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________________ शुद्ध दुगुरगा-दुगुणा करने पर पृष्ठ पंक्ति प्रशुद्ध १०४ मंष्टि के १० वार दुगुणा करने पर नीचे से तीसरी लाइन १०५ १७ निक्षिप्तमान १०५ २०-२३ म विधान से............अन्य कोई देता हुग्रा इसप्रकार इस विधान से अनन्तरोपनिया की अपेक्षा ऊपर सर्वत्र एक-एक वर्गणा विशेष प्रमाण हीन करते हए तब तक ले जाना चाहिये जब तक कि समस्त सग्रह कृष्टियो की अन्तर कृष्टियो को उल्लघन करके सर्वोत्कृष्ट चरम क्रोध कृष्टि (यानी क्रोध की तृतीय सग्रह कृष्टि की अन्त कृष्टि) को प्राप्त हो जाय । क्योकि इस अध्वान मे अनन्तर उत्तर की अनन्तर पूर्व से अनन्तभाग हानि को छोडकर प्रकारान्तरता सभव नही है। इति पाठः। १०५ १०६ २५ १ ति पाठो पर्याय असम्भव है। अनन्तवे भाग प्रमाण है और १०६ १०७ १०७ विशेप मे हीन समस्त द्रव्य है ।१ १२ कृप्टियो के नीचे जाननी । दृश्यमान मे १८ अनन्त वें भाग प्रमाण है यहा हीन सकल द्रव्य का प्रमाण विशेप है। १२ कृष्टियो मे से प्रत्येक की जघन्य कृष्टि के नीचे जाननी। इसप्रकार देय (दीयमान) द्रव्य मे तेबीस स्थानो मे उष्ट्रकूट रचना होती है । दृश्यमान मे प्रथम सग्रहकृष्टि की जघन्यकृष्टि से अनन्तर द्वितीयकृष्टि मे अनन्तभाग से हीन जाते हैं, अपूर्व तृतीय सग्रह कृष्टि मे भी १४ १०६६ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११३ ११४ १७ १० २० ७ १४ १५ १४ प्रथममग्रह कृष्टि मे अनन्त भाग से हीन जाते है । अपूर्व तृतीयसग्रहकृष्टि के नीचे अन्तर कृष्टियो मे भी चरम कृष्टि से बारह सुज्जुत्तो अनुभवता वेदना जानना कि ये सर्वनिषेक तव संज्वलन के चरम कृष्टियो से बारह सजुत्तो भोगता वेदन करना जानना । तथा अवशेष सर्वनिषेक वहां सज्वलन के
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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