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________________ गाथा - ५२ ] ] लसी -करण नाम परिरंगामका है' नानी जो करण होते हैं उन्हें अपूर्वकरण कहते है, जिनका अर्थ समाला परिणाम होता है 'इसप्रकार पूर्वकरणका लक्षण निरुपण किया गया है ! FEM? YESP WHITE 1-1-27-अब परिणामोंमें परस्पर विशेषता कहते हैंए जिम्म रु 1. 3 ए ल 33 "विदियकरणादि समयादतिमसमत्ति अवरवरसुद्धी-1 अहिगदिणा खलु सव्वे होंति श्रतेाः गुद्रिक५२ ॥ 3 क " 1. ५ १. ध. पु १ पृ. १८१ ॥ २. 'ध' पु. ६ पृ.२ ३ ४. 'की अर्थ—दूसरे 'अर्थात् अपूर्वकरणकै प्रथमसमयसे लेकर अतसम॑य॒पय॑न्त॒ प्रत्येक समयकें जघन्यपरिणामसे उसी समयका उत्कृष्टपरिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिवाला है. इस उत्कृष्टपरिणामसे अनन्तर उत्तरसंमयका जघन्य परिणाम अनन्तगुणी विशुद्धिवाला है। इसप्रकार सर्पको चालके समान विशुद्धतासम्बन्धी अल्पबहुत्वका कथन है । „ २२१ । एव के पा. सुत्त पु די 1 ट्रा 2 X FOTO, 751 , विशेषार्थ - अपूर्वकृरण के प्रथम समय मे असख्यात्तलोक प्रमाण विशुद्धिस्थानों के मध्य जो जघन्यविशुद्धि- है वह सबसे स्तोक अर्थात् मन्द्रअनुभागवाली है । प्रपूर्वक ररण के प्रथमसमयमे जो उत्कृष्टविशुद्धि है- वह असख्याच लोकः षट्स्थानवृद्धिको उल्लघकर अवस्थित है और वह पूर्व की जघन्य विशुद्धि से अनत्तगुणी है । प्रथमसमयकी उत्कृष्टविशुद्धिसे द्वितीयसमयकी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योकि असख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानवृद्धिकै अन्तरसे इसकी उत्पत्ति होती है । अपूर्वकरण के दूसरे समयकी उत्कृष्टविशुद्धि उसीसमयकी जघन्यविशुद्धिसे अनन्तगुणी हैं । द्वितीय समय की उत्कृष्टविशुद्धि... से तृतीयसमयकी जघन्यविशुद्धि अनन्तगुणी है । तृतीयसमयको उत्कृष्टविशुद्धि श्रनन्तगुणी है; कारण पूर्ववत् ही है । इसप्रकार यह क्रम अपूर्वकरणके चरमसमयतक ले जाना चाहिए । 只 FB पर ए क. पा. सुत्त पृ. ६२३ सूत्र ६५-७१ । 1 ព ज ध. पु. १२ पृ. २५३-५४ । ६२२ * " ין -1 फ ६२३ । ؟ TOT F ך ! דורין : : יין *♪ 1 1 स - 1 ܪ ر S | ४४ iT, 3 [ 167
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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