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________________ लब्धिसार [ गाथा ७६ ६४ ] प्रमाण स्थितिका अपूर्वकरण-विशुद्धि-निमित्तक सहस्रों स्थितिकांडकोके द्वारा घात होने पर उसके अन्तिमसमयमे सख्यातवेभागमात्र ही स्थितिकर्म शेष रहता है । अब अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर चरमसमयतक जितने सागरोपम स्थितियोका घात हुआ है वह सव त्रैराशिकके द्वारा प्राप्त हो जाता है । तत्प्रायोग्य सख्यात संख्या प्रमाण स्थितिकाडकोका यदि एक. पल्योपम प्राप्त होता है तो इनसे संख्यातहजारकोटिगुणे स्थितिकाण्डकोमे कितने पल्योपम प्राप्त होगे ? इसप्रकार त्रैराशिकसे स्थितिकाण्डक स्थितिकाण्डकके सदृश है अत. उनका अपनयन करके अधस्तन सख्यात सख्यासे उपरितन सख्यात सख्याको भाजित करनेसे जो लब्ध आवे उससे पल्योपमको गुणा करनेपर स्थितिकाण्डकसम्बन्धी गुणाकारके माहात्म्यसे सख्यातकोडाकोड़ीप्रमाण पल्योपम प्राप्त होते है । पुन इन सख्यातकोडाकोडी पल्योपमोको त्रैराशिकविधिसे सागरोपमप्रमाणसे करनेपर सख्यातकोटिप्रमाण सागर होते हैं। इतने होते हुए भी अपूर्वकरणके प्रथमसमयमे विवक्षित अन्त.कोडाकोडीके सख्यातबहुभागप्रमाण होते हैं, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए, अन्यथा अपूर्वकरणके प्रथमसमयसम्बन्धी स्थितिसत्कर्मसे अतिमसमयका स्थितिसत्कर्म सख्यातगुणाहीन नही बन सकता। स्थितिवन्यापसरणके विषयमे भी इसीप्रकारकी योजना करनी चाहिए'। . अब अनुभागकाण्डकघातका कथन करते हैंएक्केक्कढिदिखंडयणिवडणठिदिबंधमोसरणकाले । संखेज्जसहस्साणि य णिवडंति रसस्स खंडाणि ॥७॥ अर्थ-एक स्थितिकाण्डकके पतनकालमे अथवा एक स्थितिवन्धापसरणकालमे संख्यातहजार अनुभागकाडकोंका पतन होता है । ' विशेषार्थ- अपूर्वकरणमे प्रथम स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल और प्रथम स्थितिवन्धका काल अर्थात् स्थितिबन्धापसरणकाल अन्तर्मुहूर्त होकर परस्पर तुल्य होते हैं । इसीप्रकार द्वितीयादि स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धापसरण (स्थितिबन्ध) काल परस्पर तुल्य हैं । एक स्थितिकाडक में हजारो अनुभागकाण्डकोंका घात होता है, क्योकि स्थितिकाडकोत्कीरणकाल से अनुभाग काण्डकोत्कीरण काल सख्यात१. जप पु. १२ पृ. २६९-७० । २. क पा सुत्त पृ ६२५ ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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