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________________ गाथा २५६ ] लब्धिसार [ २०३ इसलिए तब उसका स्थितिघात प्राप्त होता है । इसी मान्यतामें नपु सकवेदकी स्थितिसे स्त्रीवेदको स्थितिका अधिक घात होनेके कारण स्त्रीवेदकी स्थितिसे नपु सकवेदकी स्थिति सख्यातगुणी हीन होनेका प्रसग पाता है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके (उपशमनके समय उससे) पश्चात् क्रमश. उपशमाई जानेवाली सात नोकषाय व बारहकषायोकी स्थिति भी स्त्रीवेदकी स्थितिसे सख्यातगुणी-सख्यातगुणी हीन होनेका प्रसग प्राप्त होगा, किन्तु यह इष्ट नहीं है, क्योंकि उपशान्त अवस्थामे बारहकषाय और नौ नोकषायकी स्थिति सदश ही होती है, ऐसा परमगुरुके उपदेशसे सिद्ध है। इसलिए अन्तरकरण सम्पन्न होने पर मोहनीयकर्मका स्थितिघात और अनुभागघात नही होता' । पहले जो स्थितिबन्धका प्रमाण असख्यातगुणा हीनरूपसे प्रारम्भ था, अन्तरकरणकी समाप्तिके कालमें ही उस स्थितिबन्धके सख्यातवर्षप्रमाण हो जाने पर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा एक स्थितिबन्धको निवृत्तकर अन्य स्थितिबन्धको सख्यातगुणा हीन करके प्रारम्भ करता है । यह मोहनीयकर्म सम्बन्धी बन्धापसरणोकी विधि है । मोहनीयकर्म के अतिरिक्त शेषकर्मोके प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिबध असंख्यातगुणा हीन होता है। अब स्थितिबन्धापसरणके प्रमाणका निर्देश करते हैं वस्साणं बत्तीसादुवरिं अंतोमुहत्तपरिमाणं । ठिदिबंधाणोसरणं अवरट्ठिदिबंधणं जाव ॥२५६॥ अर्थ-सज्वलनकषायका स्थितिबन्ध बत्तीस वर्षप्रमाण हो जानेपर प्रत्येक स्थितिबन्धापसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमाणवाला होने लगता है । जबतक जघन्य स्थितिबन्ध हो तबतक स्थितिबन्धापसरण अन्तर्मुहूर्त प्रमाणवाला होता है। विशेषार्थ-सवेदी जीवके अन्तिम समयमें सज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध सम्पूर्ण बत्तीस वर्षप्रमाण होता है । उस स्थितिबन्धका वही पर्यवसान होता है। इसलिए उस स्थितिबन्धके समाप्त होनेपर अपगतवेदी जीव अवेदभागके प्रथम समयमें अन्तम हर्तकम बत्तीसवर्षका स्थितिबन्ध आरम्भ करता है, क्योकि यहासे लेकर संज्वलन कषायोके स्थितिबन्धका उत्तरोत्तर अपसरण अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है, परन्तु शेष १. ज ध पु. १३ पृ २७५-२७७ । २. ज ध. पु १३ पृ २७५ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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