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[ गाथा १२७
११६ ]
है, किन्तु दर्शन मोहनीयका स्थितिसत्कर्म पल्योपमप्रसारण अवशिष्ट रहने पर स्थिति - काण्डकायाम पल्योपमके सख्यात बहुभागप्रमारण होता है'। उसके पश्चात् जो-जो स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस उसका सख्यातबहुभाग स्थितिकाण्डकायाम होता है । इसप्रकार सहस्रो स्थितिकाडकोके व्यतीत होनेपर पल्योपमके सबसे अन्तिम सख्यात भागप्रमाण दूरापकृष्टि सज्ञा वाला स्थितिसत्कर्म होता है । जिस अवशिष्ट सत्कर्म मेसे संख्यात बहुभागको ग्रहण कर स्थितिकाडकका घात करनेपर घात करने से शेष वचा स्थितिसत्कर्म नियमसे पल्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण होकर अवशिष्ट रहता है, उस सबसे अन्तिम स्थितिसत्कर्मकी दूरापकृष्टि सज्ञा है, क्योकि पल्योपप्रमाण स्थितिसत्कर्म से अत्यन्त दूर उतरकर सबसे जघन्य पत्योपमके सख्यातवे भागरूप से इस स्थितिसत्कर्म का श्रवस्थान है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्म से नीचे अत्यन्त दूरतक पकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृष - अल्प होने से यह स्थिति दूरापकृष्टि है । यहा से लेकर सख्यात बहुभाग को ग्रहरणकर स्थितिकाण्डक घात किया जाता है प्रत वह स्थिति दूरापकृष्ट कहलाती है । यहा दूरापकृष्टिस्थिति एक भेद स्वरूप है, क्योकि ग्रनिवृत्तिकरणरूप परिणामोके द्वारा घात करने से अवशिष्ट स्थिति के अनेक भेदवाली होने का विरोध है' । पल्यके सख्यातवेभागप्रमाणवाली दूरापकृष्टिसे नीचे सत्त्व असख्यातबहुभागवाले संख्यातहजार स्थितिकाडक व्यतीत होनेपर वहा सम्यक्त्व के प्रख्यात समयप्रवद्धो की उदीरणा होती है । यहा से पूर्व सर्वत्र ही असख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार सम्यक्त्व की उदीरणा प्रवृत्त होती थी, परन्तु यहा पर पत्योपमके असख्यातवेभागप्रमाण प्रतिभाग के अनुसार सम्यक्त्वकी उदीरणा प्रवृत्त हुई । पकर्षित समस्त द्रव्य मे पल्योपमके असख्यातवेभाग का भागदेकर जो लब्ध प्रावे उतने द्रव्यको उदयावलिसे बाहर गुरणश्रेणीमे निक्षिप्त करता है । गुणश्रेणीके श्रसख्यातवेभाग मात्र द्रव्यको जो असख्यात समयप्रबद्ध मात्र है, इस समय उदीरित करता है । तदनन्तर बहुत स्थितिकाण्डको के व्यतीत होने पर मिथ्यात्व के अन्तिमकाण्डक मे मिथ्यात्व की उदयावलिसे वाहरके सर्वद्रव्यको ग्रहण किया । इसप्रकार मिथ्यात्वका उदयावलि अर्थात् उच्छिष्टावलिमात्र द्रव्य शेष रह जाता है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्व
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ज ध पु १३ पृ ४४ ।
ज ६ पु. १३ पृ ४४-४५ ।
घ. पु. १३ पृ ४७ ॥
लब्धिसार