SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्द पृष्ठ परिभाषा आगे से लेकर मूल तक क्रम से घटता हुआ दिखाई देता है उसी प्रकार यह करण भी क्रोध सज्वलन से लेकर लोभ संज्वलन तक क्रम से अनन्तगुणे हीन अनुभाग के आकाररूप से व्यवस्था का कारण होकर अश्वकर्णकरण इस नाम से लक्षित होता है। अब भादोलकरण का अर्थ-पादोल नाम हिंडोला का है। आदोल के समान जो करण वह प्रादोल करण है । जिसप्रकार हिंडोले के खम्भे और रस्सी अन्तरान्त मे त्रिकोण होकर कर्ण रेखा के प्राकार रूप से दिखाई देते हैं, वैसे ही यहा भी फ्रोधादिक कषायो का अनुभाग का सन्निवेश क्रम से हीयमान दिखाई देता है। इसलिये अश्वकर्णकरण की प्रादोलकरण सज्ञा हो गई है। इसीप्रकार अपवतना-उद्वर्तनाकरण यह पर्यायवाचक शब्द भी अनुगत अर्थ वाला है, ऐसा ज्ञातव्य है। यतः क्रोधादि सज्वलन कषायो के अनुभाग का विन्यास हानि-वृद्धि रूप से अवस्थित देख कर उसकी पूर्वाचार्यों ने "अपवर्तना-उद्वर्तना करण", यह सज्ञा प्रवर्तित की है । जय धवला मूल पृष्ठ २०२२ एव धवल पु० ६/३६४, कषाय पाहुड सुत्त पृ० ७८७ अभिप्राय यह है कि प्रकृत मे अश्वकर्णकरण की अपवर्तनोद्वर्तनकरण और आदोलकरण ये दो सज्ञाए होने का कारण यह है कि सज्वलन क्रोध से सज्वलन लोभ तक के अनुभाग को देखने पर वह उत्तरोत्तर प्रनतगुणा हीन दिखलाई देता है और सज्वलन लोभ से लेकर सज्वलन कोष तक के अनुभाग को देखने पर वह उत्तरोत्तर अनंतगुणा अधिक दिखलाई देता है । जैसे घोडे के कान मूल से लेकर दोनो और क्रम से घटते जाते है वैसे ही क्रोध सज्वलन से लेकर अनुभाग स्पर्धक रचना क्रम से अनन्तगुणी हीन होती चली जाती है इस कारण तो अश्वकर्णकरण सज्ञा है । आदोल (हिंडोला) के खम्भे और रस्सी अन्तराल मे कर्ण रेखा के प्राकाररूप से दिखाई देते है उसी प्रकार यहा भी क्रोधादि कषायो के अनुभाग की रचना क्रम से दोनो ओर घटती हुई दिखाई देती है अतः अादोलकरण नाम है। इसी तरह इसी अपवर्तन-उद्वर्तन करण सज्ञा भी सार्थक है, क्योकि क्रोधादि सज्वलनो के अनुभाग की रचना हानि-वृद्धि रूप से अवस्थित है । जै० ल० १/१९५ जिन स्पर्धको को पहले कभी प्राप्त नही किया, किन्तु जो क्षपक श्रेणी मे ही अश्वकर्णकरण के काल मे प्राप्त होते हैं और जो ससार अवस्था मे प्राप्त होने वाले पूर्व स्पर्धको से अनन्तगुणित हानि के द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाव वाले हैं, उन्हे अपूर्व स्पर्धक कहते हैं । अपूर्व स्पर्वक
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy