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________________ क्षपणासार १६४] [ गाथा २२६ भगवत् अर्हत्परमेष्ठी स्वयं पदार्थज्ञान में स्थित है, तथापि परार्थप्रवृत्ति स्वभावसे' निकटभव्योके हितके लिए धर्मामृतकी वृष्टि करते हुए अबुद्धिपूर्वक सर्वप्राणियोके उद्धारकी भावनाके अतिशयसे प्रेरित होकर भव्यजनोके पुण्यके कारण तथा शेष कर्मफलके सम्बन्धसे बिहार करते हैं। प्रतिसमय कर्मप्रदेशोंकी असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा करते हुए धर्मतीर्थ प्रवर्तन के लिए यथोचित धर्मक्षेत्र में अतिशयीविभूतिके साथ प्रशस्तविहायोगति नामकर्मके कारण तथा स्वभावसे बिहार करते हैं । ___ शङ्का-अर्हत्भगवान्का व्यापार अर्थात् अतिशयबिहार अभिसन्धिपूर्वक (इरादेसे) होता है, अन्यथा यत्किचनकरित्व (यद्वा-तदुवा कुछ भी किये जानेपर) । के दोष (अनुषजनात्) का प्रसंग आ जावेगा। यदि अभिसंधि पूर्वक माना जाता है तो इच्छा होनेसे असर्वज्ञ हो जावेगे जो इष्ट नहीं है। ___समाधान--ऐसा नहीं है, क्योकि कल्पतरुके समान इच्छाके बिना भी केवली. के परार्थकी सामर्थ्य उत्पन्न होती है अथवा दोपकके-समान । जैसे दीपक कृपालु होकर स्व और परके अन्धकारको दूर नहीं करता, किन्तु स्वभावसे ही स्वपरसम्बन्धी अन्धकारको दूर करता है इसमें कुछ भी बाधा नही आती है । कहा भी है "जगते त्वया हितमवादि न च विवदिषा जगद्गुरो। कल्पतरुरनभिसन्धिरपि प्रणयिभ्य ईप्सितफलानि यच्छति ।। कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाभवंस्तव मुनेश्चिकीर्षया । नासमोक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर ! तावकमचिन्त्यमीहितम् ।। विवक्षासन्निधानेऽपि वाग्वृत्तिर्जातु नेक्ष्यते । वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणा मन्दबुद्धयः ।।" "हे जगद्गुरो ! आपके द्वारा जगत्का कल्याण विवादका विषय नही है, क्योकि इच्छा रखने वाले प्राणियोके लिए कल्पवृक्ष बिना इच्छाके ही वाछितफलोको - १. "पराधप्रवृत्तिस्वभाव्यात्” (जयधवल मूल पृष्ठ २२७१) २. "मबुद्धिपूर्वमेव सर्वसत्त्वाभ्युद्धार भावनातिशय प्रेरित.' (ज. घ. मूल पृष्ठ २२७१) ३. प्रवचनसारगाथा ४४-४५ । ४. स्वयभूस्तोय श्लोक ७४ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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