SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ क्षपणासार [ गाथा ३१० ( अनुदय ) प्रकृतियोंका द्रव्य उदयावलिके बाहर तथा अन्तरायाममें गोपुच्छाकार श्रोणिरूपसे निक्षिप्त होते हैं। विशेषार्थः-देवोमे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रोध-मान-माया-लोभ इन चार कषायोमे से किसी एक कषायके अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनरूप भेद तथा पुरुषवेद, हास्य, रति इन उदयरूप प्रकृतियोके द्रव्यको और यदि भय व जुगुप्साका उदय हो तो उनके भी द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागके असख्यातलोकवे भागप्रमाण द्रव्यका उदयावलिमे दिया जाता है और शेष असख्यातलोक बहुभाग द्रव्य उदयावलिसे बाहर प्रथम निषेकसे लगाकर अवशेष :अन्तरायाममें, और उपरितन द्वितीय स्थितिमें चयहीन गोपुच्छाकार श्रेणिरूपसे देता है। उदयरहित नपुंसकवेदादिक मोहकी प्रकृतिके द्रव्यका अपकर्षण करके उसे उदयावलीमे न देते हुए उदयावलीसे बाह्य अन्तरायाम, उपरितन स्थितिमे विशेषहीन क्रमसे देता है। इसप्रकार अवशिष्टअन्तर पूरा जाता है अर्थात् जो अवशिष्ट अन्तररूप निषेक रहे थे उनमे द्रव्यका निक्षेपण होनेसे उनका सद्भाव हो जाता है । ___अब उपशान्त-कालक्षयके कारण उपशान्तकषायगुणस्थानसे गिरनेका कथन करते हैं अद्धाखए पडतो अधापवत्तोत्ति पडदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि हु सो संकि लिस्संतो॥३१०॥ अर्थः-उपशान्तकालका क्षय होनेसे गिरनेपर अध प्रवृत्ततक क्रमसे गिरता है, विशुद्ध परिणामोसे पुन श्रेणिपर चढ़ता है और सक्लेश परिणामोसे उससे भी नीचे गिरता है। विशेषार्थः-अन्तर्मुहूर्तमात्र अर्थात् दो क्षुद्रभवप्रमाण उपशान्तकषाय नामक बारहवे गुणस्थानका काल है, उसकालमे अवस्थित परिणामवाला रहता है, किन्तु उमकालका अन्त हो जानेपर सूक्ष्मसाम्पराय होकर अनिवृत्तिकरण होता है, पीछे अपूर्वकरण होकर अव प्रवृत्तकरण अप्रमत्त हो जाता है । इसप्रकार अध प्रवृत्तकरण तक क्रमश पतन होता है । तत्पश्चात् प्रमत्त होकर विशुद्ध परिणामोसे पुनः श्रेणिपर चढ़ता है, किन्तु सक्लेश परिणामोके द्वारा अधःप्रवृत्तकरणसे भी गिरता है। उपप्रान्तकवायमे चढना या गिरना विशुद्ध व सक्लेश परिणामोके निमित्तसे नही होता,
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy