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गाया ११ ]
[ १३
आगे अतिस्थापनाका प्रमाण तो अवस्थित उपरितनएक आवलिप्रमाण है और निक्षेप एकएकसमय बढ़ता जाता है |
क्षपणासार
उत्कृष्ट निक्षेप - उत्कृष्ट स्थितिबन्धका प्रमाण १००० समय है । १६ समय बन्धावलिके व्यतीत होनेपर स्थिति १००० - १६ = ६८४ समयप्रमाण शेष रह जाती है । ९८४वे समयवाले निषेकके द्रव्यका अपकर्षण होनेपर ६७८ से ६८३ तक १६ निषेक तो अतिस्थापनारूप हैं और प्रथमनिषेकसे ε७७ निषेकतक निक्षेप हैं । यह उत्कृष्ट निक्षेपकी असहष्टि है 1
शंका:- - क्षपकश्रेणिके कथनमे सांसारिक अवस्थाके उत्कृष्टनिक्षेपका प्रमाण बतलाना असम्बद्ध है । फिर क्यों यह कथन किया गया ?
समाधान:- - प्रसङ्गवश अपकर्षणसम्बन्धी यह कथन किया गया । इस प्ररूपणा में कोई दोष नही है । यहां अल्पबहुत्व इसप्रकार है- 'एकसमयकम आवलिके तृतीयभागसे एक समयाधिक ( ६ ) जघन्यनिक्षेपका प्रमाण है जो सबसे स्तोक है, इससे अधिक जघन्य अतिस्थापना है जिसका प्रमाण एकसमयकमआवलिके दो त्रिभाग (१०) है | इससे विशेष अधिक उत्कृष्ट अतिस्थापनावलि ( १६ ) प्रमाण है । उत्कृष्ट निक्षेप इससे असंख्यातगुणा है, क्योकि वह समयाधिक दोआवलिकम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
अनुभागविषयक अपकर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापनाका प्रमाण जानना चाहिए। स्थिति अनुभागविषयक उत्कर्षणसम्बन्धी जघन्य व उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेपका कथन आगे किया जावेगा अतः यहां नहीं किया है ।
'संकामेदुक्कडुदि जे असे ते अदा होंति ।
आवलियं से काले तेरा परं होंति भजिदव्वा ॥ ११ ॥ ४०२ ॥
१. जयधवल मूल पृष्ठ २००४ ।
२. यह गाथा क० पा० की १५३ वी गाथाके समान है, किन्तु 'दुक्कट्टदि' और 'भजियव्व' के स्थान पर क्रमशः दुक्कडुदि' और 'भजिदव्वा' पाठ है जो शुद्धप्रतीत होते हैं अतः यहा शुद्धपाठ क० पा० के अनुसार ही प्रयुक्त किये है | यह गाथा धवल पु० पृष्ठ ३४६ पर भी पाई जाती है । तथा जयधवल मूल पृष्ठ २००५, क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७७ पर भी है ।