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________________ २६८ क्षपणासार -गाथा-३६६ कांडकोत्कोरण- जानना और मोहनीयकर्मका अन्तर- करते हुए अन्तिम अनुभाग काण्डकोत्कोरणकाल जानना (१) । इससे उत्कृष्ट अनुभाग काण्डकोत्कीरणकाल विशेष अधिक है सो यह भी सर्व कर्मोके आरोहक-अपूर्वकरणके प्रथमसमयमें सम्भव है (२) । इससे सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम अवस्थामें पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि कर्मोका जघन्य स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल और अनिवृत्तिकरणको अन्तिम अवस्थामे मोहनीयकर्मका जघन्य स्थितिबन्धकाल सख्यातगुणा' है तथा दोनों परस्पर समान हैं (३)। अनिवृत्तिकरणके अन्तिमसमयके पश्चात् मोहनीयकर्मका स्थितिवन्ध नही होता।" पडणजहरणट्ठिदिबंधद्धा तह अंतरस्स करणद्धा । जेहिदिबंधठिदीउक्कीरद्धा य अहियकमा ॥३६६॥ : - अर्थः-इससे गिरते हुएका जघन्य स्थितिबन्धकाल विशेष अधिक है (४)। 'इससे अन्तर करनेका विशेष अधिक है (५)। इससे उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल व उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल दो तुल्य होकर विशेष अधिक है (६) । - विशेषार्थः-उससे अवरोहकके सूक्ष्मसाम्परायमें ज्ञानावरणादि कर्मोका प्रथमस्थितिवन्ध और अवरोहकके अनिवृत्तिकरणमे मोहनीयकर्मका प्रथमस्थितिबन्ध विणेप अधिक है, क्योकि चढनेवाले के स्थितिबन्ध कालसे उतरनेवालेका स्थितिबन्धकाल विशेप अधिक होता है, इसमे कारण सक्लेश परिणाम हैं.। अवरोहकके सभी अवस्थानोमे स्थितिघात व अनुभागधात नही होता। यदि होता है तो स्थितिबन्धकालके साथ स्थितिकाण्डोत्कोरंणकालको भो कहना चाहिए और ऐसा नही, क्योकि ऐसा अनुपदिष्ट है (४)। उससे अन्तरकरणका काल अर्थात् अन्तरकी फालियोका उत्कीरणकाल तथा वहापर होने वाला स्थितिकाण्डकोत्कीरणकाल व स्थितिबन्धकाल १. इनका पूर्व वाले से अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकोत्कोरण कालसे संख्यातगुणत्व असिद्ध भी नहीं है, क्योकि सर्वजघन्य एक स्थितिकाण्डकोत्कीरणकालमें भी संख्यात सहस्र प्रमाण अनुभागखण्ड फे अस्तित्वके उपदेशके बलसे इसकी सिद्धि हो जाती है । (ज ध' मूल पृ. १९२६) २. जयघवल मूल पृ० १९२६ । ३. जयवदल मूल पृ० १६२६, १९१३, १६३७ प्रादि ।
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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