तिम कृष्टिके प्राप्त होने तक ले जाना १ अर्थात् अधस्तन कृष्टिद्रव्य । २ प्रर्थात् उभय द्रविशेष । ३ ज. प पु १३ पृ. ३१०-१४ । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६४-२६५ ] लब्धिसारे [ २३७ वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोके भी सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्धसे घटकर कुछकम दो वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है जो बादरसाम्परायिक क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है, क्योंकि क्षपकश्रेणिमे इस स्थलपर होनेवाला स्थितिबन्ध एक वर्षसे कुछकम होता है। अव संक्रमणकाल सम्बन्धी अवधि का विचार करते हैंविदियद्धा परिसेसे समऊणावलितियेसु लोहदुगं । सटाणे उवलमदि हुण देदि संजलणलोह म्मि ॥२६४॥ अर्थ-दूसरे कृष्टिकरणकालमें एक समयकम तीन प्रावलियां शेष रहने पर दो प्रकारका लोभ (अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण लोभ) सज्वलनलोभमें संक्रांत नही होता, स्वस्थानमें ही उपशमाया जाता है । विशेषार्थ-एक समयकम तीन पावलि शेष रहनेपर सक्रमणावलि और उपशमनावलिका परिपूर्ण होना असम्भव है, इसलिये उस अवस्थामें अप्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण लोभ संज्वलनलोभमे सक्रमित नहीं होता, किन्तु स्वस्थानमें ही उपशमित होता है (अपने रूपसे ही उपशमता है) । श्रावलि और प्रत्यावलिके शेष रहनेपर आगाल और प्रत्यागाल व्युच्छिन्न हो जाते है। प्रत्यावलिमें एक समय शेष रहनेपर सज्वलन लोभकी जघन्यस्थिति उदीरणा होती है । अब लोभत्रय को उपशमन विधि का कथन करते हैंबादरलोहादिठिदी श्रावलिसेसे तिलोहमुवसंतं । रणवकं किट्टि मुच्चा सो चरिमो थूलसंपराओ य ॥२६५॥ अर्थ-बादरलोभकी प्रथमस्थितिमे आवलि शेष रहनेपर नवक समयप्रवद्ध और कृष्टियोको छोड़कर तीन प्रकारके लोभका द्रव्य उपशान्त हो चुकता है। वह . अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्पराय होता है । १. ज. ध पु. १३ पृ. ३१७ । २. क पा. सु पृ. ७०३ सूत्र २६६ ।। ३. ज. प. पु. १३ पृ. ३१७-१८ । क. पा सु पृ ७०३ सूत्र २६७; घे. पु. ६ पृ. ३१४ । . Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] लब्धिसार [ गाथा २६२-२६३ कर्मोका स्थितिबन्ध सहस्रवर्ष पृथक्त्व प्रमाण होता रहा जो यथाक्रम संख्यात गुणहानियों के द्वारा घटकर दिवस पृथक्त्व प्रमाण हो जाता है' । किट्टीकरणखाए जाव दुचरिमं तु होदि ठिदिबंधो । वस्सां संखेज्जसहरुलागि श्रघादिठिदिबंधो ॥ २६२ ॥ अर्थ - कृष्टिकरणकालके द्विचरम स्थितिबन्धतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मो का स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है * विशेषार्थ-लोभ सज्वलनकालके तीन भागो मे से दूसराभाग कृप्टिकरणकाल के द्विचरम स्थितिबन्ध समाप्त होनेतक नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मो का स्थितिबन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण ही होता है, क्योकि घातिया कर्मो के स्थितिवधापसरण होने के समान अघातिया कर्मोके स्थितिबन्धका बहुत अधिक अपसरण होना असम्भव है । इसलिए द्विचरम स्थितिबन्धतक इनका स्थितिबन्ध नियमसे सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है । किट्टीयाचरिमे लोहस्संतो मुहुत्तियं बंधो। दिवसंतों घादीणं वेवस्संतो अवादीणं ॥ २६३॥ श्रर्थ-कृष्टिकरणकालमे अन्तिम स्थितिबन्ध लोभ सज्वलनका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, घातिया कर्मो का कुछ कम एकदिनप्रमाण तथा अघातियाकर्मोका कुछकम दो वर्षप्रमाण होता है । विशेषार्थ - कृष्टिकरण कालमे जो अन्तिम स्थितिबन्ध होता हैं, वह बादरसाम्परायिकका अन्तिम स्थितिबन्ध है । वह स्थितिबन्ध लोभ सज्वलनका अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण होता है जो क्षपकश्रेणि मे होनेवाले स्थितिबन्धसे दूना है ; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका कुछकम एकदिन रात्रिप्रमाण है जो क्षपकके बादरसाम्परायिकगुणस्थानमे होनेवाले अन्तिम स्थितिबन्धसे दूना है तथा नाम - गोत्र पौर १. ज ध. पु. १३ पृ. ३१६ । २ धपु ६ पृ. ३१४ | क पा सुत्त पृ ७०३ चूणिसूत्र २६२ । ३ ज घ पु १३ पृ. ३१६ । ४. घ. पु ६ पृ. ३१४ । क पा सु पृ. ७०३ सूत्र २६३-२६५ ॥ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २६७ ] लब्धिसार [ २३६ प्रथमस्थितिकी रचना सूक्ष्मसाग्परायिकके काल बराबर होती है, परन्तु ज्ञानावरणादिका उस कालमे होने वाला गुणश्रेणिनिक्षेप सूक्ष्मसाम्परायके कालसे विशेष अधिक होकर उदयावलिके बाहर निक्षिप्त हुआ है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथम समयमे निक्षिप्त हुआ गुणश्रेणिनिक्षेप गलित शेष होकर इस समय तत्प्रमाण अवशिष्ट रहता है । प्रागे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथम समयमें उदीयमान कृष्टियोंका निर्देश करते हैं पडमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गदो दु आदीदो। मुच्चा असंखभागं उदेदि सुहुमादिमे सव्वे ॥२६७॥ अर्थ-प्रथम समयमे जो कृप्टिया की गई उनके अग्रान मे से असख्यातवेभाग को छोड़कर और अन्तिम समयमे की गई कृप्टियो की जघन्य (आदि) कृष्टिसे लेकर असंख्यातवे भागको छोडकर अन्य सकल कृष्टियां सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण होती हैं। [सक्षेपमे १० वे गुणस्थानके प्रथम समयमे कृष्टियो के अधस्तन व उपरिम असख्यातवेभाग को छोड कर शेष असख्यात बहुभाग का वेदन करता है । विशेषार्थ- कृष्टिकरण कालमे से प्रथम और अन्तिम समयमे की गई कृप्टियोको छोड कर शेष समयोमे जो अपूर्वकृष्टियां की गई है वे सभी सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाती है, किन्तु यह सदृश धनकी विवक्षासे है, अन्यथा उन सभीका प्रथम समयमें पूर्ण रूपेण उदीर्ण होनेका प्रसङ्ग आ जावेगा, परन्तु ऐसा नही है, क्योकि उनमे से असख्यातवे भागप्रमाण सदृश धनवाले परमाणु प्रदेशपुजका ही अपकर्ष-प्रतिभागके अनुसार उदय होता है । प्रथम समयमे जो कृष्टिया रची गई है उनके उपरिम असख्यातवेभागको छोड़कर शेष सर्व कृष्टिया प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाती है। यह भी सदृश धनकी विवक्षामे कहा गया है, क्योकि उन सबका एक समयमे पूर्णरूपेण उदयरूप परिणाम नही पाया जाता अतः पल्योपमके असख्यातवेभागसे खण्डित एकभागप्रमाण उपरिम असंख्यातवे भागको छोड़कर प्रथम समयमे की गई कृष्टियोका शेष जो असंख्यात बहुभाग बचता है वह सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदीर्ण हो जाता है। कुष्टि १. ज. ध पु १३ पृ. २१६-२०, ध पु ६ पृ ३१५। घ. पु. ६ पृ ३१५; क. पा सुत्त पृ ७०४ सूत्र २७४-२७७ । ज ध पु १३ १ ३२०-२१॥ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा २६६ २८ ] विशेषार्थ-वादर लोभको प्रथम स्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहने पर उपगमनाबलिके चरमसमयमे सज्वलनलोभका एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, कृष्टिया सभी अनुपशान्त रहती है । तथा नवकवन्ध और उच्छिष्टावलिको छोडकर बादर सज्वलनलोभका शेष सर्वद्रव्य व अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरणका सर्व द्रव्य उपशान्त रहता है । अर्थात् स्पर्धकगत लोभसज्वलन सम्बन्धी सर्व प्रदेशपु ज इस समय उपशान्त हो चुकता है, किन्तु कृष्टिगत प्रदेशपुज अभी भी अनुपशान्त रहता है, क्योकि सूक्ष्मसाम्परायकालमे कृष्टियोकी उपशामना होती है । परन्तु दोनो प्रकारका लोभ पूरा ही उपशान्त हो चुकता है । नवक बन्धादिकका अनुपशम रहता है । यही अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक सयत है क्योकि अनिवृत्तिकरणकालका अन्त देखा जाता है । सार यह है कि जब प्रत्यावलीमे एक समय शेष रहता है उसी समय लोभसज्वलनका सर्व स्पर्धकरूप द्रव्य तथा सकल ही प्रत्यात्यान-अप्रत्याख्यान लोभ द्रव्य उपशान्त हो जाता है मात्र (१) नवक समय प्रबद्ध (२) उच्छिष्टावलिमात्र निपेक (३) सूक्ष्मकृष्टि ये उपशान्त नही होते ।। अथानन्तर सूक्ष्मसाम्परायमें किये जाने वाले कार्य विशेष का कथन करते हैंसे काले किटिस्स य पढमट्टिदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूणयं गत्थ ॥२६६॥ मर्य-अनिवृत्तिकरणकालके क्षीण होने पर अनन्तर समयमें कृष्टियोंकी प्रथम लितिका कारक व वेदक होता है । बादर लोभको प्रथम स्थितिके कुछकम आधेभागप्रमाण कृप्टियोकी प्रथम स्थिति है। _ विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होनेपर अनन्तर समयमे ही वह गुमष्टि वेदकरूपसे परिणमकर सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । प्रथम नगयवती सूक्ष्मसाम्परायिक सयतजीव उसी समय दूसरी स्थितिमेसे कृष्टिगत नागपुजा अपकर्षण भागहारके द्वारा अपकर्षणकर उदयादि श्रेणिरूपसे अन्तर्मुहूर्त भागामा निये हुए प्रथमस्थितिका विन्यास करता है। बादर लोभकी प्रथमस्थिति, गान्त लोभ येस काल के साधिक दो वटा तीन (३) भागप्रमाण होती है। कुछकम जमा धनागप्रमाण मूक्ष्ममाम्परायकी प्रथमस्थितिका विन्यास होता है। यहां की Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा २९६-३०० ] लब्धिसार [ २४१ विशेषार्थ-दूसरे समयमे तो प्रथम समयमे उदीर्ण हुई कृष्टियोके अग्राग्रसे अर्थात् सवसे उपरिम कृष्टिसे लेकर नीचे पल्यके असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टियोको छोडता है, क्योकि ऐसा न हो तो प्रथम समयके उदयसे दूसरे समयका उदय अनन्तगुणा हीन नहीं बन सकता है। इसलिये पूर्व समयमे उदीर्ण हुई कृष्टियो में से सबसे उपरिम कृप्टिसे लेकर असख्यातवे भागप्रमाण उपरिम भागको छोड़कर अधस्तन बहुभागप्रमाण कृप्टियोका दूसरे समयमे वेदन करता है, परन्तु नीचेसे प्रथमसमयमें अनुदीर्ण हुई कृष्टियोके अपूर्व असख्यातवेभागको वेदता है अर्थात् पालम्बनकर ग्रहण करता है। प्रथम समय में उदीर्ण कृप्टियोसे दूसरे समयमें उदीर्ण हुई कृष्टियां असख्यातवेभाग प्रमाण विशेषहीन है, क्योकि अधस्तन अपूर्व लाभसे उपरिम परित्यक्त भाग बहुत स्वीकार किया गया है । इसीप्रकार सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक तृतीयादि समयों मे भी कथन करना चाहिए। इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानके कालका पालन करता हुआ आवलि प्रत्यावलिके शेष रहने पर आगाल-प्रत्यागालका विच्छेद करके पश्चात् एक समयाधिक आवलिकालके शेष रहनेपर जघन्य स्थिति उदीरणा करके पुन. क्रमसे सूक्ष्मसाम्परायका अन्तिम समय प्राप्त हो जाता है'। अथानन्तर सूक्ष्मकृष्टि द्रव्यके उपशम सम्बन्धी विधि एवं सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें कर्मोके स्थितिबन्धका निर्देश करते हैं किटि सुहुमादीदो चरिमोत्ति असंखगुणिदसेढीए । उवसमदि हु तच्चरिमे अवरदिदिबंधणं छरहं ॥२६॥ अंतोमुहूत्तमेत्तं घादितियाणं जहण्णठिदिवंधो । णामदुग वेयणीये सोलस चउवीस य मुहुत्ता ॥३०॥ अर्थ-सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे अन्तिम समयतक कृष्टियोंको असंख्यातगुणी श्रेणिक्रमसे उपशमाता है । अन्तिम समयमे छहकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध होता है । तीन घातिया कर्मोंका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, नाम व गोत्रका १६ मुहूर्त और वेदनीयका चौवीस मुहूर्तप्रमाण जघन्य स्थितिबन्ध होता है । १. ज घ. पु. १३पृ ३२४-२५ । Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] लब्धिसार [ गाथा २६८ करणकालके अन्तिम समयमे रची गई कृष्टियोंके पल्योपमके प्रसख्यातवेभागरूप प्रतिभाग द्वारा प्राप्त जघन्यकृष्टिसे लेकर अधस्तन प्रसंख्यातवे भागको छोडकर शेष बहुभाग प्रमाण सभी कृष्टियोको उस ( प्रथम ) समय मे उदयमे प्रविष्ट कराया जाता है, इसलिये सिद्ध हुआ कि सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समयमे असख्यात बहुभाग कृष्टियोका वेदन होता है । प्रथम और अन्तिम समयमे रचित कृष्टियो मे से उपरिम ग्रौर ग्रवस्तन असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टियोका सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे उदयाभाव है । इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमे की गई कृष्टियोमे से नही वेदे जानेवाली उपरिम असख्यातवे भागके भीतरकी कृष्टियां अपकर्षण द्वारा ग्रनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टिरूपसे वेदी जाती है तथा अन्तिम समयमे रची गई कृष्टियोमे से जघन्य कृप्टिसे लेकर नही वेदी जानेवाली श्रधस्तन असंख्यातवे भाग के भीतर की कृप्टिया अनन्तगुणी हीन होकर मध्यमकृष्टिरूपसे वेदी जाती है, क्योकि अपने रूपसे ही उनका उदयाभाव है, मध्यमरूपसे उनके उदयाभावका प्रतिषेध नही है । जिसप्रकार मिथ्यात्व के स्पर्धक अपने स्वरूपको छोड़कर अनन्तगुणे हीन होकर सम्यक्त्वप्रकृतिरूपसे उदयको प्राप्त होते है तथा सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक अपने स्वरूपको छोडकर मिथ्यात्वरूपसे उदयको प्राप्त होते हैं, इसमें कोई विरोध नही है । इसीप्रकार यहां भी उपरिम और अधस्तन असख्यातवे भागप्रमाण कृष्टिया मध्यमरूपसे वेदी जाती है इसमे कुछ निषिद्ध ही है। द्वितीयादि सनयों में उदयानुदयकृष्टि सम्बन्धी निर्देश करते हैंविदियादिसु समयेसु हि छंडदि पल्ला संखभागं तु । आफु ददि हु पुव्वा हेट्ठा तु असंखभागं तु ॥ २६८ ॥ अर्थ — सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयोमे उदीर्ण हुई कृष्टियोके अग्राग्रसे पल्यके असख्यातवे भागप्रमाणको छोड़ता है तथा नीचे से अपूर्व असख्यातवे भागका स्पर्श करता है । १. ज. घ. पु १३ पृ. ३२०-३२३ । २ आफु ददि आस्पृशति वेदयति अवष्टभ्य गृह, रणातीत्यर्थः । ज. घ - मूल. पू. १८६६ । ज. ध अ. प. १०३१ । ३. क. पा सु. पृ. ७०५ सुत्र २८१ । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०२-३०३ ] लब्धिसार [ २४३ सम्बन्धी निषेकोके साथ तद्रूप परिणमनकर उदयरूप होगा। विशेषार्थ-पुरुषवेदके उच्छिष्टमात्र शेष निषेक तो सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिमें तद्रप परिणमनकर उदय होते है । इसीप्रकार सज्वलनक्रोधका सज्वलनमानमे इत्यादि क्रमसे बादरलोभके उच्छिष्टावलिसम्बन्धी निषेक सूक्ष्मकृष्टिमे तद्रूप परिणमित होकर उदयरूप होते हैं । इसका कथन पूर्वमें किया हो है। पुरिसादो लोहगयं णवकं समऊरण दोषिण आवलियं । उवसमदि हू कोहादीकिट्टि अंतेसु ठाणेतु ॥३०२॥ अर्थ-पुरुषवेदसे लोभपर्यन्तके एक समयकम दो प्रावलिमात्र नवक समयप्रबद्धोका द्रव्य क्रोधादि कृष्टिपर्यन्तकी प्रथमस्थितिके कालोमे उपशमता है । विशेषार्थ-पुरुषवेदका नवक समयप्रबद्ध सज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थितिके कालमे उपशमित होता है इत्यादि कथन पूर्वमे किया ही है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें सर्वकृष्टि द्रव्यको उपशान्त करके तदनन्तर समयमें उपशान्तकषाय हो जाता है, इस बात को बताते हैं उवसंतपढमसमये उवसंतं सयलमोहणीयं तु । मोहस्सुदयाभावा सव्वत्थ समाणपरिणामो ॥३०३॥ अर्थ-उपशान्तकषायके प्रथम समयमे समस्त मोहनीयकर्म उपशमरूप रहता है। मोहनीयकर्मके उदयका अभाव हो जानेसे उपशान्तकषाय गुणस्थानके सम्पूर्ण कालमे समानरूप परिणाम रहते है । विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके कालको व्यतीतकर तदनन्तर समय मे मोहनीयकर्मके बन्ध, उदय, सक्रम, उदीरणा, अपकर्षण और उत्कर्षण आदि सभी करणोका पूर्णरूपेण उपशम रहता है । यहासे लेकर अन्तर्मुहूर्तकाल पर्यन्त उपशातकषाय वीतरागछद्मस्थ रहता है । जिसकी सभी कषाये उपशात हो गई है वह उपशांतकषाय कहलाता है तथा कषाय उपशात हो जानेपर वीतराग हो जाता है अत' उपशातकपाय वीतराग कहलाता है । समस्त कषायोके उपशात हो जानेसे उपशातकषाय और समस्त राग परिणामोंके नष्ट हो जानेसे वीतराग होकर वह अन्तर्मुहर्तकाल तक अत्यन्त Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [- गाथा ३०१ २४२ ] विशेषार्थ-सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर सभी कृष्टियोके प्रदेशपूज को गुणश्रेणिरूपसे उपशमाता है अर्थात् प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियोके प्रदेशपु जको उपशमाता है। सर्वप्रथम समयमें सर्वकृष्टियोमे पल्योपमके असंख्यातवेभागका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त होता है उतने प्रदेशपु जको उपशमाता है । पुन दूसरे समयमे सर्वकृष्टियोमे पल्यके असख्यातवेभागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने प्रदेशपु जको उपशमाता है, किन्तु परिणामोके माहात्म्यसे प्रथम समयमे उपशमाए गये प्रदेशपु जसे असंख्यातगुणे प्रदेशपु जको दूसरे समयमे उपशमाता है । इसप्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समय होने तक सर्वत्र गुणश्र णिके क्रमसे उपशमाता है। केवल कृष्टियो को ही असख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नही उपशमाता है, किन्तु जो दो समयकम दो आवलिप्रमाण स्पर्धकगत नवकसमयप्रबद्ध है उन्हेभी असख्यातगुणित श्रेणिरूपसे उपशमाता है । बादरसाम्परायके अन्त समयमें स्पर्धकगत उच्छिष्टावलि शेष रह गई थी वह यहापर कृष्टिरूपसे परिणमकर स्तिवुकसक्रमके द्वारा विपाकको प्राप्त होती है । अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध होता है जो अन्तमुहर्तप्रमाण है। नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सोलहमुहूर्तप्रमाण है, वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध चौवीस मुहूर्तप्रमाण होता है, क्योकि क्षपकके होनेवाले बारह मुहूर्तप्रमाण अन्तिम स्थितिवन्धसे यह दूने प्रमाण को लिये हुए होता है। यहा सभी कर्मोके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबंध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्धकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इतनो विशेषता है कि वेदनीयकर्मका प्रकृतिवन्ध उपशान्तकषाय गुणस्थानमे भी होता है, क्योकि प्रकृतिबन्ध योगके निमित्तसे होता है इसलिये सयोगकेवलीके अन्तिम समयतक उक्त बन्ध सम्भव है । आगे २ गाथाओं में पूर्वोक्त कथनका उपसंहार करते हैंपुरिसादीणुच्छि8 समऊणावलिगदं तु पच्चिहिदि । सोदयपढमट्ठिदिणा कोहादीकिट्टियंताणं ॥३०१॥ प्रर्य-पुरुषवेदादिका एकसमयकम प्रावलिप्रमाण निषेकोका द्रव्य उच्छिष्टापलिन्प है वह द्रव्य क्रोधादि सूक्ष्मकृष्टि पर्यन्तके उदयरूप निषेकसे लेकर प्रथमस्थिति , उ. पु १३ पृ ३२३-३२६ । क पा सु पृ ७०५; घ. पु ६ पृ. ३१६ । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०५ ] लब्धिसार [ २४५ विशेषार्थ-अवस्थित परिणाम होनेसे अनवस्थित आयामरूपसे तथा अनवस्थित प्रदेशपुजके अपकर्षणरूपसे गुणश्रेणि विन्यास सम्भव नहीं है। इसलिये पूरे उपशातकालके भीतर किये जाने वाले गणश्रेणिनिक्षेपके आयामकी अपेक्षा और अपकर्षित किये जाने वाले प्रदेश पुजकी अपेक्षा वह ( गुणश्रेणि ) अवस्थित होती है । अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक मोहनीयके अतिरिक्त शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिके बाहर गलितशेष होता है, परन्तु उपशान्तकषायके प्रथम समयसे लेकर उसीके अन्तिम समयतक गुणश्रेणिनिक्षेप उदयसे लेकर अवस्थित पायामवाला और अवस्थित प्रदेशोंकी रचनाको लिये हुए होता है। प्रथम समयमें गुणश्रेणिका जितने पायाम लिये प्रारम्भ किया उतने प्रमाण सहित ही द्वितीयादि समयोमें उतना ही आयाम रहता है, क्योकि उदयावलिका एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थितिका एक समय गुणश्रोणिमे मिल जाता है। उपशान्तमोहके प्रथम समयमें जितना द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रेणिमे दिया उतना ही प्रतिसमय दिया जाता है, इसलिए अपकर्षितद्रव्यका प्रमाण भी अवस्थित है । उपशान्तकषायके प्रथम समयमें निक्षिप्त गुणश्रोणिनिक्षेपकी अग्रस्थिति, वह प्रथम गुणश्रेणिशीर्ष है। उस प्रथम गुणश्रोणिशीर्षके उदयको प्राप्त होने पर ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योकि वहां एक पिण्ड होकर अन्तर्मुहर्तप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंका उदय होता है। सरल कथन इसप्रकार है-प्रथम समयवर्ती उपशातकषायका गुणश्रेणिशीर्ष वहां अविनष्टरूपसे उपलब्ध होता है। द्वितीय समयवर्ती उपशातकषायकी भी द्विचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहां पर है । तृतीय समयवर्ती उपशातकषायकी त्रिचरम गुणश्रेणि गोपुच्छा वहापर उपलब्ध है । इसप्रकार क्रमसे प्रथम समयमें किये गये गुणश्रेणिनिक्षेपके आयाम प्रमाण ही गुणश्रेणि गोपुच्छाए वहां पर (प्रथमगुणश्रेरिण शीर्षमे) पाई जाती है । इस कारण दूसरे स्थानको छोडकर यही पर ( प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके उदयकाल मे ) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । यद्यपि अगले समयसे लेकर उपशांतकषायके अन्तिम समयतक इतनो ही गुणश्रेणि गोपुच्छाएं प्राप्त होती है, किन्तु वहां पर उन स्थिति विशेषोमे प्रकृति गोपुच्छा की अपेक्षा क्रमसे एक-एक गोपुच्छा-विशेष (चय) की हानि पाई जाती है। इसलिये गोपुच्छा विशेष -(चय) के लाभको लक्ष्यकर यथानिर्दिष्टस्थान ही उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व कहा गया है । प्रकृति गोपुच्छा-विशेष लाभकी दृष्टिसे यदि यह कहा जावे कि अपूर्वकरणके Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिसार [ गाथा ३०४-३०५ २४४ ] स्वच्छ परिणामवाला होकर अवस्थित रहता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्तसे और अधिककालतक उपशम पर्यायका अवस्थान असम्भव है' । समस्त उपशान्तकालमे वह अवस्थित परिणामवाला होता है, क्योकि परिणामो की हानि - वृद्धिकी कारणभूत कषायोके उदयका प्रभाव होनेसे अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसयमसे युक्त सुविशुद्ध वीतरागपरिणाम के साथ प्रतिसमय अभिन्नरूपसे उपशातकषायवीतरागके कालका पालन करता है । प्रथानन्तर उपशांतकषाय गुणस्थानका काल कहते हैंतोमुत्तमेतं उवसंतकसायवीयरायद्वा । गुणीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु || ३०४ ॥ श्रर्थ–उपशातकषायवीतरागका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उसके संख्यातवेभागप्रमारण गुण रिण आयाम है । विशेषार्थ - उपशातकषायका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इस उपशांतकषायकालके सख्यातवेभागप्रमाण श्रयाभवाला इस जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोंका गुणश्रेणि निक्षेप होता है । ऐसा होता हुआ भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमे किये गये गलितशेष गुणश्रेणि निक्षेपके इससमय प्राप्त होने वाले शीर्ष से सख्यातगुणा होता है । उक्त कथनका विशेष स्पष्टीकरण आगे करते हैंउदयादिवदिट्ठद्गा गुणसेढी दव्वमवि श्रवट्ठिदगं । पढमगुण से डिसीसे उदये जेट्ठ पदेसुदयं ॥३०५॥ अर्थ - उपशातमोह कालमे उदयादि गुणश्र णिका आयाम अवस्थित है और द्रव्यनिक्षेप भी अवस्थित है । प्रथम गुण रिण ( उपशात मोहके प्रथम समयमे की गई गुणश्रेणि) के शीर्षका उदय होनेपर ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । १ यद्यपि यह उपशान्त कषाय जीव अवस्थित परिणामवाला होता है तो भी उपशान्तकषायभावसे श्रवस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है, क्योकि उसके बाद उपशमपर्यायका अवस्थान (टिकाव ) श्रसम्भव है । (ज. व मूल पृ १८६२ एव ध पु. ६ पृ ३१७ ) ज ध. पु १३ पृ ३२५-२७ । ३ कपा. सु पृ. ७०५, सूत्र २८८, ज ध. मूल पृ १५६६-६७, ध पु. ६ पृ. ३१६ । ४. जघ पु १३ पृ ३२७ । Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३०७ ] लब्धिसार [ २४७ विशेषार्थ - गाथोक्त २५ प्रकृतियोके उदय होनेके काल में आत्माके विशुद्ध सक्लेश परिणामों मे जैसी हानि वृद्धि होती है वैसी ही हानि वृद्धि इन २५ प्रकृतियो के अनुभागोद मे होती है । आत्म परिणामके अनुसार इन २५ प्रकृतियो के अनुभागका उत्कर्षरण - प्रपकर्षरण होकर उदय होता है इसलिये ये २५ प्रकृतिया परिणामप्रत्यय है । समग्र उपशातकाल के भीतर केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरणका अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योकि उपशान्तकालमे आत्माके परिणाम अवस्थित होते है । निद्रा और प्रचला वोदयी प्रकृतिया है इसलिये इनका कदाचित् उदय नही होता । यदि इनका उदय होता है तो जबतक इनका उदय रहता है तबतक अनुभागवेदन अवस्थित होता है, क्योकि आत्मपरिणाम अवस्थित होते है । आत्मपरिणाम अवस्थित होनेके कारण अन्तरायकर्मकी पाचो प्रकृतियोका अनुभागवेदन भी अवस्थित होता है । यद्यपि इन प्रकृतियोकी क्षयोपशमलब्धि होने से छह वृद्धियो और छह हानियों के द्वारा नीचेके गुणस्थानोमे उदय सम्भव है तो भी उपशातकषाय गुणस्थानमें इन प्रकृतियों का अनुभाग उदय ग्रवस्थित ही होता है, क्योकि अवस्थित एक भेदरूप परिणामके होने पर परिणामके ग्राधीन इनके उदयका द्वितीय प्रकार सम्भव नही है । मति श्रुत अवधिमन.पर्यय ये चार ज्ञानावरण, चक्षु अचक्षु अवधि ये तीन दर्शनावरण, इन लब्धि कर्माशो का अनुभागोदय अवस्थित ही होता है; यह नियम नही है, किन्तु उनके अनुभागोदयकी वृद्धि हानि अवस्थान ये तीन स्थान होते है । जिन प्रकृतियोका क्षयोपशमरूप परिणाम होता है वे लब्धिकर्माण होती है, क्योकि क्षयोपशमलब्धि होकर कर्माशोकी लब्धिकर्माश सज्ञा सिद्ध हो जाती है । यद्यपि ज्ञानावरण- दर्शनावरणकी उक्त सात प्रकृतियां परिणाम प्रत्यय है तथापि उनकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और श्रवस्थान उपशातकषायमे सम्भव है ऐसा उपदेश पाया जाता है । उपशातकषायमे यदि अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम नही है तो अवस्थित अनुभागोदय होता है, क्योकि अनवस्थितपनेका कारण नही पाया जाता । यदि क्षयोपशम है तो छहवृद्धियो, छह हानियो और अवस्थितक्रमसे अनुभागका उदय होता है, क्योकि देशावधि और परमावधिज्ञानी जीवोमे प्रसख्यातलोकप्रमाण भेदरूप अवधिज्ञानावरण सम्बन्धी क्षयोपशमके श्रवस्थित परिणाम होने पर भी वृद्धि, हानि और अवस्थानके बाह्य और अभ्यन्तर कारणोकी अपेक्षा तीन स्थानोके होनेमे विरोधका अभाव है । इस कारण सबसे उत्कृष्ट क्षयोपशमसे परिणत हुए उत्कृष्ट Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] लब्धिसार [ गाथा ३०६-३०७ प्रथम समयमे किया गया गुणश्रेणीशीर्षके, जो उपशांतकषायके प्रथम गुणश्रेणिशीर्षके भीतर ही नीचे उपलब्ध होता है, के उदयको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदयका स्वामित्व होता है, क्योकि सचयको प्राप्त हुए गोपुच्छाओके माहात्म्यवश उसके बहुत अधिक प्रदेशोका सचय होता है। तो ऐसा कहना ठीक नही है, सबसे अधिक प्रदेशपु जको अपेक्षा इसको ग्रहण करना शक्य नही है, क्योकि इस सम्बन्धी समस्त द्रव्यसे भी असख्यातगुणा द्रव्य परिणामोके माहात्म्यवश उपशातकषायके प्रथम समयमे किये गये गुणश्रोणिशीर्षमे होता है । इसलिये पूर्वोक्त स्थल पर ही (प्रथम गुणश्रेणिशीर्प उदय होने पर) ज्ञानावरणादि छह कर्मोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यह आदेश उत्कृप्ट है, क्योकि इनका ओघ उत्कृष्ट प्रदेशाग्र क्षपकश्रेणिमे होता है । अब ११ वें गुणस्थानमें उदययोग्य सर्व ५६ प्रकृतियोंमें से अवस्थित वेदन और अनवस्थित वेदन वाली प्रकृतियों का विभाजन बताते हैं णामधुवोदयबारस सुभगति गोदेक्क विग्धपणगं च । केवल णिदाजुयलं चेदे परिणामपच्चया होति ॥३०६॥ तेसिं रसवेदमवढाणं भवपच्चया हु सेसाओ । क्षोत्तीसा' उपसंते तेसिं तिट्ठाण रसवेदं ॥३०७॥ अर्थ-उपशातकषायमे उदययोग्य जो ५६ प्रकृतिया पाई जाती है उनमें तैजसकार्मणशरीर २, वर्णादि ४, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण नामकर्म की ये बारह प्रकृति और सुभग, आदेय, यशस्कीर्ति, उच्चगोत्र, अन्तरायकी पांच, केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, प्रचला ये सर्व २५ प्रकृतिया परिणामप्रत्यय है । ये २५ प्रकृतिया परिणाम प्रत्यय है इसलिये उपशातकषायमे उनका रसवेदन अवस्थित है। शेष ३४ प्रकृतिया भवप्रत्यय है इसलिए उन शेष ३४ प्रकृतियोके रसवेदन सबधी तीनस्थान है। १ ज. व पु १३ पृ ३२८-३३० । ३४ प्रकृतिया इसप्रकार हैं-ज्ञानावरण ४, दर्शनावरण ३, वेदनीय २, मनुष्यायु-मनुष्यगति, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, औदारिक शरीराङ्गोपाङ्ग, आदिके ३ सहनन, ६ सस्थान उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगति, प्रत्येक, बस, बादर, पर्याप्त और दो स्वर । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्रमोहोपशामना परिशिष्ट अधिकार । कर्मों का उदय आदि ( उदय-उदोरणा ) परिणमन के बिना उपशान्तरूपसे अवस्थानको उपशामना कहते है । वह उपशामना दो प्रकारकी होती है-१. करणोपशामना २ अकरणोपशामना । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोके द्वारा कर्म प्रदेशोका उपशान्तभावसे रहना करणोपशामना है अथवा करणोकी उपशामनाको करणोपशामना कहते है । अप्रशस्त निधत्ति, निकाचित आदि 'पाठकरणोको अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशान्त करना या उत्कर्षण आदि करणोका अप्रशस्त उपशामनाके द्वारा उप करणोपशामना है। इससे भिन्न लक्षणावली प्रकरणोपशामना है। प्रशस्त-अप्रशस्त परिणामोके बिना उदय-अप्राप्तकाल वाले कर्मप्रदेशोके उदयरूप परिणामके बिना अवस्थित रहने को अकरणोपशामना कहते हैं। इसीका दसरा नाम अनदीरणोपशामना है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका आश्रय लेकर कर्मोके होने वाले विपाक परिणामको: उदय कहते है। इसप्रकारके उदयसे परिणतकर्मको उदोर्ण कहते है। इस उदीर्ण दशासे भिन्न ( उदयावस्थाको नहीं प्राप्त हुए कर्मोको ) दशाको अनदीर्ण कहते है। अनुदीर्ण कर्मकी उपशामनाको अनुदोर्णोपशामना कहते है, क्योकि करणपरिणामकी अपेक्षा नही होती इसलिए इसको प्रकरणोपशामना भी कहते है। इसका विस्तारपूर्वक कथन, कर्मप्रवाद नामक पाठवे पूर्व में है। करणोपशामनाके दो भेद है-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । अप्रशस्त उमशमकरणादि ( अप्रशस्तउपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणादि ) के द्वारा कर्मप्रदेशोके एकदेश उपशान्त करनेको देणकरणोपशामना कहते है, किन्त कछ आचार्य कहते है कि देशकरणोपशामनाका इसप्रकार लक्षण करनेपर इसका १ अविह ताव करणं । जहा-अप्पसत्थ उवसामरणकरणं, रिणवत्तीकरण, रिणकाचणाकरण, बंधणकरण, उदीरणाकरण, प्रोकड्डणाकरण उक्कड्डणाकरण सकमणकरण च । (क पा सुत्त पृ ७१२ सूत्र ३५८, ज.ध. मूल पृ. १८८४) Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] लब्धिसार [ गाथा ३०७ अवधिज्ञानी जीवसे अवधिज्ञानावरणका अनुभागोदय अवस्थित होता है । उससे अन्यत्र अवधिज्ञानावरणका रसोदय छहवृद्धियो, छह हानियो और श्रवस्थानरूपसे अनवस्थित होता है । इसीप्रकार मन पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिए । शेष ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी अपेक्षा भी ग्रागमानुसार कथन करना चाहिए । जो नामकर्म और गोत्रकर्म परिणाम प्रत्यय होते है उनका अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थितवेदक होता है । वेदी जाने वाली नामकर्मकी प्रकृतियोको ग्रहण करना चाहिए, क्योकि नही वेदी जाने वाली नामकर्मकी प्रकृतियोंका अधिकार नही है । मनुष्यगति, पचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह स्थानोमे से कोई एक सस्थान, औदारिकशरीराङ्गोपाङ्ग, तीन सहननमें से कोई एक सहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, दो विहायोगतियोंमें से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुस्वर - दुःस्वरमे से कोई एक, आदेय, यशःकीर्ति, सुभग, निर्माण ये नामकर्मकी वेदी जानेवाली प्रकृतियां हैं । इनमे से तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण, गंध, रस, शीत-उष्ण-स्निग्ध-रुक्ष स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, प्रदेय, यश कीर्ति और निर्माण नामकर्म परिणामप्रत्यय है । गोत्रकर्ममे उच्चगोत्र परिणामप्रत्यय है । इसप्रकार परिणामप्रत्यय नाम व गोत्रकर्मकी उक्त प्रकृतियोकी अनुभागोदयकी अपेक्षा अवस्थित वेदना होती है, क्योकि अवस्थित परिणामविषयक होने पर दूसरा प्रकार सम्भव नही है, परन्तु यहां वेदी जानेवाली भवप्रत्यय शेष सातावेदनीय आदि अघाति प्रकृतियोकी छह वृद्धि और छह हानिके क्रमसे अनुभागको यह वेदता है' । इसप्रकार उपशान्तकषाय गुणस्थानके अन्तिमसमयपर्यन्त चारित्रमोहकी इक्कीस प्रकृतियोका उपशम विधान सम्पूर्ण हुआ । १. ज. घ पु १३ पू ३३०-३३४ । क पा सु. पृ. २७०७ । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ २५१ समाधान:-- यह दोष नही आता, क्योकि अनिवृत्तिकरणमे प्रवेशके प्रथमसमयमे ही अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरण नष्ट हो जाते है और वह सतति अविच्छिन्नरूपसे ऊपर चली जानेसे उनकी प्रवृत्ति सम्भव नही है। अतः सर्वोपशामनामे उन अप्रशस्त उपशमकरण, निधत्तिकरण आदिका उपशम सिद्ध हो जाता है। सर्वोपशामना करणमे अपकर्षणादिका अभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। ससार अवस्थामें अपकर्षणादिका अभाव होनेपर भी अप्रशस्त उपशमकरणादिकी उत्पत्ति नहीं होती। ससार अवस्थामे अपकर्षणादि सम्भव होनेपर भी बन्धके समय अन्तरंग कारणके वशसे कितने ही कर्म परमाणमोका उदीरणा-उदय आदिका न होना अप्रशस्तउपशमकरण आदिका व्यापार है।' श्री यतिवृषभाचार्यने कषायपाहुड़ पर रचित चूणि सूत्रोमे देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामनाका कथन इसप्रकार किया है देशकरणोपशामनाके दो नाम है-देशकरणोपशामना, अप्रशस्तोपशामना । जयधवलाकारने इसकी व्याख्या इसप्रकार की है-संसार प्रायोग्य अप्रशस्त परिणाम निबन्धन होनेसे इस देशकरणोपशामनाको अप्रशस्तोपशामना कहा गया है। अप्रशस्त परिणामोका निबधन प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योकि अतितीव्र सक्लेशके वशसे अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तिकरण, निकाचितकरणकी प्रवृत्ति देखी जाती है । क्षपकश्रेणी व उपशमश्रेणिमे विशुद्ध परिणामोके द्वारा इनका विनाश हो जाता है, इसलिए अप्रशस्त भावकी सिद्धि हो जाती है। इसप्रकार जो अप्रशस्तोपशामना है, वही देशकरणोपशामना कही जाती है। कर्म प्रकृति प्राभृतमे अर्थात् दूसरापूर्व, पचमवस्तु, उसकी चतुर्थ प्राभृतके कर्मप्रकृति अधिकारमें देशकरणोपशामनाका सविस्तार कथन है। सर्वकरणोपशामनाके भी दो नाम है-सर्वकरणोपशामना और प्रशस्तकरणोपशामना । प्रथम सर्वकरणोपशामनाका कथन पूर्वमें किया जा चुका है। प्रशस्तकरणोपशामना सज्ञा सुप्रसिद्ध है, क्योंकि इसमें प्रशस्तकरण परिणाम कारण है। कषायोपशामनाकी प्ररुपरणाके अवसरमें सर्वकरणोपशामनाकी विवक्षा है । प्रकरणोपशामना व देशकरणोपशामनाका यहां प्रयोजन नही है। १. जयधवल मूल पृ० १८७२-७३ । २. जयघवल मूल प० १८७४ एवं क. पा. सुत्त पृ०७०७-७०६ । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० क्षपणासार अकरणोपशामनामे अन्तर्भाव हो जावेगा इसलिए इसका लक्षण इसप्रकार है-दर्शनमोहनीय कर्म उपशमित हो जानेपर अप्रशस्तोपशम, निधत्ति, निकाचित, बन्धन, उत्कर्पण, उदीरणा और उदय ये सातकरण उपशान्त हो जाते है तथा अपकर्षण और परप्रकृतिसक्रमण ये दो करण अनुपशान्त रहते है। अत' कुछ करणो के उपशमित होनेसे और अन्य करणोके अनुपशमित रहनेसे इसे देशकरणोपशामना कहते है । अथवा उपगमणि चढनेवाले जीवके अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे अप्रशस्त उपशमकरण, नियत्तिकरण और निकाचितकरण, ये तीनकरण अपने-अपने स्वरूपसे विनष्ट हो जाते है। ससार अवस्थामे इन तीनोकरणोके कारण उदय, सक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण, उपशान्त थे अर्थात् होते नही थे, किन्तु इन तीन करणोका नाश होनेपर अपकर्षणादि क्रिया होने लगतो है। इनका विनाश होनेपर उपशमका अभाव नही होता, क्योंकि पूर्व संसारावस्थामे अप्रशस्त उपशमकरण आदि तीन करणोके द्वारा गृहीत प्रदेशोका उस स्वरूपसे ( अप्रशस्तोपशम, निधत्ति, निकाचित स्वरूपसे) जो विनाश होता है वह देशकरणोपशामना है। अप्रशस्त उपशम आदि तीन करणोका विनाश होनेपर अपफपंगादि क्रिया सम्भव होनेसे अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायमे देशकरणोपशामना होती है । अथवा नपुंसकवेदके प्रदेशाग्रका उपशम करते हुए जबतक उसका सर्वोपशम नहीं हो जाता तबतक उसका नाम देशकरगोपशामना है। अथवा नपू सकवेदके उपशान्त होनेपर और शेप कर्मों के अनुपशान्त रहने को अवस्था विशेषको देशोपकरणशामना कहते है, क्योकि करण परिणामोके द्वारा ( विवक्षित एक भागरूप ) कर्मप्रदेशोकी उपशान्त अवस्था हुई है । नवंकरणोको उपशामना सर्वकरणोपशामना है । अप्रशस्त उपशम, निधत्ति, निशानित आदि पाठ प्रकारके करणोका अपनी क्रियाको छोड़ कर प्रशस्त उपशामनाके बाग जो गर्योपशम होता है वह सर्वकरणोपशामना है'। शद्धाः- यदि सर्वकरगोपशामनामे अपकर्पण आदि क्रियाका अभाव है तो पगलायम, निधनि, निकाचित करणोमे भी अपकर्पणादिका अभाव सभ्भव है । लादितिया अभावमे अप्रशस्तीपशमकरणादिको उत्पत्तिका प्रसग या जानेसे मापसे गम्भव ? '. ०७०६ । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्तकषायगुणस्थानसे अधःपतनका कथन । "उपशान्तकषायतः अधःपतनकथनाधिकारः" अवस्थित परिणामवाला उपशान्तकषायवीतरागो मोहमें जिन कारणों से गिरता है; उसमें सर्वप्रथम भवक्षयरूप कारण को कहते हैं वसंते पडिवडिदे भवक्खये देवपदमसमयहि | Baisa Hoad करणाणि हवंति खियमेण ॥ ३०८ ॥ श्रर्थः -- भवक्षय होनेपर उपशान्तकषायसे गिरकर देवोमे उत्पन्न होनेवाले के प्रथमसमयमें नियमसे समस्तकरण उद्घाटित हो जाते है । विशेषार्थः श्रवस्थित परिणामवाले उपशान्तकषायका प्रतिपात दो प्रकार है १. भवक्षय निबन्धन २. उपशमनकाल क्षय निबन्धन | इनमे भवक्षय अर्थात् प्रथमादि किसी भी समय मे आयुक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही असंयत हो जानेसे बंध, उदीरणा एव संक्रमणादि सब करण निज स्वरूपसे प्रवृत्त हो जाते है । उपशान्तकषायमे जो करण उपशान्त थे वे सब देव असयत में उपशम रहित हो जाते है । उपशान्तकषायसे परिणाम हानिके कारण नही गिरता, क्योकि अवस्थित परिणाम होने के कारण परिणाम हानि सम्भव नही है । ' - आगे भदक्षयसे उपशान्तकषायगुणस्थान से प्रतिपतित देव असयत के प्रथम - समय में सम्भव कार्यविशेषका कथन करते हैं- सोदराणदव्वं देदि हु उदद्यावलिम्हि इयरं तु । उदयावलिबाहिर गोपुच्छाए देदि सेढीए ॥ ३०६ ॥ अर्थः-- उदयरूप प्रकृतियोका द्रव्य उदयावलिमें भी दिया जाता है, इतर ९. ज. घ. मूल पृ १८६१; क पा सु. पृ ७१४ सूत्र १२१-२२ पु ६ पृ ३१७ । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार मोहनीय कर्मके अतिरिक्त अन्य कर्मोंका उपशम नही होता, क्योकि ज्ञानाबरगादि कर्मोके उपशामनारूप परिणाम सम्भव नही है । अकरणोपशामना और देशकरणोपणामना उन कर्मोमे होती है, किन्तु यहां प्रशस्तकरणोपशामनाका प्रकरण है इसलिए मोहनीयकर्मको ही प्रशस्त उपशामना के द्वारा उपशम होता है । ( अनिवृत्तिफरणगुणस्थानके प्रथमसमयमे जानावरणादि सर्व कर्मों के अप्रशस्त उपशामना, निधत्ति और निकाचित ये तीनोकरण व्युच्छिन्न हो जाते है ।' उपशमश्रोणिमे दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम नही होता, क्योकि दर्शनमोहनीयका उपशम या क्षय पूर्वमे ही हो जाता है। अनन्तानुबन्धी कषायका भी उपशम नहीं होता, क्योकि पहले अनन्तानुवन्धीकषायकी विसयोजना करके पश्चात् उपशमघणि चटता है। वारह कपाय और नव नोकषायका उपशम होता है। Film सम्मान दिनप्प सत्य उवनामयाकरणं, पिछत्तीकरण, पिकांचणाकरणं (ज घमू प १८८५, क पा. मुत्त पृ ७१२ सूत्र ३५६ ) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३११-३१२] क्षपणासार [ २५५ क्योकि उपशान्तकषायमें अवस्थित विशुद्धतारूप परिणाम रहता है । उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवे गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर नियमसे उपशमकालका क्षय हो जाता है, अतः उपशान्तकषायसे पतन होता है । विशुद्धतामें हीनाधिकताके कारण पतन नहीं होता है, क्योकि वहां विशुद्धता अवस्थित है, हीनाधिक नही है । कालक्षयके अतिरिक्त अन्य भी कोई कारण पतनका नही है ।' ___ उपशान्तकषायसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें पाये जीवका कार्यविशेष ४ गाथाओमें कहते हैं सुहुमप्पविट्ठसमयेणब्रुवसामण तिलोहगुणसेढो । सुहुमद्धादो अहिया अवहिदा मोहगुणसेढो ॥३११॥ अर्थः-उपशान्तकषायके पश्चात् सूक्ष्मसाम्परायमे प्रविष्ट हुआ, वहां प्रथम समयमें नष्ट हो गया है उपशमकरण जिनका ऐसी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनलोभको गुणश्रोणि प्रारम्भ होती है । इस गुणश्रेरिणायामका प्रमाण, अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायकालसे एक प्रावलि अधिक है यहां मोहको गुण रिपका आयाम अवस्थितरूप है। विशेषार्थः-उपशान्तकषाय गुणस्थानसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होनेके प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन इन तीन प्रकारके लोभका द्वितीय स्थितिसे अपकर्षण करके सज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणि की जाती है। कृष्टिगत लोभ वेदककालसे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणि निक्षेप है। दोप्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणलोभका भी उतना ही निक्षेप है, किन्तु उदयावलिसे बाहर निक्षेप होता है। तीनप्रकारके लोभका उतना-उतना ही निक्षेप है अर्थात् अवस्थित गुणश्रोणि है। उसी समय अर्थात् प्रथमसमय में ही तीनप्रकारका लोभ एकसमयमे हो प्रशस्तोपशामनाको छोड अनुपशान्त होजाता है ।' उदयाणं उदयादो सेसाणं उदयवाहिरे देदि । छण्हं बाहिरसेसे पुव्वतिगादहियणिक्खेओ ॥३१२॥ १ ज.ध. मल प. १८६१-६२। २. क पा सु पृ. ७१५, ज. ध मूल पृ १८६२; ध पु ६ पृ. ३१८ । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ क्षपणासार [ गाथा ३१० ( अनुदय ) प्रकृतियोंका द्रव्य उदयावलिके बाहर तथा अन्तरायाममें गोपुच्छाकार श्रोणिरूपसे निक्षिप्त होते हैं। विशेषार्थः-देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार कषायोमे से किसी एक कषायके अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप भेद तथा पुरुषवेद, हास्य, रति इन उदयरूप प्रकृतियोके द्रव्यको और यदि भय व जुगुप्साका उदय हो तो उनके भी द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागके असख्यातलोकवे भागप्रमाण द्रव्यका उदयावलिमे दिया जाता है और शेष असख्यातलोक बहुभाग द्रव्य उदयावलिसे बाहर प्रथम निषेकसे लगाकर अवशेष :अन्तरायाममें, और उपरितन द्वितीय स्थितिमें चयहीन गोपुच्छाकार श्रेणिरूपसे देता है। उदयरहित नपुंसकवेदादिक मोहकी प्रकृतिके द्रव्यका अपकर्षण करके उसे उदयावलीमे न देते हुए उदयावलीसे बाह्य अन्तरायाम, उपरितन स्थितिमे विशेषहीन क्रमसे देता है। इसप्रकार अवशिष्टअन्तर पूरा जाता है अर्थात् जो अवशिष्ट अन्तररूप निषेक रहे थे उनमे द्रव्यका निक्षेपण होनेसे उनका सद्भाव हो जाता है । ___अब उपशान्त-कालक्षयके कारण उपशान्तकषायगुणस्थानसे गिरनेका कथन करते हैं अद्धाखए पडतो अधापवत्तोत्ति पडदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि हु सो संकि लिस्संतो॥३१०॥ अर्थः-उपशान्तकालका क्षय होनेसे गिरनेपर अध प्रवृत्ततक क्रमसे गिरता है, विशुद्ध परिणामोसे पुन श्रेणिपर चढ़ता है और सक्लेश परिणामोसे उससे भी नीचे गिरता है। विशेषार्थः-अन्तर्मुहूर्तमात्र अर्थात् दो क्षुद्रभवप्रमाण उपशान्तकषाय नामक बारहवे गुणस्थानका काल है, उसकालमे अवस्थित परिणामवाला रहता है, किन्तु उमकालका अन्त हो जानेपर सूक्ष्मसाम्पराय होकर अनिवृत्तिकरण होता है, पीछे अपूर्वकरण होकर अव प्रवृत्तकरण अप्रमत्त हो जाता है । इसप्रकार अध प्रवृत्तकरण तक क्रमश पतन होता है । तत्पश्चात् प्रमत्त होकर विशुद्ध परिणामोसे पुनः श्रेणिपर चढ़ता है, किन्तु सक्लेश परिणामोके द्वारा अधःप्रवृत्तकरणसे भी गिरता है। उपप्रान्तकवायमे चढना या गिरना विशुद्ध व सक्लेश परिणामोके निमित्तसे नही होता, Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१४ ] क्षपणासार [ २५७ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मोका अन्तर्मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मका ३२ मुहूर्त एव वेदनीयका ४८ मुहूर्त मात्र स्थिति बन्ध जानना, क्योकि आरोहक सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समयमे जो स्थितिबन्ध होता है उससे अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमे दुगुणा स्थितिबन्ध है । उपशमश्र णि चढनेवालेको आरोहक और उतरनेवालेको अवरोहक कहते है । ' गुणसेढी सत्थेदररसबंधो उवसमादु विवरीयं । पढमुदओ किट्टीएम संखभागा विसेस अहियकमा ।। ३१४ ॥ अर्थः- तदनन्तर समय मे ( द्वितीयादि समयोमे ) अवरोहकके गुणश्रेणि ग्रूपकृप्टद्रव्य, प्रशस्त व अप्रशस्तप्रकृतियोका अनुभागबन्ध आरोहक से विपरीतक्रम लिये होता है । प्रथम समयमे जितनी कृष्टियोका उदय होता है, द्वितीयादि समयोमे उसके असख्यातवेभाग विशेष अधिक क्रमसे उदय होता है । विशेषार्थ – अवरोहक ( उतरनेवाला ) सूक्ष्मसाम्परायके द्वितीयादि समयों मे प्रतिसमय प्रथमसमय सम्बन्धी द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन क्रमयुक्त द्रव्य अपकर्षित करके गुणश्रे े रिण करता है । सातावेदनीयादि प्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तगुणा हीन क्रम लीये और ज्ञानावरणादि प्रशस्त प्रकृतियोका अनन्तगुणा बढता क्रम लीये अनुभागबध होता है, क्योंकि यहा प्रतिसमय विशुद्ध व सक्लेशकी यथाक्रम अनन्तगुणो हानि व वृद्धि होती है । इसलिए उपशमश्रेणि पर आरोहण करते समयसे उतरते समय विपरीतपना कहा है । स्थितिबन्ध तो प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त समान ही है । प्रत्येक अन्तर्मुहूर्तमे प्रारोहकके स्थितिबन्धसे अवरोहकके यथास्थान दुगुणा स्थितिबन्ध सूक्ष्म साम्पराय के अन्तिम समय पर्यन्त जानना । चढते हुए जिस स्थानपर जितना स्थिति - बन्ध होता था उससे दूना स्थितिबन्ध उसी स्थानपर उतरते हुए होता है । जैसे चढ़ते समय स्थितिबन्धापसरण द्वारा स्थितिबन्ध घटाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें समान बन्ध करता था वैसे ही यहां स्थितिबन्धोत्सरण द्वारा स्थितबन्ध बढ़ाकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त में समानबन्ध करता है । अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समय में उदयरूप जो निषेक कृष्टि पाई जाती है उसको पल्यके असंख्यातवे भागका भाग दिया उसमेसे बहुभाग१. ज. ध. मूल पृ. १८६३-९४ सूत्र ३९४; ध. पु. ६ पृ. ३१८ - १६ । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] क्षपणासार [ गाथा ३१३ अर्थः-उदयगत प्रकृतियोके द्रव्यका निक्षेप उदय निषेकसे प्रारम्भ होता है, शेष कर्मोका उदयावलिसे बाहर निक्षेप प्रारम्भ होता है । छह कर्मोका गुणश्रेणि निक्षेप अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म साम्पराय इन तीनसे विणेप अधिक है। उदयावलिके बाहर इन छह कर्मोका गलिताशेषआयामरूप गुण णिनिक्षेप प्रवृत्त होता है। __विशेषार्थ –उदयरूप सज्वलनलोभकी द्वितीय स्थितिमे स्थित द्रव्यको अपकर्षित करके उसमे पल्यके असख्यातवेभागका भाग देकर एक भागको उदयल्प प्रथम समयसे लेकर गुणश्रेणियायामके अन्तिम निपेकपर्यन्त असख्यात गुणे क्रमसे तव तक निक्षिप्त, करता है, जबतक अन्तर पूरा नही जाता। बहुभागप्रमाण द्रव्यको गुणश्रेणि आयामके अन्तिम निषेकसे ऊपर पाये जाने वाले अन्तरायामको छोडकर उसके ऊपर द्वितीय स्थितिमे चयहीन नमसे निक्षिप्त करता है । तथा उदयरहित अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यानलोभकी द्वितीय स्थितिमे स्थित द्रव्यको अपकपित करके उदयावलिसे बाहर प्रथम समयसे लेकर गुणश्रेणिके अन्तपर्यन्त असख्यातगुणे क्रमसे और उसके ऊपर अन्तरायामको छोडकर द्वितीय स्थितिमे चयहीन क्रमसे पूर्ववत् निक्षिप्त करता है। आयु व मोहके बिना छहकर्मोके द्रव्यको अपर्पित करके उसमे पल्यके असंख्यातवे भागका भागदेकर उसमेसे एक भाग उदयावलिमे देता है और बहुभाग गुणश्रेणि आयाममे देता है । सो इनका यह गुणश्रेरिणायाम उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण और अपूर्वकरणके सम्मिलित कालसे कुछ अधिक प्रमाण युक्त गलितावशेषरूप जानना । इसमे असख्यातगुणा क्रमयुक्त द्रव्य देता है। अपकर्पित द्रव्यमें जो वहुभाग रहा उसको उपरितन स्थितिमे चयहीन क्रमसे देता है।' श्रोदरसुहुमादीए बंधो अंतोमुहुत्त वत्तीसं । अडदालं च मुहुत्ता तिघादिणामदुगवेयणीयाणं ॥३१३॥ अर्थ -- उपशान्तकषायसे अवतरित हुए जोवके सूक्ष्मसाम्परायके आदिमें तीन घातिया कर्मोका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण, नामद्विकका बत्तीस मुहूर्तप्रमाण और वेदनीयका अडतालीस मुहूर्तप्रमाण बन्ध होता है। विशेषार्थः-उपशान्तकपायसे उतरते हुए सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें १ जयधवल मूल पृ० १८६२ । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१५] क्षपरणासार [२५६ अनुदयरूप १६ कम करने पर लब्ध ( २४-१६ ) ८ आया सो इतनी कृष्टिया बढने से द्वितीय समयमे ( ८००+८ ) ८०८ कृष्टिया उदय होती है । इसीप्रकार अर्थसदृष्टि द्वारा भी यथार्थ कथना जानना चाहिए। यहा बहत अनुभागयुक्त उपरितन कृप्टिके उदय होनेसे और अल्प अनुभागयुक्त अधस्तन कृष्टि न उदय नहीं होनेसे प्रथम समयापेक्षा द्वितीय समयमे अनुभाग अनन्तगणा बढता है । ऐसा जानना चाहिए। इसीप्रकार तृतीयादि अन्तिम समय पर्यन्त समयोमे विशेष अधिक कृष्टि उदय होती है ।' इसीकारण प्रतिसमय कृष्टियों का अनन्तगुणा अनुभाग उदय होता है । इसप्रकार सूक्ष्म साम्परायका काल व्यतीत होता है। चढते हुए सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम स्थितिबन्धसे दुगुणा स्थितिबन्ध गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमे होता है। अब अवरोहकके नवमगुणस्थानमें क्रियाविशेषका कथन दोगाथाओंमें करते हैंबादरपढमे किट्टी मोहस्स य आणुपुट्विसंकमणं । णटु ण च उच्छि8 फड्ढयलोहं तु वेदयदि ॥३१५॥ अर्थः-बादरलोभके प्रथम समय अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायसे गिरकर बादर लोभके उदयके प्रथमसमयमें सूक्ष्मकृष्टियां नष्ट हो जाती है और मोहका आनुपूर्वीसक्रम नष्ट हो जाता है, किन्तु उच्छिष्टावलि अर्थात् उदयावलिप्रमाण कृष्टिया नष्ट नही होती, स्पर्धकगत लोभका वेदन होता है । विशेषार्थः-अवरोहक अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमे पाई जानेवाली सूक्ष्मकृष्टियां उच्छिष्टावलिप्रमाण निषेक बिना अन्य सभी स्वरूपसे नष्ट हुई। सूक्ष्मप्टि की अनुभाग शक्तिसे अनन्तगुणी शक्ति युक्त जो स्पर्धक है उसरूप होकर एकही समय में परिणमित हुई। तथा कृष्टिके उच्छिष्टावलिप्रमाण जो निषेक रहे वे प्रतिसमय १ सक्षमसाम्पराय गुणस्थानमे चढते समय विशुद्धि के कारण जैसे विशेष हानिरूपसे कृष्टियोका वेदन करता है वैसे ही उतरते समय सक्लेशके कारण असख्यातभागवृद्धि से कृष्टियोका वेदन करता है; यह सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिमसमयतक जानना चाहिए। (ज. घ. मूल. पृ. १८६५) २ ज.ध. मूल पृ. १८६४-६५ । ३. किट्टिो सव्वाप्रो एट्ठामो। तासि सन्वासिमेगसमपणेव पदयभावेण परिणामदसणादो। ज० धवल १८६५। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ३१४ २५८ ] क्षपणासार प्रमाण मध्यकी कृष्टि उदयमें आती है तथा अवशिष्ट एकभागको पल्यके असख्यातवे भागकी सहनानी पाचके अकका भाग देनेपर उसमेसे दो भागमात्र तो श्रादि कृष्टिसे लेकर जो अधस्तनकृष्टि है वे अनुदयरूप हैं और तीनभाग मात्र अन्तिमकृष्टिसे लेकर जो ऊपरितनकृष्टि हैं वे अनुदयरूप कृष्टि कही है, वे अपने स्वरूपको छोड़ कर, जो आदिकृष्टिसे लेकर अधस्तनकृष्टि है वे तो अनन्तगुणे अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदयमे आती है। तथा अन्तिमकृप्टिसे लेकर जो ऊपरितनकृष्टियां है वे अनन्तवेभाग अनुभागरूप परिणमित हो मध्यमकृष्टिरूप होकर उदयमे आती है। अंक सदृष्टि-माना कि उदयरूप निषेकमे १००० कृष्टि हैं उनको ५ का भाग देनेपर बहुभागप्रमाण ८०० मध्यकी कृष्टि तो उदयरूप है । अवशिष्ट एकभाग (२००) प्रमाणमे ५ का भाग देकर उसमेसे एक भाग (४०) पृथक् रख, अवशिष्टके (१६०) दो भाग करके उसमे से एकभाग प्रमाण (८०) कृष्टि तो जघन्यकृष्टिसे लेकर अधस्तनकृष्टिया अनुदयरूप है, वे कृष्टिया अनुभागवृद्धिके कारण मध्यमकृष्टिरूप हो परिणमनकर उदयमे आती है। तथा एक भागमे (८०) पृथक रखा हुआ (४०) भाग मिलानेपर (८०+४०) १२० कृष्टि हुईं। वे अन्तिमकृष्टिसे लेकर ऊपरितन कृष्टि अनुदयरूप हैं । वे अनुभाग घटनेके कारण मध्यमकृष्टिरूप होकर उदयमे आती हैं ऐसा जानना चाहिए। प्रथमसमयमे अनुदयरूप ऐसी आदि कृष्टिको द्वितीयसमयमे पल्यके असंख्यातवे भागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण नवीनकृष्टिया अनुदयरूप की और प्रथमसमयमें अनुदयरूप ही अन्तिमकृष्टिको पल्यके असख्यातवेभागका भाग देनेपर एकभागप्रमाण कृष्टियोको नवीन उदयरूप की। यहा उदयरूप की गई कृष्टियोके प्रमाणमें से अनुदयरूप की गई कृष्टियोका प्रमाण घटानेपर जितना अवशिष्ट रहे उतने प्रमाणरूप प्रथमसमय सम्बन्धी उदयकृष्टियोसे अधिक द्वितीयसमयमे उदयकृष्टिया होती है । अकसदृष्टि द्वारा इसप्रकार कथन समझना प्रथमसमयमे उदयरूपकृष्टियां ८०० थी, तब द्वितीयसमयमे पहले उदयसे अपरितन १२० कृष्टिया अनुदयरूप थी, उनको ५से भाजित करनेपर लब्ध २४ प्रमाण ऊपरितन नवीनकृष्टिया उदयरूप हुई और अधस्तनकृष्टि (८०) मे ५का भाग देनेपर लब्ध १६ प्रमाणकृष्टिया नवीन उदयरूप नही होती। अतः नवीन उदयरूप २४मे से Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१७ ] [ २६१ घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध दो दिनसे कम, नाम- गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मोका स्थितिबन्ध कुछकम चारवर्षप्रमाण होता है । क्षपणासार विशेषार्थ :- अवरोहक बादरसाम्पराय अनिवृत्तिकरणके प्रथम समय में संज्वलन लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है जो आरोहक अनिवृत्तिकरण के अन्तिमसमय सम्बन्धी स्थितिबन्ध दोगुणा है । तीन घातियाकर्मोका कुछ कम दो दिन, नाम - गोत्र और वेदनीयकर्मका कुछकम चारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध है । अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त इसी - प्रकार समानरूपसे वन्ध हुआ । पश्चात् द्वितीय स्थितिबन्ध सज्वलन लोभका तो पहले से विशेष अधिक, तीन घातिया कर्मोका पृथक्त्व दिन प्रमाण, तीन अघातिया कर्मोका संख्यातहजारवर्ष प्रमाण हुआ । इसप्रकार वृद्धिरूप सख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर लोभवेदककाल सम्बन्धी द्वितीय त्रिभागका सख्यातवाभाग व्यतीत हुआ तब सज्वलनलोभका पृथक्त्वमुहूर्त, तीनघातिया कर्मो का अहोरात्र से बढकर पृथक्त्व हजारवर्ष और तीन अघातिया कर्मो का सख्यात हजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है तथा सहस्रो स्थितिबन्ध व्यतीत हो जानेपर लोभवेदकका काल समाप्त होता है । प्रारोहकके लोभवेदककालसे अवरोहकका लोभवेदककाल किंचित् न्यून है । इसीप्रकार मायावेदक कालादिकमें भी किंचित् न्यूनता जानना । जिस कषायके जितने कालमें उदयका भोगना होता है उतने प्रमाण उसका वेदककाल होता है । ' - श्रागे मायावेदक के क्रियाविशेषका कथन दो गाथाओं में करते हैंदरमायाढमे मायातिरहं च लोहतिरहं च । दरमायावेदकालाद दियो दु गुणसेढी || ३१७॥ अर्थः~~~( सज्वलनलोभसे ) मायामे अवतरण करनेके प्रथम समय में तीन प्रकारकी ( अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन ) माया व तीनप्रकार के लोभकी अवतरित माया वेदककालसे अधिक प्रायामवाली गुणश्र णि करता है । विशेषार्थः – लोभवेदककालके अनन्तर मायावेदककाल के प्रथमसमयमे उतरने वाला अनिवृत्तिकरणजीव अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन मायाके द्रव्यको अपनी-अपनी द्वितीय स्थितिमेसे अपकर्षितकर उदयरूप सज्वलनमायाके द्रव्यको तो १ ज. घ. मूल पृ. १८६७-६८ । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३१६ २६० ] क्षपरणासार एक-एक निषेकरूपसे उदयमान स्पर्धकोके निषेकोमे स्तुविक सक्रमण द्वारा तद्रूप परिणमन कर' उदय होगे । उसी प्रथम समयमे मोहका ग्रानुपूर्वी सक्रम भी नष्ट हुआ । इतना विशेष जानना कि यद्यपि प्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण लोभका वध्यमान सज्वलनलोभमे हो सक्रमण होना प्रारम्भ हुआ, तथापि इसमें ग्रानुपूर्वी संक्रमकी विवक्षा नही है । तथा सञ्ज्वलन लोभके कोई वध्यमान स्वजातीय प्रकृति नही है, अत व्यक्ति की अपेक्षा अभी भी आनुपूर्वी सक्रम है । शक्तिकी अपेक्षा सज्वलनलोभके अनानुपूर्वी से अन्य प्रकृतिमे संक्रम होनेका परिणाम हुआ है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमे मोहके बन्धके प्रभावसे संक्रम सम्भव नही है । स्पर्धकरूप उदित वादरलोभ का वेदन करता हुआ यह प्रथमसमयवर्ती अनिवृत्तिकरण वादर साम्पराय मुनि सज्वलन लोभके द्रव्यका अपकर्षरण करके उदयरूप समयसे लेकर ग्रावली से अधिक बादरलोभ वेदककाल [ अवरोहकके लोभवेदक कालका साधक दो बटे तीन भाग ] प्रमाण गुण रेगो आयाममे असख्यातगुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है । प्रत्याख्यान तथा श्रप्रत्याख्यान लोभके द्रव्यको उदयावलीसे बाह्य पूर्वोक्त गुणश्रेणि ग्रायाममे सख्यात - गुणे क्रमसे निक्षिप्त करता है । तथा अनिवृत्तिकरणकाल के दितीयादि समयमे असख्यात - गुणा हीन - ( घटता) क्रम लिये द्रव्यका अपकर्षण करके श्रवस्थित गुणश्र ेणी-प्रायाम मे पूर्वोक्त प्रकार निक्षेपण करता है । अन्य कर्मोकी गलितावशेषगुणश्रेणी जाननी चाहिए । मदरबादरपढमे लोहस्संतो मुहुत्तियो बंधो । दुदितो घादितियं चउवस्तो अवादितियं ॥ ३१६ ॥ अर्थ- सूक्ष्मसाम्परायसे उतरने पर बादर लोभके प्रथमसमयमे संज्वलन - लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमारण, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन १ क्योकि स्पधको के वेदन होनेपर उदयावलो मे प्रविष्ट कृष्टियोका भी स्पर्धकभावसे उदय-विपाकको छोडकर प्रकारान्तरपने का सम्भव नही पाया जाता है । जयघवल मूल १८६६ २ गवरि जाओ उदयावलियम्भत राम्रो तानो त्थिवुक्कसकमेण फड्डएसु विपच्चहिति । ज. ध १८९६ ३. वत्तोए पुरा प्रज्जवि प्राणुपुत्रिसकमो चेव । ज० धवल १८९६ ४. लोभ परिव्वज्य प्रन्यापा प्रकृतीना बन्यो अस्मिन्नवसरे नास्ति । जयधवल १८६७ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३१६] क्षपणासार [२६३ वालोंके ज्ञानावरणादिका प्रत्येक स्थितिबन्ध संख्यातगुरिणत वृद्धिक्रमसे होता है । चढ़ने वालोके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेषहीन क्रमसे होता है और गिरनेवालोके मोहनीयका प्रत्येक स्थितिबन्ध विशेष अधिक क्रमसे होता है। इसलिए यहा पर मोहनीयके अतिरिक्त अन्यकर्मोका पुनः पुनः सख्यातगुणा स्थितिबन्ध होता है और मोहनीयका पुनः पुनः विशेष अधिक स्थितिबन्ध होता है । इस क्रमसे सख्यातहजार स्थितिवन्धोके त्रोतनेपर चरमसमयवर्ती मायावेदक होता है, उससमय माया और लोभ इन दो संज्वलनकषायोका स्थितिवन्ध अन्तर्मुहर्तक्रम चारमाह और ज्ञानावरणादि शेष छह कर्मोका स्थितिवन्ध सख्यातहजार वर्षप्रमाण होता है, क्योकि चढनेवालोके स्थितिबन्ध से उतरनेवालोका स्थितिवन्ध दो गुणा होता है ।' अथानन्तर दो गाथाम्रोमें मानवेदक जीवके कार्य विशेषको कहते हैं ओदरगमाणपढमे तेत्तियमाणादियाण पयडीणं । ओदरगमाणवेदगकालादहियं दु गुणसेडी ॥३१६॥ अर्थः-उतरनेवाला मायावेदककालके अनन्तर मानवेदकके प्रथमसमयमें मानवेदककालसे अधिक मानादि प्रकृतियोंकी गुणश्रोणि करता है। विशेषार्थः-उसके अनन्तर मानवेदककालके प्रथमसमयमें संज्वलनमानके द्रव्यको अपकर्षितकरके उदयावलिके प्रथमसमयसे लेकर तथा दो प्रकारके मान, तीन प्रकारकी माया व तीनप्रकारके लोभ सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर प्रथमसमयसे लेकर आवलिअधिक मानवेदककालप्रमाण अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि करता है। अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और सज्वलन लोभ, माया व मान इन नौप्रकारको कषायका गुणश्रोणि निक्षेप होता है और शेष छह कर्मोका गलितावणेष गणश्रेणि आयाम पूर्ववत् है । उसीसमय अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलनलोभ-माया-मानरूप नौ कषायोका द्रव्य यहां बध्यमान संज्वलन मान-मायालोभमें आनुपूर्वी रहित जहां तहां सक्रमण करता है ।' मोदरगमाणपढमे चउमासा माणपहुदि ठिदिबंधो । १. जय धवल मूल पृ० १८९६-१६०० । २. जय धवल मूल पृ० १६०० । Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] क्षपणासार [ गाथा ३१८ उदयावलीके प्रथम समयसे लेकर और उदयरहित अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानरूप मायाके द्रव्यको उदयावलीसे बाहर' प्रथम समयसे लेकर आवलि अधिक मायावेदककालप्रमाण अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणी करता है। उदयरहित तीनप्रकारके लोभके भी द्वितीय सम्बन्धी द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहरसाधिक मायावेदक कालप्रमाण अवस्थित आयामवाली गुणश्रेणि करता है । यहा ज्ञातव्य है कि तीन प्रकारके लोभ व तीनप्रकारकी मायाका गुणश्रेणि निक्षेप तुल्य और अवस्थित है। गलितावशेष नही है । अवशिष्ट छह कर्मोकी पूर्वोक्त अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण कालसे विशेष अधिक आयामवाली गुणश्रेणि करता है । तथा उसी मायावेदककालके प्रथमसमयमे तीन प्रकारके लोभ व दो प्रकारकी माया सम्बन्धी द्रव्यको सज्वलन मायामें सक्रमित करता है वैसे ही तीनप्रकारकी माया व दोप्रकारका लोभ लोभसज्वलनमे सक्रमण करता है । क्योकि यहा सज्वलनलोभ एव सज्वलनमायाका ही बन्ध है और बन्धमें ही सक्रमण होता है । आनुपूर्वी सक्रमणके अभावसे इसप्रकारका सक्रमण सभव है। ओदरमायापढमे मायालोहे दुमासठिदिबंधो। छण्हं पुण वस्साणं संखेज्जसहस्सवस्ताणि ॥३१८॥ अर्थः--उतरने वालेके मायावेदककालके प्रथमसमयमे सज्वलनमाया व लोभ का दोमासप्रमाण तथा शेष छहकर्मोका सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थ:--उपशम श्रेणि चढनेवाला मायावेदक कालके चरमसमयमे सज्वलनमाया व लोभका स्थितिबन्ध एक मासप्रमाण होता था अब उतरनेवालेके मायावेदककालके प्रथमसमयमे उससे दो गुणा अर्थात् दो मासप्रमाण होता है, क्योकि चढनेवालोके परिणामोसे उतरने वालोके परिणाम कम विशुद्ध होते है। इसीप्रकार गिरनेरूप परिणामोकी विशेषतासे शेष ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र) छह कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातहजारवर्ष प्रमाण होता है। उपशमश्रेणी चढनेवालोके प्रत्येक स्थितिबन्ध सख्यातगुणे हीन क्रमसे होता था, किन्तु उतरने १ कारण यह कि उन नही वेदी जाती हुई प्रकृतियोका, उदयावली के भीतर (प्रदेशनिषेकोका ) असम्भवपना है । जयधवल १८६८ २. जयधवल मूल पृ० १८९८ । ३ जयधवल मूल पृ० १८६८-६०। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२१] क्षपणासार [ २६५ एकबार असंख्यातगुणाहीन निभिप्त करता है। उससे आगे अन्तर सम्बन्धी अन्तिम स्थितिके प्राप्त होनेतक विशेषहीन क्रमसे द्रव्यका निक्षेप करता है। उससे आगे द्वितीय स्थितिके आदि निषेक में असंख्यातगुणेहीन द्रव्यका निक्षेप करता है। उसके आगे तब तक सर्वत्र विशेषहीन क्रमसे द्रव्य देता है जबतक कि अपनी-अपनी प्रतिस्थापनाको प्राप्त हो जावे। इसप्रकार शेष कषायोके अन्तरको पूरा करता है उनके द्रव्यका उदयावलि के बाहर निक्षेप करता है । इतना विशेष है। सात नोकषाय,स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अंतरको भी इसी विधानसे यथा अवसर पूर्ण करता है । क्रोध उदयके प्रथमसमयमें बारह कषायोके द्रव्यको तत्काल बध्यमान संज्वलनक्रोधादि चारकषायोंमें आनुपूर्वी क्रमरहित जहा-तहां सक्रमित करता रहता है। (जयधवल मूल पृ० १६०१-१६०२ ) द्वितीय स्थिति में विशेषटीन क्रमसे द्रव्य । असंख्याताकाठीन अन्तरायाम में विशेषहीन क्रम से द्रव्य विद्यापहीन असरव्यत्तगुटाहीन शीर्ष गुणश्रेणी मायाम ___ उपयस्थिति Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] क्षपणासार [ गाथा ३२० - ३२१ छहं पुण वाणं संखेजसहरसमेत्ताणि ॥ ३२० ॥ अर्थः- उसी उतरनेवाले मानवेदककालके प्रथमसमयमे सज्वलन मान-मायालोभका चारमास और शेष छह कर्मका सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है ( जो चढने की अपेक्षा दोगुणा है । ) विशेषार्थ : - इस प्रकार सहस्रो स्थितिबन्ध व्यतीत होते है तब मानवेदकके अन्तिम समयमे तीन ( लोभ- माया - मान ) सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त - कम आठ मास होता है और शेष छह कर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यात सहस्रवर्षप्रमाण होता है । इसप्रकार मानवेदककाल समाप्त हो जाता है । ' आगे दोगाथाओंमें संज्वलनक्रोधमें होनेवाली क्रिया विशेषका विचार करते हैंमोरगको पढमे छक्कम्मसमाणया हु गुणसेढी । बादरकसायणं पुण एतो गलिदावसेसं तु ॥३२१॥ अर्थः- इसके अनन्तर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण जीवके संज्वलनक्रोधके उदय सम्बन्धी प्रथम समय मे अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, सज्वलनक्रोध- मान-माया-लाभरूप बारह कषायोकी ज्ञानावरणादि छह कर्मोके समान गलितावशेष गुणश्रेणि करता है । विशेषार्थ - गुणश्र ेणी आयामका प्रमाण उतरनेवाले अनिवृत्तिकररणके पूर्वकरण कालकी अपेक्षा कुछ अधिक है । यहासे पहले मोहका गुणश्रेणि आयाम अवस्थित था अब गलितावशेषरूप प्रारम्भ हुआ है । जिस कषायके उदयसहित उपशमश्रेणि चढ़ा हो तथा उतरते हुए उस कषाय का जिससमय उदय हो उस समय से लेकर सर्वमोहनीयकी गलितावशेष गुणश्रेणी करता है और अन्तरका पूरना करता है । यहा कोधकी विवक्षा है | वह इसप्रकार है— ग्रन्तरपूरण विधान - बारह प्रकारकी कषायोके द्रव्यको अपकर्षित करके उस समय गुणश्रेणिनिक्षेप करता हुआ त्रोधसज्वलन के उदयमे स्तोक प्रदेशाग्र देता है । उससे ग्रागे तबतक असख्यातगुणा क्रमसे देता है जबतक कि ज्ञानावरणादि कर्मो के पूर्व निक्षिप्त गुण शिशीर्षको प्राप्त हो जाय । पुनः तदनन्तर उपरिम अनन्तर समय में १ ज घ. मूल पृ १६००, ध पु६ पृ. ३२२ एव क पा सुत्त पृ ७१८ सूत्र ४४१-४२ । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२४-३२६ ] [ २६७ है । पुरुषवेद सहित छह नोकषायकी प्रशस्तोपशामना नष्टहो जानेसे अनुपशान्तभाव में संक्रमण, उत्कर्षण आदि होने लगते है । उससमय हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेद इन सात नोकषायोके कर्माशोका अपकर्षण करके पुरुषवेदकी तो उदयादि गुरणश्र ेणिको करता है और छह नोकषायके कर्माशोकी उदयावलिके बाहर गुणश्रेणि करता है । बारहकषाय और सात नोकषायका गुण रिण निक्षेप प्रयुकर्म को छोडकर शेष कर्मोके गुणश्र णिनिक्षेपके तुल्य होता है । शेष - शेषमे निक्षेप होता है ग्रर्थात् गलितावशेष गुणश्रेणि होती है । उदयरूप पुरुषवेद और सज्वलनक्रोधके द्रव्य को अपकर्षित करके उदय समयसे लगाकर और अन्य कषाय व नोकषायके द्रव्यको अपकर्षित करके उदयावलिसे बाहर समयसे लगाकर गुरणश्र णिश्रायाम, अन्तरायाम, द्वितीयस्थितिमे निक्षेप होता है और सात नोकषायका अन्तरायाम पूरण होजाता है । ' क्षपणासार पुं संजल दिराणं वस्सा बत्तीसयं तु चउसट्ठी । संखेजसहस्सा णि य तक्काले होदि ठिदिबंधो ॥ ३२४॥ अर्थः- उतरनेवालेके पुरुषवेद के प्रथम समय मे पुरुषवेदका ३२ वर्ष, संज्वलन चतुष्कका ६४ वर्ष, तीन घातियाकर्मोंका संख्यातहजारवर्ष, उससे नाम व गोत्रका सख्यातगुणा तथा उससे डेढ़ गुणा स्थितिबन्ध वेदनीय कर्मका होता है । पुरसे दुवते इत्थी वसंतगोत्ति अाए । संखाभागासु गदे ससंखवस्तं श्रघादिठिदिबंधों ॥ ३२५॥ वरि य णामदुगां वीसियपडिभागदो हवे बंधो। तीपिडिभागेण य बंधी पुण वेयणीयस्स ॥ ३२६ ॥ अर्थ – पुरुषवेदके उदयकाल मे स्त्रीवेदका उपशम जबतक नष्ट नही होता उतनेकालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होकर एकभाग अवशिष्ट रहनेपर अघातिया - कर्मोका स्थितिबन्ध असख्यातहजार वर्षमात्र होता है । इतनी विशेषता है कि बीसिय नामद्विक ( नाम - गोत्र ) का जितना स्थिति बन्ध होता है उसके त्रैराशिक क्रमसे अर्थात् ड्योढ़ा तीसिय- वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध १. जयधवल मूल पृ० १६०२ सूत्र ४५३ ॥ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] क्षपणासार ३२२-३२३ ओदरगकोहपढमे संजलणाणं तु अट्टमासठिदी। छण्हं पुण वस्साणं संखेजसहस्तवस्ताणि ॥३२२॥ अर्थः-उतरनेवालेके क्रोध उदयके प्रथमसमयमे सज्वलन क्रोधादि चार कषायोका आठमास और छहकर्मोका सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिवन्ध होता है । विशेषार्थः-उपशमणि चढनेवालेके क्रोध वेदककालके अन्तिम समयमे स्थितिबन्ध होता था उससे दोगुणा गिरनेवालेके क्रोधवेदकके प्रथमसमयमे होता है। वह स्थितिबन्ध संज्वलन चतुष्कका आठ मास और शेष कर्मोका सख्यातहजार वर्पप्रमाण है। संख्यातहजार स्थितिबन्ध होजाने अर्थात् अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जानेपर क्रोध वेदक ( अवेदी क्रोधवेदक ) के अन्तिमसमयमे मोहनीय अर्थात् चारकषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है, क्योकि उपशमणि चढनेवालेके क्रोध उपशामकके प्रथमसमयमे अन्तर्मुहूर्तकम ३२ वर्ष होता था उसका दोगुणा अन्तर्मुहूर्तकम ६४ वर्ष होता है। उसी चरमसमयमे शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यातहजारवर्प प्रमाण होता है वही मोहनीयकर्मके चतुर्विधबधका अन्तिमसमय है ।' ___ अव अवरोहक नवमगुणस्थानवर्ती के पुरुषवेदोदय कालमें होनेवाली क्रियाविशेषको ४ गाथाओं में बताते हैं-- ओदरगपुरिसपढमे सत्तकसाया पणउवसमणा । उणवीसकसायाणं छक्कम्माणं समाणगुणसेढी ॥३२३॥ अर्थः-पुरुषवेदमें उतरनेके प्रथमसमयमे ( स्त्री-नपु सकवेदके अतिरिक्त ) सात नो कषायकी प्रशस्तोपशामना नष्ट हो जाती है । उन्नीस ( १२ कषाय और ७ नोकषाय ) कषायोको गुणश्रोणि ज्ञानावरणादि छहकर्मोकी गुणश्रेणिके समान हो जाती है। विशेषार्थः-मोहनीयकर्मके चतुर्विधबन्धके अन्तिमसमयमे ही अपगतवेद पर्यायका व्यय हो जानेपर अनन्तरसमयमे सवेदभागका वर्तन हो हानेसे पुरुषवेदका उदय व वन्ध होने लगता है अर्थात् मोहनीयका पाचप्रकृति बन्धका प्रथमसमय होता १. ज घ. मूल पृ. १९०२ सूत्र ४४८-४५२ । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३२८ ] क्षपरणासार [ २६९ तक्काले दुडाणं रसबंधी ताण देसवादीणं ॥ ३२८ ॥ अर्थः- स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेके प्रथम समय में बीस कषायोंकी गुणश्र ेणी होती है । यहांसे लेकर नपुंसकवेदके उपशान्त रहनेतक कालके सख्यात बहुभाग बीत जानेपर तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध नियमसे असंख्यातवर्षप्रमाण हो जाता है और उसीसमय उनकी देशघाति प्रकृतियोका अनुभागबन्ध द्विस्थानिक हो जाता है । विशेषार्थ :- पूर्वोक्त गाथा कथित कालसे आगे सहस्रो स्थितिबन्धो के व्यतीत होनेपर स्त्रीवेदको एकसमयमें अनुपशान्त करता है । उसोसमय से स्त्रीवेदका द्रव्य उत्कर्षण आदिके योग्य हो जाता है । प्रथमसमयमे ही अनुदयरूप प्रकृति स्त्रीवेद के arat पर्षित करके उदयावलिके बाहरसे अन्य १६ प्रकृतियो के समान गलिहावशेष गुणश्रेणि आयाममें, अन्तरायाममें और द्वितीय स्थिति मे निक्षिप्त करता है । मोहनीय कर्मकी पूर्वोक्त १९ प्रकृतियों (१२ कषाय व ७ नो कषाय) के द्रव्यको भी अपकर्षित करके इसीप्रकार निक्षिप्त करता है । इसप्रकार बीस प्रकृतियोको गलितावशेष गुणश्रेणि होती है । स्त्रीवेद अनुपशान्त होनेपर जबतक नपु सकवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्तीकालके सख्यात बहुभागो के बीतनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त - राय इन तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध असख्यातवर्ष हो जाता है । उससमयमे मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प, तीन घातिया कर्मोका असख्यातगुणा, इससे असख्यातगुणा नाम व गोत्रका और उससे विशेष अधिक अर्थात् डेढगुणा वेदनोयकर्मका स्थितिबन्ध होता है | जिससमय तीन घातिया कर्मोका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला बन्ध होता है उससमय मति श्रत अवधि मन पर्यय इन चार ज्ञानावरणीय, चक्षु श्रचक्षुअवधि इन तीनप्रकारके दर्शनावरणीय और पाचो (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य ) अन्तरायकर्म अनुभागबन्धको अपेक्षा लता, दारुरूप द्विस्यानोय अनुभागवन्धवाले हो है ।' १. जयधवल मूल पृ १६०४ - ५ । आरोहकके संख्यातवषप्रमाण स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमें ही इन कर्मोंका एक स्थानिक बन्ध उत्पन्न हो गया; यहां भी संख्यातवर्षं स्थितिबन्ध के अवसान को प्राप्त होने पर प्रसंख्यातवर्षीय स्थितिबन्धके प्रारम्भके समकालमे ही एक स्थानिकबन्ध समाप्त होगया, यहाँसे लेकर उन सकल प्रकृतियोका द्विस्थानीक ही अनुभाग वधता है; इतना विशेष है । (ज. घ. मूल पृ. १६०५ ) Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] क्षपणासार [ गाथा ३२७ होता है । विशेषता - ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध संख्यातहजार वर्षमात्र होता है । मोहनीयका उससे सख्यातगुणाहीन तत्प्रायोग्य सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उपशमश्रेणि चढनेवाले के सात नोकषायके उपशम करनेके काल में संख्यातवाभाग व्यतीत हो जानेपर ( जिस स्थानपर ) नाम, गोत्र, वेदनीयका स्थितिबन्ध संख्यातवर्षप्रमारण होता था, उतरने वाले पुरुषवेद अनुपशान्त हो जानेपर और जबतक स्त्रीवेद उपशान्त रहता है तबतक इस मध्यवर्ती कालके सख्यात बहुभाग बीत जानेपर ( चढ़ने वालेके उस स्थानके नही प्राप्त हुए ही इसके ) नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातवर्षको उल्लघकर असंख्यात वर्षका होने लगता है । चढनेवाले के स्थितिबन्ध संख्यातवर्षका होता था अत. उतरने - वाले के दोगुणा स्थितिबन्ध होना चाहिए ऐसी आशंका नही करना चाहिए । गिरनेवाले के संक्लेश विशेष के कारण असंख्यातवर्षका स्थितिबन्ध हो जाता है । वीसिय- नाम, गोत्रका पल्यके असख्यातवेभाग प्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तीसिय अघातिकर्मवेदनीयका कितना स्थितिबन्ध होगा ? इसप्रकार त्रैराशिक करने से वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यके असख्यातवें भागका डेढगुणा होगा । उससमय स्थितिबन्धका अल्पबहुत्व इसप्रकार होगा - मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे अल्प है । तीन घातियाकर्मोंका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है, क्योकि इनका स्थितिबन्ध उतरनेवाले जीवके सूक्ष्मसाम्पराय नामक १०त्रे गुणस्थानके प्रथमसमयमे प्रारम्भ हो गया था और मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध वादरलोभ अर्थात् ध्वे गुणस्थानमें प्रारम्भ हुआ है । नाम - गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यात गुणा है और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । अधिकका प्रमाण द्विभाग है' | आगे स्त्रीवेदके उपशमके विवाशको प्ररूपणा दो गाथाओंमें करते हैंथी अवसमे पढमे वीसकसायाण होदि गुणसेढी । संडुवसमोचि मक्के संखाभागे तीदेसु ॥ ३२७॥ घादितिया यिमा असंखवस्तं तु होदि ठिदिबंधो । १. ज. ध. मूल पू. १९०३-१९०४; क पा. चू सूत्र ४६१-४६६ | Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३१] क्षपणासार [ २७१ शङ्काः-अन्तरकरण करके आरोहक सम्बन्धी जो काल अतिक्रान्त कर दिया है वह काल उतरते समय लौटकर पुन. प्राप्त नहीं होता, क्योकि जो काल बीत गया उसके पुनः आगमनमें विरोध है, फिर यह कैसे कहा गया कि नपु सकवेद अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तरकरण कालको प्राप्त नही होता, क्योकि इसप्रकारको सम्भावना युक्तिसे बाह्य है । समाधान:- यह सत्य है कि वह काल पुनः नही आने वाला है, यह इष्ट है, किन्तु अन्तरकरण करके और ऊपर चढकर तथा उपशान्तकषाय होकर पुन. नीचे उतरनेवाले जीवके उपशान्तकालसे ऊपर होकर स्थित हुआ यह नपु सकवेदका अनुपशान्तकाल, उपशामकके नए सकवेदकी उपशाम नाके कालसे, थोडा मिलानेसे सदृश परिणामवाला हो जाता है, ऐसा समझकर इसकालमे उपशामकके उक्तकालका उपचार करनेसे और यहीपर अन्तरकरणसम्बन्धी स्थानकी बुद्धिसे कल्पना करके यतः यह प्ररूपणा आरम्भ को है इसलिए कुछ विरुद्ध नही होती, क्योकि उपशामकके कालके विपर्याससे गिरनेवालेके कालोको विलोमक्रमसे स्थापितकर यह प्ररूपणा आरम्भ की है। इसलिए नपु सकवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक अन्तरकरण अवस्था प्राप्त नही होती इस मध्यवर्तीकालके सख्यात खण्ड करके उनमें बहुत भाग व्यतीत होकर व सख्यातवाभाग शेष रह जानेपर मोहनीयकर्म संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धको उल्लंघकर असख्यात वर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है यह सुसम्बद्ध है । उसीसमय अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानिक ( लता, दारुरूप ) हो जाता है। मोहनीयकर्मका एक स्थानीय ( लतारूप ) अनुभागबन्ध व उदय सख्यातवर्षीय स्थितिबन्धके समकालीन था। संख्यातवर्षवाले स्थितिबन्धका अवसान (समाप्ति) होनेपर एक स्थानीय अनुभागबन्ध व उदय की भी परिसमाप्ति हो जाती है । अब उतरते समय लोभ संक्रमण, बंधावलि व्यतीत होनेपर उदोरणादिको प्ररूपणा तीव गाथाओंमें करते हैं लोहस्स असंकमणं छावलितीदेसुदीरणतं च । णियमेण पडताणं मोहस्तणुपुव्विसंकमणं ॥३३१॥ १. जयधवल मूल पृ० १६०५-६ । Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] क्षपरणासार [ गाथा ३२-३३० अब नपुंसक वेद के उपशमका विनाश व उससमय होनेवाली क्रिया विशेष २ गाथाओं मे कहते हैं संडवसमे पढमे मोहिगिवीसाण होदि पुणसेढी । अंतरकदोत्ति मज्झे संखाभागासु तीदासु ॥ ३२६॥ मोहस्स असंखेजा वस्तपमाणा हवेज ठिदिबंधो । ता तस्य जाएं बंधं उदयं च दुट्ठाणं ॥ ३३०॥ अर्थः-नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जानेपर २१ प्रकृतियोकी गुरणश्र ेणी होती है। यहासे अन्तरकरण करनेके स्थानको प्राप्त होनेतक जो मध्यवर्तीकाल है उसकाल के संख्यात बहुभाग बीत जानेपर मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध प्रसख्यातवर्षप्रमाण होने लगता है । उसीसमय मोहनीयकर्मका अनुभागबन्ध व उदय द्विस्थानीय हो जाता है । विशेषार्थः --- पूर्वोक्त गाथा कथितकालके पश्चात् सख्यात सहस्र स्थितिबन्धो के बीत जानेपर नपुंसकवेद अनुपशान्त हो जाता है । उसीसमय नपुंसकवेदके द्रव्यको ग्रपकर्षित करके उदयावलिके बाहर गुणश्रेणि आयाममे, अन्तरायाममे और द्वितीयस्थितिमे निक्षिप्त करता है । यह गुण रिण निक्ष ेप अन्य बीस प्रकृतियो के गलितावशेष गुणश्रेणि निक्षेपके सदृश होता है । नपु सकवेदके अनुपशान्त हो जानेपर जबतक अन्तर करनेके कालको नही प्राप्त होता इस मध्यवर्तीकालके सख्यात बहुभागप्रमारगकाल व्यतीत हो जानेपर मोहनीथकर्मका असख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध होने लगता है । उपशमश्रेणि चढनेवाला जिस स्थानपर ( अवस्थामे ) अन्तरकरण करके मोहनीयकर्मका- सख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, उतरते समय उस स्थानको अन्तर्मुहूर्त द्वारा नही प्राप्त करता कि इस अवस्थामे वर्तमान इस जीवके प्रतिपातकी प्रधानता से मोहनीय कर्मका असख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ हो जाता है । क्योकि चढनेवाले की अपेक्षा उतरने वालेका काल स्तोक है, कारण कि चढनेवाले के सर्वकालोकी अपेक्षा उतरनेवाले के सर्वकाल हीन होते हैं जैसे चढनेवालेके सूक्ष्मसाम्पराय के कालसे उतरने वालेका मूक्ष्मसाम्परायकाल अन्तर्मुहूर्त हीन होता है । इसप्रकार चढ़ने और उतरने सम्बन्धी सर्वकालोमे परस्पर विशेष अधिकता व हीनता लगा लेनी चाहिए । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३२-३३३ ] क्षपणासार [२७३ विवरीयं पडिहरणदि विरयादीणं च देसघादित्तं । तह य असंखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ॥३३२॥ लोयाणमसंखेज्ज समयपबद्धस्स होदि पडिभागो। तत्तियमेतद्दव्वस्सुदीरणा वदे तत्तो ॥३३३॥ अर्थः- ( उपशमश्रेणिसे उतरनेवालेके ) वीर्यान्तरायादि कर्मोका देशघाति वन्ध होता था वह विपरोत होकर सर्वघाति होने लगा। असख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणाका अभाव होकर एक समयप्रबद्ध के' असख्यातलोकवे भाग मात्र द्रव्यकी उदोरणा होने लगी। विशेषार्थः-गाथा ३३० में कहे गए क्रम अनुसार संख्यातहजार स्थितिबन्धो के व्यतीत हो जाने पर वीर्यान्तरायकर्म अनुभागबन्धकी अपेक्षा सर्वघाती हो जाता है। तत्पश्चात स्थितिबन्ध पृथकत्वसे अभिनिब्रोधिक ( मति ) ज्ञानावरण और परिभोगअन्तरायकर्म सर्वघाति हो जाते है। तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे चक्षुदर्शनावरण कर्म सर्वघाति हो जाता है। उसके पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे श्रु तज्ञानावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और भोगान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते है। तदनन्तर स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे अवधिज्ञानावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और लाभान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध पृथक्त्वसे मन.पर्ययज्ञानावरणीय और दानान्तरायकर्म सर्वघाती हो जाते है । उपशमणि चढनेवालेके इन बारहकर्मोका अनुभागबन्ध जिस क्रमसे देशघाती हुआ था, उतरनेवालेके उसी क्रमसे पश्चादनुपूर्वी द्वारा देशघातिकरण नष्ट होनेपर सर्वघाति अनुभागबन्ध हो जाता है। तत्पश्चात् सहस्रो स्थितिबन्धोके व्यतीत हो जानेपर असख्यात समय प्रबद्धों की उदीरणा नष्ट हो जाती है । उपशमश्रोणि चढ़नेवालेके हजारो स्थितिबन्ध बीत जानेपर एक समयप्रबद्धके असख्यातलोकवे भाग उदीरणा असंख्यातगुणो वृद्धिको प्राप्त होकर प्राय और वेदनीयकर्मोको छोड़कर शेष सर्वकर्मोकी उदीरणा असंख्यात समय प्रबद्ध होने लगे थी, श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्वघाती अनुभागबन्धके पश्चात् पुनः १ एक समयप्रबद्धको असख्यातलोकसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतने प्रदेशाग्रकी असख्यातलोकवे भाग संज्ञा जानना। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपरणासार [ गाथा ३३१ अर्थः- लोभका असंक्रमण, छह आवलियां बीत जानेपर उदीरणा, मोहनीय का ग्रानुपूर्वी सक्रमण ये नियम थे, किन्तु अध पतन होनेपर इनसे विपरीत होने लगता है । २७२ ] विशेषार्थः - ग्यारहवे उपशान्तमोह गुणस्थानसे गिरनेवाले सभी जीवोके छह ग्रावलियो के बीत जानेपर ही उदीरणा हो ऐसा नियम नही रहा, किन्तु बन्धावलि व्यतीत होनेपर उदीरणा होने लगती है । उपशमश्र णि चढनेवालोके यह नियम बतलाया गया था कि नवोन बधनेवाले कर्मोकी उदीरणा बन्धके छह आवलि पश्चात् ही हो सकती है, उससे पूर्व नही, किन्तु श्र णिसे उतरने वाले के लिए यह नियम नही रहा । उनके एक आवलिके पश्चात् ही बधे हुए कर्मोकी उदीरणा होने लगती है । कुछ आचार्य ऐसा व्याख्यान करते है कि ग्यारहवे गुणस्थानसे गिरते समय भी जबतक मोहनीय कर्मका सख्यातवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तबतक छह प्रावलियोके व्यतीत होनेपर ही उदीरणाका नियम रहता है, किन्तु जहासे मोहनीय कर्मका स्थितिबंध असख्यातवर्पप्रमाण होने लगता है वहासे छह आवलि पश्चात् उदीरणाका नियम नही रहता। परन्तु यह व्याख्यान चूरिंगसूत्र ४८१ के अनुरूप नही है । उपशामकके अंतरक्रिया समाप्तिकालमे जो यह मोहनीयका आनुपूर्वी सक्रमण व संज्वलन लोभके असक्रमणका नियम हो गया था वह नियमभी श्रेणिसे उतरने वाले के प्रनिवृत्तिकरणकालसे लेकर नष्ट हो गया अब मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वीसक्रमण तथा लोभका भी सक्रमण होने लगा । J शङ्का–उपशमश्रेणिसे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके प्रथमसमयसे ही मोहनीय कर्मका अनानुपूर्वी सक्रमण क्यो नही कहा गया ? समाधान— नही कहा गया, क्योकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मके वन्वका प्रभाव होनेसे मोहनोयकर्मका सक्रमण सम्भव नही है । इसीलिए सूक्ष्मसाम्परायमे सज्वलनलोभका सक्रमण भी नही होता । जबतक तोन प्रकारकी माया (नज्वलनमाया, प्रत्याख्यानमाया, अप्रत्याख्यानमाया ) का अपकर्षरण नही होता तब तक मोहनीयकर्म के अनानुपूर्वीसक्रमणकी उत्पत्ति नही होती, क्योकि सज्वलन लोभके प्रतिग्रहका अभाव होनेसे सक्रमणको प्रवृत्ति सम्भव नही है । ' १. मूल पृ० १३०६-७ । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३४-३५ ] क्षपणासार [ २७५ जाता है और नाम गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है । इससे भी वेदनीयकर्मका स्थितिबंध विशेष अधिक होता है; क्योकि परिणाम विशेषके कारण इसप्रकार के बन्धकी निर्बाधरूपसे सिद्धि होजाती है । उपशम श्ररिण चढनेवाले के जिस स्थानपर नाम - गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ) कर्मो का स्थितिबन्ध एकसाथ असख्यातगुणा हीन हो जाता है उस स्थानसे कुछ पूर्व उतरनेवाले के स्थितिबन्धमें उपर्युक्त परिवर्तन हो जाता है अर्थात् नाम- गोत्रके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध विशेष अधिक हो जाता है । शङ्का – यदि ऐसा है तो नाम - गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे तीन घातिया कर्मोंका स्थितिवन्ध विशेष अधिक वृद्धिरूप क्यो होता है; असंख्यातगुणो वृद्धिरूप क्यो नही हो जाता ? - समाधान — श्रेणिसे उतरनेवालेके सर्व स्थितिबन्धो में विशेष अधिकरूपसे वृद्धिकी प्रवृत्ति होती है ऐसा नियम देखा जाता है । अथवा ऐसे नियमका निर्निबन्धनपना नही है, किन्तु निबन्धनरूपसे यहा चूर्णिसूत्रकी प्रवृत्ति हुई है । पुनः इसक्रमसे सख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होकर अन्तर्मुहूर्तकाल नीचे उतरकर वहा अन्यप्रकार के अल्पबहुत्व वाला स्थितिबन्ध होता है । अर्थात् इसप्रकार सख्यातहजार स्थितिबन्ध करके तत्पश्चात् एक साथ मोहनोयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है इससे नाम गोत्रका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है । इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हुए विशेष अधिक होता है । शङ्का — पूर्वमे ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिबन्धसे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता था, पुन. एक साथ वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातियाकर्मी के स्थितिबन्धके सदृश कैसे हो गया ? समाधान' — ऐसी शंका करना ठीक नही है, क्योंकि अन्तरङ्ग परिणाम विशेषके आश्रयसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध तीन घातिया कर्मोके स्थितिवन्धके सदृश होने मे विरोधका अभाव है । श्ररिंग चढ़नेवाला जिसस्थानपर ज्ञानावरणादिके स्थिति Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] क्षपरगासार [ गाथा ३३४-३३५ असंख्यात समयप्रवद्धको उदीरणा नष्ट होकर समयप्रबद्धके असख्यातलोक भागी ( असख्यात लोकसे समयप्रबद्धको भाजित करनेपर एकभाग मात्र ) उदीरणा प्रवृत्त होती है। उसोसमय मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक, घातिया कर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा नाम और गोत्रका स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा, वेदनीयकर्मका स्थितिवव विशेष अधिक । स्थितिवन्धका जैसा अल्पबहुत्व गाथा ३३० मे कहा था वैसा ही अल्पबहुत्व यहां भी कहा गया है। विशेषता यह है कि पूर्व स्थितिवन्धसे असख्यातगुणा स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा स्थितिबन्ध बढ जाता है।' नमकरणके नाशका विधान ७ गाथाओमें कहते हैंतक्काले मोहणियं तीसीयं वीसियं च वेयणियं । मोहं वीसिय तीसिय वेयणीय कम हवे तत्तो ॥३३४॥ मोहं वीसिय तीसिय तो वीलिय मोहतीसयाण कमं । वीसिय तीसिय मोहं अप्पाबहुगं तु अविरुद्धं ॥३३५॥ अर्थः-उसी काल ( समय ) मे मोहनीय, तीसिया ( ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय ), वीसिया ( नाम-गोत्र ) और वेदनीय इस क्रमसे उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय, तीसिय और वेदनीय इस क्रमसे; उसके पश्चात् मोहनीय वीसिय और तीसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय मोहनीय और तीसिय इस क्रमसे; उसके पश्चात् वीसिय, तीसिय, मोहनीय इन अल्पबहुत्व क्रमसे स्थितिवन्ध होता है । विशेषार्थ:-जिसकालमें समयप्रबद्धको असख्यातलोक प्रतिभागी उदीरणा प्रवृत्त होती है, उससमय मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, शेष घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, इससे नाम-गोत्र का स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, वेदनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इस अल्पवहुत्व विधिसे सख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर और उपशमश्रोणिसे उतरनेवाला अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर जाता है तब एक साथ मोहनीयका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, नाम-गोत्रका स्थितिवन्ध असणातगुणा हो जाता है और इससे तीन घातियाकर्मोका स्थितिवन्ध विशेष अधिक और वेदनोयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । अर्थात् एक वारमे ही नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध तीन घातिया कर्मोसे नीचे आ १. जयघवल मूल पृ० १६०७-८ । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३३७-३३८] क्षपणासार [२७७ नीचे उतरकर जब पल्यके असंख्यातवेभाग स्थितिबन्ध नही होता अर्थात् जबतक सख्यातहजार वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तबतक एक स्थितिबन्धसे दूसरा स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है । विशेषार्थः-पूर्वोक्त स्थितिबन्धोके द्वारा क्रमकरणका विनाश हो जानेके पश्चात् स्थितिबन्धोमे जो नाम-गोत्र कर्मको स्थितिसे ज्ञानावरणादिकी स्थिति विशेष अधिक बधती है वहापर विशेष अधिक प्रमाण नाम-गोत्रकी स्थितिका द्वितीयभाग है, क्योकि नाम-गोत्रकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोड़ी सागर है और ज्ञानावरणादिकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ीसागर है। ज्ञानावरणादिकी स्थितिसे मोहनीयको स्थिति विशेष अधिक बधती है वहां विशेष अधिकका प्रमाण ज्ञानावरणादिकी स्थिति का तृतीयभाग है, क्योकि उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ोसागर व चालीस कोडाकोडीसागर में यह अनुपात है। नीचे उतरते-उतरते श्रोणिसे गिरनेवालेके जबतक स्थितिवन्ध सख्यातहजार वर्ष रहता है असख्यातवर्ष नही होता अर्थात् पल्यका असख्यातवा भाग नही होता तब तक पूर्ण स्थितिबन्धसे अगला स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है गुणाकाररूप नही होता । जत्तोपाये होदि हु असंखवस्सप्पमाणठिदिबंधो। तत्तोपाये अण्णं ठिदिबंधमसंखगुणियकमं ॥३३७॥ एवं पल्लासंखं संखं भागं च होई बंधेण । तत्तोपाये भरणं ठिदिबंधो संखगुणियकमं ॥३३॥ अर्थ:-जिस स्थल पर स्थितिबन्ध असंख्यातवर्षप्रमाण होता है उस स्थलसे लेकर अन्य स्थितिबंध असख्यातगुणित क्रमसे होते है । इसक्रमसे पल्यके असंख्यातवेंभाग व पल्यके संख्यातवेभाग स्थितिबन्ध होता है। उस स्थलके ( पल्यके सख्यातवेभाग ) पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणित क्रमसे होते है । १ तदो एवं विदिदिबधपरावत्ताणण जहाकम कादण हेट्ठा प्रोदरमाणस्स पुणो वि सखेज्जसहस्स मेत्ताणि ट्ठिदिबधब्भुस्सरणारिण एदेणेव कमेण रणेदव्वाणि जाव सब्ब पच्छिमो पलिदो प्रसखभागिजो ठिदि बधोत्ति । ( ज० ध० मूल पृ० १६१० प १-२) Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ क्षपणासार [गाथा ३३६ वन्धसे वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा अधिक करता है, उस स्थानसे कुछ पूर्व गिरनेवाला इसप्रकारका स्थितिबन्ध करता है । पुन' इस अल्पवहुत्व विधिसे सख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरणके द्वारा अन्तर्मुहूर्तकाल अतिक्रान्त करके नीचे उतरनेवालेके अन्यप्रकारका स्थितिबन्ध होता है। __ इसप्रकार संख्यातहजार स्थितिबन्ध व्यतीत होनेपर अन्य स्थितिवन्ध प्रारम्भ होता है। एक साथ नाम-गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक हो जाता है, इससे मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अतरायकर्मोका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होते हुए विशेप अधिक होता है। शंका-मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धसे नाम-गोत्रकर्मका स्थितिवन्ध एकसाथ असंख्यातगुणपनाके परित्यागके साथ विशेष हीन भावसे नीचे हो गया। यहां ऐसा क्यो ? ___समाधान-परिणाम विशेषके आश्रयसे विशेषहीन होता है। ऐसा पूर्वमें वहुतवार कहा जा चुका है। इस क्रमसे बहुतसे स्थितिवन्धोत्सरण-सहस्र वीतनेपर एक साथ नाम-गोत्रका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक, इससे चारकर्मो (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) का स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक होता है, इससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। परिणाम विशेपके कारण मोहनीयके स्थितिबन्धसे चारकर्मोंका स्थितिबन्ध विशेष हीन हो जाता है।' यहापर क्रमकरण नष्ट हो जाता है । कमकरणविणट्ठादो उबरिहविदा विसेसअहियाओ। सव्वासिं तरणद्धे हेट्ठा सव्वासु अहियकमं ॥३३६॥ अर्थः-क्रमकरण नष्ट होने के पश्चात् ( पूर्वोक्त अल्पवहुत्वके अनुसार कर्मों का परस्पर विशेष अधिक क्रमसे ) जो स्थितिबन्ध होते है उनमे विशेष अधिकका प्रमाण अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थितिके अनुपातसे होता है। उपशमश्रेरिणसे गिरनेवालेके १ जयधवल मूल पृ० १६०८-१६०६ सूत्र ४९४-५१२ । २ एत्तो पहुडि सम्बत्थेव अप्पप्पणों उक्कस्स्स ठिदिवध पडिभागेण विसेसाहियत्तमुवगतव्व ( ज ध. मू पृ. १९०६) Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३३६-४० ] [२७६ वेदनीय व अन्तरायका तीन बटे सात (8) तथा मोहनीयकर्मका चार बटे सात (3) भाग स्थितिवन्ध होता है। विशेषार्थः-इसप्रकार सख्यातगुणवृद्धिके क्रमसे बढता हुआ सभी कर्मोके पल्यके संख्यातवेभागप्रमाण संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर वृद्धिगत अपूर्वस्थितिवन्ध पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण होता है । पल्यके असंख्यातवेभागप्रमाण स्थितिबन्धों में संख्यातगुणी वृद्धि होते हुए जिस कालमे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण पल्यप्रमाण हो जाता है उससमय पल्यके सख्यातवेभागप्रमाणवाले पूर्व स्थितिबन्धमें पत्यके संख्यातबहुभागप्रमाण अपूर्ववृद्धि होती है, अन्यथा पल्यप्रमाण स्थितिबन्धकी उत्पत्ति सम्भव नही है। उससमय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोके स्थितिवन्धमे अपूर्ववृद्धि होकर कुछअधिक चतुर्थभागकम पल्यप्रमाण अर्थात् कुछकम ३ अथवा देशोन तीन चौथाई पल्यप्रमाण ज्ञानावरणादिके स्थितिबन्धकी वृद्धि होती है। पल्योपमके चारभाग करके उनमेसे एक चतुर्थभागको निकालकर शेष तीन चतुर्थभागको ग्रहण करनेपर ज्ञानावरणादि चारकर्मोके तात्कालिक स्थितिबन्धका प्रमाण होता है। इसका कारण यह है कि चालीस (४०) कोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिवाले मोहनोयकर्मका यदि एक पल्योपमप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तो तीस कोड़ाकोड़ीसागरप्रमाण स्थितिवाले ज्ञानावरणादि कर्मोका कितना स्थितिबन्ध होगा |४० | १ | ३०| इसप्रकार त्रैराशिक करनेपर उसका प्रमाण ३ पल्य प्राप्त होता है। इस तीन चतुर्थभागमे से पूर्व स्थितिबन्धके प्रमाण पल्यके सख्यातवेभागको घटानेपर कुछ कम पल्यका तीन बटा चार (३) शेष रहता है, यही यहाकी वृद्धिका प्रमाण है। इसीप्रकार त्रैराशिक क्रमसे नाम व गोत्रका तत्कालिक स्थितिबन्ध अर्धपल्यप्रमाण होता है। इसमेंसे पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण पूर्व स्थितिबन्धको घटानेपर कूछकम अर्धपल्यप्रमाण वृद्धिका प्रमाण प्राप्त होता है । जिससमय यह अपूर्ववृद्धि होती है उस समय मोहनीयकर्मका ज-स्थितिबध पल्योपमप्रमाण, ज्ञानावरणादि चार कर्मो का जस्थितिबन्ध चतुर्थभागसे हीन पल्योपमप्रमाण, नाम व गोत्रका ज-स्थितिबन्ध अर्धपल्योपमप्रमाण होता है । शङ्का-ज-स्थितिबन्ध किसे कहते है ? १. ज. ध. मूल . ९६१०-११ सूत्र ५१६-५२२ । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] क्षपणासार [गाथा ३३६-३४० विशेषार्थ:-जहासे लेकर नाम-गोत्र आदि कर्मोका स्थितिवन्ध प्रथमवार असख्यातवर्षका होता है वहासे लेकर जबतक पल्यके असख्यातवेभाग स्थितिबन्ध नही होता इस अन्तरालमे अन्य-अन्य स्थितिबन्ध पुन. पुन. असख्यातगुणवृद्धिसे वढता है, क्योकि वहापर पर्यायान्तर असम्भव है । इस क्रमसे सातो ही कर्मोका स्थितिवन्ध एक साथ पल्यके असख्यातवेभागप्रमाण होकर पल्यके सख्यातवेभागप्रमाण हो जाता है। शंका-श्रेरिण चढनेवालेके सातोकर्मोका दूरापकृष्ट स्थितिवन्ध क्रमसे हुआ था, किन्तु उतरनेवालेके सातोकर्मोका स्थितिबन्ध पल्यके असंख्यातवेभागसे सख्यातवेभागप्रमाण होना एक साथ कैसे सम्भव है। ____समाधान-ऐसी शका नही करनी चाहिए, क्योकि श्रेणिसे उतरनेवालेके परिणाम-माहत्म्यसे सातकर्मोंका एकसाथ पल्यके असख्यातवेभागसे पल्यके सख्यातवेभाग होनेमे विरोधका अभाव है। इस स्थलसे लेकर आगे प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य-अन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणित क्रमसे होते है, क्योकि पल्यके संख्यातवेभाग स्थितिबन्ध होनेके पश्चात् सख्यातगुणवृद्धिके अतिरिक्त पर्यायान्तर असम्भव है ।' मोहस्स य ठिदिबंधो पल्ले जादे तदा दु परिवड्डी । पल्लस्स संखभागं इगिविगलासण्णिबंधसमं ॥३३६॥ मोहस्त पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च। ' दुतिचरुसत्तमभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥३४०॥ अर्थः-मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध पल्यप्रमाण हो जानेपर स्थितिबन्धमें पल्यके सख्यातवेभाग वृद्धि होती है । पुन क्रमसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असज्ञी पचेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान स्थितिबन्ध होजाता है । मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होनेपर तीसिय ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय ) कर्मोका स्थितिबन्ध ३ पल्य अर्थात् पौन पल्य और दोकर्म ( नाम-गोत्र ) का स्थितिवन्ध अर्ध पल्यप्रमाण होता है। एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियकी स्थितिके समान स्थितिवन्ध होनेपर नाम-गोत्रका दो बटे सात (3) भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण, १ जय यवल मूल पृ० १६१० सूत्र ५१३-५१५ । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४२ ] [ २८१ विशेषार्थः- तत्पश्चात् असंज्ञीके समान बंधसे आगे संख्यातहजार स्थितिबन्धोत्सरण होनेपर उतरनेवाले अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समयको प्राप्त हुआ वहां मोहनीय, तीसि ( ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीप, अन्तराय ) वोसीय ( नामगोत्र ) कर्मोका क्रमसे अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमपृथक्त्वलक्ष सागरोका और भागप्रमाण स्थितिबन्ध होता । उसके अनन्तरवर्ती समयमे उतरनेवाले प्रपूर्वकरणको प्राप्त होता है । क्षपणासार W श्रपूर्वकरण में होनेवाले कार्य विशेषको कहते हैं-उवसामणा णिती शिकाचरणुग्धाडिदाणि तत्थेव । चदुती दुगाणं च य बंधो श्रद्धापवत्तो य ॥ ३४२ ॥ प्रर्थः—श्र ेणिसे उतरते हुए पूर्वकरणगुणस्थानको प्राप्त होनेपर अप्रशस्तोपशामना, निवत्ति एव निकाचना उद्घाटित प्रगट हो जाते है और वहा पर क्रमशः चार, तीस व दो प्रकृतियोका बन्ध होने लगता है । वहासे गिरकर अधःप्रवृत्तकरणको प्राप्त हो जाता है । विशेषार्थ – अनिवृत्तिकरणका काल समाप्त हो जानेपर गिरकर अनन्तर समयमें अपूर्वकरणमें प्रवेश करता है, उसीसमय अप्रशस्तोपशामनाकरण, निधत्तिकरण व निकाचनाकरण उद्घाटित हो जाते हैं, क्योंकि जो पूर्वमें अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोके कारण उपशान्तभावसे परिणत थे अब अपूर्वकरण में प्रवेश होनेपर पुनः उद्भव हो जाता है । उस समय हास्य- रति, भय व जुगुप्साका बन्ध प्रारम्भ होनेसे मोहनीयकी नव प्रकृतियोका बन्ध होने लगता है, उसीसमय हास्य- रति, श्ररति-शोक में से किसी एक युगलका उदय होनेसे तथा भय व जुगुप्साका वैकल्पिक ( भजनीय ) उदय होनेसे इन छह नोकषायकी आगमसे अविरुद्ध पुनः प्रवृत्ति हो जाती है ।' से उतरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम सप्तमभाग के चरमसमयमे पूर्वोक्त परभविक नामकर्म की देवगति, पंचेन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोका बन्ध परिणाम विशेषके कारण प्रारम्भ हो जाता है, किन्तु आहारकद्विक व तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध भजनीय है । उसके पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोके हो जानेपर पूर्वकरणके सात भागोमे अन्य पाच भाग व्यतीत १. ध. पु. ६ पृ. ३३०; क. पा. सु पृ. ७२५; जयघवल मूल पृ १९१३ । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] क्षपणासार | गाथा ३४१ समाधान - अावाधा सहित स्थितिको ज-स्थिति' कहते है। इस स्थलसे ग्रति मोहनीयकर्मका पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध होने के पश्चात् प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर तबतक पल्योपमके सख्यातवेभागसे वृद्धि होती है जबतक जितना अनिवत्तिकरणकाल शेप है और सर्व अपूर्वकरणकाल है । अर्थात् अनिवृत्तिकरणका संख्यातबहुभागप्रमाण काल और अपूर्वकरणका सर्वकाल शेष है। पल्यके स्थितिबन्धके पश्चात नख्यातहजार स्थितिवन्धोके द्वारा वृद्धिको प्राप्त, अनिवृत्तिकरणकालमे, मोहनीयकर्म का स्थितिवन्ध एकसागरके चार बटे सात (X) एकेन्द्रियके स्थितिबन्ध सदृश हो जाता है। शेप कर्मोका अपने-अपने प्रतिभागसे एकेन्द्रियके समान बन्ध होता है। अर्थात् ज्ञानावरणादि चारकर्मोका एकसागरके सात भागमे से तीनभाग प्रमाण ( 3 सागर) तथा नाम व गोत्रकर्मका एकसागरके सातभागोमेसे दोभाग प्रमाण (२ सागर) स्थितिवध होता है । इसी क्रमसे स्थितिवध पुन बढ़ता हुआ यथाक्रम द्वीन्द्रियके समान, श्रीन्द्रियके समान, चतुरिन्द्रियके समान और असज्ञोपचेन्द्रियके समान २५, ५०, १००, १००० सागरके , ३, ३ प्रमाण हो जाता है। यह सब अनिवृत्तिकरणकालके भीतर ही हो जाता है। अब अवरोहक अनिवृत्तिकरणके चरमसमयका स्थितिबन्ध कहते हैंतत्तो अणियट्टिस्त य अंतं पत्तो हु तत्थ उदधीणं । लक्खपुधत्तं बंधो ले काले पुवकरणो हु ॥३४१॥ अर्थ --उसके पश्चात् श्रेणिसे गिरता हुआ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अत तो प्राप्त हो जाता है उससमय लक्षपृथक्त्वसागरका स्थितिबन्ध होता है पुनः अनन्तरनमयमे अपूर्वकरण गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । १ प्रर्यात वृद्धिसहित पूरा स्थितिवन्ध । अथवा सवृद्धि, मूलस्थितिबन्ध ज-स्थितिबन्ध ( जयघवल गल प १९१२) • "माम उस्कमो द्विदिवघो विसेसाहिनो ॥ २२७ । जििट्ठदिवधो विसेसाहिलो ॥ २८८ ।। रेनियनोग र सग-प्राबाधामेत्तण । प्रसादस उकसाढदिवघो विसेसाहिमो ।। २३१ ।। -रिया विममाहियो ॥२३२॥ केत्तियमेत्तेण ? तिण्णिवाससहस्समेत्तण। जट्ठिदिवघो नाम मायाराम माहिद" (घ० पु० ११ १.० ३३६-३४०-३४१ ) • समान मान० १६१२ ५२३-५२५ । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४३ ] क्षपणासार [२८३ न० १ का निषेक गल जानेसे उपरितन स्थिति का ___ नं० ६ का निषेक गुणश्रोणि मे आ गया। > १ . नं. १ का निपेक गल जानेपर ८ निपेककी गुणश्रोणि अवस्थित गुरगश्रेणि उपरितन स्थिति गलितावशेष गुणश्रेणि अवास्थत गुणधोग ६ निषेकोंकी गलितावशेप गुणश्रेणि - उपरितन स्थिति raple purna Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] क्षपणासार [ गाथा ३४३ हो जानेपर छठे भागके अन्तिम समयमे निद्रा और प्रचला, इन दो प्रकृतियोका वन्ध प्रारम्भ हो जाता है । निद्रा प्रचलाका बन्ध प्रारम्भ हो जानेके पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध हो जानेपर अपूर्वकरणके अन्तिम सप्तमभागको बिताकर श्र ेणिसे उतरने - वाला अपूर्वकरणके चरमसमयको प्राप्त हो जाता है, उससमय पृथक्त्व लक्षकरोड सागर अर्थात् अन्तकोडाकोडीसागर स्थितिबन्ध हो जाता है । श्रेणिसे उतरनेवाले सभीके स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात नही होते ।' मात्र गलितावशेप आयामवाली गुण रिण होती है, प्रतिसमय असंख्यातगुणाहीन द्रव्य अपकर्षित होता है । तदनन्तर समयमे अनन्तगुणोहीन विशुद्धिके कारण गिरकर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हो प्रथम समयवर्ती अध प्रवृत्त हो जाता है । अधःप्रवृत्तकरण के प्रथमसमय में अवस्थित गुणश्रेणिका निर्देश करते हैंपढमो धावत्तो गुणसेडिमवहिदं पुराणादो । संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु || ३४३ ॥ अर्थः-अध प्रवृत्तकरणके प्रथमसमयमे अवस्थित गुणश्रेणिको करता है जिसका आयाम पुरातन गुणश्रेणिश्रायामसे सख्यातगुणा होते हुए भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । विशेषार्थः—श्रेणिसे उतरनेवाले के अपूर्वकरण के अन्तिमसमयमे जितने प्रदेशानका अपवर्तन हुआ था उससे असख्यातगुणेहीन प्रदेशाग्रको अपकर्षित करके प्रथमसमयवर्ती अध प्रवृत्तसंयत गुण रिण करता है । जो प्रथमसमय सूक्ष्मसाम्परायके द्वारा अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरणके कालसे विशेष अधिक आयाममे पुरातन गुणश्रेणि निक्षेप द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मोंका निक्षेप हुआ था । अब उससे सख्यातगुणे आयामके द्वारा गुणश्रे रिण विन्यास करता है, क्योकि मन्दतर विशुद्धिके कारण सर्वत्र गुणश्रेणिआयाम फैल जाता है अर्थात् बढ जाता है । दरमाणयस्स गत्थि ट्ठिदिघादो अणुभागधादो वा । जय धवल मूल पृ० १६२६ १ सव्वस्सेव एव १९१३ । २ ज. घ मूल पृ. १९१३ सूत्र ५२६-५३३ । ३ जध मूल पृ १९१४ सूत्र ५३६ । ६ पु १२ पृ. ७८, त सू न. ६ सू ४५ । क. पा सुप ७२६, ध.पु ६ पृ ३३० । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४५ ] क्षपणासार [ २८५ अथानन्तर स्वस्थानसंयमीके गुणश्रेणि आयाम सम्बन्धी तीन स्थानों का कथन करते हैं सठाणे तावदियं संखगुणणं तु उवरि चडमाणे । विरदावरदादिमुहे संजगुणं तदो तिविहं ॥ ३४५ ॥ अर्थः-उपशमश्र णिसे उतरनेवाले के स्वस्थान संयंत होनेपर भी गुणश्रेणि आयाम उतना ही रहता है । पुन ऊपर चढनेपर गुणश्र णि आयाम संख्यातगुणाहीन हो जाता है । विरताविरत के अभिमुख होनेपर गुणश्रेणिश्रायाम सख्यातगुणा हो जाता है । विशेषार्थः- उपशमश्र णिसे उतरनेवालेके अधःप्रवृत्तकरण के प्रथमसमयमे जो अन्तर्मुहूर्तप्रमाण वाला गुणश्रेणि निक्षेप ( आयाम ) था वह अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित रहता है, क्योकि वृद्धि हानिके कारणोका प्रभाव है, किन्तु प्रदेशाग्रकी अपेक्षा नियमसे हीयमान है कारण कि विशुद्धि में अनन्तगुणी हानिके कारण परिणाम हीयमान होते है । अन्तर्मुहूर्तकाल बीत जानेके पश्चात् गुणश्र णिश्रायाम कथचित् वृद्धिको प्राप्त होता है, कथचित् घटता है और कथचित् प्रवस्थित रहता है । ग्रधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालतक अवस्थित गुणश्र णिश्रायाममे गुणश्रेणि निक्षेप करके उसके पश्चात् गुणश्र णिनिक्षेपके आयाममे वृद्धि हानि और अव स्थान इन तीनमे से कोई एक अवस्था होती है । स्वस्थान अप्रमत्तसयत होकर प्रमत्तसंयत-अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थानोमे भूलनेवालेके अवस्थित प्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप होता है । संयमासयम गुणस्थानको गिरकर प्राप्त होनेवाले के गुणश्रेणिनिक्षेपका आयाम संख्यातगुणवृद्धिके द्वारा बढ जाता है । नीचे गिरकर श्रागम - प्रविरोधसे पुन. उपशम या क्षपकश्र ेणि चढनेवाले के पूर्व गुणश्र णिशीर्षसे नीचे सख्यातगुणहानिके द्वारा हीन होकर गुण णि निक्षेपका प्रायाम होता है । इसीप्रकार सभी गुणश्रेणिनिक्षेपोके आयामके विषय मे समझना चाहिए । प्रदेश की अपेक्षा वृद्धि हानि और अवस्थान विषय विभागको जानकर लगा लेना चाहिए । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कालको छोड़कर उसके आगे स्वस्थान सयत भावसे वर्तन नही करनेवालेके संक्लिष्ट विशुद्ध परिणामो के वशसे वृद्धि हानि और अवस्थान Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा ३४४ क्षपणासार २८४] प्रागे प्राचीन गुणश्रेणिके विशेष निर्देश करते हैं श्रोदरसुहमादीदो अपुवचरिमोत्ति गलिदसेसे व । गुणसेढी णिक्खेवो सहाणे होदि तिट्ठाणं ॥३४४॥ अर्थः-श्रेणिसे उतरते हुए सूक्ष्मसाम्परायकी आदिसे लेकर अपूर्वकरणके अन्त पर्यन्त गलितावशेष गुणश्रेणि निक्षेप होता है, किन्तु स्वस्थानसयमीके गुणश्रेणिके तीन स्थान होते है। विशेषार्थ-उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयसे लेकर अपर्वकरणके चरमसमयपर्यन्त ज्ञानावरणादिकर्मोका गुणश्रेणि-आयाम गलितावशेष है, क्योकि शेष शेषमे निक्षेप होता है। इतनी विशेषता है कि सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयसे लेकर कितने ही काल पर्यन्त गुणश्रेणियायाम अवस्थित होता है। पश्चात् अन्य कर्मोका गुणश्रेणि आयामके समान मोहनीयकर्मका गुणश्रेणी आयाम ‘ गलितावशेष होता है, क्योकि तीन स्थानोमे वृद्धिको प्राप्त होकर अवस्थित गुणश्रोणि आयाम होता है । यथा-उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयसे लेकर अवस्थित गुणश्रेणि आयाम ही है। तथा स्पर्धकरूप बादरलोभके द्रव्यके अपकर्षणमे एकबार गुणश्रेणि आयाम वृद्धिंगत होकर बादरलोभ वेदककाल पर्यन्त अवस्थित रहता है । मायाके द्रव्य का अपकर्षणमे दूसरोबार वृद्धिको प्राप्त होकर मायाके वेदककाल पर्यन्त अवस्थित गुणश्रोणि आयाम रहता है । मानके द्रव्यका अपकर्षणमे तीसरीबार बढकर मानके वेदककाल पर्यन्त अवस्थित गुणश्रेणि आयाम रहता है। इसप्रकार तीनबार अवस्थित गुणश्रेणि-आयाम होता है । पुन चौथीबार क्रोधके अपकर्षणमे बढकर अपूर्वकरणके अतपर्यन्त अन्यकर्मोके समान मोहनीयकर्मका भी गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम होता है । अध प्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पुराने गुणश्रेणि आयामसे संख्यातगुणा जानावरणादिकर्मोका अवस्थित गुणश्रेणि-आयाम होता है। अध प्रवृत्तकरणका जितना अन्तर्मुहूर्तप्रमारणकाल है उतने कालमे प्रतिसमय एकान्तरूपसे अनतगुणीहीन विशुद्धतासे उतरकर पश्चात स्वस्थान अप्रमत्त होता है । उससमय गुणश्रेणि के तीन स्थान होते है जिनका कथन आगे करते हैं।' १. ३. घ. मूल पत्र १६१४ सूत्र ५३७ की टीका। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८७ गाथा ३४८] क्षपणासार विशेषार्थः-उपशमश्रेणि पर आरोहण करते हुए अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथमसमयसे लेकर चारित्रमोहकी २१ प्रकृतियोका सर्वोपशम करके उतरते हुए पुनः प्राप्त अपूर्वकरणगुणस्थानके अन्तिमसमयतक जो कालका प्रमाण, उसकालसे संख्यात गुणित कालतक लौटता हुअा अध प्रवृत्तकरणके साथ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । अर्थात् उपशमश्र रिण चढने और उतरने में जितना काल लगता है उससे भी सख्यातगुणाकाल अप्रमत्तसयत नामक सातवे गुणस्थानका काल है । इस गाथाके द्वारा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालका महत्त्व बताया गया है।' तस्सम्मत्तद्धाए असंनम देससंजमं वापि । गच्छेज्जावलिछक्के लेसे सासणगुणं वापि ॥३४८॥ अर्थ--इस द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें गिरकर असंयमको प्राप्त हो जावे अथवा देशसयमको प्राप्त हो जावे अथवा छह प्रावलियोके शेष रहनेपर सासादनगुणस्थानको भी प्राप्त हो जावे । विशेषार्थ-उपशमश्रोणिसे उतरनेके पश्चात् अप्रमत्त-प्रमत्त गुणस्थानमें भ्रमण करते हुए यदि अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण दोनोप्रकारको कषायोका उदय हो जावे तो असयत नामक चतुर्थगुणस्थानमें तथा यदि मात्र प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय होजावे तो देशसयम नामक पंचमगुणस्थानमे अथवा देशसयमसे असंयम को या असयमसे देशसयमको अर्थात् दोनो गुणस्थानोको प्राप्त हो जावे । अथवा द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालमे उत्कृष्ट छह प्रावलिया और जघन्य एकसमय शेष रहने पर यदि परिणामोके कारण अनन्तानुबन्धी कषायकी सयोजना होकर उदय हो जावे तो सासादनगणस्थानमें आ जावे । जिसने विसंयोजनाके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्क को नि सत्त्व कर दिया है उसके भी परिणाम विशेषके कारण शेष कषायोका द्रव्य उसीसमय अनन्तानुबन्धी कषायरूपसे परिणमनकर अनन्तानुबन्धीकषायका उदय हो जाता है और वह सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । यह श्री यतिवृषभाचार्यका १. ज. ध मू. पृ. १६१५ सूत्र ५४१ । घ. पु ६ पृ ३३१ । ध. पु ५ पृ १४ पर अप्रमत्तगुणस्थानके अन्तरके कथनसे इस गाथाकी पुष्टि होती है । २. जयधवल मूल पृ १९१६ सूत्र ५४२-४३ । । ३. ज. प. पु. ४ पृ. २४, ज. ध पु १० पृ १२४ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] [गाया ३४६-४७ क्षपणासार सम्भव है, क्योकि विप्रतिषेधका अभाव है ।' अथानन्तर अवरोहक अप्रमत्तके अधःप्रवृत्तकरणमें संक्रम विशेषका कथन करते हैं ___ करणे अधापवत्त अधापवत्तो दु संकमी जादो। __विज्झादमबंधाणे णो गुणसंकमो तत्थ ॥३४६॥ ___ अर्थ-गिरते हुए अध प्रवृत्तकरणमे गुणसक्रमण नष्ट हो जाता है और अधःप्रवृत्तसक्रमण होने लगता है। अवन्ध प्रकृतियोका विध्यातसक्रमण होता है। विशेषार्थ-अपूर्वकरणसे उतरकर अध प्रवृत्तकरणमे प्रवेश करनेपर प्रथम समयमे गुणसक्रमण व्युच्छिन्न हो जाता है और बधनेवाली प्रकृतियोका अधःप्रवृत्तसक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। जिन प्रकृतियोंका वन्ध नहीं होता ऐसी नपुसकवेद आदि अप्रशस्त प्रकृतियोका विध्यातसंक्रमण होता है। अपूर्वकरणमे गुणसंक्रमण होता है। परिणामोमे विशुद्धिकी हानि होनेके कारण अब प्रवृत्तकरणमे गुणसक्रमण अर्थात् प्रत्येक समयमे द्रव्यका गुणाकाररूपसे सक्रमण होना रुक जाता है और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा भाजित द्रव्यका अधःप्रवृत्त सक्रमण प्रारम्भ हो जाता है। संज्वलनकषाय, पुरुषवेद आदि वंधनेवाली प्रकृतियोका अधःप्रवृत्तसंक्रमण होने लगता है। अबन्ध प्रकृतियोके द्रव्यको विध्यातभागहारका भाग देनेपर जो एकभागप्रमारण द्रव्य प्राप्त हो उतने द्रव्यका विध्यात संक्रमण होता है । अब दो गाथाओंम द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालका प्रमाण कहते हैं चडणोदरकालादो पुव्वादो पुठवगोत्ति संखगुणं । कालं अधापवत्तं पालदि सो उवसमं सम्मं ॥३४७॥ अर्थ-द्वितीयोपशम सम्यक्त्वसहित जीव चढते हुए अपूर्वकरणके प्रथमसमय से लेकर उतरते हुए अपूर्वकरणके अन्तिमसमयपर्यन्त जितनाकाल हुआ उससे सख्यातगुणाकाल अध.प्रवृत्त करणसहित इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको पालता है । १ जयधवल मूल पृ० १६१४ सूत्र ५३८-५३६ । २ जयघवल मूल पृ० १६१४, १० पु० ६ पृ० ३३०-३३१; क० पा० सुत्त पृ० ७२६ एवं घ० पु०६ पृ० ४०६। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३५१ ] [ २८६ स्थानको प्राप्त मनुष्य नरकगति, तिर्यचगति और मनुष्यगतिको प्राप्त नही होता, किन्तु नियम से देवगतिको प्राप्त होता है । पूर्वमें जिसने आयुका बन्ध नही किया उसका यहापर मरण सम्भव नही है' । क्षपणासार अब उपशमश्र णिसे उतरते हुए जीवके सासादनकी प्राप्तिके प्रभावका कथन करते हैं— उवसमसेढीदो पुरा दिरणो सासणं ण पाउणदि । भूद बलिया इम्मिलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥ ३५१ ॥ अर्थः-उपशमश्र ेणिसे उतरता हुआ सासादनगुणस्थानको प्राप्त नही होता ऐसा श्री भूतवलीमुनिनाथ द्वारा विरचित निर्मलसूत्रका प्रगट उपदेश है । ર विशेषार्थः — श्री गुणधराचार्यने गाथानों द्वारा कषाय पाहुड़की रचना की है जिसपर यतिवृषभाचार्यने चूर्णिसूत्रकी रचना की । उस 'चूर्णिसूत्रके अनुसार उपशम श्रेणिसे उतरता हुआ सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है और श्री वीरसेन आचार्यने भी कषायपाहुड़ पर लिखी गई अपनी जयधवला टीकामे पूर्ण समर्थन किया है जैसा कि जयधवल पु० ४ पृ० २४ व पु० १० पृ० १२४ से स्पष्ट है । श्री धरसेनाचार्यको द्वादशांगका एकदेश ज्ञान था । श्री पुष्पदन्त भूतबलो प्राचार्योंको द्वादशागके सूत्र श्रीधरसेनाचार्यसे प्राप्त हुए, जिनको उन्होने षट्खण्डागमरूपसे लिपिबद्ध किया उसपर भी वीरसेनाचार्यने ही धवला टीका रची । उस षट्खण्डागमका प्रथमखण्ड जीवस्थान है । तत्सम्बन्धी सत् प्ररुपणासूत्रोको तो श्री पुष्पदन्ताचार्यने लिपिवद्ध किया और शेष सूत्रोको श्री भूतबली प्राचार्यने लिपिबद्ध किया । जीवस्थान सम्बन्धी अन्तरानुगमका ७वां सूत्र इसप्रकार है—“ सासणसम्मादिट्ठिणमतरं केवचिर कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असखेज्जदि भागो ।” सासादन सम्यग्दृष्टि जीवका अन्तर कितने कालतक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपमके १. जयधवल मूल पृ० १६१६-१७ | क० पा० सुत्त पृ० ७२७ सूत्र ५४४-४६ । २. ६० पु० ५ पृ० ११ । ३. जइसो कसाय उवसामरणादोपरि वदिदो दंसणमोहरणीय उवसंतद्धाए अचरिमेसु समएसु श्रासाणं गच्छइ तदो आसारणगमरणादो से काले परणवीसं पयडीओ पविसंति । ( ज. घ. पु. १० पृ. १२३ ) Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] क्षपणासार [गाथा ३४६-५० मत उनके कषायपाहुड़ के चूणिसूत्रमें प्रतिपादित है, किन्तु षट्खण्डागमके कर्ता श्री पुष्पदन्त-भूतबलीका यह मत नही है।' अब द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसे सासादन प्राप्त जीवके मरणका कथन करते हुए उस सासादनगुणस्थानवी जीवका अन्य गतित्रयमें मरण नहीं होनेके कारणका निर्देश करते हैं जदि मरदि सासणो सो णिश्यतिरिक्खं णरं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥३४६।। णरतिरियक्खणराउ गसत्तो सक्कोण मोहमुवसमिदु । तम्हा तिसुवि गदीसु ण तस्स उप्पज्जणं हादि ॥३५०।। अर्थः--उपशमोरिणसे उतरा हुआ जो सासादन जीव है वह आयु नाशसे मरण करे तो नरक, तिर्यच व मनुष्यगतिको प्राप्त नही होता नियमसे देवगतिको ही प्राप्त होता है। इसप्रकार उपशमश्रणोसे उतरनेवाले जीवके सासादनगुणस्थानकी प्राप्ति और उसके मरण होनेका विशेष कथन कषायप्राभृतग्रन्थके चूर्णिसूत्रोमे यतिवृषभाचार्यने प्रतिपादित किया है उसीके अनुसार यहा कथन किया गया है। बध्यमान नरकायु, तिथंचायु और मनुष्यायुके सत्त्ववाले मनुष्यके मोहनीयकर्म का उपशम होना शक्य नहीं है इसलिए इन तीन गतियोमे उसका उत्पाद नही होता। विशेषार्थः-उपशमणिसे गिरनेवाला जीव सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो कर मरता है तो नरकगति, तिर्यचगति अथवा मनुष्यगतिको नही प्राप्त कर सकता, क्योकि ऐसा नियम है कि नरकायु, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु इन तीनो आयुमेसे किसी भी एक आयुको बांधनेवाला मनुष्य अणुव्रत-महाव्रत ग्रहण तथा कषायोका उपशम करनेमे समर्थ नहीं हो सकता। इसकारण उपशमश्रोणिसे उतरकर सासादनगुण१ "उवसमसेढोदो प्रोदिण्णाण सासणगमणाभावादो । त वि कुदो रणव्वदे ? एदम्हादो चेव भूदबली वयणादो। (घ० पु० ५ पृ० ११ ) २ भासाण पुणगदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुसदि । रिणयमा देवगदि गच्छदि । ( क पा सुत्त पृ ७२७ सूत्र ५४५ ) ३ "अण्णुव्वदमहव्वदाइ ण लहइ देवाउगं मोत्त " ( गो क गा ३३४ ), गो जी. गा ६५३; घ पु६ पृ ३२६, प्रा प स प्र. ६ गा. २०६, देवायके बन्ध बिना अन्य तीन आयुके बन्धवाला अणुनत-महाव्रत धारण नही कर सकता। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३५४-३६० ] [ २६१ जस्सुदयेणारूढो सेडिं तस्लेव ठविदि पढमठिदि । सेसाणावलिमेत्तमोत्तण करेदि अंतरं णियमा ॥३५४॥ जस्सुदयेणारूढो सेटि तकालपरिसमत्तीए । पढमहिदि करेदि हु अणंतरुवरुदयमोहस्स ॥३५५॥ माणोदएण चडिदो कोहं उसमदि कोह अद्धाए। मायोदएण चडिदो कोहं माणं सगाए ॥३५६॥ लोहोदएण चडिदो कोहं माणं च मायमुवसमदि । अप्पप्पण अद्धाणे ताणं पढमहिदी णस्थि ॥३५७॥ माणोदयचडपडिदो कोहोदयमाणमेत्तमाणुदो। माणतियाणं सेसे सेससमं कुणदि गुणसेढी ॥३५८॥ माणादितियाणुदये चडपडिदे सगसगुदयसंपत्ते । णवछत्तिकसायाणं गलिदवसेसं करोदि गुणसेढी ॥३५६॥ जस्सुदएण य चडिदो तम्हि य उक्कट्टियम्हि पडिऊण । अंतरमारे दि हु एवं पुरिसोदए चडिदो ॥३६०॥ अर्थः-पुरुषवेद सहित क्रोधोदयसे श्रेणि चढनेवालेके क्रोध-मान-माया-लोभकी पृथक्-पृथक प्रथम स्थिति होती है। मानोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके क्रोधका उदय न होने से क्रोध और मान इन दोनोकी प्रथमस्थितिप्रमाण मानकी प्रथमस्थिति होती है। मायोदयसे श्रेणि चढनेवालेके क्रोध मानका उदय नही अतः क्रोध-मान-माया इन तीन प्रथम स्थितिप्रमाण मायाकी प्रथमस्थिति होती है । लोभोदयसे श्रेरिण चढ़नेवालेके क्रोध-मान-मायाका उदय नही अतः लोभकी प्रथमस्थितिका प्रमाण क्रोध-मान-मायालोभ इन चारकी प्रथमस्थितिके तुल्य है ॥३५३।। जिस कषायके या वेदके उदयसे श्रेणि चढ़ता है उसकी अन्तमुहर्तप्रमाण प्रथमस्थितिको छोड़कर और शेष अनुदयरूप वेद व कषायोकी आवलिमात्र स्थितिको छोड़कर 'अन्तर' करता है' ॥३५४।। जिस १. देखो गाथा २४२ ( यही भाव है ); जयघवल पु० १३ पृ० २५३ । Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार [ गाथा ३५२-५३ असख्यातवेभागमात्र है । इस सूत्र पर शङ्का व समाधान इसप्रकार है- "सासरण - पच्छायदमिच्छाइट्ठि सजमं गेण्हाविय दसणतिय मुवसामिय पुरणो चरित्तमोहमुवसामेदूण हेट्ठा प्रोयरिय आसाण गदस्स अतोमुहुत्ततरं किण्ण परूविद ? ण उवसमसेढीदो श्रोदिण्णाणं सासणगमणाभावादो । तं वि कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव भूदबली वयरणादो' ।” २०] शङ्का – सासादनगुणस्थानसे पीछे लौटे हुए मिथ्यादृष्टिजीवको सयम ग्रहण कराकर और दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोका उपशामन कराकर पुन चारित्रमोहका उपशम कराकर नीचे उतारकर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके प्रतर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर क्यो नही बताया ? समाधान.—नही, क्योकि उपशमश्र णिसे उतरनेवाले जीवोके सासादनगुरणस्थान में गमन करनेका अभाव है । शङ्का - यह कैसे जाना ? समाधान:- भूतबली आचार्यके इसी वचनसे जाना जाता है । इसप्रकार अवरोहकके सासादनाभावका निर्णय किया गया । अथानन्तर उपशमश्र ेणि चढ़नेवाले १२ प्रकार के जीवोंकी क्रियामें पाये जाने वाले भेदका कथन १२ गाथाओंमें करते हैं- पु' को धोदय चलियरलेसाह परूवणा हु पुंमाणे । मायालोहे चलिदस्सत्थि विसेसं तु पत्तेयं ॥ ३५२ ॥ अर्थ - पूर्व में कही सर्व प्ररूपणा पुरुषवेद और क्रोधोदय सहित उपशमश्रेणी चढनेवाले जीवकी कही गई है । पुरुषवेद और सज्वलन मान, माया या लोभ सहित उपशमश्रेणि चढनेवाले जीवोमें से प्रत्येक की क्रिया विशेष है । उसीका कथन आगे करते हैं दोरहं तिराहूं चउरहं कोहादीणं तु पढमठिदिमित्तं । माणस्स य मायाए बादरलोहस्स पढमठिदी ॥ ३५३ ॥ १ ध. पु ५ पृ १०-११ । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३५४-६०] क्षपणासार [ २६३ क्रोधोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेसे मानकी प्रथमस्थितिमें विभिन्नता क्यों हुई ? समाधान-मानको इतनी लम्बी प्रथमस्थितिके बिना नव नोकषाय, तीनप्रकारके क्रोध और तीनप्रकारके मानकी उपशामनाक्रियामें समानता नही हो सकती थी। इसलिए मानोदयसे श्रेणि चढनेवालेके मानकी प्रथम स्थिति, क्रोधोदयसे श्रेणि चढनेवालेके क्रोध और मानकी प्रथमस्थितिके सदृश; जहांकी तहा होती है। मानोदयसे श्रेणि चढनेवालेके इससे ऊपर शेष कषाय अर्थात् माया व लोभकी उपशामना विधि वही है। अब उपशमश्रेणिसे गिरनेवालेके विषयमे विचार किया जाता है-मानकषायके उदयसे उपशमणि चढकर उपशान्तकषाय नामक ११वे गुणस्थानमें अन्तमुहूर्तकालतक ठहरकर गिरनेवाले जोवके जब कृष्टिगत व स्पर्धकगत तथा मायाका अपने-अपने स्थानपर वेदन करता है तबतक किंचित् भी नानापना ( विभिन्नता ) नहीं है, क्योकि वहांपर वही पूर्वोक्त अवस्थित आयामवाला गुणश्रेरिण निक्षेप व दोनों कषायोका अपने-अपने पूर्व वेदककालमें वेदन करता है।' उसके आगे मानका वेदन करनेवालेके विभिन्नता है । क्रोधोदयसे चढनेवाले व चढ़कर पुनः उतरनेवाले मानवेदकके अपने वेदककालसे कुछ अधिक अवस्थित गुणश्रेणि आयाममें निक्षेपणा होता है । क्रोधका अपकर्षण होनेपर बारह कषायोकी ज्ञानावरणादि कर्मोका गुणश्रोणिके सदृश प्रसारणवाले गलितावशेष गुणश्रेणि-आयाममे विन्यास होता है, किन्तु मानोदयसे चढ़नेवाले व चढकर पुन उतरनेवालेके तीनप्रकारके मानका अपकर्षण होनेके अनन्तर ही नवकषायोका, ज्ञानावरणादि कर्मोंकी गुणश्रेणिके सदृश आयामवाली गलितावशेष गुणश्रेणिमें निक्षेप होकर अन्तरको पूरा जाता है, इतनी विभिन्नता है। जिस कषायोदयसे श्रेण्यारोह करता है उसी कषायको अपकर्षित करनेपर अन्तरको भरना व ज्ञानावरणादिकी गुणश्रोणिके तुल्य उदयावलिसे बाहर गलितावशेष गुणश्रेणि निक्षेपका आरम्भ करता है । १. जयघवल मूल पृ० १६१७-१८ सूत्र ५४८-५५७ । २. ज. घ. मूल पृ. १९१६ सूत्र ५६० की टीका । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] क्षपणासार [ गाथा ३५४-६० कषायोदयसे श्रोणि चढता है उसका ( प्रथम स्थिति ) काल समाप्त होनेपर उपरि अनन्तरवर्ती उदयमे आनेवालो मोह ( कषाय ) की प्रथम स्थिति करता है ॥३५५॥ मानोदयसे श्रेणि चढनेवाला उदयरहित क्रोधको उसके काल में उपशमाता है, और मायासे श्रेणि चढनेवाला उदयरहित क्रोध और मानको उनके कालमे उपशमाता है ॥३५६।। लोभोदयसे श्रेणि चढनेवाला अनुदय स्वरूप क्रोध-मान-मायाको अपने-अपने कालमे उपशमाता है, उदयरहित कषायोकी प्रथमस्थिति नही होती ॥३५७॥ मानोदयसे श्रणि चढकर गिरनेवालेके क्रोध व मानके उदयकालप्रमाण मानोदयकाल होता है । त्रिविध मानकी गलितावशेष गुणश्रेणि होती है ॥३५८।। मान या माया अथवा लोभके उदयसे श्रेणि चढकर गिरनेवालेके अपनी-अपनी कषायके उदय होनेपर नव, छह, तीन कषायोकी गलितावशेष गुणश्रेणि होती है ।।३५६॥ जिस कषायोदयसहित चढकर गिरा हुआ जीव उस कषायको अपकर्षित कर अन्तरको पूरता है। यह पुरुषवेदोदयसहित जीवका कथन है ॥३६०॥ विशेषार्थः-पुरुषवेदोदयसहित क्रोध, मान, माया या लोभके उदयके साथ उपशमश्रोणि चढनेवालेके अधःप्रवृत्तकरणके प्रथमसमयसे लेकर अन्तरकरण करके नपु सकवेद व स्त्रीवेदके उपशमानेके अनन्तर सात नोकषायकी उपशामनाके अन्ततक कोई क्रोधसे श्रोणि चढ़नेवालेकी प्ररुपणा और अन्य कषायसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाले की प्ररुपरणामे कोई अन्तर नहीं है। क्रोधका वेदन ( अनुभव ) करते हुए उपशमश्रोणि चढनेवाला तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है, किन्तु मानोदयसे उपशमश्रेरिण चढनेवाला मानका वेदन करते हुए तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाता है। दोनोके क्रोधके उपशमानेका काल सदृश है नानापन नही है। क्रोधोदयवालेके जहांपर क्रोध का उपशमनकाल है वहीपर मानवालेके क्रोधका उपशामना काल है। क्रोधसे चढ़नेवालेके जिसप्रकार क्रोधकी प्रथमस्थिति अन्तर्मुहर्तप्रमाण थी उसप्रकार मानोदयसे श्रेणि चढनेवालेके क्रोधकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाली प्रथमस्थिति नही होती, किन्तु अन्तर करनेपर मानकी प्रथम स्थिति होतो है । क्रोधोदयसे श्रोणि चढ़नेवालेके जितनी कोच और मान दोनोको प्रथम स्थिति थी उतनी मानोदय श्रोणि चढनेवालेकी मानकी प्रथमस्थिति होती है । शंका-मानोदयसे श्रेणि चढनेवालेके मानकी प्रथमस्थितिमें वृद्धि होकर Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६१ ] क्षपणासार [ २६५ किन्तु मायोदयसे श्रेणि चढ़कर उतरनेवाले के तीनप्रकारकी मायाका और तीन प्रकारके लोभका गुणश्रेणि निक्षेप ज्ञानावरणादि कर्मो के सदृश होकर गुणश्र णिश्रायाम गलितावशेष होता है, यह यहापर विभिन्नता है । तथा मायाका वेदन करते हुए ही शेष (मान- क्रोध) कषायों का अपकर्षण करते है, किन्तु उनका गुणश्रेणिनिक्षेप उदयावलिसे बाहर होता है । लोभके उदयसे श्रेणि चढनेवालेकी विभिन्नता इसप्रकार है— अन्तरकरणके प्रथमसमयमें लोभकी प्रथमस्थितिको करता है । क्रोधसे रिण चढनेवाले के जितनी क्रोध की मानकी, माया की और लोभकी प्रथम स्थिति होती है लोभोदयसे श्र ेणि चढ़नेवालेके उतनी सज्वलनलोभकी प्रथम स्थिति होती है । शेष संज्वलन कषायोकी प्रथम - स्थिति नही होती, क्योकि उनका उदय नही है । सूक्ष्मसाम्पर थिक लोभके प्राप्त होने मे और उतरनेमे कोई विभिन्नता नही है, किन्तु गिरकर अनिवृत्तिकरण प्रवेशके प्रम समय में विभिन्नता है । श्रनिवृत्तिकरणमे प्रवेश करते ही लोभका अपकर्षणकर ज्ञानावरणादिकर्मोंकी गुणश्रेणिके तुल्य श्रायामवाला गुणश्रेणि निक्षेप करता है । जिस कषायोदय के साथ श्रेणि चढता है गिरनेपर जब उस कषायका अपकर्षण करता है तो गुण णिनिक्षेप श्रायाम ज्ञानावरणादिकी गुणश्र णिके तुल्य होकर अन्तर पूरा जाता है । लोभका वेदन करते हुए शेष कषायों का अपकर्षण करता है । सर्वकषायोका गुणश्र ेणि निक्षेप ज्ञानावरणादि कर्मोके गुणश्र णिनिक्षेपके तुल्य है । शेष शेष में निक्षेपण होता है अर्थात् गलितावशेष गुणश्र णि होती है । क्रोध कषायके उदयके साथ श्र ेणि चढनेवाले और उतरनेवालेसे शेष कषायोके साथ श्रेणि चढनेवाले व उतरनेवाले के यह विभिन्नता है । थी उदयस्त य एवं अवगदवेदो हु सत्त कम्मले । समसामदि संस्दए चडिदस्त वोच्छामि ॥ ३६१ ॥ अर्थः—स्त्रीवेदोदयसे श्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अपगतवेदो होकर सात नोकषायों को एकसाथ उपशमाता है । नपु सक वेदोदयसे श्रेणि चढनेवालेका आगे कथन किया जावेगा । विशेषार्थः—स्त्रीवेदोदयसे चारोंकषायो सहित चढ़नेवालेको प्ररूपणा पुरुष Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार २६४] [गाथा ३५४-६० क्रोधोदयसे श्रेणि चढे हुए उपशामकके पुनः गिरनेपर जितना मानवेदककाल है उतने प्रमाणकालसे मानोदयसे श्रेणि चढकर गिरनेपर मानको वेदनकर अनतर समयमें मानका वेदन करता हुआ एकसमयके द्वारा क्रोधको अनुपशांतकर अपकर्षण करता है । क्रोध से चढकर गिरनेवाला क्रोधोदयमे तीनप्रकारके क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधकी उदयादिगलितावशेष गुणश्रेणि करता है, कितु मानसे श्रेणि चढ़कर गिरनेवाला मानवेदन कालमे क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधकी उदयावलि बाहर गलितावशेष गुणश्रेणि है। इन दोनोमे यह विभिन्नता है ।' अर्थात् मानके साथ चढनेवालेके प्रथमसमय करता अवेदीसे लेकर जबतक क्रोधका उपशामनाकाल है तबतक विभिन्नता है तथा मानके साथ श्रेणि चढकर उतरनेवालेके मानको वेदन करते हुए तबतक विभिन्नता है जबतक क्रोधका अपकर्षण नही करता। क्रोधके अपकर्षण करनेपर क्रोधको उदयादि गुणश्रेणी नही होती। मान ही वेदा जाता है। क्रोधकी उदयादि गुणश्रेरिण नही है व मानका ही वेदन होता है ये दो नानात्व है। क्रोधके अपकर्षणसे लगाकार जवतक अध प्रवृत्त सयत होता है तबतक ये विभिन्नताएं होती है। क्रोधकषायके साथ उपशमरिण चढनेवालेके क्रोध, मान व मायाकी जितनी प्रथमस्थितिया होती हैं वे तीनो प्रथमस्थितिया यदि सम्मिलित कर दी जावे तो उतनी माया कषायके साथ उपशमश्रेणि चढनेवालेके माया कषायकी प्रथमस्थिति होती है व अन्तरकरण करने के प्रथमसमयमें मायाकी प्रथमस्थितिको करता है इस प्रथमस्थिति के अभ्यन्तर तीनप्रकारके क्रोधको और तीनप्रकारके मानको और तीनप्रकारकी माया को यथाक्रम उपशमाता है। तदनन्तर लोभको उपशमाता है उसमें कोई अन्तर नही है। मायाके साथ उपशमश्रेणि चढकर उतरनेवालेके लोभके वेदनकालतक कोई विभिन्नता नही है। उसके पश्चात् विभिन्नता है। क्रोधके साथ श्रेणि चढकर उतरनेवालेके मायाकी प्रथमस्थिति मायावेदककालसे आवलिप्रमाण अधिक ही होती है, १ ज. घ. मूल पृ० १६१६ सूत्र ५६१-६२ । २. सूत्र ५६७ । ३. ज घ. मूल पृ १६२१ सूत्र ५७२। ४. ज. घ. मूल १६२१ । क पा सुत्त पृ ७२६-३०,ध पु ६ पृ ३३३ । ज घ. मूल पृ. १९२४ । घपु ६ पृ ३३४; क. पा सुत्त पृ ७३० । 55 Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६४-६५) क्षपणासार [२९७ वहांसे स्त्रीवेदकी भी उपशामना प्रारम्भ कर देता है। दोनोंका उपशम करता हुआ प्रथम स्थितिका चरमसमय अर्थात् स्त्रीवेदका उपशामनाकाल पूर्ण होनेपर नपुसकवेद व स्त्रीवेद दोनोंको एक साथ उपशमा देता है, यह एक विभिन्नता है। इसके पश्चात् अपगतवेदी होकर युगपत सात नोकषायोको उपशमाता है । सातो नोकषायोका उपशामनाकाल तुल्य है। यह दूसरी विभिन्नता है इसीसे उतरनेवालेकी विभिन्नता जान लेनी चाहिए।' आगे उपशमश्रेणीमें अल्पबहुत्वके कथनकी प्रतिज्ञारूप गाथा कहते हैंपुकोहस्त य उदए चडपलिदेऽपुव्वदों अपुव्वोत्ति । एदिस्से अद्धाणं अप्पाबहुगं तु वोच्छामि ॥३६४।। अर्थः-पुरुषवेद और क्रोधकषायोदय सहित श्रेणि चढकर गिरनेवाला जीवके आरोहक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अवरोहक अपूर्वकरणके चरमसमयपर्यंत इस मध्यवर्ती कालमें जो काल संयुक्त पद हैं, उनके अल्पबहुत्व स्थानोका आगे कथन करेंगे। विशेषार्थ:-यहां श्रोणि चढनेवालेको आरोहक और उतरनेवालेको अवरोहक जानना। तथा अल्पबहुत्वमें जहां विशेष अधिक कहा है वहा पूर्वसे कुछ अधिक जानना ।२ अथानन्तर २७ गाथाओं द्वारा अल्पबहुत्व स्थानोंका कथन करते हैं अबरादो वरमहियं खंडुक्कीरणस्स अद्धाणं । संखगुणं अवरट्ठिदिखंडस्सुक्कीरणो कालो ॥३६५।। अर्थ:-जघन्य अनुभाग काण्डोत्कीरण कालसे (१) उत्कृष्ट अनुभागकाण्डोकीरणकाल विशेष अधिक है (२) इससे जघन्य स्थितिकाण्डोत्कीरण काल संख्यातगुणा है । (३) विशेषार्थः-सबसे स्तोक जघन्य अनुभाग कांडोत्कीरणकाल अन्तर्मुहर्तप्रमाण है सो यही ज्ञानावरणादि कर्मोका तो आरोहक-सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम अनुभाग१ जयधवल मूल पृ० १९२५ । २. जयधवल मूल पृ० १९२५ । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] क्षपणासार [गाथा ३६२-६३ वेदोदयसे चढनेवालेके समान जानना, किन्तु पुरुषवेदोदयवालेके' छह नो कषायके उपशामनाकालसे पुरुषवेदका उपशामनाकाल एकसमयकम दो वलि अधिक है, क्योकि एक समयकम दोग्रावलिकालमें पुरुषवेदके नवकबन्धको उपशमाता है। स्त्री वेदोदयसे श्रेणि चढ़नेवाला स्त्रीवेदकी प्रथमस्थितिको गलाकर तदनन्तर समयमें अपगतवेदी हो पुरुपवेदका अबन्ध होकर अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा सात नो कषायोको एक साथ उपशमाता है तथा सातो हो का उपशमनकाल तुल्य है । यह विभिन्नता है । इसीप्रकार स्त्रीवेदके उतरते समय भी कुछ विशेषता है सो जानकर कहना चाहिए।' संदुदयंतरकरणो संढद्धाणम्हि अणुवसंत से । इथिस्स य अद्धाए संढं इत्थिं च समगमुवसमदि ॥३६२॥ ताहे चरिमसवेदो अवगदवेदो हु सत्तकम्मंसे । सममुवसामदि सेसा पुरिसोदयचडिदभंगा हु ॥३६३॥ अर्थः-नपुसकवेदोदयसे उपशमश्रेणि चढ़नेवाला अन्तरकरणके पश्चात् नपु सकवेदको उपशमाता हुआ भी पुरुषवेदोदयवालेके नपुसक-उपशान्तकालमें पूर्ण नही उपशमाता अत जो अनुपशांत अंश रह जाता है उसको स्त्रीवेद उपशांतकाल में स्त्रीवेद के साथ उपशमाता हुआ सवेदभागके चरम समयको प्राप्त हो जाता है। अनन्तर अपगतवेदी होकर सातकर्मोको एक साथ उपशमाता है। शेष पुरुषवेदोदय सहित श्रेणि चढनेवालेके समान भङ्ग है । विशेषार्थ-पुरुषवेदोदयसे उपशमश्रोणि चढनेवाला पूर्वमे नपुसकवेदको उपशमाकर तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकालके द्वारा स्त्रीवेदको उपशमाता है । नपुसकवेदोदयसे चढनेवाला प्रथमस्थितिको करता है । जितना नपु सकवेद व स्त्रीवेद दोनोंका उपशामनाकाल है उतना प्रथमस्थितिका प्रमाण है। प्रथमस्थितिमें नपुंसकवेदको उपशमाना प्रारम्भ करता है। पुरुषवेदवाके जितना नपुंसकवेदका जितना उपशामनाकाल है उतनाकाल बीत जाता है तोभी नपुंसकवेदकी उपशामना समाप्त नहीं होती। १ पुरुषवेदी सवेदी होता हुआ ही सात कषायोको उपशमाता है । (ज. घ. मूल पृ. १९२४) २ रश्यताम् ज. घ. मूल पत्र १६३० । ३. जवधवल मूल पृ. १९२४ । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } गाथा ३६७-६८] क्षपरेणासार [ २६६ तुल्य होकर विशेष अधिक है, क्योकि उपरिम स्थितिबन्धकाल से नीचेका स्थितिबन्ध - काल यथाक्रम विशेष अधिक होता है (५) । इससे आरोहक के प्रपूर्वकरण के प्रथम - समय में स्थितिका उत्कृष्ट बधकाल और उत्कृष्ट काण्डकोत्कोररणकाल विशेष अधिक है । सुहमंतिमगुणसेढी उवसंत कसायगस्स गुणसेढी | "पविद्धाविय तिरियवि संखेजगुणिदकमा || ३६७॥ अर्थ—( इससे ) चरमसमयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकका गुणश्रेणि निक्षेप सख्यातगुणा है (७) । इससे उपशान्तकषायका गुण-श्रेणिनिक्षेप सख्यातगुणा है ( ८ ) 1 इससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायका 'कार्ल' सख्यातगुणा है ( 8 ) | ये तीनो क्रमसे सख्यातगुण है । 1 " विशेषार्थः''''उससे सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिमसमयमे पाया जानेवाला गलितावशेष गुणश्रेणी-आयाम सख्यातगुणा है, क्योकि अपूर्वकरणके प्रथमसमय में गुणश्र ेणिनिक्षेप अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायसे विशेष अधिक या वह गलकर सूक्ष्मसाम्परायके चरमसमयमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण रह गया । इसको गुण गिशीर्ष भी कहा गया है, क्योकि नीचे गलकर शेष गुणश्रेणिनिक्षेप शीर्ष भावसे देखे जाते है (७)। इससे उपशान्तकषायका गुणश्र ेणि-आयाम संख्यातगुणा है । यद्यपि यह काल उपशांतकषाय कालके ‘सख्यातवेभाग है, किन्तु - पूर्व गुण णिशीर्षसे सख्यातगुणा है ( 5 ) 1 उससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्पराय काकाल सख्यातगुणा है, क्योकि पूर्वमे सूक्ष्मसाम्परायका संख्यातवां भाग काल था । (2)- 13 तग्गुणसेडी अहिया चलसुमो किहिउवसमा य । सुहुस्स य पढमठिदी तिरिणवि सरिसां विसेसाहियां ॥ ३६८ ॥ अर्थः— इससे उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिककी गुणये णि विशेष अधिक (१०) । इससे चढनेवालेका सूक्ष्मसाम्परायकाल, कृष्टि उपशमानेका काल र १ ज. ध. मूल. पृ० १६२६-२७ । २. ज. घ. पू. १६२७ 1 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ क्षपणासार -गाथा-३६६ कांडकोत्कोरण- जानना और मोहनीयकर्मका अन्तर- करते हुए अन्तिम अनुभाग काण्डकोत्कोरणकाल जानना (१) । इससे उत्कृष्ट अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है सो यह भी सर्व कर्मोके आरोहक-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भव है (२) । इससे सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम अवस्थामें पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि कर्मोका जघन्य स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल और अनिवृत्तिकरणको अन्तिम अवस्थामे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धकाल सख्यातगुणा' है तथा दोनों परस्पर समान हैं (३)। अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमयके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध नही होता।" पडणजहरणट्ठिदिबंधद्धा तह अंतरस्स करणद्धा । जेहिदिबंधठिदीउक्कीरद्धा य अहियकमा ॥३६६॥ : - अर्थः-इससे गिरते हुएका जघन्य स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है (४)। 'इससे अन्तर करनेका विशेष अधिक है (५)। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल व उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल दो तुल्य होकर विशेष अधिक है (६) । - विशेषार्थः-उससे अवरोहकके सूक्ष्मसाम्परायमें ज्ञानावरणादि कर्मोका प्रथमस्थितिवन्ध और अवरोहकके अनिवृत्तिकरणमे मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिबन्ध विणेप अधिक है, क्योकि चढनेवाले के स्थितिबन्ध कालसे उतरनेवालेका स्थितिबन्धकाल विशेप अधिक होता है, इसमे कारण सक्लेश परिणाम हैं.। अवरोहकके सभी अवस्थानोमे स्थितिघात व अनुभागधात नही होता। यदि होता है तो स्थितिबन्धकालके साथ स्थितिकाण्डोत्कोरंणकालको भो कहना चाहिए और ऐसा नही, क्योकि ऐसा अनुपदिष्ट है (४)। उससे अन्तरकरणका काल अर्थात् अन्तरकी फालियोका उत्कीरणकाल तथा वहापर होने वाला स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल १. इनका पूर्व वाले से अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कोरण कालसे संख्यातगुणत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योकि सर्वजघन्य एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमें भी संख्यात सहस्र प्रमाण अनुभागखण्ड फे अस्तित्वके उपदेशके बलसे इसकी सिद्धि हो जाती है । (ज ध' मूल पृ. १९२६) २. जयघवल मूल पृ० १९२६ । ३. जयवदल मूल पृ० १६२६, १९१३, १६३७ प्रादि । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा ३७१] क्षपणासार [ ३०१ प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (१६) । उतरनेवालेके लोभवेदककाल विशेष अधिक है (१७) । उसीके लोभकी प्रथम स्थिति विशेषअधिक है (१८)।' विशेषार्थ- इससे प्रारोहक बादरसाम्परायिकके बादरलोभ वेदककाल विशेष अधिक है। यद्यपि पूर्वका स्थान भी लोभवेदककालका द्वि त्रिभाग (3) है और वर्तमानकाल भी लोभवेदककालका द्वि त्रिभाग (3) है तथापि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उतरनेवालेकी अपेक्षा चढनेवालेका काल विशेष अधिक होता है (१५) । उससे प्रारोहक अनिवृत्तिकरणके बादरलोभका प्रथमस्थिति सम्बन्धी आयाम विशेष अधिक है, विशेषाधिकका प्रमाण पावलीमात्र है । इसका कारण यह है कि आरोहक अनिवृत्तिकरण चारों सज्वलनोके अपने-अपने वेदककालसे उच्छिष्टावलिमात्र अधिक प्रथम स्थिति विन्यास करता है (१६) । उससे गिरनेवालेके लोभका वेदककाल विशेष अधिक है, क्योकि इसमे सूक्ष्मसाम्परायकाल भी सम्मिलित है (१७) । उससे उतरने वालेके लोभकी प्रथमस्थितिका आयाम आवलीमात्र अधिक है (१८) ।' तम्मायावेदद्धा पडिवडकण्हपि खित्तगुणसेढी । तम्माणवेदगद्धा तस्स णवण्हंपि गुणसेढी ॥३७१॥ अर्थः-उतरनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है (१९) । उतरने वालेके छह कर्मोका गणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (२०)। उतरनेवालेका मान वेदककाल विशेष अधिक है (२१)। उन्हीके नौ कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (२२)। विशेषार्थ-उससे उत्तरनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है, क्योकि १. १८वे नं० का स्थान कषायपाहुड सुत्तमे नही कहा गया है । लब्धिसारके कर्त्ताने भी गिरनेवालेके माया, मान और क्रोधकी प्रथम स्थतिका कथन नहीं किया है । सम्भव है उतरनेवालेके कपायका अपकर्षण होकर उदय पानेसे उस कषाय सम्बन्धी अन्तर नही रहता हो इसीलिए चूणिसूत्रकार ने उतरनेवालेके लोभ, माया, मान व क्रोधको प्रथमस्थितिका कथन नही किया है। स्वय नेमिचन्द्राचार्य ने भी उतरनेवालेके माया, मान व क्रोधकी प्रथमस्थितिका कथन नही किया। इस गाथाका मिलान मूडबिद्री स्थित ताड़पत्रीय प्रतिसे होना अत्यन्त अपेक्षित है। २. जयधवल मूल पृ. १६२८ । १८वे नं० का स्थान जयघवल में नहीं है। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] [ गाथा ३६९-७० सूक्ष्मसाम्परायिककी प्रथम स्थिति ये तीनो परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक (११) । विशेषार्थ :- इससे गिरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायके लोभका गुणश्रेणि आयाम आवलीमात्र विशेष अधिक है, क्योकि सूक्ष्मसाम्परायके कालसे आवलिमात्र ज्यादा लोभका गुण रिगनिक्षेप होता है (१०) । उससे आरोहक सूक्ष्मसाम्परायका काल, सूक्ष्मकृष्टि उपशमावनेका काल और सूक्ष्मसाम्परायका प्रथम स्थितिप्रायाम यथासम्भव अन्तर्मुहूर्तमात्र विशेष अधिक है । ये तीनो परस्पर तुल्य हैं। अधिकताका कारण यह है कि अवरोह से आरोहकका प्रत्येककाल अधिक है ( ११ ) ।' क्षपणासार किट्टीकरणद्धहिया पडवादरलोह वेदगडा हु । संखगुणा तस्सेव य तिलोहगुण से डिणिक्खे || ३६६ ॥ अर्थ - कृष्टिकरणकाल विशेष अधिक है ( १२ ) । उतरनेवालेका बादरलोभ वेदककाल सख्यातगुणा है (१३) । उसीके तीनो लोभका गुणश्र ेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (१४) । विशेषार्थ :- उससे सूक्ष्मकृष्टिकरनेका काल विशेष अधिक है । यद्यपि यह काल लोभवेदककालका विभाग है तथापि उपरिम तिहाई काल (सूक्ष्मसाम्परायकाल) से निचला ( कृष्टिकरणकाल ) विशेष अधिक है ( १२ ) । उससे गिरनेवाले बादर साम्परायके बादरलोभका वेदककाल संख्यातगुणा है, क्योकि बादरलोभ वेदककाल, लोभवेदककालका द्वि त्रिभाग ( 3 ) है । श्रतः पूर्व के त्रिभागसे दो गुणा है (१३) । उससे गिरनेवाले के लोभवेदककालसे तीन लोभकी गुणश्र रिण आयाम आवलिमात्र अधिक है, क्योकि वेदक कालसे प्रावलिप्रमाण अधिक कालसे गुणश्रेणि निक्षेप होता है (१४) । चडवादरलोहस् य वेद्गकालो य तस्स पढमठिदी । पडलोंदवेदगडा तस्सेव य लोहपढमठिदी ॥ ३७० ॥ अर्थ —चढनेवालेके वादरलोभ वेदककाल विशेष अधिक है (१५) । उसीको १. ज ६ मूल पृ १६२८-२६ । २ ज. मूल पृ० १६२८ । Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७२-७३] क्षपणासार ( हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ) का उपशामनकाल विशेष अधिक है (३०) । पुरुषवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३१) । स्त्रीवेदका उपशामनकाल विशेष अधिक है (३२) । नपुंसकवेदका उपशामनकाल विशेषअधिक है (३३)। क्षुद्रभव विशेष अधिक है (३४)। इसप्रकार २१ पद विशेष अधिक क्रमसे है । - विशेषार्थ-उससे क्रोधके उपशमानेका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक है, क्योकि ऊपरके कालसे नीचेका काल अधिक होता है (२६) । उससे छह नोकषायके उपशमाने का काल अन्तर्मुहूर्त अधिक है, क्योकि यह पूर्वसे नीचेका स्थान है (३०)। इससे पुरुषवेदके उपशमानेका काल नवकसमयप्रबद्धकी अपेक्षा एकसमयकम दोग्रावलि अधिक है (३१) इससे स्त्रीवेद उपशमानेका काल विशेष अधिक है (३२) इससे नपुसकवेद उपशमानेका काल विशेष अधिक है, क्योकि ये दोनो ही स्थान अधस्तन न( निचरले ) स्थान है, इसलिए विशेषाधिक हो गए है (३३) । इससे क्षुद्रभवकाकाल विशेष अधिक है (३४)। शङ्काः क्षुद्रभवग्रहण क्या है ? -, समाधान, सबसे छोटे भवग्रहणको क्षुद्रभव कहते हैं और यह एक उच्छवास ( सख्यात प्रावलि समूह निष्पन्न ) के साधिक अठारहवेभागप्रमाण होता हुआ संख्यात पावली सहस्रप्रमाण होता है ऐसा जानना चाहिए । तद्यथा 'तिणिसया छत्तोसा छासठिसहस्समेव मरणारिण। अंतोमुत्तकाले तावदिया चेघ खुद्दभवा ।।' ' तिण्णिसहस्सा सत्तयसदारिण तेवतरि च उस्सासा। ., एसो हवह मुहुत्तो सन्वेसिं चेव मणुप्राण ॥. --एक अन्तर्मुहूर्तकालमें. ६६३३६ क्षुद्रमरण होते है और उतने ही क्षुद्रभव होते हैं। "सभी मनुष्योके ३७७३ उच्छ्वासोका एक मुहूर्त होता है" इस वचनके अनुसार एक मुहूर्तके भीतर ६६३३६. क्षुल्लक (क्षुद्र :) भव होते है ।' एकमुहूर्तके १ घ. पु१४ पृ. ३६२ गाथा २०; गो जी. गा. १२३; भावपाहुड़गाथा २६ । २. धवल पु.१४ प. ३६२ गा.१६ ।। . . ३. "इदिवयणादो एगमुहुत्तभंतरे एत्तियाणि खुद्दाभवग्गहणाणि होति ६६३३६ ।" (घ पु १४ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] क्षेपणासार [गाथा ३७२-७३ ऊपरितन स्थानसे नीचेका स्थान यथाक्रम विशेष अधिक होता है (१६) । उससे उतरनेवाले मायावेदकके छह (३लोभ, ३माया) कषायोका गुणश्रेणि आयाम प्रावलि से अधिक है (२०)। उससे पड़ने (गिरने) वालेके मानवेदककाल विशेष अधिक है (२१)। उससे उसीके नव (३ लोभ, ३ माया, ३ मान) कषायोंका गुणश्रेणिआयाम प्रावलिसे अधिक है (२२)।' . . . . . . . . चडमायावेदद्धा पढमट्ठिदिमायउवसमद्धा य ।। चलमाणवेदगद्धा पढमट्ठिदिमाणउवसमद्धा य ॥३७२॥ .. अर्थः-चढनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है (२३)।- मायाकी प्रथम स्थिति विशेषअधिक है (२४) । मायाका उपशामनकाल विशेषअधिक है (२५.)। चढनेवालेका मानवेदककाल विशेषअधिक है (२६) ।मानकी प्रथमस्थिति विशेषअधिक है (२७) । मानका उपशामन काल विशेष अधिक है (२८) . . . . विशेषार्थः--उससे चढनेवालेके मायावेदककाल विशेष अधिक है, क्योकि चढनेवालेका काल विशेष अधिक होता है (२३) । उससे उसके प्रथमस्थितिका आयाम उच्छिष्टावलिसे अधिक है (२४)। उससे मायाके उपशमानेका काल एक समयकम आवलिमात्र अधिक है, क्योकि नवक समयप्रबद्धकी अपेक्षा है (२५) । उससे चढनेवालेके मानवेदककाल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक है (२६) । 'उससे उसकी प्रथम स्थिति का आयाम उच्छिष्टावलिमात्र अधिक है (२७)। उससे उसके मान उपशमावनेका काल एकसमयकम आवलिमात्र अधिक है, क्योकि नवकसमयप्रबद्धकी अपेक्षा है। (नवकसमयप्रबद्ध एक समयकम दो आवलि) :( समयकम दो आवलि-- उच्छिष्टावलि = समयकम प्रावलि ) ॥२८॥ . कोहोवसामणद्धा छप्पुरिसित्थीण उवसमाणं च। ... खुद्दभवगहणं च य अहियकमा एक्कवीसपदा ॥३७३।। . अर्थ-क्रोधका उपशामनकाल विशेष अधिक है (२६) 1. छट नोकपायो १. जयधवल मूल पृ. १६२६ । २. ज घ. मूल पृ. १६३०। । . Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३७५-७६ ] [ ३०५ उपशमनकालोसे अधिक है (३८) । ३६-३७ व ३८वा ये तीन पद अधिकक्रमसे है। पडणस्त असंखाणं समयपबद्धाणुदीरणाकालो। संखगुणो चडणस्स य तक्कालो होदि अहिया य ॥३७५॥ अर्थः-उससे गिरनेवालेके असंख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा होनेका काल सख्यातगुणा है (३६) । उससे चढनेवालेके असख्यात समयप्रबद्धको उदीरणा होनेका काल अन्तर्मुहूर्तमात्र अधिक है (४०) । विशेषार्थः-उपशमश्रेणिसे गिरनेवालेके जबतक असख्यात समय प्रबद्धोकी उदीरणा होती है तबतकका वह काल मोहनीयके उपशामनकालसे सख्यातगुणा है, क्योकि नीचे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्परायसे लेकर अन्तरकरणके स्थानसे नीचे वीर्यान्तराय आदि बारह कर्मोका सर्वघाति अनुभागबन्ध करके पुन. उसके नीचे सख्यातहजार स्थितिबन्ध होजाने तक इतना काल असंख्यात समयप्रबद्ध उदीरणाका है (३६) । उपशमश्रेणि चढनेवालोके जबतक असख्यात समयप्रबद्धोकी उदीरणा होती है तबतक का वह काल पूर्वकालसे अधिक है, क्योंकि चढनेवाला जहांपर असख्यात समयप्रबद्धकी उदीरणा प्रारम्भ करता है उस स्थानको अन्तर्मुहूर्त द्वारा पाकर उतरते हुएके असख्यात लोक प्रतिभागवाली उदीरणा प्रारम्भ होजाती है इसकारण इसका पूर्वस्थानसे विशेषाधिकत्व विरुद्ध नही है। पडणाणियट्टियद्धा संखगुणा चडणगा विसेसहिया। पडमाणा पुव्वद्धा संखगुणा चडणगा अहिया ॥३७६॥ अथ -उससे गिरनेवालेके अनिवृत्तिकरणकाकाल सख्यातगुणा है, क्योकि पूर्वोक्त सर्वपद अनिवृत्तिकरणके सख्यातवेभाग है (४१)। उससे चढनेवालेके अनिवृत्तिकरणका काल अन्तर्मुहूर्तमात्रसे अधिक है (४२)। उससे गिरनेवालेके अपूर्व १. ज घ. मूल पृ १६३१ । २ ज.ध. मूल पृ० १६३१ । क्योकि भन्तरकरणादि उपरिम अशेष अध्वानको देखते हए सख्या गुणे नीचे के अध्वानका प्रधानभावसे यहा विवक्षितपना है । ३. ज. ध मूल पृ. १६३१ । Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] क्षपरणासारा [ गाथा ३७४ ३७७३ उच्छ्वास स्थापित करके इन्हें पूर्वगाथा निर्दिष्टप्रमाण एक मुहूर्तकी खुद्दाभवग्रहण शलाकामोसे अपवर्तित करनेपर एक उच्छ्वासका साधिक भागप्रमाण क्षुद्रभवग्रहणका काल जानना चाहिए। इसप्रकार प्राप्त इस क्षुद्रभवग्रहण में सख्यातआवलि होती है। वह इसप्रकार है-( यदि अन्यमतानुसार ) एक उच्छ्वासकालके भीतर जघन्यसे २१६ श्रावलि मानी जाती है तो क्षुद्रभवग्रहणकाल सासादनके कालसे दुगुनामात्र प्राप्त होता है, जो अनिष्ट है, क्योकि सासादनगुणस्थानके कालसे सख्यातगुणे नीचेके कालसे इसका बहुत्व अन्यथा नही उत्पन्न होता इस कारण; यहां प्रावलिका गुणकार बहुत है अत सख्यातहजार कोडाकोडीप्रमाण प्रावलियोसे ( जहां कि एक आवलि भी जघन्ययुक्तासख्यात समयप्रमाण होती है ) एक उच्छ्वास निष्पन्न होता है एवं उसका कुछकम १८वे भागप्रमाण ( वा भाग) क्षुद्रभवग्रहण होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । इसकारण नपुसकवेदोपशनकालसे क्षुद्रभवग्रहणकाल विशेषाधिक है ऐसा उचित है।' उवसंतद्धा दुगुणा तत्तो पुरिसस्स कोहपढमठिदी। मोहोवसामणद्धा तिरिणवि अहियक्कमा होति ॥३७४॥ अर्थः-उपशान्तकाल दुगुणा है (३५)। पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति विशेष अधिक है (३६) । क्रोधकी प्रथम स्थिति विशेष अधिक है (३७) मोहनीयका उपशामन काल विशेष अधिक है (३८) । तीनपद अधिक क्रमसे हैं। विशेषार्थः-उस क्षुद्रभवसे उपशातकषायका काल दुगुणा है जो एक सेकिण्ड का वारहवां भाग [ से किण्ड] है [३५] । उससे पुरुषवेदकी प्रथमस्थितिका आयाम विशेष अधिक है, क्योकि नपु सकवेदके उपशमानेकाकाल, स्त्रीवेदके उपशमानेकाकाल और छह नोकषायोके उपशमानेका काल इनतीनो कालोका समूह पुरुषवेदकी प्रथमस्थिति है [३६] । उससे सज्वलनक्रोधकी प्रथमस्थितिका आयाम किंचित् न्यून त्रिभागमात्रसे अधिक है, क्योकि क्रोधके उपशामनाकालमे भी पुरुषवेदका प्रवेश देखा जाता है [३७] । उससे सर्वमोहनीयका उपशमावनेका काल है, वह मान-माया-लोभके १ जयघवल मूल पृ० १६३० । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३७६ ] क्षपणासार [ ३०७ गुणी है (५०) । दर्शनमोहनीयकी अन्तरस्थितिया सख्यातगुणी हैं (५१) । विशेषार्थः-अवरोहक अध प्रवृत्तसयमीके प्रथम समयमे जिस गुणश्रेणि आयामका प्रारम्भ होता है वह पूर्वोक्त गुणश्रेणिनिक्षेप आयामसे संख्यातगुणा है, क्योकि स्वसस्थानसंयम परिणामकी प्रधानता है। उससे दर्शनमोहनीयका उपशान्तकाल अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकाकाल संख्यात गुणा है क्योकि श्रेणि चढ़ने और उतरनेके कालसे, श्रेणोसे पूर्व व पश्चात् सख्यातगुणे कालमे भी द्वितीयोपशम सम्यक्त्व पाया जाता है। अर्थात् द्वितीयोपशम सम्यक्त्व श्रोणि चढने से पूर्व उत्पन्न हो जाता है। इस कालका प्रमाण श्रेणीके चढने उतरनेके कालसे सख्यातगुणा है और श्रेणी उतरने के पश्चात् भी श्रेणीके कालसे सख्यातगुणे कालतक द्वितीयोपशम सम्यक्त्व रहता है। इसप्रकार द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल, श्रेणी चढने व उतरने के कालसे सख्यातगणा है। उससे चारित्रमोहकी जिन स्थितिनिषेकोको उत्कीर्ण करके अन्तर किया जाता है वह अन्तरायाम सख्यातगुणा है। उससे दर्शनमोहका अन्तर करते हुए जिन स्थिति निषेकोका आयाम अर्थात् अन्तरायाम संख्यातगुणा है।' नोट-यहॉपर अन्तरायामका काल द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके कालसे अधिक कहा, किन्तु उस अन्तरायामके कालमे दर्शनमोहकी किसी एक प्रकृतिको अपकर्षणके द्वारा उदीरणा कर अन्तरायामका काल समाप्त कर दिया जाता है। भवराजेट्टाबाहा चडपडमोहस्स अवरठिदिबंधो। चडपडतिघादि अवरट्ठिदिबंधतो मुहुत्तो य ॥३७६॥ अर्थ - जघन्य आबाधा सख्यातगुणो है (५२) । उत्कृष्ट आबाधा संख्यातगुणी है (५३) । चढनेवालेके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५४) । उतरनेवालेके मोहनीयका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है ( ५५ ) । चढनेवालेके तीन घातियाकर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है (५६) । उतरनेवाले के तीन घातियाकर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (५७) । अतर्मुहूर्त सख्यातगुणा है । विशेषार्थ-उससे चढ़नेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमे पाये जानेवाले ज्ञानावरणादि कर्मोंके और अनिवृत्तिकरण उपशामकके चरमसमयमे पाये जाने१. जयधवल मूल पृ० १६३२-३३ । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ क्षपणासार [गाया ३७७-७८ करणका काल संख्यातगुणा है (४३) । उससे चढनेवालेके अपूर्वकरणकाकाल ( अन्तमुहूर्त ) अधिक है।' पडिवडवरगुणसेढी चढमाणापुवपढमगुणसेढी । अहियकमा उक्सामगकोहस्स य वेदगद्धा हु ॥३७७॥ अर्थः-गिरनेवालेका उत्कृष्ट गुणश्रेणिनिक्षेप विशेष अधिक है (४५) । चढनेवालेका अपूर्वकरणके प्रथम समयमे गुणश्रेणि निक्षेप विशेप अधिक है (४६) । उपशामकके क्रोधवेदककाल सख्यातगुणा है (४७) । विशेषार्थ:-उससे गिरनेवाले के सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमे प्रारम्भ किया गया उत्कृष्ट गुणश्रेणि आयाम विशेष अधिक है, क्योकि यह अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायअनिवृत्तिकरण-अपूर्वकरण व उपशमनाकालके सख्यातवेभाग इन कालोका समूहप्रमाण है (४५)। उससे चढनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे प्रारम्भ हुआ उत्कृष्ट गुणश्रेणि आयाम अन्तर्मुहर्तसे अधिक है। यह भी अपूर्वकरण-अनिवृत्तिकरण-सूक्ष्मसाम्परायके कालसे अन्तर्मुहर्तप्रमाण अधिक है, किन्तु उतरनेवालेके कालसे चढनेवालेके कालका विशेषाधिकपना है ऐसा समझकर पूर्वसे यह अधिक कहा है ।।४६।। उससे चढनेवालेके क्रोधवेदककाल सख्यातगुणा है, क्योकि श्रेणिपर प्रारोहण करनेके पूर्व ही अन्तर्मुहूर्तकाल तक अप्रमत्तभावसे वर्तमान जीवके क्रोधवेदककालके साथ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके प्रति प्रतिबद्धकाल यहापर विवक्षित है । अर्थात् अप्रमत्तगुणस्थानके साथ यहा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी क्रोधवेदककाल लिया गया है इसलिए वह पूर्वके कालसे संख्यातगुणा हो जाता है । संजदअधापवत्तगगुणसेढी दंसोवसंतद्धा । चारित्वंतरिगठिदी दंसणमोहंतरठिदीओं ॥३७८॥ अर्थ-अध"प्रवृत्तसयतका गुणश्रेणिनिक्षेप सख्यातगुणा है (४८) । दर्शनमोहनीयका उपशान्तकाल संख्यातगुणा है (४६) । चारित्रकी आन्तरिक स्थितिया सख्यात१ उ. घ. मूल पृ० १६३१-३२ । २. ज. ध मूल पृ. १६३२ । Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार गाथा ३८१-८३] [ ३०६ चडतदियअवरबंधं पडणामागोदअवरठिदिबंधो। पडतदियस्स य अवरं तिरिण पदा होंति अहियकमा ॥३८१॥ अर्थः-चढनेवालेके तीसरे ( वेदनीय ) कर्मका जघन्य स्थितिवन्ध विशेप अधिक है (६०)। गिरनेवालेके नाम-गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है (६१)। गिरनेवालेके (वेदनीय) तीसरे कर्मका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है (६२) । ये तीनों पद अधिकक्रम वाले है । विशेषार्थः-उससे चढ़नेवालेके वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि यह २४ मुहूर्तमात्र है (६०) । उससे गिरनेवालेके नाम-गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योकि ३२ मुहूर्तमात्र है (६१)। उससे गिरने वालेके वेदनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, क्योंकि यह ४८ मुहर्तमात्र है (६२)। इन तीनों पदोमे से प्रत्येक पद पूर्व पदसे विशेष अधिक है ।' चडमायमाणकोहो मासादीदुगुण अवरठिदिबंधों । पडणे ताणं दुगुणं सोलसवस्साणि चडणपुरिसस्स ॥३८२॥ पडणस्त तस्स दुगुणं संजलणाणं तु तत्थ दुट्ठाणे । बत्तीसं चउसट्ठी वस्तपमाणेण ठिदिबंधो ॥३८३॥ अर्थः-चढनेवाले के माया, मान व क्रोधका जघन्य स्थितिवन्ध एक मासको आदिकरके दुगुणा-दुगुणा है (६३.६४-६५) । गिरते हुए के उनका जघन्य स्थितिबन्ध द्विगुणा है (६६-६७-६८) । चढनेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध सोलहवर्प है (६६) । गिरनेवालेके पुरुषवेदका जघन्यस्थितिबन्ध द्विगुणा है (७०) । पुरुषवेदके दोनो स्थानोंपर सज्वलनकषायोका स्थितिवन्ध ३२ व ६४ वर्पप्रमाण है (७१-७२) । विशेषार्थ-चढनेवालेके मायाका जघन्य स्थितिवध १ मासप्रमाण है जो पूर्वमे कहे गए वेदनीयके जघन्य स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है । गिरनेवालेके मायाका जघन्य स्थितिबन्ध और चढनेवालेके मानका जघन्य स्थितिवन्ध द्विगुणा अर्थात दो मास। गिरनेवालेके मानका जघन्य स्थितिवन्ध और चढ़नेवालेके क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध १ जयघवल मूल पृ० १६३४ । Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ३०८] [गाथा ३८० वाले मोहनीयकर्मके स्थितिबन्धकी जघन्य आवाधा सख्यात गुणी है ' (५२) । उससे उतरनेवालेके अपूर्वकरणके अन्तिमसमयमे पायी जानेवाली सर्वकर्मोकी अन्त कोटाकोटीसागरप्रमाण स्थितिबन्धको तत्प्रायोग्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट यावाधा संख्यातगुणी है (५३)। उससे चढनेवालेके अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमे पाये जानेवाले मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिवन्ध सख्यातगणा है यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है (५४) । उससे उतरनेवालेके अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमे पाया जानेवाला मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धका प्रमाण सख्यातगुणा है । यहा सख्यातका प्रमाण दो जानना यह भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही है (५५) । उससे चढनेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके अन्तसमयमे पाया जानेवाला ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है (५६) । उससे उतरनेवालेके सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमे पाया जानेवाला ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातियाकर्मोका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है जो दुगणा जानना (५७)। उससे उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त सख्यातगुणा है जो एक समयकम दो घडी प्रमाण है (५८) यहां अन्तदीपक न्यायसे पूर्वमे जो सर्वकाल कहे वे सभी अन्तर्मुहर्तमात्र ही जानना, क्योकि अतर्मुहूर्तके बहुत भेद है। चडमाणस्स य णामागोदजहण्णट्ठिदीण बंधो य । तेरसपदासु कमसो संखेण य होति गुणिदकमा ॥३८०॥ अर्थः-चढनेवालेके नाम व गोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है (५६)। ये १३ पद क्रमशः सख्यातगुणे है । विशेषार्थः-उससे चढनेवालेके नाम व गोत्रकर्मका जघन्य स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है जो सोलह मुहूर्तप्रमाण है (५६) । यह जघन्यबन्ध अपनी व्युच्छित्ति के चरमसमयमे जानना। ४६वे पदसे आगे ५६वे पद तक तेरह पदोमे सख्यातगुणित क्रम है। १ और यह (माबाधा ) अन्तरायामसे ऊपर सख्यातगुणे अध्वानको व्यतीत करके स्थित है, इस प्रकार यह वात इसी सूत्रसे जानी जाती है। ( ज घ मूल. पृ १९३३) २. जयधवल मूल पृ. १६३३-३४ । ३. ज. घ. मूल पृ. १६३४ ॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३८५] क्षपणासार है। उससे उतरनेवालेके वहां संख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (७३-७८) चडपडण मोहचरिमं पदमं तु तहा तिघादियादीणं । असंखेजवस्तबंधोऽसंखेजगुणक्कमो छण्हं ॥ ३८५ ॥ अर्थः-चढनेवालेके मोहनीयकर्मका असख्यातवर्पवाला अन्तिम स्थितिबन्ध और गिरनेवालेके असख्यातवर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध (७९-८०) तथा चढ़नेवालेके तीन घातियाकर्मोका असंख्यातवर्षवाला अतिम स्थितिबन्ध और उतरनेवालेका असख्यात वर्षवाला प्रथमस्थितिबन्ध (८१-८२) एव चढनेवालेके तीन अघातियाकर्मोंका असख्यात वर्षवाला अन्तिम स्थितिबन्ध तथा उतरनेवालेके असंख्यात वर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध (८३.८४) ये छहो स्थान असख्यातगुणे क्रमवाले है । विशेषार्थः-उससे चढनेवालेके मोहनीयकर्मका असंख्यात वर्षमात्र अतिमस्थितिबन्ध असख्यातगुणा है जो कि असंख्यात हजारवर्षप्रमाण है और यह अन्तरकरणकालका समकालभावी स्थितिबन्ध है। उससे उतरनेवालेके मोहनीयकर्मका असख्यातवर्षमात्र प्रथम स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है, गिरनेवालेके यहांपर असख्यातगणो प्रवृत्ति देखी जाती है । उससे चढनेवालेके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन धातियाकर्मोका असख्यात वर्षवाला अन्तिम स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है । यह स्त्रीवेदके उपशमकालके संख्यातवेभाग व्यतीत होजाने पर होता है। उससे उतरने वालेके तीनघातिया कर्मोंका असख्यात वर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है । उससे चढनेवाले के तीन अघातिया (नाम-गोत्र-वेदनीय) कर्मो का असख्यातवर्ष स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है, यह सात नो कषायोके उपशामनकालमे सख्यातवेभागके व्यतीत होनेपर होता है । उससे उतरनेवालेके तीन अघातिया कर्मोका असख्यातवर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध असख्यातगुणा है । यहाँ उतरनेवालेके जो स्थितिबन्ध कहा है वह चढनेवालेके उस स्थितिबन्ध होने के काल स्थानको स्तोक अन्तरसे न प्राप्त होकर सभवता है। चढनेवालेके जो प्रथम स्थितिबन्ध होता है उतरनेवालेके उसके निकटवर्ती अवस्थाको पानेपर' अन्तिम स्थितिबन्ध होता है।' १. जयधवल मूल पृ० १९३५-३६ । Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] क्षपणासार [ गाथा ३८४ दुगुणा अर्थात् चार मासप्रमारण है। गिरनेवालेके क्रोधका जघन्य स्थितिबन्ध दूणा अर्थात् आठमास है। चढनेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध १६ वर्ष है। उसो स्थानपर अर्थात् उसीसमय चारों सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध ३२ वर्ष है । गिरनेवालेके पुरुषवेदका जघन्य स्थितिवन्ध चढनेवालेसे दूणा अर्थात् ३२ वर्ष है । उसी स्थान पर चारो सज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध ६४ वर्ष है। चडपडणमोहपढमं चरिमं चरिमं तु तहा तिघादियादीणं । संखेज्जवस्स बंधो संखेजगुणकमो छण्हं ॥३८४॥ अर्थ-चढनेवालेके मोहनीयकर्मका सख्यात वर्षवाला प्रथम स्थितिबन्ध और गिरनेवालेके सख्यातवर्षवाला अंतिम स्थितिबन्ध तथा चढनेवालेके तीन घातियाकर्मोका सख्यातवर्पवाला प्रथम स्थितिबन्ध व उतरनेवालेके सख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिवन्ध एव चढनेवालेके तीन अघातिया कर्मोका सख्यातवर्षको स्थितिवाला प्रथमस्थितिवन्ध और उतरनेवालेके तीन अघातिया कर्मोका अन्तिम स्थितिबन्ध ( ७३ से ८ ) ये छहो स्थान संख्यातगुणे क्रमवाले हैं। विशेषार्थ-उससे चढनेवालेके अन्तरकरण करनेकी समाप्ति होनेके अनन्तर समयमे पाया जानेवाला मोहनीयकर्मका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध सस्यातगुणा है जो कि सख्यातहजार वर्षमात्र है। उससे उतरनेवालेके उस समयकी समान अवस्थामे पाया जानेवाला मोहनीयकर्मका सख्यातवर्षकी स्थितिवाला अन्तिमबन्न सक्ष्यातगुणा है। इसका प्रमाण भी सख्यातहजार वर्षमात्र है। जिसप्रकार पहले चहनेवाले से उतरनेवालेके दूणा स्थितिबन्ध कहा था वैसा अब नही जानना, किन्तु यथासम्भव सख्यातगुणा जानना । उससे चढनेवालेके तोन घातियाकर्मोका सख्यातवर्ष की स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है ।' उससे उतरनेवालेके तीनघातिया कोका मल्यातवर्पकी स्थितिवाला अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। उससे चढनेजानके मात नोकपायोके उपशमकालमे उपशामक कालका सख्यातवा भाग बीत जानेपर तीन प्रघातियाकर्मोका सख्यातवर्पको स्थितिवाला प्रथम स्थितिबन्ध सख्यातगुणा १. पपीकि मोहनीयके समान इनका अत्यधिक स्थितिवन्धापसरण असम्भव है। (ज.ध. मूल पृ १६६४ ) जयपवल पृ १६३५ । गाथा २४८, २५६ व २६१ देखना चाहिए । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३८६ ] ' क्षपणासार [३१३ .. अर्थः-चरम स्थितिकाण्डक सख्यातगुणा है (८८)। स्थितिबन्ध घटाकर पल्यप्रमाण स्थितिबन्ध करने के लिए जो स्थितिबन्धापसरणरूप पल्यका संख्यातवांभाग है वह संख्यातगुणा है (८६) । पल्य संख्यातगुणा है (६०)। चढ़नेवालेके बादरलोभ के स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है (६१) । उतरनेवालेके बादरलोभ ( अनिवृत्तिकरण ) के अन्तिम स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है (६२) । विशेषार्थः-उससे चरम स्थितिखण्ड अर्थात् जितनी स्थितियोंकोघातके लिए ग्रहण की गई है वे स्थितिया संख्यातगुणी हैं। ज्ञानावरणीय आदि कर्मोंका अन्तिम स्थितिखण्ड सूक्ष्मसाम्परायके अन्तमें होता है । मोहनीयकर्मका अन्तिम स्थितिखण्ड अन्तरकरणके समकालमे होता है । अर्थात् अन्तरकरणके समकालीन है। यद्यपि यह स्थितिखण्ड भी पल्यके असख्यातवे भागमात्र है तथापि पूर्वसे संख्यातगुणा है। उससे वह स्थिति जिसको बन्धापसरणके द्वारा ग्रहणकर पल्यप्रमाण स्थितिबंध किया गया संख्यातगुणी है। यद्यपि कम की गई स्थितिका प्रमाण भी पल्यके संख्यातवेभागमात्र है, किन्तु पूर्वसे संख्यातगुणा है। उससे पल्य सख्यातगुणा है, क्योंकि घटाई गई स्थितिका प्रमाण पल्यके सख्यातवेंभागमात्र था। उससे अनिवृत्तिकरणके उपशामकके प्रथम समयमे स्थितिबध पृथक्त्व लक्ष सागर प्रमाण होता है। उससे उतरनेवाले अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें होनेवाला स्थितिबध सख्यातगुणा है (८८-९२) ।' . चंडपडअपुवपढमो चरिमो ठिदिबंधनो य पडणस्से । सच्चरिमं ठिदिसंतं संखेज्जगुणक्कमा अट्ठ ॥३८६॥ अर्थ-चढ़नेवालेके अपूर्वकरणका प्रथम स्थितिबध संख्यातगुणा है (९३) । गिरनेवालेके अपूर्वकरणका अतिम स्थितिबध सख्यातगुणा है (६४) । गिरनेवालेके अपूर्वकरणका अन्तिम स्थितिसत्त्व. सख्यातगुणा है (६५) । गाथा ३८८ व ३८६ में कहे गए आठस्थान संख्यातगुणेक्रमवाले है । ' विशेषार्थः-उससे चढनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे स्थितिबंध सख्यात गुणा है और वह अन्त कोड़ाकोड़ीसागरमात्र है। उससे गिरनेवालेके अपूर्वकरणके ; अन्तिमसमयमे स्थितिबन्ध सख्यातगुणा है, वह दूणा अथवा यथासम्भव संख्यातगुणा १. जयधवल मूल पृ० १६३६-३७ । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] क्षपरणासार गाथा ३८६-८८ चडणे णामदुगाणं पढमो पलिदोवमस्स संखेज्जो । भागो ठिदिस्स बंधो हेट्ठिल्लादों भसंखगुणो ॥ ३८६ ॥ अर्थः--उससे चढनेवालेके नाम - गोत्रकर्मका पल्य के सख्यातवेभागमात्र हुआ प्रथम स्थितिवन्ध नीचेके अघातित्रयके स्थितिबन्धसे असख्यातगुणा है ( ८५ ) । ' विशेषार्थः - यहां " नाम गोत्रका पल्यके सख्यातवेभाग मात्र हुआ प्रथम स्थितिबन्ध" ऐसा कहनेपर जहा पल्योपम स्थितिबन्ध से सख्यात बहुभाग घटाकर पल्य के सख्यातवेभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध उत्पन्न हुआ वह ग्रहणकरना चाहिए । तीसरा पढमो पलिदोषम संखभागठिदिबंधों । मोहस्सवि दोरिण पदा विसेस हियक्कमा होंति ॥ ३८७॥ प्रर्थः - चढ़नेवाले के तीसिया चतुष्कका पत्योपमके सख्यातवेभागवाला प्रथमस्थितिबन्ध (८६) तथा मोहनीयकर्मका पल्योपमके संख्यातवेभागवाला प्रथम स्थितिबध (८७) ये दोनों स्थान विशेष अधिक क्रमवाले है । विशेषार्थ - तीसिया चतुष्क अर्थात् तीस कोड़ा कोड़ीसागरकी स्थितिबन्धवाले चार कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तरायका पत्योपमके सख्यातवेभागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध नाम गोत्रके पूर्वोक्त बन्धसे विशेष अधिक है विशेषका प्रमाण अपनी स्थितिवन्ध के अर्द्ध भाग प्रमाण है ( ८६ ) । इससे मोहनीयकर्मका पल्योपमके संख्यातवे भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध विशेष अधिक है, विशेषका प्रमारण अपने बन्धके त्रिभाग प्रमाण है ( ८७ ) | क्योकि ये दोनो पद विशेष अधिक क्रमवाले है तथा नामगोत्र वीसिया हैं और ज्ञानावरणादि तोसिया है । प्रत वीसिया से तीसिया विशेष अधिक है गुणाकाररूप नही है | चारित्रमोहनीय चालीसिया है जो ज्ञानावरणादि तीसियासे विशेष अधिक है, क्योकि तीससे चालीस विशेष अधिक है गुणकाररूप नहीं है ।" १ जयधवस मूल पृ० १६३६ । २. जयधवल मूल पृ० १९३६ । ठिदिखंडयं तु चरिमं बंधोंसरणटिट्ठदी य पल्लई । पल्लं चडपडवादरपढमो चरिमो य ठिदिबंधो ॥ ३८८ ॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३६०-६१] क्षपणासार है, कारण कि चढ़नेवाले अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है । वह अंतःकोटाकोटीप्रमाण है। अपूर्वकरणके कालमे संख्यातहजार स्थितिकाण्डक होता है उससे उसके प्रथमसमयमें जो स्थिति पाई जाती है उसका सख्यात बहुभागमात्र स्थिति घात होता है तथा उसके अतिमसमयमें एकभागमात्र स्थितिसत्त्व रहता है और उस प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्वसे पहले (पूर्वमें) स्थितिकाण्डकका घात है नही, उससे उसका चरमसमयवर्ती स्थितिसत्त्वसे प्रथम समयवर्ती स्थितिसत्त्व सख्यातगुणा जानना (६६-१००) । इसप्रकार अल्पबहुत्वका कथन पूर्ण हुआ। चारित्रमोहके उपशमावने का विधान समाप्त हुआ। १. विशेष टिप्परग-लब्धिसार गाथा ३६५ से ३६१ तक १०० पदो के अल्प बहुत्वका कथन किया गया है, किन्तु कषायपाहुड़ सुत्त पृ० ७३२ से ७३७ तक तथा चूर्णिसूत्र ६०६ से ७०५ तक १०० सूत्रों द्वारा ६६ पदोके अल्पबहुत्वका कथन किया गया है, क्योकि लब्धिसार गाथा ३७० में "उतरने वाले लोभ की प्रथम स्थितिवाला" जो १८वां पद है उसका कथन चरिणसत्रमे नहीं है। धवल पु. ६ पृ. ६३५ से ६४२ तक ६७ पदो के अल्पबहुत्वका कथन है, इसमे तीन पद कम हैं। लब्धिसार गाथा ३७० मे जो उक्त १८वां पद है वह घ. पु ६ मे नही है तथा गाथा ३७१ मे "गिरनेवालेका मानवेदककाल" वाला २१वां व नोकषायोंका गुणणि आयामरूप २२वा पद, ये दोनो पद भी ध. पु. ६ मे नही हैं। अन्य जो विशेषताएं हैं वे मिलान करके जानना चाहिए । लब्धिसार गाथा ३७० मे १८वें न० का स्थान जयघवलमे नही है। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपणासार ३१४ ] [ गाथा ३६०-६१ जानना। उससे गिरनेवालेके अपूर्वकरणके चरमसमयमे स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है। यद्यपि स्थितिसत्त्वका प्रमाण अन्तःकोडाकोड़ी है तथापि स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है।' क्योकि सम्यग्दृष्टिके सर्वदा स्थितिबंधसे स्थितिसत्त्व सख्यातगुणा है। तप्पडमट्ठिदिसत्तं पडिवडअणियट्ठिचरिमठिदिसतं । अहियकमा चडबादरपढमट्ठिदिसत्तयं तु संखगुणं ॥३६०॥ अर्थ-उसी गिरनेवाले अपूर्वकरणका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है (६६) । उससे गिरनेवाले अनिवृत्तिकरणका अतिम स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है (१७) । उससे चढ़नेवाले बादरलोभ अर्थात् अनिवृत्तिकरणका प्रथम स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है विशेषार्थ-उससे गिरनेवालेके अपूर्वकरणके प्रथम समयमे जो स्थितिसत्त्व है वह एक समयकम अपूर्वकरणके कालप्रमाण अधिक है, क्योकि उतरनेमें प्रथमसमयवर्ती स्थितिसत्त्वसे अंतिम समयवर्ती स्थितिसत्त्वकी हीनता उतने समयमात्र ही होती है।' उससे गिरनेवाले अनिवृत्तिकरणके अतिम समयमें स्थितिसत्त्व एकसमय अधिक है । उससे चढ़नेवाले अनिवृत्तिकरणके प्रथमसमयमें स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा है, क्योकि प्रथम समयमें अनिवृत्तिकरणके परिणामोसे स्थितिसत्त्वका खण्ड नही होता है। स्थितिकाण्डककी अतिम फालिके पतन होनेपर स्थितिघात होता है । (६६-६८) चडमाणअपुव्वस्ल य चरिमठिदिसतयं विसेसहियं । तस्लेव य पढमठिदीसत्तं संखेज्जसंगुणियं ॥३६१॥ अर्थ-चढनेवाले अपूर्वकरणके अंतिम स्थितिसत्त्व विशेषअधिक है (६६) । उसीका प्रथमस्थितिसत्त्व सख्यातगुणा है (१००) । विशेषार्थ--उससे चढ़नेवाले अपूर्वकरणके अतिम समयमें स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है, क्योकि अतिमकाण्डककी अतिमफालिका प्रमाण पल्यके संख्यातवेंभागमात्र पाया जाता है, सो इतना अधिक जानना, इससे उसीका प्रथम स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा १. क्योकि नीचे उतरते हुए के स्थितिकाण्डकघात तो है नही (ज. ध मूल पृ. १९३७, १६१३ तथा १९२६ यादि। २. उ.६ मूल पृ. १६३७। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३ ७ ἐ १४ १४ २२ २३ २५. १४ ११ १५ ५ १५ १२-१३ १८ १४ १८ २४ २४ १० १० १० १२ २८ २८ ३३ T ५६ ५६ a ar m 2 a a १३ १७ ३४ ३६ ५ ४१ १३ ४१ १७ ४२ १० ४३ २ ४८ १० २४ १३ १५ १७ श्रशुद्ध श्रधःप्रवृत्तकण ६० १ ६० ४ २७ जघ पु.पू २११ ज.ध.पु १२ पृ०२११ उदय बतलाया ६० ६ ६४ २ ७५ ५ चउतीसा श्रसप्राप्ता चोदूस हता चींतिस गोधवज्जगरा ए गग्गोधवज्जरणाराए व्रज्रर्षभ उद बतलाया २१ अजहण्णमणुक्कस्स्प्पदे अजहण्णमणुक्कस्स श्रसप्राप्ता बंघति अव्वम रिट्टिय ॥ गुरुपदेश उर्वाक आकर्षमनुकृष्टिः - लब्धिसार शुद्धिपत्र शुद्ध पृष्ठ पक्ति २० खन्डका प्रतिभाव है। प्ररूपरणा अन्तरोपनिधा का निरूपण बद्धद्रव्यावलि एक भांव को अध्वान निषेकभागाहार श्रघःप्रवृत्तकरण | ८४ होता ६५ चौतीस ६७ चहान भागाहार 17 स्थितिकर्म प्रगारणवाला चोतीसा && १०२ १ चोदस १०३ ११ वज्रर्षेभ १०३ १६ श्रसंप्राप्त १०३ २० बत १०४ 5 १०८ ४ १०८ १८ श्रसप्राप्त प्पदे ११३ २० ११५ १२ अमर्याि ॥ गुरूपदेश ११५ १८ उबँक ११५ २३ अनुकर्षणमनुकृष्टि | ११६ ७ खण्ड का ११८ १७ प्रतिभाग है । प्ररूपणा श्रनन्तरोपनिधा का निरूपित बद्ध द्रव्य आवली एक भाग को ११६६ १२६ १४ १२७ १ १३० ७ १३४ १३७ अध्वान १४० ५ निषेकभागहार | १४५ ७ १५० २६ २० १२ ६७ १६ चयहीन भागहार ܕܙ स्थितिसत्कर्म प्रमारण वाला ३ ३ १५२ ε १५२ २४ - श्रशुद्ध निष्टापक सलिये सशयिक 33 प्राप्त हो जो वन्ध भजनीय यह विशेष अनन्तरकाल प्रारम्भ है । यह स्थितिघता अनिवृत्तिकरण वाला आयु कम का कर्मों की स्थितिकर्म पल्योप प्रमाण है, स गुणसे ढ अवस्थिति गुणसे सिख भाग प्रथम २ प्रतिपाद्यमान सतगुण वृद्धि जाकर शुद्ध निष्ठापक इसलिये सायिक अक्त उदयाद उदयवह खवदे पश्चादनुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी प्रमाण तथा तथा उससे पूर्व करके उनसे मन्यातगुणा पूर्व करण के प्रथम २ प्रतिपद्यमान श्रमात गुरावृद्धि पाक फर 19 प्राप्त होकर हो बघ के भजनीय यहा विशेष अन्तरकाल चालू है, यह स्थितिघात प्रनिवृत्तिकरण परिणाम वाला श्रायु कर्म का कर्मों के स्थिति सत्कर्म पत्योपम प्रमारण है, उस गुणसेट प्रवस्थित गुडिसंभागा उक्त उदयादि उदयवह राविदे Page #618 --------------------------------------------------------------------------  Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति ३०० १ ३०० १४ ३०४ ६-७ ३०४ ७ ३०६ १० ३१२ ५ ( ३ ) शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति ३१३ ३-४ अशुद्ध विशेष अधिक विभाग है सासादनगुणस्थान के संख्यातगुणे अघस्तन काल से सख्यात गुरणे कालरूप सासादन नीचे के गुणस्थान के क्योकि उपशान्त कालके पल्य के इस कारण उपशमनकाल के पत्यक विशेष अधिक है । त्रिभाग हैं ३१३ ३१३ ५ 3X १५ ३१५ २ अशुद्ध शुद्ध चढने वाले के वादर चढने वाले ग्रनिलोभ के वृत्तिकररण जीव के प्रथम समय मे के अन्तिम स्थितिबन्ध के अन्तिम समय स्थितिबन्ध होता है। उससे होता है, वह संख्यात गुणा है। उससे होता है होते है । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ..., - शुद्ध | पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १६० २१ (मनुष्य) (मनुष्य) के २६१ ५ स्थितिवन्ध से स्थितिवन्ध दो १६३ ११ तज्जेठ तज्जेठ गुणा दो गुणा ११ १८ पूर्वक होने वाला पूर्वक होनेवाला | २६३ ७ अन्तमुहूर्त क्रम अन्तमुहूर्त कम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व उपशमसम्यक्त्व, [ २६३ १२ । आदरग प्रोदरग ठिदिवघो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व | २६३ २४ ठिदिवधा १७१ २५ पु १ .....। धपु. १ पृ ३६६ । | २६४ ११ बादरकसायरण बादरकसायारा १७३ ११ अनुकीर्यमाण अनुत्कीर्यमाण | २६६ २३ वर्तन हो हाने से वर्तन हो जाने से १७८ २७ दोण्ह पि उवसेडि दोण्ह पि उवसमसेडि | २६६ २४ पाचप्रकृति वन्ध का पाचप्रकृतिक वन्ध * समारोहणे समारोहणे १६१ १६ मारवई मारभई। २६६ गलिहावशेष गलितावशेष १८८ ३ नीदेसु तीदेसु २७३ १९ पश्चादनुपूर्वी पश्चादानुपूर्वी १६७ ८ अणुपुब्बीसकमणं आणुपुब्बी सकम | २७४ ७ स्थितिवन्ध से असख्यात गुणाx २०४ १७ सटुव समदेतत्तो सडवसमदे तत्तो | २७५ १२ घान-श्रेणी से समाधान-श्रेणी से २११ ८ तत्कालठिदिवधो तत्कालठिदिवधो | २७५ १३ अथवा और २१८ २१ स्तुविक स्तिवुक २७६ २५ उक्कस्स्स उक्कस्स २२२ २८ -(गच्छ-१) ।२] -(गच्छ-१)1| २७७ ६ विशेष अधिक प्रमाण विशेष अधिक का प्रमाण २२४ १२ प्रतिभा के प्रतिभाग के २७७१३ तबतक पूर्ण । तब तक पूर्व १२५ १४ ३२ अर्थात् दो चय, १६ अर्थात् एक चय | २७७ २३ तदो एवं विहट्ठिदिवध तदो एवविहाळ २२५ १५ ४८ अर्थात् तीन चय ३२ अर्थात् दो चय परावत्तागण दिवघपरावत्तणारिण २२७ १४ चाहिये। चाहिये। [देखो चित्र | २७७ २४-२५ पलिदो असख-भागिजो पलिदो० अससे० २२६ पृष्ठ पर भागियो २२८ १ एक चय को एक चय को "पादि" | २७८ १० माहत्म्य से माहात्म्य से स्थापित कर स्थापित कर २७६ ५ असख्यातवें भाग सस्यातवे भाग २४० ७ वेदे वेदी प्रमाण-स्थिति प्रमाण-स्थिति २४५. २७ यथानिदिप्ट स्थान ही यथानिर्दिष्ट स्थान | २८१ २२ के चरम समय मे उतरने पर पर ही २८४ १ गुणश्रेणि के विशेष गुण श्रेणि के २४६ १८ यशस्कीति यश कीति विषय मे विशेष २५४ ७ द्रव्य का द्रव्य को | २६३ २२ श्रेण्यारोह श्रेण्यारोहण २५७ १५ लीये __लिये ] २६४ ७ प्रथम समय करता २५७ १६ विशुद्ध प्रथम समय विशुद्धि | २९७ २२ काण्डोत्कीरणकाल काण्डकोत्कीरणकाल अघम्तन कृष्टिन अघस्तन कृष्टि का २५६ २६ प्रथमस्थितिबन्ध प्रथम स्थितिबन्धकाल मब्वामिमेगममण्णव सव्वासिमेगसमएरोव | २९८ १५ २६. नुविक स्तिवुक | २६९ १० सख्यातगुण सख्यातगुणे ६. ६ जोर परिषज्य तोम परित्यज्य | २६६ १३ अधिक या वह मधिक था वह २९८ १५ प्रयमस्थितिव Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) शब्द पृष्ठ परिभाषा अधःप्रवृत्तकरण २६ उत्कर्षण मे--प्रव्याघात दशा मे जघन्य प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण और प्रतिस्थापना उत्कृष्ट आबाघा प्रमाण होती है। किन्तु व्याघात दशा मे जघन्य प्रतिस्थापना प्रावली के असख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक समय कम एक प्रावली प्रमाण होती है। ज० घ०७/२५० अपकर्षण मे -एक समय कम भावली, उसके दो विभाग प्रमाण जघन्य अतिस्थापना होती है तथा उत्कृष्ट प्रतिस्थापना एक प्रावली प्रमाण होती है। यह अव्याघात विषयक कथन है। ल० सा० गा० ५६-५८ व्याघात की अपेक्षा प्रतिस्थापनाउत्कृष्ट समयाधिक अन्तः कोटाकोटिसागर सागर से हीन उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण होती है। ल० सा० गा० ५६-६० ज०५० ८/२५० प्रथम करण मे विद्यमान जीव के करणो [परिणामो] मे, उपरितन समय के परिणाम पूर्व समय के परिणामो के समान प्रवृत्त होते हैं वह अधःप्रवृत्तकरण है। इस करण मे उपरिम समय के परिणाम नीचे के समयो मे भी पाये जाते हैं, क्योकि उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधः अर्थात् अधस्तनसमय के परिणामो मे समानता को प्राप्त होते हैं, अत: "अधः प्रवृत्त" यह सज्ञा सार्थक है। घवल ६/२१७ जिसका कही पर भी अवस्थान-ठहरना न हो उसे अनवस्था कहते हैं । यह एक दोष है। अष्टसहस्री पृ० ४४४ [आ० ज्ञानमतीजी] कहा भी है-मूलक्षतिकरीमा रनवस्था हि दूषणम् । वस्त्वनन्त्येऽप्यशक्ती च नानवस्था विचार्यते ॥१॥ अर्थात् जो मूल तत्त्व का ही नाश करती है वह अनवस्या कहलाती है, किन्तु जहा वस्तु के अनन्तपने के कारण या बुद्धि की असमर्थता के कारण जानना न हो सके वहा अनवस्था नही मानी जाती है । मतलब जहा पर सिद्ध करने योग्य बन्नु या धर्म को सिद्ध नहीं कर सके और आगे-मागे अपेक्षा तथा प्रश्न या आकाक्षा बढती ही जाय, कही पर ठहरना नहीं होवे, वह अनवस्था नामक दोष यहा जाता है । प्र० क० मार्तण्ड पृ. ६४८-४६ [अनु० प्रा० जिनमतीजो] एर पद द० स० ५७/३७१/३६२, प्र० र• माला पृ० १७१ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: लक्षणावलि : लब्धिसार शब्द ग्रन्थ मे जहां परिभाषा प्राया वह पृष्ठ प्रकरणोपशामना २४६ करणोपशामना से भिन्न लक्षणवाली अकरणोपशामना होती है। अर्थात् प्रशस्त अप्रशस्त परिणामो के बिना ही अप्राप्त काल वाले कर्म प्रदेशो का उदयरूप परिणाम के बिना अवस्थित करने को अकरणोपशामना कहते हैं । इसी का दूसरा नाम अनुदीर्णोपशामना है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का प्राश्रय लेकर कर्मों के होने वाले विपाक-परिणाम को उदय कहते हैं। इस प्रकार के उदय से परिणत कर्म को "उदीर्ण" कहते हैं। इस उदीर्ण दशा से भिन्न अर्थात् उदयावस्था को नहीं प्राप्त हुए कर्म को अनुदीर्ण कहते हैं । इस प्रकार के अनुदीर्ण कर्म की उपशामना को अनुदीर्णोपशामना कहते हैं। इस अनुदीर्णोपशामना मे करण परिणामो की अपेक्षा नही होती है, इसलिये इसे प्रकरणोपशामना भी कहते हैं। इस प्रकरणोपशामना का विस्तृत वर्णन कर्मप्रवाद नामक पाठवें पूर्व मे किया गया है। क. पा. सु०७० अगुरुलघुचतुक अनस्थिति प्रतिस्थापना अर्थात् अगुरुलघु, उपघात, परघात भौर उच्छ् वास । सत्त्वस्थ कर्म की अन्तिम स्थिति का द्रव्य अनस्थिति कहलाता है। कर्म परमाणुप्रो उत्कर्षण-अपकर्षण होते समय उनका अपने से ऊपरकी या नीचेकी जितनी स्थितिमे निक्षेप नही होता वह प्रतिस्थापनारूप स्थिति कहलाती है । अर्थात् कर्म परमाणुओका उत्कर्पण होते समय तो उनका अपने से ऊपर की जितनी स्थिति मे निक्षेप नही होता वह अतिस्थापना रूप स्थिति है। ज० घ०७/२५० इसी तरह जिन स्थितियो मे अपकर्पित द्रव्य दिया जाता है उनकी निक्षेप सज्ञा है तथा निक्षेपरूप स्थितियो के ऊपर तथा जिस स्थिति के द्रव्य का अपकर्षण होता है उनसे नीचे, जिन मध्य की स्थितियो मे अपकर्पित द्रव्य नही दिया जाता उनको प्रतिस्थापना सज्ञा है। Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शब्द शब्द पृष्ठ परिभाषा "अनुकर्पणमनुकृष्टिः" अर्थात् उन परिणामो की परस्पर समानता का विचार करना, यह अनुकृष्टि का अर्थ है । अनुदीग २४६ देखो प्रकरणोपशामना की परिभाषा मे। अनुदीर्णोपशामना २४६ प्रकरणोपशामना का दूसरा नाम ही अनुदीर्णोपशामना है। अनुभागकाण्डक- ४४, क्ष सा. पारद्धपढमसमयादो अतोमुत्तण कालेण जो धादो णिप्पज्जदि सो अणुभागखडय घादोरणाम। धवल १२/३२ घात अर्थ-प्रारम्भ किये गये प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो घात निष्पन्न होता है वह अनुभाग काण्डकघात है । काण्डक पोर को कहते हैं । कुल अनुभाग के हिस्से करके एक-एक हिस्से का फालि क्रम से अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डकघात कहलाता है। [घ० १२/३२ विशे०] विशुद्धि मे अप्रशस्त प्रकृतियो के अनुभाग का अनन्त बहुभाग अनुभागकाण्डक घात द्वारा घात को प्राप्त होता है । करण परिणामो के द्वारा अनन्त वहुभाग अनुभाग घाते जाने वाले अनुभागकाण्डक के शेप विकल्पो का होना असम्भव है । एक एक अन्तर्मुहूर्त मे एक एक अनुभागकाण्डक होता है। एक एक अनुभागकाण्डकोत्कीरण काल के प्रत्येक समय मे एक-एक फालि का पतन होता है। कर्म के अनुभाग मे स्पर्धक रचना होती है। प्रथमादि स्पर्धक मे अल्प अनुभाग होता है तथा आगे-आगे अधिक । वहा समस्त स्पर्षको को अनन्त का भाग देने पर बहुभाग मात्र ऊपर के स्पर्धको के परमाणुप्रो को एक भाग मात्र नीचे के स्पर्धको मे परिणमाते हैं । वहा कुछ परमाणु पहले समय में परिणत कराये जाते हैं, कुछ दूसरे समय मे, कुछ तीसरे मे, ऐसे अन्तर्मुहूर्त काल में समस्त परमाणुनो को परिणत करके ऊपर के स्पर्धको का अभाव किया जाता है । यहा प्रत्येक समय में जो जो परमारण नीचे के स्पर्धकरूप परिणमाये उनका नाम फालि है। इसप्रकार अन्नमुहूर्त मे जो कार्य किया, उसका नाम काण्डक है । इस अनुभागकाण्डक द्वारा जिन स्पर्धकों का प्रभाव किया वह अनुभाग काण्डकायाम है। एक एक स्थितिकाण्डकघात के अन्तर्मुहूर्त काल के सत्यातहजारवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल मे ही एक अनुभागकाण्डकघात हो जाता है। ल० सा० ७६, ८०, ८१ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ शब्द पृष्ठ परिभाषा वस्तु अनन्तता के कारण यदि अनवस्था है तो उसका वारण नहीं किया जा सकता, वह तो भूषण है। षड्दर्शनसमुच्चय का० ५७ प्रकरण ३७१ पृष्ठ ३६२ [स० डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य] कहा भी है-अप्रमारिणकानन्तपदार्थपरिकल्पनया विश्रान्त्यभावोऽनवस्था । यानी अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते हुए जो विश्रान्ति का प्रभाव होता है, इसका नाम अनवस्यादोष है। प्र० र० माला पृ. २७७ टि. १० । अभिधान रा० कोश० १/३०२ जैमे~पुत्र पिता के आधीन है, पिता अपने पिता के अधीन है, वह अपने पिता के आधीन है। इसीप्रकार सत् और परिणाम को पराधीन मानने पर अनवस्था दोप आता है क्योकि पराधीनता रूपी शृखला का कभी अन्त नही पावेगा। पं० घ० पू० ३८१-८२ यानी दो मे से कोई एक धर्म, पर के ग्राश्रय है, तो जिस पर के आश्रय है वह भी सब तरह से अपने से पर के आश्रय होने से, अन्य पर के आश्रय की अपेक्षा करेगा और वह भी पर अन्य के आश्रय की अपेक्षा रखता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर अन्य-अन्य प्राश्रयो की कल्पना की सम्भावना से अनवस्था प्रसग रूप दोप आता है। अनिवृत्तिकरण ३१, ६८१, ४३, ६९क्षप.२४ जिस करण में विद्यमान जीवो के एक समय मे परिणाम भेद नही है वह अनिवृत्तिकरता है। ज करण है। ज०५० १२/२३४ अनिवृत्तिकरण मे एक-एक समय मे एक-एक र ही परिणाम होता है, क्योकि यहा एक समय मे जघन्य व उत्कृष्ट भेद का अभाव है। एक समय मे वर्तमान जीवो के परिणामो की अपेक्षा निवृत्ति या विभिन्नता जहा नही होती वे परिणाम अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं । घ०पु० ६ पृ० २२१-२२२ सारतः अनिवृत्तिकरण मे प्रत्येक समय मे नाना जीवो के एक सा ही परिणाम होता है । नाना जीवो के परिणामो मे निवृत्ति [अर्थात् परस्पर भेद] जिसमे नहीं है वह अनिवृत्तिकरण है। धवल १/१८३, क० पा० सु० पृ० ६२४, ज० घ०१२/२५६ प्रधः प्रवृत्तकरण के प्रथमसमय से लेकर चरम समयपर्यन्त पृथक्-पृथक् एक एक समय में छह वृद्धियो के क्रम से अवस्थित और स्थितिबन्धापसरणादि के कारणभूत असत्यातलोक प्रमाण परिणामस्थान होते हैं। परिपाटी क्रम से विरचित इन परिणामो के पुनरुक्त और अपुनरुक्त भाव का अनुसन्धान करना अनुकृष्टि है। अनुष्टि Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शब्द परिभाषा आनुपूर्वी नाम २७२, १६७ अन्तरकरण [नवम गुणस्थान मे] कर चुकने के प्रथम समय मे मोहनीय कर्म सम्बन्धी सात करण प्रारम्भ होते है । उसमे से यह प्रथम करण है । यथा-स्त्रीवेदनपुसकवेद के प्रदेश पुज पुरुषवेद मे सक्रान्त होते है । पुरुषवेद छ नोकपाय तथा प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान कषाय स० क्रोध मे ही सक्रान्त होते हैं। इसी तरह सज्वलन क्रोध तथा दोनो प्रकार के मान मान सज्वलन मे ही, मान सज्वलन तथा दोनो प्रकार की माया सज्वलन माया मे ही तथा माया सज्वलन और दोनो लोभ लोभ सज्वलन मे ही सक्रान्त होते हैं, यह आनुपूर्वी सक्रम है। [आनु पूर्वी सक्रम यानी एक नियत कम मे सक्रम] प्रायक्तकरण १६६ मायुक्त करण, उद्यत करण और प्रारम्भ करण ये तीनो एकार्थक हैं । तात्पर्यरूप क्षप० ४७ से यहा से लेकर नपुसकवेद को उपशमाता है, यह इसका अर्थ है । ज० ध० १३/ २७२ कहा भी है-नपु सक वेद का "आयुक्तकरण सक्रामक" ऐसा कहने पर नपु सक वेद की क्षपणा या उपशामना] के लिये उद्यत होकर प्रवृत्त होता है यह कहा गया है १ । जयघवला मूल पृ० .. ...... "ताधे चेव णवु सयवेदस्स आजु त्तकरणसकामगो" की जयधवला। प्रारोहकवरोहक २५७ उपशम श्रेणी चढने वाले को प्रारोहक तथा उतरने वाले को अवरोहक कहते हैं। धवल ६/३१८-१६ उत्कर्पण . विवक्षित प्राक्तन सत्कर्म से उसी कर्म का नवीन स्थितिबन्ध अधिक होने पर वन्ध के समय उसके निमित्त से सत्कर्म की स्थिति को बढाना उत्कर्षण कहलाता है । कहा भी है-'कम्मप्पदेसट्ठिदिवट्ठावणमुक्कड्डणा' अर्थात् कर्म प्रदेशो की स्थिति को बढाना उत्कर्षण है। [धवल १०/५२] अन्यत्र भी कहा है 'स्थित्यनुभागयोवृद्धि. उत्कर्पणम्" अर्थात् स्थिति व अनुभाग में वृद्धि का होना उत्कर्पण कहलाता है। [गो० क० गा० ४३८ की टीका] उत्पादानुच्छेद २०८ उत्पादानुच्छेद द्रव्याथिकनय को कहते हैं । यह सत्त्वावस्था मे ही विनाश को तथा क्ष० सा० २३, ६१ ।। स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ-सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान मे अन्तिम समय तक सूक्ष्म लोभ का उदय है । वहा पर उसकी उदयव्युच्छित्ति वतलाई जाती है, सो यह कथन उत्पादानुच्छेद की अपेक्षा से जानना चाहिये । जय धवल ७/ ३०१-३०२, गो० क० गा० ६४ की बडी टीका (तत्र उत्पादानुच्छेदो नाम द्रव्या१ यानी क्षपणा व उपशामना, दोनो के ही अन्दर आयुक्तकरण शब्द प्रारम्भ करण अर्थ में प्रयुक्त होता है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अन्तरकरण श्रपूर्वकरण अप्रतिपात प्रतिपद्यमान स्थान प्रशम्तोपशामना आगालप्रत्यागाल पृष्ठ ६६ ३० १५३, १६०, १६३ ७२, ७३, २०८ लप० ६० (5) परिभाषा विवक्षित कर्मों की प्रवत्तन श्रोर उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियों के निषेको का परिणाम विशेष ने प्रभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं। क० पा० सु० पृ० ६२६; क० पा० मु० पृ० ७५२ टिप्पण १ जिस करण मे प्रतिसमय पूर्व अर्थात् श्रममान व नियम से अनन्तगुणत्व से वृद्धि - गत परिणाम होते हैं वह पूर्वकरण है । इस करण मे होने वाले परिणाम प्रत्येक समय मे सख्यात लोकप्रमारण होकर भी अन्य समय में स्थित परिणामो के सदृश नही होते, यह उक्त कथन का भावार्थ है । ज० ० १२ / २३४ इन्हे प्रनुभय स्थान भी कहते हैं । स्वस्थान मे अवस्थान के योग्य और उपरिम गुणस्थान के अभिमुख हुए जीव के स्थान ये सव लव्विस्थान अप्रतिपात-प्रप्रतिपद्यमान स्वरूप अनुभय स्थान हैं । अर्थात् तयमानयम से गिरने के अन्तिम समय मे होने वाले स्थानो को प्रतिपात स्थान कहते हैं । सयमासंयम को धारण करने के प्रथम समय मे होने वाले स्थानो को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं । इन दोनो स्थानो को छोडकर मध्यवर्ती समयो मे सम्भव समस्त स्थानो को श्रप्रतिपातप्रतिपद्यमान या अनुभय स्थान कहते हैं । घ० ६ / २७७ ज० घ० १३/१४८ संयम की अपेक्षा भी ऐसे लगाना चाहिये । ल० सा० १६८ कितने ही कर्म परमाणुओ का वहिरंग अन्तरग कारणवश उदीरणा द्वारा उदय में अनागमनरूप प्रतिज्ञा को अप्रशस्तोपशामना कहते हैं । धवल १५ / २७६ श्रप्रशस्त उपशामना के द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है वह अपकर्षण के लिये भी शक्य है, उत्कर्षण के लिये भी शक्य है तथा अन्य प्रकृति मे सक्रमण कराने के लिये भी शक्य है । वह केवल उदयावलि में प्रविष्ट कराने के लिये शक्य नही है | जय धवल १३ / २३१ इसे देशकरणोपशामना भी कहते हैं । क० पा०सु० पृ० ७०८ द्वितीय स्थिति के द्रव्य का अपकर्पण करके उसके प्रथम स्थिति मे निक्षेपण करने को आगाल कहते हैं । जय घ० अ० प० ६५४ प्रथम स्थिति के प्रदेशो के उत्कर्षरणवश द्वितीय स्थिति मे ले जाने को प्रत्यागाल कहते हैं । ज० घ० अ० प. ६५४ उत्कर्षरण - अपकर्षरणवश परस्पर प्रथम और द्वितीयस्थिति के कर्म परमाणओ का विषय क्रम का नाम श्रागाल- प्रत्यागाल है । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) पृष्ठ परिभाषा यायाम । जहा उदयावलि के ऊपर प्रथम निषेक से अवस्थित गुणश्रेणी रचना हो तो वह उदयावलि वाह्य अवस्थित गुणश्रेणी प्राय म कहलाता है तथा वही उदय रूप वर्तमान समय से ही गुण श्रेणी पायाम प्रारम्भ हो जावे तो वह गुणश्रेणी आयाम, उदयादि कहा जाता है । जैसे सम्यक्त्व की ८ वर्ष स्थिति सत्कर्म से पूर्व उदयावलि बाह्य गलितावशेष गुणश्रेणी थी, किन्तु ८ वर्प स्थिति सत्कर्म से लगाकर ऊपर सर्वत्र उदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम है । (पृ० ११६-१२०) ऐसे ही उतरने वाला मायावेदक जीव उदयरहित लोभत्रय का द्वितीयस्थिति से अपकर्पण करके उदयावलि बाह्य अवस्थित गुण श्रेणी करता है । (ल०सा० ३१७). सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तिम काण्डक की प्रथम फालि के पतन समय से लेकर विचरम फालि के पतन समय पर्यन्त उदयादि गलितावशेष गण श्रेणी आयाम रहता है। ल० सा• गा० १४३ पृ० १३० इसप्रकार चारो प्रकारो की गुणश्रेणियो के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। अन्यत्र भी गुणश्रेणी-विन्यास यथा प्रागम जानना चाहिए । विशेष इतना कि आयु कर्म का गुणश्रेणी निक्षेप नही होता। शेष सब कर्मों का होता है । (देखो प्रकरणोपशामना मे) जिसके द्वारा उपयुक्त होता है उसका नाम उपयोग है। अर्थ के ग्रहणरूप प्रात्मपरिणाम को भी उपयोग कहते हैं। उपयोग के साकार और अनाकार के भेद से दो प्रकार है। इनमे से साकार तो ज्ञानोपयोग और अनाकार दर्शनोपयोग है। करण परिणामो के द्वारा नि:शक्त किये गये दर्शनमोहनीय के उदयरूप पर्याय के विना अवस्थित रहने को उपशम कहते है। उपशम करने वाले को उपशामक कहते हैं । ज० घ०१२/२८० सकल चारित्र मोहनीय के उपशम से जो चारित्र उत्पन्न होता है उसे उपशमचारित्र कहते हैं । त० सू० २/३ जिस भावली मे उपशम करना पाया जाय उसे उपशमावली कहते हैं । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामो के द्वारा कर्म प्रदेशो का उपशान्त भाव से रहना करणोपशामना है। अथवा करणो की उपशामना को करणोपशामना कहते हैं । अर्थात् निधत्ति, निकाचित प्रादि ८ करणो का प्रशस्त उपशामना के द्वारा उपशान्त करने को करणोपशामना कहते हैं। क. पा० सु० पृ. ७०८ २४९ उदीर्ण उपयोग उपशम-उपशामक ७१ (दर्शनमोह की अपेक्षा) उपशम चारित्र १६६ २०७ उपशमावली करणोपशामना २४६ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ उदयादि अवस्थित १२० गुणश्रेणी आयाम २४५ तथा २८३ उदयादि गलितावशेप १३० गुणश्रेणी आयाम २८३ परिभाषा थिक), धवल १२/४५७-५८ कहा भी है-विणासविगए दोषिण रणया होति उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । यानी विनाश के विषय मे दो नय हैंउत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेद का प्रयं द्रव्यायिकनय है। . अनुत्पादानुच्छेद का अर्थ पर्यायाथिकनय है । उत्पादानुच्छेद सद्भाव की अवस्था में ही विनाश को स्वीकार करता है । तथा अनुत्पादानुच्छेद असत् अवस्था में प्रभाव सज्ञा को स्वीकार करता है । धवल १२/४५७-४५८ परिणामो की विशुद्धि की वृद्धि से अपवर्तनाकरण के द्वारा उपरितन स्थिति से हीन करके अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रतिसमय उत्तरोत्तर अमत्यातगुणित वृद्धि के प्रमले कर्म प्रदेशो की निर्जरा के लिये जो रचना होती है उसे गुण अंगी कहते है । जैन लक्षणावली २/४१३-४१४ जितने निपेको मे असत्यात गुणश्रेणीरूप से प्रदेशो का निक्षेपण होता है वह गुणश्रेणी प्रायाम कहलाता है । यह गुणश्रेणी पायाम भी दो प्रकार का होता हैं । १ गलितावशेष २ अवस्थित (देखो चित्र पृ० २८३ ल० सा०) गलितावशेष गुणश्रेणी-गुणश्रेणी प्रारम्भ करने के प्रथम समय मे जो गुणश्रेणी प्रायाम का प्रमाण था उसमे एक-एक समय के बीतने पर उसके द्वितीयादि समयो मे गुणघेणो- पायाम क्रम से एक एक निपेक प्रमाण घटता हुया अवशेष रहता है, इसलिये उसे गलितावशेष गुणथेणी आयाम कहते है। उदय समय से लगाकर गुणश्रेणी होने पर उदयादि गलितावशेष गुणश्रेणी कहलाती है तथा उदयावली से बाहर गुणितक्रम से प्रदेश विन्यास हो तो उदयावलि वाह्य गलितावशेष गुणश्रेणी कहलाती है। अवस्थित गुणश्रेणी-प्रथम समय मे गुणश्रेणी का जितने पायाम लिये प्रारम्भ किया उतने प्रमाण सहित ही द्वितीयादि समयो मे उतना ही प्रआयाम रहता है, क्योकि उदयावलि का एक समय व्यतीत होने पर उपरितन स्थिति का एक समय गुणश्रेणी मे मिल जाता है । (पृ० १२० ) अतः नीचे का एक समय व्यतीत होने पर उपरिम स्थिति का एक समय गुणगी मे मिल जाने से गुणश्रेणी आयाम जितना था उतना ही रहता है, ऐसा गुणश्रेणी प्रआयाम अवस्थित स्वरूप होने से अवस्थित गुणश्रेणी आयाम कहलाता है। यह अवस्थित गुणश्रेणी प्रायाम भी गलितावशेषवत् दो प्रकार का होता हैउदयादि अवस्थित गुणश्रेणी आयाम तथा उदयावलि वाह्य अवस्थित गुणश्रेणी Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ( १३ ) परिभाषा श्ररिण और उपशम श्रेणि मे विशुद्ध परिणामो के निमित्त से यह विनाश को प्राप्त हो जाती है, अतः इसका प्रशस्तपना है, इस बात की सिद्धि मे प्रतिबन्ध का प्रभाव है । इस कारण इस प्रकार की जो अप्रशस्त उपशामना [ श्रप्रशस्त परिणाम निमित्तक ] है वह ही "देशकरगोपशामना" कही जाती है ( जयघवल पृष्ठ १८७४ ) इस प्रकार एक तो अप्रशस्त परिणामो को निमित्त कर होती है, दूसरे कुछ कर्म परमाणुत्रो मे ही इसका व्यापार होता है। ऐसी देशकरगोपशामना या श्रप्रशस्त उपशामना सार्थक नाम वाली है । कहा भी है--प्रशस्त उपशामना आदि करणो के द्वारा एक देश कर्म परमाणुश्रो का उदयादि परिणाम के पर मुखी भाव से उपशान्त भाव को प्राप्त होना देशकरगोपशामना है । [ज० ६० १८७२ चरमपेरा ] यहा किन्ही करणो का परिमित कर्म प्रदेशो मे ही उपशान्तपना देखा जाने से इसकी देशकररणोपशामना सज्ञा बन जाती है । इसप्रकार ससार अवस्थामे प्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना आदि करणो के माध्यम से जो परिमित कर्म परमाणु का उपशामनारूप होकर उदय के प्रयोग्य रहना वह देश करगोपशामना है । जबकि सर्वोपशामना मे समस्त कर्मपु ज को अन्तर्मुहूर्त के लिये उदय के प्रयोग्य करना विवक्षित है । यथा - दर्शनमोह की अपेक्षा प्रनिवृत्तिकरण के प्रारम्भिक समयमे प्रशस्त उपशामना, निधत्त, निकाचना की व्युच्छित्ति होने के बाद प्रनिवृत्ति परिणामो से दर्शनमोहनीय के समस्त कर्म परमाण को अन्तर्मुहूर्त के लिये उदय के अयोग्य करना सर्वोपशामना है । यद्यपि दर्शनमोह का उपशम होने पर भी उसमे सक्रमकरण और अपकर्षण करण की प्रवृत्ति पाई जाती है, फिर भी समस्त कर्म परमाणु विवक्षित काल के लिये उदय के अयोग्य बने रहते हैं, अतः इसे सर्वोपशामना मानने मे कोई बाधा नहीं है । इसी प्रकार चारित्र मोह की अपेक्षा अनिवृत्ति करण परिणामो के प्रारम्भिक समय मे प्रशस्त उपशामना, जिघत्त और निकाचित की व्युच्छित्ति होकर श्रनिवृत्तिकरण तथा सूक्ष्म साम्पराय द्वारा सकल चारित्रमोह के कर्म पुज को श्रन्तर्मुहूर्त काल के लिये उदयादि के अयोग्य करना सर्वोपशामना - [ सर्वकररगोपशामना ] है । इसप्रकार श्रकरणोपशामना, देशकररणोपशामना तथा सर्वकरगोपशामना के बारे मे विस्तृत कथन परिभाषा के साथ किया गया । प्रशस्त उपशामना [प्रशस्त करगोपशामना ] अर्थात् सर्वोपशामना यानी सर्वकरगोपशामना मोहनीय कर्म की ही होती है । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ ( १२ ) परिभाषा करगोपशामना के भी दो भेद हैं-- देश करगोपशामना और सर्वकरगोपशामना । प्रणस्तोपशमनादि करणो के द्वारा कर्म प्रदेशो के एक देश उपशान्त करने को देशकरगोपशामना कहते हैं । सर्व करणो के उपशमन को सर्व करगोपशामना कहते हैं । अर्थात् उदीरणा, निर्धात्ति, निकाचित आदि ग्राठो करणो का अपनीपनी क्रियाओ को छोड़कर जो प्रशस्तोपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्व करगोपशामना कहते है । कषायो के उपशमन का प्रकरण होने से प्रकृत मे यही सर्व करगोपशामना विवक्षित है । क० पा० सु० पृष्ठ ७०६ विस्तार इसप्रकार है- उपशामना दो प्रकार की होती है— करणोपशामना और अकरणोपशामना । उनमें से सर्व प्रथम उपशामना पद की व्याख्या करते हुए जय बबला मे (पृष्ठ १८७१ - ७२) बताया है कि उदयादि परिणामो के विना कर्मों का उपशान्त भाव से अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है । यहा "उदयादि परिणामो के विना" का अर्थ यह कि किसी भी कर्म का बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादि के बिना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है । यह उपशामना का सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव कररगोपशामना और प्रकरणोपशामना दोनो मे घटित होता है । जय घवला मे कहा है कि प्रशस्त प्रशस्त परिणामो के द्वारा कर्म प्रदेशो का उपशमभाव से सम्पादित होना करगोपशामना है अथवा करणो की उपशामना का नाम कररगोपशामना है । उपशामना, निवत्त, निकाचना श्रादि नाठ करणो का प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करगोपशामना है । अथवा अपकर्षरण आदि करणो का अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इससे भिन्न लक्षण वाली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामो के बिना जिन कर्म प्रदेशो का उदय काल प्राप्त नही हुआ है उनका उदयरूप परिणाम के विना अवस्थित रहना अकरगोपशामना (अनुदीर्णोपशामना) है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है । ( जयघवला पृष्ठ १८७२ प्रथम पेरा ) परन्तु देशकरगोपशामना मे प्रप्रशस्त परिणामो की निमित्तता है । कहा भी हैससार के योग्य अप्रशस्त परिणाम निमित्तक होने से यह (देश करगोपशामना ) प्रशस्त उपशामना कही जाती है । यह ससार प्रायोग्य श्रप्रशस्त परिणाम निमितक होती है यह प्रसिद्ध नही है क्योकि श्रत्यन्ततीव्र सक्लेश से ही अप्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना करणो की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा क्षपक Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द शब्द पृष्ठ चतुःस्थानीय अनुभागवन्ध चालीसिया १८५ जस्थिति २८०, २६७ तीसिया असचतुक दूरापकृष्टि १८५ १८ १०७, ( १५ ) परिभाषा दिया जाता है, उन निषेको का नाम गुणश्रेणी निक्षेप है। उन निषेको की सख्या का प्रमाण ही गुणश्रेणी आयाम है। प्रशस्त प्रकृतियो का गुड, खाण्ड, शर्करा और अमृतोपम रूप अनुभाग बन्ध चतु:स्थानीय अनुभाग बन्ध कहलाता है । अप्रशस्त प्रकृतियो मे "चतु स्थानीय" शब्द से नीम, काजीर, विष और हलाहलोपम लेना चाहिये । अथवा घातिया की अपेक्षा लता-दारु-अस्थि-शैल लेना चाहिये । अर्थात् चरित्र मोहनीय (चालिस कोटा कोटी स्थितिबन्ध वाले कर्म चालीसिया कहलाते हैं ) मूल और वृद्धि दोनो को मिलाकर स्थिति बन्ध के पूरे प्रमाण का निर्देश करना। विवक्षित प्रकरणमे यत्स्थिति बन्ध का यही तात्पर्य है। इसमे पाबाधा भी शामिल है । ज० घ० १९१२, (यस्थितिबन्ध मे आबाघा भी गिनी जाती है ध० ११/ ३३६) ज्ञानावरण, दर्शनावरण वेदनीय तथा अन्तराय को तीसिया कहते हैं। अर्थात् 'त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक ।' जिस अवशिष्ट स्थिति सत्कर्म मे से सख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाण्डकका घात करने पर घात करने से शेष बचा स्थिति सत्कर्म नियम से पल्योपम के असख्यातवे भाग प्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है उस सबसे अन्तिम पल्योपम के सख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति सत्कर्म को दूरापकृष्टि कहते हैं । जय धवला पु० १३ पृ० ४५ तात्पर्य यह है कि जब स्थितिकाण्डकघात होते-होते सत्कर्म स्थिति पल्योपम प्रमाण शेष रह जाती है तब स्थितिकाण्डक का जो प्रमाण पहले था वह बदल कर अवशिष्ट स्थिति-सत्कर्म का सख्यात बहुभाग हो जाता है । और इस प्रकार उत्तरोत्तर उक्त विधि से स्थितिकाण्डकघात होते होते जब सबसे जघन्य पल्योपम के सख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति शेष रह जाती है तब वह "दूरापकृष्टि", इस नाम से पुकारी जाती है । यह घटते घटते अति अल्प रह गई है, इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं । अथवा शेष रही इस स्थिति से आगे उत्तरोत्तर अवशिष्ट स्थिति के असख्यात बहुभाग असख्यात बहुभाग प्रमाण स्थिति को ग्रहण कर स्थितिकाण्डकघात होता इसलिये इसे "दूरापकृष्टि" कहते हैं। जय धवला पु०१३ पृष्ठ ४७ १८७ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ai L कृष्टि क्रमकरण क्षयोपक्षमलव्धि शायिक सम्याद क्षुद्रभव ग्रहण २३३ क्षप० ६३ पृष्ठ गुण शिपायाम १७७ ५ १०४ ३०३ ४६ ( १४ ) परिभाषा १ जय धवल मूल पृष्ठ १५७५ तथा क० पा० सुत्त पृ० ७०६ कपाम की अपेक्षा परिभाषा - जिसके द्वारा सज्वलन कपायों का अनुभाग सत्त्व उत्तरोत्तर कृश अर्थात् अल्पतर किया जाय उसे कृष्टि कहते है । क० पा० सु० पृ० ८०८ योग की अपेक्षा परिभाषा - पूर्व पूर्व स्पर्धक स्वरूप से ईंटो की पक्ति के प्राकार मे स्थित योग का उपसहार करके जो सूक्ष्म सूक्ष्म खण्ड किये जाते हैं उन्हें कृष्टि कहते हैं | ज० घ० प्र० प० १२४३, जैन लक्ष० २ / ३६७ अनिवृत्तिकरण काल मे मोहनीय का स्थितिबन्ध स्तोक ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का स्थितिबन्ध तुल्य, किन्तु मोहनीय के स्थितिबन्ध से प्रसरवातगुणा तथा नाम- गोत्र का स्थिति वन्ध तुल्य, परन्तु पूर्व से असत्यातगुणा और वेदनीय कर्म का स्थिति बन्ध विशेष अधिक होता है जब इस क्रम से स्थितिबन्ध होता है तब इसे क्रमकरण कहते हैं । पूर्व सचित कर्मों के मलरूप पटल के [अर्थात् प्रशस्त ( पाप ) कर्मों के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्त गुणे हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त होते हैं, उस समय क्षयोपशम लब्धि होती है । चार अनन्तानुवन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व प्रकृति, इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाले सम्यक्त्व को क्षायिक सम्यक्त्व कहते है। सबसे छोटे भवग्रहण को क्षुद्र भव कहते हैं और यह एक उच्छवास के [ संख्यात भावनी समूह से निष्पन्न] साधिक बठारहवें भाग प्रमाण होता हुआ सत्यात प्रावलि - सहस्र प्रमारण होता है । जय घवल में कहा है कि संख्यात हजार कोडा कोडी प्रमाण आवलियो के द्वारा एक उच्छवास निप्पन्न होता है और उसके कुछ कम १८वें भाग प्रमाण (१ वा भाग) यह क्षुल्लक भवग्रहण (क्षुद्रभवग्रहरण) १७६ होता है। ज० ० मूल पृष्ठ ११३० जिन नियेको मे गुलकार कम से अपकवित इव्य निक्षेपित किया जाता है मर्याद १. शेष कर्मों की अकरणोपशामना तथा देशकरगोपशामना तो होती है, ऐसा जानो । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ हिस्थानीय धनुभान २८ नयागमय प्रव ३०२ ( १७ ) परिभाषा ना हो चुका है। उसके जो मोह के उपशम से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह द्वितीयम सम्यमत्व कहलाता है। जै० ल० २ / ५६६ निधि न० मा० मा २०५ से २१५ मे देखनी चाहिये । मस्त प्रकृतियों की श्रपेक्षा "लता-दारू" रूप अथवा 'नीम - काजीर' रूप अनु भाग प्रशस्त प्रकृतियो की अपेक्षा "गुड, साण्ड" रूप अनुभाग द्विस्थानीय अनुभाग कहलाता है । । नवक अर्थात् नवीन समयप्रवद्ध | जिनका वन्ध हुए थोडा काल हुआ है; सक्रमगादि करने योग्य जो निषेक नही हुए ऐसे नूतन समयप्रवद्ध के निषेक का नाम नवक समयबद्ध है । (गो० क० ५१४ टीका) | दमोह, १ चारित्रमोहनीय २ की उपशामना श्रादि के समय विवक्षित कर्म के यतिम समय के वध के समय से लेकर चरम द्विचरम शादि एक समय कम दो श्रावती प्रमाण समयप्रवद्ध अनुपशमित अथवा अविनष्ट रह जाते है। उन समयप्रवडो की नवक समयप्रवद्ध सज्ञा है जैसे चारित्रमोहनीय उपशामक के मनिवृत्तिकरण गुणस्थान मे अन्तिमसमयवर्ती सवेदी के एक समय कम दो आवली प्रमाण नवक समय प्रवद्ध अनुपशान्त रहते हैं, पुरुषवेद के जो प्रागे प्रपगतंवेदी । अवस्था में एक समय कम दो आवली काल मे नष्ट होते हैं। ( ज० ० १२/ २८७ ) इसीतरह जैसे मान का उपशामक है तो उसके चरम समय बन्ध के समय एक समय कम दो प्रावली प्रमाण समय प्रवद्ध अनुपशान्त रह जाते हैं । बाकी सब मानद्रव्य उपशान्त हो जाता है (उच्छिष्ठावली गौरा है) यह एक समय कम दो आवली प्रमाण नवक बद्ध द्रव्य मायावेदक काल के भीतर एक समय कम दो धावलीकाल के द्वारा पूर्ण रूप से उपशमाये जाते हैं क्योकि प्रत्येक समय मे एक-एक समय प्रबद्ध के उपशामन क्रिया की समाप्ति देखी जाती है । ज० घ० १३/३०१-३०२ इसी तरह क्रोध, माया, लोभ आदि के लिये भी श्रागमानुसार कहना चाहिये। इतना विशेष है कि नयक बन्ध का अन्य काल से एक श्रावली तक तो, बन्धावति सकल करणो के अयोग्य होने से कुछ नही होता तथा बन्धावली के बाद उनका उपशमन काल एक नावली प्रमारण होता है ( इसप्रकार एक नवक समय १ जयधवल १२ / २८६-६० २० स० गा० २६२, २६६, २७१, २७६, २५०, २६५ सावि Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द देवचतुष्क पृष्ठ १८ देशकरणोपशामना २४६ देशपातीकरण १७७ देशचारित्र १४३ देशनालन्धि ( १६ ) परिभाषा देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीर अगोपांग; इन चार प्रकृतियो का समूह "देवचतुष्क" कहलाता है। देखो-करणोपशामना की परिभाषा मे । अनिवृत्तिकरण काल मे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का बन्ध जव देशघातिरूप होने लगता है, सर्वघातीरूप से बन्ध नहीं होता तव उसको देशघातीकरण कहते हैं। इसे संयमासंयम भी कहते हैं। देशचारित्र का घात करने वाली अप्रत्याख्यातावरण कषायो के उदयाभाव से हिंसादिक दोषो के एक देश विरतिलक्षण अणुव्रत को प्राप्त होने वाले जीव के जो विशुद्ध परिणाम होता है उसे "देशचारित्र" अथवा संयमासयमलब्धि कहते हैं । जीवादिक ६ द्रव्य तथा जीव, अजीव, आस्रव आदिक पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है । उस देशना से परिणत प्राचार्यादि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं । धवल ६/२०४ जीव दर्शनमोह आदि के उपशम के समय अन्तरकरण करता है । उस समय वह अन्तर के लिये जितनी स्थितियो को ग्रहण करता है उसकी “अन्तरायाम" संज्ञा है। उस अन्तराय के नीचे जितनी स्थिति है वह "प्रथम स्थिति" कहलाती है। तथा अन्तराय से ऊपर जितनी कर्म स्थिति है वह "द्वितीय स्थिति,' कहलाती है। मिथ्यात्व से उत्पन्न होने वाला उपशम सम्यक्त्व प्रथमोपशम सम्यक्त्व है। यह चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान तक होता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व अर्थात वेदकसम्यक्त्व पूर्वक होने वाला उपशम सम्यक्त्व द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । यही फिर चारित्रमोह की उपशामना करने के लिये प्रवृत्त होता है, अन्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वी या वेदक सम्यक्त्वी नही। यह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व चतुर्थगुणस्थान से सप्तमगुणस्थान तक के किसी भी गुण स्थान मे स्थित क्षायोपशम सम्यग्दृष्टि मनुष्य के उत्पन्न होता है । घवल पु० १/११, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ४८४ की टीका, मूलाचार पर्याप्ति अधिकार १२ गा• २०५ की टीका, धवल १/२१४ द्वितीय स्थिति ७० द्वितीयोपशम १७०, सम्यक्त्व १७१ अन्यत्र भी कहा है-उपशम श्रेणि के योग से जिसका मोह (दर्शन मोह) उप Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ( १६ ) शब्द पृष्ठ परिभाषा अभिप्राय-अघ.प्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जितने परिणाम होते हैं वे अधःप्रवृत्त करण के काल के सख्यातवें भाग प्रमाण खण्डो मे विभाजित हो जाते हैं । जो उत्तरोत्तर विशेष अधिक प्रमाण को लिये हुए होते हैं । यहा पर उन परिणामो के जितने खण्ड हुए; निर्वर्गणाकाडक भी उतने समय प्रमाण होता है । जिसकी समाप्ति के बाद दूसरा निर्वर्गणाकाण्डक प्रारम्भ होता है। आगे भी इसीप्रकार जानना चाहिये । (ज० ५० १२/२३७ विशे०) नियांधात ४८ स्थितिकाण्डकघात का प्रभाव निर्व्याघात कहलाता है । ( अपकर्षण मे ) ज० घ० ८/२४७ उत्कर्षण मे-पावली प्रमाण अतिस्थापना का प्रतिघात ही यहा व्याघातरूप से विवक्षित है । (ज० घ० ८ पृ० २५३) जहा' । प्रतिस्थापना एक आवली से कम पाई जाती है वहा व्याघात विषयक उत्कर्षण होता है । (ज० घ० ८/२६२) अतः जिस समय प्रावली प्रमाण प्रतिस्थापना वन जाती है वह अव्याघात (निर्व्याघात) विषयक उत्कर्षण कह लाता है। प्रकृतिवन्यापसरण १. अर्थात् प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्ति। कहा भी है- 'प्रकृतिबन्ध व्युच्छित्तिरूप एक बन्धापसरण" । विशेष इतना है कि मिथ्यादृष्टि के प्रायोग्य लब्धि के समय ३४ प्रकृतिबन्धापसरण होते हैं (पृ० १०) जिनमे ४६ प्रकृतियो को बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है। पृष्ठ १४ यह बन्धव्युच्छेद विशुद्धि को प्राप्त होने वाले भव्य और प्रभव्य मिथ्यादृष्टि मे साधारण अर्थात् समान है । (धवल ६ पृष्ठ १३५ से १३६) यहा (धवला मे) प्रकृति बन्धापसरण की जगह "प्रकृत्ति बन्ध व्युच्छेद" शब्द ही काम लिया है । प्रकृति बन्ध का क्रम से घटना प्रकृतिबन्धापसरण कहलाता है। प्रतिपद्यमान स्थान १५३ देखो-अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमान स्थान की परिभाषा मे । प्रतिपात स्थान , प्रत्यावली २१६, २०८ पावली के ऊपर की जो दूसरी प्रावली है वह प्रत्यावली कही जाती है ।१ ज० ५० १३/२६८-२६६ प्रथमस्थिति देखो-द्वितीयस्थिति की परिभाषा मे । प्रथमोपशम १,२,३ ___ अनन्तानुबन्धी ४ और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व इन सात प्रकृतियो के उपशम से औपशमिक सम्यक्त्व होता है। यह मिथ्या दृष्टि जीवो को ही होता । सम्यक्त्व १ इसे द्वितीयावली भी कहते है। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द पृष्ठ निकाचनाकरण १८३ निक्षेप परिभाषा प्रबद्ध का दो प्रावलियो द्वारा उपशम हो जाता है) ज० घ० १३/२८७ चरम पेरा विशेष हेतु ल० सा० पृष्ठ २०७ देखना चाहिये । जो कर्म उदयादि चारो के अयोग्य होकर,(उदय, अपकर्पण, उत्कर्षण व संक्रमण) अवस्थान की प्रतिज्ञा मे प्रतिवद्ध हैं, उनकी उस अवस्थान लक्षण पर्यायविशेष को निकाचना कहते हैं । ज० घ० १३/२३१, ५०,६/२९९, घ०९/२३६ आदि उत्कर्षण अथवा अपकर्षण होकर कर्म परमाणुनो का जिन स्थितिविकल्पो मे पतन होता है उनकी निक्षेप सज्ञा है । उत्कर्पण मे—अव्याघात दशा मे जघन्य निक्षेप का प्रमाण एक समय (क० पा० सु० पृ० २१५) ज० घ० ८/२६२ और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण उत्कृष्ट प्रावाघा और एक समयाधिक पावली, इन दोनो के योग से हीन ७० कोटा-कोटी सागर है। व्याघात दशा मे जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप का प्रमाण आवली के असख्यातवें भाग प्रमाण है । (ल० सा० गा० ६१, ६२ एव ज० ध० ८/२५३, ज० ५० ७/२५० तथा ज० घ०८/२६२) अपकर्षण मे-अव्याघातदशा मे जघन्य निक्षेप एक समय कम आवली का त्रिभाग और एक समय प्रमाण निषेक रूप होता है । ( ल० सा० ५६ ) तथा उत्कृष्ट निक्षेप "एक समय अधिक दो प्रावली" से हीन उत्कृष्ट स्थिति (७० कोडा कोडी सागर) प्रमाण होता है । ल० सा० ५८ व्याघात दशा मे उत्कृष्ट निक्षेप अन्त: कोटा कोटीसागर प्रमाण होता है। निघत्तीकरण १८३ जो कर्म प्रदेशाग्र उदय मे देने के लिये अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाने के लिये शक्य नहीं वह निघत्त है । (घवल पु० ६ पृ० २३५) अन्यत्र भी कहा है जो कर्म अपकर्षण और उत्कर्पण के अविरुद्ध पर्याय के योग्य होकर पुन उदय और पर प्रकृतिसक्रमरूप न हो सकने की प्रतिज्ञारूप से स्वीकृत है उसकी उस अवस्था को निधत्तीकरण कहते हैं। [(जय धवल १३/२३१) तथा धवल पु० १६ पृष्ठ ५१६ ] निर्वगंगाकाण्डक ३४ प्रध.प्रवृत्तकरण के प्रथम समय सम्बन्धी परिणामस्थान के अन्तर्मुहूर्त अर्थात् अघ.प्रवृत्तकरसा काल के सख्यातवें भाग प्रमाण काल के जितने समय हैं, उतने खण्ड करने चाहिये, वही निर्वर्गणाकाण्डक है। विवक्षित समय के परिणामो का जिसस्थान से मागे अनुकृष्टिविच्छेद होता है वह निर्वर्गणाकाण्डक कहा जाता है । (ज० ५० १२/२३६) Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) गद पृष्ठ परिभाषा मोपनामिक नकल चारित्र की अपेक्षा कहा है । क्षायिक सकल चारित्र तथा गया नकल नारिष उपशम या क्षपक श्रेणी मे होता है । क्षायोपशमिक नाति प्रमत्त व अप्रमत्तमयत उन दो गुण स्थानो मे ही होता है। देवी-गोपनामना की परिभाषा मे इसकी भी परिभापा पाई है। पाका पूर्व में उपलम्भ (प्राप्ति या सद्भाव) होने पर, पश्चात् अन्य पदार्थ क नदभार में उनके प्रभाव का ज्ञान होने पर दोनो मे जो विरोध देखा जाता है जो सहानयन्यारूप विरोध समझना चाहिये । जैसे शीतोष्ण । प्र०क० मा० परि० ८० ६ पृ० ४६८ [निर्णय सागर मु० बबई से मुद्रित] उस परिभाषा का स्पष्टीकरण राजवार्तिक के निम्न विस्तृत कथन से हो जायगा-अनुपनम्भ नर्यात प्रभाव के साध्य को विरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है-वध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक । १ वघ्यघातक भाव बिरोध सर्प और नेवले या अग्नि और जल मे होता है। यह दो विद्यमान पदार्थो मे नयोग होने पर होता है । सयोग के पश्चात् जो बलवान होता है वह निवल को बाधित करता है। अग्नि से असयुक्त जल अग्नि को नही बुझा सकता है । दूसरा सहानवस्थान विरोध ( जो कि प्रकृत है ) एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायो मे होता है । नयी पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है । जैसे, ग्राम का हरा रूप नष्ट होता है और पीतरूप उत्पन्न होता है प्रतिवन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव विरोध-जैसे ग्राम का फल जब तक डाली मे लगा है, तब तक फल और इठल का सयोगरूप प्रतिबन्धक के रहने से गुरुत्व (श्राम मे) मौजूद रहने पर भी आम को नीचे नहीं गिराता है। जब सयोग टूट जाता है तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है । सयोग के अभाव मे गुरुत्व पतन का कारण है, यह सिद्धान्त है । [प्रथवा जैसे दाह के प्रतिवन्धक चन्द्रकान्तमणि के विद्यमान रहते अग्नि से दाह क्रिया नही उत्पन्न होती, इसलिये मरिण तथा दाह के प्रतिवन्धक-प्रतिबन्ध्य भाव युक्त है ।] रा० वा० पृ० ४२६ [हिन्दी सार] (अ० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) एव षड्दर्शन समुच्चय का० ५७ पृ० ३५६ अर्थात् ३ लाख सागरोपम से ६ लाख सागरोपम के मध्य । सागरोपमशत सहस्र पृथक्त्व १४० । स्तिवुक सक्रमण २१८, २११) को स्थिवुक्कसकमो णाम ? उदयसख्वेण समट्ठिदीए जो सकमो सो त्थिवुक्कसकमो ति भण्णदे । अर्थ-उदयरूप से समान स्थिति मे जो सक्रम होता है उसे स्तिबक Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) शब्द पृष्ठ परिभाषा है । क्योकि उपशम श्रेणी पर चढने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले होते हैं, किन्तु उस सम्यक्त्व का "प्रथमोपशम सम्यक्त्व" यह नाम नहीं है । क्योकि उस उपशमधेशि वाले के उपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है। इसलिये प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिये । (ववल ६/२०६) इसीलिये तो कहा है कि-सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त होता है। क्योकि इन जीवो के उस प्रथमो. पशमसम्यक्त्व रूप पर्याय के द्वारा परिणमन होने की शक्ति का अभाव है। (घवल ६/२०६-७) कर्मों की स्थिति को अन्त.कोडाकोडी तथा अनुभाग को द्विस्थानिक करने को "प्रायोग्य लब्धि" कहते हैं । [ल० सा० गा० ७ पृ०७] नाम-गोत्र को वीसिया कहते हैं। (क्योकि इनकी उत्कृष्ट स्थिति वीस कोटा कोटी सागर होती है।) "वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श", इन चार नाम कर्मों का जोडा वर्णचतुष्क कहलाता है। क्षयोपशम लब्धि के होने पर साता आदि प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियो के वन्ध योग्य जो जीव के परिणामो का होना है. वही विशुद्धि लब्धि है। चारो अनन्तानुवन्धी कषायो की युगपत् विसयोजना होती है । विसयोजना अर्थात "अप्रत्याख्यानावरणादि १२ कषायरूप और ६ नोकपायो मे से ५ कपायरूप परिणमा देना ।" प्रायोग्य लब्धि बीसिया वर्णचतुष्क विशुद्धि लब्धि १ विसयोजना १६६ कहा भी है-अनन्तानुबन्धिचतुष्क के स्कन्धो के परप्रकृतिरूप से परिणमा देने को विसयोजना कहते हैं । ज० घ० २/२१५-१६ शेप शेप मे निक्षेप २६५, २६७ प्रर्यात गलितावशेष गुणश्रेणी।। सकल चारित्र १५७ सकल सावध के विरतिस्वरूप पाच महाव्रत, पाच समिति और तीन गुप्तियो को प्राप्त होने वाले मनुष्य के जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे संयम लब्धि या सकल सयम (सकलचारित्र) कहते है। अनन्तानुबन्धी प्रादि १२ कषायो की उदयाभाव लक्षण उपशामना के होने पर यह उत्पन्न होता है। यद्यपि यहा चार सज्वलन और नौ नौ कपायो का उदय है, परन्तु उनके सर्वघाति स्पर्घको का उदय नही रहने से उनका भी देशोपशम पाया जाता है। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द स्थितिकाण्डरुषात क्षप० पृष्ठ स्थितिबंधापसरण ४४, ६२, ६५, ४, १० १० ( २३ ) परिभाषा पर उत्तरकर्म प्रकृति स्वमुख से उदय मे नही प्राती, किन्तु स्तिबुक सक्रमण द्वारा उदयरूप स्वातातीय कर्म प्रकृति मे सक्रमण हो जाता है । जैसे क्रोध के उदय के समय अन्य तीन (मान, माया, लोभ) कषायों का स्वमुख उदय न होकर स्तियुक सक्रमण द्वारा कोषरूप सक्रमण हो जाता है और इसप्रकार उन तीन कषायो का द्रव्य क्रोध रूप फल देकर उदय मे आता है । विवक्षित स्थिति समूह का घात करना स्थिति काण्डकघात है । यह एक अन्तर्मुहूर्त मे निष्पन्न होता है । विवक्षित कर्म की स्थिति में से ऊपर की कुछ स्थिति समूह के द्रव्य को ग्रहण कर विशुद्धिवश प्रन्तर्मुहूर्त काल द्वारा नीचे के स्थिति समूह के परमाणुओ मे मिला देना तथा ऊपर की स्थिति मे स्थित सकल कर्म द्रव्य का अभाव कर देना स्थितिकाण्डक घात है । जितने काल मे यह स्थितिघात का कार्य किया जाता है वह काल स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल कहलाता है तथा जितनी स्थिति का घात करता है स्थितिकाण्डक द्वारा वह स्थितिकाण्डकायाम कहलाता है जैसे अपूर्व करण के प्रथम समय मे जीव के स्थितिकाण्डक का आयाम उत्कृष्टतः सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण होता है । अर्थात् प्रथमसमयवर्ती अपूर्वकरण जीवस्थितिकाण्डक घात के लिये स्थिति समूह को ग्रहण करता हुधा उत्कृष्टत' इतनी स्थिति को घात के लिये ग्रहण करता है । तथा अन्तर्मुहूर्त मे निष्पद्यमान इस स्थितिकाण्डक के प्रत्येक समय मे जितना द्रव्य नीचे [ अवस्तन स्थितियों ने शीघ्र उदय मे माने वाली स्थितियों मे] देता है, उसे है। इतना विशेष है कि धायु कर्म का स्थितिकाण्डक घात नही होता गा० ७८: धवल ६ / २२४ ) फाली कहते (ल० सा० अपूर्वकरण के काल मे सख्यात हजार स्थितिकाण्डकपात होते हैं। इसीप्रकार अन्यत्र भी यथागम स्थितिकाण्डकघात का अस्तित्व जानना चाहिये। स्थिति काण्डकघात के बिना कर्मस्थिति का घात असम्भव होता है । ( ववल १२ / ४८६) इतना विशेष है कि केवली समुद्घात के समय समय मे से लोकपूरण समुद्रघात तक के ४ समयो मे, एक एक समय मे एक एक स्थितिकाण्डक घात होता अन्यत्र एक समय मे यह कार्य नही 7 । है । यह माहात्म्य समुद्घातक्रिया का हो है होता । (क्षपणासार गा० २६५ पृ० २०२ । स्थितिबन्ध के अपसरण ( क्रम से घटना ) को स्थितिबन्धा पसरण कहते हैं । ( अपसरण घटना ) विशेष के लिये देखो लब्धिसार गा० ३९ तथा क्षपणानार गा० ३६५ तथा ज० ६० मूल पृ० १ ५१ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) शब्द पृष्ठ (111) परिभाषा सक्रमण कहते है । ज० घ० १३/३०१, क० पा० सु० पृ० ७०० टिप्पण ( यह नियम से उदयावली मे होता है और अनुदय प्रकृति का होता है ) अन्यत्र भी कहा है-अनुदीर्ण प्रकृति के दलिक का जो उदय प्राप्त प्रकृति में विलय होता है उसे स्तिवुक सक्रमण कहते हैं । गति, जाति आदि पिण्डप्रकृतियो मे से जो अन्यतम प्रकृति उदय को प्राप्त है उस समान काल स्थिति वाली अन्यतम प्रकृति मे अनुदय प्राप्त प्रकृतियो को सक्रान्त करा कर जो वेदन किया जाता है उसे स्तिवुक सक्रमण कहा जाता है । जैसे-उदय प्राप्त मनुष्यगति मे शेप तीन नरक गति आदि का व उदय प्राप्त पचेन्द्रिय जाति मे शेप चार जातियो का । (जनलक्षणावली भाग ३ पृ० ११७६ सम्पा० वालचन्द्र सि० शा०) कहा भी है-उदयावली के अन्दर ही स्तिवुक सक्रमण होता है। उदयावली से बाह्य स्तिवुक सक्रमण नही होता है । उदयरूप निपेक के अनतर ऊपर के निषेक मे अनुदयरूप प्रकृति के द्रव्य का उदय प्रकृतिरूप सक्रमण हो जाना स्तिवुक संक्रमण है । जैसे नारकी के ४ गतियो मे से नरकगति का तो उदय पाया जाता है, अन्य तीन गतियो का द्रव्य प्रतिसमय स्तिवुक सक्रमण द्वारा नरकगतिरूप सक्रमरण होकर उदय मे पा रहा है । कहा भी है पिंडपगईण जा उदयसगया तीए अणुदयगयाओ। सकामिऊरण वेयइ ज एसो थियुगसकामो ॥पचस० स० ऋ० ८० गतिनामकर्म की पिण्ड प्रकृतियो मे से जिस प्रकृति का उदय पाया जाता है उसके अतिरिक्त अन्य तीन गतियो का द्रव्य प्रति समय उदयगति रूप सक्रमण करके उदयरूप निषेक मे प्रवेश करता है। सप्तम नरक के नारकी के नरक गति के अन्तिम समय मे अनन्तर अगले निपेक मे अनुदयरूप तीन गति के द्रव्य का नरक गति रूप सक्रमण नही होगा, क्योकि अगले समय मे नरक गति का उदय नहीं होगा। किन्तु तिथंच गति का उदय होगा । अत गति के अन्तिम समय मे उदयरूप निषेक से अनन्तर ऊपर के निषेक मे जो द्रव्य नरक गति मनुष्यगति-देवगतिरूप है वह स्तिबुक सक्रमण द्वारा तिर्यच गतिरूप सक्रमण कर जायगा और तिर्यंचगति रूप मे उदय मे आयगा । इसीप्रकार अन्यत्र भी लगा लेना चाहिये । (रतनचन्द पत्रावली पत्र ७) अन्यत्र कहा भी है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव का अनुकूल सयोग न मिलने (v) Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरगोपनामना प्रकर्मभूमिज अगुर नघुचतुष्क प्रस्थिति प्रजघन्य प्रतिस्थापना प्रत्यन्ताभाव ग्रघस्तन कृष्टि श्रधस्तन शीर्षविशेष श्रधःप्रवृत्तकरण घःप्रवृत्तदेशसंयत अघ प्रवृत्तस क्रमरण श्रधः प्रवृत्तसयत श्रध्वान अनन्तानुबन्धिचतुष्क अनभिगृहीत अनवस्थादोप श्रनादिमिथ्यादृष्टि नानुपूर्वी समरण श्रनिवृत्तिकरण अनुकृष्टि अनुत्कीर्यमाण अनुदीर्ण अनुत्कृष्ट श्रनुदीर्णोपशामना अनुपपत्ति "" लब्धिसार - विशेष शब्द सूची २४६ १०४ १७ ५० २५ ४६ १०० २२४ २२४ २६ १४७, १४६ १७० १५८ १२६ १६६ ६७ १७ २६ २७२ ३० ३२. ३४ १७३, १७४ २४६ २५ २४६ २०४ अनुपशान्त ग्रनुभयगत (स्थान) श्रनुभाग काण्डकघात अनुभागबन्धापसरण अनुभाग सत्कर्म अनुभागस्पर्धक श्रनुयोगद्वार अनुसधान अन्तदीपकन्याय अन्तरकरण अन्तर काल अन्तरायाम अन्तः कोटाकोटिसागर अपकर्षण- उत्कर्षरण भागहार अपकर्षण-भागहार अपकृष्ट द्रव्य अपकृष्टा वशिष्ठ अपुनरुक्तभाव पूर्व करण पूर्वकृष्टि पूर्ववृद्धि अप्रतिपात - श्रप्रतिपद्यमान प्रशस्तोपशामना अबद्धायुष्क अभिगृहीत अर्थक्रियाकारिपना ११५, २५५ १५२, १६० ३१, ४४ १०८ २८ ५ ४२ ३४ ३०८ ६६, १७७ १०३ 55 ८ १०३ १२४, १३४ ४७ 58, ६० ३४ ३० २२५ २७६ १५३ ११५, १८२, २५१ २५ ६७ ६३ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३०३ ३०३ ६७ १०१ * १०२ £2 ९८ गाथा का प्रारम्भिक श्रश : तिणिमया छत्तीसा तिष्णिसहस्सा सत्तय तमिच्छत्त जमसद्दह लब्धिसार अवतरण सूची [ टीकायामुद्धृतगाथा सूचिः ] मिच्छत्त पच्चयो सनु मिच्छत्तवेदरणीय कम्म सम्मत्तपढमलभस्स सम्मत्तपढमलभो सन्देहि ट्रिट्ठदिवि से से हि श्रन्यन जहा पाई हैं : ० १४० १६२ ० २०० १३, भारतमा २६ घवन १४ पृष्ठ २६२ ० १ जय घन १२ पृ० ३२३ भागमा ५६ जी १० ३/१६ १२/३११ प०पा०० गा० १०१ ०६२१ज ०पा००गा० ६६ जना १२ / २०७ " क०पा०० गा० १०५ ० ६३५ जना १२/३१०२ भवा६/२४२ क०पा०सु० गा० १०४ ० ६३५ जना १२/३१६ क०पा०सु० गा० १०० ० ६३३, जगवता पु० १२ पृ० ३०१-२० Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करण लब्धि कर्म स्कन्ध कषायप्राभृतग्रन्थ कृतकरणीयकाल कृतकृत्य सम्यक्त्व कृतयुग्म कोदो क्रमकरण क्षयोपशम क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक क्षुद्रभव क्षुद्रभवग्रहरण गच्छ गलितावशेष गलितावशेष गुणश्रेणी गुण श्रणी याम गुण रिण विन्यास गुण र शीर्ष गुणस क्रमरण गुहा निस्थानान्तर गुरणाश गुणित कर्माश गोपुच्छाकार चतुःस्थानीय चतुःस्थानीय यवमध्य चय "" "च" ( २७ ) ४ १५८ २८८ १२७ १३० ४६ ७३ १७७ ४ Ε ६३ २५४ ३०३ २२६ ४५ १३०, २६६ ३१, ७७ ४५,४६ २८२ १२४, १२६ ४४, १७७ ६६ ६३ ११२ ५६, ६० २० ५ २२६ चयधन चालीसीया चूणिसूत्र चेतनाकार जघन्य अनुभाग सत्त्व जघन्य प्रदेश सत्त्व जघन्य युक्तासख्यात जघन्य स्थितिवन्ध जघन्य स्थितिसत्त्व ज-स्थितिबन्ध जातिस्मरण जात्यन्तर जिनबिम्ब दर्शन जिनमहिमा दर्शन डेढ गुणहानि दण्डक दीयमान दुर्मार्ग "त" तदुभयप्रत्ययिक ( क्षायोपशमिक ) ती सिया त्रसचतुष्क राष्टि “ज” दृश्यमान देवचतुष्क देवधिदर्शन देशकरगोपशामना "ड" "द" दर्द १८५ २८८ ३ vw w 5 4 w ~ ~ ~ ४६ ८ ८ ८ २७६ २ ६२ २ २ ६० ૪ १८५ १७ ८० १२४, २३४ ૨૯ १०७, ११६, १८५ १२४, २३४ १७ २ ૨૪૨ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) २२६ ३, १५८ १०३ २५७ अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन अलव्धपूर्व अल्पबहुत्वदण्डक अवरोहक अविभागी प्रतिच्छेद अविमर्शक अवेदक अश्रद्धान भाग २२२, १५२ ० उत्कृष्ट स्थिति मत्त्व उत्तर (चय) उत्तरधन ८६ उत्पादानुच्छेद २०८, २०६, २१७ उदयादिअवस्थित गुणश्रेणियायाम उदयादि गुणश्रेणी उदयाभाव २४० उदयावलि वाह्य १०६ उदीरणा उदोर्ण - २४६ उद्घाटित २५३,९८१ उद्वेलना उद्वेलना काल उपयोग उपरिमस्थिति अष्टाक "या" आगाल आगाल-प्रत्यागाल आनुपूर्वी सक्रमण आन्तरिक स्थितिया ७२, २०८ ७२, २०८ १९७ ३०६ आवाघा ५८, १३८ आयाम उपशम १७७ आयुक्तकरण आरोहक श्रावली-प्रत्यावली अाहारक चतुष्क १६६ २५७ उपशमकरण उपशमकालक्षय निवन्धन उपशमावलि २५३ १७३ उपशामक ईपन्मध्यमसक्लेशपरिणाम उभयद्रव्यविशेप उर्वक २२४ ३३ २१२, १११ महापोह १७४ IS उच्छिष्टावलि उत्कर्पण उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध उत्कृष्ट अनुभाग सत्त्व उत्कृष्ट कर्म सचय उत्कृष्ट प्रदेश सत्त्व उत्कृष्ट स्थिति वन्ध एकान्तानुवृद्धि सयत १४६ प्रौदयिकभाव १५ ८ | करण २८ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) प्रशस्तभाव २४७ लब्धिकांश लब्धिस्थान १५२, १५३, १५४ प्रस्थापक प्रायोग्य प्रायोग्यलब्धि वर्ग २२२ २२१, २२३ "फ" वर्गणा फालि १०० १०७ वद्धायुष्क बध्यमान बन्धपरावर्तन बन्धापसरण बहिर्भूत बादरकृष्टिकरण बीसिया वर्णचतुष्क वाक्यशेष विकलचतुष्क विद्यातभागहार विद्यातसक्रमण विपरीताभिनिवेश २८६ ७५, १७० ८३ विपर्यास २७१ ९६, १४८ mr २७१ विप्रकृष्ट विमर्शकस्वरूप विलोमक्रम विशुद्धि लब्धि विशेप (चय) विषमस्थिति भजनीय १०२ १७ भयद्विक भवक्षयनिवन्धन १६४ वेदक ५६, २२७ २४० २२४ मध्यधन मध्यम कृष्टि मध्यम खण्ड महादण्डक मिथ्यात्व निमित्तक मिथ्यानुष्ठान वेदक सम्यग्दृष्टि व्याघात व्याघातविषयक व्याप्त व्यामोह ५० ८१ २० । १०८ "श" "य" शक्ति स्थिति २८८ यतिवृषभाचार्य यथाख्यात चारित्र शतपृथक्त्व शलाका श्रद्धानभाग रिण व्यवहार लक्षपृथक्त्वसागर २८० | Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) २ १८२ ३६, ७४ देशपातिकरण देशना देशनालब्धि देशसयमलव्विस्थान देशामर्शक देशोपशम दोलायमान द्वितीयस्थिति द्विस्थानीय ७०, १७३ ७, १२१ २१० धर्मप्रवण १२८ १४०, २७३ ३४ पचम लब्धि परप्रकृतिसड क्रम परस्थान-अल्पवहुत्व परावर्तमान परिपाटी क्रम परिवर्तमान परिहारविशुद्धिसयम पर्यवसान पर्व (श्रेणिया) पश्चादानुपूर्वी पुनरुक्त पुष्पदन्त-भूतवली पूर्वकृष्टि पृथक्त्व प्रकृतिचतुष्क प्रकृतिबन्धव्यच्छित्ति प्रतिघात प्रतिपक्ष स्वरूप प्रतिपद्यमानगत प्रतिपात प्रतिपातगत प्रतिवद्ध प्रतिभाग नवप्रवद्ध २८८ १९६ २१७ २२६ नवकवच निकाचनाकरण निकाचित १८३ ११५ निक्षेप १० निधत्तीकरण निपतित निरवशेष निरासान निन्वियनपना ४६, ४७, ४० १८३ १८६ २१७ १५२, १६० २५३ ." १५२, १६० OR निर्मलमूम २३ २८६ २१८ नि शिवगंगासागर निर्वाचन प्रण निमगारविषयक गिर भागार ३३, १२२ ७२, २०८ २०८, २१६ ७०,१७३ प्रत्यागाल प्रत्यावलि प्रथमस्थिति प्रथमोपशमसम्यक्त्व प्रदेशपुज प्रभव प्रविशमान Frieोनम गम्यग्य ८३, ८४ ४४, १२६ २२६ ६ । १२१ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. सं ३० ९५ २४६ ११५ २४७ १४८ १५ ३१० ११६ १८४ ३७६ २९० लब्धिसारस्य गाथानुक्रमणिका गा सं० १६२ ३६५ १८० १८५ २८८ गाथा "ग्र" ३२ १२ १३० १३२ १३६ १३५ अवस्से मपहिय १३३ श्रवसे नपहिय ११३ प्रणिट्टी श्रद्धाए ११८ २२६ अजण मणुक्कस्स प्रजहणमणुक्कस्त - प्रपुपदेवि वस्तादो उवरि अवस्से उवरिम्मि अवस्से य ठिदीदो रिट्टिकरण पढ यस्य पढ रिट्टी सखगुणो पुत्री समरण अणिट्टी सज्जा प्रणुभय गाणंतरज असम वट्टय अथिरनसुभसमरदी अद्धाख पडतो श्रमण ठिदिसत्तादो भवरवरदेसली भवराजेाबाहा अवरादो चरिमेत्ति य श्रवरादो वरमहिय श्रवरा मिच्छतियद्धा अवरे देसट्टा अवरे बहुग देदि हु पृ. २४ २७ १० ११८ १२२ १२३ १२३ १२२ १०७ १०६ १८१ ७७ १९७ १०७ १६५ १३३ १० २५४ १०६ १५१ ३०७ २३४ २६७ १४६ १५२ २३२ 50 २२३ ६५ ७८ ११ ४२ ४० 2x ५ ५६ ६६ ५८ २६ १४६ ६५ ३१२ ३०५ १४३ ७१ २२४ २४६ २८ १६७ २४३ गाथा अवरे विरदट्ठाणे सुहारण पयडीरगं प्रसुहारण रसखड श्रवावलि गदवरठिदि "श्रा" उगवज्जारण ठिदि श्राऊ पडिणिरयदुगे आदिमकरणद्वाए आदिमकरणद्धाए श्रादिमलद्विभवो जो "उ" उक्कस्सट्ठिदि बघिय उक्कस्ट्ठदिबधे उक्कट्ठा घो उदइल्लारण उदये उदयवहिं श्रोक्कट्टिय उदयागमावलिम्हि य उदयारण उदयादो उदयादि गा उदयादिगलिदसेसा उदयावलिस दव्व उदयास्स वाहि उदयिल्ला खतरजं उदये चउदसघादी उवणे मगलं उवरि समं उक्कीरइ पृ.सं. १५६ ६६ १७६ ૫૪ ६३ १० ३२ ३१ de 20 ५ ૪૨ ५७ जै ૪ २४ १३४ ५८ २५५ २४४ १२६ १८० १६५ २२ १४२ १६४ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सांशयिक पट्खण्डागम पदस्थानपतित सडकमावली सद क्लेश सदृशघन समकालभावी समस्थिति सर्वकरगोपशामना सर्वोपशम सवेदी सहानवस्थान "" "स" सागरोपमशतसहस्रपृथवत्व सादिमध्यादृष्टि सामायिकछेदोपस्थापना सयम ( ३० ) ६७ २८८ १५२ २१२ ८ २३६ ३११ १९४ २५० ८७, ६६ २१० ९२ १४० २६ १६४ सावद्य सूक्ष्मकृ ष्टिकरण सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक सयमा सयमगुरण सयमा सयमलब्धि सवेगसम्पन्न स्तिवुक सक्रमण स्थितिकाण्डकघात स्थितिकाण्डकोत्कीरण काल स्थितिखण्डायाम स्थितिबन्धापसररणकाल स्थितिबन्धोत्सरण स्थितिसत्कर्म स्पर्धक स्वस्थान अप्रमत्त स्वस्थान अल्पबहुत्व स्वस्थान सयमी १४३ २२१ १६४ १४४, १४६ १४३ १५८ ८३, २१८, २१९, २६० ३१, ४४, ५० ४५ ८० ४५ २५७, २८१ १२६ २२१, २२२, २२३, २२४ १६६ ३६, ७४ २५४ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - पृ.सं. २६ । सं. । गा. सं. गाथा | ३७ गुणसेढी गुणसकम १४३ गुणसेढीदीहत्तम १०६ गुणसेढीसत्थेदर २५७ गी सं. गाथा ३४ अतोमुत्तकाला १६६ अतोमुत्तकाले ११७ अतोमुत्तकालं १०२ अतोमुहुत्तमद्ध २१. अतोमुहुत्तमेत ३०० अतोमुहुत्तमेत्त ३०४ अतोमुहुत्तमेत्तं ८७ ___"" २६८ १७२ २४१ ३२८ ० १७ २४४ ३११ ३८५ ३८६ ३१३ २७६ ३८४ ३१२ २८६ १३२ २८६ २४१ ३८६ ३४७ ३७० ३८० ३०. ३०८ १५४ कदरकरणसम्मखवरणा ३३६ कमकरणविणट्ठादो कम्ममलपडल सत्ती १४७ करणपढमादु जावय ३४६ करणे अधापवत्ते २६६ किट्टि सुहुमादीदो ३६६ किट्टीकरणद्धहिया २६२ किट्टीकरणद्धाए २६३ किट्टीयद्धाचरिमे २७० कोहदुग सजलरणग २७१ कोहस्स पढमछिदी ३७३ कोहोवसामणद्धा घादितियारण रिणयमा घादितिसाद मिच्छ "च" चडपडणमोहचरिम चडपड अपुव्वपढमो चडपडणमोहपढम चडणे णामदुगारण चउणोदरकालादो चडवादरलोहस्स य चडमारणस्स य गामा चडमारण अपुवस्स य चडमायमारणकोहो चडमायावेदद्धा चदुगदिमिच्छो सण्णी चडतदिय अवरवचं चरिमणिसेग्रोक्कड्ड चरिमावाहा तत्तो चरिमे फालि दिण्णे चरिमे सव्वे खडा चरिम फालि देदि दु ३९१ ३०० ३१४ २३६ ३८२ ३०९ ३०२ २३६ २१२ २१३ ३७२ २ ३८१ ०९ ४९ १८१ १४९ . M ur २०४ १४ ४७ १४४ - - खयउवसमविसोही खवगसुहमस्स चरिमे खुज्जद्ध णाराए "ग" गुणसे ढिसखभागं गुणसेढीए सीस गुणसेढीगुणसकम घद्दव्वरवपयत्यो १२६ १३६ ८६ ७० "ज" जत्तो पाये होदि हु ३३७ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) गा सं. २०५ १०० पृ सं. २२२ २ गाथा उवसमचरियाहिमुहा उवसमसम्मत्तता उवसमसम्मत्त वरि उवसमसेढीदो पुण उवसामगो य सव्वो २६४ ३५१ ६६ ur ३४२ उवसामरणा णिवत्ती m ३७४ उवसतद्धा दुगुणा mr उवसतपढमसमये २६० ३०३ ३०८ ११६ ३१७ उवसते पडिवडिदे उवहिसहस्स तु २६१ २६२ २५६ २८४ | गा. सं गाथा २८४ प्रोक्कड्डिद इगिभाग १४२ प्रोक्कट्ठिद वहुभागे ८७ ३२१ प्रोदरगकोहपढमे २८६ ३२२ प्रोदरगकोहपढमे ३२३ ओदरगपुरिसपढमे २८१ ३१६ अोदरगमाणपढमे ३०४ ३२० अोदरगमाणपढमे २४३ ३१६ अोदरवादरपढमे २५३ अोदरमायापढमे १०७ ३१८ ओदरमायापढमे ३१३ ओदरसुहुमादीए १८५ ३४४ अोदरसुहमादीदो ६४ ६७ श्रोदरिय तदो विदीया "अं" २५२ अतरकदपढमादो अतरकदपढमादो २६५ अतरकदादुछण्णो १६६ २५४ अतरकरणादुवरि १७६ अतरपढमादु कमे २७७ २४४ अतरपढमे अण्णो १८६ अतरपढमे पत्ते ६१ २४५ अतरहेदुक्कीरद ६३ अतिमरसखडुक्की १७८ अतिमरसखडुक्कीरण अतोकोडाकोडी अतोकोडाकोडी ६७ अतोकोडाकोडी । २२७ अतोकोडाकोटी १५८ २०० ८७ २०६ २०२ २३० एइदियट्टिदीदो ७६ एक्केक्कछिदिखडय १६१ एतो उवरि विरदे एत्तो समऊणावलि एदेहि विहीणाण ८५ एयट्ठिदिखडुक्कीरण २५१ एय णवु सयवेद २१६ एव पमत्तमियर ३३८ एव पल्लासख २३२ एव पल्ले जादे ७६ एवविह सकमण २५८ एव ससेज्जेसुदिदि "ओ" ६ मोक्कदिगिमागे भोहिदम्हि य देदि १०४ पोरकन्दिागिनाग २५० १६४ ८६ ७२ १६५ २०४ २४ 09 . Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा सं. ३७१ ૪૬ ૪૨ ૩૬૨ २२० १३ २३८ ३८७ १७ १९ २१८ २३४ २३५ २३६ १८ ३०७ २४१ २३ २२ ३२७ ३६१ २६० २५६ १७४ ३१ १६८ १५९ गाथा तम्मायावेदद्वा तस्सम्मत्तद्धाए ताए अघापवत्तद्धाए ताहे चरिमसवेदो तिकररणव घोसरण तिरियदुज्जोवोविय तीदेवघसहस्से ती सियच उन्ह पडमो ते चेव चोदसपदा ते चैवेवकारपदा ते पर हायदि वा तेत्तियमेत्ते वधे तेत्तियमेत्ते बधे तेत्तियमेत्ते बधे तेरस विदिये य सिरसवेदभवद्वाण तो देसघादिकरणा त गरदुगुच्चहीण त सुरचउककहीण """ थी रण वसमे पढमे थी उदयस्स य एव थी उवस मिदाणतर थीयद्धासखेज्जदि "द" दव्व असखगुरिय उत् दुविहा चरितद्धि राव कट्टपढम ( ३५ ) प्र. सं. ३०१ २८७ ३२ २६६ १७७ १० १६० ३१२ १४ १६ १७६ १८८ १८९ १८९ १४ २४६ १९३ १६ १८ १४६ २५ १४३ १३७ गा सं. २१ १४६ १७६ ३५३ ११० १६३ २०७ १६५ १६८ ३६६ ३७५ ३८३ ३७६ ४५ २०१ ३७७ १९४ १६६ १८८ ૪૪ २६८ २९५ २८५ २०६ ७५ २०५ ७४ २८२ १७९ ८५ २७३ १ गाथा देवतसवण्णअगुरु देवे देवमणु सो समये समये दो तिह दसरणमोहवखवरणा दसणमोहूगाण दसरणमोहुवसमण दस मोहे खविदे "" परि गहरणादी जहादि पडरणस्स असखाण पडणस्स तस्स दुगुर्ण परिणयट्टिया पडिखडगपरिमाणा परिवज्ज जहण्णदुग पडिवडवरगुण से ढी पडिवादगया मिच्छे पडिवादादीति दिय परिवाददुगवरवर पडिसमयगपरिणामा समयमखगुणा पडिसमयमसखगुण पडसमय मोक्कडुदि पढमठिदिश्रद्ध ते पढमट्ठिदि खड्डुक्की पट्टदियावलि पढमट्टि दिसीसादो पढमादो गुणसकम 8570 पू. सं १७ १३१ १४८ २९० १०४ .१३७ १७० १४१ १६३ २६८ ३.०५ ३०९ ३०५ ३२ १६३ ३०६ १६० १६३ १५५ ३२ २२३ ६१ ६१ २२० १४९ ७१ २१४ ७४ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा सं २५५ १२३ १३७ ३४६ १५१ १५० १२७ ५१ ३५ ३५५ ३५४ ३६० ८ २२२ ३८८ १३४ २२६ २३९ गाथा जत्तो पाये होदि हु जत्य प्रसखेज्जाणं जदि गोउच्छविसेस जदि मरदि सासरणी सो जन्सुदारुडो जस्सुदयेणारूडो जस्सुदयेण च चडिदो २१४ जावतरस्स दुरिम जेठ वरिट्टिदिवचे १७५ २०८ दिवि सज्जा जदि सकिले जुत्तो जदि होदि गुरिणदकम्मो जम्हा उवरिमभावा जम्हा हेट्ठिमभावा ३५० १६ १८७ "" ठिदिखडय तु खइये ठिदिखज्य तु चरिम २२८ ठिदिवघसहस्सगदे २५७ ठिदिवधारणोसरण ५४ ठिदिवधोसरण पुरण ठिदिरसघादो गत्थि ठिदिसत्तमपुब्वदुगे ठिदिखडाणुक्कीरण ठिदिवषपुषत्तगदे ठिदिवघसहस्स गदे "रण" गर तिरियक्खवरणराउग परति रिया श्रोघो परतिरिये तिरियारे ( ३४ ) पृ.सं. २०२ ११० १२३ २८८ १३४ १३४ ११० ४२ २६ २६१ २१ २६१ १७२ ७ १७७ ३१२ १२३ १८४ १९१ १८३ २०४ १४७ १७२ गा. सं. २८९ २६२ ३२६ २६१ ३०६ ५६ १११ २८८ १४ १५३ ६४ ३३४ २३७ ३६८ ४१ २६३ ९८ ४४ १६५ ९४ १९७ १४१ १८६ १९३ ३९० १३८ ३४१ ३३ १० १९६ २०६ ६२ गाया वरि सातिम वरिपु वेदस्सय वरिय गामदुगारंग रामदुगवेवरणीय गामवोदय बारस रिक्वेवम दिल्यावरण गिट्ठवगो तट्ठाणे "त" तक्काले वज्झमाणे तक्काले मोहरिय तत्काले वेयरिय गुणसेढी ग्रहिया तच्चरिमे ठिदिवघो तच्चरिमे पूववो तट्ठा ठिदिसत्तो तत्तक्काले दिस्म तत्ते प्रणिट्टस्स य तत्तो श्रभव्वजोग्ग तत्तो उदधि सहस्स य तत्तौणुभट्ठा तत्तो तिथरणविहिणा ततो दित्थावरग तत्तो पडिवज्जगया तत्तो पढमोहि तत्तो य सुहुमसजम तत्थ असखेज्जगुण तत्थ य पडिवादगया तत्थ य पडिवादगया तप्पढमट्ठ दिसत्त पृ.सं. २३२ २०६ ૨૬૭ २०६ २४६ ૪૬ १०५ ५१ २७४ १९० २९९ ३१ २०८ ८० १२३ २८० २८ Ε १६२ १७० ५१ १६१ ७६ १६२ १२८ १५२ १६० ३१४ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. सं १२५ १०७ १२८ २३३ ३३० ३३९ ३३५ ३४० ८१ १५३ ३५७ ३३३ ३३१ २५६ १६२ १५२ ९२ ५२ २२१ १७७ २१२ २१५ २९४ २६१ २८३ ८३ गाथा मिस्सुच्छ सम मिस्सुद सम्मिस्स मिस्सदुगचरिमफाली मोहगपल्लासख मोहस्स असखेज्जा मोहस् य ठिदिवधो मोहवीसियतीसिय मोहस्स पल्लवघे "" रसगदपदेसगुणहा रसठिदिखं डुक्कीरण "ल" लोहदयेण चडिदो लोयारणमसखेज्ज लोहस्स अकमण "व" वस्सारण बत्तीसा विदियकरणस्स पढमे विदियकरणादिमादो विदियकरणादिमादो विदियकरणादिसमया विदियकरणादिसमये विदियकरणादु जावय विवि विदिटी दिसव्व विदियद्धा परिसेसे विदियद्धा सखेज्जा विदियद्ध लोभावर विदिय व तदिय करण ( ३७ ) पृ सं ११० ९२ ११८ १८८ २७० २७८ २७४ २७८ ६६ १३६ ३५७ २७३ २७१ २०३ १३७ १३६ ७५ ४३ १७७ १४९ १७२ १७२ २३७ २३५ २२१ ६७ गा सं. २९८ १३१ ३३२ १९० ६३ ३४५ २४८ ६१ १६६ १६४ ३८ ३६ १४० २११ २१३ ९ १७२ २१७ १५५ २०९ १२२ २१६ १०५ १५६ १८९ २०३ १०१ गाथा विदयादि समयेसु विदयावलिस पढमे विवरीय पsिहादि वेदग जोगो मिच्छो वोलिय बघावलिय "स" ठाणे तावदिय सत्तकरणारिणयतर सत्त बधे सतह पयडीण सत्तरह पयडीण सत्या रणमसत्याण समए समए भिण्णा समत्तचरिमखडे सम्मत्तपय पिढम सम्मत्तपय डिपदम सम्मत्तहिमुहमिच्छो सम्मत्तप्पत्ति वा सम्पत्तीए सम्म दुरिमे चरिमे सम्सस्स मज्जा मम्मस्स श्रमखाण सम्मादिठिदिज्भोणे सम्मुदए चलमलिण सम्मे अनवस्निय सयलचरित तिविह सामवियदुगजहण सामारे पवनो पू. सं २४० १२० २७३ १५७ ५.१ २८५ १९७ ५० १४१ १४१ ३१ ३० १२८ १७२ १७२ ९ १४४ १७५. १३६ १७२ ११० ૨૭ १३३ १४७ ፡፡፡ =2 Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ.स ६७ २६७ ૨૬૩ २५६ २३७ ३३ m २१५ २ २५२ २१६ ३५६ गी सं गाथा पढमापुन्वजहण पढमापुबरसादो २६७ पढमावेदे सजलणाण २६८ पढमावेदो तिविह १८३ पढमे अवरो पल्लो ४८ पढमे करणे अवरा पढमे करणे पढमा पढमे चरिमे समये २९७ पढमे चरिमे समये २२५ पढमे छठे चरिमे २७ पढमे सव्वे विदिये। ३४३ पढमो अघापवत्तो ७७ पढम अवरदिदि पढम व विदियकरण २०२ परिहारस्स जहण्ण १६१ पलिदोवमसतादो पलिदोवमसतादो १२० पल्लटिठदिदो उरि ११४ पल्लस्स सखभागो ३६ पल्लस्स सखभाग १२१ पल्लस्स सखभाग १८२ पल्लस्स सखभाग २३१ पल्लस्स सखभाग २४० पुणरबि मदिपरिभोग २६६ पुरिसस्स उत्तरवक २६४ पुरिसस्स य पढमट्ठिटि ३०१ पुरिसादीणुच्छिट्ठ ३०२ पुरिसादो लोहगय ३२५ पुरिसे दुअरा वसते ४१ पृ. सं । गा सं० गाथा ११२ पुव्व तिरयणविहिरणा ३५२ पुकोघोदयचलिय ३१० ३६४ पु कोहस्स य उदये २११ ३२४ पुसजलणिदराण १४६ ३१५ वादरपढमे किट्टी ३३ २६५ वादरलोहादिठिी "म" ७२ मज्झिमघणमवरदेि २७५ मारणदुग मजलग२७६ मारणस्स य पढमठिदी २७४ मारणस्स य पढमठिदी माणादितियाण दये ३५८ माणोदयेणचडपडिदो १६३ ३५६ मारणोदयेण चडिदो मायदुग सजलग १३७ २८० मायाए पढमठिदी मायाए पढमठिदी मिच्छणथीतिसुरच मिच्छत्तमिस्ससम्म ११० २०० मिच्छयददेसभिण्णे १४६ १५८ मिच्छतिमठिदिखंडो १०८ मिच्छत वेदतो १६१ १२६ मिच्छस्स चरिमफालि २०६ १०६ मिच्छाइट्ठा ज २०८ १२४ मिच्छुच्छिट्ठादुरि २४२ १५७ मिच्छे खविरे सम्मदु २४३ १७० मिच्छो देसचरित २६७ । १७१ मिच्छो देसचरित्त २६१ २६१ २६१ १३७ २७६ २१६ ११० २७८ २१८ १०७ २५ १८५ १६ ११० ११० १३७ १४४ १४४ Page #655 --------------------------------------------------------------------------  Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) प. | गा सं 309 पृ. सं. गाथा सोदीरणाण दव्व सखेज्जदिमे सेसे 253 90 84 255 378 सजदअधापवत्तम 306 299 सजलणचउक्काण 211 238 गास गाथा 1 सिद्ध जिणिदचदे 106 सुत्तादो त सम्म 311 सुहुम्प्पविटठसमये 367 सुहमतिमगुणसेढी 296 से काले किट्टिस्स य 173 से काले देसवदि 272 से काले माणस्स य 277 से काले मायाए से काले लोहस्सय सेसगभागे भजिदे 129 सेस विसेसहीण 269 242 253 193 201 सजलणाण एक्क सढादिमउवसमगे संढुदयतरकरणो सढणुवसमे पढमे 214 296 362 329 220 224 286 हेट्ठासीसे उभयग | 287 हेट्ठा सीस थोव 118 232