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________________ गाथा २६८-२६९ ] [ २११ लिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होने पर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमे अन्य स्थितिबन्धको प्रारम्भ करता हुआ सज्वलन के पूर्व के स्थितिबन्धसे अन्तर्मुहूर्तकम स्थितिबन्धको आरम्भ करता है, क्योकि यहासे लेकर सज्वलनोके स्थितिबन्धका उत्तरोत्तर अपसरणे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणी हानिके क्रमसे बन्धको प्राप्त होता हुआ संख्यातहजार वर्षप्रमाण जानना चाहिए' । अपगतवेद के अन्य भी कार्य दो गाथानों में कहते हैंपदमावेदो तिविहं को उवसमदि पुत्रपढमठिदी | समयाहिय आवलियं जाव य तक्कालठिदिबंधो ॥ २६८ ॥ संजलचक्काणं मासचउक्कं तु सेसपयंडीं । वस्सां संखेज्जसइस्लाणि हवंति खियमेण ॥ २६६ ॥ 7 लब्धिसार अर्थ — प्रथम समयवर्ती अपगतवेदी जीव तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाता है । इनकी वही पुरानी प्रथम स्थिति होती है । ( पूर्व स्थिति में ) जब समय अधिक श्रावली - काल शेष रह जाता है, उस समय स्थितिबन्ध नियमसे सज्वलन चतुष्कका चार मास और शेष कर्मोका सख्यातहजार वर्ष प्रमाण होता है । विशेषार्थ - पुरुषवेदके पुरातन सत्कर्म उपशान्त होने पर उसके नवकबन्धको यथोक्त क्रमसे उपशमाता हुआ उस अवस्थामे ही तीनप्रकारके क्रोधको यहासे उपशमाना आरम्भ करता है । पूर्वमे अन्तर करते समय पुरुषवेद की प्रथमस्थितिसे विशेष अधिक संज्वलनक्रोधकी प्रथम स्थिति स्थापित की थी, गलित होने से जितनी शेप वची वही यहां र प्रवृत्त रहती हैं । जिस प्रकार आगे मानादिककी उपशामना करते समय सवेदक के कालसे एक आवलि अधिक अपूर्व प्रथम स्थिति की जाती है उसप्रकार यहा पर तीन प्रकारके क्रोधको उपशमाने के लिए अपूर्व प्रथम स्थिति नही की जाती, किन्तु रची : वही पुरातन प्रथमस्थिति तीनप्रकारके क्रोधको उपशमाने तक विना प्रतिवन्धके ! वृत्त रहती है । प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त हीन होता है शेष कर्मोका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा हीन होता है । २. क. पा. सुत्त पृ ६६७-६८; ज. ध. पु १३ पृ. २८६-२६० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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