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________________ 71 गाथा १५]] लब्धिसार ... अर्थ-आयुबन्धयुच्छित्ति स्थानोंके पश्चात् क्रमश नरकद्विक, सूक्ष्मादि तीन, सूक्ष्मादि दो व प्रत्येक, बादर-अपर्याप्त-साधारणे, बादर-अपर्याप्त प्रत्येक, अपर्याप्तद्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-वीन्द्रिय, अपर्याप्तचतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त-असज्ञी-पचेन्द्रिय, अपर्याप्तसज्ञीपचेन्द्रिय ॥११॥ आठ पदोमें अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोड़ना चाहिएं, किन्तु चतुर्थपद एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर भी मिलाना चाहिए । अर्थात् ( पूर्वोक्त छठे पदंसें १३वे पदतक ८ पदोमे अपर्याप्तके स्थानपर पर्याप्त जोडना चाहिए)। तिर्यञ्चद्विक व उद्योत, नीचगोत्रं, अप्रशस्तविहायोगति और दुर्भगादि तीन (' दुर्भग-दुःस्वर-अनादेयं, हुण्डसस्थान-सृपाटिकासंहनन, न सकवेद, वामनसस्थान व कीलितसहर्नन । कुजसंस्थानअर्धनाराचसहनन, स्त्रीवेद, स्वातिसस्थान-नाराचसहनन, न्यग्रोधसंस्थान-वज्रवाराच' सहनन, मनुष्यगतिद्विक (मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वी )-औदारिककि (ौदारिक शरीर-ग्रौदारिकअंङ्गोपाङ्ग)-वज्रर्षभनाराचसहनन । अस्थिर-अंशुभ-अयश कीति परति शोक व असातावेदनीयकी बन्धव्युच्छित्ति होती है । ये ३४ 'बन्धापसरणस्थान भव्य वं अभव्यके समानरूपसे होते है ।। . . . . . . . . शिवाय सात-आठसा सागरापमत हान . अन्त कोडाकोडीसागरप्रमाण स्थितिको जिससम्य बाधने लगता है उससमय एक नरकायु प्रकृति 'बन्धसे. व्युच्छिन्न. होती हैं, उससे सांगरोपमशत पृथक्त्व नीचे अपसरणकरके तिर्यञ्चायुकी 'बधुव्युच्छिति होती है, उससे सांगरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर मनुष्याँयुकां बन्धव्युच्छेद होता है. तथा उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे 'उतरकर देवायुको बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन दोनो प्रकृतियोंका एकसाथै "बन्धव्युच्छेद होता हैं, उससे ' सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बादरअपर्याप्त-साधारणशरीर परस्परसयुक्त इन तीनो प्रकृतियोका युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है, उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येक परस्पर सयुक्त इन तीन प्रकृतियोका "बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे उतरकर बादर-अपर्याप्त-साधारणशरीर परस्पर संयुक्त इन तीन प्रकृतियोका बन्धव्युच्छेद होता है । उससे सागरोपमशतपृथक्त्व नीचे जाकर परस्परसयुंक्त बादर-अपर्याप्त-प्रत्येकशरीर इन तीनो प्रकृतियोकी एकसाथे बन्धव्युच्छित्ति होती है। उससे सागरोपमंजतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त द्वीन्द्रियजाति और अपर्याप्त इन दोनो प्रकृतियोका बंधव्युच्छेदं युगपत् होता है, उससे सागरोपमणतपृथक्त्व नीचे उतरकर परस्परसयुक्त ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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