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________________ गाथा १०१-१०२ ] - क्षपणासार अश्वकर्णकरणके समाप्त होनेपर अर्थात् प्रथमभागका काल समाप्त होनेपर तदनन्तरकालमें अन्यस्थितिबन्ध होता है । जो चारों संज्वलनकषायोंका अन्तर्मुहूर्तकम आठवर्ष है और कर्मों का स्थितिबन्ध पूर्वके स्थितिबन्धसे संख्यातगुणाहीन है अन्य अनुभागकाण्डक होता है । अन्य स्थितिकाण्डक होता है जो कि मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन चार घातियाकर्मोंका संख्यातसहस्रवर्ष है और नामगोत्र, वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मोंका असंख्यातबहुमाग हैं'। कृष्टिकरणकालमें अश्वकरण भी होता है, क्योंकि अनुभागको अपेक्षा कृष्टियों की रचना अश्वकर्णकरण भी होता है जिसके द्वारा संज्वलनकषायरूप कर्म कृश किया जाता है, उसकी कृष्टि यह सार्थक संज्ञा है । यह कृष्टिका लक्षण है । कोहादीणं सगसगपुवापुवगदफड्ढयेहितो।। उक्कड्डिदूण दव्वं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥१०१॥४६२।। अर्थ-क्रोधादिके अपने-अपने पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोंसे अपकर्षित द्रव्यके द्वारा क्रमसे कृष्टियां करता है । विशेषार्थ-कृष्टिकारक प्रथमसमय में क्रोधके पूर्ग और अपूर्वस्पर्धाकोंसे प्रदेशाग्नका अपकर्षणकर क्रोध कृष्टियोंको करता है । मानके पूर्व-अपूर्वस्पर्शकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मानकृष्टियोंको करता है। मायाके पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोंसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर मायाकृष्टियोको करता है । लोभके पूर्व अपूर्वस्पर्णकोंसे प्रदेशाग्र का अपकर्षणकर लोभकृष्टियोंको करता है । उक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेजभागबहुभागो। बादरकिद्विणिबद्धो फड्ढयगे सेसइगिभागो ॥१०२॥४६३।। अर्थ-अपकर्षितद्रव्यको पल्यके असंख्यातवेंभागसे भाजितकर उसमें से बहुभागद्रव्य बादरकृष्टियों में दिया जाता है और एकभाग पूर्व-अपूर्वस्पर्धको में दिया जाता है। १. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७-७६८ सूत्र ५८५-५८८ । २. "किसं कम्मं कद जम्हा, तम्हा किट्टी ।।७३३।। एवं लक्खणं ॥७३४॥ (क. पा. सुत्त पृ. ८०८) ३. धवल पु० ६ पृष्ठ ३७४-३७५ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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