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________________ शब्द पृष्ठ ( १२ ) परिभाषा करगोपशामना के भी दो भेद हैं-- देश करगोपशामना और सर्वकरगोपशामना । प्रणस्तोपशमनादि करणो के द्वारा कर्म प्रदेशो के एक देश उपशान्त करने को देशकरगोपशामना कहते हैं । सर्व करणो के उपशमन को सर्व करगोपशामना कहते हैं । अर्थात् उदीरणा, निर्धात्ति, निकाचित आदि ग्राठो करणो का अपनीपनी क्रियाओ को छोड़कर जो प्रशस्तोपशामना के द्वारा सर्वोपशम होता है, उसे सर्व करगोपशामना कहते है । कषायो के उपशमन का प्रकरण होने से प्रकृत मे यही सर्व करगोपशामना विवक्षित है । क० पा० सु० पृष्ठ ७०६ विस्तार इसप्रकार है- उपशामना दो प्रकार की होती है— करणोपशामना और अकरणोपशामना । उनमें से सर्व प्रथम उपशामना पद की व्याख्या करते हुए जय बबला मे (पृष्ठ १८७१ - ७२) बताया है कि उदयादि परिणामो के विना कर्मों का उपशान्त भाव से अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है । यहा "उदयादि परिणामो के विना" का अर्थ यह कि किसी भी कर्म का बन्ध होने पर विवक्षित काल तक उदयादि के बिना तदवस्थ रहना इसका नाम उपशामना है । यह उपशामना का सामान्य लक्षण है जो यथासम्भव कररगोपशामना और प्रकरणोपशामना दोनो मे घटित होता है । जय घवला मे कहा है कि प्रशस्त प्रशस्त परिणामो के द्वारा कर्म प्रदेशो का उपशमभाव से सम्पादित होना करगोपशामना है अथवा करणो की उपशामना का नाम कररगोपशामना है । उपशामना, निवत्त, निकाचना श्रादि नाठ करणो का प्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करगोपशामना है । अथवा अपकर्षरण आदि करणो का अप्रशस्त उपशामना द्वारा उपशम होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इससे भिन्न लक्षण वाली प्रकरणोपशामना है । प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामो के बिना जिन कर्म प्रदेशो का उदय काल प्राप्त नही हुआ है उनका उदयरूप परिणाम के विना अवस्थित रहना अकरगोपशामना (अनुदीर्णोपशामना) है । यह उक्त कथन का तात्पर्य है । ( जयघवला पृष्ठ १८७२ प्रथम पेरा ) परन्तु देशकरगोपशामना मे प्रप्रशस्त परिणामो की निमित्तता है । कहा भी हैससार के योग्य अप्रशस्त परिणाम निमित्तक होने से यह (देश करगोपशामना ) प्रशस्त उपशामना कही जाती है । यह ससार प्रायोग्य श्रप्रशस्त परिणाम निमितक होती है यह प्रसिद्ध नही है क्योकि श्रत्यन्ततीव्र सक्लेश से ही अप्रशस्त उपशामना, निघत्त और निकाचना करणो की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा क्षपक
SR No.010662
Book TitleLabdhisara Kshapanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mukhtar
PublisherDashampratimadhari Ladmal Jain
Publication Year
Total Pages656
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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