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________________ , ५२ ] लब्धिसार [ गाथा ६४ अर्थ-उसके पश्चात् अतिस्थापना एक-एक समय बढ़ते हुए प्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो जाती है, इसके पश्चात् निक्षेपावलिके असख्यातवेभ से उत्कृप्टनिक्षेप प्राप्त होनेतक बढता है। उत्कृष्टनिक्षेप-उत्कृष्टस्थितिको वाधकर वधावलि बीत जानेपर उस उत्कृष्टस्थितिके अन्तिमनिषकसम्बन्धी द्रव्यका अपकर्षणकरके उदयादि निषेकोमे निक्षेपण किया अर्थात् दिया । अनन्तर अगले समयमे द्वितीयत्रावलि के प्रथमनिषेकका उत्कर्षरण करनेके लिये उस अनन्तरसमयमें उत्कृप्टस्थितिस हेत वंधनेवाले कर्मकी उत्कृष्ट आबाधाको प्रतिस्थापना कर प्रथमादि निषेकोमे निक्षेपण होता है, किन्तु अन्तके एक समयाविक प्रावलिप्रमाण निपेकोमे निक्षेपण नही होता। अत एकसमयअधिक आवली और आबाधाकाल इन दोनोसे न्यून उत्कृष्टस्थितिप्रमाण उत्कृष्टनिक्षेप है'। . विशेषार्थ-तदनन्तर एकसमयाधिक स्थितिवन्धके होनेपर निक्षेप उतना ही रहता है, किन्तु अतिस्थापना वृद्धिको प्राप्त होती है । शका-ऐसा क्यो है ? समाधान-क्योकि सर्वत्र प्रतिस्थापनाकी वृद्धिपूर्वक ही निक्षेपकी वृद्धि देखी जाती है। . शंका-किन्तु वह अतिस्थापनाकी उत्कृष्टवृद्धि कितनी होती है ? समाधान-प्रतिस्थापनाके एक प्रावलिप्रमाण होनेतक उसकी वृद्धि होती रहती है। स्थितिबन्धकी वृद्धिके साथ वह जघन्यप्रतिस्थापना एक-एक समयाधिकके क्रमसे वढती हुई पूरी एक प्रावलिप्रमाण उत्कृष्ट प्रतिस्थापनाके प्राप्त होनेतक बढती जाती है। शंका-इससे आगे भी अतिस्थापना क्यों नही बढाई जाती है ? समाधान नही, क्योकि , परमप्रकर्षको प्राप्त हो जानेपर फिर उसकी वृद्धि होनेमे विरोध आता है। उसके आगे उत्कृष्टनिक्षेपके प्राप्त होनेतक निक्षेपकी वृद्धि होती है । यहांपर पूर्वमे विवक्षित सत्कर्मकी अग्रस्थितिके उत्कृष्ट निक्षेपकी वृद्धि एक-एक समयअधिकके १. ज.ध.पु ८ पृ २५६-२६१।। २. ज. घ. पु ८ प २६० । -
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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