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________________ गाथा ७६ ] लब्धिसार [ ६५ गुणा हीन होता है । एक अनुभागकाण्डकोत्कीरणकालका स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमे भाग देनेपर सख्यातहजार सख्या प्राप्त होती है। पुनः इस सख्याका विरलनकर प्रथमस्थितिकाण्डकोत्कीरण कालके समान खण्ड करके प्रत्येक विरलन अंक के प्रति देयरूप से देने पर वहां एक-एक अकके प्रति अनुभागकाडकके उत्कीरणकालका प्रमाण प्राप्त होता है, पुन यहा पर एक अङ्कके प्रति जो प्राप्त हुआ उसका विरलन कर पृथक् स्थापित करना चाहिये । अब इसप्रकार का जो पृथक् विरलन स्थापित किया उसके प्रथम समयमे पल्योपमके सख्यातवेभाग प्रमाण आयामवाले प्रथम स्थितिकाडककी प्रथमफालिका पतन होता हैं। अनुभागकाडककी भी जघन्य स्पर्धक से लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक विरचित स्पर्धको की अनन्त बहुभागप्रमाण प्रथम फालि का वही पर पतन होता है । पृथक् स्थापित हुए उसी विरलनके दूसरे समय मे उसी विधि से स्थितिकीडक की दूसरी फालिका तथा अनुभागकाडक की दूसरी फालि का पतन होता है । इसप्रकार पुनः पुनः उन दोनो को ग्रहण करनेसे पूर्वोक्त विरलनके एक-एक अक प्रति समयका जितना प्रमाण प्राप्त हुआ था, तत्प्रमाण फालियो का पतन होने पर प्रथम अनुभागकाडक सम्राप्त हो जाता है, किन्तु प्रथमस्थितिकाडक अभी भी समाप्त नही हुआ, क्योकि उसके उत्कीरणकालका सख्यातवाभाग ही व्यतीत हुआ है । पुन इसी विधि से शेष विरलनो के प्रति प्राप्त सख्यातहजार अनुभागकांडकोका घात करने पर उस समय अपूर्वकरणसम्बन्धी प्रथम स्थितिबन्ध (प्रथमस्थितिबन्धापसरण). प्रथमस्थितिकाडक और यहा तक के सख्यातहजार अनुभागकाडक ये तीनो ही एक साथ समाप्त होते है। इसप्रकार एकस्थितिकाडक के भीतर हजारो अनुभागकाडकघात होते है यह सिद्ध हुआ' । स्थितिकाडक को चरमफालि के पतनकाल मे ही सर्वत्र स्थितिबन्ध समाप्त हो जाता है, क्योकि स्थितिकाडकोत्कीरणकाल के साथ स्थितिबन्धका काल समान होता है उसी समयमे तत्सम्बन्धी अन्तिम अनुभागकाडक की अन्तिमफालि भी नष्ट होती है, क्योकि अनुभागकाडकोत्कीरणकाल से अपवर्तन किये गये स्थितिवन्ध के काल मे विकलरूपता नही हो सकती। १. २ ज.ध. पु. १२ पृ. २६६-२६८ । ध. पु ६ पृ. २२६ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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