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________________ २३८] क्षपणसारचूलिका [ गाथा २६१-२६२ नोट--उपर्युक्त १२ गाथाओंका ग्रन्थान्तर (जयधवल मूल) से क्षपणाधिकारकी चूलिकाका कथन हिन्दी टीकाकारने उद्धृ त किया है । इसके अनन्तर आचार्य वेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा क्षपणासारका उपसंहार करते हुए अन्तिम मंगल दो गाथाओं द्वारा किया गया है । उसीको कहते हैं-- वीरिंदणंदिवच्छेणप्पसुदेणभयणं दिसिस्सेण । दसणचरित्तलद्धी सुसूयिदाणेमिचंदेण ॥२६१॥६५२॥ अर्थ-इसप्रकार वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिाचार्यके दत्स तथा अभयनन्दिआचार्य के शिष्य मुझ अल्पज्ञ नेमिचन्द्रने दर्शन व चारित्रलब्धिको भले प्रकारसे कहा है। अब प्राचार्य गुरुनमस्कार पुरस्सर अन्तिममङ्गल करते हैं-- जस्ल य पायपसाएणणंतसंसारजलहिमुत्तिएणों । वीरिंदणंदिवच्छोणमामि तं अभयणंदिगुरु ॥२६२।।६५३॥ अर्थ-वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि आचार्यका वत्स मैं नेमिचन्द्रआचार्य जिनके चरणप्रसादसे अनन्तसंसारसमुद्रसे पार हुआ उन अभयनन्दिनामक गुरुको नमस्कार करता हूँ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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