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________________ शब्द अन्तरकरण श्रपूर्वकरण अप्रतिपात प्रतिपद्यमान स्थान प्रशम्तोपशामना आगालप्रत्यागाल पृष्ठ ६६ ३० १५३, १६०, १६३ ७२, ७३, २०८ लप० ६० (5) परिभाषा विवक्षित कर्मों की प्रवत्तन श्रोर उपरिम स्थितियों को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितियों के निषेको का परिणाम विशेष ने प्रभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं। क० पा० सु० पृ० ६२६; क० पा० मु० पृ० ७५२ टिप्पण १ जिस करण मे प्रतिसमय पूर्व अर्थात् श्रममान व नियम से अनन्तगुणत्व से वृद्धि - गत परिणाम होते हैं वह पूर्वकरण है । इस करण मे होने वाले परिणाम प्रत्येक समय मे सख्यात लोकप्रमारण होकर भी अन्य समय में स्थित परिणामो के सदृश नही होते, यह उक्त कथन का भावार्थ है । ज० ० १२ / २३४ इन्हे प्रनुभय स्थान भी कहते हैं । स्वस्थान मे अवस्थान के योग्य और उपरिम गुणस्थान के अभिमुख हुए जीव के स्थान ये सव लव्विस्थान अप्रतिपात-प्रप्रतिपद्यमान स्वरूप अनुभय स्थान हैं । अर्थात् तयमानयम से गिरने के अन्तिम समय मे होने वाले स्थानो को प्रतिपात स्थान कहते हैं । सयमासंयम को धारण करने के प्रथम समय मे होने वाले स्थानो को प्रतिपद्यमान स्थान कहते हैं । इन दोनो स्थानो को छोडकर मध्यवर्ती समयो मे सम्भव समस्त स्थानो को श्रप्रतिपातप्रतिपद्यमान या अनुभय स्थान कहते हैं । घ० ६ / २७७ ज० घ० १३/१४८ संयम की अपेक्षा भी ऐसे लगाना चाहिये । ल० सा० १६८ कितने ही कर्म परमाणुओ का वहिरंग अन्तरग कारणवश उदीरणा द्वारा उदय में अनागमनरूप प्रतिज्ञा को अप्रशस्तोपशामना कहते हैं । धवल १५ / २७६ श्रप्रशस्त उपशामना के द्वारा जो प्रदेशाग्र उपशान्त होता है वह अपकर्षण के लिये भी शक्य है, उत्कर्षण के लिये भी शक्य है तथा अन्य प्रकृति मे सक्रमण कराने के लिये भी शक्य है । वह केवल उदयावलि में प्रविष्ट कराने के लिये शक्य नही है | जय धवल १३ / २३१ इसे देशकरणोपशामना भी कहते हैं । क० पा०सु० पृ० ७०८ द्वितीय स्थिति के द्रव्य का अपकर्पण करके उसके प्रथम स्थिति मे निक्षेपण करने को आगाल कहते हैं । जय घ० अ० प० ६५४ प्रथम स्थिति के प्रदेशो के उत्कर्षरणवश द्वितीय स्थिति मे ले जाने को प्रत्यागाल कहते हैं । ज० घ० अ० प. ६५४ उत्कर्षरण - अपकर्षरणवश परस्पर प्रथम और द्वितीयस्थिति के कर्म परमाणओ का विषय क्रम का नाम श्रागाल- प्रत्यागाल है ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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