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[ गाथा २५४-२५५
लव्धिसार
यहीं स्थितिकांडकादिके प्रभावका निर्देश करते हैंअंतरकरणादुवरिं ठिदिरसखंडा ण मोहणीयस्स । ठिदिबंधोसरणं पुण संखेज्जगुण हीणकमं ॥ २५४ ॥ जत्तोपाये होदि हु ठिदिबंधो संखवरसमेत्तं तु । तत्तो संखगुणूणं बंधोसरणं तु पयडीणं || २५५ ॥
अर्थ–अन्तरकरण करनेके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिकाडकघात व अनुभागकाण्डकघात नही होते, किन्तु स्थितिवन्धा पसरण क्रमण सख्यातगुणे हीन होते है । जव से मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातवर्ष मात्र होता है तवसे सव प्रकृतियोका स्थितिबन्धापसरण सख्यातगुणा हीन होता है ।
विशेषार्थ — अन्तरकरण करके नपु सकवेदकी उपशामना प्रारम्भ होनेपर मोहनीयकर्मके स्थितिघात व अनुभागघात नही होते । नपु सकवेदको उपशमानेवाला प्रथमसमयमे सर्व स्थितियोमे स्थित प्रदेश के प्रसख्यातवेभागप्रमाण द्रव्यको उपशमाता है । इसप्रकार उपशमाकर यदि स्थिति और अनुभागका घात करता है तो उपशमित किये गए प्रदेशपु जका भी स्थितिघात और अनुभागघात प्राप्त होता है, क्योकि उपशमित किये गये प्रदेशपु को छोडकर शेषके भी घातका कोई उपाय नही पाया जाता । उपशमाए गये प्रदेशपु जका घात सम्भव नही है, क्योकि प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशमित किये गये प्रदेशपु जका अपनी स्थिति और अनुभागमे परिवर्तन नही होता । इसप्रकार प्रथम स्थितिकाडकके काल के भीतर प्रतिसमय उपशमित किये गये प्रदेशपु ज के स्थितिघात और अनुभागघातका अतिप्रसग प्राप्त होता है । इसीप्रकार दूसरे स्थितिकाडककालमे उपशमित किये गये द्रव्यके घातका प्रसंग प्राप्त होता है । नपु सकवेदको उपशमाकर स्त्रीवेदको उपशमानेवाला यदि नपुंसकवेदका स्थितिकांडकघात और ग्रनुभाग काण्डकघात करता है तो उपशामना निरर्थक प्रसक्त होती है ।
यदि उपशमाई जाने वाली या उपशान्त हुई प्रकृतियोका काण्डकघात नही होता, शेष नही उपशमित की गईं मोहनीयकर्मप्रकृतियोका काण्डकघात होता है ऐसा माना जावे तो नपु सकवेदकी स्थितिसे स्त्रीवेदकी स्थिति सख्यातगुणी हीन प्राप्त होती है, क्योकि नपुंसकवेदके उपशमाने सम्बन्धी कालके भीतर उपशमित किये जानेवाले नपु सकवेदका तो स्थितिघात होता नही, किन्तु स्त्रीवेद बादमें उपशमाया जाता है,