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________________ ३० । क्षपणासार [ गाथा २९ इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होने पर मोहनीयकर्मका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होता है । यहा छह कर्मोंका स्थितिबन्ध पल्य के सख्यातवेंभागमात्र है ऐसे बीसीय, तीसीय और मोहनीयका पल्यमात्र स्थितिबन्ध होनेका क्रम जानना तथा इसके अनन्तर जब मोहनीयकर्मका पल्यके संख्यातबहुभागवाला एक स्थितिबन्धापसरण होता है तब सातो ही कर्मोका स्थितिबन्ध पल्यके सख्यातवेंभागमात्र हो जाता है यहां नामगोत्रका स्तोक उससे तीसीयकर्मोंका सख्यातगुणा और उससे मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सख्यातगुणा जानना । इस अनुक्रमसे संख्यातहजार स्थितिबन्ध होनेपर नाम व गोत्रकर्मका दूरापकृष्टि' नामक पल्यके संख्यातवेभागवाला अन्तिम स्थितिबन्ध होता है । इसके अनन्तर पल्यका असख्यात बहुभागमात्र एक स्थितिबधापसरण होनेसे जब वाम व गोत्रका पल्यके असंख्यातवेभागमात्र स्थितिबन्ध होता है वहां अन्यकर्मोका पल्यके सख्यातवेंभागमात्र ही स्थितिबन्ध है, क्योकि दूरापकृष्टिका उलघन होनेसे इनके स्थितिबन्ध पल्यके सख्यातवेंभागप्रमाण और स्थिति बन्धापसरण पल्यके सख्यातबहुभाग १. सखेज्जसहस्समेत्तेसु ठिदिखडएसु गदेसु तदो हेट्ठा दूरयरमोइण्णस्स दूरावकिट्टिसपिणद सव्व पच्छिम पलिदोवमस्स सखेज्जभागपमाण ठिदिसतकम्ममवसिठ्ठ होदि । किं कारणमेदस्स ठिदिविसेसस्स दूरावकिट्टिसण्णा जादा त्ति चे? पलिदोवमट्ठिदिसतकम्मादो सुठु दूरयरमोसारिय सव्वजहण्णपलिदोवमसखेज्जभागसरुवेणावट्ठाणादो । पल्योपमस्थितिकर्मणोऽधस्तादूरतरमपकृष्टत्वादतिकृशत्वाच्च दूरापकृष्टिरेषा स्थितिरित्युक्त भवति । अथवा दूरतरमपकृष्यतेऽस्याः स्थितिकरण्डकमिति दूरापकृष्टिः । इत. प्रभृत्यसख्येयान् भागान् गृहीत्वा स्थितिकाण्डकघातमाचरतीत्यतो दूरापकृष्टिरिति यावत् । अर्थात् सख्यातहजार स्थितिकाण्डकोके जानेपर उससे नीचे बहुत दूर गये हुए जीवके दूरापकृष्टि सज्ञावाला सबसे अन्तिम पल्योपमके संख्यातर्वेभागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । शंकाः-इस स्थितिकी दूरापकृष्टि सज्ञा किस कारणसे है ? समाधान:-क्योकि पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे अन्यन्त दूर उतरकर सवसे जघन्य पल्योपमके सख्यातभागरूपसे इसका अवस्थान है । पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे नीचे अत्यन्त दूरतक अपकर्षित की गई होनेसे और अत्यन्त कृश-अल्प होनेसे यह स्थिति दूरापकृष्टि है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अथवा इसका स्थितिकाण्डक अत्यन्त दूरतक अपकर्षित किया जाता है इसलिए इसका नाम दूरापकृष्टि है । यहासे लेकर असख्यातबहुभागोको ग्रहणकर स्थितिकाण्डकघात किया जाता है अत: यह दूरापकृष्टि कहलाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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