SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ३११-३१२] क्षपणासार [ २५५ क्योकि उपशान्तकषायमें अवस्थित विशुद्धतारूप परिणाम रहता है । उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवे गुणस्थानका काल समाप्त होनेपर नियमसे उपशमकालका क्षय हो जाता है, अतः उपशान्तकषायसे पतन होता है । विशुद्धतामें हीनाधिकताके कारण पतन नहीं होता है, क्योकि वहां विशुद्धता अवस्थित है, हीनाधिक नही है । कालक्षयके अतिरिक्त अन्य भी कोई कारण पतनका नही है ।' ___ उपशान्तकषायसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें पाये जीवका कार्यविशेष ४ गाथाओमें कहते हैं सुहुमप्पविट्ठसमयेणब्रुवसामण तिलोहगुणसेढो । सुहुमद्धादो अहिया अवहिदा मोहगुणसेढो ॥३११॥ अर्थः-उपशान्तकषायके पश्चात् सूक्ष्मसाम्परायमे प्रविष्ट हुआ, वहां प्रथम समयमें नष्ट हो गया है उपशमकरण जिनका ऐसी अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनलोभको गुणश्रोणि प्रारम्भ होती है । इस गुणश्रेरिणायामका प्रमाण, अवरोहक सूक्ष्मसाम्परायकालसे एक प्रावलि अधिक है यहां मोहको गुण रिपका आयाम अवस्थितरूप है। विशेषार्थः-उपशान्तकषाय गुणस्थानसे गिरकर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को प्राप्त होनेके प्रथमसमयमें अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, सज्वलन इन तीन प्रकारके लोभका द्वितीय स्थितिसे अपकर्षण करके सज्वलनकी उदयादि गुणश्रेणि की जाती है। कृष्टिगत लोभ वेदककालसे विशेष अधिक कालवाला गुणश्रेणि निक्षेप है। दोप्रकार अर्थात् प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणलोभका भी उतना ही निक्षेप है, किन्तु उदयावलिसे बाहर निक्षेप होता है। तीनप्रकारके लोभका उतना-उतना ही निक्षेप है अर्थात् अवस्थित गुणश्रोणि है। उसी समय अर्थात् प्रथमसमय में ही तीनप्रकारका लोभ एकसमयमे हो प्रशस्तोपशामनाको छोड अनुपशान्त होजाता है ।' उदयाणं उदयादो सेसाणं उदयवाहिरे देदि । छण्हं बाहिरसेसे पुव्वतिगादहियणिक्खेओ ॥३१२॥ १ ज.ध. मल प. १८६१-६२। २. क पा सु पृ. ७१५, ज. ध मूल पृ १८६२; ध पु ६ पृ. ३१८ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy