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________________ लब्धिसार [ गाथा १०५-१०६ स्थितिके प्रथम निषेकसे गच्छप्रमाण चयोसे अधिक द्रव्य तो अन्तरायामके प्रथम निषेकमे देना चाहिए । यहा गच्छका प्रमाण अन्तरायाम और चयका प्रमाण पूर्वोक्त जानना । तथा द्वितीयादि निषेकोमे एक-एक चयहीन क्रमसे देना । अन्तिम निषेकमे एक चय अधिक (द्वितीयस्थितिके प्रथम निषेककी अपेक्षा) देना। इसप्रकार देने पर जैसे क्रम लिये हुए चाहिए वैसे अन्तरीयामके निषेकोंका अभाव हुआ था उनका पुन सद्भाव हो गया। अब अपष्टावैशिष्टे द्रव्यमे से इतना द्रव्य देने पर किचित् ऊनं हुआ सो उस अवशेष द्रव्यको अन्तरांयाम अथवा द्वितीय स्थितिमे देना । वहां अन्तरीयाममे तो पूर्वमे जिसप्रकार आदिधन और उत्तरधनको मिलाकर द्रव्यका प्रमाण निकालने का विधान कहा था उसी प्रकार द्रव्यका प्रमाण प्राप्तकर उतने द्रव्यको अन्तरायामके निषेकोमे' देना । इतना द्रव्य अन्तरायामके निषेकोमे देनेके पश्चात् जी द्रव्य अवशिष्ट रहा उसको 'दिवड्ढगुणहारिणभाजिदे पढेमा' इत्यादि सूत्र विधान द्वारा द्वितीय स्थितिके नानागुणहानि सम्बन्धी निषेकोमे से अन्तिम प्रतिस्थापनावलीप्रमाणे निषेक छोडकर सर्वत्र देना चाहिए । इसप्रकार उदय योग्य सम्यक्त्वप्रकृतिका विधान कहा । तथा उदयके अयोग्य सम्यग्मिथ्यात्व मिथ्यात्व प्रकृतियोके द्व्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर उसमे से एक भाग उदयावलीसे बाहर जो अन्तरार्याम है उसमे और द्वितीय स्थितिमें पूर्ववत् निक्षिप्त करना चाहिये उदयावलिमें निक्षिप्त नहीं करना चाहिए। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व अथवा मिथ्यात्वप्रकृति मे से अन्यंतर उदयं योग्य होवे अवशेष दो प्रकृति उदययोग्य नही होवे तो वहां यथासम्भवै विधान जानना । जैसे गाय की पूछ क्रमसे मोटाईसे हीन होती है वैसे सर्वत्र चयं हीन क्रम पायी जाता है, अतः उसे गोपुच्छाकार कहते है। अथानन्तर सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका कार्य को गाथानों में कहते हैंसम्मुदये चलमलिणमगांडं सेहदि तच्चयं प्रत्यं । 'सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥१०५॥ सुत्तादो तं सम्मं दरसिज्जंतं जदा रेण सद्दहदि । सों व हवदि मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पैहुदी ॥१०६॥ १. ज घ पु. १२ पृ ३२१ गाथा १०७ का उत्तरार्घ; ध पु. १ पृ १७३; ध. पु. ६ पृ. २४२, प्रा. प. स.अ १गा.१२ २ ज. प. पु. १२ पृ. ३२२, घ. पु११ २६२ । ३ 'त्ति तदो पहुडि जीवो' इत्यपिपाठः
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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