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________________ ( १६ ) शब्द पृष्ठ परिभाषा क० पा० सु० पृष्ठ ७८६, जय घ० अ० ११०६; कहा भी है-वधर्मान तो पूर्व स्पर्धक तथा हीयमान अपूर्व स्पर्धक हैं । इसप्रकार दो प्रकार के स्पर्धक जानना चाहिये । पच स० अमित० १/४६ अश्वकर्णकरण के प्रथम समय से लगाकर उसके अन्तिम समय पर्यन्त वराबर यह अपूर्वस्पर्षक बनाने का कार्य चलता रहता है ।१ अर्थात् अश्वकर्ण करण का अन्तमुहूर्त प्रमाण काल ही इसकी विधि का काल है (इसके ऊपर कृष्टिकरण का काल प्रारम्भ होता है ।) ऐसा जानना चाहिये । एक-एक सग्रह कृष्टि की अनन्त अवयव कृष्टिया होती है । एक-एक संग्रह कृष्टि मे जो अनन्त कृष्टिया होती है, वे ही अवयव कृष्टिया हैं । क० पा० सु० ८०६ देखो-अपवर्तनोद्वर्तनकरण की परिभाषा मे। अवयव कृष्टि अश्वकर्णकरण ६४,८७, ८६, ८८ आदोलकरण , प्रायद्रव्य १२१ भावजितकरण १९८ जिस प्रकार लोक व्यवहार मे जमा-खर्च कहा जाता है। उसी प्रकार यहा भी आयद्रव्य और व्ययद्रव्यरूप कथन करते हैं। अन्य सग्रह कृष्टियो का जो द्रव्य सक्रमण करके विवक्षित सग्रहकृष्टि मे पाया, (प्राप्त हुआ) उसे आय द्रव्य और विवक्षित सग्रहकृष्टि का द्रव्य सक्रमण करके अन्य संग्रह कृष्टियो मे गया उसे व्यय द्रव्य कहते हैं। केवलि समुद्घात के अभिमुख होने को प्रावर्जित करण कहते हैं। अर्थात् केवलिसमुद्घात करने के लिये जो आवश्यक तैयारी की जाती है उसे शास्त्रकारो ने "प्रावर्जितकरण" सज्ञा दी है। इसके किये बिना केवलि समुद्घात का होना सम्भव नही है, अतः पहले अन्तर्मुहूर्त तक केवली आवजितकरण करते हैं। क० पा० सु० पृ०६०० सत्त्व के घटते २ जो आवली मात्र स्थिति अवशिष्ट रह जाती है उसका नाम उच्छिष्टावलि ३८ १ वैसे तो कृष्टिकरण काल मे भी अश्वकर्णकरण पाया जाता है । क्योकि वहा भी अश्वकर्ण के आकार सज्वलनो का अनुभागसत्त्व या अनुभागकाण्डक होता है । क्ष० सा० ४९१ परन्तु "अपूर्वस्पर्धक सहित अश्वकर्णकरण का काल" यहा प्रकृत है।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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