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________________ लब्धिसार १३६ ] [ गाथा १५२ - ९५५ का एक-एक समयमे उदयरूप होकर ) नष्ट होता है । तदनन्तर समय मे उच्छिष्टावलि - प्रमाण स्थिति अवशिष्ट रहनेपर उदीरणाका भी अभाव हुआ, केवल अनुभागका अपवर्तन ( पूर्वमे कहे गए अपवर्तनसे यहा अपवर्तनका भिन्न लक्षण है ) अनुभागका अपवर्तन उदयरूप प्रथम समयसे लेकर प्रतिसमय अनन्तगुणे क्रमसे प्रवर्तता है उससे ( अपवर्तन से ) प्रकृति- स्थिति अनुभाग प्रदेशोके सर्वथा नाशपूर्वक प्रतिसमय उच्छिष्टावलि के एक-एक निपेकको गलाकर निर्जीण करता है और अनन्तरसमय मे ही क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । आगे कहे जाने वाली अल्पबहुत्व के कथन की प्रतिज्ञारूप गाथा कहते हैंविदियकरणादिमादो कदकर णिज्जस्स पढमसमश्रोत्ति । वोच्छं रसखंडुक्कीरणकालादीणमप्पबहु ॥ १५२ ॥ अर्थ—–द्वितीय करण (अपूर्वकरण) के प्रथमसमय से लेकर कृतकृत्यवेदक के प्रथम समयपर्यन्त अनुभागकाण्डकोत्कीरण कालादिक के अल्पबहुत्वसम्बन्धी ३३ स्थानों का कथन श्रागे करेंगे । विशेषार्थ - दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके प्रथम - नमय से लेकर कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम समयतक इस अन्तरालमें जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कीरणकाल तथा स्थितिकाण्डकोत्कीरण कालो के जघन्य व उपस्थितिकाण्डक, स्थितिवन्ध, स्थिति सत्कर्मोके जघन्य व उत्कृष्ट प्रबाधाओ का तथा अन्य पदोके अल्पबहुत्वका कथन किया जावेगा । अब ११ गाथाओं के द्वारा अल्पबहुत्वके ३३ स्थानोंका कथन करते हैंरस ठिदिखंडुक्की र अद्धा अवरं वरं च वरवरं । सत्थवं श्रयिं संखेज्जगुणं विसेलहियं ॥ १५३ ॥ कद करणसम्म खवणायिट्रिटचपुण्वद्ध संखगुणिदकमं । नत्तो गुणमेडिस्स य शिक्खेओ साहियो होदि ॥ १५४ ॥ सम्मदचरमे चरिमे वस्सस्सादिमे य ठिदिखंडा । वववाहाविय अवस्सं संखगुणिदकमा ।। १५५ ।।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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