________________
क्षपणासार
१९२]
[गाथा २२६ "तव वीर्यविघ्नविलयेन समभवदनन्तवीर्यता । तत्र सकल भुवनाधिगमप्रभृति स्वशक्तिभिरवस्थितो भवानिति' ॥"
है भगवन् ! आपके वीर्यान्तराय कर्मका विलय हो जानेसे अनन्त वीर्य हो गया है । अपने वीर्यके द्वारा समस्तभुवनको जानने आदिरूप प्रवृत्तिमें अवस्थित हैं अर्थात् आपका उपयोग किंचित् भी चलायमान नही होता । इसके द्वारा केवलीके आत्यन्तिक सुखका व्याख्यान हो जाता है, क्योकि अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य उपवहित सामर्थ्यवाले, वीतमोहस्वरूप, ज्ञान और वैराग्यकी अतिशय पराकाष्ठापर आरूढ, परमनिर्वाण, लक्षणवाले, सूखकी आत्यन्तिक (अविनाशी) रूपसे उपलब्धि होती है। अतिशय ज्ञान व वैराग्यसे उत्पन्न वीतरागसुखसे अन्य किंचित् सुख नहीं । सरागसुख तो एकान्ततः दुःख ही है । कहा भी है
"सपरं बाहासहियं विच्छिण्ण बधकारणं विसमं । जं इंदिएहिं लद्धतं सोक्खं दुक्खमेव सदा ॥ विरागहेतु प्रभवं न चेत्सुख न नाम किंचित्तदिति स्थितावयम् । स चेन्निमित्तं स्फुटमेव वास्ति तत् त्वदन्यतस्सत्त्वयि येन केवलम् ॥"
जो सुख पांचों इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त होता है वह परद्रव्योंकी अपेक्षासे होता है इस कारण पराधीन है, क्षुधा-तृषा आदि अनेक रोगोंके कारण बाधासहित है, असाता. वेदनीयकर्मोदयके कारण नाशवान तथा अन्तरसहित है, देखे-सुने व अनुभव किये हुए भोगोंकी इच्छादि अनेक दुष्परिणामोंसे नरकगति आदि अशुभकर्म बन्धते हैं जिनका उदय होनेपर नरकादि गतियो में जाकर नानाप्रकारके दुःख भोगने पड़ते है, हानिद्धि होनेसे एकसा नहीं रहता अतः विषम है इन पांच कारणोंसे यह सांसारिकसुख दुःखरूप ही है।
___ "विरागहेतुसे उत्पन्न हुआ सुख यदि सुख नहीं है तो निश्चयसे कोई सुख है ही नहीं, ऐसा हमें निश्चय हो गया है, विराग हेतु निमित्त है यह स्पष्ट है । आपसे अर्थात् केवलीसे अन्यमें वह हेतु नही है, क्योकि वह हेतु केवल आपमें ही है।" इसलिए
१. जयघवल मूल पृष्ठ २२६६ । २. प्रवचनसार गाथा ७६ ।