SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ३६ j বগাভাষ [ ३९ इसप्रकार अपूर्व करणगुणस्थानसम्बन्धी क्रियाको करके अनिवृत्तिकरणगुणस्थान प्रविष्ट होकर, वहां भी अनिवृत्तिकरणकालके सख्यातबहुभागको अपूर्वकरणके समान स्थितिकाण्डक घातादि विधिसे बिताकर अनिवृत्तिकरणके काल में सख्यातवांभाग शेष रहनेपर स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति आदि नामकर्मकी १३ ऐसे उपयुक्त १६ प्रकृतियों का क्षय करता है। पश्चात् अन्तमुहूर्त व्यतीत करके प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी क्रोध-मान-माया और लोभ इन आठ प्रकृतियोका एक • साथ क्षय करता है। यह सत्कर्मप्राभृतका उपदेश है, किन्तु कषायप्राभृतका उपदेश तो इसप्रकार है कि पहले आठकषायोंके क्षय हो जानेपर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्मप्रकृतियां क्षयको प्राप्त होती है । ये दोनो ही उपदेश सत्य है ऐसा कितने हो आचार्योका मत है, किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योकि उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है तथा दोनों कथन प्रमाण हैं यह वचन भो घटित नही होता है, क्योंकि "एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिए" ऐसा न्याय है। शंका:-नानाजीवोके नानाप्रकारकी शक्तियां सम्भव है; इसमें कोई विरोध नहीं आता है। अतः कितने ही जीवोंके याठ कषायोके नष्ट हो जानेपर तदनन्तर सोलहकर्मोके क्षय करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। इसलिए उनका आठकषायोंका क्षय हो जाने के पश्चात् सोलहकर्मों का क्षय होता है, क्योंकि "जिस क्रमसे कारण मिलते है - उसी क्रमसे कार्य होता है" ऐसा न्याय है तथा कितने ही जीवोंके पहले सोलहकर्मोके : क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है तदनन्तर आठ कषायोके क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है । * इसलिए पहले १६ कर्मप्रकृतियां नष्ट होती हैं पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्त के व्यतीत होनेपर ४ आठकषायें नष्ट होती हैं अतः पूर्वोक्त दोनों उपदेशोमे कोई विरोध नही आता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । . समाधानः-किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योंकि अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवाले जितने भी जीव है वे सब अतीत, वर्तमान और भविष्यकालसम्बन्धी पाकिसी एकसमयमे विद्यमान होते हए भी समान-परिणामवाले ही होते हैं इसीलिए उन जीवोकी गुणश्रेणी निर्जरा भी समानरूपसे ही पाई जाती है। यदि एकसमयस्थित अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवालों को विसदृश परिणामवाला कहा जाता है तो जिसप्रकार एकसमयस्थित अपूर्वकरणगुणस्थानवालोके विसदृश परिणाम होते है अतएव उन्हे अनि
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy