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________________ गाथा ६७-६६] क्षपणासौर [६ 'हयकएणकरणचरिमे संजलणाणटुवस्सठिदिबंधो। वस्साणं संखेज्जसहस्सांणि हवंति सेसाणं ॥१७॥४८॥ अर्थ-अश्वकर्णकरणके अन्तिमसमयमें संज्वलनकषायोंका आठवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है और शेषकर्मोका सख्यातहजारवर्षवाला स्थितिबन्ध होता है। विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणकालके प्रथमसमय में संज्वलनकषायका बंध अंतर्मुहूर्तकम १६ वर्ष और ज्ञानावरणादि शेषकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्ष होता था। जब अपूर्वस्पर्धक निर्वर्तनाका चरमसंमय होता है उससमय संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभका स्थितिबन्ध घटकर जो बन्ध होता है उस बन्धकी स्थिति आठवर्षमात्र होती है, किन्तु ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन तीन घातियाकर्म तथा वेदनीय, नाम और गोत्र इन तीन अंघातियाकर्मोका अर्थात् इन छहोंकर्मोंका स्थितिबन्ध हजारों स्थितिबधापसरणके द्वारा सख्यांत गुणा घटकर संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है, क्योंकि ये छहकर्म मोहनीयकर्मकै समान अतिअप्रशस्त नहीं है। ठिदिसत्तमघादीणं असंखवरसाण होति घादीणं । वस्साणं संखेज्जसहस्लाणि हवंति णियमेण ॥८॥४८६॥ अर्थ-अधातियाकर्मोका स्थितिसत्त्व असंख्यातवर्षप्रमाण और धातियाकर्मोंको स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षका नियमसे होता है । विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके चरमसमयमें नाम, गोत्र व वेदनीय इन तीन अघातियाकर्मीका स्थितिसत्कर्म असंख्यातवर्ष और ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोडनीय एवं अन्तराय इन चार घातियोकर्मोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष होता है । इसप्रकार अश्वकर्णकरणका काल समाप्त होता है। आगे बादरकृष्टिकरणकेकालका प्रमाण जानने के लिए गाथासूत्र कहते हैं--- छक्कम्मे संछुद्ध कोहे कोहस्त वेदगद्धा जा। तस्स य पढमतिभागो होदि हु हयकरणकरणद्धा ॥६६॥४६०॥ - १. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७९७ सूत्र ५७९-८० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७४ । जयधवल मूल पृष्ठ २०४४। २ क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६७ सूत्र ५८१-८२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३७४ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४४ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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