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________________ क्षपणासार १५४] [ गाथा १७६ ८० गुणी विशुद्धि बढ़ने से सूक्ष्म साम्परायिक कृष्टिकाल के चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणा प्रदेशाग्र दिया जाता है' | दव्यं पढमे समये देदि हु सुहुमेलणंतभागूणं । थूलपढमे असंखगुणणं तत्तो अतभागूणं ।। १७६ ।। ५७० ।। अर्थ – सूक्ष्मकृष्टिकरणकाल के प्रथमसमय में सूक्ष्मकृष्टिकी जघन्य कृष्टि से उत्कृष्ट सूक्ष्मकृष्टिपर्यन्त अनन्तभाग अनन्तभाग घटते हुए क्रमसहित द्रव्य दिया जाता है तदनन्तर जघन्यबाद र कृष्टिमें असंख्यातगुणा घटता द्रव्य दिया जाता है उसके पश्चात् अनन्तगुणे घटते क्रम से द्रव्य दिया जाता है । विशेषार्थ – उस समय में अपकर्षित समस्तद्रव्य के असंख्यात बहुभागका ग्रहण होकर जघन्य सूक्ष्मकृष्टिमें बहुत प्रदेशाग्र दिये जाते हैं, द्वितीयकृष्टिमें अनन्तवेभागसे विशेषहीनद्रव्य दिया जाता है, तृतीय कृष्टिमें अनन्त वेंभाग से विशेषहीन प्रदेशान दिया जाता है । इसप्रकार अन्तरोपनिधारूप श्रेणिके क्रमसे अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिपर्यन्त विशेषहीन - विशेष हीव प्रदेशाग्र दिया जाता है । चरमसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमें सूक्ष्मसाम्पराय अध्वानसे खण्डित बहूभागद्रव्यमे से एकभागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है । शेष असंख्यातवेंभाग द्रव्यको बादरकृष्टिमध्वान से खण्डितकर एकखण्डद्रव्य जघन्यबादरसाम्परायिक कृष्टिमें दिया जाता है जो चरमसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिमे दिये गए प्रदेश से असंख्यातगुणाहीन है अर्थात् चरमसूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिसे जघन्यबादरसाम्परायिककृष्टि में दिया जानेवाला प्रदेशाग्र असंख्यातगुणाहीन है । इसके आगे अन्तिमबादरसाम्परायिक कृष्टिपर्यन्त अनन्तर्वे भाग से विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । विदयादिसु समये अव्वा पुव्वकिट्टि हेट्ठाओ । पुत्राणमंतरे सुवि अंतरजगिदा असंखगुणा ॥ १८० ॥ ५७१ ॥ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१६७-६८ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६ सूत्र १२५० से १२५४ | धवल पु० पृष्ठ ३६८ । ३. जय घ० मूल पृष्ठ २१६८-६६ । ४. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६५ सूत्र १२५५ से १२६० । ६० पु० ६ पृष्ठ ३६६ |
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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