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________________ लब्धिसार [ गाथा २६६ २८ ] विशेषार्थ-वादर लोभको प्रथम स्थितिमें उच्छिष्टावलि शेष रहने पर उपगमनाबलिके चरमसमयमे सज्वलनलोभका एक समयकम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्ध अनुपशान्त रहता है, कृष्टिया सभी अनुपशान्त रहती है । तथा नवकवन्ध और उच्छिष्टावलिको छोडकर बादर सज्वलनलोभका शेष सर्वद्रव्य व अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरणका सर्व द्रव्य उपशान्त रहता है । अर्थात् स्पर्धकगत लोभसज्वलन सम्बन्धी सर्व प्रदेशपु ज इस समय उपशान्त हो चुकता है, किन्तु कृष्टिगत प्रदेशपुज अभी भी अनुपशान्त रहता है, क्योकि सूक्ष्मसाम्परायकालमे कृष्टियोकी उपशामना होती है । परन्तु दोनो प्रकारका लोभ पूरा ही उपशान्त हो चुकता है । नवक बन्धादिकका अनुपशम रहता है । यही अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक सयत है क्योकि अनिवृत्तिकरणकालका अन्त देखा जाता है । सार यह है कि जब प्रत्यावलीमे एक समय शेष रहता है उसी समय लोभसज्वलनका सर्व स्पर्धकरूप द्रव्य तथा सकल ही प्रत्यात्यान-अप्रत्याख्यान लोभ द्रव्य उपशान्त हो जाता है मात्र (१) नवक समय प्रबद्ध (२) उच्छिष्टावलिमात्र निपेक (३) सूक्ष्मकृष्टि ये उपशान्त नही होते ।। अथानन्तर सूक्ष्मसाम्परायमें किये जाने वाले कार्य विशेष का कथन करते हैंसे काले किटिस्स य पढमट्टिदिकारवेदगो होदि । लोहगपढमठिदीदो अद्धं किंचूणयं गत्थ ॥२६६॥ मर्य-अनिवृत्तिकरणकालके क्षीण होने पर अनन्तर समयमें कृष्टियोंकी प्रथम लितिका कारक व वेदक होता है । बादर लोभको प्रथम स्थितिके कुछकम आधेभागप्रमाण कृप्टियोकी प्रथम स्थिति है। _ विशेषार्थ-अनिवृत्तिकरण कालके क्षीण होनेपर अनन्तर समयमे ही वह गुमष्टि वेदकरूपसे परिणमकर सूक्ष्मसाम्परायिकगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । प्रथम नगयवती सूक्ष्मसाम्परायिक सयतजीव उसी समय दूसरी स्थितिमेसे कृष्टिगत नागपुजा अपकर्षण भागहारके द्वारा अपकर्षणकर उदयादि श्रेणिरूपसे अन्तर्मुहूर्त भागामा निये हुए प्रथमस्थितिका विन्यास करता है। बादर लोभकी प्रथमस्थिति, गान्त लोभ येस काल के साधिक दो वटा तीन (३) भागप्रमाण होती है। कुछकम जमा धनागप्रमाण मूक्ष्ममाम्परायकी प्रथमस्थितिका विन्यास होता है। यहां की
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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