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________________ क्षपणासार गाथा १८६-१९०] समयमें वह चरमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक होता है, उसी समयमै अर्थात् अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके चरमसमयमें लोभकी संक्रम्यमाण (जिसका पूर्वसे यथाक्रम सक्रमण हो रहा था) चरम (तृतीय) बादरकृष्टि सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंमें सक्रांत हो जाती है। यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षा है, क्योकि उससमय वह बादरसाम्परायिक है, अन्यथा सूक्ष्मसाम्परायके प्रथमसमयमें बादरसाम्परायिककृष्टिद्रव्यका सामस्त्यरूपसे सूक्ष्मकृष्टि में संक्रमण देखा जाता है। उससमय मात्र लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टि के द्रव्यका हो संक्रमण नहीं होता, किन्तु लोभको द्वितीयसग्रहकृष्टि के भी एकसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्धको तथा उदयावलि में प्रविष्टद्रव्यको छोड़कर द्वितीयसंग्रहकृष्टिको सक्रम्यमाण शेष अन्तरकृष्टियां सक्रमणको प्राप्त हो जाती है । 'लोहस्त तिघादीणं, ताहे अघादीतियाण ठिदिबंधो । अंतो दु मुहत्तस्त य दिवसस्स य होदि वरिसस्त ॥१८६॥५८०॥ अर्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें संज्वलनलोभका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तमुहूर्तप्रमाण, तीनघातियाकर्मोका कुछकम एकदिन तथा तीन अघातियाकर्मीका कुछकम १ वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है । विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरणके चरमसमयमें लोभसंज्वलनका जघन्यस्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होता है और उसीसमय मोहनीयकर्मकी बधव्युच्छित्ति होती है, क्योंकि उसके ऊपर मोहनीयकर्मके बन्धमें कारणभूत परिणामोंका अभाव है। तीव घातियाकर्मोका स्थितिबन्ध पहले दिवसपृथक्त्वप्रमाण होता था जो घटकर कुछकस एकदिन-रात प्रमाण रह गया । नाम, गोत्र व वेदनीय, इन तीन अघातियाकर्मों का स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे घटकर अन्तःवर्ष अर्थात् कुछकम एकवर्ष प्रमाण रह जाता है । 'ताणं पुण ठिदिसंतं कमेण अतोमुहुत्तयं होदि । वस्साणं संखेज्जसहस्साणि असंखवस्साणि ॥१६०॥५८१॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२०७। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १२९८-१३००। घवल पु० ६ पृष्ठ ४०२-४०३ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २२०७-२२०८ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६८ सूत्र १३०१-१३०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०३ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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