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क्षपणासार
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[गाथा ६३-६५ प्रतिच्छेद दुगुणे आदि हैं । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं ।
विशेषार्थः- अश्वकर्णकरणके अन्तिमसमयमे लोभकषायकी प्रथमअपूर्वस्पर्धकसम्बन्धी आदिवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेद स्तोक हैं । द्वितीय अपूर्वस्पर्धककी प्रथमवर्गणामे अविभागप्रतिच्छेद दुगुणे और तृतीयस्पर्धकको प्रथमवर्गणाम अविभागप्रतिच्छेद तिगुणे हैं। इसप्रकार प्रथमस्पर्धककी प्रथमवर्गणासम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे जितनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदानका संकल्प हो उतनवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणामें प्रथमस्पर्धकसम्बन्धी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदाग्रसे उतनागुणा अविभागप्रतिच्छेदाग्र होता है । इसप्रकार अनन्तस्पर्धक चढनेपर अनन्तवें स्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदानका गुणाकार अनन्त है । अन्तिमस्पर्धककी प्रथमवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं, यह कथन एकपरमाणुसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदकी अपेक्षा किया गया है सर्वपरमाणुकी अपेक्षा किंचित्ऊन दुगुणा तिगुणा आदि क्रम लिये है, क्योंकि प्रतिवर्गणामें परमाणुकी सख्याहीन होती जाती है । इसीप्रकार माया, मान और क्रोधके अपूर्वस्पर्धकोंमे अविभागप्रतिच्छेदसम्बन्धी अल्पबहुत्व जानना चाहिए'। .
'आदोलस्स य पढमे रसखंडे पाडिदे अपुव्वादो। कोहादी अहियकमा पदेसगुणहाणिफड्ढया तत्तो ॥३॥४८४॥ होदि असंखेनगुणं इगिफड्ढयवग्गणा अणंतगुणा । तत्तो अणंतगुणिदा कोहस्स अपुव्वफड्ढयाणं च ॥६४॥४८५॥ माणादीणहियकमा लोभगपुव्वं च वग्गणा तेसि । कोहोति य अठ्ठपदा अणंतगुणिदक्कमा होति ॥६५॥४८६॥
अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथम अनुभागखण्डके पतित होनेपर क्रोधादिके अपूर्वस्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे हैं। प्रदेशगुणहानिके स्पर्धक उससे १. जयश्वल मूल पृ० २०४१ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ७६६-६७ सूत्र-५५८ से ५७७ । धवल पु० ६ पृ० ३७३ । जयधवल मूल पृष्ठ
२०४२-२०४३।