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लब्धिसार
[ गाथा ३०४-३०५
२४४ ]
स्वच्छ परिणामवाला होकर अवस्थित रहता है, क्योकि अन्तर्मुहूर्तसे और अधिककालतक उपशम पर्यायका अवस्थान असम्भव है' ।
समस्त उपशान्तकालमे वह अवस्थित परिणामवाला होता है, क्योकि परिणामो की हानि - वृद्धिकी कारणभूत कषायोके उदयका प्रभाव होनेसे अवस्थित यथाख्यातविहारशुद्धिसयमसे युक्त सुविशुद्ध वीतरागपरिणाम के साथ प्रतिसमय अभिन्नरूपसे उपशातकषायवीतरागके कालका पालन करता है ।
प्रथानन्तर उपशांतकषाय गुणस्थानका काल कहते हैंतोमुत्तमेतं उवसंतकसायवीयरायद्वा । गुणीदीहत्तं तस्सद्धा संखभागो दु || ३०४ ॥ श्रर्थ–उपशातकषायवीतरागका काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उसके संख्यातवेभागप्रमारण गुण रिण आयाम है ।
विशेषार्थ - उपशातकषायका काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इस उपशांतकषायकालके सख्यातवेभागप्रमाण श्रयाभवाला इस जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोंका गुणश्रेणि निक्षेप होता है । ऐसा होता हुआ भी अपूर्वकरणके प्रथम समयमे किये गये गलितशेष गुणश्रेणि निक्षेपके इससमय प्राप्त होने वाले शीर्ष से सख्यातगुणा होता है । उक्त कथनका विशेष स्पष्टीकरण आगे करते हैंउदयादिवदिट्ठद्गा गुणसेढी दव्वमवि श्रवट्ठिदगं । पढमगुण से डिसीसे उदये जेट्ठ पदेसुदयं ॥३०५॥
अर्थ - उपशातमोह कालमे उदयादि गुणश्र णिका आयाम अवस्थित है और द्रव्यनिक्षेप भी अवस्थित है । प्रथम गुण रिण ( उपशात मोहके प्रथम समयमे की गई गुणश्रेणि) के शीर्षका उदय होनेपर ज्येष्ठ अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है ।
१ यद्यपि यह उपशान्त कषाय जीव अवस्थित परिणामवाला होता है तो भी उपशान्तकषायभावसे श्रवस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है, क्योकि उसके बाद उपशमपर्यायका अवस्थान (टिकाव ) श्रसम्भव है । (ज. व मूल पृ १८६२ एव ध पु. ६ पृ ३१७ ) ज ध. पु १३ पृ ३२५-२७ । ३ कपा. सु पृ. ७०५, सूत्र २८८, ज ध. मूल पृ १५६६-६७, ध
पु. ६ पृ. ३१६ ।
४.
जघ पु १३ पृ ३२७ ।