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________________ लव्धिसार [ १६१ प्रतिपातस्थान सबसे अल्प है उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असख्यातगुणे है । उनसे अनुभयस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सभी चारित्रलब्धिस्थान विशेषाधिक है । विशेषाधिक होते हुए भी वे प्रतिपातस्थान और प्रतिपद्यमानस्थानोका जितना प्रमाण है उतने अधिक है । जहा असख्यातगुणा कहा वहा गुणाकार असख्यात लोकप्रमाण है' । तीन प्रकारके प्रतिपातस्थानोके जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोका तीव्रता - मन्दताकी अपेक्षा सदृष्टि द्वारा अल्पबहुत्व गाथा २०४ के अन्तमे बतलाया जावेगा । गाथा १६५ ] अथानन्तर प्रतिपद्यमान स्थानों का कथन करते हैं तत्तो पडिवज्जगया अज्जमिलिच्छे मिलेच्छज्जे य । कमसो अवरं वरं वरं वरं होदि संखं वा ॥१६५॥ प्रर्थ— प्रतिपातस्थानोके ऊपर असख्यातलोकप्रमाण प्रतिपद्यमान स्थान है । वे आर्य मनुष्यका जघन्य, म्लेच्छ मनुष्य का जघन्य, म्लेच्छ मनुष्यका उत्कृष्ट, आर्य मनुष्यका उत्कृष्ट इस क्रम से है । विशेषार्थ - भरत, ऐरावत और विदेहमे मध्यम खण्ड प्रार्यखण्ड है; वहाके निवासी मनुष्य प्रार्य है । मध्यम खण्डके अतिरिक्त शेष पाचखण्ड मलेच्छखंड है और वहाके निवासी मनुष्य मलेच्छ कहलाते है । उनमे धर्म-कर्म की प्रवृत्ति असम्भव होनेसे म्लेच्छपने की उत्पत्ति बन जाती है । दिग्विजय मे प्रवृत्त हुए चक्रवर्तीकी सेनाके साथ जो म्लेच्छ मध्यम अर्थान् आर्यंखण्डमे आये है तथा चक्रवर्ती प्रादिके साथ जिन्होने वैवाहिक सम्बन्ध किया है ऐसे म्लेच्छ राजानके सयमकी प्राप्तिमे विरोधका अभाव है । अथवा उनकी जो कन्याए चक्रवर्ती आदिके साथ विवाही गई उनके गर्भ से उत्पन्न हुई सन्तान मातृपक्षकी अपेक्षा स्वय मलेच्छ है । इनके दीक्षाग्रहण सम्भव है । इसलिये कुछ निषिद्ध नही है, क्योकि इसप्रकारकी जातिवालोके दीक्षाके योग्य होनेमे प्रतिषेध नही है । तीव्रमन्दताकी अपेक्षा अल्पबहुत्वका कथन गाथा २०४ के अन्तमे किया जावेगा । १. ज.ध. पु १३ पृ. १७६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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