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________________ क्षपणासार गाथा २२६] [ १९३ जिस सुखमें अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र प्रधान हैं जो अनुपरतवृत्ति अर्थात् विच्छिन्न वहीं होता, निरतिशय अर्थात् उस सुखसे बढ़कर कोई अतिशय नही है, आत्मासे उत्पन्न होता है, ऐसा अनन्तसुख अतीन्द्रिय और निष्प्रतिद्वन्द्व (विरोधरहित) है । किसी वादीको यह दृढ़निश्चय है कि सयोगके वलीके असातावेदनीयका उदय होनेसे अनन्तसुखका अभाव और यह बात उल्लघन भी नही की जा सकती, क्योंकि सयोगकेवलीके कवलाहारवृत्ति पाई जाती है। इसके उत्तरमें आचार्य कहते है कि सयोगकेवलीके असातावेदनीयके उदयमें सहकारीकारणका अभाव होनेसे वह (उदय) अकिंचित्कर (व्यर्थ) है । जैसे सहकारीकारणके अभाव में परघातका उदय अकिंचित्कर है । अतः अनन्तज्ञान दर्शन-वीर्य-चारित्र व सुख परिणामी होनेसे सयोगकेवली कवलाहार (भोजन) नहीं करते, जैसे सिद्ध परमेष्ठी अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-चारित्र व सुखपरिणामि होनेसे कवलाहार नहीं करते, क्योकि सयोगकेवली और सिद्धपरमेष्ठी इन दोनोंके समस्त अन्तरायकर्मका पूर्णरूपसे क्षय हो जाने के कारण अनन्तवीर्य के द्वारा उपलक्षित अनन्तदान-लाभ-भोग व उपभोगलब्धिमें कोई विशेषता नही है । सयोगकेवलीके स्वरूपका निरूपण करनेवाली निम्नलिखित दो गाथाएं हैं "केवलणाणदिवायरकिरणकलापप्पणासियण्णाणो । णवकेवललधुग्गमसुजणिय परमप्पववएसो ॥ असहायणाणदसण सहिओ इदि केवली हु जोएण। जुत्तो त्ति सजोगो इदि अगाइ-णिहणारिसे उत्तो' ॥" केवलज्ञानरूपी सूर्यको किरणोंके समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया है और जिसने नवकेवललब्धियोके प्रगट होनेसे 'परमात्मा' इस संज्ञाको प्राप्त कर लिया है, वह इन्द्रियादिकी अपेक्षा न रखनेवाले असहायज्ञान व दर्शनसे युक्त होने के कारण केवली, तीनों योगोंसे युक्त होनेके कारण सयोगी और घातियाकर्मोको जीत लेने अर्थात् क्षय कर देनेसे जिन कहे जाते हैं ऐसा अनादिविधन आर्षमे कहा गया है। १. धवल पु० १ पृष्ठ १६१-६२। २. जयघवल मूल पृष्ठ २२७० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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