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________________ गाथा २२६ ] क्षपणासार [१६५ देता है । हे मुनीश ! आपकी मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियां इच्छापूर्वक नहीं होती, हे धीर ! असमीक्षापूर्वक (बिनाविचारे) आपकी प्रवृत्तियां नही होतो इसलिए आपकी प्रवृत्ति अचिन्त्य है । कहनेकी इच्छा होनेपर भी वचन प्रवृत्ति कदाचित् नही देखी जाती, जैसे मन्दबुद्धिलोग शास्त्रोंके वक्ता होनेकी इच्छा रखते हुए भी मन्दबुद्धि के कारण कुछ कह नहीं सकता।" इसलिए परमोपेक्षासंयमविशुद्धिमे स्थित केवली के विशेष अतिशय व्याहार (दिव्यध्वनि) आदि व्यापार स्वाभाविक हैं, पुण्यबन्धके कारण नही है । आर्षमें कहा भी है "तित्थयरस्स विहारो लोयसुहो व तस्स पुण्णफलो। वयण च दाणपूजारभयरं तण्ण लेवेइ' ॥" भगवानका बिहाररूप अतिशय भूमिको स्पर्श न करते हुए आकाश में भक्तिसे प्रेरित देवोके द्वारा रचित स्वर्णमयी कमलोंपर प्रयत्न विशेषके बिना ही अपने माहात्म्यातिशयसे होता है ऐसा जानना चाहिए, क्योकि उनको योगशक्ति अचिन्त्य है । कहा भी है-- "नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपंत्राम्बुजगंर्भचारैः । पादाम्बुज पातितमारदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै ।। हे जिनेन्द्र ! कामदेवके गर्वको नष्ट करनेवाले आपने सहस्रदल कमलोके मध्यमें चलनेवाले अपने चरणकमलोके द्वारा आकाशतलको पल्लवोंसे युक्त जैसा करते हुए पृथ्वीपर स्थित प्रजाजनोकी विभूतिके लिए बिहार किया था। सयोगिजिनके प्रथमसमयसे लेकर केवलीसमुदुघातके अभिमुख केवलीके प्रथमसमयतक अवस्थित एकरूपसे गुणश्रेणि निक्षेपका क्रम जानना चाहिए, क्योंकि प्रतिसमय पंरिणाम अवस्थित हैं और परिणामोके निमित्तसे होनेवाला कर्मप्रदेशोका अपकर्षण व गुणश्रेणिनिक्षेपका पायाम सदृश अर्थात् अवस्थितरूपको छोड़कर विसदृशरूप परिणमन नही करता यानि अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी सख्यामें या गुणश्रेणिायाममे हीनाधिकता नहीं होती, किन्तु क्षीणकषायगुणस्थानमें गुणश्रेणिके निमित्तसे जो द्रव्य अपकर्षित किया ३. जयधवल मूलं पृष्ठ २२७१ । २. स्वयंभूस्तोत्र श्लोक ३० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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