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"लब्धिसार
[ गाथा २२
मनःपर्यय-केवलज्ञानावरण ) नौ दर्शनावरण ( चक्षु प्रचक्षु प्रविधि - केवलदर्शनावरण, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला ) पांच अंतराय ( दान- लाभ-भागउपभोग - वीर्यातराय ) इसप्रकार तीन घातिया कर्मोकी १२ प्रकृतियां, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धी प्रप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन क्रोध - मान-मायालोभ ये १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, देवगत्यानुपू, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकशरीरग्रङ्गोपाङ्ग (देवचतुप्क), त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर (त्रसचतुष्क), वर्ण- गन्ध-रस - स्पर्श (वर्ण चतुष्क), गुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वात ( गुरुलघुचनुष्क), समचतुरस्रसंस्थान, तैजसशरीर, कार्मणशरीरं, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश-कीर्ति ( स्थिरान्छिह) निर्माण और उच्चगोत्र इन ७१ प्रकृतियोंको बांधता है' |
आगे देव-तरकगतिमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुख मिथ्यादृष्टि के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों को कहते हैं
तं सुरचउक्कहोणं खर्चवज्जजुद पडिपरिमाणं । सुरछपुढवीमिच्छा सिद्धोतरणा हु बंधति ||२२||
अर्थ - उन (उपर्युक्त ७१ प्रकृतियों) में से देवचतुप्कको कम करके मनुष्य चतुष्क (मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, श्रदारिकशरीर, श्रदारिकशरीरअंगोपांग) और वज्ज्रर्षभनाराचसंहननको मिलानेसे इन ७२ प्रकृतियोको, बन्धापसरण कर चुकनेपर मिथ्यादृष्टिदेव और प्रथमादि छह पृथिवियोके नारकी बांधते हैं ।
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विशेषार्थं – प्रथमोपशनसम्यक्त्वके अभिमुख देव व प्रथम छह पृथ्वीके नारकी प्रायोग्यलब्धिमें ब्रन्वापसरण करनेके पश्चात् इन ७२ प्रकृतियोंका बन्ध करते हैंपाचज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व ग्रनन्तानुवन्धी आदि १६ कपाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरत्न संस्थान, औदारिकशरीरअंगोपांग, वज्रर्षभुनाराचसंहनन, वर्ण, गन्व, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु उपघात, परघात, - उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, देय, यश: कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांचग्रन्तराय ये ७२ प्रकृतियां हैं ।
१. ध. पु. ९ पृ. १३३-३४ । ज. व पु. पृ. २११ | एवं पृ. २२५ २२६ ॥
२. ध. पु ६ पृ. १४०-१४१ । ज. घ. पु. १२ पृ. २११-१२ ।