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________________ गाथा ४३-४४] क्षपणासार [ ४५ विशेषार्थ:-जिससमय अन्तरकरणका आरम्भ होता है उसीसमय पूर्व के स्थितिबन्ध, स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डक समाप्त हो जाने के कारण अन्य स्थितिबन्धको असख्यातगुणहानिरूपसे आरम्भ होता है और अन्य स्थितिकाण्डक पल्यके असंख्यातवेंभागप्रमाणसे और अनुभागकाण्डक अनन्त बहुभागरूपसे होता है। हजारों अनुभागकाण्डकोके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकाण्डक, वही स्थितिकाण्डक, वही स्थितिबन्ध और अन्तरका उत्कीरणकाल एक साथ सम्पन्न होते हैं, क्योंकि तत्काल होनेवाले स्थितिबन्ध और स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालके समान अन्तरकरणोत्कीरणकाल होता है अर्थात् अन्तररूप निषेकोके द्रव्यको फालिरूपसे ग्रहणकर अन्य निषेकोंमें देता है। फालियां अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती हैं, फालियोंके द्वारा द्रव्य असंख्यातगुणित क्रमसे ग्रहण होता है । अतर करनेवाला जीव जिनकर्मोको बांधता है और वेदता है उन कर्मोकी अंतरस्थितियोमेसे उत्कीर्ण होनेवाले प्रदेशपुञ्जको अपनी प्रथमस्थितिमें निक्षिप्त करता है और आबाधाको छोड़कर द्वितीयस्थिति में भी निक्षिप्त करता है, किन्तु अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में निक्षिप्त नही करता है, क्योंकि उनके कर्मपुञ्जसे स्थितियां रिक्त होनेवाली हैं अत: उन में निक्षेप होने का विरोध है । (जब तक अन्तरसम्बन्धी द्विचरमफालि है तव तक स्वस्थानमें भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिस्थापनावलिको छोड़कर अन्तरसम्बन्धी स्थितियोमें प्रवृत्त रहता है ऐसा कितने हो आचार्य व्याख्यान करते हैं, किन्तु सूत्र में इसप्रकारको सम्भावना स्पष्टरूपसे निषिद्ध है। जो कर्म न बघते हैं और न वेदन किये जाते हैं ऐसी छह नोकषायों के उत्कीर्ण होने वाले प्रदेशपूजको अपनी स्थितियोमें नहीं देता, किन्तु बन्धनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थिति में बन्धके प्रथम निषेकसे लेकर उत्कर्षण द्वारा सीचता है । बंधनेवाली और नही बधनेवाली जिन प्रकृतियोकी प्रथमस्थिति है उनमें भी यथासम्भव अपकर्षण और परप्रकृतिसमस्थितिसक्रम द्वारा सीचता है, किन्तु स्वस्थानमे निक्षिप्त नही करता है । जो कर्म बन्धते नहीं, किन्तु वेदे जाते हैं जैसे स्त्रीवेद और नपु सकवेद, उनकी अन्तरसम्बन्धी स्थितियों के प्रदेशपूञ्जको ग्रहण कर अपनी-अपनी प्रथमस्थिति में अपकर्षण और परप्रकृतिसक्रमण द्वारा आगमानुसार निक्षिप्त करता है तथा बन्धकी द्वितीयस्थिति में उत्कर्षणकरके सिंचित करता है । जो कर्म केवल बन्धको प्राप्त होते हैं वेदे नहीं जाते जैसे परोदयकी विवक्षामै पुरुषवेद और अन्यत्र संज्वलनका उनको अन्तरसम्बन्धी स्थितियों में से उत्कीर्ण होनेवाले
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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