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________________ गाथा ४६ ] लब्धिसार [ ३७ प्रथमखंडके परिणामोंके साथ क्रमसे पुनरुक्तता तबतक जानना चाहिए जब जाकर प्रथमसमयसम्बन्धी अन्तिमखडके परिणाम प्रथमनिर्वर्गेणाकाडकके अन्तिमसमयके प्रथम - खण्डसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते है । इसीप्रकार अधःप्रवृत्त - करणके द्वितीयादि समयोके परिणामखण्डोको भी पृथक्-पृथक् विवक्षितकरके वहाके द्वितीयादि खण्डगत परिणामोंका विवक्षितसमय [ द्वितीयादिसमय ] से लेकर ऊपर एक समयकम निर्वर्गणाकाण्डकप्रमाण समयपक्तियोके प्रथमखण्डसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्तपनेका कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र प्रथमखडके परिणाम अपुनरुक्तपनेसे अवशिष्ट जानना चाहिये । अर्थात् प्रत्येकसमयके प्रथमखंड - सम्बन्धी परिणाम अगले समयके किसी भी खडसम्बन्धी परिणामोंके सदृश नही होते । इसीप्रकार द्वितीयनिर्वर्गकाण्डक परिणामखुण्डोका तृतीयनिर्वर्गरणा काडक परिणामखडोके साथ पुनरुक्तपना जानना चाहिए, किन्तु यहा भी प्रथमखंडसम्बन्धी परिणाम ही अपुनरुक्तरूपसे अवशिष्ट रहते है । इसीक्रमसे तृतीय, चतुर्थ और पंचमादि निर्वर्गणाकाण्डकोंके भी अनन्तर उपरिम निर्वर्गरण काण्डको के साथ पुनरुक्तपना वहातक जानना चाहिए जब जाकर द्विचरमनिर्वणाकाण्डक के प्रथमादिसमयोंके सर्व परिणामखड प्रथमखंडको छोड़कर अन्तिमनिर्वर्गणाकाडकसम्बन्धी परिणामोके साथ पुनरुक्त होकर समाप्त होते है । अब अन्तिमनिर्वर्गरणा काडकसम्बन्धी परिणामोके स्वस्थानमें पुनरुक्त अपुनरुक्तपनेका अनुसन्धान परमागमके विरोधपूर्वक करना चाहिए' । प्रकसदृष्टि के अनुसार अपुनरुक्तखंड अपनेसे उपरिम किसी खंडके सदृश नही है १. ज.ध.पु १२ पृ. २४०-४१ प्रकरण ११ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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