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________________ १४] लब्धिसार [ गाथा १६-१६ योग्य है, तथापि यहां इनकी बन्धव्युच्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होती, क्योंकि उन प्रकृतियोके वन्धयोग्य संक्लेशका उल्लंघनकर उनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोके वन्य की निमित्तभूत विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमे कोई विरोध नही। इन उपर्युक्त प्रकृतियोके वन्धसे व्युच्छिन्न होनेपर अवशिष्ट प्रकृतियोको सम्यक्त्वके अंभिमुख मिथ्यादृष्टिं तिर्यंच और मनुष्य तब तक वाधता है जबतक वह मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके चरमसमयको प्राप्त होता है । . उपर्युक्त ३४ बंधापसरणोंमे से चारोंगतिमें कौन-कौनसे बंधापसरणस्थान होते हैं सो कहते हैं रणरतिरियाणं ओघो भवणतिसोहम्मजुगलए विदियं । . तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥ - ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण. हीणया-होति । - रयणादिपुढविछक्के सणक्कुमारादिदसकप्पे -॥१७॥ ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा , प्राणद कप्पावरिमगेवेज्जतोत्ति ओसरणा ॥१८॥ . . .अर्थ-मनुष्य और तिर्यचोमें ओघ अर्थात् चौतीसबन्धापसरण होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलमे दूसरा, तीसरा, अठारहवां और तेईसवां आदि दश व अन्तिम ३४वा ये १४ वन्धापसरण होते हैं । रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथ्वियोमें और सनत्कुमार आदि दशकल्पो (स्वर्गों) में उपर्युक्त १४ बन्धापसरणोमे से १८वां वधापसरण नही होता. ( शेष १३ बन्धापसरण होते हैं .). मानतकल्पसे.लेकर उपरिम नौवे ग्रेवेयकपर्यन्त उपर्युक्त १३ स्थानोमे से दूसरा और २३वां बन्धापसरण नहीं होते (शेष ११ वन्वापसरण होते है। . विशेषार्थ:-प्रथमोपणमसम्यक्त्वके अभिमुख -मनुष्य व तिर्यंचोके पूर्वोक्त ३४ वापसरण होते है जिनमे ४६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । प्रथमोपणमसम्यक्त्वके अभिमुख देव तथा सातवे नरेकको छोड़कर शेष छह पृथ्वीके नारकी जीवोके १. ज. प. पु १२ पृ. २०४-२२५ । २ धपु ६ पृ १४० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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