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क्षपणासार २६४]
[गाथा ३५४-६० क्रोधोदयसे श्रेणि चढे हुए उपशामकके पुनः गिरनेपर जितना मानवेदककाल है उतने प्रमाणकालसे मानोदयसे श्रेणि चढकर गिरनेपर मानको वेदनकर अनतर समयमें मानका वेदन करता हुआ एकसमयके द्वारा क्रोधको अनुपशांतकर अपकर्षण करता है । क्रोध से चढकर गिरनेवाला क्रोधोदयमे तीनप्रकारके क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधकी उदयादिगलितावशेष गुणश्रेणि करता है, कितु मानसे श्रेणि चढ़कर गिरनेवाला मानवेदन कालमे क्रोधका अपकर्षणकर संज्वलनक्रोधकी उदयावलि बाहर गलितावशेष गुणश्रेणि है। इन दोनोमे यह विभिन्नता है ।' अर्थात् मानके साथ चढनेवालेके प्रथमसमय करता अवेदीसे लेकर जबतक क्रोधका उपशामनाकाल है तबतक विभिन्नता है तथा मानके साथ श्रेणि चढकर उतरनेवालेके मानको वेदन करते हुए तबतक विभिन्नता है जबतक क्रोधका अपकर्षण नही करता। क्रोधके अपकर्षण करनेपर क्रोधको उदयादि गुणश्रेणी नही होती। मान ही वेदा जाता है। क्रोधकी उदयादि गुणश्रेरिण नही है व मानका ही वेदन होता है ये दो नानात्व है। क्रोधके अपकर्षणसे लगाकार जवतक अध प्रवृत्त सयत होता है तबतक ये विभिन्नताएं होती है।
क्रोधकषायके साथ उपशमरिण चढनेवालेके क्रोध, मान व मायाकी जितनी प्रथमस्थितिया होती हैं वे तीनो प्रथमस्थितिया यदि सम्मिलित कर दी जावे तो उतनी माया कषायके साथ उपशमश्रेणि चढनेवालेके माया कषायकी प्रथमस्थिति होती है व अन्तरकरण करने के प्रथमसमयमें मायाकी प्रथमस्थितिको करता है इस प्रथमस्थिति के अभ्यन्तर तीनप्रकारके क्रोधको और तीनप्रकारके मानको और तीनप्रकारकी माया को यथाक्रम उपशमाता है। तदनन्तर लोभको उपशमाता है उसमें कोई अन्तर नही है। मायाके साथ उपशमश्रेणि चढकर उतरनेवालेके लोभके वेदनकालतक कोई विभिन्नता नही है। उसके पश्चात् विभिन्नता है। क्रोधके साथ श्रेणि चढकर उतरनेवालेके मायाकी प्रथमस्थिति मायावेदककालसे आवलिप्रमाण अधिक ही होती है, १ ज. घ. मूल पृ० १६१६ सूत्र ५६१-६२ । २. सूत्र ५६७ । ३. ज घ. मूल पृ १६२१ सूत्र ५७२। ४. ज. घ. मूल १६२१ । क पा सुत्त पृ ७२६-३०,ध पु ६ पृ ३३३ । ज घ. मूल पृ. १९२४ ।
घपु ६ पृ ३३४; क. पा सुत्त पृ ७३० ।
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