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________________ क्षपणासार [ गाथा १२ अर्थ.-जो कर्मप्रदेश सक्रमित व उत्कर्षित किये जाते है वे एक आवलिकालतक अवस्थित रहते हैं उसके पश्चात् अनन्तरसमय मे भजितव्य है । विशेषार्थः-पर प्रकृतिमे संक्रामित प्रदेशाग्न तथा स्थित व अनुभागकी अपेक्षा उत्कर्षित प्रदेशाग्न आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रमभावसे अवस्थित रहते है । आवलिमात्र कालतक अन्यक्रियारूप परिणामके बिना जहापर जिसरूपसे प्रदेशाग्न निक्षिप्त किये जाते हैं वहांपर उसीरूपसे निश्चलभावसे अवस्थित रहते हैं । आवलिकाल व्यतीत होने के अनन्तर समयमे या उससे ऊपरवर्ती समयोमे भजितव्य होते है । सक्रमावलिप्रमाणकाल के व्यतीत हो जानेपर उसके अनन्तरवर्ती वे कर्मप्रदेश सक्रमण, उत्कर्षण, वृद्धि हानि व अवस्थित क्रियाके लिए भजितव्य हैं, क्योंकि आवलिकालके पश्चात् तद्र प प्रवृत्तिके प्रतिषेधका अभाव है। ___जो प्रदेशाग्न परप्रकृतिरूपसे सक्रमण करते हैं वे आवलिकालपर्यन्त अपकर्षण, उत्कर्णण व सक्रमणके लिए शक्य नही है । जो प्रदेशाग्र स्थिति या अनुभागमे उत्कर्षण को प्राप्त होते हैं वे भी आवलिकालतक अपकर्षण, उत्कर्णण या सक्रमणके लिए शक्य नही है । आवलिकालपर्यन्त निरुपक्रमभावके पश्चात् अपकर्षण आदि क्रियाके लिए भजितव्यभावकी प्ररूपणा मन्दबुद्धिवालोको समझाने के लिए की गई है। श्रोक्कड्डदि जे अंसे से काले ते च होति भजिदव्वा । बड्डीए अवट्ठाणे हाणीए लंकमे उदए ॥१२॥४०३।। अर्थः--जो कर्मप्रदेशाग्न अपकर्षित किये जाते हैं वे अनन्तर अगले समयमें वृद्धि हानि, अवस्थान, सक्रमण व उदयके लिए भजितव्य हैं। विशेषार्थः--उत्कर्षित प्रदेशाग्न या परप्रकृतिरूप संक्रमितप्रदेशाग्न आवलिप्रमाण कालतक निरुपक्रम भावसे अवस्थित रहते है ऐसा नियम है, किन्तु ऐसा नियम अपकर्षित प्रदेशाग्न सम्बन्धमें नहीं है। अपकर्षितप्रदेशाग्न दूसरे समयमे ही सक्रमण व १. जयघवल मूल पृ० २००५ । २. यह गाथा कषायपाहुडकी १५४वी गाथा है (क० पा० सु० पृष्ठ ७७७ व धवल पु० ६ पृष्ठ ३४७). किन्तु वहा 'उक्कट्टदि' व 'अवठाण' के स्थानपर क्रमशः 'ओक्कड्डुदि' और 'अवट्ठाणे' ये पाठ दिये गए हैं जो कि शुद्ध प्रतीत होते हैं अत. उन शुद्ध पाठोको ही यहापर रखा गया है।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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