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________________ ६६ ] लेब्धिसार [ गाथा ८०-८१ ___ अब शुभ-अशुभप्रकृतियों में अनुभागकाण्डकघातका निषेध-विधिरूप कथन करते हैं असुहाणं पयडीणं अणंतभागा' रसस्त खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा णस्थि त्ति रसस्त खण्डाणि ॥२०॥ अर्थ-अप्रशस्त प्रकृतियोके अनन्तबहुभागका धात होता है । प्रशस्त प्रकृतियो के अनुभाग का घात नियम से नहीं होता। विशेषार्थ-अप्रशस्तप्रकृतियो के तत्कालभावी द्विस्थानीय अनुभागसत्त्व को अनन्तका भाग देने पर एक भाग तो अवशेष रहता है और शेप बहुभाग अनुभागकाडक द्वारा घाता जाता है । अवशेष रहे अनुभागको अनन्तका भाग देने पर वहुभाग अनुभागका घात होता है और एक भाग शेष रह जाता है, क्योकि करण परिणामो के द्वारा अनन्त बहुभाग अनुभाग घाते जानेवाले अनुभागकाडकके शेष विकल्पो का होना असम्भव है। प्रशस्त प्रकृतियो का अनुभागकाडकघात नियम से नही होता, क्योकि विशुद्धिके कारण प्रशस्त प्रकृतियोका अनुभाग, वृद्धिको छोड़ कर उसका घात नही वन सकता। एक-एक अन्तर्मुहूर्त मे एक-एक अनुभागकाडक होता है। एक अनुभागकाडकोत्कीरण काल के प्रत्येक समयमे एक-एक फालिका पतन होता है । अनुभागगतस्पर्धक आदिका अल्पबहुत्व कहते हैंरसगदपदेसगुणहाणिट्ठाणगफड्याणि थोवाणि । अइत्थावणणिक्खेवे रसखंडेणंतगुणिदकमा ॥१॥ अर्थ-अनुभागसम्बन्धी एकप्रदेश गुणहानिस्थानान्तरमे स्पर्धक स्तोक है । उनसे प्रतिस्थापना अनन्तगुणी है, उससे निक्षेप अनन्तगुणा और उससे अनन्तगुणा अनुभागकाडक है। विशेषार्थ- अनुभागविषयक एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर के भीतर जो स्पर्द्धक है वे अभव्यो से अनन्तगुणे और सिद्धो के अनन्तवभागप्रमाण होकर आगे कहे जाने वाले पदो की अपेक्षा स्तोक है । अनुभागसम्बन्धी स्पर्धको का अपकर्षण करते हुए १ क पा. सुत्त पृ. ६२५ । २. ज ध पु १२ पृ २६१ से २६३; घ. पु ६१ २०६; घ पु १२ पृ १८ एव ३५ आदि ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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