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________________ २३४] क्षपणासारचूलिका [गाथा ६-७ संक्रमण माया, मान, क्रोध में अथवा मायाका सक्रमण क्रोध-मानमें या मानका संक्रमण क्रोध नहीं होता है । बन्धप्रकृति में ही सक्रमण होता है 'जो जम्हि संछुहंतो णियमा बंधम्हि होई संछुहणा । बंधेण हीणदरगे अहिए वा संकमो णस्थि ॥६॥ अर्थ-जो जीव जिसप्रकृतिका सक्रमण करता है वह नियमसे बध्यमान प्रकृति में संक्रमण करता है । जिस स्थितिको बांधता है उसके सदृशस्थितिमें अथवा उससे होन स्थितिमें सक्रमण करता है, किन्तु अधिक स्थितिमे संक्रमण नहीं करता। विशेषार्थ-इस गाथामें बध्यमान प्रकृतियोमें सक्रमण किये जानेवाली बध्यमान या अबध्यमान प्रकृतियोका किसप्रकार संक्रमण होता है, यह बतलाया गया है। क्षपकश्रेणी में जो जीव जिस विवक्षित प्रकृतिके कर्मप्रदेशोको उत्कीर्णकर जिस प्रकृति में संक्रमण करता है नियमसे बन्धसदृशमे सक्रान्त करता है । यहां पर 'बन्ध' से साम्प्रतिकबन्धकी अग्नस्थितिका ग्रहण होता है, क्योकि स्थितिबन्धके प्रति उसकी ही प्रधानता है । अर्थात् इससमय बंधनेवाली प्रकृति की जो स्थिति है उसमें उसके समान प्रमाणवाली विवक्षित सक्रम्यमान प्रकृति के प्रदेशानको उत्कीर्णकर संक्रान्त करता है । 'बन्धेण हीणदरगे' इसका अभिप्राय यह है कि बन्धनेवाली अग्रस्थितिसे एकसमयादि कम अधस्तन बन्धस्थितियोमे भी जो आबाधाकालसे बाहर स्थित है, अधस्तन प्रदेशाग्रको स्वस्थान या परस्थानमे उत्कीर्णकर संक्रमण करता है, किन्तु वर्तमान में बन्धनेवाली स्थितिसे उपरिम सत्त्वस्थितियों में उत्कर्षण सक्रमण नही होता है। यह 'अहिए वा सकमो णत्थि' का अर्थ है । आबाधाकालका पर प्रकृतिरूप संक्रमण समस्थितिमे प्रवृत्त होता है। क्षपकौणिमें बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोको यथासम्भव सक्रमण करता हुआ बध्यमान प्रकृतियोके प्रत्यग्रबन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरितन स्थितियोमें से समस्थितिमें सक्रमण करता है । 'बंधेण होइ उदो अहिय उदएण संकमो अहिओ । गुणसेडि अणतगुणा बोद्धव्यो होइ अणुभागो ॥७।। १. जयधवल मूल पृष्ठ २२७३, क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६५ गा० १४० । २. जयधवल मूल पृष्ठ १९८६-६०। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२७४; क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ गा० १४४ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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