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________________ १३८] क्षपणासार | गाथा १५५ अन्यकृष्टियों में नही, क्योकि संक्रमण आनुपूर्वीरूपसे होता है। क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्वस्थानस्वरूप क्रोधकी तृतीयकृष्टि में अपकर्षणभागहारसे संक्रमण करता है और परस्थानस्वरूप मानकी प्रथमसंग्रहकष्टि में अध प्रवृत्तसंक्रमण द्वारा सक्रमण करता है । क्रोधकी तृतीयसग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रको मानकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे सक्रमित करता है, क्योकि अन्यत्र संक्रमण असम्भव है । यहा भो अधःप्रवृत्तसंक्रमण होता है । पढमो विदिये तदिये हेटिम पढमे च विदियगो तदिये । हेट्ठिमपढमे तदियो हेट्ठिमपढमे च संकमदि ॥१५५॥५४६॥ अर्थ-विवक्षित कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य तो अपनी द्वितीय, तृतीय और अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे संक्रमण करता है, द्वितीयसग्रहकृष्टिका (विवक्षितकषायकी) द्रव्य अपनी तृतीय व अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है तथा (विवक्षितकषायकी) तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य अधस्तनवर्ती कषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि में ही सक्रमण करता है। [नोट--इस गाथाका सम्बन्ध गाथा १३१ से है] विशेषार्थ-यहां जिस कषायका वेदन कर रहा है उस विवक्षित कषायके अनन्तर जिस कषायका वेदन करेगा उसे अधस्तनवर्ती कषाय कहा गया है। क्रोधकी द्वितीयसग्रहकष्टिके प्रदेशसमूहका क्रोधकी तृतीय व मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है, क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में ही सक्रमित करता है । मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी द्वितीय-तृतीय व मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे संक्रमित करता है, मानकषायको द्वितीयसग्रहकृष्टिके द्रव्यका मानको तृतीय व मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है और मानकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमे ही संक्रमित करता है। मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टि के द्रव्यका संक्रमण मायाकी द्वितीय-तृतीय व लोभकी प्रथमसग्रहकृष्टिमे होता है, माया कषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य मायाकी तृतीय व लोभ १. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३ । २. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ से ११५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८६-६० ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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