SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा ७५] क्षपणासार शङ्का:--पूर्वस्पर्धकोंके अनुभागको अपवर्तनके द्वारा अनन्तगुणोहीन करके यदि अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं तो उनको कृष्टिसंज्ञा क्यों नहीं दी गई ? समाधानः--जिनकी उत्तरोत्तर वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद क्रमसे विशेषअधिक या हीन होते हैं तो उनकी स्पर्धक संज्ञा है, किन्तु कृष्टियोंमें अनन्तगुणी वृद्धिहानिका क्रम होता है । अनन्तगुणी वृद्धि व हानिका उत्तरोत्तरक्रम अपूर्वस्पर्धकोंमें नहीं पाया जाता अतः उनकी कृष्टिसज्ञा सम्भव नहीं है'। अनुभागस्पर्धक दो प्रकारके हैं-पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धक । पूर्वस्पर्धक वर्धमानक्रमसे हैं अर्थात् प्रथमपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयस्पर्धकमें अनुभाग बढ़ता हुआ है, द्वितीयसे तृतीयस्पर्धक में और तृतीयसे चतुर्थ में अनुभाग वृद्धिरूप है। अपूर्वस्पर्धकोंमें अनुभाग हीयमानक्रमसे हैं। प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे द्वितीयमें, द्वितोयसे तृतीयमें अनुभाग हीयमान है, यही क्रम सर्व अपूर्वस्पर्धकों में जानना चाहिए । ___ सर्व अक्षपक जीवोंके सभी कर्मोंके देशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणा तुल्य है । सर्वघातियोंमें भी केवल मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सर्वघातिकर्मोको आदिवर्गणा तुल्य है, इन्हीका नाम पूर्वस्पर्धक है। तत्पश्चात् वही प्रथमसमयवर्ती अवेदी जीव उन पूर्वस्पर्धकोंसे चारों सज्वलनकषायोके अपूर्वस्पर्धकोंको करता है उस समय क्षपकके जो डेढ़गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्ध हैं और पूर्वस्पर्धकोंमें यथायोग्य विभागके अनुसार अवस्थित हैं, उन्हें उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके प्रतिभागद्वारा असंख्यातवेंभागका अपकर्षणकरके अपूर्वस्पर्धक बनानेके लिये ग्रहण करता है । पुनः उन्हें अवन्तगुणितहानिके द्वारा हीनशक्तिवाले करके पूर्वस्पर्धकोके प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंके नीचे उनके अनन्तवेंभागमें अपूर्वस्पर्धक बनाता है। इसका अभिप्राय यह है कि प्रथमदेशघातिस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें जितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं उन अविभाग प्रतिच्छेदोके अनन्तवेंभागमात्र ही अविभागप्रतिच्छेद अपूर्वस्पर्धककी सबसे अन्तिम (आदि ?) वर्गणामे होते हैं । इन अपूर्वस्पर्धकोंका प्रमाण अनन्त है जो अभव्योसे अनन्तगुणा और सिद्धोके अनन्तवेभागप्रमाण है। १. ज० ध० मूल पृष्ठ २०२५ । २. वर्धमानं मतं पूर्व हीयमानमपूर्वक । स्पर्धकं द्विविधं ज्ञेयं स्पर्धकक्रमकोविद. ।। (अमितगति पचसंग्रह ११४६) ३. जयघवल मूल पृ० २०२५-२६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy