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________________ २०० क्षपणासार [ गाथा २३६ होते हैं । कायोत्सर्गसे दण्डसमुद्घात करनेवालेके विस्तार में मूलशरीरकी परिधिप्रमाणवाले जीवप्रदेश विकलकर दण्डाकार कुछकम १४ राजू आयामवाले हो जाते हैं। 'देसोण' से अभिप्राय लोकके ऊपर और नीचे वातवलयोसे अविरुद्धक्षेत्रका है, क्योकि स्वभावसे ही उस अवस्थामें केवलीजिनके प्रदेशोंका वातवलयमें प्रवेशका अभाव है। इसीप्रकार पल्यंकासनवाले केवलियोंके दण्डसमुदुघातका कथन करना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि मूलशरीरको परिघिसे दण्डसमुदुघातकी परिधि तिगुणी होती है । इसप्रकारको अवस्था विशेषको दण्डसमुदुधात कहते हैं । इसमें जीवप्रदेश दण्डाकार से फैलते हैं अतः यह दण्डसमुद्घात कहलाता है। दण्डसमुद्घातमें औदारिककाययोग होता है, क्योकि अन्ययोग असम्भव है। उसीसमय पल्योपमके असरुयातवेंभागप्रमाण 'स्थिति सत्कर्मवाले तीनअघातियाकर्मोकी स्थितिके असंख्यातबहुभाग घात करनेसे सख्यातवेभागप्रमाण स्थिति शेष रह जाती है। केवलीसमुद्घातके प्रभावसे एकसमयमें ही स्थितिघात हो जाता है । अप्रशस्तप्रकृतियोका जो अनुभाग क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरमसमय में था चरमसमयमें उसका अनन्तबहुभाग घातहोकर अनन्तवेंभागप्रमाण अनुभागसत्कर्म शेष रह जाता है, उसका भी अनन्तबहभाग समुद्घातगत केवलीके प्रथमसमयमें होकर अनन्त-भागप्रमाण अनुभागसत्कर्म रह जाता है। प्रशस्तप्रकृतियोंका स्थितिघात तो होता है, किन्तु अनुभागघात यहां नही होता है । आवजितकरणमे जैसी गुणश्रेणिप्ररुपणा की गई थी वैसी ही प्ररुपणा यहां भी करना चाहिए । (इससे यह सिद्ध हो जाता है कि स्वस्थानकेवलि व आवजितकरणकेवलिके स्थिति व अनुभागघात वही होता।) ____ अनन्तरसमयमें अर्थात् केवलीसमुद्घातके द्वितीयसमयमें कपाटसमुदुघात होता है । जैसे किवाड़ (कपाट) बाहल्य (मोटाई) में स्तोक होकर भी विषकम्भ और आयाममें (लम्बाई-चौड़ाईमें) बढ़ता है उसीप्रकार विस्तारमें जीवप्रदेश मूलशरीरप्रमाण या मूलशरीरसे तिगुणे होकर कुछकम चौदहराजू लम्बे और दोनों पार्श्वभागोमें सातराजू या हानि-वृद्धिरूप सातराजू चौड़े फैल जाते हैं इसलिए इसको कपाट (किवाड़) समुदुघात कहा है । यहां स्फुट कपाटरूप संस्थान उपलब्ध होता है तथा पूर्व या उत्तरमुखके कारण विष्कम्भमें भेद हो जाता है । कपाटसमुद्घात में औदारिकमिश्रकाययोग. होता है । कार्मण और औदारिक इन दोनोंको मिलो हुई अवस्थाके अवलम्बनसे जीवप्रदेशोंकी परिस्पन्दरूप पर्याय उत्पन्न होती है। शेषकर्मस्थितिका असंख्यात बहुभाग
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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